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भारतीय जन मानस की अवधारणा की अर्थ ही समझ से परे हो गया है और लोक में आलोक न पाकर अंधकार उमड़ रहा है। मन का संदेह कह रहा है कि भारतीय जन को जीवन देने वाली गंगा नदी का होगा क्या?
गंगा की चिंता को लेकर सर्वोच्च न्यायालय मुखर है, लेकिन नई सरकार गंगा मंत्रालय बना कर शीर्षासन कर रही है। गंगा की सफाई को लेकर चर्चा राजीव गांधी ने 1986 में शुरू की थी और बना डाला गंगा एक्शन प्लान। इस प्लान में अरबों रुपया स्वाहा हो गया और नतीजा कुछ नहीं निकला। पैसे के पुजारी आरती उतारते रहे और गंगा की देह जलती रही। देश की कुबुद्धियां कहती रहीं कि गंगा धार्मिकता से जुड़ी है और यह धार्मिकता बेहद एकांगी है।
पता नहीं चल रहा है कि धर्म और धार्मिकता का क्या अर्थ है? क्या पाठ-विमर्श है? क्या तात्पर्य वृत्ति है? क्या पार्टनर की पॉलिटिक्स है? सोच का क्या अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र औऱ मिथकशास्त्र है? क्योंकि मेरे जैसे व्यक्ति के लिए गंगा केवल नदी नहीं है- जीवन है, संस्कृति है, हिमालय के इतिहास से नाभिनाल जुड़ी अविरल रस धारा है।
इतिहास गवाह है कि इस देश में अंग्रेजों के आने के बाद नदियों, तीर्थों, पर्वों, उत्सवों मेले-ठेले आदि के प्रति हमारे मन में अंधी आधुनिकता का पागलपन आ गया है।
हम गंगा को ‘गंगा मैया’ कहने की खिल्ली उड़ाने लगे और कहने लगे कि गंगा कोई मैया-वैया नहीं है- अन्य नदियों की तरह एक नदी है; इस नदी पर हिंदू धर्म में अनेक मिथक बने हैं; ये सभी झूठे लाचार मिथक है; गंगा नदी को ‘धर्म’ में घेरना हिंदुओं की साजिश है और उसमें स्नान-ध्यान ढोंग और अज्ञान प्रतिदिन हिंदू गंगा की पवित्रता के गीत गाता है; साहित्य लिखता है; कला-दर्शन, इतिहास, भूगोल की प्रज्ञापारमिता का भाष्य रचता है; इस भाष्य भाषा ने गंगा के साथ प्रकृति के संबंध को समझने में बाधा खड़ी कर दी है।
इस तरह गंगा चिंतन ‘सेक्युलर’ चिंतन नहीं है। पश्चिमी चिंतन पर भरोसा करने वाले लोकाचार, शिष्टाचार भूल कर लोक-जन की गंगा-भक्ति का उपहास करते हैं। उन्हें यह मिथक समझ में नहीं आता कि गंगा विष्णु के अंगूठे से निकली है ब्रह्मा के कमंडल में निवास कर चुकी है और उसे लोक देवता शिव ने अपने सिर पर धारण किया है। लाड़-प्यार में पली गंगा सिरचढ़ी है। इस गंगा की महिमा के गीत रामायण, महाभारत, वेद, पुराण गाते हैं तुलसीदास के साथ अब्दुल रहीम खानखाना गाते हैं।
रहीम तो भारत से बार जन्मे थे, पर उनके मन में गंगा ऐसी रची-बस कि उसे सिर पर धारण करने का वरदान मांगा। उन्होंने लिखा ‘अच्युत चरण तरंगिणी शशिशेखर मौलि मालती माले’ और अनुवाद किया ‘अच्युत तरन तरंगिणी शिव शिर मालती माल’। रहीम की गंगा-विनय किसी मजहब की श्रेष्ठता का गान नहीं है- वह लोक-हृदय की भाव-भूमि का पवित्र विस्तार है। यह गंगा-भाव पश्चिमी ‘सेक्युलरिज्म’ के विचार को ‘रबिश थॉट’ या निरर्थक विचार इसलिए मानता है।
आज गंगा सफाई अभियान के समय हमें उसकी समाजशास्त्रीय पृष्ठभूमि का लोक और शास्त्र दोनों की दृष्टि से ‘विमर्श’ करना चाहिए। यह कार्य ‘सेक्युलरिज्म’ करने में अक्षम है, क्योंकि उसके पास ऐसी रीढ़ नहीं है कि वह उसको तान कर खड़ा हो सके। इसलिए गंगा को राजनीतिक के हाथों ने सौंप कर एक नए आधुनिक भाव-बोध के बौद्धिक समाज के हाथों में सौंपना चाहिए। यह समाज चेतना मानती रही है कि गंगा ने विराट जन-समूह की सामूहिकता को संवारने गढ़ने का कार्य किया है। गंगा की यात्रा इस देश के सामूहिक मन में अंतर्यात्रा है।
गंगा सफाई अभियान ही अकेला क्यों? सभी नदियों को कचरा-मुक्त करने का संकल्प लेना होगा। इस संकल्प को लेने का कारण यह है कि गंगा के इतिहास के साथ कई इतिहास नाभिनाल जुड़े हैं। यह यमुना प्रयाग में गंगा के गले मिलकर पता नहीं क्या-क्या कह रही है। इस गंगा का एक इतिहास राम की नदी सरयू से जुड़ा है- इसका यश ‘सीय राममय सब जगजानी’ का दर्शन इस देश को देता रहा है।
आधुनिकता से उपजा विकास और प्रगति का जो दंभी दावा है उससे गंगा को बचाना होगा। ‘विकास’ का पूरा ढांचा प्रकृति-विनाश पर खड़ा है और इसी से वन-पर्वत सभी उजड़ रहे हैं। महानगरीय सभ्यता-संस्कृति का मैलापन गंगा के प्राणों को निकाल रहा है। इसलिए गंगा-मंत्रालय को गंगा को बचाने के लिए कई कोणों से सोचना होगा। इस दृष्टि से भी सोचना होगा कि गंगा के ग्लेशियर क्यों कमजोर पड़ कर मरियल हो रहे हैं? भारतीय जन-जीवन का गंगा पर जो अडिग आस्था-विश्वास रहा है उसे वैचारिक तल की तह तक जाकर सोचना-समझना होगा। विश्व बैंक के पैसे और अंधी धार्मिकता से गंगा को निर्मल कर पाना बहुत बड़ी चुनौती है।इसी नदी में बुद्ध का अमृत जल है। विद्यानिवास मिश्र ने ‘हम और हमारी नदियां’ शीर्षक निबंध में यह ध्यान दिलाया था कि ‘गंगा में एक इतिहास नारायणी या गंडकी का भी है। गंडकी एक क्वारी नदी है, क्वारी है इसलिए प्रबल है, अनियंत्रित है, पर इसके बावजूद वह नारायण को प्रिय है। नारायण उसकी धार को तोड़ से बने पत्थरों में रहते हैं। तब वे शालिग्राम कहलाते हैं। नदी का एक नाम इसीलिए शालिग्राम भी पड़ गया है।’
