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Submitted by Editorial Team on Tue, 10/04/2022 - 16:13
कूरम में पुनर्निर्मित समथमन मंदिर तालाब। फोटो - indiawaterportal
परम्परागत तालाबों पर अनुपम मिश्र की किताब ‘आज भी खरे हैं तालाब’, पहली बार, वर्ष 1993 में प्रकाशित हुई थी। इस किताब में अनुपम ने समाज से प्राप्त जानकारी के आधार पर भारत के विभिन्न भागों में बने तालाबों के बारे में व्यापक विवरण प्रस्तुत किया है। अर्थात आज भी खरे हैं तालाब में दर्ज विवरण परम्परागत तालाबों पर समाज की राय है। उनका दृष्टिबोध है। उन विवरणों में समाज की भावनायें, आस्था, मान्यतायें, रीति-रिवाज तथा परम्परागत तालाबों के निर्माण से जुड़े कर्मकाण्ड दर्ज हैं। प्रस्तुति और शैली अनुपम की है।

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Submitted by Shivendra on Sat, 11/15/2014 - 10:40
Source:
सर्वोदय प्रेस सर्विस, नवंबर 2014
swatch bharat
स्वच्छ भारत अभियान या सफाई के कार्यक्रम का स्वागत इसलिए करना चाहिए क्योंकि यह “फैशनेबल इवेंट“ नहीं, बल्कि प्रायश्चित का कार्यक्रम है। ‘झाड़ू’ गांधी की सामाजिक विषमता तथा जात-पात पर आधारित ऊंच-नीच की भावना समाप्त करने वाली सामाजिक क्रांति का प्रतीक थी। वैसे भी क्रांति का अंकगणित नहीं होता, ’प्रतीक’ होते हैं। झाड़ू या सफाई का कार्यक्रम जाति निवारण का वर्ग निराकरण का भी प्रतीक था।

उस क्रांति के पीछे भारत के सभी लोगों में समरसता और समान भ्रातृत्व भावना निर्माण करना, जो धर्म, भाषा, प्रदेश या वर्ग पर आधारित सभी भेदभाव के परे हो, की भावना थी। असमानता में विश्वास रखने वालों के लिए स्वच्छता अभियान अखबार की खबर और हाथ में झाड़ू लेकर फोटो का पोज छपवा लेने का कार्यक्रम है। सफाई कामगार को तो आज पीने के लिए स्वच्छ पानी भी नसीब नहीं होता। जिनके मन ‘स्वच्छ’ नहीं होंगे, उनके लिए यह ‘स्वच्छता अभियान’ गांधी के क्रांति के प्रतीक झाड़ू की जगह नहीं ले पाएगा।

इससे उस अभियान के पीछे की भावना ही लुप्त हो जाएगी। शेष बचेगी सिर्फ शासकीय औपचारिकता। हमारे समाज में आज सफाई कामगार से गंदगी और कचरा करने वाले उच्चवर्णीय और उच्चवर्गीय लोगों की प्रतिष्ठा अधिक है।

विसंगति और विरोधाभासी जात-पात पर आधारित सामाजिक विषमता जब तक समाप्त नहीं होगी, तब तक यह अभियान ‘प्राणदायी’ नहीं बनेगा। इस अभियान की “एकला चलो रे” की घोषणा भी स्वागत योग्य है। गांधीजी भी व्यक्तिगत चारित्र्य और व्यवहार पर जोर देते थे।

सफाई में विश्वास रखने वालों को स्पष्ट करना होगा कि वे जातिभेद या वर्गभेद पर आधारित विषमता को अपने निजी जीवन में स्थान नहीं देंगे और न ही उसमें शामिल होंगे। साथ ही “मेरा जीवन ही मेरा संदेश है”, मानने वाले गांधीजी की विचारधारा और जीवनप्रणाली का निजी तथा सार्वजनिक जीवन में पालन करेंगे।

वे लोग उन मंदिरों में नहीं जाएंगे, जहां स्त्री और दलित को प्रवेश नहीं है। गांधीजी स्वयं उस विवाह समारोह में भी हाजिर नहीं रहते थे, जिसमें शादी का एक पक्ष हरिजन न हो। इसीलिए वे महादेव भाई देसाई के पुत्र नारायणभाई के विवाह में उपस्थित नहीं हुए। स्वच्छता अभियान जब मन की शुद्धि और हरिजन सेवा का कार्यक्रम बनेगा, तभी तो ‘मन शुद्ध’ होगा और स्वच्छ मन से स्वच्छता के अभियान में शरीक होने का अधिकार प्राप्त होगा।

वैसे भी सभी के पाप धोते-धोते आज गंगा भी मैली हो गई है। भारत मेें सार्वजनिक सड़कें ‘कचरा डालने के लिए और गंदगी करने के लिए तो अपने बाप की है, लेकिन साफ करने के लिए वह किसी के भी बाप की नहीं है।’ यह है “मातृभूमि” या भारत की स्थिति।

‘हरिजन’ शब्द का उपयोग तो महात्मा गांधी के पूर्व संत नरसी मेहता ने भी किया है, जो नागर ब्राह्मण थे। उनकी भी निकटता हरिजनों से थी। झारखंड मुक्ति आंदोलन के नेता तथा सांसद शैलेन्द्र महतो के अनुसार हरिजन शब्द का सर्वप्रथम उपयोग महर्षि वाल्मीकि ने किया है, जो स्वयं अस्पृश्य थी।

गांधीजी ने ‘हरिजन-सेवा’ का कार्यक्रम स्थापित किया। वे जानते थे एक का उद्धार दूसरा नहीं कर सकता। गांधीजी जानते थे कि स्वयं मरे बिना स्वर्ग नहीं दिखता। हरिजन-सेवा का उनका कार्यक्रम सवर्णों के उद्धार के लिए था। झाड़ू के माध्यम से शौचालय-सफाई का कार्य प्रतिदिन वे स्वयं और आश्रमवासी करते थे। वे मानते थे कि पीढ़ियों से समाज के एक वर्ग को अस्पृश्य मानने वाले सवर्णों को प्रायश्चित के रूप में हरिजन सेवा करनी चाहिए। हरिजन वास्तव में हरिजन यानी भगवान के पुत्र हैं। उच्च वर्ग के लोगों का स्वच्छ और पवित्र जीवन अस्पृश्यों की ही देन है।

गांधीजी मानते थे कि जब सफाई कर्मचारियों के हाथ में भागवद् गीता और ब्राह्मणों के हाथ में झाड़ू आएगी, तब अस्पृश्यता मिटकर सामाजिक समता निर्मित होगी।

यह प्रश्न भी उठा कि यदि हरिजन भगवान के बालक हैं, तो क्या बाकी के सब दुर्जन या शैतान की औलाद हैं? गांधी का विचार था कि ‘आजकल’ की अस्पृश्यता से जब सवर्ण हिंदू आंतरिक निश्चय से तथा स्वेच्छा से मुक्त होंगे, तब हम सारे अस्पृश्यजन हरिजन के रूप में पहचाने जाएंगे, क्योंकि तभी हम पर ईश्वर की कृपा होगी। जबकि हम उन्हें दबाकर, कुचलकर आनंद मनाते आए हैं। अभी भी हमें हरिजन होने की छूट है।

आज हमें उनके प्रति किए गए पाप के बदले अंतःकरण पूर्वक पश्चाताप करना चाहिए। अस्पृश्यता समाप्त कर एकात्म और एकसमान समाज का निर्माण करना, गांधीजी का ध्येय था। गांधीजी अपने को भंगी, कातने वाला, बुनकर और मजदूर कहते थे। वे स्वेच्छा से भंगी बने थे। (मेहतर शब्द भी महत्तर शब्द का अपभ्रंश है।) अस्पृश्यता-निवारण का प्रयत्न उनके जीवन का अभिन्न अंग था। इस काम के लिए प्राण अर्पण करने तक वे तैयार थे। वे पुनर्जन्म नहीं चाहते थे, पर होना हो तो उनकी इच्छा थी कि अस्पृश्य का ही हो।

गांधीजी ने ‘हरिजन-सेवा’ का कार्यक्रम स्थापित किया। वे जानते थे एक का उद्धार दूसरा नहीं कर सकता। गांधीजी जानते थे कि स्वयं मरे बिना स्वर्ग नहीं दिखता। हरिजन-सेवा का उनका कार्यक्रम सवर्णों के उद्धार के लिए था। झाड़ू के माध्यम से शौचालय-सफाई का कार्य प्रतिदिन वे स्वयं और आश्रमवासी करते थे। वे मानते थे कि पीढ़ियों से समाज के एक वर्ग को अस्पृश्य मानने वाले सवर्णों को प्रायश्चित के रूप में हरिजन सेवा करनी चाहिए। हरिजन वास्तव में हरिजन यानी भगवान के पुत्र हैं। उच्च वर्ग के लोगों का स्वच्छ और पवित्र जीवन अस्पृश्यों की ही देन है। सन् 1916 में अहमदाबाद की सभा में मस्तक आगे करके और गर्दन पर हाथ रखकर अत्यंत गंभीरता के साथ उन्होंने घोषणा की थी कि ‘यह सिर अस्पृश्यता-निवारण के लिए अर्पित है।’ इसलिए गांधीजी की दृष्टि में झाड़ू क्रांति की प्रतीक थी। उनका मानना था कि समता पर आधारित समाज द्वारा ही क्रांति लाई जा सकती है। वरना समाज किसी भी परतंत्रता या गुलामी से लड़ नहीं सकता। दलितों में सबसे दलित, वाल्मीकि ही हैं। पुत्र के जीवन में मां का जो स्थान है, वही समाज के जीवन में सफाई करने वाले कामगार का है। वे कहते थे, ‘मैं भंगी को अपनी बराबरी का मानता हूं और सवेरे उसका स्मरण करता हूं।

अस्पृश्यता निवारण करने का अर्थ है अखिल विश्व पर प्रेम करना और उसकी सेवा करना। यह अहिंसा का ही एक अंग है। अस्पृश्यता समाप्त करने का मतलब है मानव समाज की भेदभाव की दीवारों को ढहा देना, इतना ही नहीं, जीवनमात्र की ऊंच-नीच को समाप्त करना। अस्पृश्यता हिंदू धर्म का कलंक है। अस्पृश्यता मानना कथित स्पृश्य लोगों का महापातक है। अस्पृश्यता के खिलाफ मेरी लड़ाई (संघर्ष) अखिल मानवजाति की अशुद्धि से लड़ाई है। कोई भी भंगी जिस दिन राष्ट्रसभा का कारोबार संभालेगा, तब मुझे सच्चा आनंद होगा।’

‘अंत्योदय से सर्वोदय’ गांधीजी के आंदोलन की दिशा थी। उसमें दयाभाव के स्थान पर कर्त्तव्य भावना ही अधिक थी। इसी कारण तो उनके रचनात्मक कार्यक्रमों में ‘हरिजन सेवा’ और सफाई को महत्वपूर्ण स्थान मिला था। गांधीजी ने ‘हरिजन सेवा’ को सवर्णों का कर्त्तव्य माना था और नवीनतम स्वच्छ भारत अभियान की भी यही भूमिका होनी चाहिए।

गांधीजी की भगवान की प्रार्थना की भूमिका थी,

हे नम्रता के सागर!
दीन-दुखी (भंगी) की हीन कुटिया के निवासी।
गंगा, जमुना और ब्रह्मपुत्र के जलों से सिंचित
इस सुंदर देश में
तुझे सब जगह खोजने में हमें मदद दे।
हमें ग्रहणशीलता और खुला दिल दे,
तेरी अपनी नम्रता दे,
हिंदुस्तान की जनता से
एकरूप होने की शक्ति और उत्कंठा दे
हे भगवान!

