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Submitted by Editorial Team on Tue, 10/04/2022 - 16:13
कूरम में पुनर्निर्मित समथमन मंदिर तालाब। फोटो - indiawaterportal
परम्परागत तालाबों पर अनुपम मिश्र की किताब ‘आज भी खरे हैं तालाब’, पहली बार, वर्ष 1993 में प्रकाशित हुई थी। इस किताब में अनुपम ने समाज से प्राप्त जानकारी के आधार पर भारत के विभिन्न भागों में बने तालाबों के बारे में व्यापक विवरण प्रस्तुत किया है। अर्थात आज भी खरे हैं तालाब में दर्ज विवरण परम्परागत तालाबों पर समाज की राय है। उनका दृष्टिबोध है। उन विवरणों में समाज की भावनायें, आस्था, मान्यतायें, रीति-रिवाज तथा परम्परागत तालाबों के निर्माण से जुड़े कर्मकाण्ड दर्ज हैं। प्रस्तुति और शैली अनुपम की है।

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Submitted by Shivendra on Fri, 11/14/2014 - 12:17
Source:
Grains
जलवायु परिवर्तन पूरी दुनिया में चिंता का विषय बना हुआ है। मौसम की अनिश्चितता बढ़ गई है। बदलते मौसम की सबसे बड़ी मार किसानों पर पड़ रही है। अब कोई भी मौसम अपने समय पर नहीं आता। जबकि किसान का ज्ञान व बीज मौसम के हिसाब से ही हैं। इससे किसानों की खाद्य सुरक्षा और आजीविका पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। यह एक बड़ी समस्या है। लेकिन उत्तराखंड के किसानों ने अपनी परंपरागत पहाड़ी खेती व बारहनाजा (मिश्रित) फसलों से यह खतरा काफी हद तक कम कर लिया है।

वैसे तो इस समय हमारे देश के किसान अभूतपूर्व संकट के दौर से गुजर रहे हैं और यह संकट हरित क्रांति, सरकारी कृषि नीति और बाजार की नीतियों से आया है। जलवायु बदलाव का संकट भी मौजूदा विकास नीतियों से जुड़ा हुआ है। बेतहाशा औद्योगीकरण, शहरीकरण और उपभोक्तावादी संस्कृति ने इसे पैदा किया है। लेकिन मौसम बदलाव ने इसे और बढ़ा दिया है। इसका सबसे ज्यादा खामियाजा उन समुदायों को भुगतना पड़ रहा है जिनकी आजीविका सीधे तौर पर प्राकृतिक संसाधनों से जुड़ी है। किसान उनमें से एक है।

हाल ही में मेरा उत्तराखंड जाना हुआ। वहां बीज बचाओ आंदोलन के प्रमुख विजय जड़धारी के साथ तीन दिन रहा। वे टिहरी-गढ़वाल जिले के एक गांव जड़धार में रहते हैं। उसी गांव के नाम पर उन्होंने अपना नाम कर लिया। वहां गांवों में घूमा। इस दौरान वहां की पहाड़ी खेती को करीब से देखने और किसानों से बात करने का मौका मिला। विजय जड़धारी प्रयोगधर्मी किसान हैं।

करीब तीन दशक पहले शुरू हुआ बीज बचाओ आंदोलन अब पहाड़ में फैल गया है। महिलाएं गांवों में बैठक कर इस चेतना को बढ़ा रही हैं। पहाड़ में लोग अपने पारंपरिक बीजों से बारहनाजा की फसलें उगाते हैं। शुद्ध खानपान और पोषण की दृष्टि से जैव विविधता का संरक्षण भविष्य की आशा है।

अगर हम उत्तराखंड की ही बात करें तो यहां सिंचित खेती 13 प्रतिशत है और 87 प्रतिशत असिंचित। सिंचित खेती में विविधता नहीं है जबकि असिंचित खेती में विविधता है। यह खेती पूरी तरह बारिश पर निर्भर है और जैविक भी। जहां देश में हरित क्रांति का संकट सामने आ गया है। देश के जिन इलाकों में किसान खुदकुशी कर रहे हैं, वे वही इलाके हैं जहां हरित क्रांति का असर है।

जलवायु परिवर्तन के दौर में सूखा, अतिवृष्टि में यहां भारी तबाही मचाई है। जून 2013 में तो यहां असमय हुई भारी बारिश व बादल फटने से जो कहर बरपा है, उससे लोग अब तक नहीं उबर पाए हैं। इस बार अच्छी बारिश नहीं हुई। सिर्फ 14-15 अगस्त को अधिक बारिश हुई। बादल फटे। यह अप्रत्याशित थी, इसकी किसी को उम्मीद नहीं थी। फिर बारिश नहीं हुई।

आज मौसम धोखा दे रहा है। कोई भी ऋतु समय पर नहीं आती। मानसून को चौमासा कहते हैं। आषाढ़, सावन, भाद्रपद व आश्विन में सबसे ज्यादा बारिश होती थी। अब बारिश कब आती है और चली जाती है, पता ही नहीं चलता। जब ऋतु समय पर नहीं आती तो फसल भी समय पर नहीं आती। हमारे परंपरागत देशी बीज ऋतु के मुताबिक पकते हैं।

कम बारिश, ज्यादा गर्मी, पानी की कमी और कुपोषण बढ़ने जैसी स्थिति में बारहनाजा खेती सबसे उपयुक्त है। इस खेती में मौसमी उतार-चढ़ाव व पारिस्थितिकी हालत को झेलने की क्षमता होती है। इस प्रकार सभी दृष्टियों, खाद्य सुरक्षा, पोषण सुरक्षा, स्वास्थ्य सुरक्षा, जैव विविधता और मौसम बदलाव में उपयोगी और स्वावलंबी है। पारंपरिक खेती व जंगल बचाने का यह जैव विविधता संरक्षण का यह काम सराहनीय होने के साथ-साथ अनुकरणीय है और जलवायु परिवर्तन के इस कठिन दौर में मार्गदर्शक भी।चतुर्मास जून के आखिर से शुरू होकर अक्टूबर तक थम जाता था। कहावत है कि आठ गथे आषाढ़-छाला बरसना। मानसून की पहली बारिश बहुत गरजना के साथ होती थी। बादल उमड़-घुमड़ कर चारों तरफ से आते थे। बरसते थे और नमी छा जाती थी।

सावन के महीने को अंधियारा महीना कहते थे। न दिन में सूरज निकलता था, न रात में चांद-तारे। सावन में तारा नहीं दिखना चाहिए। एक तारा दिखाई दिया तो कहते थे- एक विस्वा अनाज कम हो जाएगा।

इस माह में रिमझिम बारिश होती थी। हफ्तों तक झड़ी लगी रहती थी। बारिश के साथ कुहरा होता था। कुहरा जमीन से पैदा होता था। रिमझिम बारिश का पानी जमीन में समा जाता था। ऐसे मौसम में आसमान शांत होता था और गर्जना नहीं होती थी।

भादों में जोर की बारिश होती थी। धूप भी होती थी। कभी-कभी बारिश होती थी और कभी-कभी घाम (धूप) भी होता था। इसी प्रकार शरदकालीन मौसम में नवंबर के मध्य में बारिश होती थी। दिसंबर से बर्फ और पाला पड़ना शुरू हो जाता था।

जड़धारी बताते हैं कि उनके गांव में तीस साल पहले तीन फुट बर्फ पड़ती थी, अब तीन इंच भी नहीं पड़ती है। और एकाध इंच पड़ी भी तो जल्द ही पिघल जाती है। 1980 के बाद से बर्फ ही नहीं देखी है।

तापमान इतना कम हो जाता था कि बाल्टी में पाले की परत जम जाती थी। बिल्कुल कांच की तरह। तालाबों में पाले की परत पत्थर से भी नहीं टूटती थी। आंगन में जमी बर्फ को पिघलाकर पशुओं को पानी पिलाते थे।

खेतों की फसलें जैसे गेहूं बर्फ के नीचे दब जाता था। गेहूं दबने से उसमें ज्यादा कंसे फूटते थे। ज्यादा बालियां आती थीं। बर्फ के पानी से खेत में मई-जून तक नमी बनी रहती थी। जबकि अप्रैल में ही गेहूं की फसल आ जाती हैं।

बर्फ और पाले से दो फायदे थे-एक, भूमि में जितने भी फसलों के लिए हानिकारक कीट व कीड़े-मकोड़े होते थे, वे मर जाते थे और दूसरा, फसलें भी अच्छी होती थीं। यहां की अच्छी जलवायु, अच्छी बारिश व अच्छी बर्फ के कारण यहां के किसान एक जमाने में खाद्यान्न, जंगली फल-फूल, सब्जियों की उपज के कारण संपन्नता और खुशहाली थी।

लेकिन अब चार माह गायब हो गए हैं। पहले पूरे देश का मानसून एक होता था। पर अब अलग-अलग मानसून हो गया है। अब एक ही गांव में दो-तीन तरह की बारिश होती है। ग्लेशियर सिकुड़ रहे हैं और पीछे की ओर भाग रहे हैं। सैकड़ों सालों से जमी बर्फ पिघल रही है। नई बर्फ नहीं बन रही है।

लेकिन मौसम परिवर्तन से किसान कुछ सीख भी रहे हैं। और के हिसाब से वे अपने खेतों में फसल बोते हैं। जहां जलवायु बदलाव का सबसे ज्यादा असर धान और गेहूं की फसल पर हुआ है वहीं बारहनाजा की फसलें सबसे कम प्रभावित हुई हैं। मंडुवा, रामदाना, झंगोरा, कौणी की फसलें अच्छी हुई। 2009 में सूखे के बावजूद रामदाना की अच्छी पैदावार हुई और मंडुवा, झंगोरा भी पीछे नहीं रहे। मध्यम सूखा झेलने में धान और गेहूं की अनेक पारंपरिक किस्में भी धोखा नहीं देती हैं।

बर्फानी नदियां हैं- जैसे गंगा, यमुना, अलकनंदा, भागीरथी, भिलंगना, रामगंगा, कोसी, पिंडर आदि। लेकिन इनका पानी खेतों में नहीं जाता। बड़ी नदियों के अलावा यहां कई गाड-गधेरा यानी गैर-बर्फानी छोटी-छोटी नदियां हैं। यही नदियां लोगों की आजीविका का मुख्य आधार रही हैं। क्योंकि इनसे ही सिंचाई के लिए नहरें निकालकर लोगों ने अपने प्यासे खेतों को पानी पिलाया है।

उत्तराखंड के टिहरी गढ़वाल इलाके में किसान और खास कर महिला किसान अपने परंपरागत देशी बीजों से बारहनाजा की फसलें उगाते हैं। बारहनाजा यानी बारह अनाज। लेकिन इसमें अनाज ही नहीं बल्कि दलहन, तिलहन, शाक-भाजी, मसाले व रेशा वाली फसलें शामिल हैं। ये सभी मिश्रित फसलें ही बारहनाजा है।

