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Submitted by Editorial Team on Tue, 10/04/2022 - 16:13
कूरम में पुनर्निर्मित समथमन मंदिर तालाब। फोटो - indiawaterportal
परम्परागत तालाबों पर अनुपम मिश्र की किताब ‘आज भी खरे हैं तालाब’, पहली बार, वर्ष 1993 में प्रकाशित हुई थी। इस किताब में अनुपम ने समाज से प्राप्त जानकारी के आधार पर भारत के विभिन्न भागों में बने तालाबों के बारे में व्यापक विवरण प्रस्तुत किया है। अर्थात आज भी खरे हैं तालाब में दर्ज विवरण परम्परागत तालाबों पर समाज की राय है। उनका दृष्टिबोध है। उन विवरणों में समाज की भावनायें, आस्था, मान्यतायें, रीति-रिवाज तथा परम्परागत तालाबों के निर्माण से जुड़े कर्मकाण्ड दर्ज हैं। प्रस्तुति और शैली अनुपम की है।

Content

Submitted by Shivendra on Tue, 10/21/2014 - 15:51
Source:
Unique irrigation system
पिछले दिनों मेरा छत्तीसगढ़ में जशपुर जिले के एक गांव चराईखेड़ा जाना हुआ। वह उरांव आदिवासियों का गांव है। उनकी सरल जीवनशैली और मिट्टी के हवादार घरों के अलावा मुझे जिस चीज ने सबसे ज्यादा आकर्षित किया वह है उनकी सिंचाई की टेड़ा पद्धति।

यहां कुएं उथले हैं और उनमें साल भर लबालब पानी रहता है। कुओं से पानी निकालना आसान है, इसके लिए यहां टेड़ा का इस्तेमाल किया जाता है। टेड़ा और कुछ नहीं बांस की लकड़ी है जिसके एक सिरे पर पत्थर बांध दिया जाता है और दूसरे सिरे पर बाल्टी। पत्थर के वजन के कारण पानी खींचने में ज्यादा ताकत नहीं लगती। बिल्कुल सड़क के बैरियर या रेलवे गेट की तरह।

टेड़ा से पानी खींचने में ताकत नहीं लगती, इशारे से बाल्टी ऊपर आ जाती है। स्कूली बच्चे भी यहां नहाने आते हैं। स्त्री-पुरुष नहाते हैं, कपड़े धोते हैं, बर्तन मांजते हैं और मवेशियों को पानी पिलाते हैं। यहां से घरेलू काम के लिए लड़कियां पानी ले जाती हैं।

इस गांव में 15-20 कुएं हैं और उनके आसपास हरे-भरे पेड़ लगे हैं। कुएं से लगे पास की बाड़ी में हरी सब्जियां लगी हैं। इससे उनकी सिंचाई होती है, उसके लिए अलग से पानी देने की जरूरत नहीं पड़ती। जो पानी नहाने-धोने के उपयोग में लाया जाता है उससे ही सब्जियों को पानी मिल जाता है।

यहां के जोहन लकड़ा बताते हैं कि हम बाड़ियों में टमाटर, गोभी, भटा, मूली, मटर, आलू, हरी धनिया, मेंथी, प्याज लहसुन आदि सब्जियां उगाते हैं, खुद खाते हैं और पड़ोसियों को खिलाते हैं। अगर सब्जियां ज्यादा हो जाती हैं तो बेचते भी हैं।

यहां ग्रामीण बाड़ी में कटहल, मुनगा, नींबू और अमरूद जैसे पेड़ भी लगाते हैं। उनमें पानी कुएं से ही लाकर डालते हैं।

शादी-विवाह और तीज-त्यौहारों के समय जब मेहमानों का आना-जाना लगा रहता है तब उन्हें पानी की दिक्कत नहीं होती। वे कहते हैं कि अगर इसमें थोड़ी और मेहनत की जाए तो 3-4 एकड़ खेत में सिंचाई की जा सकती है।

यहां की खेती श्रम आधारित है। लोग खेतों में मेहनत करते हैं। बारिश के पहले एक दंपति अपने 3 किलोमीटर खेत में कांवर से कंधे पर ढोकर गोबर खाद डाल रहा था। वे खेतों में अनाज उगाने के लिए मेहनत और अच्छी तैयारी करते हैं।

छत्तीसगढ़ के परंपरागत खेती में अध्ययनरत डॉ. सुरेशा साहू कहते हैं कि यह कई मायनों में महत्वपूर्ण हैं। अगर हम पानी को जितनी जरूरत है उतना ही निकालेंगे तो पानी खत्म नहीं होगा। कई सालों तक बना रहेगा। अन्यथा पानी का संकट स्थाई हो जाएगा।

वे बताते हैं कि छत्तीसगढ़ में मरार और सोनकर समुदाय टेड़ा से अपनी सब्जियों को सींचते थे। ये समुदाय सब्जी-भाजी का ही धंधा करते थे। लेकिन 10-15 सालों में काफी बदलाव आया है। अब लोग डीजल पंप, समर्सिबल पंप और ट्यूबवेल से सिंचाई करने लगे हैं। कुएं सूख गए हैं। भूजल स्तर नीचे खिसकता जा रहा है।

वे एक उदाहरण देकर कहते हैं कि हमारे नहाने में 15-20 लीटर पानी लगता है लेकिन हम मोटर पंप से अगर नहाते हैं तो 5000 लीटर पानी बह जाता है। पानी के बेजा इस्तेमाल पर रोक लगाने के लिए श्रम आधारित तकनीक बहुत उपयोगी है।

इस गांव में 15-20 कुएं हैं और उनके आसपास हरे-भरे पेड़ लगे हैं। कुएं से लगे पास की बाड़ी में हरी सब्जियां लगी हैं। इससे उनकी सिंचाई होती है, उसके लिए अलग से पानी देने की जरूरत नहीं पड़ती। जो पानी नहाने-धोने के उपयोग में लाया जाता है उससे ही सब्जियों को पानी मिल जाता है। यहां के जोहन लकड़ा बताते हैं कि हम बाड़ियों में टमाटर, गोभी, भटा, मूली, मटर, आलू, हरी धनिया, मेंथी, प्याज लहसुन आदि सब्जियां उगाते हैं, खुद खाते हैं और पड़ोसियों को खिलाते हैं। अगर सब्जियां ज्यादा हो जाती हैं तो बेचते भी हैं।

हमने रासायनिक खेती की ऐसी राह पकड़ी है जिसमें श्रम आधारित काम की जगह सभी काम मशीनों व भारी पूंजी की लागत से होता है जबकि मानवश्रम बहुतायत में है।

साहित्यकार और शिक्षाविद् डॉ. कश्मीर उप्पल कहते हैं कि आज पूरी दुनिया में ऊर्जा का संकट है। कोयला, डीजल और पेटोल की सीमा है। इनके भंडार सीमित हैं। ग्लोबल वार्मिंग एक और समस्या है।

हमारे वन कट रहे हैं, नदी, नाले, कुएं सूख रहे हैं। हरी घास और दूब के मैदान दिखाई नहीं देते। पानी रिचार्ज नहीं होता। पुर्ननवा नहीं होता। इसलिए हमें परंपरागत जलस्त्रोत व पानी की किफायत के बारे में गंभीरता से सोचना चाहिए।

जैव विविधता पर अध्ययन करने वाले बाबूलाल दाहिया बताते हैं कि बुंदेलखंड में भी सिंचाई की यही पद्धति थी। इसे यहां ढेकली कहते थे। सब्जी-भाजी का धंधा करने वाला काछी समुदाय ढेकली से ही अपनी सब्जियों को पानी देते थे। लेकिन पानी के बेजा दोहन से कुएं सूख गए हैं। हमें ऐसी परंपरागत श्रम आधारित पद्धतियों के बारे में सोचना होगा जिससे हमारी जरूरत भी पूरी हो जाए और पर्यावरण को भी नुकसान न पहुंचे।

लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं

Submitted by Shivendra on Tue, 10/21/2014 - 13:28
Source:
Kalbei River
होशियारपुर के धनोआ गांव से निकलकर कपूरथला तक जाती है 160 किमी लंबी कालीबेई। इसेे कालीबेरी भी कहते हैं। कुछ खनिज के चलते काले रंग की होने के कारण ‘काली’ कहलाई। इसके किनारे बेरी का दरख्त लगाकर गुरुनानक साहब ने 14 साल, नौ महीने और 13 दिन साधना की। एक बार नदी में डूबे, तो दो दिन बाद दो किमी आगे निकले। मुंह से निकला पहला वाक्य था: “न कोई हिंदू, न कोई मुसलमां।’’ उन्होंने ‘जपजीसाहब’ कालीबेईं के किनारे ही रचा। उनकी बहन नानकी भी उनके साथ यहीं रही। यह 500 साल पुरानी बात है।

अकबर ने कालीबेईं के तटों को सुंदर बनाने का काम किया। व्यास नदी इसे पानी से सराबोर करती रही। एक बार व्यास ने जो अपना पाट क्या बदला; अगले 400 साल कालीबेईं पर संकट रहा।उपेक्षा व संवेदनहीनता इस कदर रही कि कपूरथला कोच फैक्टरी से लेकर तमाम उद्योगों व किनारे के पांच शहरों ने मिलकर कालीबेईं को कचराघर बना दिया।

इसी बीच कॉलेज की पढ़ाई पूरी न कर सका एक नौजवान नानक की पढ़ाई पढ़ने निकल पड़ा था: संत बलबीर सिंह सींचेवाल! संत सींचेवाल ने किसी काम के लिए कभी सरकार की प्रतीक्षा नहीं की। पहले खुद काम शुरू किया; बाद में दूसरों से सहयोग लिया। उन्होंने कारसेवा के जरिए गांवों की उपेक्षित सड़कों को दुरुस्त कर ख्याति पाई। 2003 में कालीबेईं की दुर्दशा ने संत की शक्ति को गुरू वचन पूरा करने की ओर मोड़ दिया - “पवन गुरू, पानी पिता, माता धरती मात् ।’’ कहते हैं कि कीचड़ में घुसोगे, तो मलीन ही होओगे। सींचेवाल भी कीचड़ में घुसे। लेकिन मलीन नहीं हुए। उसे ही निर्मल कर दिया। यही असली संत स्वभाव है।

संत ने खुद शुरूआत की। समाज को कारसेवा का करिश्मा समझाया। कालीबेईं से सिख इतिहास का रिश्ता बताया। प्रवासी भारतीयों ने इसे रब का काम समझा। उन्होंने धन दिया, अनुनायियों ने श्रम। सब इंतजाम हो गया। काम के घंटे तय नहीं; कोई मजदूरी तय नहीं; बस! तय था एक सपने को सच करने के लिए एक जुनून - “यह गुरू का स्थान है। इसे पवित्र होना चाहिए।’’ नदी से कचरा निकालने का सिलसिला कभी रुका नहीं। 27 गावों के कचरा नाले नदी में आ रहे थे। तालाब खोदे। नालों का मुंह उधर मोड़ा। पांच शहरों के कचरे की सफाई के लिए ट्रीटमेंट प्लांट की मांग बुलंद की।

पूरे तीन साल यह सिलसिला चला। ए.पी.जे. अब्दुल कलाम इस काम को देखने सुल्तानपुर लोदी आए। एक वैज्ञानिक राष्ट्रपति ने राष्ट्रीय टेक्नोलॉजी दिवस जैसे तकनीकी रुचि के मौके पर संत के सत्कर्म की सराहना की। प्रशासन को भी थोड़ी शर्म आई। उसने पांच करोड़ की लागत से सुल्तानपुर लोदी शहर में सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट लगाया; 10 करोड़ की लागत से कपूरथला में।

टांडा, बेगोवाल जैसे औद्योगिक नगरों में भी तैयारी शुरू कर दी गई। ‘वीड टेक्नोलॉजी’ पर आधारित तालाबों ने नतीजे देने शुरू कर दिए हैं। कालीबेईं के किनारे बसे 64 गांवों से आगे बढ़कर यह संदेश समंदर पार चला गया है। कपूरथला में कालीबेईं के किनारे संत की निर्मल कुटिया पूरी दुनिया को निर्मलता का संदेश दे रही है। क्या भारत सुनेगा?