नम्रता की यह भावना इस अभियान का अधिष्ठान होना चाहिए।

Submitted by Shivendra on Sat, 11/15/2014 - 10:04
Source:
डेली न्यूज एक्टिविस्ट, 14 नवंबर 2014
Sanitation
भारत में स्वच्छता का नारा काफी पुराना है, लेकिन अभी भी देश की एक बड़ी आबादी गंदगी के बीच अपना जीवन बिताने को मजबूर है। 2011 की जनगणना के अनुसार, राष्ट्रीय स्वच्छता कवरेज 46.9 प्रतिशत है, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में यह औसत केवल 30.7 प्रतिशत है।

अभी भी देश की 62 करोड़ 20 लाख की आबादी यानी राष्ट्रीय औसत 53.1 प्रतिशत लोग खुले में शौच करने को मजबूर हैं। राज्यों की बात करें तो मध्य प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों में शौचालय के उपयोग की दर 13.6 प्रतिशत, राजस्थान में 20 प्रतिशत, बिहार में 18.6 प्रतिशत और उत्तर प्रदेश में 22 प्रतिशत है। केवल ग्रामीण ही नहीं,बल्कि शहरी क्षेत्रों में भी शौचालयों का अभाव है।

यहां सार्वजनिक शौचालय भी पर्याप्त संख्या में नही हैं, जिसकी वजह से हमारे शहरों में भी एक बड़ी आबादी खुले में शौच करने को मजबूर है। इसी तरह से देश में करीब 40 प्रतिशत लोगों को पीने योग्य स्वच्छ पानी उपलब्ध नहीं है।

देश में साफ -सफाई की कमी एक बड़ी चुनौती है, क्योंकि इसी से गंभीर बीमारियां फैलती हैं और इसका असर सबसे ज्यादा बच्चों पर ही पड़ता है। विभिन्न राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय मंचों पर बच्चों के स्वास्थ्य और उनके शारीरिक, मानसिक विकास के लिए बाल स्वच्छता को बहुत महत्वपूर्ण माना गया है, लेकिन दुर्भाग्य से भारत में 14 साल की उम्र के बच्चों में से 20 फीसदी से अधिक बच्चे असुरक्षित पानी, अपर्याप्त स्वच्छता या अपर्याप्त सफाई के कारण या तो बीमार रहते हैं या मौत का शिकार हो जाते हैं। इसी तरह सफाई के अभाव के कारण डायरिया से होने वाली मौतों में 90 फीसदी पांच साल से कम उम्र के बच्चे होते हैं।

स्वच्छता का संबंध शिक्षा से भी है। स्कूलों में शौचालय न होने का असर बच्चों विशेषकर बालिकाओं की शिक्षा पर पड़ता है। डाइस रिपोर्ट 2013-14 के अनुसार, अभी भी देश के करीब 20 प्रतिशत प्राथमिक स्कूलों में लड़कियों के लिए अलग से शौचालय नहीं हैं।

गौरतलब है कि सरकार द्वारा 1999 में संपूर्ण स्वच्छता अभियान कार्यक्रम शुरू किया गया था, जिसका मूल उद्देश्य ग्रामीण भारत में संपूर्ण स्वच्छता लाना और 2012 तक खुले में शौच को सिरे से खत्म करना था। इसमें घरों, विद्यालयों तथा आंगनबाड़ियों में स्वच्छता सुविधाओं पर विशेष बल दिया गया है। स्वच्छता अभियान के तहत स्थानीय स्तर पर पंचायतों को जिम्मेदारी दी गई है कि वे गांव के स्कूल, आंगनबाड़ी, सामुदायिक भवन, स्वास्थ्य केंद्र व घरों में समग्र रूप से बच्चों को पेयजल, साफ -सफाई व स्वच्छता के साधन उपलब्ध कराएं, लेकिन यह कार्यक्रम अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने में बुरी तरह असफल रहा। इस कार्यक्रम के असफल होने का मुख्य कारण यह था कि इस कार्यक्रम को बनाने से पहले सोचा गया कि अगर लोगों को सुविधाएं पहुंचा दी जाएं तो लोग उनका उपयोग करेंगे और समस्या समाप्त हो जाएगी, लेकिन इसमें स्वच्छता व्यवहार में सुधार को पूरी तरह नजरअंदाज किया गया।

इस वजह से संपूर्ण स्वच्छता अभियान कार्यक्रम के तहत 1990 के दशक में देश के ग्रामीण क्षेत्रों में 90 लाख शौचालयों का निर्माण तो हुआ, मगर ग्रामीण क्षेत्रों में शौचालय का उपयोग करने वालों की दर में महज एक प्रतिशत की दर से ही वृद्धि हुई। इन्हीं अनुभव को देखते हुए 1999 में समग्र स्वच्छता अभियान चलाया गया। इसमें सहभागिता और मांग आधारित दृष्टिकोण अपनाया गया।

समग्र स्वच्छता अभियान में ग्राम पंचायत और स्थानीय लोगों की सहभागिता व व्यवहार परिवर्तन पर जोर दिया गया। लेकिन इसमें अभी तक आंशिक सफलता ही मिली है। आज भी देश में अस्वच्छता एक गंभीर चुनौती बनी हुई है। 2011 की जनगणना के अनुसार, केवल 32.7 फीसदी घरों में ही शौचालयों की सुविधा उपलब्ध हो पाई है।

समग्र स्वच्छता अभियान में आंगनबाड़ी और स्कूलों की स्वच्छता और साफ-सफाई को लेकर पंचायतीराज संस्थाओं की भूमिका की बात तो की गई है, लेकिन इसका मुख्य फोकस पूरे गांव को लेकर है। इससे आंगनबाड़ी और स्कूलों में स्वच्छता और साफ-सफाई को लेकर इन संस्थाओं की भूमिका उभर कर सामने नहीं आ पाती है। चूंकि स्थानीय निकायों के पास पूरे गांव की जिम्मेदारी है, वहीं समाज की मानसिकता है कि बच्चों से संबंधित मुद्दों और सेवाओं को उतनी प्राथमिकता नहीं दी जाती, जबकि इसकी तुलना में बड़ों से संबंधित मुद्दों और सेवाओं को तरजीह दी जाती है।

विभिन्न राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय मंचों पर बच्चों के स्वास्थ्य और उनके शारीरिक, मानसिक विकास के लिए बाल स्वच्छता को बहुत महत्वपूर्ण माना गया है, लेकिन दुर्भाग्य से भारत में 14 साल की उम्र के बच्चों में से 20 फीसदी से अधिक बच्चे असुरक्षित पानी, अपर्याप्त स्वच्छता या अपर्याप्त सफाई के कारण या तो बीमार रहते हैं या मौत का शिकार हो जाते हैं। इसी तरह सफाई के अभाव के कारण डायरिया से होने वाली मौतों में 90 फीसदी पांच साल से कम उम्र के बच्चे होते हैं। इस चुनौती से पार पाने का एक तरीका यह हो सकता है कि स्कूलों और आंगनबाड़ियों में जल व स्वच्छता संबंधी सेवाओं की योजना, निर्माण, परिचालन और निगरानी के लिए एक विशेष कमेटी का गठन किया जाए, जिसमें ग्राम पंचायत के प्रतिनिधि, एसएमसी के प्रतिनिधि, मध्याह्न भोजन बनाने वाले समूह के प्रतिनिधि, अध्यापक और बच्चों, खासकर लड़कियों का प्रतिनिधित्व हो। ऐसा होने से स्कूलों में स्वच्छता संबंधी सेवाओं के क्रियान्वयन और बच्चों में इसके अभ्यास को प्राथमिकता मिलेगी। साथ ही इसके क्रियान्वयन और मॉनिटरिंग में आसानी होगी।

यों पिछले एक दशक के दौरान स्कूलों में शौचालय निर्माण में वृद्धि देखने को मिली है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय के आंकड़े बताते हैं कि 2013-14 में 80.57 प्रतिशत लड़कियों के स्कूलों में उनके लिए अलग शौचालय थे।

जबकि 2012-13 में यह संख्या सिर्फ 69 प्रतिशत थी। लेकिन समस्या का समाधान केवल यही नहीं है कि टॉयलेट्स बना दिए जाएं, बल्कि इसके लिए पानी और मल-उत्सर्जन की एक प्रणाली विकसित किए जाने की भी जरूरत है। इनके अभाव में टॉयलेट भी किसी काम के नहीं रह जाते। यानी शौचालयों के संचालन और सुविधाओं के रखरखाव को लेकर अभी भी समस्या बनी हुई है, इसी वजह से ग्रामीण क्षेत्रों में स्कूली बच्चे खुले में शौच करने को मजबूर हैं। इस कारण शिक्षा प्रभावित होती है और बच्चे जानलेवा बीमारी का शिकार होते हैं।

स्कूलों में शौचालयों के अपर्याप्त रखरखाव और जल-मल की उचित निकासी व्यवस्था न होने का सबसे ज्यादा प्रभाव छात्राओं पर पड़ता है। अधिकतर छात्राएं स्कूल के गंदे और अवरुद्ध शौचालयों का उपयोग करने के बजाए मूत्राशय में ही पेशाब को रोके रखती हैं। इस कारण से उन्हें न केवल शारीरिक समस्या से जूझना पड़ता है, बल्कि कक्षा में भी पढ़ाई में उनकी एकाग्रता प्रभावित होती है।

अगर साफ-सफाई की कमी को दूर कर लिया जाए तो न केवल बच्चों की गंदगी जनित बीमारियों से हो रही मौतों में कमी आएगी, बल्कि उन्हें घरों, स्कूलों व आंगनबाड़ियों में शुद्ध पेयजल, शौचालय और सफाई के अवसर भी उपलब्ध हो सकेंगे, लेकिन अभी भी यह सपना दूर की कौड़ी लगता है। सच्चाई यह है कि सभी बच्चों को स्वास्थ्य, शारीरिक और मानसिक विकास देने की दिशा में अभी लंबा सफर तय करना है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस वर्ष गांधी जयंती के मौके पर स्वच्छ भारत अभियान की शुरुआत की थी। इसके तहत 2019 तक स्वच्छ भारत निर्मित करने का लक्ष्य रखा गया है। सरकार ने एक बार फिर एक साल के भीतर देश के सभी स्कूलों में बालक बालिकाओं के लिए अलग शौचालय उपलब्ध कराने का भरोसा भी दिलाया है। इसी कड़ी में इस साल पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के जन्मदिन (बाल दिवस) पर 14 नवंबर को बाल स्वच्छता मिशन की शुरुआत की जा रही है, जिसके तहत बच्चों को स्वच्छता और साफ-सफाई के बारे में जागरूक किया जाएगा।

इस संदर्भ में याद किया जा सकता है कि बीते 15 अक्टूबर को मध्य प्रदेश सरकार की पहल पर विश्व हाथ धुलाई दिवस के मौके पर राज्य के सभी प्राइमरी व मिडिल स्कूलों में करीब 2 लाख बच्चों ने एक साथ हाथ धोए थे। इस पूरी प्रक्रिया में प्रदेश सरकार द्वारा इस हाथ धोने के कार्यक्रम को गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड में दर्ज कराने पर भी बहुत जोर दिया गया।

इस बात से कोई इनकार नहीं है कि बचपन से ही सही तरीके से हाथ धोने का तरीका और स्वच्छता का महत्व जानना जरूरी है, क्योंकि इससें कई बीमारियों से बचाव किया जा सकता है। लेकिन ज्यादा बेहतर होता कि इस पूरे इवेंट को गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड में दर्ज कराने की जगह मध्य प्रदेश के सभी स्कूलों में स्वच्छता, इसके सुचारू प्रबंधन और साफ पानी उपलब्ध कराने पर ध्यान केंद्रित किया जाता।

दरअसल, स्वच्छ भारत अभियान और बाल स्वच्छता मिशन को लेकर भी यही आशंकाएं स्वाभाविक हैं। उम्मीद है कि इस दिखावे से परहेज किया जाएगा और बच्चों को सभी स्तरों पर साफ-सफाई उपलब्ध कराने के रास्ते में आ रही रुकावटों को गंभीरता से दूर करने का प्रयास किया जाएगा।

ईमेल : anisjaved@gmail.com

Submitted by Hindi on Fri, 11/14/2014 - 13:25
Source:
परिषद साक्ष्य, धरती का ताप, जनवरी-मार्च 2006
Environment
प्रकृति के गर्भ से उत्पन्न मानव उसकी सर्वोत्कृष्ट कृति है। किंतु प्रकृति का यह विशिष्ट जीव आज एक विचित्र-सी स्थिति में खड़ा है। विकास की सीमाओं को लांघता हुआ वह कहां से कहां पहुंच गया। विकास की यह गति प्रारंभिक काल में धीमी थी, किंतु आज़ आश्चर्यचकित कर देने वाली इसकी गति अब बेकाबू जा रही है। किसी भी देश या समाज की सभ्यता-संस्कृति उसकी प्रतिष्ठा का प्रतीक है। इसी सभ्यता-संस्कृति का एक आवश्यक अंग होता है पर्यावरण। पर्यावरण का कुछ अंश हमें प्रकृति से हस्तगत होता है और कुछ हम स्वयं निर्माण करते हैं।

प्रारंभ में मनुष्य को पूर्णत: पर्यावरण पर निर्भर रहना पड़ता था, किंतु धीरे-धीरे बुद्धि-संपन्न मनुष्य ने अपनी बढ़ती हुई आवश्यकताओं के अनुरूप अपनी जीवन-शैली को भी नियंत्रित किया। शनै: - शनै: पर्यावरण को भी नियंत्रित करने का प्रयास आरंभ हुआ। अब तो स्थिति यह है कि मनुष्य प्रकृति का स्वामी बन बैठा है और निरंतर उसके शोषण में लगा हुआ है। जबकि भारतीय दृष्टिकोण प्रकृति पर विजय पाने का नहीं, बल्कि उसके संरक्षण और उसके प्रति श्रद्धा का रहा है। वस्तुत: भारत के सांस्कृतिक आदर्श और परंपराओं का आधार अध्यात्म है। देश की अथाह प्राकृतिक संपदा ने यहां के मनीषियों को अपने पर्यावरण के प्रति भावनात्मक रूप से अत्यंत संवेदनशील बना दिया था। जहां भावनात्मक संवेदनशील होती है, वहां बौद्धिक जिज्ञासा और सौंदर्य-बोध का जन्म होता है। एक सुसंस्कृत समाज के लिए ये दोनों ही आवश्यक तत्व है। बौद्धिक जिज्ञासा ज्ञान, चेतना तथा मूल्यों का विकास और विस्तार करती है, जब कि सौंदर्य-बोध से सृजनात्मक ललित-कलाओं का विकास होता है।

