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बेलगांव में 1995 में जब पीने के पानी का मुख्य स्रोत सूख गया तब वैकल्पिक पानी के स्रोतों की खोज हुई। यहां के वरिष्ठ नागरिक मंच ने कुओं का कायाकल्प करने का सुझाव दिया। इस पर अमल करने से पहले गोवा विश्वविद्यालय के भूविज्ञान विभाग के प्रमुख चाचडी से सलाह मांगी। उन्होंने इसका अध्ययन इस प्रोजेक्ट को हरी झंडी दी।
बहरहाल, यह एक आसान काम नहीं था। यहां कुएं से गाद निकालने के लिए भारी यंत्रों का इस्तेमाल करना संभव नहीं था और मजदूर भी इस काम को नहीं करना चाह रहे थे। तब एक स्थानीय आदमी रस्सी और घिर्री के सहारे कुएं में नीचे उतरा और उसने गाद को बाल्टी में भरा और ऊपर खींच लिया। इसी प्रकार अन्य कुओं का भी कायाकल्प किया गया।
इस तरह 21 बड़े और 32 छोटे कुओं को पुनर्जीवित किया जा चुका है। इनमें से एक बारा घादघायची विहिर भी शामिल है जो 1974 तक पीने के पानी का मुख्य स्रोत था।
अब इन कुओं से शहर की 2 लाख आबादी को पीने का पानी मुहैया कराया जा रहा है, जबकि कुल आबादी 5 लाख है। इस कदम से भूजल से सतही जल और बढ़ेगा।
20-25 साल पहले गांवों में लोग कुओं से पानी भरते थे। सुबह और शाम कुओं पर भारी भीड़ हुआ करती थी। महिलाएं कुओं पर पानी भरती थी।
जब सार्वजनिक कुओं में गाद या कचरा हो जाता था तब गांव और मुहल्ले के लोग मिलकर उसकी साफ-सफाई करते थे। इन पर लोग नहाते थे तो इस बात का ख्याल रखा जाता था कि गंदगी न हो और गंदा पानी वापस कुओं में न जाए।
छत्तीसगढ़ में मरार और सोनकर समुदाय के लोग अपने कुओं में टेड़ा पद्धति से सिंचाई करते हैं। टेड़ा पद्धति में कुएं से पानी निकालने के लिए बांस के एक सिरे पर बाल्टी और दूसरे सिरे पर वजनदार पत्थर या लकड़ियां बांध देते हैं जिससे पानी खींचने में आसानी हो।
टेड़ा से सब्जी-भाजी की सिंचाई होती हैं। वहां अब भी ग्रामीण अपनी बाड़ियों में अपने घर के उपयोग के लिए भटा, टमाटर, मूली, प्याज, लहसुन, धनिया और अन्य सब्जियां लगाते हैं।
आज जब जल संकट बहुत विकट रूप से सामने आ रहा है, कुएं पानी का स्थायी स्रोत साबित हो सकते हैं। भूजल स्तर हर साल नीचे खिसकता जा रहा है। कुएं पीढ़ियों तक हमारा साथ दे सकते हैं, हैंडपंप और नलकूप नहीं।
कुओं से हम उतना ही पानी निकालते हैं जितनी जरूरत होती है। जबकि नलकूप या मोटर पंप में व्यर्थ ही पानी बहता रहता है। सार्वजनिक नलों का भी यही हाल है। फिर ये इतनी भारी पूंजी वाली योजना है कि नगर निगम, नगर पालिका या ग्राम पंचायत इनका खर्च भी वहन नहीं कर पाती।
पानी के निजीकरण की कोशिशें चल रही हैं, नदियों से पानी शहरों को दिया जा रहा है, नदी जोड़ योजनाएं चल रही हैं। न तो वे स्थाई जलस्रोत हैं और न ही सस्ती। इसलिए हमें कुओं, तालाब और नदियों के कायाकल्प की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए। पर्यावरण का संरक्षण करना चाहिए। फिलहाल, कर्नाटक से कुओं के कायाकल्प की खबर सराहनीय ही नहीं अनुकरणीय भी है।
इन तालाबों को अपने आप अपने श्रम से, चंदे से, अपनी सूझबूझ से पुनर्जीवित कर लेंगे। दो महीने की लंबी बीमारी से उठ कर आए मुख्य मंत्री रामकृष्ण हेगड़े दो सौ वर्षों से बीमार रखे गए तालाबों और उन तालाबों से जुड़े किसानों का गांवों का दर्द अब भी नहीं समझ सकेंगे तो कब समझेंगे? जब गणेश जी इस तालाब में पूरे नहीं डूब पाएंगे तो समझ लेना कि गांव पर संकट आने वाले हैं, सुपारी के पत्तों की टोपी पहने उस आदमी ने अपने दादाजी की चेतावनी दुहराते हुए जोड़ा था कि पहले साल गणेश-उत्सव में कुछ ऐसा ही हुआ था।
महाराष्ट्र से जुड़े-कर्नाटक के हिस्से में इस तालाब पर आया संकट देश पर छा रहे पानी के संकट की तरफ इशारा कर रहा है। गांव-गांव में, कस्बों में और शहरों तक में सिंचाई से लेकर पीने के पानी तक का इंतज़ाम जुटाने वाले तालाब आज बड़े बांध, बड़ी सिंचाई और पेयजल योजनाओं के इस दौर में उपेक्षा की गाद में पट चले हैं। वर्षों तक मजबूती से टिकी रही अनेक तालाबों की पालें आज बदइंतजामी की ‘पछवा हवा में ढह’ चली हैं।
कर्नाटक में मलनाड क्षेत्र की सारी हरियाली और उससे जुड़ी संपन्नता वहां के तालाबों पर टिकी थी। सिंचाई विभाग वाले बताएंगे कि न जाने कब और किसने ये तालाब बनाए थे। पर थे ये बड़े गजब के। ऊंची-नीची जमीन और छोटे पहाड़ों के इस इलाके में हर तरफ पानी का ढाल देख कर इनकी जगह तय की गई थी। पहाड़ की चोटी पर एक बूंद गिरी और इस तरफ उसे अपने में समा लेने वाले तालाब में मिल जाएगी। लेकिन वह पुराना जमाना चला गया सिंचाई के नए-नए तरीके आ गए हैं।
नए माने मनवाए जा रहे तरीकों की जिम्मेदारी उठाने वाले नेता और विभाग अपने इस नए बोझ से अभिभूत हैं। वे जानना ही नहीं चाहते कि उनके कंधे बहुत ही नाजुक हैं। उनके गर्वीले बोझ को दरअसल दूसरे लोग ढो रहे हैं। जमाने के नए तरीकों की ढोल पीटने के बावजूद आज भी कई इलाकों में दम तोड़ रहे इन्हीं तालाबों के बल पर गांवों की व्यवस्था टिकी है। मलनाड के इलाके में 54 प्रतिशत सिंचित खेती तालाबों से पानी ले रही है। चेल्लापु शिरसी में यह चौंकाने की हदतक तालाबों के पानी से सिंचाई 67 प्रतिशत है। सागर तालुक में गन्ने की ‘आधुनिक’ खेती का आधा हिस्सा पुराने तालाबों पर टिका है।