कालीबेई नदी के निर्मल, अविरल बनने की कहानी पर आधारित अरुण तिवारी द्वारा संत श्री बलबीर सिंह सींचेवाल का लिया गया साक्षात्कार।

“नदियों से रिश्ता बनाओ, वाहे गुरु फतेह करेगा’’
मीडिया से लेकर गोष्ठियों तक में सब कहते हैं कि धरती का पानी उतर रहा है; 70 प्रतिशत भूजल भंडार खाली हो चुके हैं; लोग पानी ज्यादा खींच रहे हैं; कई जगह सूखा है, कई जगह बाढ़; क्या करें?

अरे भई करना क्या है? पानी कम खींचो। आसमान से बरसा पानी तालाबों में रोको। बाढ़ का पानी भूजल रिचार्ज के काम में कैसे आए? सोचो!

शोधित सीवेज के पानी के खेती में उपयोग से भूजल की बचत
......और गंदे पानी को क्यों भूल जाते हो? हर शहर से गंदे पानी की एक नदी निकलती है। उस गंदे पानी को साफ करके, खेती में दे दो। पंजाब में ट्यूबवेल के फ्री कनेक्शन दे रखे हैं। मैं कहता हूं कि गंदे पानी को खेती योग्य बनाकर तो देखो। इस गंदे पानी की नदी में 3000 मोटर लगाकर हम उतना पानी बचा सकते हैं, जितना भूजल 20,000 मोटरें धरती से खींचती हैं।

शोधन पश्चात् भी नदी में नहीं डालने का नियम जरूरी
नियम बना लो कि शोधन के पश्चात भी नदी में नहीं डालना है। हमने पंजाब में यह करके दिखाया है। एक मोटर और आधा किलोमीटर की पाइप लगाकर शोधित सीवेज को खेत तक पहुंचाया है।

लुधियाना, जालंधर, होशियारपुर और कपूरथला के 50 गांवों ने यही किया है। आपको कभी आकर देखना चाहिए।

सुल्तानपुर लोदी का अनुभव
सुल्तानपुर लोदी के आठ किलोमीटर के दायरे में गांवों को खेत में यही गंदा पानी साफ करके खेती में पहुंचा रहे हैं। पानी पहुंचाने में कोई मोटर का प्रयोग नहीं हो रहा। पानी का रास्ता ऐसा ढालू बनाया है कि गुरुत्वाकर्षण के दम पर वह खुद-ब-खुद आगे बढ़ जाता है। लोग आनंदित हैं। उपयोग कर रहे हैं। इससे भूजल खींचने का काम कम हुआ है। इस तरह हुई पानी की बचत से एरिया के ग्राउंड वाटर बैंक में हमारा अकाउंट बैलेंस बढ़ रहा है। पानी का टीडीएस नीचे आ गया है।

यह साधारण सा काम है। समझें, तो बात भी साधारण सी है। खेती में उपज सबसे ज्यादा इस बात पर निर्भर करती है कि पानी कैसा है, किस तरीके से, कब-कब फसल को दे पाए हैं। शहर में गंदा पानी हमेशा निकलता रहता है। अतः खेती को हमेशा पानी दिया जा सकता है। इस गणित को समझने के कारण आज हमारे सुलतानपुर लोदी में खेती में लागत घटी है और मुनाफा बढ़ा है। सबसे बड़ी बात कि इससे भूजल भी बच रहा है, कालीबेई को साफ रखने में हमे मदद मिल रही है।

यह हर शहर में हो सकता है।
समझने की जरूरत है कि नदियां धरती की नसें हैं और भूगर्भ उसकी मासंपेशियों की तरह है। गंदा पानी यदि नदी में डाला, तो यह सीधे नसों में इंजेक्शन देना हो जाएगा। यह तेजी से नुकसान करेगा। यदि प्रदूषण धीरे-धीरे भूगर्भ में बैठता है, तो कई परत से गुजरते हुए स्वतः अलग होता चला जाता है। यह मांसपेशी में इजेक्शन लगाना होगा। इसका असर धीमे-धीमे होगा। शहर के गंदे पानी को शोधन के पश्चात् खेत की तरफ मोड़कर हम दोनों खतरों से काफी कुछ बच सकते हैं। यह हर शहर में हो सकता है।

पर्यावरण कानून-1974 लागू कराओ
अभी लोग प्लान बनाते हैं कि नदी गंदी हो गई हैं; क्या करें? इसके लिए जाने कितनी मीटिंग होती हैं, अध्ययन होते हैं। सुना है कि गंगा जी-जमना जी में कई हजार करोड़ खर्च हो चुके हैं। मीटिंगों में लोग मांग करते हैं कि नया कानून बनाओ। मैं कहता हूं कि भाई, अभी तो जो कानून है, पहले उसे तो लागू करा लोे। 1974 के एक्ट के हिसाब से नदी में कचरा डालने की मनाही है। जैसे अपराधी को पकड़कर जेल में डालते हैं, प्रदूषण करने वाले के साथ भी यही करो।लोग हाउस टैक्स देते हैं। म्युनिसपलिटी वालों से क्यों नहीं पूछते कि नदी में कचरा क्यों डाल रहे हो?

मैं पंजाब प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का मेम्बर हूं। मैंने कहा कि जो नगरपालिका नहीं मानती, उसे नोटिस भेजो। नहीं माने तो कोर्ट में ले जाओ; एनजीटी (राष्ट्रीय हरित अधिकरण) में ले जाओ। इसका असर हुआ।

दिशा देने वाला सिस्टम खुद दिशाहीन
दुख की बात है कि जिस सिस्टम का काम दिशा देना है, वह खुद दिशाहीन है। जिस सिस्टम को सुनिश्चित करना है कि सीवेज नदी में न जाए, वे उद्घाटन करके सो जाता है। नदी में कचरा डलता है, लुधियाना में तो वे सैंपल लेते हैं, भटिंडा में। कालीबेई नदी में हमने कोई अजूबा नहीं दिया। हमने सिर्फ मिस-मैनेजमेंट ठीक किया है। हमने लोगों को 100 प्रतिशत विकल्प दिया। लोगों को लाभ दिखा। उन्होंने अपना लिया।

लोग नदी पर जाकर खुद खड़े हों।
कानून नदी के पक्ष में है। सरकार जब करेगी, तब करेगी। लोगों को चाहिए कि हिम्मत करें। लोग प्रदूषकों से क्यों नहीं पूछते कि यह क्या कर रहे हो? लोग चुप क्यों रहते हैं? लोग नदी पर जाकर खुद खड़े हों। जहां-जहां लोग जाग जाएंगे, कई कालीबेई फिर से निर्मल हो उठेंगी। लोगों के खड़े होने से होता है। लोग खड़े हों।

पानी की बोतल मंगल ग्रह से नहीं आएगी।
लोगों को सोचना होगा कि पीने के पानी की बोतल कोई मंगल ग्रह से नहीं आने वाली। हम अमृतजल वेस्ट कर रहे हैं। पंजाब में कैंसर बेल्ट.. कैंसर ट्रेन जैसे शब्द सुनता हूं, तो तकलीफ होती है। जिस पानी का काम पानी जीवन देना है, हम उससे मौत ले रहे हैं। यह क्यों हुआ? क्योंकि हम रिश्ता भूल गए - “पवन गुरू, पानी पिता और धरती अपनी मात्।’’ हमने यह रिश्ता याद रखा होता, तो हम जिस नदी में स्नान करते हैं, उसमें पेशाब नहीं करते।

नदी से रिश्ता बनाओ; वाहे गुरु फतेह करेगा।
कहावत है - “जैसा पाणी, वैसा प्राणी।’’ अब लोगों को तय करना चाहिए कि वे कैसा प्राणी बने रहना चाहते हैं। मेरी तो यही प्रार्थना है कि रब के सच्चे बंदों! अपने लिए न सही, अगली पीढ़ी के लिए सही, कुछ करो। जिस पीढ़ी की पढ़ाई, दवाई और परवरिश पर इतना पैसा और समय खर्च करते हो, उसकी खातिर घरों से बाहर निकलो; नदी से रिश्ता बनाओ। वाहे गुरु फतेह करेगा।

नसीहत : किसी भी काम से लोगों को जोड़ने के लिए लोगों को उससे उनका रिश्ता समझाना पड़ता है। आस्था, इतिहास और नियमित संसर्ग इसमें बड़ी भूमिका अदा कर सकते हैं। अच्छी नीयत व निस्वार्थ भाव से काम शुरू कीजिए। संसाधन खुद-ब-खुद जुट जाएंगे। शासन-प्रशासन भी एक दिन साथ आ ही जाएंगे।

Submitted by Shivendra on Mon, 10/20/2014 - 10:51
Source:
पर्यावरण विमर्श, 2012
Motia Talab
जल मानव सहित सभी जीवधारियों के लिए प्रकृति का एक अनुपम उपहार है, जिसका कोई विकल्प नहीं है। जीवधारियों एवं वनस्पतियों को जीवित रखने तथा उनका विकास करने में जल की भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। एक तरह से कहा जाए तो जल ही जीवन है। उपग्रहों द्वारा लिए गए नीले-हरे छायाचित्रों से ज्ञात हुआ है कि पृथ्वी पर जल की पर्याप्त मात्रा है।

अनुमान है कि पृथ्वी पर 1.4 बिलियन घन मीटर जल उपलब्ध है, लेकिन इस जलराशि का केवल तीन प्रतिशत जल ही मानव-जाति की मूल आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु आवश्यक है। वास्तव में पृथ्वी पर पाए जाने वाले ताजे जल का तीन – चौथाई भाग आर्कटिक और अंटार्कटिक क्षेत्रों की हिमानियों में निक्षेपित है। विश्व में कुल ताजे जल संसाधन के केवल 0.36 प्रतिशत तक ही मानव की पहुंच है।

पृथ्वी पर जल हमें तीन रूपों में प्राप्य है- ठोस (हिम), द्रव (जल) एवं गैस (वाष्प)। ग्लोब के समस्त जल का 97.3 प्रतिशत महासागरों में निहित है, जो खारा है। अनुमान है कि सभी सागरों और महासागरों में 1370.323 x 10 पर घात 6 घन मीटर जल अवस्थित है तथा समुद्रों की औसत गहराई 3795 मीटर है। इन महासागरों में प्रशांत महासागर सबसे गहरा और बड़ा है।