भारतीय प्रज्ञा के अनुसार मनुष्य प्रकृति का स्वामी नहीं, उसकी संतान है। अपने पर्यावरण के प्रति ऋषि-मुनियों की भावुकता और उनका अनुराग इस धारणा को पुष्ट करता है। इसकी झलक वेद-उपनिषदों एवं अन्य पौराणिक साहित्यों में भी मिलती है। ऋग्वेद के पृथ्वी सूक्त में मानव और पृथ्वी के स्नेह बंधन अनेक रूपों में वर्णित है। 'माता भूमि: पुत्रोSहं पृथिव्याः’, ‘विश्वंभरा बसुधानी प्रतिष्ठा हरिण्य वक्षा जगतो निवेशिनी'(ऋग्वेद 12.1.6.) इत्यादि ऐसी अनुभूति के द्योतक है। संतानोत्पत्ति से लेकर पालन-पोषण और संसार को अपने आसमानी आंचल से ढंके रखने के कारण प्रकृति को मनुष्य ने स्त्री रूप में देखा है। भूमि की उर्वरा शक्ति से प्रेरित होकर श्रद्धा और उपासना भाव की विशिष्टतम परिणति मातृ-भूमि की अवधारणा में हुई है। अथर्ववेद की (12.1.14) ऋचा में अक ओर उस शक्ति से अपार सुख पाने की आशा है तो दूसरी ओर उसकी रक्षा करने का भाव छलक उठता है।

वेद की अनेक ऋचाओं में प्रकृति के विभिन्न तत्वों - सूर्य, चांद, तारे, आकाश, पृथ्वी, जाल, अग्नि, वनस्पति इत्यादि की देव रूपों में उपासना की गई है। ये ऋचाएं प्रकृति एवं पर्यावरण के प्रति आभार व्यक्त करने का माध्यम है और इनमें आध्यात्मिक अनुभूतियां भी निहित हैं।

पर्यावरण में उपस्थित सभी तत्वों का आपस में विशेष सामंजस्य होता है, जो संपूर्ण प्रकृति में संतुलन बनाए रखता है। उन तत्वों के प्रति लापरवाह होने पर उनकी संगति बिगड़ जाती है और संतुलन भंग हो जाता है। आधुनिक युग में, एक ओर तो मानव विकास के शीर्ष पर पहुंच चुका है, दूसरी ओर अनेक प्राकृतिक विसंगतियां उत्पन्न हो गई हैं। फलतः प्रकृति अपना संतुलन खोती जा रही है।

कितना बड़ा विरोधाभास उत्पन्न हो गया है युगों के अंतराल में! कहां तो हमारे पूर्वज प्रकृति के प्रति इतने संवदेनशील थे कि श्रद्धा और आभार व्यक्त करते अघाते नहीं थे और कहां अब उनका वंशज, आज का मनुष्य मां के रूप में पूज्या प्रकृति और अपने आश्रय पर्यावरण के प्रति निर्दयता और बर्बरता का एक भी अवसर नहीं चूकता। प्रकृति भी अपने कुपुत्रों के दुर्व्यवहार से ऊब गई है, उसकी सहिष्णुता समाप्त हो गई है।

पर्यावरण के साथ मनुष्य का दुर्व्यवहार विकास का चोला पहनकर आया। भारत की सभ्यता और संस्कृति तो अति प्राचीन है और यह देश अपने विकास के अनेक स्वर्ण युग देख चुका है।

नि:संदेह इसे अपनी मूर्खताओं का भी मूल्य चुकाना पड़ा है - कभी आंभीक जैसे विद्वेषी राजाओं के कारण तो कभी ईस्ट इंडिया कंपनी के माध्यम से अपने लालच को संतुष्ट करने के क्रम में परतंत्र होकर। किंतु नए सभ्य और तथाकथित सुसंस्कृत हुए देशों को आधुनिक युग आते-आते विकास के अवसर मिलने लगे। विज्ञान का 'जिन्न' उनके हाथ जो लग गया था! यह सही है कि विज्ञान ने मानव जाति का बड़ा उपकार किया है, किंतु यदि ‘अलादीन का चिराग' किसी पागल या निर्दयी के हाथ लग जाए तो बेचारा ‘जिन्न' क्या करे? विज्ञान के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ है। स्वार्थी लोगों ने आधुनिक विकास के नाम पर इसका दुरुपयोग किया है। इसलिए उसका जितना हितकर प्रभाव हुआ, उससे कहीं अधिक उसके विनाशकारी प्रभाव ने रंग दिखाना आरंभ कर दिया। अणु-परमाणु का विध्वंसक उपयोग होने लगा है। देशों में होड़ लगी है कि कौन कितना विनाशकारी हो सकता है।

द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान जापान के हिरोशिमा और नागासाकी शहरों पर अमरीका द्वारा किया गया अणुबम विस्फोट ऐसा हृदय-विदारक उदाहरण है जिसने वहां की कई पीढियों को अपाहिज बना दिया। 1927 में एच जे मूलर को आणविक विकिरण के आनुवांशिक प्रभाव को प्रमाणित करने के लिये नोबेल पुरस्कार दिया गया, किन्तु अमरीका के जिन दिग्गज नेताओं ने अणुबम के विस्फोट का निर्णय लिया, उन्हें आणविक विस्फोट के परिणामों की कोई जानकारी नहीं थी। वे केवल अपने स्वार्थ से परिचित थे।

इस संदर्भ में यदि 'महाभारत' का उल्लेख किया जाये, तो असंगत नहीँ होगा। 'महाभारत' के रचयिता कृष्ण द्वैपायन व्यास ने ऐसे विनाश की आशंका व्यक्त की थी। आदि पर्व (अ.139) में 'ब्रह्मास्त्र' के विषय में कहा गया है कि यह पूरी पृथ्वी को जलाकर राख कर सकता है। जब भीष्म और परशुराम ने एक-दूसरे के विरुद्ध ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया तो सारा संसार प्रज्वलित हो उठा और तब देवताओं को भागकर उनको रोकना पड़ा (उद्योग पर्व, अ. 187)। ‘पाशुपतास्त्र’ के विषय में अर्जुन बताते है कि यह तीनों लोकों के जीवित, निर्जीव - सभी वस्तुओं को नष्ट कर सकता है। एक युग का अंत होने पर पूरे ब्रह्माण्ड को समाप्त करने के लिये इसका उपयोग किया जाता है। इसलिये वे इसके स्थान पर सामान्य रूप से प्रचलित अस्त्र-शस्त्र का ही प्रयोग करते है (उद्योग पर्व, अ.196)। 'पाशुपतास्त्र' सबंधी इस उपाख्यान से यह पता चलता है कि भारत में भी प्राचीन काल में व्यापक रूप से विनाश करने वाले अस्त्र-शस्त्र विद्यमान थे, किंतु उनके प्रयोग का अधिकार रखने वाले व्यक्तियों को उन अस्त्र-शस्त्र के प्रभाव का पूरा ज्ञान था और साथ ही वे स्वार्थी या गैरजिम्मेदार नहीं थे। उनका निर्णय विवेकपूर्ण होता था। द्रोण पर्व ( अ .197) में 'नारायणास्त्र' को भी ऐसा अस्त्र बताया गया है जिसके प्रयोग से संपूर्ण पृथ्वी प्रकंपित हो उठती है, पर्वत मालाएं बिखने लगती हैं, विशाल संमुद्रों मेँ मंथन होने लगता है।

कुरुक्षेत्र युद्ध के प्राय: समाप्त होने पर जब कौरवों का पूरी तरह विनाश हो गया था, तो अश्वत्थामा का विवेक भी उसका साथ छोड़ गया और उस ने पांडवो के प्रति विद्वेष की भावना से प्रेरित होकर उत्तरा के गर्भ में पल रहे अभिमन्धु-पुत्र को समाप्त करने के लिये 'ब्रह्मास्त्र' का प्रयोग किया था। तब श्रीकृष्ण ने 'ब्रह्मास्त्र के प्रभाव को निरस्त करने के लिये अपने सुदर्शन चक्र का प्रयोग किया और उत्तरा के गर्भ की रक्षा की अर्थात उन अस्त्रों के मारक प्रभाव के निराकरण का उपाय उपलब्ध था। एक बार यधिष्ठिर ने इस प्रकार के किसी अस्त्र का संचालन देखने की इच्छा व्यक्त की थी, तो नारद ने ऐसा करने पर निषेेध लगा दिया था (वन पर्व अ. 175)।

मनुष्य होने के नाते अपनी चेतना, बुद्धि और विवेक का सदुपयोग करें। प्रकृति एवं पर्यावरण को पुन: उसकी शुद्धता और गरिमा में लौटा दे। उसे सुरक्षित रखने के लिये सामाजिक और सांस्कृतिक पर्यावरण की दृढता अनिवार्य है। स्वार्थ और लोभ ने दुष्प्रवृत्तियों का जो साम्राज्य खड़ा कर लिया है, उसे उखाड़ फेंकने की आवश्यकता हैं। इसके लिये मनुष्य को संयम का सहारा लेना होगा। भारतीय परंपरा के अनुरूप प्रेम, करुणा, दयालुता, सहृदयता जैसे उच्च मानवीय गुणों को पुन स्थापित करना होगा, ताकि सह-अस्तित्व की भावना के साथ प्रकृति और पर्यावरण को पुन: उसका वास्तविक स्वरूप प्राप्त हो सके। यह तभी संभव होगा, जब हम सजग, सतर्क और सक्रिय रहेंगे।पिछले कई दशकों से विश्व के विकसित और विकासशील देश पर्यावरण को लेकर चिंतित है, क्योंकि मानव के हाथों शोषित होती हुई प्रकृति कुपित हो गयी है और उसने अब पलटकर, चुनौती देना आरंभ कर दिया है। वैज्ञानिक विकास के दुष्प्रभाव का नमूना तो हम देख चुके, अब औद्योगिक विकास के दुष्चक़्र में फंसे हुए आम आदमी की त्राहि-त्राहि सुन रहे है। वैज्ञानिक या औद्योगिक विकास के विषय में सबने सोचा, लेकिन उसके साथ स्वत: उत्पन्न होने वाले हानिकारक तत्वों पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। परमाणु ऊर्जा के अवशेषों को नदियों या समुद्रों में छोड़ दिया जाता है, जो धोरे-धीरे भूमिगत जल में मिल जाते है और अंतत: उसकी रेडियोधर्मिता मिट्टी का अंश बन जाती है। आज भारत विश्व के सर्वाधिक प्रदूषित देशों की पंक्ति में खड़ा है। यहां की हवा, जल, मिट्टी इतनी अधिक प्रदूषित हो चुकी है कि तरह-तरह की भीषण बीमारियों ने जड़ पकड़ ली है। वर्तमान में प्रदूषित पर्यावरण के कारण जो परिस्थिति उत्पन्न हो गयी है, वह मनुष्यों की विवेकहीनता की ओर इंगित करती है।

इस संदर्भ में एक दुखद, किंतु हास्यास्पद तथ्य का उल्लेख करना अनुपयुक्त नहीं होगा। संयुक्त राष्ट्र संघ के पर्यावरण से संबद्ध विभाग ने अमरीका को अत्यधिक प्रदूषण फैलाने वाले अपने कुछ उद्योगों को बंद करने का आग्रह किया था और उस प्रदूषणा से होने वाली क्षति के लिये हरजाना देने की मांग की थी। हस पर अमरीका की जो प्रतिक्रिया हुई वह उसके नेताओं की संवेदनशून्यता की परिचायक है। वहां के राष्ट्रपति ने कहा कि उद्योगों को तो बंद नहीं किया जायेगा, किंतु उनसे होने वाली क्षति के लिये हरजाना दिया जाता रहेगा।

भारत के सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन के मूलभूत नियमों में सदा एक सुसंगति, एकात्मता और परस्पर आदर का भाव रहा है। किन्तु आज संपूर्ण समाज में भौतिकता का वर्चस्व हो गया है। अति भौतिकवादिता ने घृणा, द्वेष, छल, बल, भय, दुष्टता, स्वार्थ, असत्य, लोभ और निर्दयता को जीवन की वास्तविकताओं के रूप में स्थापित कर दिया है। भौतिक विकास की सफलताओं ने मनुष्य में अहंकार भर दिया है। इसी अहंकार और अविवेक के प्रमाद में वह निरंतर प्रकृति का तिरस्कार और शोषण करता जा रहा है।