यहां बीज बचाओ आंदोलन के प्रमुख विजय जड़धारी बताते हैं कि बारहनाजा में 12 फसलें ही हों, यह जरूरी नहीं। भौगोलिक परिस्थिति, खान-पान की संस्कृति के आधार पर इसमें 20 से अधिक फसलें भी होती हैं। जिनमें कोदा (मंडुवा), मारसा (रामदाना), ओगल (कुट्टू ), जोन्याला (ज्वार ), मक्का, राजमा, गहथ (कुलथ ), भट्ट (पारंपरिक सोयाबीन), रैंयास नौरंगी, उड़द, सुंटा लोबिया, रगड़वास, गुरूंष, तोर, मूंग, भगंजीर, तिल, जख्या, भांग, सण सन, काखड़ी खीरा इत्यादि फसलें हैं।

आज जहां पारंपरिक बीज ढूंढने से नहीं मिलते वहीं बीज बचाओ आंदोलन के पास उत्तराखंड की धान की 350 प्रजातियां, गेहूं की 30 , जौ 4, मंडुआ 12, झंगोरा 8, ज्वार 3, ओगल 2, मक्की 10, राजमा 220, गहथ 3, भट्ट 5, नौरंगी 12, सुंटा 8, तिल 4, भंगजीर 3 प्रजातियां हैं। इनकी समस्त जानकारी है। उनके पास जिंदा जीन बैंक है। इसके अलावा दुर्लभ चीणा, गुरूश, पहाड़ी काखड़ी, जख्या सहित दर्जनों तरह की साग-सब्जी के बीज उगाए जा रहे हैं और किसानों को दिए जा रहे हैं।

उत्तराखंड जैव विविधता के मामले में और जगहों से आज भी अच्छा है। यहां सैकड़ों पारंपरिक व्यंजन हैं। फल, फूल, पत्ते और कंद-मूल हैं, जो लोगों को निरोग बनाते हैं। पानी के स्रोत सूख न जाएं इसलिए जंगल बचाने का काम किया जा रहा है।

जड़धार का जंगल जो कभी उजड़ चुका था, अब हरा-भरा हो गया है। बांज-बुरास का यह जंगल कई जलस्रोतों का उद्गम स्थल है, जिससे सीधे पाइप के माध्यम से लोगों को बारहमास पानी उपलब्ध है।

कुल मिलाकर, यह कहा जा सकता है कि मौसमी बदलाव के कारण जो समस्याएं और चुनौतियां आएंगी, उनसे निपटने में भी यह खेती कारगर है। कम बारिश, ज्यादा गर्मी, पानी की कमी और कुपोषण बढ़ने जैसी स्थिति में बारहनाजा खेती सबसे उपयुक्त है। इस खेती में मौसमी उतार-चढ़ाव व पारिस्थितिकी हालत को झेलने की क्षमता होती है। इस प्रकार सभी दृष्टियों, खाद्य सुरक्षा, पोषण सुरक्षा, स्वास्थ्य सुरक्षा, जैव विविधता और मौसम बदलाव में उपयोगी और स्वावलंबी है। पारंपरिक खेती व जंगल बचाने का यह जैव विविधता संरक्षण का यह काम सराहनीय होने के साथ-साथ अनुकरणीय है और जलवायु परिवर्तन के इस कठिन दौर में मार्गदर्शक भी।

लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं

Submitted by vinitrana on Thu, 11/13/2014 - 07:54
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flood in kosi
1950 में कोसी के दोनों तटबंधों का निर्माण हुआ जिनके बीच 304 गांवों के करीब एक लाख बानबे हजार लोग शुरू-शुरू में फंस गए थे। इनका पुनर्वास का काम बहुत ही ढीला था और कई गांवों के पुनर्वास की जमीन का अभी तक अधिग्रहण नहीं हुआ है। बाद में तटबंधों की लंबाई बढ़ाए जाने के कारण इन गांवों की संख्या 380 हो गई और आजकल या आबादी बढ़कर 12 लाख के आस पास पहुंच गई है।

बिहार विधानसभा मे इस पर कई बार चर्चा हुई जिसमें परमेश्वर कुंअर का यह बयान (जुलाई, 1964) बहुत ही महत्वपूर्ण है। वो कहते हैं, कोसी तटबंधों के बीच खेती नहीं हो सकती है। वहां तमाम जमीन पर बालू का बुर्ज बना हुआ है। वहां कांस का जंगल है, दलदल है। कृषि विभाग इसको देखता नहीं है की वहां पर किस प्रकार खेती की उन्नति की जा सकती है। जहां कल जंगल था वहां आज गांव है।

जहां कल गांव था वहां आज जंगल है। इसी प्रकार जहां-जहां कल गांव था वहां आज नदी हो जाती है। कोसी के बीच ईंट और खपड़े के घर नहीं बन सकते हैं। घर छाने के लिए घास नहीं मिलती है। मवेशियों को सालों भर कोई-ना-कोई बीमारी होती ही रहती है। वेटनरी डॉक्टर वहां हैं मगर कोई ध्यान नहीं देते हैं। लोगों के पढ़ने-लिखने तथा जीविका के लिए कोई प्रबंध नहीं है। उनके लिए जो 6 शय्या का अस्पताल है वह रहने लायक नहीं है। वहां डॉक्टर प्राइवेट प्रैक्टिस करते हैं।

पैथॉलॉजिकल टेस्ट और मालगुजारी देने के लिए लोगों के पास पैसे नहीं हैं। पहले लोगों को रिलीफ मिलता था लेकिन अब वो भी नहीं मिलता। सहरसा और पूर्णिया के बीच मे जो शोक की नदी बहती थी उसको तीन मील के चौड़े तटबंध में बांध दिया गया है। पुनर्वास की चर्चा की जाती है लेकिन यह फाइल मिनिस्टर साहब के यहां सालभर से पड़ी हुई है।

कोसी के इलाके के लड़के मैट्रिक तक पढ़ नहीं पाते हैं, उनके पास पैसा नहीं रहता है। नाम लिखा लेते हैं मगर बीच में ही पढ़ाई छोड़ देनी पड़ती है। कुछ लोग बाहर नौकरी करते हैं। कुछ की जमीन बाहर में है। मेरी भी 2-3 बीघा जमीन बाहर में है। जितने लोगों ने कर्ज लिया है वो उसकी अदायगी भी नहीं कर पाते हैं क्योंकि उनकी हालत बहुत ही बुरी है। कोसी तटबंध के भीतर के लोगों की हालत बहुत दयनीय है और उनको कोई देखने वाला नहीं है।

कोसी तटबंधों के भीतर जो हालत है उसको जानने का कोई उपाय नहीं है। नाव का कोई इंतजाम नहीं किया गया है। कलक्टर साहब से कहते हैं की नाव का इंतजाम करिए तो वो कहते हैं की एस० डी०ओ० साहब से कहिए।

इसके पहले 1959 में इन कम नसीब लोगों की हालत के बारे में एक अन्य विधायक रसिक लाल यादव ने विधानसभा में कहा था कि कोसी नदी को अब बांध दिया गया है। इसके बीच से पहले लोग निकल सकते थे लेकिन अब (उन्हें) घेर दिया गया है जिस से वे अब निकल नहीं सकेंगे। और रेवेन्यू विभाग की हालत यह है कि सरकार के सर्किल अफसर लोगों को खदेड़-खदेड़ कर मालगुजारी वसूल करते हैं जबकि उनका घर पानी में है।

वो ऐसे लोगों को भी खदेड़-खदेड़ कर मालगुजारी वसूलते हैं जो केवल ककड़ी पैदा करके अपना जीवन बसर करते हैं। जो नदी के बाहर हैं उनको कहा जाता है कि खेती करने के लिए बांध के बीच में जाएं। लेकिन जब वो खेती करने के लिए जाते हैं तो घटवार उन्हें खदेड़-खदेड़ कर घाट वसूल करते हैं। कोसी योजना उनकी रक्षा के लिए बनाई गई थी न कि उन्हें खदेड़ने के लिए। ऐसा उन्होंने 1959 में कहा था।

जहां कल गांव था वहां आज जंगल है। इसी प्रकार जहां-जहां कल गांव था वहां आज नदी हो जाती है। कोसी के बीच ईंट और खपड़े के घर नहीं बन सकते हैं। घर छाने के लिए घास नहीं मिलती है। मवेशियों को सालों भर कोई-ना-कोई बीमारी होती ही रहती है। वेटनरी डॉक्टर वहां हैं मगर कोई ध्यान नहीं देते हैं। लोगों के पढ़ने-लिखने तथा जीविका के लिए कोई प्रबंध नहीं है। उनके लिए जो 6 शय्या का अस्पताल है वह रहने लायक नहीं है। वहां डॉक्टर प्राइवेट प्रैक्टिस करते हैं।आज इस घटना को करीब 50 साल हो गए हैं। इस बीच क्या-क्या हुआ वह बताते हैं कोसी तटबंधों के बीच फंसे एक गांव भेलाही के बुज़ुर्ग। उनका कहना है कि हमारा घर दरिया में है और दरिया हमारे घर में है। साल के तीन चार महीनें पानी हमारे चारो तरफ रहता है। पड़ोसी के घर जाना हो, नमाज़ पढ़ने मस्ज़िद जाना हो, नाव से जाइए। टट्टी, पेशाब सब नाव पर और औरत-मर्द सभी बेपर्दा। दस हजार आबादी होगी हमारी पंचायत की।

गांव में एक मिडिल स्कूल, एक प्राइमरी स्कूल और एक मदरसा है। तीन महीने कमर भर पानी रहता है उसमें। दरिया की पेटी ऊपर उठ रही है। सुनने में यह बड़ी मामूली बात लगती है मगर हमारे तो घर के फर्श की भी वही हालत है। पांच साल के दरम्यान इतनी मिट्टी घर में पड़ जाती है कि दरवाजे खिड़की में तब्दील हो जाते हैं। अब बनाइये घर दूसरी जगह।

यह तटबंध जब बन रहा था तब पूरब वाला तटबंध बनगांव में और पशिम वाला तटबंध पुनाच से गुजरने की बात थी। 18 किलोमीटर का फासला था जो बाद में 9 किलोमीटर का रह गया। बांध को आड़ा तिरछा जैसा चाहा मोड़ा और अपनी सहूलियत के मुताबिक बनाया। पचास साल पहले लोग सीधे-सादे थे और पढ़े-लिखे नहीं थे, उन्हें जिस तरह से बेवकूफ बनाया जा सकता था बनाया गया।

1956 में जब यह तटबंध बन रहा था तभी पूरब से तिलजुगा नदी हम लोगों पर चढ़ आई और तब हम लोगों को लगा की अब यह खतरा हम लोगों पर बना ही रहेगा। बवाल मचा और बहुत से लोग जेल में ठूंस दिए गए।

नेता लोग दिलासा देते थे कि तुम लोगों की सारी मांगें पूरी कर दी जाएंगी तो कभी कहते थे कि ये पूरा इलाका समंदर हो जाएगा और तुम लोगों को यहां से जाना पड़ेगा। काफी झंझट के बाद जल्लै में पुनर्वास मिला। कुछ लोग वहां गए मगर जल्दी ही वापस आ गए क्योंकि समय के साथ वहां भी पानी भर गया। फिर दो कट्ठा जमीन में कहीं गांव का घर बनता है। सरकार आदमी गिनती है माल मवेशी नहीं।

खेत खलिहान और गोचर के बारे में किसी ने सोचा ही नहीं। जिसे पता ही नहीं था कि गांव की जरूरतें क्या हैं, वही मुख्तार था, वही वायदा करता था और उसे ही उन वायदों को पूरा करना था। ऐसा आदमी झूठ नहीं बोलेगा तो और क्या करेगा। सच बोलकर अपनी फजीहत करवाएगा?