मनुष्य जल का कई तरह से उपयोग करता है। इनमें से कुछ प्रमुख उपयोग हम इस तरह करते हैं। घरेलू कार्यों में जल का उपयोग ‘प्राथमिक उपयोग’ कहलाता है। यह पीने, खाना पकाने, नहाने व घरों की सफाई करने में प्रयुक्त होता है। मात्र जीवित रहने के लिए प्रतिदिन प्रति व्यक्ति को 2-3 लीटर जल पर्याप्त है। अमेरिकी अनुसंधानकर्ताओं ने अनुमान लगाया है कि विश्व में 250 मिलियन व्यक्ति जल की निम्न गुणवत्ता या अपर्याप्त जलापूर्ति के कारण बीमारियों से ग्रस्त रहते हैं। अफ्रीका व एशिया में प्रति वर्ष लगभग 25 हजार व्यक्ति ट्रेकोमा, मियादी बुखार, हैजा आंतों की विभिन्न बीमारियों से मौत के शिकार होते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा एकत्रित आंकड़ों से पता चलता है कि इनमें लगभग 80 प्रतिशत मौतें दूषित जल के कारण ही होती हैं।

औद्योगिक क्रियाकलापों में जल का प्रयोग उसका ‘गौण उपयोग’ कहलाता है। वैसे भी कल-कारखानों के संचालन में जल की विशेष भूमिका होती है। भाप से चलने वाली मशीनों में वाष्प निर्माण के लिए, रासायनिक विलयनों को तैयार करने में, वस्त्रों की रंगाई, छपाई व धुलाई करने में, एयरकंडीशनिंग व कूलिंग करने में जल का औद्योगिक उपयोग होता है। आइसक्रीम व बर्फ के निर्माण में तथा शीतल पेय पदार्थों में भी कच्चे माल के रूप में जल का उपयोग किया जाता है।

लोहा, इस्पात उद्योग में धातु को ठंडा करने, कोयला उद्योग में कोयले की धुलाई तथा चमड़ा उद्योग में खाल को धोने, रंगने एवं रासायनिक उद्योगों में क्षारों और अम्लों के निर्माण में जल का औद्योगिक उपयोग अधिक महत्वपूर्ण है। शुद्ध जल की उपलब्धता उद्योगों के स्थायीकरण पर भी प्रभाव डालती है। इसी कारण ऊनी व सूती वस्त्र उद्योग, कागज-लुगदी, चमड़ा, शराब, रसायन और औषध निर्माण उद्योग मीठे जलस्रोतों के निकट ही स्थापित किए जाते हैं।

जल का अधिकतम प्रयोग 80 प्रतिशत तक कृषि क्षेत्र में सिंचाई के रूप में होता है। जहां पर्याप्त वर्षा नहीं होती, वहां सिंचाई के लिए जल की अधिक आवश्यकता पड़ती है। नगरों में जलापूर्ति का 85 प्रतिशत भाग उद्योगों द्वारा उपयोग में लाया जाता है। एक ओर कारखानों के संचालन में जहां जल का प्रयोग किया जाता है, वहीं दूसरी ओर औद्योगिक अपशिष्टों को बहाने तथा सीवर प्रणाली को चालू रखने में जल का भारी उपयोग होता है। यही कारण है कि सीवर में जल का बढ़ता उपयोग जल प्रदूषण का एक बड़ा स्रोत बन गया है। परिणामतः औद्योगिक नगरों के छोरों पर बहने वाली नदियां, नदी कम गंदा नाला अधिक लगती हैं।

आज जल के भारी दुरुपयोग से जल की गुणवत्ता में काफी गिरावट आई है। यद्यपि जल में स्वयं शुद्धिकरण की क्षमता होती है, परंतु जब मानवजनित स्रोतों से उत्पन्न प्रदूषकों का जल में स्वयं शुद्धि की क्षमता से अधिक जमाव हो जाता है तो वह जल प्रदूषित हो जाता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने जल के प्रदूषण को परिभाषित करते हुए एक स्थान पर स्पष्ट लिखा है, ‘प्राकृतिक या अन्य स्रोतों से उत्पन्न अवांछित बाह्य पदार्थों के कारण जल दूषित हो जाता है तथा उसकी विषाक्तता व सामान्य स्तर से कम ऑक्सीजन के कारण जीवों के लिए घातक एवं संक्रामक रोग फैलाने में सहायक होता है।’

आज समस्त जल राशि चाहे वह सतही हो या भूमिगत किसी-न-किसी रूप में प्रदूषणयुक्त है। इस प्रकार प्रदूषित जल का प्रभाव समस्त भौतिक व मानवीय पर्यावरण पर पड़ रहा है, जिसके प्रभाव घोर नुकसानदायक हैं। जल प्रदूषण से सर्वाधिक आहत मनुष्य एवं सूक्ष्मजीव होते हैं। प्रदूषित जल का सेवन करने से हैजा, तपेदिक, पीलिया, अतिसार, मियादी बुखार, टायफाइड, पेचिश, आंत्रशोध, मलेरिया, फाईलेरिया, पोलियो, इंसेफेलाइटिस, डेंगू जैसे घातक रोग न केवल पनपते हैं, बल्कि मृत्यु का कारण भी बनते हैं। ऐस्बेस्ट्स के रेशों से युक्त जल के प्रयोग से फेफड़ों का कैंसर तथा पेट के अनेक रोग उत्पन्न होते हैं। विश्व में जल के दुरुपयोग की स्थिति बड़ी ही भयावह है। परिणामस्वरूप जल के स्रोत अनेक कार्यों के लिए अनुपयुक्त हो गए हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका की ईरी झील में प्रतिवर्ष हजारों टन प्रदूषक तत्व विसर्जित किए जाते हैं। इसमें फास्फेट के प्रवेश से झील में पनपी लाईकेन की वृद्धि रुक गई है और अनेक मूल्यवान मछलियों की जाति ही नष्ट हो गई है। कनाडा में तीव्र जन-विरोध एवं वैधानिक नियम-कानूनों के उपरांत भी औद्योगिक इकाइयां नदियों में विषाक्त औद्योगिक अपशिष्टों का विसर्जन करती हैं। ओंटारियो और क्यूबिक प्रांतों की नदियों व खाड़ियों के अध्ययन से ज्ञात हुआ है कि इन जलीय स्रोतों में मिलने वाली मछलियों के खाने से अनेक घातक बीमारियां उत्पन्न हुई हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका के लगभग 2.5 करोड़ व्यक्ति जो जल पीते हैं, उसकी आधिकारिक मानकों के अनुसार गुणवत्ता ठीक नहीं है।

लॉस ऐंजिल्स नगर में जो पेयजल की आपूर्ति की जाती है, उसमें पेट्रोलियम की गंध आती है। जापान के तट पर पारायुक्त मछलियों का सेवन करने से मिनामाता रोग उत्पन्न हो गया। यहीं एक ऐसा उदाहरण भी देखने में आया कि सन् 1940 के दशक में संयुक्त राज्य अमेरिका की नियाग्रा काउंटी में दो रासायनिक इकाइयों ने लव नहर में औद्योगिक अपशिष्टों को विसर्जित करना प्रारंभ किया तो इससे इस नहर का जल इतना अधिक जहरीला हो गया कि सन् 1978 में न्यूयार्क राज्य के अधिकारियों द्वारा इस नहर क्षेत्र को ‘आपदा क्षेत्र’ घोषित करना पड़ा।

पश्चिमी यूरोप में राईन नदी, जिसका शाब्दिक अर्थ शुद्ध नदी है, आज सबसे अधिक प्रदूषित है, यह एक गंदे नाले की तरह प्रवाहित होती है। रूर बेसिन में, राईन वेर रूर नदियों के जल में नहाने व मात्र तैराकी करने से अनेक मौतें हुई हैं। हमारे देश में गंगा जैसी अनेक पवित्र नदियों में आज जिस तरह से गंदे नालों को मिलाकर उन्हें अपवित्र किया जा रहा है, उससे न केवल पीने के पानी का संकट गहराता जा रहा है बल्कि उस प्रदूषित जल से उपजे अनेक संकट आज हमारे सामने मुंह बाए खड़े हैं। सामाजिक और सरकारी स्तर पर यूं तो इन नदियों की सफाई के अनेक प्रायस हो रहे हैं, पर इसके परिणाम संतोषजनक नहीं है। आज देश की सभी नदियों के जल को शुद्ध और पेययुक्त बनाए रखने के लिए न केवल कठोर नियमों को बनाने, बल्कि उनके सख्ती से परिपालन की महती आवश्यकता है।

आज समस्त जल राशि चाहे वह सतही हो या भूमिगत किसी-न-किसी रूप में प्रदूषणयुक्त है। इस प्रकार प्रदूषित जल का प्रभाव समस्त भौतिक व मानवीय पर्यावरण पर पड़ रहा है, जिसके प्रभाव घोर नुकसानदायक हैं। जल प्रदूषण से सर्वाधिक आहत मनुष्य एवं सूक्ष्मजीव होते हैं। प्रदूषित जल का सेवन करने से हैजा, तपेदिक, पीलिया, अतिसार, मियादी बुखार, टायफाइड, पेचिश, आंत्रशोध, मलेरिया, फाईलेरिया, पोलियो, इंसेफेलाइटिस, डेंगू जैसे घातक रोग न केवल पनपते हैं, बल्कि मृत्यु का कारण भी बनते हैं। ऐस्बेस्ट्स के रेशों से युक्त जल के प्रयोग से फेफड़ों का कैंसर तथा पेट के अनेक रोग उत्पन्न होते हैं।

प्रदूषित जल से सिंचाई करने पर मिट्टी भी प्रदूषित हो जाती है, जिससे उसकी उर्वरता भी कम हो जाती है। क्षार व अम्लयुक्त जल से सिंचाई करने पर सूक्ष्म जीवाणु मर जाते हैं तथा मिट्टी में क्षारीयता बढ़ जाती है। नदियों, झीलों व तालाबों में जैविक व अजैविक पोषक तत्वों के सांद्रण में वृद्धि होने से पौधों की संख्या में नियंत्रण सीमा से अधिक वृद्धि हो जाती है। जल में विषाक्त रसायनों में धात्विक पदार्थों के सांद्रण में वृद्धि होने से पौधे एवं जीव-जंतु नष्ट हो जाते हैं। तेल के रिसाव तथा औद्योगिक अपशिष्टों के विसजर्न के कारण जलीय-जीव मर जाते हैं।

अक्टूबर-नवंबर, 1996 में दिल्ली में फैलने वाले डेंगू बुखार का प्रमुख कारण विशिष्ट प्रकार के मच्छरों का गंदे जल में पनपना ही था। इस प्रकार के बुखार से न केवल दिल्ली में 200 से अधिक मौतें हुई, बल्कि कई हजार रोगी अस्पताल में भर्ती किए गए। रेडियोधर्मी पदार्थों के जल में मिलने के कारण मनुष्य को ल्यूकनिया तथा कैंसर जैसे भयंकर रोगों से ग्रस्त देखा गया है। ऐसी भयावह परिस्थितियों में जल प्रदूषण की रोकथाम के लिए हर स्तर पर हर संभव प्रयास किए जाने आवश्यक हैं।

जल को प्रदूषित होने से बचाना हमारा प्राथमिक ध्येय होना चाहिए, क्योंकि जल स्वयं में अति महत्वपूर्ण तो है ही, इसके अभाव में मनुष्य और वनस्पति जगत् का जीवन भी सुरक्षित नहीं है। अतः बिना किसी प्रतीक्षा के हमें जल को प्रदूषित होने से न केवल बचाना होगा, बल्कि विश्वस्तर पर हमें ऐसे प्रयास करने होंगे जिनसे सभी को लाभ हो सके। जल प्रदूषण की रोकथाम के लिए निम्न उपाय आवश्यक तौर पर किए जा सकते हैं।