आज हमारा देश जनसंख्या विस्फोट से संत्रस्त है। सारी की सारी योजनाएं व्यर्थ हो जाती है,विकास की चादर कभी पूरी नहीं पड़ती, कभी सिर बाहर तो कभी पैर बाहर। रक्तबीज की तरह फैलते हुए इन स्वार्थी मनुष्यों ने अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये पहाड़ौं को तोड़- तोड़कर भूमिसात् कर दिया, जंगलों को काटकर समतल मैदान वना दिया। नदियों को बांधे तो कौन? पेड़ों के कट जाने से आये पहाड़ों पर भूमिस्खलन के समाचार आते रहते है। उस मिट्टी के नीचे दबा है कौन? वही स्वार्थी-लोभी मानव। नदियों में भयंकर बाढ़ का आना भी आम बात हो गयी है। बाढ़ से प्रभावित क्षेत्र के लोग बेघर-बार होकर महीनों भटकते रहते है। एक ओर बाढ़ का प्रकोप तो दूसरी और भूखे की मार, क्योकि अब देश में वर्षा कम होने लगी है। बादलों को घेरकर लाने वाले गगनचुंबी पेड़ जो नहीँ रहे।

आजकल जंगली जानवर भी समाचारों की सुर्खियों में आने लगे हैं। प्राय: सुना जाता है कि लकड़बग्या गांव में घुसकर किसी बच्चे को उठा ले गया या एक बाघ किसी गांव में घुस आया या हाथियों के झुंड ने गांव के गांव रौंद डाले। आखिर इन सबका क्या कारण है ? फिर वही बात - जंगल कट गये, अब वहां खेत है। बढ़ती हुई जनसंख्या के पेट जो भरने हैं! अब वे बेचारे जानवर कहां जाए, अपनी भूख कहां मिटाएं, अपनी खीझ किस पर उतारें? जिस प्रकार मनुष्य प्रकृति का अंग है, उसी प्रकार जंगली जानवर भी प्रकृति के अभिन्न अंग है। मनुष्य तो प्रकृति से बहुत दूर चला गया है, किंतु ये जानवर प्रकृति के आंचल में ही छिपकर रहना पसंद करते है। मनुष्य इतना स्वार्थी हो गया है कि वह केवल अपने संरक्षण की बात सोचता है और इसी कम में उसने उन निरीह प्राणियों को असुरक्षित कर दिया है।

'महाभारत' का यह उपाख्यान पेडों, जंगलों के प्रसंग पर ध्यातव्य है। इस कथा में पर्यावरण के प्रति महर्षि व्यास की संवेदनशीलता और परोक्ष रूप से तत्कालीन मानवीय मूल्यों का दर्शन होता है। द्यूत क्रीड़ा में पराजय के बाद निर्वासित हुए पांडवों ने द्वैत वन में शरण ली। वहां वे लगभग एक वर्ष आठ महीनों तक रहे। प्रवास की उस अवधि में पांडवों के आखेट से वन के पशु धीरे-धीरे समाप्तप्राय हो गये। इसी बीच एक दिन युधिष्ठिर ने स्वप्न में देखा कि बचे हुए जानवर उनके सम्मुख विलाप कर रहे है कि इस प्रकार तो उनका समूल नाश हो जायेगा। वे उनसे निवेदन करते है कि मनुष्य जंगली जानवरों पर दया करे। तब युधिष्ठिर उस वन को छोड़कर काम्यक वन की ओर प्रस्थान करने का निर्णय लेते है (वन पर्व, अ 258)। यह कथा विभिन्न प्रकार के प्राणियों के बीच सह-अस्तित्व और उनके बीच प्राकृतिक संतुलन के भारतीय दृष्टिकोण को पुष्ट करती है। शान्ति पर्व (अ 282) में भीष्म एक कथा सुनाते है: जब इंद्र ने वृत्र (असुर) का वध कर दिया, तो ब्रह्महत्या उनके पीछे पड़ गयी। इंद्र भयभीत होकर ब्रह्मा के पास गए। तब ब्रह्मा ने ब्रह्महत्या को शांत करने के लिए कई स्थानों पर प्रश्रय दिया, उनमें से एक इस पृथ्वी का वनस्पतिजगत है। इस पर पेड़-पौधों ने ईश्वर से निवेदन किया कि ब्रह्महत्या का भाड़ वहन करना अत्यंत कठिन है, इसे किसी और को सौंप दें। तब ब्रह्मा ने वरदान दिया की जब भी मनुष्य बेमौसम या लोभवश पेड़ काटेगा, तो ब्रह्महत्या का भाड़ स्वतः उसपर चला जाएगा। इस प्रकार यह कथा वनस्पतियों के संरक्षण की अनिवार्यता की ओर इंगित करती है।

हजारों वर्ष पूर्व जब 'महाभारत' की रचना हुई थी, तब व्यास जैसे महान पुरुष ने मनुष्यों को प्रकृति के समस्त प्राणियों एवं वनस्पतियों के सरक्षण के प्रति जागरूक एबं सावधान करने का प्रयत्न किया था। यहां उद्योग पर्व (अ. 29) की एक घटना उल्लेखनीय है। जब कौरव-पांडवों के बीच युद्ध अश्ययंभाबी हो गया तो श्रीकृष्ण ने एक अंतिम संदेश दिया था। संदेश तो स्वय में महत्वपूर्ण है ही, किन्तु उसे जिस प्रकार की उपमा के आवरण में प्रस्तुत किया गया है वह अद्भुत है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि जब युद्ध होगा तब पांडव जंगली जानवरों के समान भयंकर हो जाएंगे। धृतराष्ट्र और उनके पुत्र जंगल के समान हैं, और पांडव उस जंगल में विचरने वाले बाघ के समान। इस जंगल को उसके बाघों के साथ नष्ट होने से बचाओ। जंगल के अभाव में बाघ असुरक्षित हो जाते हैं और बाघों से रहित जंगल असुरक्षित होता है। इस प्रकार दोनों एक-दूसरे की रक्षा करते हैं। यही समृद्धि का मार्ग है। व्यास की कल्पनाशीलता यहां भी लाक्षणिक रूप में पर्यावरण संरक्षण के प्रति जागरूक बनाने का प्रयास करती है।

इस प्रकार यदि हम भारतीयता के झरोखे से अतीत में झांककर देखे तो हमें ‘अरण्य संस्कृति' के दर्शन होंगे। विश्वकबि रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने भारतीय संस्कृति को 'अरण्य’ की संस्कृति कहा है। हमारा इतिहास, दर्शन, हमारी पारम्परा, संस्कृति अरणयों में ही निहित और परिपोषित हुई है। यहां के ऋषि-मुनि, तपस्वी, दार्शनिक, विद्वान अरण्य की शरण में ही अपनी साधना करते रहे और उन्होंने अपने क्रिया- कलापों भारतीय जनमानस को प्रभावित किया। यही सही है कि एक लंबी अवधि तक परतंत्र रहने के कारण हमारे सोच में परवशता आ गयी है। अंग्रेजों ने अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिये भारतीय ताने-बाने को नष्ट कर जो ढांचा बनाया, हम आज भी लगभग उसी को ढोये चले जा रहे है। चूंकि आधुनिकता की हवा पश्चिम से आयी तो हम आधुनिकीकरण के नाम पर भी उन्हीं का अंधानुकरण करते रहे है। इसी क्रम में प्रकृति से जुड़ी अपनी परंपरा और संस्कृति को हम भुला बैठे है। हमने प्रकृति और परंपरा के प्रति अपने उत्तरदायित्व से मुंह मोड़ लिया है। आज सारा मानव समाज प्राकृतिक आपदाओं के रूप में इसका दंड भुगत रहा है। कम से कम अब तो हम चेत जाए। मनुष्य होने के नाते अपनी चेतना, बुद्धि और विवेक का सदुपयोग करें। प्रकृति एवं पर्यावरण को पुन: उसकी शुद्धता और गरिमा में लौटा दे। उसे सुरक्षित रखने के लिये सामाजिक और सांस्कृतिक पर्यावरण की दृढता अनिवार्य है। स्वार्थ और लोभ ने दुष्प्रवृत्तियों का जो साम्राज्य खड़ा कर लिया है, उसे उखाड़ फेंकने की आवश्यकता हैं। इसके लिये मनुष्य को संयम का सहारा लेना होगा। भारतीय परंपरा के अनुरूप प्रेम, करुणा, दयालुता, सहृदयता जैसे उच्च मानवीय गुणों को पुन स्थापित करना होगा, ताकि सह-अस्तित्व की भावना के साथ प्रकृति और पर्यावरण को पुन: उसका वास्तविक स्वरूप प्राप्त हो सके। यह तभी संभव होगा, जब हम सजग, सतर्क और सक्रिय रहेंगे।

प्रयास

Submitted by Editorial Team on Thu, 12/08/2022 - 13:06
सीतापुर का नैमिषारण्य तीर्थ क्षेत्र, फोटो साभार - उप्र सरकार
श्री नैभिषारण्य धाम तीर्थ परिषद के गठन को प्रदेश मंत्रिमएडल ने स्वीकृति प्रदान की, जिसके अध्यक्ष स्वयं मुख्यमंत्री होंगे। इसके अंतर्गत नैमिषारण्य की होली के अवसर पर चौरासी कोसी 5 दिवसीय परिक्रमा पथ और उस पर स्थापित सम्पूर्ण देश की संह्कृति एवं एकात्मता के वह सभी तीर्थ एवं उनके स्थल केंद्रित हैं। इस सम्पूर्ण नैमिशारण्य क्षेत्र में लोक भारती पिछले 10 वर्ष से कार्य कर रही है। नैमिषाराण्य क्षेत्र के भूगर्भ जल स्रोतो का अध्ययन एवं उनके पुनर्नीवन पर लगातार कार्य चल रहा है। वर्षा नल सरक्षण एवं संम्भरण हेतु तालाबें के पुनर्नीवन अनियान के जवर्गत 119 तालाबों का पृनरुद्धार लोक भारती के प्रयासों से सम्पन्न हुआ है।

नोटिस बोर्ड

Submitted by Shivendra on Tue, 09/06/2022 - 14:16
Source:
चरखा फीचर
'संजॉय घोष मीडिया अवार्ड्स – 2022
कार्य अनुभव के विवरण के साथ संक्षिप्त पाठ्यक्रम जीवन लगभग 800-1000 शब्दों का एक प्रस्ताव, जिसमें उस विशेष विषयगत क्षेत्र को रेखांकित किया गया हो, जिसमें आवेदक काम करना चाहता है. प्रस्ताव में अध्ययन की विशिष्ट भौगोलिक स्थिति, कार्यप्रणाली, चयनित विषय की प्रासंगिकता के साथ-साथ इन लेखों से अपेक्षित प्रभाव के बारे में विवरण शामिल होनी चाहिए. साथ ही, इस बात का उल्लेख होनी चाहिए कि देश के विकास से जुड़ी बहस में इसके योगदान किस प्रकार हो सकता है? कृपया आलेख प्रस्तुत करने वाली भाषा भी निर्दिष्ट करें। लेख अंग्रेजी, हिंदी या उर्दू में ही स्वीकार किए जाएंगे
Submitted by Shivendra on Tue, 08/23/2022 - 17:19
Source:
यूसर्क
जल विज्ञान प्रशिक्षण कार्यशाला
उत्तराखंड विज्ञान शिक्षा एवं अनुसंधान केंद्र द्वारा आज दिनांक 23.08.22 को तीन दिवसीय जल विज्ञान प्रशिक्षण प्रारंभ किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए यूसर्क की निदेशक प्रो.(डॉ.) अनीता रावत ने अपने संबोधन में कहा कि यूसर्क द्वारा जल के महत्व को देखते हुए विगत वर्ष 2021 को संयुक्त राष्ट्र की विश्व पर्यावरण दिवस की थीम "ईको सिस्टम रेस्टोरेशन" के अंर्तगत आयोजित कार्यक्रम के निष्कर्षों के क्रम में जल विज्ञान विषयक लेक्चर सीरीज एवं जल विज्ञान प्रशिक्षण कार्यक्रमों को प्रारंभ किया गया
Submitted by Shivendra on Mon, 07/25/2022 - 15:34
Source:
यूसर्क
जल शिक्षा व्याख्यान श्रृंखला
इस दौरान राष्ट्रीय पर्यावरण  इंजीनियरिंग अनुसंधान संस्था के वरिष्ठ वैज्ञानिक और अपशिष्ट जल विभाग विभाग के प्रमुख डॉक्टर रितेश विजय  सस्टेनेबल  वेस्ट वाटर ट्रीटमेंट फॉर लिक्विड वेस्ट मैनेजमेंट (Sustainable Wastewater Treatment for Liquid Waste Management) विषय  पर विशेषज्ञ तौर पर अपनी राय रखेंगे।

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खासम-खास

तालाब ज्ञान-संस्कृति : नींव से शिखर तक

Submitted by Editorial Team on Tue, 10/04/2022 - 16:13
Author
कृष्ण गोपाल 'व्यास’
talab-gyan-sanskriti-:-ninv-se-shikhar-tak
कूरम में पुनर्निर्मित समथमन मंदिर तालाब। फोटो - indiawaterportal
परम्परागत तालाबों पर अनुपम मिश्र की किताब ‘आज भी खरे हैं तालाब’, पहली बार, वर्ष 1993 में प्रकाशित हुई थी। इस किताब में अनुपम ने समाज से प्राप्त जानकारी के आधार पर भारत के विभिन्न भागों में बने तालाबों के बारे में व्यापक विवरण प्रस्तुत किया है। अर्थात आज भी खरे हैं तालाब में दर्ज विवरण परम्परागत तालाबों पर समाज की राय है। उनका दृष्टिबोध है। उन विवरणों में समाज की भावनायें, आस्था, मान्यतायें, रीति-रिवाज तथा परम्परागत तालाबों के निर्माण से जुड़े कर्मकाण्ड दर्ज हैं। प्रस्तुति और शैली अनुपम की है।