इस गंगा से एक इतिहास क्वारे सोन की जुड़ता है जो बारात लेकर नर्मदा मैया को ब्याहने गया और यह कह कर बारात वापस ले आया कि लड़की की जात छोटी है- कन्या का कुल छोटा है। बस, नर्मदा नाराज हो गई, उसने सोनभद्र का गर्व झाड़ दिया और विपरीत दिशा में भागती चली गई। कुलदंभी सोन से कोई समझौता नहीं किया। इस मिथक पर नारी विमर्श वालों ने कभी ध्यान नहीं दिया। ध्यान देने पर इस मिथक से तमाम जाति, धर्म, कुल-गोत्र-वंश की परतें खुलेंगी।
यह सोचने को मिलेगा कि क्यों सोन विंध्याचल में ही मारा-मारा फिरता रहा। उसे वह गंगा मिली जो पहले ही परितृप्त थी, सरयू के कारण। सोन को भाग्य फूटे पठार मिले- उसकी कुलीनता का दंभ पठार बन गया। लेकिन गंगा कहीं न झुकी न रुकी न कुलीनता का दंभ किया, वह सबकी होकर सबमें रची-बसी और अनथक सागर तक गतिवान रही।
गंगा ने एक से अनेक का भाव अपना कर अपने को अनेक धाराओं में बांटा, अनगिनत तीर्थ बनाए, अनेक मृतात्माओं को तार दिया। हम कैसे भूल सकते हैं कि महात्मा गांधी का अस्थि-विसर्जन प्रयाग में किया गया। शिव के सिर चढ़ी गंगा, हिमालय की कन्या है, इसलिए लोकमंगल के प्रति सदैव समर्पित है। वह इस देश की कृषि-संस्कृति का न जाने कब से प्राण रही है और अन्न के अक्षय भंडार की अन्नपूर्णा भी।
ब्रह्मा के ज्ञान कमंडल को त्याग कर निकली गंगा आज तड़प रही है- लाचार हो रही है। बांधों ने उसका खून चूस लिया है और कानपुर जैसे नगरों ने चमड़े का कचरा डाल कर उसके प्राण लेने की तैयारी की है। गंगा गंदगी से पट गई है- हमारे कुकृत्यों का मैल उसे मारे डाल रहा है। हम भूल गए हैं कि गंगा मैया तो हमें जीवन देती है। गंगा के लिए जब तक माता भाव नहीं आएगा तब तक गंगा को साफ नहीं किया जा सकता।
आजादी के आंदोलन के दिनों में हम सब गाते रहे- ‘गंगा उठो कि नींद में सदियां गुजर गईं’। आज उस नवजागरण की सांस्कृतिक चेतना के प्रति हम विमुख क्यों? इसलिए कि जो भाव आदमी को गंगा बना देता था वह भाव ही उपभोक्तावादी संस्कृति, बाजारवाद, भूमंडलीकरण के दांव-पेंचों में भटक गया है।
इधर गंगा से विपरीत दिशा में बहने वाली नर्मदा का बुरा हाल है। नर्मदा तप-त्याग और विक्षोभ की धारा है। इसका इतिहास परशुराम और कार्तकीर्य, परमारों, कलचुरियों से जुड़ा है। नर्मदा की क्वारी पवित्र चोट से पत्थर ओंकारेश्वर हो गया- नर्मदेश्वर जन्म ले गए और इसकी घाटी में विक्रमों, मालवों, राष्ट्रकुटों का विजय अभियान धन्य हो गया। इसने भारतीय सभ्यता-संस्कृति-परंपरा के इतिहास को उदात्त गरिमा से चमका दिया।
स्मृति की खुली खिड़की से कोई कह रहा है कि भूलो मत गोदावरी के किनारे हमारे राम की पंचवटी है और कावेरी-कृष्णा के किनारे दक्षिण भारत के भक्ति आंदोलन का भक्ति-रस। गाना चल रहा है- स्नान के साथ कि गंगा-यमुना, गोदावरी, सरस्वती, नर्मदा, सिंधु, कावेरी इन सभी नदियों का जल एक साथ मिले उसी से स्नान-जप-तप हो।
हमारी संस्कृति में नदियों के जल के बिना न पूजा होती है न उपासना न कोई यज्ञ न कोई ज्ञानसत्र चलता है। जल ही ब्रह्म है, रस ही जीवन है। इसी अभिप्राय में गंगा कर्म है, गंगा धर्म है, गंगा ज्ञान है, गंगा भाव है, गंगा तप है, गंगा परंपरा संस्कृति है। इसी महाभाव से सभाएं करना चाहिए। आंदोलन चलाना चाहिए ताकि गंगा में गंदगी डालने की मानसिकता को बदला जा सके।
डॉ. राममनोहर लोहिया ने ‘नदियों’ पर लेख लिखा और पूरे देश में गंगा बचाने की आवाज उठाई। काका साहब कालेलकर ने ‘हम और हमारी नदियां’ पुस्तक लिख कर नदी मातृक संस्कृति में नया भाव-बोध जागृत किया। जीवन भर यह विचार जीवित रखा कि नदी का हमारी संस्कृति में महत्व अनेक कारणों से रहा है। अधिकतर व्यापार नदी-मार्गों से होता था और नदी संगम सुरक्षा की व्यवस्था रहती थी।
हमारी संस्कृति में नदियों के जल के बिना न पूजा होती है न उपासना न कोई यज्ञ न कोई ज्ञानसत्र चलता है। जल ही ब्रह्म है, रस ही जीवन है। इसी अभिप्राय में गंगा कर्म है, गंगा धर्म है, गंगा ज्ञान है, गंगा भाव है, गंगा तप है, गंगा परंपरा संस्कृति है। इसी महाभाव से सभाएं करना चाहिए। आंदोलन चलाना चाहिए ताकि गंगा में गंदगी डालने की मानसिकता को बदला जा सके। गंगा हमारी पूरी जीवन-प्रणाली है। प्राचीन साहित्य में विशेषकर पुराण साहित्य में नदियों को पुराण पुरुष या विराट पुरुष की नाड़ी कहा गया है। उनसे ही देश की भौगोलिक भावनात्मक, सांस्कृतिक, मिथकीय एकता को आधार मिलता रहा। जल ही ब्रह्म है, हमारे नर के नारायण जल में ही निवास करते हैं। यह मिथक अनेक भाष्य लिए है कि गंगा तो विष्णु के पैरों से निकली है।
गंगा की इस महिमा को लोक और शास्त्र दोनों गाते हैं। ‘रामचरित मानस’ में राम केवट संवाद इसका लोक-प्रमाण है। हम जिन वनवासियों, गंगातटवासियों को अज्ञानी समझते हैंं वे कैसे अद्भुत ज्ञानी हैं, उनके पास लोक से प्राप्त ज्ञान है। आज की उत्तर आधुनिकता लोक-संस्कृति और लोक परंपराओं को मिटाने पर आमादा है। बड़े-बड़े शहर गंगा के प्राणों में जहर घोल रहे हैं। हमारे शहरी मानस में गंगा के प्रति वह पवित्र भाव ही नष्ट हो चुका है और हम गंगावरण और गंगाधर शिव का वह मिथक ही भूल चुके हैंं-जिसमें हमारी जातीय स्मृति का निवास रहा है।