1. वाहित मल को स्वच्छ जल में विसर्जित करने से पूर्व उसे उपचारित किया जाना चाहिए। इस कार्य के लिए कैथोड रेट्यू तथा गंदगी का अवशोषण करने वाले उपकरणों का प्रयोग किया जाना चाहिए।
2. उद्योगों के रसायन एवं गंदे अवशिष्टयुक्त जल को नदियों, सागरों, नहरों, झीलो आदि में सीधा न डाला जाए। साथ ही उद्योगों के ऐसे संयंत्र लगाने को कहा जाए, जिनसे वह गंदे जल को स्वच्छ करके ही बाहर निकाले।
3. सड़े-गले पदार्थ व कूड़ा-करकट को स्वच्छ जल के भंडार में विसर्जित नहीं किया जाना चाहिए।
4. शव को जलाने के लिए विद्युत शवदाह गृहों का निर्माण किया जाना चाहिए।
5. औद्योगिक अपशिष्टों के उपचार की व्यवस्था की जानी चाहिए। ऐसा न करने वाली औद्योगिक इकाइयों द्वारा वैधानिक नियमों का कड़ाई से पालन करवाने की योजना होनी चाहिए।
6. समुद्रों में परमाणु विस्फोट को प्रतिबंधित किया जाना चाहिए।
7. स्वच्छ जल के दुरुपयोग पर प्रतिबंध लगाना चाहिए। जल-प्रदूषण रोकने के लिए सामान्य जनता में जागरुकता और चेतना पैदा की जानी चाहिए। इसमें सभी प्रकार के प्रचार माध्यमों द्वारा जल-संरक्षण के उपायों का व्यापक प्रचार-प्रसार किया जाना चाहिए।
8. जल में ऐसे जीव और वनस्पतियां विकसित की जाएं, जो जल को स्वच्छ रखने में सहायक हों।
9. प्रदूषित जल में विषाक्त रसायनों के निष्कर्षण की तकनीक पर बल दिया जाना चाहिए।
10. नदियों के जल ग्रहण क्षेत्रों में वृक्षारोपण को प्रोत्साहित करके जल प्रदूषण के प्रभाव को कम किया जा सकता है।
11. विभिन्न स्रोतों से प्राप्त जल की शुद्धता की रासायनिक जांच समय-समय पर कराते रहना चाहिए।
12. मल विसर्जन से उत्पन्न होने वाले प्रदूषण को रोकने के लिए ‘सुलभ इंटरनेशनल जैसी स्वयंसेवी संस्थाओं का सहयोग लेना चाहिए। सुलभ शौचालयों का निर्माण करने से निश्चित ही जल-प्रदूषण की मात्रा में कमी लाई जा सकती है।

जल-प्रदूषण की रोकथाम के लिए जल अधिनियम बनाया गया है, जिसके अंतर्गत जल प्रदूषित करने वालों के लिए दंड का प्रावधान है। केंद्र एवं राज्य स्तर पर जल-प्रदूषण के नियंत्रण और उसके बचाव के लिए एक प्रशासनिक तंत्र की स्थापना की गई है, जिसे जल प्रदूषण बोर्ड कहते हैं। यह अधिनियम इस दृष्टि से बहुत विस्तृत है कि इसमें सरिताएं, जल प्रवाह-मार्ग, अंतर्देशीय जल, अंतर्भूमिक जल, समुद्र, ज्वारीय जल को राज्य के अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत मान्यता देता है।

राज्य एवं केंद्रीय बोर्ड में व्यापक प्रतिनिधित्व होता है और उन्हें परामर्श देने के पूरे-पूरे अधिकार दिए गए हैं तथा जल-प्रदूषण के निवारण एवं नियंत्रण अथवा उसमें कमी के लिए तकनीकी सहायता को समन्वित करके प्रदान करने के लिए अधिकृत किया गया है। जल अधिनियम विषैले, हानिकारक अथवा प्रदूषित करने वाले पदार्थों को नदियों एवं कुओं में फेंके जाने को निषिद्ध करता है और प्रत्येक वह कार्य जो नदी के जल के उचित प्रवाह में बाधित होता है, रोकता है। यह अधिनियम यह प्रतिबंध भी लगाता है कि मल, जल या औद्योगिक प्रवाह को नदियों या कुओं में गिराने के लिए पूर्व अनुमति की आवश्यकता होगी। बोर्ड को प्रदूषणकर्ताओं को ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न करने पर दंडित करने का अधिकार प्राप्त है।

भारत के संविधान के अनुसार पर्यावरण प्रदूषण के संबंध में जनसाधारण के भी कुछ कर्तव्य और अधिकार निहित किए गए हैं। उसे अनुसार, यदि किसी अवस्था में उद्योग से प्रदूषण हो रहा है, ऐसी स्थिति में प्रभावित व्यक्ति या समुदाय को यह अधिकार दिया गया है कि वह इसकी सूचना संबंधित बोर्ड को दे। यदि दो माह के भीतर उचित कार्यवाही नहीं होती है तो प्रभावित व्यक्ति या समुदाय प्रदूषणकारी पर मुकदमा दायर कर सकता है। जनसाधारण को चाहिए पर्यावरण संबंधी विभिन्न नियमावली के बारे में जानकारी रखे।

भारत के संविधान के अनुच्छेद 48 ‘क’ में स्पष्ट किया गाया है कि राज्य देश के पर्यावरण संरक्षण, संवर्धन के साथ वन एवं वन्य-जीवों की रक्षा करेगा। इसी प्रकार संविधान के अनुच्चेद 51 क (छ) में यह स्पष्ट किया गया है कि इस देश के प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य होगा कि वह प्राकृतिक पर्यावरण, जिसमें नदी, झील, वन एवं वन्य-जीव भी सम्मिलित हैं, की रक्षा करेगा और इसके संवर्धन के साथ प्राणीमात्र के लिए दया-भाव रखेगा।

इसी सबको दृष्टिगत रखते हुए तथा जल के महत्व और इसकी उपयोगिता के कारण भारतीय संस्कृति में जल को देवता का स्वरूप माना गया है। तो आइए, सृष्टि की इस अनमोल धरोहर के संरक्षण के लिए न केवल हम एक सच्चे भारतीय होने का अपना कर्तव्य निभाएं, बल्कि प्रकृति के इस तोहफे की पवित्रता को बनाए रखने में अपना महत्वपूर्ण योगदान देकर स्वयं को ही कृतार्थ करें।

प्रवक्ता, केशव मारवाड़, गर्ल्स डिग्री कॉलेज, पिलखुबा, हापुड़, गाजियाबाद (उ.प्र.)

प्रयास

Submitted by Editorial Team on Thu, 12/08/2022 - 13:06
सीतापुर का नैमिषारण्य तीर्थ क्षेत्र, फोटो साभार - उप्र सरकार
श्री नैभिषारण्य धाम तीर्थ परिषद के गठन को प्रदेश मंत्रिमएडल ने स्वीकृति प्रदान की, जिसके अध्यक्ष स्वयं मुख्यमंत्री होंगे। इसके अंतर्गत नैमिषारण्य की होली के अवसर पर चौरासी कोसी 5 दिवसीय परिक्रमा पथ और उस पर स्थापित सम्पूर्ण देश की संह्कृति एवं एकात्मता के वह सभी तीर्थ एवं उनके स्थल केंद्रित हैं। इस सम्पूर्ण नैमिशारण्य क्षेत्र में लोक भारती पिछले 10 वर्ष से कार्य कर रही है। नैमिषाराण्य क्षेत्र के भूगर्भ जल स्रोतो का अध्ययन एवं उनके पुनर्नीवन पर लगातार कार्य चल रहा है। वर्षा नल सरक्षण एवं संम्भरण हेतु तालाबें के पुनर्नीवन अनियान के जवर्गत 119 तालाबों का पृनरुद्धार लोक भारती के प्रयासों से सम्पन्न हुआ है।

नोटिस बोर्ड

Submitted by Shivendra on Tue, 09/06/2022 - 14:16
Source:
चरखा फीचर
'संजॉय घोष मीडिया अवार्ड्स – 2022
कार्य अनुभव के विवरण के साथ संक्षिप्त पाठ्यक्रम जीवन लगभग 800-1000 शब्दों का एक प्रस्ताव, जिसमें उस विशेष विषयगत क्षेत्र को रेखांकित किया गया हो, जिसमें आवेदक काम करना चाहता है. प्रस्ताव में अध्ययन की विशिष्ट भौगोलिक स्थिति, कार्यप्रणाली, चयनित विषय की प्रासंगिकता के साथ-साथ इन लेखों से अपेक्षित प्रभाव के बारे में विवरण शामिल होनी चाहिए. साथ ही, इस बात का उल्लेख होनी चाहिए कि देश के विकास से जुड़ी बहस में इसके योगदान किस प्रकार हो सकता है? कृपया आलेख प्रस्तुत करने वाली भाषा भी निर्दिष्ट करें। लेख अंग्रेजी, हिंदी या उर्दू में ही स्वीकार किए जाएंगे
Submitted by Shivendra on Tue, 08/23/2022 - 17:19
Source:
यूसर्क
जल विज्ञान प्रशिक्षण कार्यशाला
उत्तराखंड विज्ञान शिक्षा एवं अनुसंधान केंद्र द्वारा आज दिनांक 23.08.22 को तीन दिवसीय जल विज्ञान प्रशिक्षण प्रारंभ किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए यूसर्क की निदेशक प्रो.(डॉ.) अनीता रावत ने अपने संबोधन में कहा कि यूसर्क द्वारा जल के महत्व को देखते हुए विगत वर्ष 2021 को संयुक्त राष्ट्र की विश्व पर्यावरण दिवस की थीम "ईको सिस्टम रेस्टोरेशन" के अंर्तगत आयोजित कार्यक्रम के निष्कर्षों के क्रम में जल विज्ञान विषयक लेक्चर सीरीज एवं जल विज्ञान प्रशिक्षण कार्यक्रमों को प्रारंभ किया गया
Submitted by Shivendra on Mon, 07/25/2022 - 15:34
Source:
यूसर्क
जल शिक्षा व्याख्यान श्रृंखला
इस दौरान राष्ट्रीय पर्यावरण  इंजीनियरिंग अनुसंधान संस्था के वरिष्ठ वैज्ञानिक और अपशिष्ट जल विभाग विभाग के प्रमुख डॉक्टर रितेश विजय  सस्टेनेबल  वेस्ट वाटर ट्रीटमेंट फॉर लिक्विड वेस्ट मैनेजमेंट (Sustainable Wastewater Treatment for Liquid Waste Management) विषय  पर विशेषज्ञ तौर पर अपनी राय रखेंगे।

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खासम-खास

तालाब ज्ञान-संस्कृति : नींव से शिखर तक

Submitted by Editorial Team on Tue, 10/04/2022 - 16:13
Author
कृष्ण गोपाल 'व्यास’
talab-gyan-sanskriti-:-ninv-se-shikhar-tak
कूरम में पुनर्निर्मित समथमन मंदिर तालाब। फोटो - indiawaterportal
परम्परागत तालाबों पर अनुपम मिश्र की किताब ‘आज भी खरे हैं तालाब’, पहली बार, वर्ष 1993 में प्रकाशित हुई थी। इस किताब में अनुपम ने समाज से प्राप्त जानकारी के आधार पर भारत के विभिन्न भागों में बने तालाबों के बारे में व्यापक विवरण प्रस्तुत किया है। अर्थात आज भी खरे हैं तालाब में दर्ज विवरण परम्परागत तालाबों पर समाज की राय है। उनका दृष्टिबोध है। उन विवरणों में समाज की भावनायें, आस्था, मान्यतायें, रीति-रिवाज तथा परम्परागत तालाबों के निर्माण से जुड़े कर्मकाण्ड दर्ज हैं। प्रस्तुति और शैली अनुपम की है।