मलनाड के तालाब यों अपेक्षाकृत छोटे हैं और दस से चौदह एकड़ तक के हैं। पर इस इलाके से पूरब में बढ़ते जाएं तो तालाबों का आकार बढ़ता जाता है। शिमोगा में औसत आकार 84 एकड़ ‘आयाकट’ तक मिलेगा। कहीं-कहीं यह 500 एकड़ तक छूता है। कर्नाटक भर में अलग-अलग तरह की जमीन और पनढाल को ध्यान में रख कर कुल मिला कर 34,000 से भी ज्यादा तालाब हैं। इनमें से कोई 23,000 तालाबों के बारे में छिटपुट जानकारी यहां-वहां दर्ज मिलती है। 10 से 50 एकड़ के 16,740, 50 से 100 एकड़ वाले 1363 और 100 से 500 एकड़ आयाकट वाले कोई 2700 तालाब घोर उपेक्षा के बावजूद टिके हुए हैं।
यह उपेक्षा कोई दो-चार साल की नहीं, कम-से-कम 150 साल से चली आ रही है। गाद से पटते जा रहे इन तालाबों की जानकारी देने चली रिपोर्टों पर भी इन्हीं की टक्कर पर धूल चढ़ती जा रही है। इस धूल को झाड़िए तो पता चलता है कि कोई 180 बरस पहले इन तालाबों में रखरखाव पर समाज की शक्ति, अक्ल और रुपया खर्च किया जाता था, आज कल्याणकारी बजट और विकास के लिए बेहद तत्पर विद्वानों और विशेषज्ञों की एक कौड़ी भी इस मद में नहीं खर्च की जा रही है। इन तालाबों के पतन का इतिहास पूरे देश में फैल रहे अकाल की प्रगति का भयानक भविष्य बनता जा रहा है।
पुराने दस्तावेजों की धूल झाड़िए तो पता चलता है कि वर्ष 1800 से वर्ष 1810 तक दीवान पुणैया के राज में कर्नाटक के मलनाड क्षेत्र में बने तालाबों के रखरखाव के लिए हर साल ग्यारह लाख खर्च किए जाते थे। फिर आए अंग्रेज और उनके साथ आया राजस्व विभाग। सिंचाई का प्रबंध राजस्व विभाग के हाथों में दे दिया गया। जो तालाब कल तक गांव के हाथ में थे, वे राजस्व विभाग के हो गए। ‘ढीले-ढाले सुस्त और ऐयाश राज का अंत हुआ और चुस्त प्रशासन का दौर आया।’ चुस्त प्रशासन ने इन तालाबों के रखरखाव में भारी फिजूलखर्ची देखी और सन् 1831 से 1836 तक इन पर हर बरस 11 लाख तक के बदले 80,000 रुपया खर्च किया। सन् 1836 से 1862 तक के सत्ताइस बरसों में और क्या-क्या ‘सुधार’ हुए, इस दौरान बनाए गए और तालाबों की सारी व्यवस्था राजस्व विभाग के हाथों ले कर पीडब्ल्यूडी को सौंप दी गई। सिद्धांत माना गया कि आखिरकार इन तालाबों का संबंध कोई राजस्व विभाग से तो है नहीं। ये तो लोक कल्याण का मामला है, सो लोक कल्याण विभाग को ही यह काम देखना चाहिए। 1863 से 1871 तक पीडब्ल्यूडी ने क्या किया, पता नहीं चलता। यह जरूर पता चलता है कि उत्पादन को बढ़ाने के लिए सिंचाई की उचित व्यवस्था बनाने पर जोर दिया गया और इसलिए 1871 में एक स्वतंत्र सिंचाई विभाग की स्थापना कर दी गई।
नया सिंचाई विभाग बेहद सक्रिय हो उठा। सिंचाई की रीढ़ बताए गए तालाबों की बेहतर देखभाल के लिए फटाफट नए-नए कानून बनाए गए। इन्हें पहली नवंबर 1873 से लागू किया गया। सारे नए कायदे-कानून तालाबों से वसूले जाने वाले सिंचाई-कर को ध्यान में रख कर बनाए गए थे। इसलिए पाया गया कि तालाब उस समय 300 रुपए की आमदनी भी नहीं दे सकते भला उनके रखरखाव की जिम्मेदारी उन महान कार्यालयों के जिम्मे क्यों आए, जिनके मालिक के साम्राज्य में सूरज कभी अस्त नहीं होता। लिहाजा 300 रुपये तक की आमदनी देने के वो तालाब विभाग के दायित्व से हटा कर फिर से उन्हीं किसानों को सौंप दिए, जो कुछ ही बरस पहले तक इनकी देखभाल करते थे। बिल्कुल बदतमीजी न दिखे, शायद इसलिए इस फैसले में इतना और जोड़ दिया गया कि इन तालाबों के रखरखाव से संबंधित छोटे-छोटे काम तो गांव वाले खुद कर ही लेंगे। ‘गंवाऊ’ और कमाऊ तालाबों का बंटवारा किया गया। स्वतंत्र सिंचाई विभाग के पास रह गए मंझोले और बड़े तालाब। तालाबों से लाभ कमाने, यानी अधिकार जताने और मरम्मत करने यानी कर्तव्य निभाने के बीच की लाइन खींच दी गई। पानी कर तो बाकायदा वसूला जाएगा पर यदि मरम्मत की जरूरत आ पड़ी तो तालाब-इंस्पेक्टर, अमलदार और तालुकेदार रैयत से इस काम के लिए चंदा मांगेंगे।
तालाबों से ‘पानी-कर’ खींचा जाता रहा, पर गाद नहीं निकाली गई कभी। धीरे-धीरे तालाब बिगड़ते गए। उधर पानी-कर की दरें भी बढ़ाई जाती रहीं। किसानों में असंतोष उभरा। बीसवीं सदी आने ही वाली थी। बिगड़ती जा रही सिंचाई व्यवस्था को बीसवीं सदी में ले जाने के ख्याल से ही शायद तब घोषणा की गई कि हर वर्ष 1000 तालाबों की मरम्मत का काम हाथ में लिया जाएगा। अंग्रेजों के काम करने का तरीका कोई मामूली तरीका नहीं था। नया काम हाथ में लेना हो तो पहले उसके लिए नए कानून बनेंगे। इसलिए पुराने कानून बदल डाले। 1904 में रैयत से कहा गया कि हर वर्ष 1000 तालाबों का काम कोई छोटा-मोटा काम नहीं है। जिन तालाबों की मरम्मत के लिए रैयत पहल करेगी, कुल खर्च का एकतिहाई अपनी ओर से जुटाएगी। उन्हीं तालाबों की मरम्मत का काम सरकार अपने हाथ में लेगी। फिर कुल लागत उस तालाब से मिलने वाले 20 वर्ष के राजस्व से ज्यादा नहीं होनी चाहिए। हां! अग्रेजी राज इंग्लैंड का अपना घर फूंक कर, मलनाड के तालाबों की मरम्मत भला क्यों करे?