औपनिवेशिक आधुनिकता में गर्क उपभोक्तावादी संस्कृति के नर-नारियों के लिए यह पाठ पुनर्जीवित करने की आवश्यकता है कि गंगा का एक बड़ा समाजशास्त्रीय अर्थ है, जो इस देश के इतिहास-भूगोल, साहित्य से जुड़ा है। भारतीयों के लिए वह नदी मात्र नहीं है- मूल्यचेतना है। एक ऐसा कीमती विचार है जिसे छोड़ कर हमारा जीवन चल नहीं सकता।
आधुनिकता से उपजा विकास और प्रगति का जो दंभी दावा है उससे गंगा को बचाना होगा। ‘विकास’ का पूरा ढांचा प्रकृति-विनाश पर खड़ा है और इसी से वन-पर्वत सभी उजड़ रहे हैं। महानगरीय सभ्यता-संस्कृति का मैलापन गंगा के प्राणों को निकाल रहा है। इसलिए गंगा-मंत्रालय को गंगा को बचाने के लिए कई कोणों से सोचना होगा। इस दृष्टि से भी सोचना होगा कि गंगा के ग्लेशियर क्यों कमजोर पड़ कर मरियल हो रहे हैं? भारतीय जन-जीवन का गंगा पर जो अडिग आस्था-विश्वास रहा है उसे वैचारिक तल की तह तक जाकर सोचना-समझना होगा। विश्व बैंक के पैसे और अंधी धार्मिकता से गंगा को निर्मल कर पाना बहुत बड़ी चुनौती है।
ईमेल : sastasahityamandal@gmail.com
इन दिनों पूरे देश में नदियों और तालाबों के पुनरोद्धार की चर्चा है। चर्चा के असर से उनके पुनरोद्धार के अभियान शुरू हो रहे हैं। वे, धीरे धीरे देश के सभी इलाकों में पहुंच रहे हैं। अभियानों के विस्तार के साथ-साथ, आने वाले दिनों में इस काम से राज्य सरकारें, जन प्रतिनिधि, नगरीय निकाय, सरकारी विभाग, अकादमिक संस्थान, कारपोरेट हाउस, स्वयं सेवी संस्थाएं, कंपनियां, ठेकेदार एवं नागरिक जुड़ेंगे। सुझावों, परिस्थितियों तथा विचारधाराओं की विविधता के कारण, देश को, तालाबों पुनरोद्धार के अनेक मॉडल देखने को मिलेंगे। यह विविधता लाजिमी भी है।
कुछ मॉडल अधूरी सोच और सीमित लक्ष्य पर आधारित होंगे तो कुछ तालाब की अस्मिता की समग्र बहाली को अभियान का अंग बनाएंगे। इसी कारण कुछ मॉडल तात्कालिक तो कुछ दीर्घकालिक लाभ देने वाले होंगे। अभियान में कहीं-कहीं समाज भागीदारी करेगा तो कहीं-कहीं वह केवल मूक दर्शक की भूमिका निबाहेगा।
होली के बाद गांव-के-गांव पानी की कमी के कारण खाली होने लग जाते हैं। चैत तक तो जिले के सभी शहर-कस्बे पानी की एक-एक बूंद के लिए बिलखने लगते हैं। लोग सरकार को कोसते हैं लेकिन इस त्रासदी का ठीकरा केवल प्रशासन के सिर फोड़ना बेमानी होगा, इसका असली कसूरवार तो यहां के बाशिंदे हैं, जिन्होंने नलों से घर पर पानी आता देख अपने पुश्तैनी तालाबों में गाद भर दी थी, कुओं को बिसरा कर नलकूपों की ओर लपके थे और जंगलों को उजाड़ कर नदियों को उथला बना दिया था।
बुंदेलखंड के छतरपुर जिले में पानी की किल्लत के लिए अब गरमी का इंतजार नहीं करना पड़ता है। सरकारी योजनाएं खूब उम्मीदें दिखाती हैं लेकिन पानी की तरावट फाईलों से उबर नहीं पाती है।
गांव का नाम ही है - बनी तलैया। लौंडी ब्लाक के इस गांव के नाम से ही जाहिर होता है कि यहां एक तलैया जरूर होगी। यहां के रहवासियों के पुरखे, अपनी पानी की जरूरतों के लिए इसी तलैया पर निर्भर थे। सत्तर का दशक आते-आते आधुनिकता की ऐसी आंधी गांव तक बह आई कि लोगों को इस तालाब की सफाई करवाने की सुध ही नहीं रही। फिर किसी ने उसके पुराने बंधन को तोड़ डाला, लिहाजा साल भर लबालब रहने वाला तालाब बरसाती गड्ढा बन कर रह गया।
तालाब सूखे तो गांव की तकदीर भी सूख गई- कुओं का जल स्तर घट कर तलहटी पर पुहंच गया। नब्बे का दशक आते-आते विपत्ति इतनी गहरा गई कि लोगों को गांव छोड़ कर भागना पड़ा। यह कहानी कोई एक गांव की नहीं है, जिले के कई गांव-मजरे-बसावटें बीते चार दशकों के दौरान पानी की कमी के चलते वीरान हो गए। चूंकि वहां सदियों से जीवन था यानी वहां पर्याप्त जल संसाधन भी थे जिन्हें आजादी के बाद लोगों ने उपेक्षित किया।
पठार और पहाड़ी बाहुल्य छतरपुर जिले की पुरानी बसाहट पर एक नजर डालें तो पाएंगे कि छतरपुर हो या बक्सवाहा या फिर खजुराहो; हर बस्ती के मुहाने पर पहाड़ जरूर मौजूद हैं। इस पहाड़ से सटा कर तालाब खोदना यहां की सदियों पुरानी परंपरा रही। बेहतरीन कैचमेंट एरिया वाले ये तालाब चंदेल राजाओं यानी 900 से 1200वीं सदी में बनवाए गए थे।
उस काल में वैज्ञानिक समझ बेहद उन्नत थी- हर तालाब में कम बारिश होने पर भी पानी की आवक, संचयन, जावक और ओवर फ्लो निर्मित किए गए थे। अंग्रेज शासक तो इस तकनीक को देख कर चकित थे। उन्होंने जिले की अधिकांश सिंचाई परियोजनाएं इन्हीं तालाबों पर स्थापित की थीं। धीरे-धीरे इनमें मिट्टी, नजदीकी पेड़ों की पत्तियां और इलाके भर की गंदगी गिरने लगी।
तालाबों की देखभाल का सरकारी बजट एक तो ना के बराबर था और जितना था वह कभी तालाब तक पहुंचा ही नहीं। जब लोगों को बूंद-बूंद तरसते हुए अपने ‘‘जल-पुरखों’’ का ध्यान आया तब तक वहां जमी गाद ने तालाबों को नहीं, वहां के निवासियों की तकदीर को जाम कर दिया था। राज्य में दिग्गीराजा के काग्रेस शासन में ‘‘सरोवर हमारी धरोहर’’ योजना आई तो शिवराज सिंह सरकार ने ‘जलाभिषेक’ का नारा दिया- तालाब चमकने तो दूर उन पर हुए कब्जे हटाने से भी सरकारी महकमे ने मुंह मोड़ लिया - जिला मुख्यालय के सांतरी तलैया, किशोर सागर जैसे कई विशाल तालाबों पर दुकानें, मकान बन गए, पानी के आवक-निकास के रास्ते ही बंद कर दिए गए।