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सिंचाई की अनूठी टेड़ा पद्धति

Submitted by Shivendra on Tue, 10/21/2014 - 15:51
Author
बाबा मायाराम
Unique irrigation system
. पिछले दिनों मेरा छत्तीसगढ़ में जशपुर जिले के एक गांव चराईखेड़ा जाना हुआ। वह उरांव आदिवासियों का गांव है। उनकी सरल जीवनशैली और मिट्टी के हवादार घरों के अलावा मुझे जिस चीज ने सबसे ज्यादा आकर्षित किया वह है उनकी सिंचाई की टेड़ा पद्धति।

यहां कुएं उथले हैं और उनमें साल भर लबालब पानी रहता है। कुओं से पानी निकालना आसान है, इसके लिए यहां टेड़ा का इस्तेमाल किया जाता है। टेड़ा और कुछ नहीं बांस की लकड़ी है जिसके एक सिरे पर पत्थर बांध दिया जाता है और दूसरे सिरे पर बाल्टी। पत्थर के वजन के कारण पानी खींचने में ज्यादा ताकत नहीं लगती। बिल्कुल सड़क के बैरियर या रेलवे गेट की तरह।

टेड़ा से पानी खींचने में ताकत नहीं लगती, इशारे से बाल्टी ऊपर आ जाती है। स्कूली बच्चे भी यहां नहाने आते हैं। स्त्री-पुरुष नहाते हैं, कपड़े धोते हैं, बर्तन मांजते हैं और मवेशियों को पानी पिलाते हैं। यहां से घरेलू काम के लिए लड़कियां पानी ले जाती हैं।

इस गांव में 15-20 कुएं हैं और उनके आसपास हरे-भरे पेड़ लगे हैं। कुएं से लगे पास की बाड़ी में हरी सब्जियां लगी हैं। इससे उनकी सिंचाई होती है, उसके लिए अलग से पानी देने की जरूरत नहीं पड़ती। जो पानी नहाने-धोने के उपयोग में लाया जाता है उससे ही सब्जियों को पानी मिल जाता है।

यहां के जोहन लकड़ा बताते हैं कि हम बाड़ियों में टमाटर, गोभी, भटा, मूली, मटर, आलू, हरी धनिया, मेंथी, प्याज लहसुन आदि सब्जियां उगाते हैं, खुद खाते हैं और पड़ोसियों को खिलाते हैं। अगर सब्जियां ज्यादा हो जाती हैं तो बेचते भी हैं।

यहां ग्रामीण बाड़ी में कटहल, मुनगा, नींबू और अमरूद जैसे पेड़ भी लगाते हैं। उनमें पानी कुएं से ही लाकर डालते हैं।

शादी-विवाह और तीज-त्यौहारों के समय जब मेहमानों का आना-जाना लगा रहता है तब उन्हें पानी की दिक्कत नहीं होती। वे कहते हैं कि अगर इसमें थोड़ी और मेहनत की जाए तो 3-4 एकड़ खेत में सिंचाई की जा सकती है।

यहां की खेती श्रम आधारित है। लोग खेतों में मेहनत करते हैं। बारिश के पहले एक दंपति अपने 3 किलोमीटर खेत में कांवर से कंधे पर ढोकर गोबर खाद डाल रहा था। वे खेतों में अनाज उगाने के लिए मेहनत और अच्छी तैयारी करते हैं।

छत्तीसगढ़ के परंपरागत खेती में अध्ययनरत डॉ. सुरेशा साहू कहते हैं कि यह कई मायनों में महत्वपूर्ण हैं। अगर हम पानी को जितनी जरूरत है उतना ही निकालेंगे तो पानी खत्म नहीं होगा। कई सालों तक बना रहेगा। अन्यथा पानी का संकट स्थाई हो जाएगा।

वे बताते हैं कि छत्तीसगढ़ में मरार और सोनकर समुदाय टेड़ा से अपनी सब्जियों को सींचते थे। ये समुदाय सब्जी-भाजी का ही धंधा करते थे। लेकिन 10-15 सालों में काफी बदलाव आया है। अब लोग डीजल पंप, समर्सिबल पंप और ट्यूबवेल से सिंचाई करने लगे हैं। कुएं सूख गए हैं। भूजल स्तर नीचे खिसकता जा रहा है।

वे एक उदाहरण देकर कहते हैं कि हमारे नहाने में 15-20 लीटर पानी लगता है लेकिन हम मोटर पंप से अगर नहाते हैं तो 5000 लीटर पानी बह जाता है। पानी के बेजा इस्तेमाल पर रोक लगाने के लिए श्रम आधारित तकनीक बहुत उपयोगी है।

इस गांव में 15-20 कुएं हैं और उनके आसपास हरे-भरे पेड़ लगे हैं। कुएं से लगे पास की बाड़ी में हरी सब्जियां लगी हैं। इससे उनकी सिंचाई होती है, उसके लिए अलग से पानी देने की जरूरत नहीं पड़ती। जो पानी नहाने-धोने के उपयोग में लाया जाता है उससे ही सब्जियों को पानी मिल जाता है। यहां के जोहन लकड़ा बताते हैं कि हम बाड़ियों में टमाटर, गोभी, भटा, मूली, मटर, आलू, हरी धनिया, मेंथी, प्याज लहसुन आदि सब्जियां उगाते हैं, खुद खाते हैं और पड़ोसियों को खिलाते हैं। अगर सब्जियां ज्यादा हो जाती हैं तो बेचते भी हैं।

हमने रासायनिक खेती की ऐसी राह पकड़ी है जिसमें श्रम आधारित काम की जगह सभी काम मशीनों व भारी पूंजी की लागत से होता है जबकि मानवश्रम बहुतायत में है।

साहित्यकार और शिक्षाविद् डॉ. कश्मीर उप्पल कहते हैं कि आज पूरी दुनिया में ऊर्जा का संकट है। कोयला, डीजल और पेटोल की सीमा है। इनके भंडार सीमित हैं। ग्लोबल वार्मिंग एक और समस्या है।

हमारे वन कट रहे हैं, नदी, नाले, कुएं सूख रहे हैं। हरी घास और दूब के मैदान दिखाई नहीं देते। पानी रिचार्ज नहीं होता। पुर्ननवा नहीं होता। इसलिए हमें परंपरागत जलस्त्रोत व पानी की किफायत के बारे में गंभीरता से सोचना चाहिए।

जैव विविधता पर अध्ययन करने वाले बाबूलाल दाहिया बताते हैं कि बुंदेलखंड में भी सिंचाई की यही पद्धति थी। इसे यहां ढेकली कहते थे। सब्जी-भाजी का धंधा करने वाला काछी समुदाय ढेकली से ही अपनी सब्जियों को पानी देते थे। लेकिन पानी के बेजा दोहन से कुएं सूख गए हैं। हमें ऐसी परंपरागत श्रम आधारित पद्धतियों के बारे में सोचना होगा जिससे हमारी जरूरत भी पूरी हो जाए और पर्यावरण को भी नुकसान न पहुंचे।

लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं

कारसेवा का करिश्मा : निर्मल कालीबेई

Submitted by Shivendra on Tue, 10/21/2014 - 13:28
Author
अरुण तिवारी
Kalbei River
.होशियारपुर के धनोआ गांव से निकलकर कपूरथला तक जाती है 160 किमी लंबी कालीबेई। इसेे कालीबेरी भी कहते हैं। कुछ खनिज के चलते काले रंग की होने के कारण ‘काली’ कहलाई। इसके किनारे बेरी का दरख्त लगाकर गुरुनानक साहब ने 14 साल, नौ महीने और 13 दिन साधना की। एक बार नदी में डूबे, तो दो दिन बाद दो किमी आगे निकले। मुंह से निकला पहला वाक्य था: “न कोई हिंदू, न कोई मुसलमां।’’ उन्होंने ‘जपजीसाहब’ कालीबेईं के किनारे ही रचा। उनकी बहन नानकी भी उनके साथ यहीं रही। यह 500 साल पुरानी बात है।

अकबर ने कालीबेईं के तटों को सुंदर बनाने का काम किया। व्यास नदी इसे पानी से सराबोर करती रही। एक बार व्यास ने जो अपना पाट क्या बदला; अगले 400 साल कालीबेईं पर संकट रहा।उपेक्षा व संवेदनहीनता इस कदर रही कि कपूरथला कोच फैक्टरी से लेकर तमाम उद्योगों व किनारे के पांच शहरों ने मिलकर कालीबेईं को कचराघर बना दिया।

इसी बीच कॉलेज की पढ़ाई पूरी न कर सका एक नौजवान नानक की पढ़ाई पढ़ने निकल पड़ा था: संत बलबीर सिंह सींचेवाल! संत सींचेवाल ने किसी काम के लिए कभी सरकार की प्रतीक्षा नहीं की। पहले खुद काम शुरू किया; बाद में दूसरों से सहयोग लिया। उन्होंने कारसेवा के जरिए गांवों की उपेक्षित सड़कों को दुरुस्त कर ख्याति पाई। 2003 में कालीबेईं की दुर्दशा ने संत की शक्ति को गुरू वचन पूरा करने की ओर मोड़ दिया - “पवन गुरू, पानी पिता, माता धरती मात् ।’’ कहते हैं कि कीचड़ में घुसोगे, तो मलीन ही होओगे। सींचेवाल भी कीचड़ में घुसे। लेकिन मलीन नहीं हुए। उसे ही निर्मल कर दिया। यही असली संत स्वभाव है।

संत ने खुद शुरूआत की। समाज को कारसेवा का करिश्मा समझाया। कालीबेईं से सिख इतिहास का रिश्ता बताया। प्रवासी भारतीयों ने इसे रब का काम समझा। उन्होंने धन दिया, अनुनायियों ने श्रम। सब इंतजाम हो गया। काम के घंटे तय नहीं; कोई मजदूरी तय नहीं; बस! तय था एक सपने को सच करने के लिए एक जुनून - “यह गुरू का स्थान है। इसे पवित्र होना चाहिए।’’ नदी से कचरा निकालने का सिलसिला कभी रुका नहीं। 27 गावों के कचरा नाले नदी में आ रहे थे। तालाब खोदे। नालों का मुंह उधर मोड़ा। पांच शहरों के कचरे की सफाई के लिए ट्रीटमेंट प्लांट की मांग बुलंद की।

पूरे तीन साल यह सिलसिला चला। ए.पी.जे. अब्दुल कलाम इस काम को देखने सुल्तानपुर लोदी आए। एक वैज्ञानिक राष्ट्रपति ने राष्ट्रीय टेक्नोलॉजी दिवस जैसे तकनीकी रुचि के मौके पर संत के सत्कर्म की सराहना की। प्रशासन को भी थोड़ी शर्म आई। उसने पांच करोड़ की लागत से सुल्तानपुर लोदी शहर में सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट लगाया; 10 करोड़ की लागत से कपूरथला में।

टांडा, बेगोवाल जैसे औद्योगिक नगरों में भी तैयारी शुरू कर दी गई। ‘वीड टेक्नोलॉजी’ पर आधारित तालाबों ने नतीजे देने शुरू कर दिए हैं। कालीबेईं के किनारे बसे 64 गांवों से आगे बढ़कर यह संदेश समंदर पार चला गया है। कपूरथला में कालीबेईं के किनारे संत की निर्मल कुटिया पूरी दुनिया को निर्मलता का संदेश दे रही है। क्या भारत सुनेगा?

