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खासम-खास

Submitted by Editorial Team on Tue, 10/04/2022 - 16:13
कूरम में पुनर्निर्मित समथमन मंदिर तालाब। फोटो - indiawaterportal
परम्परागत तालाबों पर अनुपम मिश्र की किताब ‘आज भी खरे हैं तालाब’, पहली बार, वर्ष 1993 में प्रकाशित हुई थी। इस किताब में अनुपम ने समाज से प्राप्त जानकारी के आधार पर भारत के विभिन्न भागों में बने तालाबों के बारे में व्यापक विवरण प्रस्तुत किया है। अर्थात आज भी खरे हैं तालाब में दर्ज विवरण परम्परागत तालाबों पर समाज की राय है। उनका दृष्टिबोध है। उन विवरणों में समाज की भावनायें, आस्था, मान्यतायें, रीति-रिवाज तथा परम्परागत तालाबों के निर्माण से जुड़े कर्मकाण्ड दर्ज हैं। प्रस्तुति और शैली अनुपम की है।

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Submitted by Hindi on Mon, 10/20/2014 - 10:28
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इंसान नदियों के किनारे बसते ही इसलिए थे कि नदियां इंसानों के जीवन में हर तरह से सुविधा का इंतजाम करती थी। नहाने-धोने-खाने-पकाने से लेकर घर के हर काम में आने वाली पानी की जरूरत नदियां पूरी करती थी। फिर खेतों की सिंचाई से लेकर परिवहन तक में नदियां सहायक रही हैं। इसी वजह से नदियां लोगों के लिए बाद में धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व का केंद्र बनी। मगर जैसे ही इंसान ने मशीनों की मदद से धरती के अंदर से पानी निकालने का हुनर सीखा नदियां उसके लिए नकारा होने लगी।

यह कहानी अगर किसी और नदी की हो तो फर्क नहीं पड़ता, मगर जब सांस्कृतिक रूप से समृद्ध कोसी-मिथिला के इलाके के लोग नदी की तरफ पीठ करके बैठ जाएं तो सचमुच अजीब लगता है। मगर यह सच है, लगभग पिछले पचास सालों से हम कोसी वासी अपनी सबसे प्रिय नदी कोसी की तरफ पीठ करके बैठे हैं।
Submitted by Shivendra on Sun, 10/19/2014 - 12:29
Source:
Gandhak-ki-Baoli
ग्रामीण दिल्ली के कंझावला का जोंती गांव कभी मुगलों की पसंदीदा शिकारगाह था।, वहां घने जंगल थे और जंगलों में रहने वाले जानवरों के लिए बेहतरीन तालाब। इस तालाब का निर्माण मुगल बादशाह शाहजहां ने करवाया था। आज इसका जिम्मा पुरातत्व विभाग के पास है, बस जिम्मा ही रह गया है क्योंकि तालाब तो कहीं नदारद हो चुका है। कुछ समय पहले ऐतिहासिक-सांस्कृतिक संस्था इंटेक को इसके रखरखाव का जिम्मा देने की बात आई थी, लेकिन मामला कागजों से आगे बढ़ा नहीं।

ना अब वहां जंगल बचा और ना ही तालाब। उसका असर वहां के भूजल पर भी पड़ा जो अब पाताल के पार जा चुका है। रामायण में एक चौपाई है - जो जो सुरसा रूप दिखावा, ता दोगुनी कपि बदन बढ़ावा। दिल्ली, मुंबई, हैदराबाद, अहमदाबाद...... किसी भी शहर का नाम ले लो, बस शहर का नाम व भौगोलिक स्थिति बदलेगी, वहां रोजी-रोटी की आस में आए परदेशियों को सिर छिपाने की जगह देना हो या फिर सड़क, बाजार बनाने का काम; तालाबों की ही बलि दी गई और फिर अब लोग गला सूखने पर अपनी उस गलती पर पछताते दिखते हैं।

तालाबों को चौपट करने का खामियाजा समाज ने किस तरह भुगता, इसकी सबसे बेहतर बानगी राजधानी दिल्ली ही है। यहां समाज, अदालत, सरकार सभी कुछ असहाय है जमीन माफिया के सामने। अवैध कब्जों से दिल्ली के तालाब बेहाल हो चुके हैं। थोड़ा सा पानी बरसा तो सारा शहर पानी-पानी होकर ठिठक जाता है और अगले ही दिन पानी की एक-एक बूंद के लिए हरियाणा या उत्तर प्रदेश की ओर ताकने लगता है।

सब जानते हैं कि यह त्रासदी दिल्ली के नक्शे में शामिल उन तालाबों के गुमने से हुई है जो यहां के हवा-पानी का संतुलन बनाए रखते थे, मगर दिल्ली को स्वच्छ और सुंदर बनाने के दावे करने वाली सरकार इन्हें दोबारा विकसित करने के बजाय तालाबों की लिस्ट छोटी करती जा रही है। इ