पठार और पहाड़ी बाहुल्य छतरपुर जिले की पुरानी बसाहट पर एक नजर डालें तो पाएंगे कि छतरपुर हो या बक्सवाहा या फिर खजुराहो; हर बस्ती के मुहाने पर पहाड़ जरूर मौजूद हैं। इस पहाड़ से सटा कर तालाब खोदना यहां की सदियों पुरानी परंपरा रही। बेहतरीन कैचमेंट एरिया वाले ये तालाब चंदेल राजाओं यानी 900 से 1200वीं सदी में बनवाए गए थे। उस काल में वैज्ञानिक समझ बेहद उन्नत थी- हर तालाब में कम बारिश होने पर भी पानी की आवक, संचयन, जावक और ओवर फ्लो निर्मित किए गए थे। अंग्रेज शासक तो इस तकनीक को देख कर चकित थे। फिर तालाब पर कब्जा कर काटी गई कालेानियों का मल-जल यहां गिरने लगा व ये जीवनदायी तालाब नाबदान बन गए। गहरा करने, सौंदर्यीकरण के नाम पर बजट फूंका जाता रहा और तालाबों का क्षेत्रफल शून्य की ओर सरकता रहा। किशोर सागर से अक्रिमण हटाने पर तो पिछले सप्ताह ही राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण ने दखल दिया है।
चीनी यात्री ह्वेनसांग जब भारत भ्रमण पर आया था तो उसने अपने वृतांत में दर्ज किया है कि खजुराहो में एक मील योजन में फल एक तालाब था। आज उसी खजुराहो व उससे चार किलोमीटर दूर स्थित कस्बे राजनगर में एक-एक बूंद पानी के लिए मारा-मारी मची है। राजनगर का विशाल तालाब, खजुराहो के प्रेम सागर व शिवसागर बदबूदार नाबदान बन कर रह गए हैं।
खजुराहों मंदिरों के एक हजार साल होने पर वहां कई आयोजन हुए थे, उसी समय तालाबों की रंगाई-पुताई कर चमकाया गया था, लेकिन तालाब ऊपरी साज-सज्जा के मोहताज नहीं होते, उनका गहना तो निर्मल जल होता है। शिवसागर से सटा कर कोई हजार पेड़ यूक्लेपिटस के लगा दिए गए थे - एक तो ये पेड़ ही पानी सोखता है, फिर इसकी पत्तियों के कचरे ने तालाब को उथला कर दिया।
छतरपुर जिले के 57 तालाब सिंचाई विभाग के पास है जिन पर रखरखाव के नाम पर खर्च पैसे का पिछले पचास साल का हिसाब लगाया जाए तो जिले की एक-एक इंच जमीन पर कई फुट गहरे तालाब खोदे जा सकते थे। पैसा कैसे खर्च होता है, इसकी बानगी जिला मुख्यालय से 14 किलोमीटर दूर ईसानगर में देख लें - कुख्यात माफिया सरगना व विधायक अशोकवीर विक्रम सिंह उर्फ भैयाराजा की रिहाईश वाले इस गांव के तालबों का क्षेत्रफल 535 एकड़ और पानी भरने की क्षमता 100.59 मिलियन घन फुट हुआ करती थी।
सालों से इसका पानी इलाके के खेतों को सींचता था। इसके अलावा यहां पैदा होने वाली कमल, सिंघाड़े, मछली से कईं घरों का चूल्हा जला करता था। सन् 1989 में सिंचाई विभाग के इंजीनियर द्वारा जारी सिंचाई उपलब्धि तालिका में इस तालाब का सिंचाई रकबा शून्य दर्ज किया गया। जो ताल एक साल पहले तक 400 हेक्टेयर खेत को सींचता था वह अचानक कैसे सूख गया? वह तो भला हो उ.प्र. पुलिस का जो एक हत्या के मामले में भैयाराजा को गिरफ्तार करने आई तो खुलासा हुआ कि उदयपुर के ‘लेक पैलेस’ की तर्ज पर अपना जल महल बनाने के लिए भैयाराजा ने तालाब पर अपना कब्जा कर वहां पक्का निर्माण कार्य शुरू करवा दिया था।
यही नहीं सन् 1989-90 में तालाब के रखरखाव पर सूखा राहत कार्य के नाम पर साढ़े तीन लाख रूपए खर्च भी दिखाए गए। मार्च-91 में जिला प्रशासन चेता और डायनामाईट से राजा का कब्जा उड़ाया गया, तब जा कर पता चला कि तालाब पर खर्च दिखाया जा रहा पैसा असल में जल महल पर खर्च हो रहा था। समूचे जिले में ऐसे तालाब, जल महल और भैयाराजा चप्पे-चप्पे पर फैले हुए हैं जिनके सामने सरकार व समाज बेबस दिखता है।
यह इलाका ग्रेनाईट पत्थर संरचना वाला है और यहां भूगर्भ जल बेहद गहराई पर है जिसे मत्थर चीर कर ही हासिल किया जा सकता हे। अस्सी के दशक में कई नेताओं ने सेलम (तमिलनाडु) से जमीन का सीना चीर कर पाताल पानी उगाहने की मशीनें मंगवाईं और जहां किसी ने पानी के संकट की गुहार लगाई वहां नलकूप रोप दिया गया।
असल में वे नलकूप जमीन के गर्भ का नहीं, बल्कि बारिश के दौरान जमीन से रिस कर नीचे पहुचे पानी जो ग्रेनाईट के कारण जमा हो जाता है को उलीछ रहे थे। बेतहाशा जल निकासी से आसपास के कुंओं का जल स्तर घटता गया। उन कुओं को पानी से हरा-भरा रखने वाले ताल-तलैया खत्म हुए तो कुंए भी खत्म हो गए। नलकूप का तिलिस्म तो टूटना ही था।
अब सरकारी अफसर चिल्ला-चिल्ला कर कह रहे हैं कि ताल-तालाब खत्म होने से ‘‘ग्राउंड वाटर रिचार्ज नहीं हो पा रहे हैं। जहां बड़े तालाब हैं वहीं नलकूप भी सफल हैं। तालाबों को संरक्षण नारा तो बन गया है लेकिन उन पारंपरिक रास्तों पर बने अवैध निर्माण हटाने को कोई राजी नहीं है, जिन रास्तों से हो कर बारिश की हर बूंद तालाबों तक पहुंचती थी।
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भारतीय जन मानस की अवधारणा की अर्थ ही समझ से परे हो गया है और लोक में आलोक न पाकर अंधकार उमड़ रहा है। मन का संदेह कह रहा है कि भारतीय जन को जीवन देने वाली गंगा नदी का होगा क्या?