कालीबेई नदी के निर्मल, अविरल बनने की कहानी पर आधारित अरुण तिवारी द्वारा संत श्री बलबीर सिंह सींचेवाल का लिया गया साक्षात्कार।

“नदियों से रिश्ता बनाओ, वाहे गुरु फतेह करेगा’’


मीडिया से लेकर गोष्ठियों तक में सब कहते हैं कि धरती का पानी उतर रहा है; 70 प्रतिशत भूजल भंडार खाली हो चुके हैं; लोग पानी ज्यादा खींच रहे हैं; कई जगह सूखा है, कई जगह बाढ़; क्या करें?

अरे भई करना क्या है? पानी कम खींचो। आसमान से बरसा पानी तालाबों में रोको। बाढ़ का पानी भूजल रिचार्ज के काम में कैसे आए? सोचो!

शोधित सीवेज के पानी के खेती में उपयोग से भूजल की बचत
......और गंदे पानी को क्यों भूल जाते हो? हर शहर से गंदे पानी की एक नदी निकलती है। उस गंदे पानी को साफ करके, खेती में दे दो। पंजाब में ट्यूबवेल के फ्री कनेक्शन दे रखे हैं। मैं कहता हूं कि गंदे पानी को खेती योग्य बनाकर तो देखो। इस गंदे पानी की नदी में 3000 मोटर लगाकर हम उतना पानी बचा सकते हैं, जितना भूजल 20,000 मोटरें धरती से खींचती हैं।

शोधन पश्चात् भी नदी में नहीं डालने का नियम जरूरी
नियम बना लो कि शोधन के पश्चात भी नदी में नहीं डालना है। हमने पंजाब में यह करके दिखाया है। एक मोटर और आधा किलोमीटर की पाइप लगाकर शोधित सीवेज को खेत तक पहुंचाया है।

लुधियाना, जालंधर, होशियारपुर और कपूरथला के 50 गांवों ने यही किया है। आपको कभी आकर देखना चाहिए।

संत सीचेवाल के मेहनत से साफ हुई नदीसुल्तानपुर लोदी का अनुभव
सुल्तानपुर लोदी के आठ किलोमीटर के दायरे में गांवों को खेत में यही गंदा पानी साफ करके खेती में पहुंचा रहे हैं। पानी पहुंचाने में कोई मोटर का प्रयोग नहीं हो रहा। पानी का रास्ता ऐसा ढालू बनाया है कि गुरुत्वाकर्षण के दम पर वह खुद-ब-खुद आगे बढ़ जाता है। लोग आनंदित हैं। उपयोग कर रहे हैं। इससे भूजल खींचने का काम कम हुआ है। इस तरह हुई पानी की बचत से एरिया के ग्राउंड वाटर बैंक में हमारा अकाउंट बैलेंस बढ़ रहा है। पानी का टीडीएस नीचे आ गया है।

यह साधारण सा काम है। समझें, तो बात भी साधारण सी है। खेती में उपज सबसे ज्यादा इस बात पर निर्भर करती है कि पानी कैसा है, किस तरीके से, कब-कब फसल को दे पाए हैं। शहर में गंदा पानी हमेशा निकलता रहता है। अतः खेती को हमेशा पानी दिया जा सकता है। इस गणित को समझने के कारण आज हमारे सुलतानपुर लोदी में खेती में लागत घटी है और मुनाफा बढ़ा है। सबसे बड़ी बात कि इससे भूजल भी बच रहा है, कालीबेई को साफ रखने में हमे मदद मिल रही है।

यह हर शहर में हो सकता है।
समझने की जरूरत है कि नदियां धरती की नसें हैं और भूगर्भ उसकी मासंपेशियों की तरह है। गंदा पानी यदि नदी में डाला, तो यह सीधे नसों में इंजेक्शन देना हो जाएगा। यह तेजी से नुकसान करेगा। यदि प्रदूषण धीरे-धीरे भूगर्भ में बैठता है, तो कई परत से गुजरते हुए स्वतः अलग होता चला जाता है। यह मांसपेशी में इजेक्शन लगाना होगा। इसका असर धीमे-धीमे होगा। शहर के गंदे पानी को शोधन के पश्चात् खेत की तरफ मोड़कर हम दोनों खतरों से काफी कुछ बच सकते हैं। यह हर शहर में हो सकता है।

पर्यावरण कानून-1974 लागू कराओ
अभी लोग प्लान बनाते हैं कि नदी गंदी हो गई हैं; क्या करें? इसके लिए जाने कितनी मीटिंग होती हैं, अध्ययन होते हैं। सुना है कि गंगा जी-जमना जी में कई हजार करोड़ खर्च हो चुके हैं। मीटिंगों में लोग मांग करते हैं कि नया कानून बनाओ। मैं कहता हूं कि भाई, अभी तो जो कानून है, पहले उसे तो लागू करा लोे। 1974 के एक्ट के हिसाब से नदी में कचरा डालने की मनाही है। जैसे अपराधी को पकड़कर जेल में डालते हैं, प्रदूषण करने वाले के साथ भी यही करो।लोग हाउस टैक्स देते हैं। म्युनिसपलिटी वालों से क्यों नहीं पूछते कि नदी में कचरा क्यों डाल रहे हो?

मैं पंजाब प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का मेम्बर हूं। मैंने कहा कि जो नगरपालिका नहीं मानती, उसे नोटिस भेजो। नहीं माने तो कोर्ट में ले जाओ; एनजीटी (राष्ट्रीय हरित अधिकरण) में ले जाओ। इसका असर हुआ।

दिशा देने वाला सिस्टम खुद दिशाहीन
दुख की बात है कि जिस सिस्टम का काम दिशा देना है, वह खुद दिशाहीन है। जिस सिस्टम को सुनिश्चित करना है कि सीवेज नदी में न जाए, वे उद्घाटन करके सो जाता है। नदी में कचरा डलता है, लुधियाना में तो वे सैंपल लेते हैं, भटिंडा में। कालीबेई नदी में हमने कोई अजूबा नहीं दिया। हमने सिर्फ मिस-मैनेजमेंट ठीक किया है। हमने लोगों को 100 प्रतिशत विकल्प दिया। लोगों को लाभ दिखा। उन्होंने अपना लिया।

लोग नदी पर जाकर खुद खड़े हों।
कानून नदी के पक्ष में है। सरकार जब करेगी, तब करेगी। लोगों को चाहिए कि हिम्मत करें। लोग प्रदूषकों से क्यों नहीं पूछते कि यह क्या कर रहे हो? लोग चुप क्यों रहते हैं? लोग नदी पर जाकर खुद खड़े हों। जहां-जहां लोग जाग जाएंगे, कई कालीबेई फिर से निर्मल हो उठेंगी। लोगों के खड़े होने से होता है। लोग खड़े हों।

पानी की बोतल मंगल ग्रह से नहीं आएगी।
लोगों को सोचना होगा कि पीने के पानी की बोतल कोई मंगल ग्रह से नहीं आने वाली। हम अमृतजल वेस्ट कर रहे हैं। पंजाब में कैंसर बेल्ट.. कैंसर ट्रेन जैसे शब्द सुनता हूं, तो तकलीफ होती है। जिस पानी का काम पानी जीवन देना है, हम उससे मौत ले रहे हैं। यह क्यों हुआ? क्योंकि हम रिश्ता भूल गए - “पवन गुरू, पानी पिता और धरती अपनी मात्।’’ हमने यह रिश्ता याद रखा होता, तो हम जिस नदी में स्नान करते हैं, उसमें पेशाब नहीं करते।

संत सीचेवाल के मेहनत से साफ हुई नदीनदी से रिश्ता बनाओ; वाहे गुरु फतेह करेगा।
कहावत है - “जैसा पाणी, वैसा प्राणी।’’ अब लोगों को तय करना चाहिए कि वे कैसा प्राणी बने रहना चाहते हैं। मेरी तो यही प्रार्थना है कि रब के सच्चे बंदों! अपने लिए न सही, अगली पीढ़ी के लिए सही, कुछ करो। जिस पीढ़ी की पढ़ाई, दवाई और परवरिश पर इतना पैसा और समय खर्च करते हो, उसकी खातिर घरों से बाहर निकलो; नदी से रिश्ता बनाओ। वाहे गुरु फतेह करेगा।

नसीहत : किसी भी काम से लोगों को जोड़ने के लिए लोगों को उससे उनका रिश्ता समझाना पड़ता है। आस्था, इतिहास और नियमित संसर्ग इसमें बड़ी भूमिका अदा कर सकते हैं। अच्छी नीयत व निस्वार्थ भाव से काम शुरू कीजिए। संसाधन खुद-ब-खुद जुट जाएंगे। शासन-प्रशासन भी एक दिन साथ आ ही जाएंगे।

सृष्टि की अनमोल देन : जल

Submitted by Shivendra on Mon, 10/20/2014 - 10:51
Author
डॉ. प्रीति कौशिक
Source
पर्यावरण विमर्श, 2012
Motia Talab
. जल मानव सहित सभी जीवधारियों के लिए प्रकृति का एक अनुपम उपहार है, जिसका कोई विकल्प नहीं है। जीवधारियों एवं वनस्पतियों को जीवित रखने तथा उनका विकास करने में जल की भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। एक तरह से कहा जाए तो जल ही जीवन है। उपग्रहों द्वारा लिए गए नीले-हरे छायाचित्रों से ज्ञात हुआ है कि पृथ्वी पर जल की पर्याप्त मात्रा है।

अनुमान है कि पृथ्वी पर 1.4 बिलियन घन मीटर जल उपलब्ध है, लेकिन इस जलराशि का केवल तीन प्रतिशत जल ही मानव-जाति की मूल आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु आवश्यक है। वास्तव में पृथ्वी पर पाए जाने वाले ताजे जल का तीन – चौथाई भाग आर्कटिक और अंटार्कटिक क्षेत्रों की हिमानियों में निक्षेपित है। विश्व में कुल ताजे जल संसाधन के केवल 0.36 प्रतिशत तक ही मानव की पहुंच है।

पृथ्वी पर जल हमें तीन रूपों में प्राप्य है- ठोस (हिम), द्रव (जल) एवं गैस (वाष्प)। ग्लोब के समस्त जल का 97.3 प्रतिशत महासागरों में निहित है, जो खारा है। अनुमान है कि सभी सागरों और महासागरों में 1370.323 x 10 पर घात 6 घन मीटर जल अवस्थित है तथा समुद्रों की औसत गहराई 3795 मीटर है। इन महासागरों में प्रशांत महासागर सबसे गहरा और बड़ा है।