Content

कचरा सिर्फ सड़क पर नहीं होता

Submitted by Shivendra on Sat, 11/15/2014 - 10:40
Author
न्या. चंद्रशेखर धर्माधिकारी
Source
सर्वोदय प्रेस सर्विस, नवंबर 2014
swatch bharat
.स्वच्छ भारत अभियान या सफाई के कार्यक्रम का स्वागत इसलिए करना चाहिए क्योंकि यह “फैशनेबल इवेंट“ नहीं, बल्कि प्रायश्चित का कार्यक्रम है। ‘झाड़ू’ गांधी की सामाजिक विषमता तथा जात-पात पर आधारित ऊंच-नीच की भावना समाप्त करने वाली सामाजिक क्रांति का प्रतीक थी। वैसे भी क्रांति का अंकगणित नहीं होता, ’प्रतीक’ होते हैं। झाड़ू या सफाई का कार्यक्रम जाति निवारण का वर्ग निराकरण का भी प्रतीक था।

उस क्रांति के पीछे भारत के सभी लोगों में समरसता और समान भ्रातृत्व भावना निर्माण करना, जो धर्म, भाषा, प्रदेश या वर्ग पर आधारित सभी भेदभाव के परे हो, की भावना थी। असमानता में विश्वास रखने वालों के लिए स्वच्छता अभियान अखबार की खबर और हाथ में झाड़ू लेकर फोटो का पोज छपवा लेने का कार्यक्रम है। सफाई कामगार को तो आज पीने के लिए स्वच्छ पानी भी नसीब नहीं होता। जिनके मन ‘स्वच्छ’ नहीं होंगे, उनके लिए यह ‘स्वच्छता अभियान’ गांधी के क्रांति के प्रतीक झाड़ू की जगह नहीं ले पाएगा।

इससे उस अभियान के पीछे की भावना ही लुप्त हो जाएगी। शेष बचेगी सिर्फ शासकीय औपचारिकता। हमारे समाज में आज सफाई कामगार से गंदगी और कचरा करने वाले उच्चवर्णीय और उच्चवर्गीय लोगों की प्रतिष्ठा अधिक है।

विसंगति और विरोधाभासी जात-पात पर आधारित सामाजिक विषमता जब तक समाप्त नहीं होगी, तब तक यह अभियान ‘प्राणदायी’ नहीं बनेगा। इस अभियान की “एकला चलो रे” की घोषणा भी स्वागत योग्य है। गांधीजी भी व्यक्तिगत चारित्र्य और व्यवहार पर जोर देते थे।

सफाई में विश्वास रखने वालों को स्पष्ट करना होगा कि वे जातिभेद या वर्गभेद पर आधारित विषमता को अपने निजी जीवन में स्थान नहीं देंगे और न ही उसमें शामिल होंगे। साथ ही “मेरा जीवन ही मेरा संदेश है”, मानने वाले गांधीजी की विचारधारा और जीवनप्रणाली का निजी तथा सार्वजनिक जीवन में पालन करेंगे।

वे लोग उन मंदिरों में नहीं जाएंगे, जहां स्त्री और दलित को प्रवेश नहीं है। गांधीजी स्वयं उस विवाह समारोह में भी हाजिर नहीं रहते थे, जिसमें शादी का एक पक्ष हरिजन न हो। इसीलिए वे महादेव भाई देसाई के पुत्र नारायणभाई के विवाह में उपस्थित नहीं हुए। स्वच्छता अभियान जब मन की शुद्धि और हरिजन सेवा का कार्यक्रम बनेगा, तभी तो ‘मन शुद्ध’ होगा और स्वच्छ मन से स्वच्छता के अभियान में शरीक होने का अधिकार प्राप्त होगा।

वैसे भी सभी के पाप धोते-धोते आज गंगा भी मैली हो गई है। भारत मेें सार्वजनिक सड़कें ‘कचरा डालने के लिए और गंदगी करने के लिए तो अपने बाप की है, लेकिन साफ करने के लिए वह किसी के भी बाप की नहीं है।’ यह है “मातृभूमि” या भारत की स्थिति।

‘हरिजन’ शब्द का उपयोग तो महात्मा गांधी के पूर्व संत नरसी मेहता ने भी किया है, जो नागर ब्राह्मण थे। उनकी भी निकटता हरिजनों से थी। झारखंड मुक्ति आंदोलन के नेता तथा सांसद शैलेन्द्र महतो के अनुसार हरिजन शब्द का सर्वप्रथम उपयोग महर्षि वाल्मीकि ने किया है, जो स्वयं अस्पृश्य थी।

गांधीजी ने ‘हरिजन-सेवा’ का कार्यक्रम स्थापित किया। वे जानते थे एक का उद्धार दूसरा नहीं कर सकता। गांधीजी जानते थे कि स्वयं मरे बिना स्वर्ग नहीं दिखता। हरिजन-सेवा का उनका कार्यक्रम सवर्णों के उद्धार के लिए था। झाड़ू के माध्यम से शौचालय-सफाई का कार्य प्रतिदिन वे स्वयं और आश्रमवासी करते थे। वे मानते थे कि पीढ़ियों से समाज के एक वर्ग को अस्पृश्य मानने वाले सवर्णों को प्रायश्चित के रूप में हरिजन सेवा करनी चाहिए। हरिजन वास्तव में हरिजन यानी भगवान के पुत्र हैं। उच्च वर्ग के लोगों का स्वच्छ और पवित्र जीवन अस्पृश्यों की ही देन है।

गांधीजी मानते थे कि जब सफाई कर्मचारियों के हाथ में भागवद् गीता और ब्राह्मणों के हाथ में झाड़ू आएगी, तब अस्पृश्यता मिटकर सामाजिक समता निर्मित होगी।

यह प्रश्न भी उठा कि यदि हरिजन भगवान के बालक हैं, तो क्या बाकी के सब दुर्जन या शैतान की औलाद हैं? गांधी का विचार था कि ‘आजकल’ की अस्पृश्यता से जब सवर्ण हिंदू आंतरिक निश्चय से तथा स्वेच्छा से मुक्त होंगे, तब हम सारे अस्पृश्यजन हरिजन के रूप में पहचाने जाएंगे, क्योंकि तभी हम पर ईश्वर की कृपा होगी। जबकि हम उन्हें दबाकर, कुचलकर आनंद मनाते आए हैं। अभी भी हमें हरिजन होने की छूट है।

आज हमें उनके प्रति किए गए पाप के बदले अंतःकरण पूर्वक पश्चाताप करना चाहिए। अस्पृश्यता समाप्त कर एकात्म और एकसमान समाज का निर्माण करना, गांधीजी का ध्येय था। गांधीजी अपने को भंगी, कातने वाला, बुनकर और मजदूर कहते थे। वे स्वेच्छा से भंगी बने थे। (मेहतर शब्द भी महत्तर शब्द का अपभ्रंश है।) अस्पृश्यता-निवारण का प्रयत्न उनके जीवन का अभिन्न अंग था। इस काम के लिए प्राण अर्पण करने तक वे तैयार थे। वे पुनर्जन्म नहीं चाहते थे, पर होना हो तो उनकी इच्छा थी कि अस्पृश्य का ही हो।

गांधीजी ने ‘हरिजन-सेवा’ का कार्यक्रम स्थापित किया। वे जानते थे एक का उद्धार दूसरा नहीं कर सकता। गांधीजी जानते थे कि स्वयं मरे बिना स्वर्ग नहीं दिखता। हरिजन-सेवा का उनका कार्यक्रम सवर्णों के उद्धार के लिए था। झाड़ू के माध्यम से शौचालय-सफाई का कार्य प्रतिदिन वे स्वयं और आश्रमवासी करते थे। वे मानते थे कि पीढ़ियों से समाज के एक वर्ग को अस्पृश्य मानने वाले सवर्णों को प्रायश्चित के रूप में हरिजन सेवा करनी चाहिए। हरिजन वास्तव में हरिजन यानी भगवान के पुत्र हैं। उच्च वर्ग के लोगों का स्वच्छ और पवित्र जीवन अस्पृश्यों की ही देन है। सन् 1916 में अहमदाबाद की सभा में मस्तक आगे करके और गर्दन पर हाथ रखकर अत्यंत गंभीरता के साथ उन्होंने घोषणा की थी कि ‘यह सिर अस्पृश्यता-निवारण के लिए अर्पित है।’ इसलिए गांधीजी की दृष्टि में झाड़ू क्रांति की प्रतीक थी। उनका मानना था कि समता पर आधारित समाज द्वारा ही क्रांति लाई जा सकती है। वरना समाज किसी भी परतंत्रता या गुलामी से लड़ नहीं सकता। दलितों में सबसे दलित, वाल्मीकि ही हैं। पुत्र के जीवन में मां का जो स्थान है, वही समाज के जीवन में सफाई करने वाले कामगार का है। वे कहते थे, ‘मैं भंगी को अपनी बराबरी का मानता हूं और सवेरे उसका स्मरण करता हूं।

अस्पृश्यता निवारण करने का अर्थ है अखिल विश्व पर प्रेम करना और उसकी सेवा करना। यह अहिंसा का ही एक अंग है। अस्पृश्यता समाप्त करने का मतलब है मानव समाज की भेदभाव की दीवारों को ढहा देना, इतना ही नहीं, जीवनमात्र की ऊंच-नीच को समाप्त करना। अस्पृश्यता हिंदू धर्म का कलंक है। अस्पृश्यता मानना कथित स्पृश्य लोगों का महापातक है। अस्पृश्यता के खिलाफ मेरी लड़ाई (संघर्ष) अखिल मानवजाति की अशुद्धि से लड़ाई है। कोई भी भंगी जिस दिन राष्ट्रसभा का कारोबार संभालेगा, तब मुझे सच्चा आनंद होगा।’


‘अंत्योदय से सर्वोदय’ गांधीजी के आंदोलन की दिशा थी। उसमें दयाभाव के स्थान पर कर्त्तव्य भावना ही अधिक थी। इसी कारण तो उनके रचनात्मक कार्यक्रमों में ‘हरिजन सेवा’ और सफाई को महत्वपूर्ण स्थान मिला था। गांधीजी ने ‘हरिजन सेवा’ को सवर्णों का कर्त्तव्य माना था और नवीनतम स्वच्छ भारत अभियान की भी यही भूमिका होनी चाहिए।

गांधीजी की भगवान की प्रार्थना की भूमिका थी,

हे नम्रता के सागर!
दीन-दुखी (भंगी) की हीन कुटिया के निवासी।
गंगा, जमुना और ब्रह्मपुत्र के जलों से सिंचित
इस सुंदर देश में
तुझे सब जगह खोजने में हमें मदद दे।
हमें ग्रहणशीलता और खुला दिल दे,
तेरी अपनी नम्रता दे,
हिंदुस्तान की जनता से
एकरूप होने की शक्ति और उत्कंठा दे
हे भगवान!