गंगा की चिंता को लेकर सर्वोच्च न्यायालय मुखर है, लेकिन नई सरकार गंगा मंत्रालय बना कर शीर्षासन कर रही है। गंगा की सफाई को लेकर चर्चा राजीव गांधी ने 1986 में शुरू की थी और बना डाला गंगा एक्शन प्लान। इस प्लान में अरबों रुपया स्वाहा हो गया और नतीजा कुछ नहीं निकला। पैसे के पुजारी आरती उतारते रहे और गंगा की देह जलती रही। देश की कुबुद्धियां कहती रहीं कि गंगा धार्मिकता से जुड़ी है और यह धार्मिकता बेहद एकांगी है।
पता नहीं चल रहा है कि धर्म और धार्मिकता का क्या अर्थ है? क्या पाठ-विमर्श है? क्या तात्पर्य वृत्ति है? क्या पार्टनर की पॉलिटिक्स है? सोच का क्या अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र औऱ मिथकशास्त्र है? क्योंकि मेरे जैसे व्यक्ति के लिए गंगा केवल नदी नहीं है- जीवन है, संस्कृति है, हिमालय के इतिहास से नाभिनाल जुड़ी अविरल रस धारा है।
इतिहास गवाह है कि इस देश में अंग्रेजों के आने के बाद नदियों, तीर्थों, पर्वों, उत्सवों मेले-ठेले आदि के प्रति हमारे मन में अंधी आधुनिकता का पागलपन आ गया है।
हम गंगा को ‘गंगा मैया’ कहने की खिल्ली उड़ाने लगे और कहने लगे कि गंगा कोई मैया-वैया नहीं है- अन्य नदियों की तरह एक नदी है; इस नदी पर हिंदू धर्म में अनेक मिथक बने हैं; ये सभी झूठे लाचार मिथक है; गंगा नदी को ‘धर्म’ में घेरना हिंदुओं की साजिश है और उसमें स्नान-ध्यान ढोंग और अज्ञान प्रतिदिन हिंदू गंगा की पवित्रता के गीत गाता है; साहित्य लिखता है; कला-दर्शन, इतिहास, भूगोल की प्रज्ञापारमिता का भाष्य रचता है; इस भाष्य भाषा ने गंगा के साथ प्रकृति के संबंध को समझने में बाधा खड़ी कर दी है।
इस तरह गंगा चिंतन ‘सेक्युलर’ चिंतन नहीं है। पश्चिमी चिंतन पर भरोसा करने वाले लोकाचार, शिष्टाचार भूल कर लोक-जन की गंगा-भक्ति का उपहास करते हैं। उन्हें यह मिथक समझ में नहीं आता कि गंगा विष्णु के अंगूठे से निकली है ब्रह्मा के कमंडल में निवास कर चुकी है और उसे लोक देवता शिव ने अपने सिर पर धारण किया है। लाड़-प्यार में पली गंगा सिरचढ़ी है। इस गंगा की महिमा के गीत रामायण, महाभारत, वेद, पुराण गाते हैं तुलसीदास के साथ अब्दुल रहीम खानखाना गाते हैं।
रहीम तो भारत से बार जन्मे थे, पर उनके मन में गंगा ऐसी रची-बस कि उसे सिर पर धारण करने का वरदान मांगा। उन्होंने लिखा ‘अच्युत चरण तरंगिणी शशिशेखर मौलि मालती माले’ और अनुवाद किया ‘अच्युत तरन तरंगिणी शिव शिर मालती माल’। रहीम की गंगा-विनय किसी मजहब की श्रेष्ठता का गान नहीं है- वह लोक-हृदय की भाव-भूमि का पवित्र विस्तार है। यह गंगा-भाव पश्चिमी ‘सेक्युलरिज्म’ के विचार को ‘रबिश थॉट’ या निरर्थक विचार इसलिए मानता है।
आज गंगा सफाई अभियान के समय हमें उसकी समाजशास्त्रीय पृष्ठभूमि का लोक और शास्त्र दोनों की दृष्टि से ‘विमर्श’ करना चाहिए। यह कार्य ‘सेक्युलरिज्म’ करने में अक्षम है, क्योंकि उसके पास ऐसी रीढ़ नहीं है कि वह उसको तान कर खड़ा हो सके। इसलिए गंगा को राजनीतिक के हाथों ने सौंप कर एक नए आधुनिक भाव-बोध के बौद्धिक समाज के हाथों में सौंपना चाहिए। यह समाज चेतना मानती रही है कि गंगा ने विराट जन-समूह की सामूहिकता को संवारने गढ़ने का कार्य किया है। गंगा की यात्रा इस देश के सामूहिक मन में अंतर्यात्रा है।
गंगा सफाई अभियान ही अकेला क्यों? सभी नदियों को कचरा-मुक्त करने का संकल्प लेना होगा। इस संकल्प को लेने का कारण यह है कि गंगा के इतिहास के साथ कई इतिहास नाभिनाल जुड़े हैं। यह यमुना प्रयाग में गंगा के गले मिलकर पता नहीं क्या-क्या कह रही है। इस गंगा का एक इतिहास राम की नदी सरयू से जुड़ा है- इसका यश ‘सीय राममय सब जगजानी’ का दर्शन इस देश को देता रहा है।
आधुनिकता से उपजा विकास और प्रगति का जो दंभी दावा है उससे गंगा को बचाना होगा। ‘विकास’ का पूरा ढांचा प्रकृति-विनाश पर खड़ा है और इसी से वन-पर्वत सभी उजड़ रहे हैं। महानगरीय सभ्यता-संस्कृति का मैलापन गंगा के प्राणों को निकाल रहा है। इसलिए गंगा-मंत्रालय को गंगा को बचाने के लिए कई कोणों से सोचना होगा। इस दृष्टि से भी सोचना होगा कि गंगा के ग्लेशियर क्यों कमजोर पड़ कर मरियल हो रहे हैं? भारतीय जन-जीवन का गंगा पर जो अडिग आस्था-विश्वास रहा है उसे वैचारिक तल की तह तक जाकर सोचना-समझना होगा। विश्व बैंक के पैसे और अंधी धार्मिकता से गंगा को निर्मल कर पाना बहुत बड़ी चुनौती है।इसी नदी में बुद्ध का अमृत जल है। विद्यानिवास मिश्र ने ‘हम और हमारी नदियां’ शीर्षक निबंध में यह ध्यान दिलाया था कि ‘गंगा में एक इतिहास नारायणी या गंडकी का भी है। गंडकी एक क्वारी नदी है, क्वारी है इसलिए प्रबल है, अनियंत्रित है, पर इसके बावजूद वह नारायण को प्रिय है। नारायण उसकी धार को तोड़ से बने पत्थरों में रहते हैं। तब वे शालिग्राम कहलाते हैं। नदी का एक नाम इसीलिए शालिग्राम भी पड़ गया है।’