मनुष्य जल का कई तरह से उपयोग करता है। इनमें से कुछ प्रमुख उपयोग हम इस तरह करते हैं। घरेलू कार्यों में जल का उपयोग ‘प्राथमिक उपयोग’ कहलाता है। यह पीने, खाना पकाने, नहाने व घरों की सफाई करने में प्रयुक्त होता है। मात्र जीवित रहने के लिए प्रतिदिन प्रति व्यक्ति को 2-3 लीटर जल पर्याप्त है। अमेरिकी अनुसंधानकर्ताओं ने अनुमान लगाया है कि विश्व में 250 मिलियन व्यक्ति जल की निम्न गुणवत्ता या अपर्याप्त जलापूर्ति के कारण बीमारियों से ग्रस्त रहते हैं। अफ्रीका व एशिया में प्रति वर्ष लगभग 25 हजार व्यक्ति ट्रेकोमा, मियादी बुखार, हैजा आंतों की विभिन्न बीमारियों से मौत के शिकार होते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा एकत्रित आंकड़ों से पता चलता है कि इनमें लगभग 80 प्रतिशत मौतें दूषित जल के कारण ही होती हैं।

औद्योगिक क्रियाकलापों में जल का प्रयोग उसका ‘गौण उपयोग’ कहलाता है। वैसे भी कल-कारखानों के संचालन में जल की विशेष भूमिका होती है। भाप से चलने वाली मशीनों में वाष्प निर्माण के लिए, रासायनिक विलयनों को तैयार करने में, वस्त्रों की रंगाई, छपाई व धुलाई करने में, एयरकंडीशनिंग व कूलिंग करने में जल का औद्योगिक उपयोग होता है। आइसक्रीम व बर्फ के निर्माण में तथा शीतल पेय पदार्थों में भी कच्चे माल के रूप में जल का उपयोग किया जाता है।

लोहा, इस्पात उद्योग में धातु को ठंडा करने, कोयला उद्योग में कोयले की धुलाई तथा चमड़ा उद्योग में खाल को धोने, रंगने एवं रासायनिक उद्योगों में क्षारों और अम्लों के निर्माण में जल का औद्योगिक उपयोग अधिक महत्वपूर्ण है। शुद्ध जल की उपलब्धता उद्योगों के स्थायीकरण पर भी प्रभाव डालती है। इसी कारण ऊनी व सूती वस्त्र उद्योग, कागज-लुगदी, चमड़ा, शराब, रसायन और औषध निर्माण उद्योग मीठे जलस्रोतों के निकट ही स्थापित किए जाते हैं।

जल का अधिकतम प्रयोग 80 प्रतिशत तक कृषि क्षेत्र में सिंचाई के रूप में होता है। जहां पर्याप्त वर्षा नहीं होती, वहां सिंचाई के लिए जल की अधिक आवश्यकता पड़ती है। नगरों में जलापूर्ति का 85 प्रतिशत भाग उद्योगों द्वारा उपयोग में लाया जाता है। एक ओर कारखानों के संचालन में जहां जल का प्रयोग किया जाता है, वहीं दूसरी ओर औद्योगिक अपशिष्टों को बहाने तथा सीवर प्रणाली को चालू रखने में जल का भारी उपयोग होता है। यही कारण है कि सीवर में जल का बढ़ता उपयोग जल प्रदूषण का एक बड़ा स्रोत बन गया है। परिणामतः औद्योगिक नगरों के छोरों पर बहने वाली नदियां, नदी कम गंदा नाला अधिक लगती हैं।

आज जल के भारी दुरुपयोग से जल की गुणवत्ता में काफी गिरावट आई है। यद्यपि जल में स्वयं शुद्धिकरण की क्षमता होती है, परंतु जब मानवजनित स्रोतों से उत्पन्न प्रदूषकों का जल में स्वयं शुद्धि की क्षमता से अधिक जमाव हो जाता है तो वह जल प्रदूषित हो जाता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने जल के प्रदूषण को परिभाषित करते हुए एक स्थान पर स्पष्ट लिखा है, ‘प्राकृतिक या अन्य स्रोतों से उत्पन्न अवांछित बाह्य पदार्थों के कारण जल दूषित हो जाता है तथा उसकी विषाक्तता व सामान्य स्तर से कम ऑक्सीजन के कारण जीवों के लिए घातक एवं संक्रामक रोग फैलाने में सहायक होता है।’

आज समस्त जल राशि चाहे वह सतही हो या भूमिगत किसी-न-किसी रूप में प्रदूषणयुक्त है। इस प्रकार प्रदूषित जल का प्रभाव समस्त भौतिक व मानवीय पर्यावरण पर पड़ रहा है, जिसके प्रभाव घोर नुकसानदायक हैं। जल प्रदूषण से सर्वाधिक आहत मनुष्य एवं सूक्ष्मजीव होते हैं। प्रदूषित जल का सेवन करने से हैजा, तपेदिक, पीलिया, अतिसार, मियादी बुखार, टायफाइड, पेचिश, आंत्रशोध, मलेरिया, फाईलेरिया, पोलियो, इंसेफेलाइटिस, डेंगू जैसे घातक रोग न केवल पनपते हैं, बल्कि मृत्यु का कारण भी बनते हैं। ऐस्बेस्ट्स के रेशों से युक्त जल के प्रयोग से फेफड़ों का कैंसर तथा पेट के अनेक रोग उत्पन्न होते हैं। विश्व में जल के दुरुपयोग की स्थिति बड़ी ही भयावह है। परिणामस्वरूप जल के स्रोत अनेक कार्यों के लिए अनुपयुक्त हो गए हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका की ईरी झील में प्रतिवर्ष हजारों टन प्रदूषक तत्व विसर्जित किए जाते हैं। इसमें फास्फेट के प्रवेश से झील में पनपी लाईकेन की वृद्धि रुक गई है और अनेक मूल्यवान मछलियों की जाति ही नष्ट हो गई है। कनाडा में तीव्र जन-विरोध एवं वैधानिक नियम-कानूनों के उपरांत भी औद्योगिक इकाइयां नदियों में विषाक्त औद्योगिक अपशिष्टों का विसर्जन करती हैं। ओंटारियो और क्यूबिक प्रांतों की नदियों व खाड़ियों के अध्ययन से ज्ञात हुआ है कि इन जलीय स्रोतों में मिलने वाली मछलियों के खाने से अनेक घातक बीमारियां उत्पन्न हुई हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका के लगभग 2.5 करोड़ व्यक्ति जो जल पीते हैं, उसकी आधिकारिक मानकों के अनुसार गुणवत्ता ठीक नहीं है।

लॉस ऐंजिल्स नगर में जो पेयजल की आपूर्ति की जाती है, उसमें पेट्रोलियम की गंध आती है। जापान के तट पर पारायुक्त मछलियों का सेवन करने से मिनामाता रोग उत्पन्न हो गया। यहीं एक ऐसा उदाहरण भी देखने में आया कि सन् 1940 के दशक में संयुक्त राज्य अमेरिका की नियाग्रा काउंटी में दो रासायनिक इकाइयों ने लव नहर में औद्योगिक अपशिष्टों को विसर्जित करना प्रारंभ किया तो इससे इस नहर का जल इतना अधिक जहरीला हो गया कि सन् 1978 में न्यूयार्क राज्य के अधिकारियों द्वारा इस नहर क्षेत्र को ‘आपदा क्षेत्र’ घोषित करना पड़ा।

पश्चिमी यूरोप में राईन नदी, जिसका शाब्दिक अर्थ शुद्ध नदी है, आज सबसे अधिक प्रदूषित है, यह एक गंदे नाले की तरह प्रवाहित होती है। रूर बेसिन में, राईन वेर रूर नदियों के जल में नहाने व मात्र तैराकी करने से अनेक मौतें हुई हैं। हमारे देश में गंगा जैसी अनेक पवित्र नदियों में आज जिस तरह से गंदे नालों को मिलाकर उन्हें अपवित्र किया जा रहा है, उससे न केवल पीने के पानी का संकट गहराता जा रहा है बल्कि उस प्रदूषित जल से उपजे अनेक संकट आज हमारे सामने मुंह बाए खड़े हैं। सामाजिक और सरकारी स्तर पर यूं तो इन नदियों की सफाई के अनेक प्रायस हो रहे हैं, पर इसके परिणाम संतोषजनक नहीं है। आज देश की सभी नदियों के जल को शुद्ध और पेययुक्त बनाए रखने के लिए न केवल कठोर नियमों को बनाने, बल्कि उनके सख्ती से परिपालन की महती आवश्यकता है।

आज समस्त जल राशि चाहे वह सतही हो या भूमिगत किसी-न-किसी रूप में प्रदूषणयुक्त है। इस प्रकार प्रदूषित जल का प्रभाव समस्त भौतिक व मानवीय पर्यावरण पर पड़ रहा है, जिसके प्रभाव घोर नुकसानदायक हैं। जल प्रदूषण से सर्वाधिक आहत मनुष्य एवं सूक्ष्मजीव होते हैं। प्रदूषित जल का सेवन करने से हैजा, तपेदिक, पीलिया, अतिसार, मियादी बुखार, टायफाइड, पेचिश, आंत्रशोध, मलेरिया, फाईलेरिया, पोलियो, इंसेफेलाइटिस, डेंगू जैसे घातक रोग न केवल पनपते हैं, बल्कि मृत्यु का कारण भी बनते हैं। ऐस्बेस्ट्स के रेशों से युक्त जल के प्रयोग से फेफड़ों का कैंसर तथा पेट के अनेक रोग उत्पन्न होते हैं।

प्रदूषित जल से सिंचाई करने पर मिट्टी भी प्रदूषित हो जाती है, जिससे उसकी उर्वरता भी कम हो जाती है। क्षार व अम्लयुक्त जल से सिंचाई करने पर सूक्ष्म जीवाणु मर जाते हैं तथा मिट्टी में क्षारीयता बढ़ जाती है। नदियों, झीलों व तालाबों में जैविक व अजैविक पोषक तत्वों के सांद्रण में वृद्धि होने से पौधों की संख्या में नियंत्रण सीमा से अधिक वृद्धि हो जाती है। जल में विषाक्त रसायनों में धात्विक पदार्थों के सांद्रण में वृद्धि होने से पौधे एवं जीव-जंतु नष्ट हो जाते हैं। तेल के रिसाव तथा औद्योगिक अपशिष्टों के विसजर्न के कारण जलीय-जीव मर जाते हैं।

अक्टूबर-नवंबर, 1996 में दिल्ली में फैलने वाले डेंगू बुखार का प्रमुख कारण विशिष्ट प्रकार के मच्छरों का गंदे जल में पनपना ही था। इस प्रकार के बुखार से न केवल दिल्ली में 200 से अधिक मौतें हुई, बल्कि कई हजार रोगी अस्पताल में भर्ती किए गए। रेडियोधर्मी पदार्थों के जल में मिलने के कारण मनुष्य को ल्यूकनिया तथा कैंसर जैसे भयंकर रोगों से ग्रस्त देखा गया है। ऐसी भयावह परिस्थितियों में जल प्रदूषण की रोकथाम के लिए हर स्तर पर हर संभव प्रयास किए जाने आवश्यक हैं।

जल को प्रदूषित होने से बचाना हमारा प्राथमिक ध्येय होना चाहिए, क्योंकि जल स्वयं में अति महत्वपूर्ण तो है ही, इसके अभाव में मनुष्य और वनस्पति जगत् का जीवन भी सुरक्षित नहीं है। अतः बिना किसी प्रतीक्षा के हमें जल को प्रदूषित होने से न केवल बचाना होगा, बल्कि विश्वस्तर पर हमें ऐसे प्रयास करने होंगे जिनसे सभी को लाभ हो सके। जल प्रदूषण की रोकथाम के लिए निम्न उपाय आवश्यक तौर पर किए जा सकते हैं।