नम्रता की यह भावना इस अभियान का अधिष्ठान होना चाहिए।

स्वच्छता की हकीकत और बच्चे

Submitted by Shivendra on Sat, 11/15/2014 - 10:04
Author
जावेद अनीस
Source
डेली न्यूज एक्टिविस्ट, 14 नवंबर 2014
Sanitation
.भारत में स्वच्छता का नारा काफी पुराना है, लेकिन अभी भी देश की एक बड़ी आबादी गंदगी के बीच अपना जीवन बिताने को मजबूर है। 2011 की जनगणना के अनुसार, राष्ट्रीय स्वच्छता कवरेज 46.9 प्रतिशत है, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में यह औसत केवल 30.7 प्रतिशत है।

अभी भी देश की 62 करोड़ 20 लाख की आबादी यानी राष्ट्रीय औसत 53.1 प्रतिशत लोग खुले में शौच करने को मजबूर हैं। राज्यों की बात करें तो मध्य प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों में शौचालय के उपयोग की दर 13.6 प्रतिशत, राजस्थान में 20 प्रतिशत, बिहार में 18.6 प्रतिशत और उत्तर प्रदेश में 22 प्रतिशत है। केवल ग्रामीण ही नहीं,बल्कि शहरी क्षेत्रों में भी शौचालयों का अभाव है।

यहां सार्वजनिक शौचालय भी पर्याप्त संख्या में नही हैं, जिसकी वजह से हमारे शहरों में भी एक बड़ी आबादी खुले में शौच करने को मजबूर है। इसी तरह से देश में करीब 40 प्रतिशत लोगों को पीने योग्य स्वच्छ पानी उपलब्ध नहीं है।

देश में साफ -सफाई की कमी एक बड़ी चुनौती है, क्योंकि इसी से गंभीर बीमारियां फैलती हैं और इसका असर सबसे ज्यादा बच्चों पर ही पड़ता है। विभिन्न राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय मंचों पर बच्चों के स्वास्थ्य और उनके शारीरिक, मानसिक विकास के लिए बाल स्वच्छता को बहुत महत्वपूर्ण माना गया है, लेकिन दुर्भाग्य से भारत में 14 साल की उम्र के बच्चों में से 20 फीसदी से अधिक बच्चे असुरक्षित पानी, अपर्याप्त स्वच्छता या अपर्याप्त सफाई के कारण या तो बीमार रहते हैं या मौत का शिकार हो जाते हैं। इसी तरह सफाई के अभाव के कारण डायरिया से होने वाली मौतों में 90 फीसदी पांच साल से कम उम्र के बच्चे होते हैं।

स्वच्छता का संबंध शिक्षा से भी है। स्कूलों में शौचालय न होने का असर बच्चों विशेषकर बालिकाओं की शिक्षा पर पड़ता है। डाइस रिपोर्ट 2013-14 के अनुसार, अभी भी देश के करीब 20 प्रतिशत प्राथमिक स्कूलों में लड़कियों के लिए अलग से शौचालय नहीं हैं।

गौरतलब है कि सरकार द्वारा 1999 में संपूर्ण स्वच्छता अभियान कार्यक्रम शुरू किया गया था, जिसका मूल उद्देश्य ग्रामीण भारत में संपूर्ण स्वच्छता लाना और 2012 तक खुले में शौच को सिरे से खत्म करना था। इसमें घरों, विद्यालयों तथा आंगनबाड़ियों में स्वच्छता सुविधाओं पर विशेष बल दिया गया है। स्वच्छता अभियान के तहत स्थानीय स्तर पर पंचायतों को जिम्मेदारी दी गई है कि वे गांव के स्कूल, आंगनबाड़ी, सामुदायिक भवन, स्वास्थ्य केंद्र व घरों में समग्र रूप से बच्चों को पेयजल, साफ -सफाई व स्वच्छता के साधन उपलब्ध कराएं, लेकिन यह कार्यक्रम अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने में बुरी तरह असफल रहा। इस कार्यक्रम के असफल होने का मुख्य कारण यह था कि इस कार्यक्रम को बनाने से पहले सोचा गया कि अगर लोगों को सुविधाएं पहुंचा दी जाएं तो लोग उनका उपयोग करेंगे और समस्या समाप्त हो जाएगी, लेकिन इसमें स्वच्छता व्यवहार में सुधार को पूरी तरह नजरअंदाज किया गया।

इस वजह से संपूर्ण स्वच्छता अभियान कार्यक्रम के तहत 1990 के दशक में देश के ग्रामीण क्षेत्रों में 90 लाख शौचालयों का निर्माण तो हुआ, मगर ग्रामीण क्षेत्रों में शौचालय का उपयोग करने वालों की दर में महज एक प्रतिशत की दर से ही वृद्धि हुई। इन्हीं अनुभव को देखते हुए 1999 में समग्र स्वच्छता अभियान चलाया गया। इसमें सहभागिता और मांग आधारित दृष्टिकोण अपनाया गया।

समग्र स्वच्छता अभियान में ग्राम पंचायत और स्थानीय लोगों की सहभागिता व व्यवहार परिवर्तन पर जोर दिया गया। लेकिन इसमें अभी तक आंशिक सफलता ही मिली है। आज भी देश में अस्वच्छता एक गंभीर चुनौती बनी हुई है। 2011 की जनगणना के अनुसार, केवल 32.7 फीसदी घरों में ही शौचालयों की सुविधा उपलब्ध हो पाई है।

समग्र स्वच्छता अभियान में आंगनबाड़ी और स्कूलों की स्वच्छता और साफ-सफाई को लेकर पंचायतीराज संस्थाओं की भूमिका की बात तो की गई है, लेकिन इसका मुख्य फोकस पूरे गांव को लेकर है। इससे आंगनबाड़ी और स्कूलों में स्वच्छता और साफ-सफाई को लेकर इन संस्थाओं की भूमिका उभर कर सामने नहीं आ पाती है। चूंकि स्थानीय निकायों के पास पूरे गांव की जिम्मेदारी है, वहीं समाज की मानसिकता है कि बच्चों से संबंधित मुद्दों और सेवाओं को उतनी प्राथमिकता नहीं दी जाती, जबकि इसकी तुलना में बड़ों से संबंधित मुद्दों और सेवाओं को तरजीह दी जाती है।

विभिन्न राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय मंचों पर बच्चों के स्वास्थ्य और उनके शारीरिक, मानसिक विकास के लिए बाल स्वच्छता को बहुत महत्वपूर्ण माना गया है, लेकिन दुर्भाग्य से भारत में 14 साल की उम्र के बच्चों में से 20 फीसदी से अधिक बच्चे असुरक्षित पानी, अपर्याप्त स्वच्छता या अपर्याप्त सफाई के कारण या तो बीमार रहते हैं या मौत का शिकार हो जाते हैं। इसी तरह सफाई के अभाव के कारण डायरिया से होने वाली मौतों में 90 फीसदी पांच साल से कम उम्र के बच्चे होते हैं। इस चुनौती से पार पाने का एक तरीका यह हो सकता है कि स्कूलों और आंगनबाड़ियों में जल व स्वच्छता संबंधी सेवाओं की योजना, निर्माण, परिचालन और निगरानी के लिए एक विशेष कमेटी का गठन किया जाए, जिसमें ग्राम पंचायत के प्रतिनिधि, एसएमसी के प्रतिनिधि, मध्याह्न भोजन बनाने वाले समूह के प्रतिनिधि, अध्यापक और बच्चों, खासकर लड़कियों का प्रतिनिधित्व हो। ऐसा होने से स्कूलों में स्वच्छता संबंधी सेवाओं के क्रियान्वयन और बच्चों में इसके अभ्यास को प्राथमिकता मिलेगी। साथ ही इसके क्रियान्वयन और मॉनिटरिंग में आसानी होगी।

यों पिछले एक दशक के दौरान स्कूलों में शौचालय निर्माण में वृद्धि देखने को मिली है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय के आंकड़े बताते हैं कि 2013-14 में 80.57 प्रतिशत लड़कियों के स्कूलों में उनके लिए अलग शौचालय थे।

जबकि 2012-13 में यह संख्या सिर्फ 69 प्रतिशत थी। लेकिन समस्या का समाधान केवल यही नहीं है कि टॉयलेट्स बना दिए जाएं, बल्कि इसके लिए पानी और मल-उत्सर्जन की एक प्रणाली विकसित किए जाने की भी जरूरत है। इनके अभाव में टॉयलेट भी किसी काम के नहीं रह जाते। यानी शौचालयों के संचालन और सुविधाओं के रखरखाव को लेकर अभी भी समस्या बनी हुई है, इसी वजह से ग्रामीण क्षेत्रों में स्कूली बच्चे खुले में शौच करने को मजबूर हैं। इस कारण शिक्षा प्रभावित होती है और बच्चे जानलेवा बीमारी का शिकार होते हैं।

स्कूलों में शौचालयों के अपर्याप्त रखरखाव और जल-मल की उचित निकासी व्यवस्था न होने का सबसे ज्यादा प्रभाव छात्राओं पर पड़ता है। अधिकतर छात्राएं स्कूल के गंदे और अवरुद्ध शौचालयों का उपयोग करने के बजाए मूत्राशय में ही पेशाब को रोके रखती हैं। इस कारण से उन्हें न केवल शारीरिक समस्या से जूझना पड़ता है, बल्कि कक्षा में भी पढ़ाई में उनकी एकाग्रता प्रभावित होती है।

अगर साफ-सफाई की कमी को दूर कर लिया जाए तो न केवल बच्चों की गंदगी जनित बीमारियों से हो रही मौतों में कमी आएगी, बल्कि उन्हें घरों, स्कूलों व आंगनबाड़ियों में शुद्ध पेयजल, शौचालय और सफाई के अवसर भी उपलब्ध हो सकेंगे, लेकिन अभी भी यह सपना दूर की कौड़ी लगता है। सच्चाई यह है कि सभी बच्चों को स्वास्थ्य, शारीरिक और मानसिक विकास देने की दिशा में अभी लंबा सफर तय करना है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस वर्ष गांधी जयंती के मौके पर स्वच्छ भारत अभियान की शुरुआत की थी। इसके तहत 2019 तक स्वच्छ भारत निर्मित करने का लक्ष्य रखा गया है। सरकार ने एक बार फिर एक साल के भीतर देश के सभी स्कूलों में बालक बालिकाओं के लिए अलग शौचालय उपलब्ध कराने का भरोसा भी दिलाया है। इसी कड़ी में इस साल पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के जन्मदिन (बाल दिवस) पर 14 नवंबर को बाल स्वच्छता मिशन की शुरुआत की जा रही है, जिसके तहत बच्चों को स्वच्छता और साफ-सफाई के बारे में जागरूक किया जाएगा।

इस संदर्भ में याद किया जा सकता है कि बीते 15 अक्टूबर को मध्य प्रदेश सरकार की पहल पर विश्व हाथ धुलाई दिवस के मौके पर राज्य के सभी प्राइमरी व मिडिल स्कूलों में करीब 2 लाख बच्चों ने एक साथ हाथ धोए थे। इस पूरी प्रक्रिया में प्रदेश सरकार द्वारा इस हाथ धोने के कार्यक्रम को गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड में दर्ज कराने पर भी बहुत जोर दिया गया।

इस बात से कोई इनकार नहीं है कि बचपन से ही सही तरीके से हाथ धोने का तरीका और स्वच्छता का महत्व जानना जरूरी है, क्योंकि इससें कई बीमारियों से बचाव किया जा सकता है। लेकिन ज्यादा बेहतर होता कि इस पूरे इवेंट को गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड में दर्ज कराने की जगह मध्य प्रदेश के सभी स्कूलों में स्वच्छता, इसके सुचारू प्रबंधन और साफ पानी उपलब्ध कराने पर ध्यान केंद्रित किया जाता।

दरअसल, स्वच्छ भारत अभियान और बाल स्वच्छता मिशन को लेकर भी यही आशंकाएं स्वाभाविक हैं। उम्मीद है कि इस दिखावे से परहेज किया जाएगा और बच्चों को सभी स्तरों पर साफ-सफाई उपलब्ध कराने के रास्ते में आ रही रुकावटों को गंभीरता से दूर करने का प्रयास किया जाएगा।

ईमेल : anisjaved@gmail.com

पर्यावरण की संस्कृति

Submitted by Hindi on Fri, 11/14/2014 - 13:25
Author
पुष्पम ए कुमार
Source
परिषद साक्ष्य, धरती का ताप, जनवरी-मार्च 2006
Environment
.प्रकृति के गर्भ से उत्पन्न मानव उसकी सर्वोत्कृष्ट कृति है। किंतु प्रकृति का यह विशिष्ट जीव आज एक विचित्र-सी स्थिति में खड़ा है। विकास की सीमाओं को लांघता हुआ वह कहां से कहां पहुंच गया। विकास की यह गति प्रारंभिक काल में धीमी थी, किंतु आज़ आश्चर्यचकित कर देने वाली इसकी गति अब बेकाबू जा रही है। किसी भी देश या समाज की सभ्यता-संस्कृति उसकी प्रतिष्ठा का प्रतीक है। इसी सभ्यता-संस्कृति का एक आवश्यक अंग होता है पर्यावरण। पर्यावरण का कुछ अंश हमें प्रकृति से हस्तगत होता है और कुछ हम स्वयं निर्माण करते हैं।

प्रारंभ में मनुष्य को पूर्णत: पर्यावरण पर निर्भर रहना पड़ता था, किंतु धीरे-धीरे बुद्धि-संपन्न मनुष्य ने अपनी बढ़ती हुई आवश्यकताओं के अनुरूप अपनी जीवन-शैली को भी नियंत्रित किया। शनै: - शनै: पर्यावरण को भी नियंत्रित करने का प्रयास आरंभ हुआ। अब तो स्थिति यह है कि मनुष्य प्रकृति का स्वामी बन बैठा है और निरंतर उसके शोषण में लगा हुआ है। जबकि भारतीय दृष्टिकोण प्रकृति पर विजय पाने का नहीं, बल्कि उसके संरक्षण और उसके प्रति श्रद्धा का रहा है। वस्तुत: भारत के सांस्कृतिक आदर्श और परंपराओं का आधार अध्यात्म है। देश की अथाह प्राकृतिक संपदा ने यहां के मनीषियों को अपने पर्यावरण के प्रति भावनात्मक रूप से अत्यंत संवेदनशील बना दिया था। जहां भावनात्मक संवेदनशील होती है, वहां बौद्धिक जिज्ञासा और सौंदर्य-बोध का जन्म होता है। एक सुसंस्कृत समाज के लिए ये दोनों ही आवश्यक तत्व है। बौद्धिक जिज्ञासा ज्ञान, चेतना तथा मूल्यों का विकास और विस्तार करती है, जब कि सौंदर्य-बोध से सृजनात्मक ललित-कलाओं का विकास होता है।