इसलिए 1904 से 1913 तक मलनाड के कितने किसान अपना घर फूंक कर अपने तालाब दुरुस्त करते रहे, इसका कोई ठीक लेखा-जोखा नहीं मिल पाता। लेकिन लगता है यह तालाब-प्रसंग बेहद उलझता गया और इसे ‘गुलाम’ बनाने वाले बहुत से तालाब फिर से रेवेन्यू विभाग को सौंप दिए गए। इसी दौर में ‘टैंक पंचायत रेगुलेशन’ कानून बनाया गया और अब तालाबों की मरम्मत में रैयत का चंदा अनिवार्य कर दिया गया। फिर भी काम तो कुछ भी नहीं हुआ; इसलिए एक बार फिर इस मामले पर पुनर्विचार किया गया और फिर सारे तालाबों की देखरेख रेवन्यू से लेकर उसी भरोसेमंद पीडब्ल्यूडी को सौंप दी गई। सन् 1913 से अंग्रेजी राज के अंतिम वर्षों का दौर उथल-पुथल का रहा। जब पूरा राज ही हाथ से सरक रहा था, तब इन ताल-तलैयों की तरफ भला कैसे ध्यान जाता। फिर भी अपने भारी व्यस्त समय में कुछ पल निकाल कर एक बार उन्हें फिर राजस्व को दिया गया। तालाबों की इस शर्मनाक बदला-बदली का किस्सा आजादी के बाद भी जारी रहा। 1964 में एक बार फिर ‘कुशल प्रबंध’ के लिए तालाब राजस्व के हाथ से छीन कर लोक कल्याण विभाग को सौंप दिए गए। बिल्लियां झगड़ नहीं रही थीं फिर भी उनके हाथ से रोटी छीनकर ‘बंदरबांट’ करने का ऐसा विचित्र किस्सा और शायद ही कहीं मिलेगा।
आज ये तालाब धीमी मौत की तरफ बढ़ते ही चले जा रहे हैं। इनमें प्रतिवर्ष 0.5 से लेकर 1.5 प्रतिशत गाद जमा हो रही है। इन तालाबों से लाभ लेने वाले गांव आज भी अंग्रेजों के जमाने की तरह पानी-कर चुकाए चले जा रहे हैं। सन् 1976 में पानी-कर में 50 से 100 प्रतिशत की वृद्धि भी की जा चुकी है, पर इस बढ़ी हुई कमाई का एक भी पैसा इन तालाबों पर खर्च नहीं किया जाता है। खुद सरकारी रिपोर्टों का कहना है कि क्षेत्र के किसान कर चुकाने में बेहद नियमित हैं।
पिछले दिनों कर्नाटक के योजना विभाग ने इन तालाबों का कुछ अध्ययन किया है। केवल 6 हफ्ते में विभाग के सर्वश्री एसजी भट्ट, रामनाथन चेट्टी और अंबाजी राव ने राज्य के 34,000 तालाबों में से कोई 22000 तालाबों के बारे में एक अच्छी रिपोर्ट बनाई थी। उन्होंने अनेक वर्षों पहले बने इन तालाबों की पीठ थपथपाई है और इन्हें फिर से स्वच्छ व स्वस्थ बनाने का खर्च भी आंका है। 22891 तालाबों से गाद हटाने, उन्हें साफ करने के लिए कोई 72 करोड़ रुपए की जरूरत है। पर इतना पैसा कहां से आएगा? जैसा सरकारी जवाब सुनने को तैयार रहना चाहिए। ऐसे जवाब के बाद यह तो कहना चाहिए कि इन तालाबों से सिंचाई कर लेना छोड़ दो। जब मरम्मत ही नहीं तो कर किस बात का? तब किसान मरते हुए इन तालाबों को अपने आप अपने श्रम से, चंदे से, अपनी सूझबूझ से पुनर्जीवित कर लेंगे। दो महीने की लंबी बीमारी से उठ कर आए मुख्य मंत्री रामकृष्ण हेगड़े दो सौ वर्षों से बीमार रखे गए तालाबों और उन तालाबों से जुड़े किसानों का गांवों का दर्द अब भी नहीं समझ सकेंगे तो कब समझेंगे?