हम लोग इनके झांसे में आ गए। कहते थे कि सारी जमीन सींचेंगे। वो जमीन कहां है? सब जगह बाग लगाएंगे, वो बाग कहां है? पूरे इलाके को जन्नत बनाएंगे, अगर यही जन्नत है तो फिर जहन्नुम किधर है? बालू वाली जमीन की मालगुजारी हम देते हैं, जिसे माफ करने का वायदा हमसे किया गया था। यहां से निकलने कि कोशिश करो तो घाट पर पैसा देते-देते दम निकल जाए। पहले से पता होता कि यह मुसीबत झेलनी पड़ेगी तो तभी मर गए होते या तटबंध बनाने वालों को ही मार दिया होता। मगर मरना तो इत्तिफाक है, यह किसी कि मर्जी से तो नहीं होता है।

तटबंध टूटता है तो यह जानते हुए कि उस पार के लोगों को बहुत तकलीफ होगी मगर जब हम हर साल वो तकलीफें झेलते हैं तो कभी-कभी आप भी उसका मजा लीजिए। हमारे यहां तो बाहर की बिरादरी ने शादी ब्याह भी बंद कर रखा है। बाजार जाना है तो सहरसा जाइए और लौट आए तो समझिए की नई जिंदगी हो गई। हम लोग वोट देते हैं इसलिए नहीं कि जो जीतेगा वो हमारे लिए कुछ करेगा।

वोट उसे इसलिए देते हैं कि इसी बहाने कम-से-कम एक आदमी का हम लोगों मे से भला हो जाएगा। अब तो हमारे सारे गिले-शिकवे भी जाते रहे। फारसी में एक कहावत है, 'जश्ने-ए-अंबोह मर्ग-ए-दारद' जिसका मतलब होता है कि जहां एक आदमी मरता है वहां तो मातम होता है मगर जहां बड़ी तादाद में लोग मरते हैं वहां मातम नहीं होता है, जश्न होता है। कोई लाशों को एक जगह इकट्ठा करेगा, कोई मुर्दों को नहलाने का काम करेगा, कोई कब्र खुदवाएगा, कोई मेहमानों की खातिरदारी में लगेगा, तो कोई बड़े पैमाने पर नमाज का इंतेजाम करेगा। सबके लिए काम होगा, चारो तरफ रौनक-ही-रौनक और मातम मनाने वाला कोई नहीं। हम लोगों की हालत वैसे ही हो गई है। सब अपने काम में मस्त और हम लोगों के बारे में सोचने वाला कोई नहीं। लोग देखने आते हैं जैसे हम कोई तमाशा है।

इन दोनों बयानों में कोई फर्क नजर आता है क्या? और क्या हमारी व्यवस्था इसी तरह चलती रहेगी? पचास साल बाद कड़वाहट बढ़ी ही है जिसे किसी भी सभ्य समाज में समाप्त हो जाना चाहिए था।

Submitted by Shivendra on Sat, 11/08/2014 - 13:48
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water crisis
दिल्ली की पिछली 49 दिन वाली सरकार उम्मीदों के जिस रथ पर सवार होकर आई थी उसमें सबसे ज्यादा प्यासा अश्व ‘‘जल’’ का ही है- हर घर को हर दिन सात सौ लीटर पानी, वह भी मुफ्त। उसकी घोषणा भी हो गई थी लेकिन उसकी हकीकत क्या रही? कहने की जरूरत नहीं है। दिल्ली एक बार फिर चुनाव के लिए तैयार है और जाहिर है कि सभी राजनीतिक दल बिजली, पानी के वायदे हवा में उछालेंगे। जरा उन उम्मीदों पर एतबार करने से पहले यह भी जानना जरूरी है कि इस महानगर में पानी की उपलब्धता क्या सभी के कंठ तर करने में सक्षम है भी कि नहीं।

दिल्ली में तेजी से बढ़ती आबदी और यहां विकास की जरूरतों, महानगर में अपने पानी की अनुपलब्धता को देखें तो साफ हो जाता है कि पानी के मुफ्त वितरण का यह तरीका ना तो व्यावहारिक है, ना ही नीतिगत सही और ना ही नैतिक। यह विडंबना ही है कि अब हर राज्य सरकार सस्ती लोकप्रियता पाने के लिए कुछ-ना-कुछ मुफ्त बांटने के शिगूफे छोड़ती है जबकि बिजली-पानी को बांटने या इसके कर्ज माफ करने के प्रयोग अभी तक सभी राज्यों में असफल ही रहे हैं। दिल्ली में जरूरत पानी के सही तरह से प्रबंधन और मितव्ययता से इस्तेमाल की सीख को बढ़ावा देने की है।

एक राजनीतिक दल की वेबसाइट कहती है कि दिल्ली में 840 मिलियन गैलन प्रतिदिन यानी प्रत्येक व्यक्ति को 210 लीटर पानी उपलब्ध है, जो लंदन व जर्मनी से कहीं ज्यादा है। दिल्ली जल बोर्ड को 685 करोड़ का मुनाफा होता है और मुफ्त पानी देने पर महज 470 करोड़ का खर्च होगा। इसके अलावा दिल्ली में अवैध टैंकर माफिया पर रोक लगा कर यह पूर्ति आसानी से की जा सकती है।

देखने में एकबारगी योजना अच्छी लगती है लेकिन दिल्ली की जल कुंडली बांचे तो पता चलता है कि सब कुछ इतना लुभावना नहीं है और उपलब्धता, मांग और आपूर्ति में जमीन-आसमान का फर्क है और फिर किसी परिवार की परिभाषा भी साफ नहीं है- दिल्ली में कहीं दौ सौ गज फ्लैट में चार लोग रहते हैं तो कहीं 25 गज में दस लोग। यह साढ़े उन्नीस लाख से ज्यादा जल उपभोक्ता पहले से दर्ज है यानी इतने परिवार हैं, जबकि कई लाख लोग तक कनेक्शन पहुंचा नहीं है और वे चोरी या दीगर तरीके से पानी की जरूरत पूरी करते हैं।

दिल्ली से बड़े लेकिन व्यवस्थित शहर पेकिंग या बीजिंग की जल व्यवस्था बानगी है - वहां हर घर में तीन तरह का पानी आता है और उनके दाम और सप्लाई की मात्रा भी अलग-अलग होती है। पीने लायक पानी सबसे महंगा व मात्रा सबसे कम, रसोई के काम का पानी उससे कम दाम में व मात्रा ज्यादा, जबकि गुसलखाने में इस्तेमाल पानी के दाम सबसे कम व मात्रा अफरात।

जाहिर है कि इसके लिए पूरा पर्यावास व उसमें पड़ी पाईपलाईन, घर से निकलने वाले गंदे पानी का परिशोधन और शहर के बीच से निकलने वाली नदी, नहर और तालाबों पर नियोजित काम किया गया है। एक बात और, वहां बिजली या पानी की चोरी के किस्से सुनने को मिलते नहीं हैं। अब दिल्ली के 1484 वर्ग किलोमीटर में कोई 16 हजार किलोमीटर लंबी पानी की लाईनें जमीन के भीतर पड़ी हैं, तो भी हर रोज कई लाख लीटर पानी चोरी होने का रोना सरकार व मुनाफे में चल रहा जल बोर्ड रोता है।

राजधानी के सबसे महंगे रिहाईशी इलाकों में शुमार वसंतकुंज में भले ही करोड़ में दो कमरे वाला फ्लैट मिल जाए, लेकिन पानी के लिए टैंकर का सहारा लेना ही होगा। ठीक यही हालत दिल्ली की पांच सौ से ज्यादा पुनर्वास, कच्ची कालोनियों की भी है। यदि सभी जगह ठीक तरीके से टैंकर सरकारी तौर पर पहुंचाने पड़ें तो टैंकर का प्रबंधन अपने-आप में एक बड़ा ‘‘बोफोर्स’’ हो जाएगा। यहां जान लेना जरूरी है कि पानी सप्लाई की माकूल व्यवस्था के लिए चाक चौबंद पाईप बिछाना कई हजार करोड़ का काम है और यदि जल बोर्ड के दिख रहे मुनाफे को पहले साल मुफ्त में ही बांट दिया गया तो अगले साल ना तो मुनाफा दिखेगा और ना ही नई पाईप लाईन डालने, पुराने की देखभाल करने का बजट।

केंद्रीय भूजल बोर्ड ने सन् 2001 यानी आज से 13 साल पहले एक मास्टर प्लान बनाया था जिसमें दिल्ली में प्रत्येक व्यक्ति की पानी की मांग को औसतन 363 लीटर मापा था, इसमें 225 लीटर घरेलू इस्तेमाल के लिए, 47 लीटर कल-कारखानों में, 04 लीटर फायर ब्रिगेड के लिए, 35 लीटर खेती व बागवानी में और 52 लीटर अन्य विशेष जरूरतों के लिए। अनुपचारित पानी को दूर तक लाने ले जाने के लिए रिसाव व अन्य हानि को भी जोड़ लें तो यह औसत 400 लीटर होता है। यदि यहां की आबादी एक करोड़ चालीस लाख ली जाए तो हर रोज पानी की मांग 1,232 मिलियन गैलन होती है। यदि अपने संसाधनों की दृष्टि से देखें तो दिल्ली के पास इसमें से बामुश्किल 15 फीसदी पानी ही अपना है। बाकी पानी यमुना, गंगा, भाखड़ा, हरियाणा, उत्तरांचल आदि से आता है।

कोई भी सरकार आज से बनिस्पत आने वाले कई सालों की आबादी, आंकड़ों पर उपलब्धता पर योजना बनाती है। यदि ‘‘आप’’ सही में अपने वायदे पर दूरगामी खरा उतरना चाहती है तो उसे दिल्ली की जल कुंडली को सही तरीके से खंगालना चाहिए और आने वाले दो साल में यहां की आबादी को नियंत्रित करने, यहां रोजगार व बेहतर भविष्य की तलाश में आ रहे लोगों को दूरस्थ इलाकों में वैकल्पिक व्यवस्था करने जैसी योजनाओं पर गंभीरता से काम करना होगा। बगैर संसाधन बढ़ाए मांग बढ़ाने से बात तो बनने से रही- फिर बस दिल्ली सरकार केंद्र को कोसेगी व केंद्र सरकार बजट की सीमाएं बताएगी- बीच में जनता यथावत पानी के लिए कलपती रहेगी। दिल्ली में अकेले यमुना से 724 मिलियन घनमीटर पानी आता है, लेकिन इसमें से 580 मिलियन घन मीटर पानी बाढ़ के रूप में यहां से बह भी जाता है। हर साल गर्मी के दिनों में पानी की मांग और सप्लाई के बीच कोई 300 एमजीडी पानी की कमी होना आम बात है। अप्रैल से सितंबर तक वजीराबाद जल संयंत्र से निकलने वाले पानी की मात्रा 30 फीसदी कम हो जाती है।