इस गंगा से एक इतिहास क्वारे सोन की जुड़ता है जो बारात लेकर नर्मदा मैया को ब्याहने गया और यह कह कर बारात वापस ले आया कि लड़की की जात छोटी है- कन्या का कुल छोटा है। बस, नर्मदा नाराज हो गई, उसने सोनभद्र का गर्व झाड़ दिया और विपरीत दिशा में भागती चली गई। कुलदंभी सोन से कोई समझौता नहीं किया। इस मिथक पर नारी विमर्श वालों ने कभी ध्यान नहीं दिया। ध्यान देने पर इस मिथक से तमाम जाति, धर्म, कुल-गोत्र-वंश की परतें खुलेंगी।
यह सोचने को मिलेगा कि क्यों सोन विंध्याचल में ही मारा-मारा फिरता रहा। उसे वह गंगा मिली जो पहले ही परितृप्त थी, सरयू के कारण। सोन को भाग्य फूटे पठार मिले- उसकी कुलीनता का दंभ पठार बन गया। लेकिन गंगा कहीं न झुकी न रुकी न कुलीनता का दंभ किया, वह सबकी होकर सबमें रची-बसी और अनथक सागर तक गतिवान रही।
गंगा ने एक से अनेक का भाव अपना कर अपने को अनेक धाराओं में बांटा, अनगिनत तीर्थ बनाए, अनेक मृतात्माओं को तार दिया। हम कैसे भूल सकते हैं कि महात्मा गांधी का अस्थि-विसर्जन प्रयाग में किया गया। शिव के सिर चढ़ी गंगा, हिमालय की कन्या है, इसलिए लोकमंगल के प्रति सदैव समर्पित है। वह इस देश की कृषि-संस्कृति का न जाने कब से प्राण रही है और अन्न के अक्षय भंडार की अन्नपूर्णा भी।
ब्रह्मा के ज्ञान कमंडल को त्याग कर निकली गंगा आज तड़प रही है- लाचार हो रही है। बांधों ने उसका खून चूस लिया है और कानपुर जैसे नगरों ने चमड़े का कचरा डाल कर उसके प्राण लेने की तैयारी की है। गंगा गंदगी से पट गई है- हमारे कुकृत्यों का मैल उसे मारे डाल रहा है। हम भूल गए हैं कि गंगा मैया तो हमें जीवन देती है। गंगा के लिए जब तक माता भाव नहीं आएगा तब तक गंगा को साफ नहीं किया जा सकता।
आजादी के आंदोलन के दिनों में हम सब गाते रहे- ‘गंगा उठो कि नींद में सदियां गुजर गईं’। आज उस नवजागरण की सांस्कृतिक चेतना के प्रति हम विमुख क्यों? इसलिए कि जो भाव आदमी को गंगा बना देता था वह भाव ही उपभोक्तावादी संस्कृति, बाजारवाद, भूमंडलीकरण के दांव-पेंचों में भटक गया है।
इधर गंगा से विपरीत दिशा में बहने वाली नर्मदा का बुरा हाल है। नर्मदा तप-त्याग और विक्षोभ की धारा है। इसका इतिहास परशुराम और कार्तकीर्य, परमारों, कलचुरियों से जुड़ा है। नर्मदा की क्वारी पवित्र चोट से पत्थर ओंकारेश्वर हो गया- नर्मदेश्वर जन्म ले गए और इसकी घाटी में विक्रमों, मालवों, राष्ट्रकुटों का विजय अभियान धन्य हो गया। इसने भारतीय सभ्यता-संस्कृति-परंपरा के इतिहास को उदात्त गरिमा से चमका दिया।
स्मृति की खुली खिड़की से कोई कह रहा है कि भूलो मत गोदावरी के किनारे हमारे राम की पंचवटी है और कावेरी-कृष्णा के किनारे दक्षिण भारत के भक्ति आंदोलन का भक्ति-रस। गाना चल रहा है- स्नान के साथ कि गंगा-यमुना, गोदावरी, सरस्वती, नर्मदा, सिंधु, कावेरी इन सभी नदियों का जल एक साथ मिले उसी से स्नान-जप-तप हो।
हमारी संस्कृति में नदियों के जल के बिना न पूजा होती है न उपासना न कोई यज्ञ न कोई ज्ञानसत्र चलता है। जल ही ब्रह्म है, रस ही जीवन है। इसी अभिप्राय में गंगा कर्म है, गंगा धर्म है, गंगा ज्ञान है, गंगा भाव है, गंगा तप है, गंगा परंपरा संस्कृति है। इसी महाभाव से सभाएं करना चाहिए। आंदोलन चलाना चाहिए ताकि गंगा में गंदगी डालने की मानसिकता को बदला जा सके।
डॉ. राममनोहर लोहिया ने ‘नदियों’ पर लेख लिखा और पूरे देश में गंगा बचाने की आवाज उठाई। काका साहब कालेलकर ने ‘हम और हमारी नदियां’ पुस्तक लिख कर नदी मातृक संस्कृति में नया भाव-बोध जागृत किया। जीवन भर यह विचार जीवित रखा कि नदी का हमारी संस्कृति में महत्व अनेक कारणों से रहा है। अधिकतर व्यापार नदी-मार्गों से होता था और नदी संगम सुरक्षा की व्यवस्था रहती थी।
हमारी संस्कृति में नदियों के जल के बिना न पूजा होती है न उपासना न कोई यज्ञ न कोई ज्ञानसत्र चलता है। जल ही ब्रह्म है, रस ही जीवन है। इसी अभिप्राय में गंगा कर्म है, गंगा धर्म है, गंगा ज्ञान है, गंगा भाव है, गंगा तप है, गंगा परंपरा संस्कृति है। इसी महाभाव से सभाएं करना चाहिए। आंदोलन चलाना चाहिए ताकि गंगा में गंदगी डालने की मानसिकता को बदला जा सके। गंगा हमारी पूरी जीवन-प्रणाली है। प्राचीन साहित्य में विशेषकर पुराण साहित्य में नदियों को पुराण पुरुष या विराट पुरुष की नाड़ी कहा गया है। उनसे ही देश की भौगोलिक भावनात्मक, सांस्कृतिक, मिथकीय एकता को आधार मिलता रहा। जल ही ब्रह्म है, हमारे नर के नारायण जल में ही निवास करते हैं। यह मिथक अनेक भाष्य लिए है कि गंगा तो विष्णु के पैरों से निकली है।
गंगा की इस महिमा को लोक और शास्त्र दोनों गाते हैं। ‘रामचरित मानस’ में राम केवट संवाद इसका लोक-प्रमाण है। हम जिन वनवासियों, गंगातटवासियों को अज्ञानी समझते हैंं वे कैसे अद्भुत ज्ञानी हैं, उनके पास लोक से प्राप्त ज्ञान है। आज की उत्तर आधुनिकता लोक-संस्कृति और लोक परंपराओं को मिटाने पर आमादा है। बड़े-बड़े शहर गंगा के प्राणों में जहर घोल रहे हैं। हमारे शहरी मानस में गंगा के प्रति वह पवित्र भाव ही नष्ट हो चुका है और हम गंगावरण और गंगाधर शिव का वह मिथक ही भूल चुके हैंं-जिसमें हमारी जातीय स्मृति का निवास रहा है।