भारतीय प्रज्ञा के अनुसार मनुष्य प्रकृति का स्वामी नहीं, उसकी संतान है। अपने पर्यावरण के प्रति ऋषि-मुनियों की भावुकता और उनका अनुराग इस धारणा को पुष्ट करता है। इसकी झलक वेद-उपनिषदों एवं अन्य पौराणिक साहित्यों में भी मिलती है। ऋग्वेद के पृथ्वी सूक्त में मानव और पृथ्वी के स्नेह बंधन अनेक रूपों में वर्णित है। 'माता भूमि: पुत्रोSहं पृथिव्याः’, ‘विश्वंभरा बसुधानी प्रतिष्ठा हरिण्य वक्षा जगतो निवेशिनी'(ऋग्वेद 12.1.6.) इत्यादि ऐसी अनुभूति के द्योतक है। संतानोत्पत्ति से लेकर पालन-पोषण और संसार को अपने आसमानी आंचल से ढंके रखने के कारण प्रकृति को मनुष्य ने स्त्री रूप में देखा है। भूमि की उर्वरा शक्ति से प्रेरित होकर श्रद्धा और उपासना भाव की विशिष्टतम परिणति मातृ-भूमि की अवधारणा में हुई है। अथर्ववेद की (12.1.14) ऋचा में अक ओर उस शक्ति से अपार सुख पाने की आशा है तो दूसरी ओर उसकी रक्षा करने का भाव छलक उठता है।

वेद की अनेक ऋचाओं में प्रकृति के विभिन्न तत्वों - सूर्य, चांद, तारे, आकाश, पृथ्वी, जाल, अग्नि, वनस्पति इत्यादि की देव रूपों में उपासना की गई है। ये ऋचाएं प्रकृति एवं पर्यावरण के प्रति आभार व्यक्त करने का माध्यम है और इनमें आध्यात्मिक अनुभूतियां भी निहित हैं।

पर्यावरण में उपस्थित सभी तत्वों का आपस में विशेष सामंजस्य होता है, जो संपूर्ण प्रकृति में संतुलन बनाए रखता है। उन तत्वों के प्रति लापरवाह होने पर उनकी संगति बिगड़ जाती है और संतुलन भंग हो जाता है। आधुनिक युग में, एक ओर तो मानव विकास के शीर्ष पर पहुंच चुका है, दूसरी ओर अनेक प्राकृतिक विसंगतियां उत्पन्न हो गई हैं। फलतः प्रकृति अपना संतुलन खोती जा रही है।

कितना बड़ा विरोधाभास उत्पन्न हो गया है युगों के अंतराल में! कहां तो हमारे पूर्वज प्रकृति के प्रति इतने संवदेनशील थे कि श्रद्धा और आभार व्यक्त करते अघाते नहीं थे और कहां अब उनका वंशज, आज का मनुष्य मां के रूप में पूज्या प्रकृति और अपने आश्रय पर्यावरण के प्रति निर्दयता और बर्बरता का एक भी अवसर नहीं चूकता। प्रकृति भी अपने कुपुत्रों के दुर्व्यवहार से ऊब गई है, उसकी सहिष्णुता समाप्त हो गई है।

पर्यावरण के साथ मनुष्य का दुर्व्यवहार विकास का चोला पहनकर आया। भारत की सभ्यता और संस्कृति तो अति प्राचीन है और यह देश अपने विकास के अनेक स्वर्ण युग देख चुका है।

नि:संदेह इसे अपनी मूर्खताओं का भी मूल्य चुकाना पड़ा है - कभी आंभीक जैसे विद्वेषी राजाओं के कारण तो कभी ईस्ट इंडिया कंपनी के माध्यम से अपने लालच को संतुष्ट करने के क्रम में परतंत्र होकर। किंतु नए सभ्य और तथाकथित सुसंस्कृत हुए देशों को आधुनिक युग आते-आते विकास के अवसर मिलने लगे। विज्ञान का 'जिन्न' उनके हाथ जो लग गया था! यह सही है कि विज्ञान ने मानव जाति का बड़ा उपकार किया है, किंतु यदि ‘अलादीन का चिराग' किसी पागल या निर्दयी के हाथ लग जाए तो बेचारा ‘जिन्न' क्या करे? विज्ञान के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ है। स्वार्थी लोगों ने आधुनिक विकास के नाम पर इसका दुरुपयोग किया है। इसलिए उसका जितना हितकर प्रभाव हुआ, उससे कहीं अधिक उसके विनाशकारी प्रभाव ने रंग दिखाना आरंभ कर दिया। अणु-परमाणु का विध्वंसक उपयोग होने लगा है। देशों में होड़ लगी है कि कौन कितना विनाशकारी हो सकता है।

द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान जापान के हिरोशिमा और नागासाकी शहरों पर अमरीका द्वारा किया गया अणुबम विस्फोट ऐसा हृदय-विदारक उदाहरण है जिसने वहां की कई पीढियों को अपाहिज बना दिया। 1927 में एच जे मूलर को आणविक विकिरण के आनुवांशिक प्रभाव को प्रमाणित करने के लिये नोबेल पुरस्कार दिया गया, किन्तु अमरीका के जिन दिग्गज नेताओं ने अणुबम के विस्फोट का निर्णय लिया, उन्हें आणविक विस्फोट के परिणामों की कोई जानकारी नहीं थी। वे केवल अपने स्वार्थ से परिचित थे।

इस संदर्भ में यदि 'महाभारत' का उल्लेख किया जाये, तो असंगत नहीँ होगा। 'महाभारत' के रचयिता कृष्ण द्वैपायन व्यास ने ऐसे विनाश की आशंका व्यक्त की थी। आदि पर्व (अ.139) में 'ब्रह्मास्त्र' के विषय में कहा गया है कि यह पूरी पृथ्वी को जलाकर राख कर सकता है। जब भीष्म और परशुराम ने एक-दूसरे के विरुद्ध ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया तो सारा संसार प्रज्वलित हो उठा और तब देवताओं को भागकर उनको रोकना पड़ा (उद्योग पर्व, अ. 187)। ‘पाशुपतास्त्र’ के विषय में अर्जुन बताते है कि यह तीनों लोकों के जीवित, निर्जीव - सभी वस्तुओं को नष्ट कर सकता है। एक युग का अंत होने पर पूरे ब्रह्माण्ड को समाप्त करने के लिये इसका उपयोग किया जाता है। इसलिये वे इसके स्थान पर सामान्य रूप से प्रचलित अस्त्र-शस्त्र का ही प्रयोग करते है (उद्योग पर्व, अ.196)। 'पाशुपतास्त्र' सबंधी इस उपाख्यान से यह पता चलता है कि भारत में भी प्राचीन काल में व्यापक रूप से विनाश करने वाले अस्त्र-शस्त्र विद्यमान थे, किंतु उनके प्रयोग का अधिकार रखने वाले व्यक्तियों को उन अस्त्र-शस्त्र के प्रभाव का पूरा ज्ञान था और साथ ही वे स्वार्थी या गैरजिम्मेदार नहीं थे। उनका निर्णय विवेकपूर्ण होता था। द्रोण पर्व ( अ .197) में 'नारायणास्त्र' को भी ऐसा अस्त्र बताया गया है जिसके प्रयोग से संपूर्ण पृथ्वी प्रकंपित हो उठती है, पर्वत मालाएं बिखने लगती हैं, विशाल संमुद्रों मेँ मंथन होने लगता है।

कुरुक्षेत्र युद्ध के प्राय: समाप्त होने पर जब कौरवों का पूरी तरह विनाश हो गया था, तो अश्वत्थामा का विवेक भी उसका साथ छोड़ गया और उस ने पांडवो के प्रति विद्वेष की भावना से प्रेरित होकर उत्तरा के गर्भ में पल रहे अभिमन्धु-पुत्र को समाप्त करने के लिये 'ब्रह्मास्त्र' का प्रयोग किया था। तब श्रीकृष्ण ने 'ब्रह्मास्त्र के प्रभाव को निरस्त करने के लिये अपने सुदर्शन चक्र का प्रयोग किया और उत्तरा के गर्भ की रक्षा की अर्थात उन अस्त्रों के मारक प्रभाव के निराकरण का उपाय उपलब्ध था। एक बार यधिष्ठिर ने इस प्रकार के किसी अस्त्र का संचालन देखने की इच्छा व्यक्त की थी, तो नारद ने ऐसा करने पर निषेेध लगा दिया था (वन पर्व अ. 175)।

मनुष्य होने के नाते अपनी चेतना, बुद्धि और विवेक का सदुपयोग करें। प्रकृति एवं पर्यावरण को पुन: उसकी शुद्धता और गरिमा में लौटा दे। उसे सुरक्षित रखने के लिये सामाजिक और सांस्कृतिक पर्यावरण की दृढता अनिवार्य है। स्वार्थ और लोभ ने दुष्प्रवृत्तियों का जो साम्राज्य खड़ा कर लिया है, उसे उखाड़ फेंकने की आवश्यकता हैं। इसके लिये मनुष्य को संयम का सहारा लेना होगा। भारतीय परंपरा के अनुरूप प्रेम, करुणा, दयालुता, सहृदयता जैसे उच्च मानवीय गुणों को पुन स्थापित करना होगा, ताकि सह-अस्तित्व की भावना के साथ प्रकृति और पर्यावरण को पुन: उसका वास्तविक स्वरूप प्राप्त हो सके। यह तभी संभव होगा, जब हम सजग, सतर्क और सक्रिय रहेंगे।पिछले कई दशकों से विश्व के विकसित और विकासशील देश पर्यावरण को लेकर चिंतित है, क्योंकि मानव के हाथों शोषित होती हुई प्रकृति कुपित हो गयी है और उसने अब पलटकर, चुनौती देना आरंभ कर दिया है। वैज्ञानिक विकास के दुष्प्रभाव का नमूना तो हम देख चुके, अब औद्योगिक विकास के दुष्चक़्र में फंसे हुए आम आदमी की त्राहि-त्राहि सुन रहे है। वैज्ञानिक या औद्योगिक विकास के विषय में सबने सोचा, लेकिन उसके साथ स्वत: उत्पन्न होने वाले हानिकारक तत्वों पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। परमाणु ऊर्जा के अवशेषों को नदियों या समुद्रों में छोड़ दिया जाता है, जो धोरे-धीरे भूमिगत जल में मिल जाते है और अंतत: उसकी रेडियोधर्मिता मिट्टी का अंश बन जाती है। आज भारत विश्व के सर्वाधिक प्रदूषित देशों की पंक्ति में खड़ा है। यहां की हवा, जल, मिट्टी इतनी अधिक प्रदूषित हो चुकी है कि तरह-तरह की भीषण बीमारियों ने जड़ पकड़ ली है। वर्तमान में प्रदूषित पर्यावरण के कारण जो परिस्थिति उत्पन्न हो गयी है, वह मनुष्यों की विवेकहीनता की ओर इंगित करती है।

इस संदर्भ में एक दुखद, किंतु हास्यास्पद तथ्य का उल्लेख करना अनुपयुक्त नहीं होगा। संयुक्त राष्ट्र संघ के पर्यावरण से संबद्ध विभाग ने अमरीका को अत्यधिक प्रदूषण फैलाने वाले अपने कुछ उद्योगों को बंद करने का आग्रह किया था और उस प्रदूषणा से होने वाली क्षति के लिये हरजाना देने की मांग की थी। हस पर अमरीका की जो प्रतिक्रिया हुई वह उसके नेताओं की संवेदनशून्यता की परिचायक है। वहां के राष्ट्रपति ने कहा कि उद्योगों को तो बंद नहीं किया जायेगा, किंतु उनसे होने वाली क्षति के लिये हरजाना दिया जाता रहेगा।

भारत के सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन के मूलभूत नियमों में सदा एक सुसंगति, एकात्मता और परस्पर आदर का भाव रहा है। किन्तु आज संपूर्ण समाज में भौतिकता का वर्चस्व हो गया है। अति भौतिकवादिता ने घृणा, द्वेष, छल, बल, भय, दुष्टता, स्वार्थ, असत्य, लोभ और निर्दयता को जीवन की वास्तविकताओं के रूप में स्थापित कर दिया है। भौतिक विकास की सफलताओं ने मनुष्य में अहंकार भर दिया है। इसी अहंकार और अविवेक के प्रमाद में वह निरंतर प्रकृति का तिरस्कार और शोषण करता जा रहा है।

आज हमारा देश जनसंख्या विस्फोट से संत्रस्त है। सारी की सारी योजनाएं व्यर्थ हो जाती है,विकास की चादर कभी पूरी नहीं पड़ती, कभी सिर बाहर तो कभी पैर बाहर। रक्तबीज की तरह फैलते हुए इन स्वार्थी मनुष्यों ने अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये पहाड़ौं को तोड़- तोड़कर भूमिसात् कर दिया, जंगलों को काटकर समतल मैदान वना दिया। नदियों को बांधे तो कौन? पेड़ों के कट जाने से आये पहाड़ों पर भूमिस्खलन के समाचार आते रहते है। उस मिट्टी के नीचे दबा है कौन? वही स्वार्थी-लोभी मानव। नदियों में भयंकर बाढ़ का आना भी आम बात हो गयी है। बाढ़ से प्रभावित क्षेत्र के लोग बेघर-बार होकर महीनों भटकते रहते है। एक ओर बाढ़ का प्रकोप तो दूसरी और भूखे की मार, क्योकि अब देश में वर्षा कम होने लगी है। बादलों को घेरकर लाने वाले गगनचुंबी पेड़ जो नहीँ रहे।