आमतौर पर सामान्य बारिश वाले सालों में इस समय दिल्ली में वजीराबाद बैराज पर यमुना का जलस्तर 674.5 फुट से अधिक होता है, जो बीते कई सालों से लगातार 672.2 पर टिका है। गर्मी में पश्चिमी यमुना नहर का जलस्तर 710 फुट से नीचे होने पर वजीराबाद, हैदरपुर और चंद्रावल जल संयंत्रों को पर्याप्त पानी नहीं मिल पाता है। यह हर साल हल्ला होता है कि हरियाणा ने बगैर किसी चेतावनी के पानी की सप्लाई रोक दी। सनद रहे कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के मुताबिक यमुना का जलस्तर दिल्ली की सीमा पर 674.5 से कम में ही होना चाहिए।

यहां जानना जरूरी है कि 12 मई 1994 को केंद्र सरकार की पहल पर पांच राज्यों के बीच यमुना के पानी के बंटवारे पर एक समझौता हुआ था। माना गया था कि दिल्ली में ओखला बैराज तक यमुना में पानी का बहाव 11 अरब 70 करोड़ घनमीटर है। इसमें से हरियाणा को पांच अरब 73 करोड़ घनमीटर, उ.प्र. को चार अरब तीन लाख घमी, राजस्थान को आए रोज जब अप्रत्याशित ढंग से यमुना में पानी कम होता है तो दिल्ली वाले हरियाणा पर कम और गंदा पानी छोड़ने का आरोप मढ़ देते हैं। हरियाणा भी दिल्ली पर तयशुदा संख्या से अधिक पंप चलाकर ज्यादा पानी खींचने को समस्या का कारण बता देता है।

यदि सही में कोई दिल्ली में अफरात पानी चाहता है तो उसे इस बह गए पानी की हर बूंद को सहेजने की तकनीक ईजाद करना होगी, क्योंकि इन दिनों पानी पर निर्भरता का सबसे बड़ा जरिया, भूजल तो यहां से कब का रूठ चुका है। यहां भूजल की उपलब्धता सालाना 291.54 मिलियन घन मीटर है। पाताल खोद कर निकाले गए पानी से यहां 47 हजार पांच सौ हेक्टेयर खेत सींचे जाते हैं। 142 मिलियन घन मीटर पानी कारखानों व पीने के काम आता है।

दिल्ली जलबोर्ड हर साल 100 एमजीडी पानी जमीन से निकालता है। गुणवत्ता के पैमाने पर यहां का भूजल लगभग जहरीला हो गया है। जहां सन् 1983 में यहां 33 फुट गहराई पर पानी निकल आता था, आज यह गहराई 132 फुट हो गई है और उसमें भी नाईट्रेट, फ्लोराइड व आर्सेनिक जैसे रसायन बेहद हानिकारक स्तर पर हैं।

सनद रहे कि पाताल के पानी को गंदा करना तो आसान है लेकिन उसका परिशोधन करना लगभग असंभव। जाहिर है कि भूजल के हालात सुधारने के लिए बारिश के पानी से रिचार्ज व उसके कम दोहन की संभावनाएं खोजनी होंगी व यहां से ज्यादा पानी लिया नहीं जा सकता।

सन् 2002 में ईपीडब्ल्यू (इकानामिक एंड पॉलिटिकल वीकली) ने डॉ. विक्रम सोनी के एक शोध को प्रकाशित किया था- ‘‘एक शहर का पानी व वहन क्षमता-दिल्ली’’, जिसमें बताया गया था कि यहां हर स्रोत से उपलब्ध पानी की कुल मात्रा अस्सी लाख से ज्यादा लोगों के लिए नहीं हैं।

दिल्ली जलबोर्ड का कहना है कि यहां मांग 1080 मिलियन गैलन रोजाना (एमजीडी) की है, जबकि उपलब्धता 835 एमजीडी है। नियंत्रक एवं लेखा परीक्षक यानि केग की ताजा रपट चेतावनी देती है कि प्रति व्यक्ति प्रतिदिन 172 लीटर पानी की मानक मांग की तुला में दिल्ली के 24.8 फीसदी घरों को हर रोज 3.82 लीटर पानी भी नहीं मिलता है।

लुभावने नारे पानी की उपलब्धता को बढ़ा नहीं सकते। पानी को जरूरत के लिहाज से अलग-अलग दर पर अलग-अलग पाईपों से पहुंचाना बेहद खर्चीला व दूरगामी योजना है। घरों से निकले बेकार पानी का इस्तेमाल बढ़ाने के लिए तकनीकी विकसित करना भी तात्कालिक तौर पर संभव नहीं है। इन सब काम के लिए बजट, जमीन, मूलभूत सुविधाएं जुटाने के लिए कम-से-कम पांच साल का समय चाहिए।

कोई भी सरकार आज से बनिस्पत आने वाले कई सालों की आबादी, आंकड़ों पर उपलब्धता पर योजना बनाती है। यदि ‘‘आप’’ सही में अपने वायदे पर दूरगामी खरा उतरना चाहती है तो उसे दिल्ली की जल कुंडली को सही तरीके से खंगालना चाहिए और आने वाले दो साल में यहां की आबादी को नियंत्रित करने, यहां रोजगार व बेहतर भविष्य की तलाश में आ रहे लोगों को दूरस्थ इलाकों में वैकल्पिक व्यवस्था करने जैसी योजनाओं पर गंभीरता से काम करना होगा। बगैर संसाधन बढ़ाए मांग बढ़ाने से बात तो बनने से रही- फिर बस दिल्ली सरकार केंद्र को कोसेगी व केंद्र सरकार बजट की सीमाएं बताएगी- बीच में जनता यथावत पानी के लिए कलपती रहेगी।

प्रयास

Submitted by Editorial Team on Thu, 12/08/2022 - 13:06
सीतापुर का नैमिषारण्य तीर्थ क्षेत्र, फोटो साभार - उप्र सरकार
श्री नैभिषारण्य धाम तीर्थ परिषद के गठन को प्रदेश मंत्रिमएडल ने स्वीकृति प्रदान की, जिसके अध्यक्ष स्वयं मुख्यमंत्री होंगे। इसके अंतर्गत नैमिषारण्य की होली के अवसर पर चौरासी कोसी 5 दिवसीय परिक्रमा पथ और उस पर स्थापित सम्पूर्ण देश की संह्कृति एवं एकात्मता के वह सभी तीर्थ एवं उनके स्थल केंद्रित हैं। इस सम्पूर्ण नैमिशारण्य क्षेत्र में लोक भारती पिछले 10 वर्ष से कार्य कर रही है। नैमिषाराण्य क्षेत्र के भूगर्भ जल स्रोतो का अध्ययन एवं उनके पुनर्नीवन पर लगातार कार्य चल रहा है। वर्षा नल सरक्षण एवं संम्भरण हेतु तालाबें के पुनर्नीवन अनियान के जवर्गत 119 तालाबों का पृनरुद्धार लोक भारती के प्रयासों से सम्पन्न हुआ है।

नोटिस बोर्ड

Submitted by Shivendra on Tue, 09/06/2022 - 14:16
Source:
चरखा फीचर
'संजॉय घोष मीडिया अवार्ड्स – 2022
कार्य अनुभव के विवरण के साथ संक्षिप्त पाठ्यक्रम जीवन लगभग 800-1000 शब्दों का एक प्रस्ताव, जिसमें उस विशेष विषयगत क्षेत्र को रेखांकित किया गया हो, जिसमें आवेदक काम करना चाहता है. प्रस्ताव में अध्ययन की विशिष्ट भौगोलिक स्थिति, कार्यप्रणाली, चयनित विषय की प्रासंगिकता के साथ-साथ इन लेखों से अपेक्षित प्रभाव के बारे में विवरण शामिल होनी चाहिए. साथ ही, इस बात का उल्लेख होनी चाहिए कि देश के विकास से जुड़ी बहस में इसके योगदान किस प्रकार हो सकता है? कृपया आलेख प्रस्तुत करने वाली भाषा भी निर्दिष्ट करें। लेख अंग्रेजी, हिंदी या उर्दू में ही स्वीकार किए जाएंगे
Submitted by Shivendra on Tue, 08/23/2022 - 17:19
Source:
यूसर्क
जल विज्ञान प्रशिक्षण कार्यशाला
उत्तराखंड विज्ञान शिक्षा एवं अनुसंधान केंद्र द्वारा आज दिनांक 23.08.22 को तीन दिवसीय जल विज्ञान प्रशिक्षण प्रारंभ किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए यूसर्क की निदेशक प्रो.(डॉ.) अनीता रावत ने अपने संबोधन में कहा कि यूसर्क द्वारा जल के महत्व को देखते हुए विगत वर्ष 2021 को संयुक्त राष्ट्र की विश्व पर्यावरण दिवस की थीम "ईको सिस्टम रेस्टोरेशन" के अंर्तगत आयोजित कार्यक्रम के निष्कर्षों के क्रम में जल विज्ञान विषयक लेक्चर सीरीज एवं जल विज्ञान प्रशिक्षण कार्यक्रमों को प्रारंभ किया गया
Submitted by Shivendra on Mon, 07/25/2022 - 15:34
Source:
यूसर्क
जल शिक्षा व्याख्यान श्रृंखला
इस दौरान राष्ट्रीय पर्यावरण  इंजीनियरिंग अनुसंधान संस्था के वरिष्ठ वैज्ञानिक और अपशिष्ट जल विभाग विभाग के प्रमुख डॉक्टर रितेश विजय  सस्टेनेबल  वेस्ट वाटर ट्रीटमेंट फॉर लिक्विड वेस्ट मैनेजमेंट (Sustainable Wastewater Treatment for Liquid Waste Management) विषय  पर विशेषज्ञ तौर पर अपनी राय रखेंगे।

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खासम-खास

तालाब ज्ञान-संस्कृति : नींव से शिखर तक

Submitted by Editorial Team on Tue, 10/04/2022 - 16:13
Author
कृष्ण गोपाल 'व्यास’
talab-gyan-sanskriti-:-ninv-se-shikhar-tak
कूरम में पुनर्निर्मित समथमन मंदिर तालाब। फोटो - indiawaterportal
परम्परागत तालाबों पर अनुपम मिश्र की किताब ‘आज भी खरे हैं तालाब’, पहली बार, वर्ष 1993 में प्रकाशित हुई थी। इस किताब में अनुपम ने समाज से प्राप्त जानकारी के आधार पर भारत के विभिन्न भागों में बने तालाबों के बारे में व्यापक विवरण प्रस्तुत किया है। अर्थात आज भी खरे हैं तालाब में दर्ज विवरण परम्परागत तालाबों पर समाज की राय है। उनका दृष्टिबोध है। उन विवरणों में समाज की भावनायें, आस्था, मान्यतायें, रीति-रिवाज तथा परम्परागत तालाबों के निर्माण से जुड़े कर्मकाण्ड दर्ज हैं। प्रस्तुति और शैली अनुपम की है।