औपनिवेशिक आधुनिकता में गर्क उपभोक्तावादी संस्कृति के नर-नारियों के लिए यह पाठ पुनर्जीवित करने की आवश्यकता है कि गंगा का एक बड़ा समाजशास्त्रीय अर्थ है, जो इस देश के इतिहास-भूगोल, साहित्य से जुड़ा है। भारतीयों के लिए वह नदी मात्र नहीं है- मूल्यचेतना है। एक ऐसा कीमती विचार है जिसे छोड़ कर हमारा जीवन चल नहीं सकता।
आधुनिकता से उपजा विकास और प्रगति का जो दंभी दावा है उससे गंगा को बचाना होगा। ‘विकास’ का पूरा ढांचा प्रकृति-विनाश पर खड़ा है और इसी से वन-पर्वत सभी उजड़ रहे हैं। महानगरीय सभ्यता-संस्कृति का मैलापन गंगा के प्राणों को निकाल रहा है। इसलिए गंगा-मंत्रालय को गंगा को बचाने के लिए कई कोणों से सोचना होगा। इस दृष्टि से भी सोचना होगा कि गंगा के ग्लेशियर क्यों कमजोर पड़ कर मरियल हो रहे हैं? भारतीय जन-जीवन का गंगा पर जो अडिग आस्था-विश्वास रहा है उसे वैचारिक तल की तह तक जाकर सोचना-समझना होगा। विश्व बैंक के पैसे और अंधी धार्मिकता से गंगा को निर्मल कर पाना बहुत बड़ी चुनौती है।
ईमेल : sastasahityamandal@gmail.com
तालाब पुनरोद्धार अभियान का रोडमैप
इन दिनों पूरे देश में नदियों और तालाबों के पुनरोद्धार की चर्चा है। चर्चा के असर से उनके पुनरोद्धार के अभियान शुरू हो रहे हैं। वे, धीरे धीरे देश के सभी इलाकों में पहुंच रहे हैं। अभियानों के विस्तार के साथ-साथ, आने वाले दिनों में इस काम से राज्य सरकारें, जन प्रतिनिधि, नगरीय निकाय, सरकारी विभाग, अकादमिक संस्थान, कारपोरेट हाउस, स्वयं सेवी संस्थाएं, कंपनियां, ठेकेदार एवं नागरिक जुड़ेंगे। सुझावों, परिस्थितियों तथा विचारधाराओं की विविधता के कारण, देश को, तालाबों पुनरोद्धार के अनेक मॉडल देखने को मिलेंगे। यह विविधता लाजिमी भी है।
कुछ मॉडल अधूरी सोच और सीमित लक्ष्य पर आधारित होंगे तो कुछ तालाब की अस्मिता की समग्र बहाली को अभियान का अंग बनाएंगे। इसी कारण कुछ मॉडल तात्कालिक तो कुछ दीर्घकालिक लाभ देने वाले होंगे। अभियान में कहीं-कहीं समाज भागीदारी करेगा तो कहीं-कहीं वह केवल मूक दर्शक की भूमिका निबाहेगा।
तालाब मिटते गए सूखा बढ़ता गया
होली के बाद गांव-के-गांव पानी की कमी के कारण खाली होने लग जाते हैं। चैत तक तो जिले के सभी शहर-कस्बे पानी की एक-एक बूंद के लिए बिलखने लगते हैं। लोग सरकार को कोसते हैं लेकिन इस त्रासदी का ठीकरा केवल प्रशासन के सिर फोड़ना बेमानी होगा, इसका असली कसूरवार तो यहां के बाशिंदे हैं, जिन्होंने नलों से घर पर पानी आता देख अपने पुश्तैनी तालाबों में गाद भर दी थी, कुओं को बिसरा कर नलकूपों की ओर लपके थे और जंगलों को उजाड़ कर नदियों को उथला बना दिया था।
बुंदेलखंड के छतरपुर जिले में पानी की किल्लत के लिए अब गरमी का इंतजार नहीं करना पड़ता है। सरकारी योजनाएं खूब उम्मीदें दिखाती हैं लेकिन पानी की तरावट फाईलों से उबर नहीं पाती है।
गांव का नाम ही है - बनी तलैया। लौंडी ब्लाक के इस गांव के नाम से ही जाहिर होता है कि यहां एक तलैया जरूर होगी। यहां के रहवासियों के पुरखे, अपनी पानी की जरूरतों के लिए इसी तलैया पर निर्भर थे। सत्तर का दशक आते-आते आधुनिकता की ऐसी आंधी गांव तक बह आई कि लोगों को इस तालाब की सफाई करवाने की सुध ही नहीं रही। फिर किसी ने उसके पुराने बंधन को तोड़ डाला, लिहाजा साल भर लबालब रहने वाला तालाब बरसाती गड्ढा बन कर रह गया।
तालाब सूखे तो गांव की तकदीर भी सूख गई- कुओं का जल स्तर घट कर तलहटी पर पुहंच गया। नब्बे का दशक आते-आते विपत्ति इतनी गहरा गई कि लोगों को गांव छोड़ कर भागना पड़ा। यह कहानी कोई एक गांव की नहीं है, जिले के कई गांव-मजरे-बसावटें बीते चार दशकों के दौरान पानी की कमी के चलते वीरान हो गए। चूंकि वहां सदियों से जीवन था यानी वहां पर्याप्त जल संसाधन भी थे जिन्हें आजादी के बाद लोगों ने उपेक्षित किया।
पठार और पहाड़ी बाहुल्य छतरपुर जिले की पुरानी बसाहट पर एक नजर डालें तो पाएंगे कि छतरपुर हो या बक्सवाहा या फिर खजुराहो; हर बस्ती के मुहाने पर पहाड़ जरूर मौजूद हैं। इस पहाड़ से सटा कर तालाब खोदना यहां की सदियों पुरानी परंपरा रही। बेहतरीन कैचमेंट एरिया वाले ये तालाब चंदेल राजाओं यानी 900 से 1200वीं सदी में बनवाए गए थे।
उस काल में वैज्ञानिक समझ बेहद उन्नत थी- हर तालाब में कम बारिश होने पर भी पानी की आवक, संचयन, जावक और ओवर फ्लो निर्मित किए गए थे। अंग्रेज शासक तो इस तकनीक को देख कर चकित थे। उन्होंने जिले की अधिकांश सिंचाई परियोजनाएं इन्हीं तालाबों पर स्थापित की थीं। धीरे-धीरे इनमें मिट्टी, नजदीकी पेड़ों की पत्तियां और इलाके भर की गंदगी गिरने लगी।