साफ माथे का समाज
(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिए कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें)
क्रम
अध्याय
1
भाषा और पर्यावरण
2
अकाल अच्छे विचारों का
3
'बनाजी' का गांव
4
तैरने वाला समाज डूब रहा है
5
नर्मदा घाटीः सचमुच कुछ घटिया विचार
6
भूकम्प की तर्जनी और कुम्हड़बतिया
7
पर्यावरण : खाने का और दिखाने का और
8
बीजों के सौदागर
9
बारानी को भी ये दासी बना देंगे
10
सरकारी विभागों में भटक कर ‘पुर गये तालाब’
11
गोपालपुरा: न बंधुआ बसे, न पेड़ बचे
12
गौना ताल: प्रलय का शिलालेख
13
साध्य, साधन और साधना
14
माटी, जल और ताप की तपस्या
15
सन 2000 में तीन शून्य भी हो सकते हैं
16
साफ माथे का समाज
17
थाली का बैंगन
18
भगदड़ में पड़ी सभ्यता
19
राजरोगियों की खतरनाक रजामंदी
20
असभ्यता की दुर्गंध में एक सुगंध
21
नए थाने खोलने से अपराध नहीं रुकते : अनुपम मिश्र
22
मन्ना: वे गीत फरोश भी थे
23
श्रद्धा-भाव की जरूरत
इन्हीं स्थितियों से ऊबकर यमुना सत्याग्रहियों ने दो नवंबर को एक बार फिर हथिनी कुंड बैराज पर आर-पार की लड़ाई का फैसला किया है। हथिनी कुंड बैराज वह जगह है, जहां पर हरियाणा यमुना में से अपनी जरूरत के लिहाज से पानी निकाल लेता है। जबरदस्ती का यह सिलसिला ताजेवाला से शुरू होता है और वजीराबाद, ओखला होते हुए गोकुल बैराज और उससे आगे तक जारी रहता है। हरियाणा अगर यमुना के पानी के अधिकतम दोहन के लिए जिम्मेदार है तो दिल्ली उसके दोहन के साथ प्रदूषण के लिए सर्वाधिक जिम्मेदार है। यमुना को धीरे-धीरे मारने के इस पाप में उत्तर प्रदेश का भी योगदान है, लेकिन वह हरियाणा और दिल्ली के पाप के आगे दब जाता है। उत्तर प्रदेश का एक उदाहरण गोकुल बैराज है जिसे मथुरा, आगरा और वृंदावन को पानी देने के लिए यमुना पर बनाया गया था, लेकिन इसके फाटक बंद होने से किसानों की जमीनें डूब गईं और वे मुआवजे के लिए तरस रहे हैं। हार कर किसानों ने अब बैराज में कूदकर आत्महत्या की धमकी दी है।
उधर, हरियाणा के मुख्यमंत्री दिल्ली पर यमुना को प्रदूषित करने का आरोप लगाते रहे हैं। यह आरोप तब भी लगता था जब दिल्ली में कांग्रेसी मुख्यमंत्री शीला दीक्षित और हरियाणा में उन्हीं की पार्टी के मुख्यमंत्री भूपिंदर सिंह हुड्डा थे। यह आरोप अब भी बंद नहीं होगा, चाहे दिल्ली में राष्ट्रपति शासन और हरियाणा में भाजपा सरकार रहे। उसकी वजह भी है। वजीराबाद से पहले यमुना साफ भी है और उसमें पानी भी है। लेकिन, वजीराबाद से ओखला तक पहुंचने में यमुना देश के सबसे चमकदार और सबके कल्याण का लंबा-चौड़ा दावा करने वाली देश की राजधानी की मार से इतनी पस्त हो जाती है कि न तो उसमें पानी बचता है न ही स्वच्छता। ऊपर से तुर्रा यह है कि हम यमुना को टेम्स बना देंगे।
दिल्ली का मीडिया और वहां स्थित केंद्र सरकार यमुना सफाई पर लंबे-चौड़े फतवे जारी करती रहती है। लेकिन, मशहूर नजफगढ़ नाले से लेकर सोलह बड़े नालों ने दिल्ली में यमुना का जो हाल कर रखा है वह यमुना के मानव फांस का ही द्योतक है। शुक्र है आज कृष्ण नहीं हुए वरना वे कालिंदी के उद्धार के लिए दिल्ली को ही नाथते। क्योंकि दिल्ली को नाथे बिना यमुना का उद्धार संभव नहीं है। दिल्ली ही आज का वह ‘कालिया नाग’ है जिसने यमुना को विषैला कर रखा है और जरूरी है कि या तो वह अपनी आदत सुधार ले या यमुना को छोड़कर कहीं और चला जाए। लेकिन, मुश्किल है कि दिल्ली को नाथेगा कौन?
बड़े-बड़े दावे करने वाली दिल्ली यमुना के साथ कितना छल कर रही है, यह बात आंकड़ों से साबित होती है। यमुना सफाई के नाम पर कई हजार करोड़ रुपये पानी की तरह बहा दिए जाने के बावजूद राजधानी में अभी महज 17 सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट लगाए जा सके हैं। वे सिर्फ आधी गंदगी का शोधन कर पाते हैं। इस बीच यूपीए सरकार ने 2013 में जापान सरकार के सहयोग से ओखला बैराज पर 1656 करोड़ रुपये की लागत से अति आधुनिक सफाई संयंत्र लगाने की योजना बनाई थी। लेकिन, अब यह राशि कम पड़ रही है और आंकड़ा 6000 करोड़ तक जा रहा है। उधर, दिल्ली जल बोर्ड की योजना के तहत राजधानी में सीवेज ट्रीटमेंट पर 2031 तक 25 हजार करोड़ रुपये खर्च किए जाने हैं।
यमुना प्रदूषण के बढ़ते जाने और सफाई खर्च के बीच एक समानुपाती रिश्ता है। यह बात ब्रज लाइफ लाइन वेलफेयर से जुड़े यमुना मुक्ति के योद्धा महेंद्रनाथ चतुर्वेदी की एक पुस्तिका से प्रमाणित होती है। ‘सफरनामा’ नाम से प्रकाशित उनकी यह पुस्तक आरंभ में ही कहती है- ‘नदी के प्रदूषण का प्राथमिक कारक कॉलीफार्म बैक्टीरिया जहां निजामुद्दीन ब्रिज पर 1999 में आठ करोड़ पचास लाख था, वह बढ़कर 2012 में 17 अरब की संख्या पार कर गया। वह भी छह हजार करोड़ रुपयों की भारी राशि के खर्च किए जाने के बाद।’ यह इस तथ्य को प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त है कि सरकारी धन की किस प्रकार बंदरबांट की गई है। यहां यह जानना भी दिलचस्प है कि वह 1983-84 के वर्ष को यमुना के प्रदूषण की शुरुआत का वर्ष बताते हैं और लगभग यही वर्ष गंगा एक्शन प्लान का भी है।
आज सवाल यह है कि क्या यमुना की सफाई जल संसाधन मंत्री उमा भारती और उनके साथ धार्मिक तरीके से इसे मुद्दा बनाने का कोलाहल करने वाले लोगों के द्वारा होगी या विशुद्ध वैज्ञानिक तरीके से औद्योगिक लॉबी द्वारा की जाएगी? यह एक गंभीर सवाल है और इस पर समाज में ही नहीं सरकार के भीतर भी खींचतान कम नहीं है। वे इसे वोट के लिए धार्मिक मसला बनाना चाहते हैं, लेकिन औद्योगिक शक्तियों व हरित क्रांति से पोषित किसान लॉबी के बिजली पानी के हितों की कुर्बानी देकर गंगा- यमुना को मुक्त नहीं करना चाहते। पर, यहां यह ध्यान रखना जरूरी है कि गंगा और यमुना किसी पार्टी को वोट नहीं देतीं और न ही किसी धर्म की माला जपती हैं।