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मौसम बदलाव का मुकाबला बारहनाजा से

Submitted by Shivendra on Fri, 11/14/2014 - 12:17
Author
बाबा मायाराम
Grains
.जलवायु परिवर्तन पूरी दुनिया में चिंता का विषय बना हुआ है। मौसम की अनिश्चितता बढ़ गई है। बदलते मौसम की सबसे बड़ी मार किसानों पर पड़ रही है। अब कोई भी मौसम अपने समय पर नहीं आता। जबकि किसान का ज्ञान व बीज मौसम के हिसाब से ही हैं। इससे किसानों की खाद्य सुरक्षा और आजीविका पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। यह एक बड़ी समस्या है। लेकिन उत्तराखंड के किसानों ने अपनी परंपरागत पहाड़ी खेती व बारहनाजा (मिश्रित) फसलों से यह खतरा काफी हद तक कम कर लिया है।

वैसे तो इस समय हमारे देश के किसान अभूतपूर्व संकट के दौर से गुजर रहे हैं और यह संकट हरित क्रांति, सरकारी कृषि नीति और बाजार की नीतियों से आया है। जलवायु बदलाव का संकट भी मौजूदा विकास नीतियों से जुड़ा हुआ है। बेतहाशा औद्योगीकरण, शहरीकरण और उपभोक्तावादी संस्कृति ने इसे पैदा किया है। लेकिन मौसम बदलाव ने इसे और बढ़ा दिया है। इसका सबसे ज्यादा खामियाजा उन समुदायों को भुगतना पड़ रहा है जिनकी आजीविका सीधे तौर पर प्राकृतिक संसाधनों से जुड़ी है। किसान उनमें से एक है।

हाल ही में मेरा उत्तराखंड जाना हुआ। वहां बीज बचाओ आंदोलन के प्रमुख विजय जड़धारी के साथ तीन दिन रहा। वे टिहरी-गढ़वाल जिले के एक गांव जड़धार में रहते हैं। उसी गांव के नाम पर उन्होंने अपना नाम कर लिया। वहां गांवों में घूमा। इस दौरान वहां की पहाड़ी खेती को करीब से देखने और किसानों से बात करने का मौका मिला। विजय जड़धारी प्रयोगधर्मी किसान हैं।

करीब तीन दशक पहले शुरू हुआ बीज बचाओ आंदोलन अब पहाड़ में फैल गया है। महिलाएं गांवों में बैठक कर इस चेतना को बढ़ा रही हैं। पहाड़ में लोग अपने पारंपरिक बीजों से बारहनाजा की फसलें उगाते हैं। शुद्ध खानपान और पोषण की दृष्टि से जैव विविधता का संरक्षण भविष्य की आशा है।

अगर हम उत्तराखंड की ही बात करें तो यहां सिंचित खेती 13 प्रतिशत है और 87 प्रतिशत असिंचित। सिंचित खेती में विविधता नहीं है जबकि असिंचित खेती में विविधता है। यह खेती पूरी तरह बारिश पर निर्भर है और जैविक भी। जहां देश में हरित क्रांति का संकट सामने आ गया है। देश के जिन इलाकों में किसान खुदकुशी कर रहे हैं, वे वही इलाके हैं जहां हरित क्रांति का असर है।

जलवायु परिवर्तन के दौर में सूखा, अतिवृष्टि में यहां भारी तबाही मचाई है। जून 2013 में तो यहां असमय हुई भारी बारिश व बादल फटने से जो कहर बरपा है, उससे लोग अब तक नहीं उबर पाए हैं। इस बार अच्छी बारिश नहीं हुई। सिर्फ 14-15 अगस्त को अधिक बारिश हुई। बादल फटे। यह अप्रत्याशित थी, इसकी किसी को उम्मीद नहीं थी। फिर बारिश नहीं हुई।

आज मौसम धोखा दे रहा है। कोई भी ऋतु समय पर नहीं आती। मानसून को चौमासा कहते हैं। आषाढ़, सावन, भाद्रपद व आश्विन में सबसे ज्यादा बारिश होती थी। अब बारिश कब आती है और चली जाती है, पता ही नहीं चलता। जब ऋतु समय पर नहीं आती तो फसल भी समय पर नहीं आती। हमारे परंपरागत देशी बीज ऋतु के मुताबिक पकते हैं।

कम बारिश, ज्यादा गर्मी, पानी की कमी और कुपोषण बढ़ने जैसी स्थिति में बारहनाजा खेती सबसे उपयुक्त है। इस खेती में मौसमी उतार-चढ़ाव व पारिस्थितिकी हालत को झेलने की क्षमता होती है। इस प्रकार सभी दृष्टियों, खाद्य सुरक्षा, पोषण सुरक्षा, स्वास्थ्य सुरक्षा, जैव विविधता और मौसम बदलाव में उपयोगी और स्वावलंबी है। पारंपरिक खेती व जंगल बचाने का यह जैव विविधता संरक्षण का यह काम सराहनीय होने के साथ-साथ अनुकरणीय है और जलवायु परिवर्तन के इस कठिन दौर में मार्गदर्शक भी।चतुर्मास जून के आखिर से शुरू होकर अक्टूबर तक थम जाता था। कहावत है कि आठ गथे आषाढ़-छाला बरसना। मानसून की पहली बारिश बहुत गरजना के साथ होती थी। बादल उमड़-घुमड़ कर चारों तरफ से आते थे। बरसते थे और नमी छा जाती थी।

सावन के महीने को अंधियारा महीना कहते थे। न दिन में सूरज निकलता था, न रात में चांद-तारे। सावन में तारा नहीं दिखना चाहिए। एक तारा दिखाई दिया तो कहते थे- एक विस्वा अनाज कम हो जाएगा।

इस माह में रिमझिम बारिश होती थी। हफ्तों तक झड़ी लगी रहती थी। बारिश के साथ कुहरा होता था। कुहरा जमीन से पैदा होता था। रिमझिम बारिश का पानी जमीन में समा जाता था। ऐसे मौसम में आसमान शांत होता था और गर्जना नहीं होती थी।

भादों में जोर की बारिश होती थी। धूप भी होती थी। कभी-कभी बारिश होती थी और कभी-कभी घाम (धूप) भी होता था। इसी प्रकार शरदकालीन मौसम में नवंबर के मध्य में बारिश होती थी। दिसंबर से बर्फ और पाला पड़ना शुरू हो जाता था।

जड़धारी बताते हैं कि उनके गांव में तीस साल पहले तीन फुट बर्फ पड़ती थी, अब तीन इंच भी नहीं पड़ती है। और एकाध इंच पड़ी भी तो जल्द ही पिघल जाती है। 1980 के बाद से बर्फ ही नहीं देखी है।

तापमान इतना कम हो जाता था कि बाल्टी में पाले की परत जम जाती थी। बिल्कुल कांच की तरह। तालाबों में पाले की परत पत्थर से भी नहीं टूटती थी। आंगन में जमी बर्फ को पिघलाकर पशुओं को पानी पिलाते थे।

खेतों की फसलें जैसे गेहूं बर्फ के नीचे दब जाता था। गेहूं दबने से उसमें ज्यादा कंसे फूटते थे। ज्यादा बालियां आती थीं। बर्फ के पानी से खेत में मई-जून तक नमी बनी रहती थी। जबकि अप्रैल में ही गेहूं की फसल आ जाती हैं।

बर्फ और पाले से दो फायदे थे-एक, भूमि में जितने भी फसलों के लिए हानिकारक कीट व कीड़े-मकोड़े होते थे, वे मर जाते थे और दूसरा, फसलें भी अच्छी होती थीं। यहां की अच्छी जलवायु, अच्छी बारिश व अच्छी बर्फ के कारण यहां के किसान एक जमाने में खाद्यान्न, जंगली फल-फूल, सब्जियों की उपज के कारण संपन्नता और खुशहाली थी।

लेकिन अब चार माह गायब हो गए हैं। पहले पूरे देश का मानसून एक होता था। पर अब अलग-अलग मानसून हो गया है। अब एक ही गांव में दो-तीन तरह की बारिश होती है। ग्लेशियर सिकुड़ रहे हैं और पीछे की ओर भाग रहे हैं। सैकड़ों सालों से जमी बर्फ पिघल रही है। नई बर्फ नहीं बन रही है।

बारहनाजालेकिन मौसम परिवर्तन से किसान कुछ सीख भी रहे हैं। और के हिसाब से वे अपने खेतों में फसल बोते हैं। जहां जलवायु बदलाव का सबसे ज्यादा असर धान और गेहूं की फसल पर हुआ है वहीं बारहनाजा की फसलें सबसे कम प्रभावित हुई हैं। मंडुवा, रामदाना, झंगोरा, कौणी की फसलें अच्छी हुई। 2009 में सूखे के बावजूद रामदाना की अच्छी पैदावार हुई और मंडुवा, झंगोरा भी पीछे नहीं रहे। मध्यम सूखा झेलने में धान और गेहूं की अनेक पारंपरिक किस्में भी धोखा नहीं देती हैं।

बर्फानी नदियां हैं- जैसे गंगा, यमुना, अलकनंदा, भागीरथी, भिलंगना, रामगंगा, कोसी, पिंडर आदि। लेकिन इनका पानी खेतों में नहीं जाता। बड़ी नदियों के अलावा यहां कई गाड-गधेरा यानी गैर-बर्फानी छोटी-छोटी नदियां हैं। यही नदियां लोगों की आजीविका का मुख्य आधार रही हैं। क्योंकि इनसे ही सिंचाई के लिए नहरें निकालकर लोगों ने अपने प्यासे खेतों को पानी पिलाया है।

उत्तराखंड के टिहरी गढ़वाल इलाके में किसान और खास कर महिला किसान अपने परंपरागत देशी बीजों से बारहनाजा की फसलें उगाते हैं। बारहनाजा यानी बारह अनाज। लेकिन इसमें अनाज ही नहीं बल्कि दलहन, तिलहन, शाक-भाजी, मसाले व रेशा वाली फसलें शामिल हैं। ये सभी मिश्रित फसलें ही बारहनाजा है।

यहां बीज बचाओ आंदोलन के प्रमुख विजय जड़धारी बताते हैं कि बारहनाजा में 12 फसलें ही हों, यह जरूरी नहीं। भौगोलिक परिस्थिति, खान-पान की संस्कृति के आधार पर इसमें 20 से अधिक फसलें भी होती हैं। जिनमें कोदा (मंडुवा), मारसा (रामदाना), ओगल (कुट्टू ), जोन्याला (ज्वार ), मक्का, राजमा, गहथ (कुलथ ), भट्ट (पारंपरिक सोयाबीन), रैंयास नौरंगी, उड़द, सुंटा लोबिया, रगड़वास, गुरूंष, तोर, मूंग, भगंजीर, तिल, जख्या, भांग, सण सन, काखड़ी खीरा इत्यादि फसलें हैं।