तालाबों की देखभाल का सरकारी बजट एक तो ना के बराबर था और जितना था वह कभी तालाब तक पहुंचा ही नहीं। जब लोगों को बूंद-बूंद तरसते हुए अपने ‘‘जल-पुरखों’’ का ध्यान आया तब तक वहां जमी गाद ने तालाबों को नहीं, वहां के निवासियों की तकदीर को जाम कर दिया था। राज्य में दिग्गीराजा के काग्रेस शासन में ‘‘सरोवर हमारी धरोहर’’ योजना आई तो शिवराज सिंह सरकार ने ‘जलाभिषेक’ का नारा दिया- तालाब चमकने तो दूर उन पर हुए कब्जे हटाने से भी सरकारी महकमे ने मुंह मोड़ लिया - जिला मुख्यालय के सांतरी तलैया, किशोर सागर जैसे कई विशाल तालाबों पर दुकानें, मकान बन गए, पानी के आवक-निकास के रास्ते ही बंद कर दिए गए।
पठार और पहाड़ी बाहुल्य छतरपुर जिले की पुरानी बसाहट पर एक नजर डालें तो पाएंगे कि छतरपुर हो या बक्सवाहा या फिर खजुराहो; हर बस्ती के मुहाने पर पहाड़ जरूर मौजूद हैं। इस पहाड़ से सटा कर तालाब खोदना यहां की सदियों पुरानी परंपरा रही। बेहतरीन कैचमेंट एरिया वाले ये तालाब चंदेल राजाओं यानी 900 से 1200वीं सदी में बनवाए गए थे। उस काल में वैज्ञानिक समझ बेहद उन्नत थी- हर तालाब में कम बारिश होने पर भी पानी की आवक, संचयन, जावक और ओवर फ्लो निर्मित किए गए थे। अंग्रेज शासक तो इस तकनीक को देख कर चकित थे। फिर तालाब पर कब्जा कर काटी गई कालेानियों का मल-जल यहां गिरने लगा व ये जीवनदायी तालाब नाबदान बन गए। गहरा करने, सौंदर्यीकरण के नाम पर बजट फूंका जाता रहा और तालाबों का क्षेत्रफल शून्य की ओर सरकता रहा। किशोर सागर से अक्रिमण हटाने पर तो पिछले सप्ताह ही राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण ने दखल दिया है।
चीनी यात्री ह्वेनसांग जब भारत भ्रमण पर आया था तो उसने अपने वृतांत में दर्ज किया है कि खजुराहो में एक मील योजन में फल एक तालाब था। आज उसी खजुराहो व उससे चार किलोमीटर दूर स्थित कस्बे राजनगर में एक-एक बूंद पानी के लिए मारा-मारी मची है। राजनगर का विशाल तालाब, खजुराहो के प्रेम सागर व शिवसागर बदबूदार नाबदान बन कर रह गए हैं।
खजुराहों मंदिरों के एक हजार साल होने पर वहां कई आयोजन हुए थे, उसी समय तालाबों की रंगाई-पुताई कर चमकाया गया था, लेकिन तालाब ऊपरी साज-सज्जा के मोहताज नहीं होते, उनका गहना तो निर्मल जल होता है। शिवसागर से सटा कर कोई हजार पेड़ यूक्लेपिटस के लगा दिए गए थे - एक तो ये पेड़ ही पानी सोखता है, फिर इसकी पत्तियों के कचरे ने तालाब को उथला कर दिया।
छतरपुर जिले के 57 तालाब सिंचाई विभाग के पास है जिन पर रखरखाव के नाम पर खर्च पैसे का पिछले पचास साल का हिसाब लगाया जाए तो जिले की एक-एक इंच जमीन पर कई फुट गहरे तालाब खोदे जा सकते थे। पैसा कैसे खर्च होता है, इसकी बानगी जिला मुख्यालय से 14 किलोमीटर दूर ईसानगर में देख लें - कुख्यात माफिया सरगना व विधायक अशोकवीर विक्रम सिंह उर्फ भैयाराजा की रिहाईश वाले इस गांव के तालबों का क्षेत्रफल 535 एकड़ और पानी भरने की क्षमता 100.59 मिलियन घन फुट हुआ करती थी।
सालों से इसका पानी इलाके के खेतों को सींचता था। इसके अलावा यहां पैदा होने वाली कमल, सिंघाड़े, मछली से कईं घरों का चूल्हा जला करता था। सन् 1989 में सिंचाई विभाग के इंजीनियर द्वारा जारी सिंचाई उपलब्धि तालिका में इस तालाब का सिंचाई रकबा शून्य दर्ज किया गया। जो ताल एक साल पहले तक 400 हेक्टेयर खेत को सींचता था वह अचानक कैसे सूख गया? वह तो भला हो उ.प्र. पुलिस का जो एक हत्या के मामले में भैयाराजा को गिरफ्तार करने आई तो खुलासा हुआ कि उदयपुर के ‘लेक पैलेस’ की तर्ज पर अपना जल महल बनाने के लिए भैयाराजा ने तालाब पर अपना कब्जा कर वहां पक्का निर्माण कार्य शुरू करवा दिया था।
यही नहीं सन् 1989-90 में तालाब के रखरखाव पर सूखा राहत कार्य के नाम पर साढ़े तीन लाख रूपए खर्च भी दिखाए गए। मार्च-91 में जिला प्रशासन चेता और डायनामाईट से राजा का कब्जा उड़ाया गया, तब जा कर पता चला कि तालाब पर खर्च दिखाया जा रहा पैसा असल में जल महल पर खर्च हो रहा था। समूचे जिले में ऐसे तालाब, जल महल और भैयाराजा चप्पे-चप्पे पर फैले हुए हैं जिनके सामने सरकार व समाज बेबस दिखता है।
यह इलाका ग्रेनाईट पत्थर संरचना वाला है और यहां भूगर्भ जल बेहद गहराई पर है जिसे मत्थर चीर कर ही हासिल किया जा सकता हे। अस्सी के दशक में कई नेताओं ने सेलम (तमिलनाडु) से जमीन का सीना चीर कर पाताल पानी उगाहने की मशीनें मंगवाईं और जहां किसी ने पानी के संकट की गुहार लगाई वहां नलकूप रोप दिया गया।
असल में वे नलकूप जमीन के गर्भ का नहीं, बल्कि बारिश के दौरान जमीन से रिस कर नीचे पहुचे पानी जो ग्रेनाईट के कारण जमा हो जाता है को उलीछ रहे थे। बेतहाशा जल निकासी से आसपास के कुंओं का जल स्तर घटता गया। उन कुओं को पानी से हरा-भरा रखने वाले ताल-तलैया खत्म हुए तो कुंए भी खत्म हो गए। नलकूप का तिलिस्म तो टूटना ही था।
अब सरकारी अफसर चिल्ला-चिल्ला कर कह रहे हैं कि ताल-तालाब खत्म होने से ‘‘ग्राउंड वाटर रिचार्ज नहीं हो पा रहे हैं। जहां बड़े तालाब हैं वहीं नलकूप भी सफल हैं। तालाबों को संरक्षण नारा तो बन गया है लेकिन उन पारंपरिक रास्तों पर बने अवैध निर्माण हटाने को कोई राजी नहीं है, जिन रास्तों से हो कर बारिश की हर बूंद तालाबों तक पहुंचती थी।
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