वे सभी धर्मों के अनुयायियों और राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों से समभाव से ही व्यवहार करती हैं। लेकिन, उनकी अन्याय और अत्याचार सहने की एक सीमा है। जब वे कुपित होती हैं तो न तो हिन्दू बहुल उत्तराखंड को बख्शती हैं और न ही मुस्लिम बहुल कश्मीर को। इसलिए नदियों का अपना धर्म और अपनी राजनीति है। वह धर्म है नदियों के साफ-सुथरे तरीके से अविरल बहने का। हमें उसे समझना होगा और उसे इस लोकतंत्र में जगह देनी ही होगी। तभी यमुना का मानव फांस दूर होगा और तभी वह हमारा यम फांस दूर कर पाएंगी।
(लेखक कल्पतरु एक्सप्रेस के कार्यकारी संपादक हैं), ईमेल-tripathiarunk@gmail.com
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कुओं का कायाकल्प
बेलगांव में 1995 में जब पीने के पानी का मुख्य स्रोत सूख गया तब वैकल्पिक पानी के स्रोतों की खोज हुई। यहां के वरिष्ठ नागरिक मंच ने कुओं का कायाकल्प करने का सुझाव दिया। इस पर अमल करने से पहले गोवा विश्वविद्यालय के भूविज्ञान विभाग के प्रमुख चाचडी से सलाह मांगी। उन्होंने इसका अध्ययन इस प्रोजेक्ट को हरी झंडी दी।
बहरहाल, यह एक आसान काम नहीं था। यहां कुएं से गाद निकालने के लिए भारी यंत्रों का इस्तेमाल करना संभव नहीं था और मजदूर भी इस काम को नहीं करना चाह रहे थे। तब एक स्थानीय आदमी रस्सी और घिर्री के सहारे कुएं में नीचे उतरा और उसने गाद को बाल्टी में भरा और ऊपर खींच लिया। इसी प्रकार अन्य कुओं का भी कायाकल्प किया गया।
इस तरह 21 बड़े और 32 छोटे कुओं को पुनर्जीवित किया जा चुका है। इनमें से एक बारा घादघायची विहिर भी शामिल है जो 1974 तक पीने के पानी का मुख्य स्रोत था।
अब इन कुओं से शहर की 2 लाख आबादी को पीने का पानी मुहैया कराया जा रहा है, जबकि कुल आबादी 5 लाख है। इस कदम से भूजल से सतही जल और बढ़ेगा।
20-25 साल पहले गांवों में लोग कुओं से पानी भरते थे। सुबह और शाम कुओं पर भारी भीड़ हुआ करती थी। महिलाएं कुओं पर पानी भरती थी।
जब सार्वजनिक कुओं में गाद या कचरा हो जाता था तब गांव और मुहल्ले के लोग मिलकर उसकी साफ-सफाई करते थे। इन पर लोग नहाते थे तो इस बात का ख्याल रखा जाता था कि गंदगी न हो और गंदा पानी वापस कुओं में न जाए।
छत्तीसगढ़ में मरार और सोनकर समुदाय के लोग अपने कुओं में टेड़ा पद्धति से सिंचाई करते हैं। टेड़ा पद्धति में कुएं से पानी निकालने के लिए बांस के एक सिरे पर बाल्टी और दूसरे सिरे पर वजनदार पत्थर या लकड़ियां बांध देते हैं जिससे पानी खींचने में आसानी हो।
टेड़ा से सब्जी-भाजी की सिंचाई होती हैं। वहां अब भी ग्रामीण अपनी बाड़ियों में अपने घर के उपयोग के लिए भटा, टमाटर, मूली, प्याज, लहसुन, धनिया और अन्य सब्जियां लगाते हैं।
आज जब जल संकट बहुत विकट रूप से सामने आ रहा है, कुएं पानी का स्थायी स्रोत साबित हो सकते हैं। भूजल स्तर हर साल नीचे खिसकता जा रहा है। कुएं पीढ़ियों तक हमारा साथ दे सकते हैं, हैंडपंप और नलकूप नहीं।
कुओं से हम उतना ही पानी निकालते हैं जितनी जरूरत होती है। जबकि नलकूप या मोटर पंप में व्यर्थ ही पानी बहता रहता है। सार्वजनिक नलों का भी यही हाल है। फिर ये इतनी भारी पूंजी वाली योजना है कि नगर निगम, नगर पालिका या ग्राम पंचायत इनका खर्च भी वहन नहीं कर पाती।
पानी के निजीकरण की कोशिशें चल रही हैं, नदियों से पानी शहरों को दिया जा रहा है, नदी जोड़ योजनाएं चल रही हैं। न तो वे स्थाई जलस्रोत हैं और न ही सस्ती। इसलिए हमें कुओं, तालाब और नदियों के कायाकल्प की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए। पर्यावरण का संरक्षण करना चाहिए। फिलहाल, कर्नाटक से कुओं के कायाकल्प की खबर सराहनीय ही नहीं अनुकरणीय भी है।
सरकारी विभागों में भटक कर ‘पुर गये तालाब’
इन तालाबों को अपने आप अपने श्रम से, चंदे से, अपनी सूझबूझ से पुनर्जीवित कर लेंगे। दो महीने की लंबी बीमारी से उठ कर आए मुख्य मंत्री रामकृष्ण हेगड़े दो सौ वर्षों से बीमार रखे गए तालाबों और उन तालाबों से जुड़े किसानों का गांवों का दर्द अब भी नहीं समझ सकेंगे तो कब समझेंगे? जब गणेश जी इस तालाब में पूरे नहीं डूब पाएंगे तो समझ लेना कि गांव पर संकट आने वाले हैं, सुपारी के पत्तों की टोपी पहने उस आदमी ने अपने दादाजी की चेतावनी दुहराते हुए जोड़ा था कि पहले साल गणेश-उत्सव में कुछ ऐसा ही हुआ था।
महाराष्ट्र से जुड़े-कर्नाटक के हिस्से में इस तालाब पर आया संकट देश पर छा रहे पानी के संकट की तरफ इशारा कर रहा है। गांव-गांव में, कस्बों में और शहरों तक में सिंचाई से लेकर पीने के पानी तक का इंतज़ाम जुटाने वाले तालाब आज बड़े बांध, बड़ी सिंचाई और पेयजल योजनाओं के इस दौर में उपेक्षा की गाद में पट चले हैं। वर्षों तक मजबूती से टिकी रही अनेक तालाबों की पालें आज बदइंतजामी की ‘पछवा हवा में ढह’ चली हैं।
कर्नाटक में मलनाड क्षेत्र की सारी हरियाली और उससे जुड़ी संपन्नता वहां के तालाबों पर टिकी थी। सिंचाई विभाग वाले बताएंगे कि न जाने कब और किसने ये तालाब बनाए थे। पर थे ये बड़े गजब के। ऊंची-नीची जमीन और छोटे पहाड़ों के इस इलाके में हर तरफ पानी का ढाल देख कर इनकी जगह तय की गई थी। पहाड़ की चोटी पर एक बूंद गिरी और इस तरफ उसे अपने में समा लेने वाले तालाब में मिल जाएगी। लेकिन वह पुराना जमाना चला गया सिंचाई के नए-नए तरीके आ गए हैं।