आज जहां पारंपरिक बीज ढूंढने से नहीं मिलते वहीं बीज बचाओ आंदोलन के पास उत्तराखंड की धान की 350 प्रजातियां, गेहूं की 30 , जौ 4, मंडुआ 12, झंगोरा 8, ज्वार 3, ओगल 2, मक्की 10, राजमा 220, गहथ 3, भट्ट 5, नौरंगी 12, सुंटा 8, तिल 4, भंगजीर 3 प्रजातियां हैं। इनकी समस्त जानकारी है। उनके पास जिंदा जीन बैंक है। इसके अलावा दुर्लभ चीणा, गुरूश, पहाड़ी काखड़ी, जख्या सहित दर्जनों तरह की साग-सब्जी के बीज उगाए जा रहे हैं और किसानों को दिए जा रहे हैं।

उत्तराखंड जैव विविधता के मामले में और जगहों से आज भी अच्छा है। यहां सैकड़ों पारंपरिक व्यंजन हैं। फल, फूल, पत्ते और कंद-मूल हैं, जो लोगों को निरोग बनाते हैं। पानी के स्रोत सूख न जाएं इसलिए जंगल बचाने का काम किया जा रहा है।

जड़धार का जंगल जो कभी उजड़ चुका था, अब हरा-भरा हो गया है। बांज-बुरास का यह जंगल कई जलस्रोतों का उद्गम स्थल है, जिससे सीधे पाइप के माध्यम से लोगों को बारहमास पानी उपलब्ध है।

विजय जड़धारीकुल मिलाकर, यह कहा जा सकता है कि मौसमी बदलाव के कारण जो समस्याएं और चुनौतियां आएंगी, उनसे निपटने में भी यह खेती कारगर है। कम बारिश, ज्यादा गर्मी, पानी की कमी और कुपोषण बढ़ने जैसी स्थिति में बारहनाजा खेती सबसे उपयुक्त है। इस खेती में मौसमी उतार-चढ़ाव व पारिस्थितिकी हालत को झेलने की क्षमता होती है। इस प्रकार सभी दृष्टियों, खाद्य सुरक्षा, पोषण सुरक्षा, स्वास्थ्य सुरक्षा, जैव विविधता और मौसम बदलाव में उपयोगी और स्वावलंबी है। पारंपरिक खेती व जंगल बचाने का यह जैव विविधता संरक्षण का यह काम सराहनीय होने के साथ-साथ अनुकरणीय है और जलवायु परिवर्तन के इस कठिन दौर में मार्गदर्शक भी।

लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं

कोसी तटबंधों के बीच

Submitted by vinitrana on Thu, 11/13/2014 - 07:54
Author
दिनेश कुमार मिश्र
flood in kosi
. 1950 में कोसी के दोनों तटबंधों का निर्माण हुआ जिनके बीच 304 गांवों के करीब एक लाख बानबे हजार लोग शुरू-शुरू में फंस गए थे। इनका पुनर्वास का काम बहुत ही ढीला था और कई गांवों के पुनर्वास की जमीन का अभी तक अधिग्रहण नहीं हुआ है। बाद में तटबंधों की लंबाई बढ़ाए जाने के कारण इन गांवों की संख्या 380 हो गई और आजकल या आबादी बढ़कर 12 लाख के आस पास पहुंच गई है।

बिहार विधानसभा मे इस पर कई बार चर्चा हुई जिसमें परमेश्वर कुंअर का यह बयान (जुलाई, 1964) बहुत ही महत्वपूर्ण है। वो कहते हैं, कोसी तटबंधों के बीच खेती नहीं हो सकती है। वहां तमाम जमीन पर बालू का बुर्ज बना हुआ है। वहां कांस का जंगल है, दलदल है। कृषि विभाग इसको देखता नहीं है की वहां पर किस प्रकार खेती की उन्नति की जा सकती है। जहां कल जंगल था वहां आज गांव है।

जहां कल गांव था वहां आज जंगल है। इसी प्रकार जहां-जहां कल गांव था वहां आज नदी हो जाती है। कोसी के बीच ईंट और खपड़े के घर नहीं बन सकते हैं। घर छाने के लिए घास नहीं मिलती है। मवेशियों को सालों भर कोई-ना-कोई बीमारी होती ही रहती है। वेटनरी डॉक्टर वहां हैं मगर कोई ध्यान नहीं देते हैं। लोगों के पढ़ने-लिखने तथा जीविका के लिए कोई प्रबंध नहीं है। उनके लिए जो 6 शय्या का अस्पताल है वह रहने लायक नहीं है। वहां डॉक्टर प्राइवेट प्रैक्टिस करते हैं।

पैथॉलॉजिकल टेस्ट और मालगुजारी देने के लिए लोगों के पास पैसे नहीं हैं। पहले लोगों को रिलीफ मिलता था लेकिन अब वो भी नहीं मिलता। सहरसा और पूर्णिया के बीच मे जो शोक की नदी बहती थी उसको तीन मील के चौड़े तटबंध में बांध दिया गया है। पुनर्वास की चर्चा की जाती है लेकिन यह फाइल मिनिस्टर साहब के यहां सालभर से पड़ी हुई है।

कोसी के इलाके के लड़के मैट्रिक तक पढ़ नहीं पाते हैं, उनके पास पैसा नहीं रहता है। नाम लिखा लेते हैं मगर बीच में ही पढ़ाई छोड़ देनी पड़ती है। कुछ लोग बाहर नौकरी करते हैं। कुछ की जमीन बाहर में है। मेरी भी 2-3 बीघा जमीन बाहर में है। जितने लोगों ने कर्ज लिया है वो उसकी अदायगी भी नहीं कर पाते हैं क्योंकि उनकी हालत बहुत ही बुरी है। कोसी तटबंध के भीतर के लोगों की हालत बहुत दयनीय है और उनको कोई देखने वाला नहीं है।

कोसी तटबंधों के भीतर जो हालत है उसको जानने का कोई उपाय नहीं है। नाव का कोई इंतजाम नहीं किया गया है। कलक्टर साहब से कहते हैं की नाव का इंतजाम करिए तो वो कहते हैं की एस० डी०ओ० साहब से कहिए।

इसके पहले 1959 में इन कम नसीब लोगों की हालत के बारे में एक अन्य विधायक रसिक लाल यादव ने विधानसभा में कहा था कि कोसी नदी को अब बांध दिया गया है। इसके बीच से पहले लोग निकल सकते थे लेकिन अब (उन्हें) घेर दिया गया है जिस से वे अब निकल नहीं सकेंगे। और रेवेन्यू विभाग की हालत यह है कि सरकार के सर्किल अफसर लोगों को खदेड़-खदेड़ कर मालगुजारी वसूल करते हैं जबकि उनका घर पानी में है।

वो ऐसे लोगों को भी खदेड़-खदेड़ कर मालगुजारी वसूलते हैं जो केवल ककड़ी पैदा करके अपना जीवन बसर करते हैं। जो नदी के बाहर हैं उनको कहा जाता है कि खेती करने के लिए बांध के बीच में जाएं। लेकिन जब वो खेती करने के लिए जाते हैं तो घटवार उन्हें खदेड़-खदेड़ कर घाट वसूल करते हैं। कोसी योजना उनकी रक्षा के लिए बनाई गई थी न कि उन्हें खदेड़ने के लिए। ऐसा उन्होंने 1959 में कहा था।

जहां कल गांव था वहां आज जंगल है। इसी प्रकार जहां-जहां कल गांव था वहां आज नदी हो जाती है। कोसी के बीच ईंट और खपड़े के घर नहीं बन सकते हैं। घर छाने के लिए घास नहीं मिलती है। मवेशियों को सालों भर कोई-ना-कोई बीमारी होती ही रहती है। वेटनरी डॉक्टर वहां हैं मगर कोई ध्यान नहीं देते हैं। लोगों के पढ़ने-लिखने तथा जीविका के लिए कोई प्रबंध नहीं है। उनके लिए जो 6 शय्या का अस्पताल है वह रहने लायक नहीं है। वहां डॉक्टर प्राइवेट प्रैक्टिस करते हैं।आज इस घटना को करीब 50 साल हो गए हैं। इस बीच क्या-क्या हुआ वह बताते हैं कोसी तटबंधों के बीच फंसे एक गांव भेलाही के बुज़ुर्ग। उनका कहना है कि हमारा घर दरिया में है और दरिया हमारे घर में है। साल के तीन चार महीनें पानी हमारे चारो तरफ रहता है। पड़ोसी के घर जाना हो, नमाज़ पढ़ने मस्ज़िद जाना हो, नाव से जाइए। टट्टी, पेशाब सब नाव पर और औरत-मर्द सभी बेपर्दा। दस हजार आबादी होगी हमारी पंचायत की।

गांव में एक मिडिल स्कूल, एक प्राइमरी स्कूल और एक मदरसा है। तीन महीने कमर भर पानी रहता है उसमें। दरिया की पेटी ऊपर उठ रही है। सुनने में यह बड़ी मामूली बात लगती है मगर हमारे तो घर के फर्श की भी वही हालत है। पांच साल के दरम्यान इतनी मिट्टी घर में पड़ जाती है कि दरवाजे खिड़की में तब्दील हो जाते हैं।
अब बनाइये घर दूसरी जगह।

यह तटबंध जब बन रहा था तब पूरब वाला तटबंध बनगांव में और पशिम वाला तटबंध पुनाच से गुजरने की बात थी। 18 किलोमीटर का फासला था जो बाद में 9 किलोमीटर का रह गया। बांध को आड़ा तिरछा जैसा चाहा मोड़ा और अपनी सहूलियत के मुताबिक बनाया। पचास साल पहले लोग सीधे-सादे थे और पढ़े-लिखे नहीं थे, उन्हें जिस तरह से बेवकूफ बनाया जा सकता था बनाया गया।

1956 में जब यह तटबंध बन रहा था तभी पूरब से तिलजुगा नदी हम लोगों पर चढ़ आई और तब हम लोगों को लगा की अब यह खतरा हम लोगों पर बना ही रहेगा। बवाल मचा और बहुत से लोग जेल में ठूंस दिए गए।

नेता लोग दिलासा देते थे कि तुम लोगों की सारी मांगें पूरी कर दी जाएंगी तो कभी कहते थे कि ये पूरा इलाका समंदर हो जाएगा और तुम लोगों को यहां से जाना पड़ेगा। काफी झंझट के बाद जल्लै में पुनर्वास मिला। कुछ लोग वहां गए मगर जल्दी ही वापस आ गए क्योंकि समय के साथ वहां भी पानी भर गया। फिर दो कट्ठा जमीन में कहीं गांव का घर बनता है। सरकार आदमी गिनती है माल मवेशी नहीं।

खेत खलिहान और गोचर के बारे में किसी ने सोचा ही नहीं। जिसे पता ही नहीं था कि गांव की जरूरतें क्या हैं, वही मुख्तार था, वही वायदा करता था और उसे ही उन वायदों को पूरा करना था। ऐसा आदमी झूठ नहीं बोलेगा तो और क्या करेगा। सच बोलकर अपनी फजीहत करवाएगा?