आजकल जंगली जानवर भी समाचारों की सुर्खियों में आने लगे हैं। प्राय: सुना जाता है कि लकड़बग्या गांव में घुसकर किसी बच्चे को उठा ले गया या एक बाघ किसी गांव में घुस आया या हाथियों के झुंड ने गांव के गांव रौंद डाले। आखिर इन सबका क्या कारण है ? फिर वही बात - जंगल कट गये, अब वहां खेत है। बढ़ती हुई जनसंख्या के पेट जो भरने हैं! अब वे बेचारे जानवर कहां जाए, अपनी भूख कहां मिटाएं, अपनी खीझ किस पर उतारें? जिस प्रकार मनुष्य प्रकृति का अंग है, उसी प्रकार जंगली जानवर भी प्रकृति के अभिन्न अंग है। मनुष्य तो प्रकृति से बहुत दूर चला गया है, किंतु ये जानवर प्रकृति के आंचल में ही छिपकर रहना पसंद करते है। मनुष्य इतना स्वार्थी हो गया है कि वह केवल अपने संरक्षण की बात सोचता है और इसी कम में उसने उन निरीह प्राणियों को असुरक्षित कर दिया है।

'महाभारत' का यह उपाख्यान पेडों, जंगलों के प्रसंग पर ध्यातव्य है। इस कथा में पर्यावरण के प्रति महर्षि व्यास की संवेदनशीलता और परोक्ष रूप से तत्कालीन मानवीय मूल्यों का दर्शन होता है। द्यूत क्रीड़ा में पराजय के बाद निर्वासित हुए पांडवों ने द्वैत वन में शरण ली। वहां वे लगभग एक वर्ष आठ महीनों तक रहे। प्रवास की उस अवधि में पांडवों के आखेट से वन के पशु धीरे-धीरे समाप्तप्राय हो गये। इसी बीच एक दिन युधिष्ठिर ने स्वप्न में देखा कि बचे हुए जानवर उनके सम्मुख विलाप कर रहे है कि इस प्रकार तो उनका समूल नाश हो जायेगा। वे उनसे निवेदन करते है कि मनुष्य जंगली जानवरों पर दया करे। तब युधिष्ठिर उस वन को छोड़कर काम्यक वन की ओर प्रस्थान करने का निर्णय लेते है (वन पर्व, अ 258)। यह कथा विभिन्न प्रकार के प्राणियों के बीच सह-अस्तित्व और उनके बीच प्राकृतिक संतुलन के भारतीय दृष्टिकोण को पुष्ट करती है। शान्ति पर्व (अ 282) में भीष्म एक कथा सुनाते है: जब इंद्र ने वृत्र (असुर) का वध कर दिया, तो ब्रह्महत्या उनके पीछे पड़ गयी। इंद्र भयभीत होकर ब्रह्मा के पास गए। तब ब्रह्मा ने ब्रह्महत्या को शांत करने के लिए कई स्थानों पर प्रश्रय दिया, उनमें से एक इस पृथ्वी का वनस्पतिजगत है। इस पर पेड़-पौधों ने ईश्वर से निवेदन किया कि ब्रह्महत्या का भाड़ वहन करना अत्यंत कठिन है, इसे किसी और को सौंप दें। तब ब्रह्मा ने वरदान दिया की जब भी मनुष्य बेमौसम या लोभवश पेड़ काटेगा, तो ब्रह्महत्या का भाड़ स्वतः उसपर चला जाएगा। इस प्रकार यह कथा वनस्पतियों के संरक्षण की अनिवार्यता की ओर इंगित करती है।

हजारों वर्ष पूर्व जब 'महाभारत' की रचना हुई थी, तब व्यास जैसे महान पुरुष ने मनुष्यों को प्रकृति के समस्त प्राणियों एवं वनस्पतियों के सरक्षण के प्रति जागरूक एबं सावधान करने का प्रयत्न किया था। यहां उद्योग पर्व (अ. 29) की एक घटना उल्लेखनीय है। जब कौरव-पांडवों के बीच युद्ध अश्ययंभाबी हो गया तो श्रीकृष्ण ने एक अंतिम संदेश दिया था। संदेश तो स्वय में महत्वपूर्ण है ही, किन्तु उसे जिस प्रकार की उपमा के आवरण में प्रस्तुत किया गया है वह अद्भुत है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि जब युद्ध होगा तब पांडव जंगली जानवरों के समान भयंकर हो जाएंगे। धृतराष्ट्र और उनके पुत्र जंगल के समान हैं, और पांडव उस जंगल में विचरने वाले बाघ के समान। इस जंगल को उसके बाघों के साथ नष्ट होने से बचाओ। जंगल के अभाव में बाघ असुरक्षित हो जाते हैं और बाघों से रहित जंगल असुरक्षित होता है। इस प्रकार दोनों एक-दूसरे की रक्षा करते हैं। यही समृद्धि का मार्ग है। व्यास की कल्पनाशीलता यहां भी लाक्षणिक रूप में पर्यावरण संरक्षण के प्रति जागरूक बनाने का प्रयास करती है।

इस प्रकार यदि हम भारतीयता के झरोखे से अतीत में झांककर देखे तो हमें ‘अरण्य संस्कृति' के दर्शन होंगे। विश्वकबि रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने भारतीय संस्कृति को 'अरण्य’ की संस्कृति कहा है। हमारा इतिहास, दर्शन, हमारी पारम्परा, संस्कृति अरणयों में ही निहित और परिपोषित हुई है। यहां के ऋषि-मुनि, तपस्वी, दार्शनिक, विद्वान अरण्य की शरण में ही अपनी साधना करते रहे और उन्होंने अपने क्रिया- कलापों भारतीय जनमानस को प्रभावित किया। यही सही है कि एक लंबी अवधि तक परतंत्र रहने के कारण हमारे सोच में परवशता आ गयी है। अंग्रेजों ने अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिये भारतीय ताने-बाने को नष्ट कर जो ढांचा बनाया, हम आज भी लगभग उसी को ढोये चले जा रहे है। चूंकि आधुनिकता की हवा पश्चिम से आयी तो हम आधुनिकीकरण के नाम पर भी उन्हीं का अंधानुकरण करते रहे है। इसी क्रम में प्रकृति से जुड़ी अपनी परंपरा और संस्कृति को हम भुला बैठे है। हमने प्रकृति और परंपरा के प्रति अपने उत्तरदायित्व से मुंह मोड़ लिया है। आज सारा मानव समाज प्राकृतिक आपदाओं के रूप में इसका दंड भुगत रहा है। कम से कम अब तो हम चेत जाए। मनुष्य होने के नाते अपनी चेतना, बुद्धि और विवेक का सदुपयोग करें। प्रकृति एवं पर्यावरण को पुन: उसकी शुद्धता और गरिमा में लौटा दे। उसे सुरक्षित रखने के लिये सामाजिक और सांस्कृतिक पर्यावरण की दृढता अनिवार्य है। स्वार्थ और लोभ ने दुष्प्रवृत्तियों का जो साम्राज्य खड़ा कर लिया है, उसे उखाड़ फेंकने की आवश्यकता हैं। इसके लिये मनुष्य को संयम का सहारा लेना होगा। भारतीय परंपरा के अनुरूप प्रेम, करुणा, दयालुता, सहृदयता जैसे उच्च मानवीय गुणों को पुन स्थापित करना होगा, ताकि सह-अस्तित्व की भावना के साथ प्रकृति और पर्यावरण को पुन: उसका वास्तविक स्वरूप प्राप्त हो सके। यह तभी संभव होगा, जब हम सजग, सतर्क और सक्रिय रहेंगे।

प्रयास

सीतापुर और हरदोई के 36 गांव मिलाकर हो रहा है ‘नैमिषारण्य तीर्थ विकास परिषद’ गठन  

Submitted by Editorial Team on Thu, 12/08/2022 - 13:06
sitapur-aur-hardoi-ke-36-gaon-milaakar-ho-raha-hai-'naimisharany-tirth-vikas-parishad'-gathan
Source
लोकसम्मान पत्रिका, दिसम्बर-2022
सीतापुर का नैमिषारण्य तीर्थ क्षेत्र, फोटो साभार - उप्र सरकार
श्री नैभिषारण्य धाम तीर्थ परिषद के गठन को प्रदेश मंत्रिमएडल ने स्वीकृति प्रदान की, जिसके अध्यक्ष स्वयं मुख्यमंत्री होंगे। इसके अंतर्गत नैमिषारण्य की होली के अवसर पर चौरासी कोसी 5 दिवसीय परिक्रमा पथ और उस पर स्थापित सम्पूर्ण देश की संह्कृति एवं एकात्मता के वह सभी तीर्थ एवं उनके स्थल केंद्रित हैं। इस सम्पूर्ण नैमिशारण्य क्षेत्र में लोक भारती पिछले 10 वर्ष से कार्य कर रही है। नैमिषाराण्य क्षेत्र के भूगर्भ जल स्रोतो का अध्ययन एवं उनके पुनर्नीवन पर लगातार कार्य चल रहा है। वर्षा नल सरक्षण एवं संम्भरण हेतु तालाबें के पुनर्नीवन अनियान के जवर्गत 119 तालाबों का पृनरुद्धार लोक भारती के प्रयासों से सम्पन्न हुआ है।

नोटिस बोर्ड

'संजॉय घोष मीडिया अवार्ड्स – 2022

Submitted by Shivendra on Tue, 09/06/2022 - 14:16
sanjoy-ghosh-media-awards-–-2022
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चरखा फीचर
'संजॉय घोष मीडिया अवार्ड्स – 2022
कार्य अनुभव के विवरण के साथ संक्षिप्त पाठ्यक्रम जीवन लगभग 800-1000 शब्दों का एक प्रस्ताव, जिसमें उस विशेष विषयगत क्षेत्र को रेखांकित किया गया हो, जिसमें आवेदक काम करना चाहता है. प्रस्ताव में अध्ययन की विशिष्ट भौगोलिक स्थिति, कार्यप्रणाली, चयनित विषय की प्रासंगिकता के साथ-साथ इन लेखों से अपेक्षित प्रभाव के बारे में विवरण शामिल होनी चाहिए. साथ ही, इस बात का उल्लेख होनी चाहिए कि देश के विकास से जुड़ी बहस में इसके योगदान किस प्रकार हो सकता है? कृपया आलेख प्रस्तुत करने वाली भाषा भी निर्दिष्ट करें। लेख अंग्रेजी, हिंदी या उर्दू में ही स्वीकार किए जाएंगे

​यूसर्क द्वारा तीन दिवसीय जल विज्ञान प्रशिक्षण प्रारंभ

Submitted by Shivendra on Tue, 08/23/2022 - 17:19
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यूसर्क
जल विज्ञान प्रशिक्षण कार्यशाला
उत्तराखंड विज्ञान शिक्षा एवं अनुसंधान केंद्र द्वारा आज दिनांक 23.08.22 को तीन दिवसीय जल विज्ञान प्रशिक्षण प्रारंभ किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए यूसर्क की निदेशक प्रो.(डॉ.) अनीता रावत ने अपने संबोधन में कहा कि यूसर्क द्वारा जल के महत्व को देखते हुए विगत वर्ष 2021 को संयुक्त राष्ट्र की विश्व पर्यावरण दिवस की थीम "ईको सिस्टम रेस्टोरेशन" के अंर्तगत आयोजित कार्यक्रम के निष्कर्षों के क्रम में जल विज्ञान विषयक लेक्चर सीरीज एवं जल विज्ञान प्रशिक्षण कार्यक्रमों को प्रारंभ किया गया

28 जुलाई को यूसर्क द्वारा आयोजित जल शिक्षा व्याख्यान श्रृंखला पर भाग लेने के लिए पंजीकरण करायें

Submitted by Shivendra on Mon, 07/25/2022 - 15:34
28-july-ko-ayojit-hone-vale-jal-shiksha-vyakhyan-shrinkhala-par-bhag-lene-ke-liye-panjikaran-karayen
Source
यूसर्क
जल शिक्षा व्याख्यान श्रृंखला
इस दौरान राष्ट्रीय पर्यावरण  इंजीनियरिंग अनुसंधान संस्था के वरिष्ठ वैज्ञानिक और अपशिष्ट जल विभाग विभाग के प्रमुख डॉक्टर रितेश विजय  सस्टेनेबल  वेस्ट वाटर ट्रीटमेंट फॉर लिक्विड वेस्ट मैनेजमेंट (Sustainable Wastewater Treatment for Liquid Waste Management) विषय  पर विशेषज्ञ तौर पर अपनी राय रखेंगे।

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