नए माने मनवाए जा रहे तरीकों की जिम्मेदारी उठाने वाले नेता और विभाग अपने इस नए बोझ से अभिभूत हैं। वे जानना ही नहीं चाहते कि उनके कंधे बहुत ही नाजुक हैं। उनके गर्वीले बोझ को दरअसल दूसरे लोग ढो रहे हैं। जमाने के नए तरीकों की ढोल पीटने के बावजूद आज भी कई इलाकों में दम तोड़ रहे इन्हीं तालाबों के बल पर गांवों की व्यवस्था टिकी है। मलनाड के इलाके में 54 प्रतिशत सिंचित खेती तालाबों से पानी ले रही है। चेल्लापु शिरसी में यह चौंकाने की हदतक तालाबों के पानी से सिंचाई 67 प्रतिशत है। सागर तालुक में गन्ने की ‘आधुनिक’ खेती का आधा हिस्सा पुराने तालाबों पर टिका है।
मलनाड के तालाब यों अपेक्षाकृत छोटे हैं और दस से चौदह एकड़ तक के हैं। पर इस इलाके से पूरब में बढ़ते जाएं तो तालाबों का आकार बढ़ता जाता है। शिमोगा में औसत आकार 84 एकड़ ‘आयाकट’ तक मिलेगा। कहीं-कहीं यह 500 एकड़ तक छूता है। कर्नाटक भर में अलग-अलग तरह की जमीन और पनढाल को ध्यान में रख कर कुल मिला कर 34,000 से भी ज्यादा तालाब हैं। इनमें से कोई 23,000 तालाबों के बारे में छिटपुट जानकारी यहां-वहां दर्ज मिलती है। 10 से 50 एकड़ के 16,740, 50 से 100 एकड़ वाले 1363 और 100 से 500 एकड़ आयाकट वाले कोई 2700 तालाब घोर उपेक्षा के बावजूद टिके हुए हैं।
यह उपेक्षा कोई दो-चार साल की नहीं, कम-से-कम 150 साल से चली आ रही है। गाद से पटते जा रहे इन तालाबों की जानकारी देने चली रिपोर्टों पर भी इन्हीं की टक्कर पर धूल चढ़ती जा रही है। इस धूल को झाड़िए तो पता चलता है कि कोई 180 बरस पहले इन तालाबों में रखरखाव पर समाज की शक्ति, अक्ल और रुपया खर्च किया जाता था, आज कल्याणकारी बजट और विकास के लिए बेहद तत्पर विद्वानों और विशेषज्ञों की एक कौड़ी भी इस मद में नहीं खर्च की जा रही है। इन तालाबों के पतन का इतिहास पूरे देश में फैल रहे अकाल की प्रगति का भयानक भविष्य बनता जा रहा है।
पुराने दस्तावेजों की धूल झाड़िए तो पता चलता है कि वर्ष 1800 से वर्ष 1810 तक दीवान पुणैया के राज में कर्नाटक के मलनाड क्षेत्र में बने तालाबों के रखरखाव के लिए हर साल ग्यारह लाख खर्च किए जाते थे। फिर आए अंग्रेज और उनके साथ आया राजस्व विभाग। सिंचाई का प्रबंध राजस्व विभाग के हाथों में दे दिया गया। जो तालाब कल तक गांव के हाथ में थे, वे राजस्व विभाग के हो गए। ‘ढीले-ढाले सुस्त और ऐयाश राज का अंत हुआ और चुस्त प्रशासन का दौर आया।’ चुस्त प्रशासन ने इन तालाबों के रखरखाव में भारी फिजूलखर्ची देखी और सन् 1831 से 1836 तक इन पर हर बरस 11 लाख तक के बदले 80,000 रुपया खर्च किया। सन् 1836 से 1862 तक के सत्ताइस बरसों में और क्या-क्या ‘सुधार’ हुए, इस दौरान बनाए गए और तालाबों की सारी व्यवस्था राजस्व विभाग के हाथों ले कर पीडब्ल्यूडी को सौंप दी गई। सिद्धांत माना गया कि आखिरकार इन तालाबों का संबंध कोई राजस्व विभाग से तो है नहीं। ये तो लोक कल्याण का मामला है, सो लोक कल्याण विभाग को ही यह काम देखना चाहिए। 1863 से 1871 तक पीडब्ल्यूडी ने क्या किया, पता नहीं चलता। यह जरूर पता चलता है कि उत्पादन को बढ़ाने के लिए सिंचाई की उचित व्यवस्था बनाने पर जोर दिया गया और इसलिए 1871 में एक स्वतंत्र सिंचाई विभाग की स्थापना कर दी गई।
नया सिंचाई विभाग बेहद सक्रिय हो उठा। सिंचाई की रीढ़ बताए गए तालाबों की बेहतर देखभाल के लिए फटाफट नए-नए कानून बनाए गए। इन्हें पहली नवंबर 1873 से लागू किया गया। सारे नए कायदे-कानून तालाबों से वसूले जाने वाले सिंचाई-कर को ध्यान में रख कर बनाए गए थे। इसलिए पाया गया कि तालाब उस समय 300 रुपए की आमदनी भी नहीं दे सकते भला उनके रखरखाव की जिम्मेदारी उन महान कार्यालयों के जिम्मे क्यों आए, जिनके मालिक के साम्राज्य में सूरज कभी अस्त नहीं होता। लिहाजा 300 रुपये तक की आमदनी देने के वो तालाब विभाग के दायित्व से हटा कर फिर से उन्हीं किसानों को सौंप दिए, जो कुछ ही बरस पहले तक इनकी देखभाल करते थे। बिल्कुल बदतमीजी न दिखे, शायद इसलिए इस फैसले में इतना और जोड़ दिया गया कि इन तालाबों के रखरखाव से संबंधित छोटे-छोटे काम तो गांव वाले खुद कर ही लेंगे। ‘गंवाऊ’ और कमाऊ तालाबों का बंटवारा किया गया। स्वतंत्र सिंचाई विभाग के पास रह गए मंझोले और बड़े तालाब। तालाबों से लाभ कमाने, यानी अधिकार जताने और मरम्मत करने यानी कर्तव्य निभाने के बीच की लाइन खींच दी गई। पानी कर तो बाकायदा वसूला जाएगा पर यदि मरम्मत की जरूरत आ पड़ी तो तालाब-इंस्पेक्टर, अमलदार और तालुकेदार रैयत से इस काम के लिए चंदा मांगेंगे।
तालाबों से ‘पानी-कर’ खींचा जाता रहा, पर गाद नहीं निकाली गई कभी। धीरे-धीरे तालाब बिगड़ते गए। उधर पानी-कर की दरें भी बढ़ाई जाती रहीं। किसानों में असंतोष उभरा। बीसवीं सदी आने ही वाली थी। बिगड़ती जा रही सिंचाई व्यवस्था को बीसवीं सदी में ले जाने के ख्याल से ही शायद तब घोषणा की गई कि हर वर्ष 1000 तालाबों की मरम्मत का काम हाथ में लिया जाएगा। अंग्रेजों के काम करने का तरीका कोई मामूली तरीका नहीं था। नया काम हाथ में लेना हो तो पहले उसके लिए नए कानून बनेंगे। इसलिए पुराने कानून बदल डाले। 1904 में रैयत से कहा गया कि हर वर्ष 1000 तालाबों का काम कोई छोटा-मोटा काम नहीं है। जिन तालाबों की मरम्मत के लिए रैयत पहल करेगी, कुल खर्च का एकतिहाई अपनी ओर से जुटाएगी। उन्हीं तालाबों की मरम्मत का काम सरकार अपने हाथ में लेगी। फिर कुल लागत उस तालाब से मिलने वाले 20 वर्ष के राजस्व से ज्यादा नहीं होनी चाहिए। हां! अग्रेजी राज इंग्लैंड का अपना घर फूंक कर, मलनाड के तालाबों की मरम्मत भला क्यों करे?