कोसी नदी में बाढ़ से विस्थापित लोगहम लोग इनके झांसे में आ गए। कहते थे कि सारी जमीन सींचेंगे। वो जमीन कहां है? सब जगह बाग लगाएंगे, वो बाग कहां है? पूरे इलाके को जन्नत बनाएंगे, अगर यही जन्नत है तो फिर जहन्नुम किधर है? बालू वाली जमीन की मालगुजारी हम देते हैं, जिसे माफ करने का वायदा हमसे किया गया था। यहां से निकलने कि कोशिश करो तो घाट पर पैसा देते-देते दम निकल जाए। पहले से पता होता कि यह मुसीबत झेलनी पड़ेगी तो तभी मर गए होते या तटबंध बनाने वालों को ही मार दिया होता। मगर मरना तो इत्तिफाक है, यह किसी कि मर्जी से तो नहीं होता है।

तटबंध टूटता है तो यह जानते हुए कि उस पार के लोगों को बहुत तकलीफ होगी मगर जब हम हर साल वो तकलीफें झेलते हैं तो कभी-कभी आप भी उसका मजा लीजिए। हमारे यहां तो बाहर की बिरादरी ने शादी ब्याह भी बंद कर रखा है। बाजार जाना है तो सहरसा जाइए और लौट आए तो समझिए की नई जिंदगी हो गई। हम लोग वोट देते हैं इसलिए नहीं कि जो जीतेगा वो हमारे लिए कुछ करेगा।

वोट उसे इसलिए देते हैं कि इसी बहाने कम-से-कम एक आदमी का हम लोगों मे से भला हो जाएगा। अब तो हमारे सारे गिले-शिकवे भी जाते रहे। फारसी में एक कहावत है, 'जश्ने-ए-अंबोह मर्ग-ए-दारद' जिसका मतलब होता है कि जहां एक आदमी मरता है वहां तो मातम होता है मगर जहां बड़ी तादाद में लोग मरते हैं वहां मातम नहीं होता है, जश्न होता है। कोई लाशों को एक जगह इकट्ठा करेगा, कोई मुर्दों को नहलाने का काम करेगा, कोई कब्र खुदवाएगा, कोई मेहमानों की खातिरदारी में लगेगा, तो कोई बड़े पैमाने पर नमाज का इंतेजाम करेगा। सबके लिए काम होगा, चारो तरफ रौनक-ही-रौनक और मातम मनाने वाला कोई नहीं। हम लोगों की हालत वैसे ही हो गई है। सब अपने काम में मस्त और हम लोगों के बारे में सोचने वाला कोई नहीं। लोग देखने आते हैं जैसे हम कोई तमाशा है।

कोसी नदी में बाढ़ से विस्थापित लोगइन दोनों बयानों में कोई फर्क नजर आता है क्या? और क्या हमारी व्यवस्था इसी तरह चलती रहेगी? पचास साल बाद कड़वाहट बढ़ी ही है जिसे किसी भी सभ्य समाज में समाप्त हो जाना चाहिए था।

चुनाव से पहले दिल्ली की जल कुंडली भी बांच लो

Submitted by Shivendra on Sat, 11/08/2014 - 13:48
Author
पंकज चतुर्वेदी
water crisis
. दिल्ली की पिछली 49 दिन वाली सरकार उम्मीदों के जिस रथ पर सवार होकर आई थी उसमें सबसे ज्यादा प्यासा अश्व ‘‘जल’’ का ही है- हर घर को हर दिन सात सौ लीटर पानी, वह भी मुफ्त। उसकी घोषणा भी हो गई थी लेकिन उसकी हकीकत क्या रही? कहने की जरूरत नहीं है। दिल्ली एक बार फिर चुनाव के लिए तैयार है और जाहिर है कि सभी राजनीतिक दल बिजली, पानी के वायदे हवा में उछालेंगे। जरा उन उम्मीदों पर एतबार करने से पहले यह भी जानना जरूरी है कि इस महानगर में पानी की उपलब्धता क्या सभी के कंठ तर करने में सक्षम है भी कि नहीं।

दिल्ली में तेजी से बढ़ती आबदी और यहां विकास की जरूरतों, महानगर में अपने पानी की अनुपलब्धता को देखें तो साफ हो जाता है कि पानी के मुफ्त वितरण का यह तरीका ना तो व्यावहारिक है, ना ही नीतिगत सही और ना ही नैतिक। यह विडंबना ही है कि अब हर राज्य सरकार सस्ती लोकप्रियता पाने के लिए कुछ-ना-कुछ मुफ्त बांटने के शिगूफे छोड़ती है जबकि बिजली-पानी को बांटने या इसके कर्ज माफ करने के प्रयोग अभी तक सभी राज्यों में असफल ही रहे हैं। दिल्ली में जरूरत पानी के सही तरह से प्रबंधन और मितव्ययता से इस्तेमाल की सीख को बढ़ावा देने की है।

एक राजनीतिक दल की वेबसाइट कहती है कि दिल्ली में 840 मिलियन गैलन प्रतिदिन यानी प्रत्येक व्यक्ति को 210 लीटर पानी उपलब्ध है, जो लंदन व जर्मनी से कहीं ज्यादा है। दिल्ली जल बोर्ड को 685 करोड़ का मुनाफा होता है और मुफ्त पानी देने पर महज 470 करोड़ का खर्च होगा। इसके अलावा दिल्ली में अवैध टैंकर माफिया पर रोक लगा कर यह पूर्ति आसानी से की जा सकती है।

देखने में एकबारगी योजना अच्छी लगती है लेकिन दिल्ली की जल कुंडली बांचे तो पता चलता है कि सब कुछ इतना लुभावना नहीं है और उपलब्धता, मांग और आपूर्ति में जमीन-आसमान का फर्क है और फिर किसी परिवार की परिभाषा भी साफ नहीं है- दिल्ली में कहीं दौ सौ गज फ्लैट में चार लोग रहते हैं तो कहीं 25 गज में दस लोग। यह साढ़े उन्नीस लाख से ज्यादा जल उपभोक्ता पहले से दर्ज है यानी इतने परिवार हैं, जबकि कई लाख लोग तक कनेक्शन पहुंचा नहीं है और वे चोरी या दीगर तरीके से पानी की जरूरत पूरी करते हैं।

दिल्ली जलबोर्डदिल्ली से बड़े लेकिन व्यवस्थित शहर पेकिंग या बीजिंग की जल व्यवस्था बानगी है - वहां हर घर में तीन तरह का पानी आता है और उनके दाम और सप्लाई की मात्रा भी अलग-अलग होती है। पीने लायक पानी सबसे महंगा व मात्रा सबसे कम, रसोई के काम का पानी उससे कम दाम में व मात्रा ज्यादा, जबकि गुसलखाने में इस्तेमाल पानी के दाम सबसे कम व मात्रा अफरात।

जाहिर है कि इसके लिए पूरा पर्यावास व उसमें पड़ी पाईपलाईन, घर से निकलने वाले गंदे पानी का परिशोधन और शहर के बीच से निकलने वाली नदी, नहर और तालाबों पर नियोजित काम किया गया है। एक बात और, वहां बिजली या पानी की चोरी के किस्से सुनने को मिलते नहीं हैं। अब दिल्ली के 1484 वर्ग किलोमीटर में कोई 16 हजार किलोमीटर लंबी पानी की लाईनें जमीन के भीतर पड़ी हैं, तो भी हर रोज कई लाख लीटर पानी चोरी होने का रोना सरकार व मुनाफे में चल रहा जल बोर्ड रोता है।

राजधानी के सबसे महंगे रिहाईशी इलाकों में शुमार वसंतकुंज में भले ही करोड़ में दो कमरे वाला फ्लैट मिल जाए, लेकिन पानी के लिए टैंकर का सहारा लेना ही होगा। ठीक यही हालत दिल्ली की पांच सौ से ज्यादा पुनर्वास, कच्ची कालोनियों की भी है। यदि सभी जगह ठीक तरीके से टैंकर सरकारी तौर पर पहुंचाने पड़ें तो टैंकर का प्रबंधन अपने-आप में एक बड़ा ‘‘बोफोर्स’’ हो जाएगा। यहां जान लेना जरूरी है कि पानी सप्लाई की माकूल व्यवस्था के लिए चाक चौबंद पाईप बिछाना कई हजार करोड़ का काम है और यदि जल बोर्ड के दिख रहे मुनाफे को पहले साल मुफ्त में ही बांट दिया गया तो अगले साल ना तो मुनाफा दिखेगा और ना ही नई पाईप लाईन डालने, पुराने की देखभाल करने का बजट।

केंद्रीय भूजल बोर्ड ने सन् 2001 यानी आज से 13 साल पहले एक मास्टर प्लान बनाया था जिसमें दिल्ली में प्रत्येक व्यक्ति की पानी की मांग को औसतन 363 लीटर मापा था, इसमें 225 लीटर घरेलू इस्तेमाल के लिए, 47 लीटर कल-कारखानों में, 04 लीटर फायर ब्रिगेड के लिए, 35 लीटर खेती व बागवानी में और 52 लीटर अन्य विशेष जरूरतों के लिए। अनुपचारित पानी को दूर तक लाने ले जाने के लिए रिसाव व अन्य हानि को भी जोड़ लें तो यह औसत 400 लीटर होता है। यदि यहां की आबादी एक करोड़ चालीस लाख ली जाए तो हर रोज पानी की मांग 1,232 मिलियन गैलन होती है। यदि अपने संसाधनों की दृष्टि से देखें तो दिल्ली के पास इसमें से बामुश्किल 15 फीसदी पानी ही अपना है। बाकी पानी यमुना, गंगा, भाखड़ा, हरियाणा, उत्तरांचल आदि से आता है।

कोई भी सरकार आज से बनिस्पत आने वाले कई सालों की आबादी, आंकड़ों पर उपलब्धता पर योजना बनाती है। यदि ‘‘आप’’ सही में अपने वायदे पर दूरगामी खरा उतरना चाहती है तो उसे दिल्ली की जल कुंडली को सही तरीके से खंगालना चाहिए और आने वाले दो साल में यहां की आबादी को नियंत्रित करने, यहां रोजगार व बेहतर भविष्य की तलाश में आ रहे लोगों को दूरस्थ इलाकों में वैकल्पिक व्यवस्था करने जैसी योजनाओं पर गंभीरता से काम करना होगा। बगैर संसाधन बढ़ाए मांग बढ़ाने से बात तो बनने से रही- फिर बस दिल्ली सरकार केंद्र को कोसेगी व केंद्र सरकार बजट की सीमाएं बताएगी- बीच में जनता यथावत पानी के लिए कलपती रहेगी। दिल्ली में अकेले यमुना से 724 मिलियन घनमीटर पानी आता है, लेकिन इसमें से 580 मिलियन घन मीटर पानी बाढ़ के रूप में यहां से बह भी जाता है। हर साल गर्मी के दिनों में पानी की मांग और सप्लाई के बीच कोई 300 एमजीडी पानी की कमी होना आम बात है। अप्रैल से सितंबर तक वजीराबाद जल संयंत्र से निकलने वाले पानी की मात्रा 30 फीसदी कम हो जाती है।