तना ही नहीं, हाई कोर्ट को दिए गए जवाब में जिन तालाबों को फिर से जीवित करने लायक बताया गया था, उनमें भी सही ढंग से काम नहीं हो रहा है। हर छह महीने में स्थिति रिपोर्ट देने का आदेश भी दरकिनार कर दिया गया है। यह अनदेखी दिल्ली के पर्यावरणीय संतुलन को बिगाड़ चुकी है तभी थोड़ी सी बारिश में दिल्ली दरिया बन जाता है।

तपस नामक एनजीओ ने सन् 2000 में दिल्ली के कुल 794 तालाबों का सर्वे किया था। इसके मुताबिक, ज्यादातर तालाबों पर अवैध कब्जा हो चुका था और जो तालाब थे भी, उनकी हालत खराब थी। इस बारे में एनजीओ ने दिल्ली हाईकोर्ट में जनहित याचिका दायर की, जिसकी सुनवाई में तीन बार में दिल्ली सरकार ने 629 तालाबों की जानकारी दी, जो दिल्ली सरकार, डीडीए, एएसआई, पीडब्ल्यूडी, एमसीडी, फॉरेस्ट डिपार्टमेंट, सीपीडब्ल्यूडी और आईआईटी के तहत आते हैं।

सरकार ने इनमें से सिर्फ 453 को पुनर्जीवन करने के लायक बताया था। इस मामले में हाईकोर्ट ने सन् 2007 में आदेश दिया कि फिर से जीवित करने लायक बचे 453 तालाबों को दोबारा विकसित किया जाए और इसकी देखरेख के लिए मुख्य सचिव की अध्यक्षता में कमिटी गठित की जाए। साथ में यह भी कहा गया कि हर छह महीने में तालाबों के विकास से संबंधित रिपोर्ट सौंपी जाए, मगर साल-दर-साल बीत जाने के बावजूद कोई रिपोर्ट नहीं दी गई है।

तपस के प्रमुख विनोद कुमार जैन कहते हैं कि सरकारी एजेंसियों के पास तालाबों को जीवित करने की इच्छा शक्ति ही नहीं है। जहां काम हो भी रहा है, वहां सिर्फ सौंदर्यीकरण पर ज्यादा ध्यान दिया जा रहा है, ताकि पैसा बनाया जा सके। तालाबों को पर्यावरणीय तंत्र को विकसित करने पर कोई जोर नहीं है।

उधर, फ्लड एंड इरिगेशन डिपार्टमंट के अधिकारियों का कहना है कि दिल्ली सरकार के 476 तालाबों में से 185 की दोबारा खुदाई कर दी गई है, जब बारिश होगी तब इनमें पानी भरा जाएगा। बकाया 139 खुदाई के काबिल नहीं हैं, 43 गंदे पानी वाले हैं और 89 तालाबों को विकसित करने के लिए डीएसआईडीसी को सौंपा गया है। जबकि 20 तालाब ठीक-ठाक हैं।

सन् 2002 में उच्च न्यायालय के निर्देश पर दिल्ली में लगभग एक हजार तालाबों और जोहड़ों की पहचान की गई। लेकिन आज भी उनकी हालत क्या है, यह किसी से छिपा नहीं है। आज दिल्ली को एक ऐसे शहर के रूप में जाना जाने लगा है जहां तालाबों पर बिना पैसा खर्च किए प्यास बुझाना मुमकिन नहीं है। जलाशयों के अस्तित्व पर संकट कोई नियति की देन नहीं, बल्कि इसके पीछे इंसानी व्यवहार है। खासतौर पर शहरी इलाकों में लोग झीलों-तालाबों के महत्व और उनकी उपयोगिता को लेकर उदासीन रहते हैं। फिर महज तात्कालिक सुविधाओं के लिए लोग जलाशयों के रकबे को भी व्यावसायिक नजरिए से देखने लगे हैं। पर्यावरण के लिए काम करने वाली एक अन्य संस्था टॉक्सिक वॉच के गोपाल कृष्ण कहते हैं कि तालाब जैसी जल संरचनाएं ना केवल भूजल को संरक्षित करती है, बल्कि परिवेश को ठंडा रखने में भी मददगार होती हैं। तालाबों की घटती संख्या का एक असर यह भी हुआ है कि एडिस मच्छरों का लार्वा खाने वाली गंबूजिया मछली भी कम जगह डाली जा रही हैं। 2006 में जहां 288 जगहों पर मछलियां डाली गई थीं, वहीं 2007 में 181 और 2008 में सिर्फ 144 जगहों पर ही इन्हें डाला गया। जबकि यह डेंगू की रोकथाम का एनवायरनमेंट फ्रेंडली तरीका है।