इसलिए 1904 से 1913 तक मलनाड के कितने किसान अपना घर फूंक कर अपने तालाब दुरुस्त करते रहे, इसका कोई ठीक लेखा-जोखा नहीं मिल पाता। लेकिन लगता है यह तालाब-प्रसंग बेहद उलझता गया और इसे ‘गुलाम’ बनाने वाले बहुत से तालाब फिर से रेवेन्यू विभाग को सौंप दिए गए। इसी दौर में ‘टैंक पंचायत रेगुलेशन’ कानून बनाया गया और अब तालाबों की मरम्मत में रैयत का चंदा अनिवार्य कर दिया गया। फिर भी काम तो कुछ भी नहीं हुआ; इसलिए एक बार फिर इस मामले पर पुनर्विचार किया गया और फिर सारे तालाबों की देखरेख रेवन्यू से लेकर उसी भरोसेमंद पीडब्ल्यूडी को सौंप दी गई। सन् 1913 से अंग्रेजी राज के अंतिम वर्षों का दौर उथल-पुथल का रहा। जब पूरा राज ही हाथ से सरक रहा था, तब इन ताल-तलैयों की तरफ भला कैसे ध्यान जाता। फिर भी अपने भारी व्यस्त समय में कुछ पल निकाल कर एक बार उन्हें फिर राजस्व को दिया गया। तालाबों की इस शर्मनाक बदला-बदली का किस्सा आजादी के बाद भी जारी रहा। 1964 में एक बार फिर ‘कुशल प्रबंध’ के लिए तालाब राजस्व के हाथ से छीन कर लोक कल्याण विभाग को सौंप दिए गए। बिल्लियां झगड़ नहीं रही थीं फिर भी उनके हाथ से रोटी छीनकर ‘बंदरबांट’ करने का ऐसा विचित्र किस्सा और शायद ही कहीं मिलेगा।
आज ये तालाब धीमी मौत की तरफ बढ़ते ही चले जा रहे हैं। इनमें प्रतिवर्ष 0.5 से लेकर 1.5 प्रतिशत गाद जमा हो रही है। इन तालाबों से लाभ लेने वाले गांव आज भी अंग्रेजों के जमाने की तरह पानी-कर चुकाए चले जा रहे हैं। सन् 1976 में पानी-कर में 50 से 100 प्रतिशत की वृद्धि भी की जा चुकी है, पर इस बढ़ी हुई कमाई का एक भी पैसा इन तालाबों पर खर्च नहीं किया जाता है। खुद सरकारी रिपोर्टों का कहना है कि क्षेत्र के किसान कर चुकाने में बेहद नियमित हैं।
पिछले दिनों कर्नाटक के योजना विभाग ने इन तालाबों का कुछ अध्ययन किया है। केवल 6 हफ्ते में विभाग के सर्वश्री एसजी भट्ट, रामनाथन चेट्टी और अंबाजी राव ने राज्य के 34,000 तालाबों में से कोई 22000 तालाबों के बारे में एक अच्छी रिपोर्ट बनाई थी। उन्होंने अनेक वर्षों पहले बने इन तालाबों की पीठ थपथपाई है और इन्हें फिर से स्वच्छ व स्वस्थ बनाने का खर्च भी आंका है। 22891 तालाबों से गाद हटाने, उन्हें साफ करने के लिए कोई 72 करोड़ रुपए की जरूरत है। पर इतना पैसा कहां से आएगा? जैसा सरकारी जवाब सुनने को तैयार रहना चाहिए। ऐसे जवाब के बाद यह तो कहना चाहिए कि इन तालाबों से सिंचाई कर लेना छोड़ दो। जब मरम्मत ही नहीं तो कर किस बात का? तब किसान मरते हुए इन तालाबों को अपने आप अपने श्रम से, चंदे से, अपनी सूझबूझ से पुनर्जीवित कर लेंगे। दो महीने की लंबी बीमारी से उठ कर आए मुख्य मंत्री रामकृष्ण हेगड़े दो सौ वर्षों से बीमार रखे गए तालाबों और उन तालाबों से जुड़े किसानों का गांवों का दर्द अब भी नहीं समझ सकेंगे तो कब समझेंगे?