आमतौर पर सामान्य बारिश वाले सालों में इस समय दिल्ली में वजीराबाद बैराज पर यमुना का जलस्तर 674.5 फुट से अधिक होता है, जो बीते कई सालों से लगातार 672.2 पर टिका है। गर्मी में पश्चिमी यमुना नहर का जलस्तर 710 फुट से नीचे होने पर वजीराबाद, हैदरपुर और चंद्रावल जल संयंत्रों को पर्याप्त पानी नहीं मिल पाता है। यह हर साल हल्ला होता है कि हरियाणा ने बगैर किसी चेतावनी के पानी की सप्लाई रोक दी। सनद रहे कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के मुताबिक यमुना का जलस्तर दिल्ली की सीमा पर 674.5 से कम में ही होना चाहिए।

यहां जानना जरूरी है कि 12 मई 1994 को केंद्र सरकार की पहल पर पांच राज्यों के बीच यमुना के पानी के बंटवारे पर एक समझौता हुआ था। माना गया था कि दिल्ली में ओखला बैराज तक यमुना में पानी का बहाव 11 अरब 70 करोड़ घनमीटर है। इसमें से हरियाणा को पांच अरब 73 करोड़ घनमीटर, उ.प्र. को चार अरब तीन लाख घमी, राजस्थान को आए रोज जब अप्रत्याशित ढंग से यमुना में पानी कम होता है तो दिल्ली वाले हरियाणा पर कम और गंदा पानी छोड़ने का आरोप मढ़ देते हैं। हरियाणा भी दिल्ली पर तयशुदा संख्या से अधिक पंप चलाकर ज्यादा पानी खींचने को समस्या का कारण बता देता है।

यदि सही में कोई दिल्ली में अफरात पानी चाहता है तो उसे इस बह गए पानी की हर बूंद को सहेजने की तकनीक ईजाद करना होगी, क्योंकि इन दिनों पानी पर निर्भरता का सबसे बड़ा जरिया, भूजल तो यहां से कब का रूठ चुका है। यहां भूजल की उपलब्धता सालाना 291.54 मिलियन घन मीटर है। पाताल खोद कर निकाले गए पानी से यहां 47 हजार पांच सौ हेक्टेयर खेत सींचे जाते हैं। 142 मिलियन घन मीटर पानी कारखानों व पीने के काम आता है।

दिल्ली जलबोर्ड हर साल 100 एमजीडी पानी जमीन से निकालता है। गुणवत्ता के पैमाने पर यहां का भूजल लगभग जहरीला हो गया है। जहां सन् 1983 में यहां 33 फुट गहराई पर पानी निकल आता था, आज यह गहराई 132 फुट हो गई है और उसमें भी नाईट्रेट, फ्लोराइड व आर्सेनिक जैसे रसायन बेहद हानिकारक स्तर पर हैं।

दिल्ली जलबोर्डसनद रहे कि पाताल के पानी को गंदा करना तो आसान है लेकिन उसका परिशोधन करना लगभग असंभव। जाहिर है कि भूजल के हालात सुधारने के लिए बारिश के पानी से रिचार्ज व उसके कम दोहन की संभावनाएं खोजनी होंगी व यहां से ज्यादा पानी लिया नहीं जा सकता।

सन् 2002 में ईपीडब्ल्यू (इकानामिक एंड पॉलिटिकल वीकली) ने डॉ. विक्रम सोनी के एक शोध को प्रकाशित किया था- ‘‘एक शहर का पानी व वहन क्षमता-दिल्ली’’, जिसमें बताया गया था कि यहां हर स्रोत से उपलब्ध पानी की कुल मात्रा अस्सी लाख से ज्यादा लोगों के लिए नहीं हैं।

दिल्ली जलबोर्ड का कहना है कि यहां मांग 1080 मिलियन गैलन रोजाना (एमजीडी) की है, जबकि उपलब्धता 835 एमजीडी है। नियंत्रक एवं लेखा परीक्षक यानि केग की ताजा रपट चेतावनी देती है कि प्रति व्यक्ति प्रतिदिन 172 लीटर पानी की मानक मांग की तुला में दिल्ली के 24.8 फीसदी घरों को हर रोज 3.82 लीटर पानी भी नहीं मिलता है।

लुभावने नारे पानी की उपलब्धता को बढ़ा नहीं सकते। पानी को जरूरत के लिहाज से अलग-अलग दर पर अलग-अलग पाईपों से पहुंचाना बेहद खर्चीला व दूरगामी योजना है। घरों से निकले बेकार पानी का इस्तेमाल बढ़ाने के लिए तकनीकी विकसित करना भी तात्कालिक तौर पर संभव नहीं है। इन सब काम के लिए बजट, जमीन, मूलभूत सुविधाएं जुटाने के लिए कम-से-कम पांच साल का समय चाहिए।

दिल्ली जलबोर्डकोई भी सरकार आज से बनिस्पत आने वाले कई सालों की आबादी, आंकड़ों पर उपलब्धता पर योजना बनाती है। यदि ‘‘आप’’ सही में अपने वायदे पर दूरगामी खरा उतरना चाहती है तो उसे दिल्ली की जल कुंडली को सही तरीके से खंगालना चाहिए और आने वाले दो साल में यहां की आबादी को नियंत्रित करने, यहां रोजगार व बेहतर भविष्य की तलाश में आ रहे लोगों को दूरस्थ इलाकों में वैकल्पिक व्यवस्था करने जैसी योजनाओं पर गंभीरता से काम करना होगा। बगैर संसाधन बढ़ाए मांग बढ़ाने से बात तो बनने से रही- फिर बस दिल्ली सरकार केंद्र को कोसेगी व केंद्र सरकार बजट की सीमाएं बताएगी- बीच में जनता यथावत पानी के लिए कलपती रहेगी।

प्रयास

सीतापुर और हरदोई के 36 गांव मिलाकर हो रहा है ‘नैमिषारण्य तीर्थ विकास परिषद’ गठन  

Submitted by Editorial Team on Thu, 12/08/2022 - 13:06
sitapur-aur-hardoi-ke-36-gaon-milaakar-ho-raha-hai-'naimisharany-tirth-vikas-parishad'-gathan
Source
लोकसम्मान पत्रिका, दिसम्बर-2022
सीतापुर का नैमिषारण्य तीर्थ क्षेत्र, फोटो साभार - उप्र सरकार
श्री नैभिषारण्य धाम तीर्थ परिषद के गठन को प्रदेश मंत्रिमएडल ने स्वीकृति प्रदान की, जिसके अध्यक्ष स्वयं मुख्यमंत्री होंगे। इसके अंतर्गत नैमिषारण्य की होली के अवसर पर चौरासी कोसी 5 दिवसीय परिक्रमा पथ और उस पर स्थापित सम्पूर्ण देश की संह्कृति एवं एकात्मता के वह सभी तीर्थ एवं उनके स्थल केंद्रित हैं। इस सम्पूर्ण नैमिशारण्य क्षेत्र में लोक भारती पिछले 10 वर्ष से कार्य कर रही है। नैमिषाराण्य क्षेत्र के भूगर्भ जल स्रोतो का अध्ययन एवं उनके पुनर्नीवन पर लगातार कार्य चल रहा है। वर्षा नल सरक्षण एवं संम्भरण हेतु तालाबें के पुनर्नीवन अनियान के जवर्गत 119 तालाबों का पृनरुद्धार लोक भारती के प्रयासों से सम्पन्न हुआ है।

नोटिस बोर्ड

'संजॉय घोष मीडिया अवार्ड्स – 2022

Submitted by Shivendra on Tue, 09/06/2022 - 14:16
sanjoy-ghosh-media-awards-–-2022
Source
चरखा फीचर
'संजॉय घोष मीडिया अवार्ड्स – 2022
कार्य अनुभव के विवरण के साथ संक्षिप्त पाठ्यक्रम जीवन लगभग 800-1000 शब्दों का एक प्रस्ताव, जिसमें उस विशेष विषयगत क्षेत्र को रेखांकित किया गया हो, जिसमें आवेदक काम करना चाहता है. प्रस्ताव में अध्ययन की विशिष्ट भौगोलिक स्थिति, कार्यप्रणाली, चयनित विषय की प्रासंगिकता के साथ-साथ इन लेखों से अपेक्षित प्रभाव के बारे में विवरण शामिल होनी चाहिए. साथ ही, इस बात का उल्लेख होनी चाहिए कि देश के विकास से जुड़ी बहस में इसके योगदान किस प्रकार हो सकता है? कृपया आलेख प्रस्तुत करने वाली भाषा भी निर्दिष्ट करें। लेख अंग्रेजी, हिंदी या उर्दू में ही स्वीकार किए जाएंगे

​यूसर्क द्वारा तीन दिवसीय जल विज्ञान प्रशिक्षण प्रारंभ

Submitted by Shivendra on Tue, 08/23/2022 - 17:19
USERC-dvara-tin-divasiy-jal-vigyan-prashikshan-prarambh
Source
यूसर्क
जल विज्ञान प्रशिक्षण कार्यशाला
उत्तराखंड विज्ञान शिक्षा एवं अनुसंधान केंद्र द्वारा आज दिनांक 23.08.22 को तीन दिवसीय जल विज्ञान प्रशिक्षण प्रारंभ किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए यूसर्क की निदेशक प्रो.(डॉ.) अनीता रावत ने अपने संबोधन में कहा कि यूसर्क द्वारा जल के महत्व को देखते हुए विगत वर्ष 2021 को संयुक्त राष्ट्र की विश्व पर्यावरण दिवस की थीम "ईको सिस्टम रेस्टोरेशन" के अंर्तगत आयोजित कार्यक्रम के निष्कर्षों के क्रम में जल विज्ञान विषयक लेक्चर सीरीज एवं जल विज्ञान प्रशिक्षण कार्यक्रमों को प्रारंभ किया गया

28 जुलाई को यूसर्क द्वारा आयोजित जल शिक्षा व्याख्यान श्रृंखला पर भाग लेने के लिए पंजीकरण करायें

Submitted by Shivendra on Mon, 07/25/2022 - 15:34
28-july-ko-ayojit-hone-vale-jal-shiksha-vyakhyan-shrinkhala-par-bhag-lene-ke-liye-panjikaran-karayen
Source
यूसर्क
जल शिक्षा व्याख्यान श्रृंखला
इस दौरान राष्ट्रीय पर्यावरण  इंजीनियरिंग अनुसंधान संस्था के वरिष्ठ वैज्ञानिक और अपशिष्ट जल विभाग विभाग के प्रमुख डॉक्टर रितेश विजय  सस्टेनेबल  वेस्ट वाटर ट्रीटमेंट फॉर लिक्विड वेस्ट मैनेजमेंट (Sustainable Wastewater Treatment for Liquid Waste Management) विषय  पर विशेषज्ञ तौर पर अपनी राय रखेंगे।

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