ईरी झील 1. वाहित मल को स्वच्छ जल में विसर्जित करने से पूर्व उसे उपचारित किया जाना चाहिए। इस कार्य के लिए कैथोड रेट्यू तथा गंदगी का अवशोषण करने वाले उपकरणों का प्रयोग किया जाना चाहिए।
2. उद्योगों के रसायन एवं गंदे अवशिष्टयुक्त जल को नदियों, सागरों, नहरों, झीलो आदि में सीधा न डाला जाए। साथ ही उद्योगों के ऐसे संयंत्र लगाने को कहा जाए, जिनसे वह गंदे जल को स्वच्छ करके ही बाहर निकाले।
3. सड़े-गले पदार्थ व कूड़ा-करकट को स्वच्छ जल के भंडार में विसर्जित नहीं किया जाना चाहिए।
4. शव को जलाने के लिए विद्युत शवदाह गृहों का निर्माण किया जाना चाहिए।
5. औद्योगिक अपशिष्टों के उपचार की व्यवस्था की जानी चाहिए। ऐसा न करने वाली औद्योगिक इकाइयों द्वारा वैधानिक नियमों का कड़ाई से पालन करवाने की योजना होनी चाहिए।
6. समुद्रों में परमाणु विस्फोट को प्रतिबंधित किया जाना चाहिए।
7. स्वच्छ जल के दुरुपयोग पर प्रतिबंध लगाना चाहिए। जल-प्रदूषण रोकने के लिए सामान्य जनता में जागरुकता और चेतना पैदा की जानी चाहिए। इसमें सभी प्रकार के प्रचार माध्यमों द्वारा जल-संरक्षण के उपायों का व्यापक प्रचार-प्रसार किया जाना चाहिए।
8. जल में ऐसे जीव और वनस्पतियां विकसित की जाएं, जो जल को स्वच्छ रखने में सहायक हों।
9. प्रदूषित जल में विषाक्त रसायनों के निष्कर्षण की तकनीक पर बल दिया जाना चाहिए।
10. नदियों के जल ग्रहण क्षेत्रों में वृक्षारोपण को प्रोत्साहित करके जल प्रदूषण के प्रभाव को कम किया जा सकता है।
11. विभिन्न स्रोतों से प्राप्त जल की शुद्धता की रासायनिक जांच समय-समय पर कराते रहना चाहिए।
12. मल विसर्जन से उत्पन्न होने वाले प्रदूषण को रोकने के लिए ‘सुलभ इंटरनेशनल जैसी स्वयंसेवी संस्थाओं का सहयोग लेना चाहिए। सुलभ शौचालयों का निर्माण करने से निश्चित ही जल-प्रदूषण की मात्रा में कमी लाई जा सकती है।

जल-प्रदूषण की रोकथाम के लिए जल अधिनियम बनाया गया है, जिसके अंतर्गत जल प्रदूषित करने वालों के लिए दंड का प्रावधान है। केंद्र एवं राज्य स्तर पर जल-प्रदूषण के नियंत्रण और उसके बचाव के लिए एक प्रशासनिक तंत्र की स्थापना की गई है, जिसे जल प्रदूषण बोर्ड कहते हैं। यह अधिनियम इस दृष्टि से बहुत विस्तृत है कि इसमें सरिताएं, जल प्रवाह-मार्ग, अंतर्देशीय जल, अंतर्भूमिक जल, समुद्र, ज्वारीय जल को राज्य के अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत मान्यता देता है।

राज्य एवं केंद्रीय बोर्ड में व्यापक प्रतिनिधित्व होता है और उन्हें परामर्श देने के पूरे-पूरे अधिकार दिए गए हैं तथा जल-प्रदूषण के निवारण एवं नियंत्रण अथवा उसमें कमी के लिए तकनीकी सहायता को समन्वित करके प्रदान करने के लिए अधिकृत किया गया है। जल अधिनियम विषैले, हानिकारक अथवा प्रदूषित करने वाले पदार्थों को नदियों एवं कुओं में फेंके जाने को निषिद्ध करता है और प्रत्येक वह कार्य जो नदी के जल के उचित प्रवाह में बाधित होता है, रोकता है। यह अधिनियम यह प्रतिबंध भी लगाता है कि मल, जल या औद्योगिक प्रवाह को नदियों या कुओं में गिराने के लिए पूर्व अनुमति की आवश्यकता होगी। बोर्ड को प्रदूषणकर्ताओं को ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न करने पर दंडित करने का अधिकार प्राप्त है।

भारत के संविधान के अनुसार पर्यावरण प्रदूषण के संबंध में जनसाधारण के भी कुछ कर्तव्य और अधिकार निहित किए गए हैं। उसे अनुसार, यदि किसी अवस्था में उद्योग से प्रदूषण हो रहा है, ऐसी स्थिति में प्रभावित व्यक्ति या समुदाय को यह अधिकार दिया गया है कि वह इसकी सूचना संबंधित बोर्ड को दे। यदि दो माह के भीतर उचित कार्यवाही नहीं होती है तो प्रभावित व्यक्ति या समुदाय प्रदूषणकारी पर मुकदमा दायर कर सकता है। जनसाधारण को चाहिए पर्यावरण संबंधी विभिन्न नियमावली के बारे में जानकारी रखे।

भारत के संविधान के अनुच्छेद 48 ‘क’ में स्पष्ट किया गाया है कि राज्य देश के पर्यावरण संरक्षण, संवर्धन के साथ वन एवं वन्य-जीवों की रक्षा करेगा। इसी प्रकार संविधान के अनुच्चेद 51 क (छ) में यह स्पष्ट किया गया है कि इस देश के प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य होगा कि वह प्राकृतिक पर्यावरण, जिसमें नदी, झील, वन एवं वन्य-जीव भी सम्मिलित हैं, की रक्षा करेगा और इसके संवर्धन के साथ प्राणीमात्र के लिए दया-भाव रखेगा।

मोतिया तालाबइसी सबको दृष्टिगत रखते हुए तथा जल के महत्व और इसकी उपयोगिता के कारण भारतीय संस्कृति में जल को देवता का स्वरूप माना गया है। तो आइए, सृष्टि की इस अनमोल धरोहर के संरक्षण के लिए न केवल हम एक सच्चे भारतीय होने का अपना कर्तव्य निभाएं, बल्कि प्रकृति के इस तोहफे की पवित्रता को बनाए रखने में अपना महत्वपूर्ण योगदान देकर स्वयं को ही कृतार्थ करें।

प्रवक्ता, केशव मारवाड़, गर्ल्स डिग्री कॉलेज, पिलखुबा, हापुड़, गाजियाबाद (उ.प्र.)

प्रयास

सीतापुर और हरदोई के 36 गांव मिलाकर हो रहा है ‘नैमिषारण्य तीर्थ विकास परिषद’ गठन  

Submitted by Editorial Team on Thu, 12/08/2022 - 13:06
sitapur-aur-hardoi-ke-36-gaon-milaakar-ho-raha-hai-'naimisharany-tirth-vikas-parishad'-gathan
Source
लोकसम्मान पत्रिका, दिसम्बर-2022
सीतापुर का नैमिषारण्य तीर्थ क्षेत्र, फोटो साभार - उप्र सरकार
श्री नैभिषारण्य धाम तीर्थ परिषद के गठन को प्रदेश मंत्रिमएडल ने स्वीकृति प्रदान की, जिसके अध्यक्ष स्वयं मुख्यमंत्री होंगे। इसके अंतर्गत नैमिषारण्य की होली के अवसर पर चौरासी कोसी 5 दिवसीय परिक्रमा पथ और उस पर स्थापित सम्पूर्ण देश की संह्कृति एवं एकात्मता के वह सभी तीर्थ एवं उनके स्थल केंद्रित हैं। इस सम्पूर्ण नैमिशारण्य क्षेत्र में लोक भारती पिछले 10 वर्ष से कार्य कर रही है। नैमिषाराण्य क्षेत्र के भूगर्भ जल स्रोतो का अध्ययन एवं उनके पुनर्नीवन पर लगातार कार्य चल रहा है। वर्षा नल सरक्षण एवं संम्भरण हेतु तालाबें के पुनर्नीवन अनियान के जवर्गत 119 तालाबों का पृनरुद्धार लोक भारती के प्रयासों से सम्पन्न हुआ है।

नोटिस बोर्ड

'संजॉय घोष मीडिया अवार्ड्स – 2022

Submitted by Shivendra on Tue, 09/06/2022 - 14:16
sanjoy-ghosh-media-awards-–-2022
Source
चरखा फीचर
'संजॉय घोष मीडिया अवार्ड्स – 2022
कार्य अनुभव के विवरण के साथ संक्षिप्त पाठ्यक्रम जीवन लगभग 800-1000 शब्दों का एक प्रस्ताव, जिसमें उस विशेष विषयगत क्षेत्र को रेखांकित किया गया हो, जिसमें आवेदक काम करना चाहता है. प्रस्ताव में अध्ययन की विशिष्ट भौगोलिक स्थिति, कार्यप्रणाली, चयनित विषय की प्रासंगिकता के साथ-साथ इन लेखों से अपेक्षित प्रभाव के बारे में विवरण शामिल होनी चाहिए. साथ ही, इस बात का उल्लेख होनी चाहिए कि देश के विकास से जुड़ी बहस में इसके योगदान किस प्रकार हो सकता है? कृपया आलेख प्रस्तुत करने वाली भाषा भी निर्दिष्ट करें। लेख अंग्रेजी, हिंदी या उर्दू में ही स्वीकार किए जाएंगे

​यूसर्क द्वारा तीन दिवसीय जल विज्ञान प्रशिक्षण प्रारंभ

Submitted by Shivendra on Tue, 08/23/2022 - 17:19
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Source
यूसर्क
जल विज्ञान प्रशिक्षण कार्यशाला
उत्तराखंड विज्ञान शिक्षा एवं अनुसंधान केंद्र द्वारा आज दिनांक 23.08.22 को तीन दिवसीय जल विज्ञान प्रशिक्षण प्रारंभ किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए यूसर्क की निदेशक प्रो.(डॉ.) अनीता रावत ने अपने संबोधन में कहा कि यूसर्क द्वारा जल के महत्व को देखते हुए विगत वर्ष 2021 को संयुक्त राष्ट्र की विश्व पर्यावरण दिवस की थीम "ईको सिस्टम रेस्टोरेशन" के अंर्तगत आयोजित कार्यक्रम के निष्कर्षों के क्रम में जल विज्ञान विषयक लेक्चर सीरीज एवं जल विज्ञान प्रशिक्षण कार्यक्रमों को प्रारंभ किया गया

28 जुलाई को यूसर्क द्वारा आयोजित जल शिक्षा व्याख्यान श्रृंखला पर भाग लेने के लिए पंजीकरण करायें

Submitted by Shivendra on Mon, 07/25/2022 - 15:34
28-july-ko-ayojit-hone-vale-jal-shiksha-vyakhyan-shrinkhala-par-bhag-lene-ke-liye-panjikaran-karayen
Source
यूसर्क
जल शिक्षा व्याख्यान श्रृंखला
इस दौरान राष्ट्रीय पर्यावरण  इंजीनियरिंग अनुसंधान संस्था के वरिष्ठ वैज्ञानिक और अपशिष्ट जल विभाग विभाग के प्रमुख डॉक्टर रितेश विजय  सस्टेनेबल  वेस्ट वाटर ट्रीटमेंट फॉर लिक्विड वेस्ट मैनेजमेंट (Sustainable Wastewater Treatment for Liquid Waste Management) विषय  पर विशेषज्ञ तौर पर अपनी राय रखेंगे।

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