साफ माथे का समाज (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिए कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें) | |
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मानव फांस में उलझी यमुना
इन्हीं स्थितियों से ऊबकर यमुना सत्याग्रहियों ने दो नवंबर को एक बार फिर हथिनी कुंड बैराज पर आर-पार की लड़ाई का फैसला किया है। हथिनी कुंड बैराज वह जगह है, जहां पर हरियाणा यमुना में से अपनी जरूरत के लिहाज से पानी निकाल लेता है। जबरदस्ती का यह सिलसिला ताजेवाला से शुरू होता है और वजीराबाद, ओखला होते हुए गोकुल बैराज और उससे आगे तक जारी रहता है। हरियाणा अगर यमुना के पानी के अधिकतम दोहन के लिए जिम्मेदार है तो दिल्ली उसके दोहन के साथ प्रदूषण के लिए सर्वाधिक जिम्मेदार है। यमुना को धीरे-धीरे मारने के इस पाप में उत्तर प्रदेश का भी योगदान है, लेकिन वह हरियाणा और दिल्ली के पाप के आगे दब जाता है। उत्तर प्रदेश का एक उदाहरण गोकुल बैराज है जिसे मथुरा, आगरा और वृंदावन को पानी देने के लिए यमुना पर बनाया गया था, लेकिन इसके फाटक बंद होने से किसानों की जमीनें डूब गईं और वे मुआवजे के लिए तरस रहे हैं। हार कर किसानों ने अब बैराज में कूदकर आत्महत्या की धमकी दी है।
उधर, हरियाणा के मुख्यमंत्री दिल्ली पर यमुना को प्रदूषित करने का आरोप लगाते रहे हैं। यह आरोप तब भी लगता था जब दिल्ली में कांग्रेसी मुख्यमंत्री शीला दीक्षित और हरियाणा में उन्हीं की पार्टी के मुख्यमंत्री भूपिंदर सिंह हुड्डा थे। यह आरोप अब भी बंद नहीं होगा, चाहे दिल्ली में राष्ट्रपति शासन और हरियाणा में भाजपा सरकार रहे। उसकी वजह भी है। वजीराबाद से पहले यमुना साफ भी है और उसमें पानी भी है। लेकिन, वजीराबाद से ओखला तक पहुंचने में यमुना देश के सबसे चमकदार और सबके कल्याण का लंबा-चौड़ा दावा करने वाली देश की राजधानी की मार से इतनी पस्त हो जाती है कि न तो उसमें पानी बचता है न ही स्वच्छता। ऊपर से तुर्रा यह है कि हम यमुना को टेम्स बना देंगे।
दिल्ली का मीडिया और वहां स्थित केंद्र सरकार यमुना सफाई पर लंबे-चौड़े फतवे जारी करती रहती है। लेकिन, मशहूर नजफगढ़ नाले से लेकर सोलह बड़े नालों ने दिल्ली में यमुना का जो हाल कर रखा है वह यमुना के मानव फांस का ही द्योतक है। शुक्र है आज कृष्ण नहीं हुए वरना वे कालिंदी के उद्धार के लिए दिल्ली को ही नाथते। क्योंकि दिल्ली को नाथे बिना यमुना का उद्धार संभव नहीं है। दिल्ली ही आज का वह ‘कालिया नाग’ है जिसने यमुना को विषैला कर रखा है और जरूरी है कि या तो वह अपनी आदत सुधार ले या यमुना को छोड़कर कहीं और चला जाए। लेकिन, मुश्किल है कि दिल्ली को नाथेगा कौन?
बड़े-बड़े दावे करने वाली दिल्ली यमुना के साथ कितना छल कर रही है, यह बात आंकड़ों से साबित होती है। यमुना सफाई के नाम पर कई हजार करोड़ रुपये पानी की तरह बहा दिए जाने के बावजूद राजधानी में अभी महज 17 सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट लगाए जा सके हैं। वे सिर्फ आधी गंदगी का शोधन कर पाते हैं। इस बीच यूपीए सरकार ने 2013 में जापान सरकार के सहयोग से ओखला बैराज पर 1656 करोड़ रुपये की लागत से अति आधुनिक सफाई संयंत्र लगाने की योजना बनाई थी। लेकिन, अब यह राशि कम पड़ रही है और आंकड़ा 6000 करोड़ तक जा रहा है। उधर, दिल्ली जल बोर्ड की योजना के तहत राजधानी में सीवेज ट्रीटमेंट पर 2031 तक 25 हजार करोड़ रुपये खर्च किए जाने हैं।
यमुना प्रदूषण के बढ़ते जाने और सफाई खर्च के बीच एक समानुपाती रिश्ता है। यह बात ब्रज लाइफ लाइन वेलफेयर से जुड़े यमुना मुक्ति के योद्धा महेंद्रनाथ चतुर्वेदी की एक पुस्तिका से प्रमाणित होती है। ‘सफरनामा’ नाम से प्रकाशित उनकी यह पुस्तक आरंभ में ही कहती है- ‘नदी के प्रदूषण का प्राथमिक कारक कॉलीफार्म बैक्टीरिया जहां निजामुद्दीन ब्रिज पर 1999 में आठ करोड़ पचास लाख था, वह बढ़कर 2012 में 17 अरब की संख्या पार कर गया। वह भी छह हजार करोड़ रुपयों की भारी राशि के खर्च किए जाने के बाद।’ यह इस तथ्य को प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त है कि सरकारी धन की किस प्रकार बंदरबांट की गई है। यहां यह जानना भी दिलचस्प है कि वह 1983-84 के वर्ष को यमुना के प्रदूषण की शुरुआत का वर्ष बताते हैं और लगभग यही वर्ष गंगा एक्शन प्लान का भी है।
आज सवाल यह है कि क्या यमुना की सफाई जल संसाधन मंत्री उमा भारती और उनके साथ धार्मिक तरीके से इसे मुद्दा बनाने का कोलाहल करने वाले लोगों के द्वारा होगी या विशुद्ध वैज्ञानिक तरीके से औद्योगिक लॉबी द्वारा की जाएगी? यह एक गंभीर सवाल है और इस पर समाज में ही नहीं सरकार के भीतर भी खींचतान कम नहीं है। वे इसे वोट के लिए धार्मिक मसला बनाना चाहते हैं, लेकिन औद्योगिक शक्तियों व हरित क्रांति से पोषित किसान लॉबी के बिजली पानी के हितों की कुर्बानी देकर गंगा- यमुना को मुक्त नहीं करना चाहते। पर, यहां यह ध्यान रखना जरूरी है कि गंगा और यमुना किसी पार्टी को वोट नहीं देतीं और न ही किसी धर्म की माला जपती हैं।
वे सभी धर्मों के अनुयायियों और राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों से समभाव से ही व्यवहार करती हैं। लेकिन, उनकी अन्याय और अत्याचार सहने की एक सीमा है। जब वे कुपित होती हैं तो न तो हिन्दू बहुल उत्तराखंड को बख्शती हैं और न ही मुस्लिम बहुल कश्मीर को। इसलिए नदियों का अपना धर्म और अपनी राजनीति है। वह धर्म है नदियों के साफ-सुथरे तरीके से अविरल बहने का। हमें उसे समझना होगा और उसे इस लोकतंत्र में जगह देनी ही होगी। तभी यमुना का मानव फांस दूर होगा और तभी वह हमारा यम फांस दूर कर पाएंगी।
(लेखक कल्पतरु एक्सप्रेस के कार्यकारी संपादक हैं), ईमेल-tripathiarunk@gmail.com
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