प्राकृतिक संसाधनों के साथ जिस तरह खिलवाड़ किया है, उसके निशाने पर सभी तरह के जलस्रोत भी आए, वह भूजल हो या ताल-तलैया। राजधानी से तालाब, झील और जोहड़ अगर लगातार गायब होते जा रहे हैं तो इसकी सबसे बड़ी वजह शहरी नियोजन में पर्यावरणीय तकाजों की अनदेखी ही रही है।

गौरतलब है कि सन् 2002 में उच्च न्यायालय के निर्देश पर दिल्ली में लगभग एक हजार तालाबों और जोहड़ों की पहचान की गई। लेकिन आज भी उनकी हालत क्या है, यह किसी से छिपा नहीं है। आज दिल्ली को एक ऐसे शहर के रूप में जाना जाने लगा है जहां तालाबों पर बिना पैसा खर्च किए प्यास बुझाना मुमकिन नहीं है। जलाशयों के अस्तित्व पर संकट कोई नियति की देन नहीं, बल्कि इसके पीछे इंसानी व्यवहार है। खासतौर पर शहरी इलाकों में लोग झीलों-तालाबों के महत्व और उनकी उपयोगिता को लेकर उदासीन रहते हैं। फिर महज तात्कालिक सुविधाओं के लिए लोग जलाशयों के रकबे को भी व्यावसायिक नजरिए से देखने लगे हैं। एक अध्ययन-रिपोर्ट में यह सामने आ चुका है कि झीलों-तालाबों में ज्यादातर अतिक्रमण की भेंट चढ़ गए या उन पर रिहाइशी और व्यावसायिक इमारतें खड़ी हो चुकी हैं।

दूसरे राज्यों में भी यह हुआ है। ऐसे कई मामलों में सर्वोच्च न्यायालय ने नाराजगी भी जताई है। यह समझना मुश्किल नहीं है कि नगर निगम, दिल्ली विकास प्राधिकरण आदि महकमों की निगरानी के बावजूद जलाशयों को पाट कर उन पर इस तरह के निर्माण किनके बीच मिलीभगत के चलते संभव हुए होंगे। जाहिर है, सरकारों को भी इस बात की कोई चिंता नहीं है कि एक तालाब या झील का खत्म होना मानव समाज के लिए कितना नुकसानदेह है।

हाल ही में केंद्र सरकार ने देर से ही सही, लेकिन राजधानी दिल्ली के सूखते जलाशयों की सुध ली है। केंद्रीय शहरी विकास मंत्रालय ने इसके लिए एक कार्य दल गठित किया है। यह दल जलाशयों को पुनर्जीवित करने के बारे में सुझाव देगा। साथ ही संभावना भी तलाश करेगा कि पुनर्जीवित करने के लिए इन जलाशयों को निजी क्षेत्र को सौंप दिया जाए। यह कार्य दल जलाशयों (प्राकृतिक झील या तालाब) को पुनर्जीवित करने के लिए अब तक हुए प्रयासों की समीक्षा करेगा और साथ ही जो जलाशय पुनर्जीवित हो गए हैं, उनके लिए अपनाई गई कार्यनीति के बारे में भी विचार करेगा कि क्या इस नीति को अपनाकर दूसरे जलाशयों की हालत में सुधार किया जा सकता है।

मंत्रालय ने कार्य दल के सदस्यों के भेजे पत्र में स्पष्ट तौर पर कहा है कि झील-तालाबों में गिरने वाले शहर के सीवर के पानी को रोकने के लिए दिशा-निर्देश तय किए जाएं। साथ ही राज्य सरकार के लिए प्रबंधन योजना तैयार किया जाए, ताकि इस योजना के मुताबिक राजधानी की झील, तालाब, जोहड़ को फिर से जीवन प्रदान किया जा सके।

दिल्ली सरकार और प्रशासन की लापरवाही के चलते महरौली में एक हजार साल पुराना ऐतिहासिक शम्सी तालाब लगातार धीमी मौत मर रहा है। किसी समय यही तालाब यहां के दर्जनों गांवों के लोगों की पानी संबंधी जरूरतों को पूरा करता था। मवेशियों की प्यास बुझाता था और जमीन के जल स्तर को दुरुस्त रखता था, लेकिन यहां सक्रिय भूमाफियाओं की कारगुजारियों के चलते यह तालाब लगातार सूखता और सिकुड़ता जा रहा है। महरौली का सारा इलाका अरावली पर्वत पर बसा हुआ है। यहां की जमीन पथरीली थी, जिस कारण इस पूरे इलाके में पानी की बेहद कमी थी, इसी कमी से निजात पाने के लिए गुलामवंश के राजाओं ने करीब एक हजार साल पहले शम्सी तालाब का निर्माण कराया था।

पहले इसे हौज ए शम्सी के नाम से जाना जाता था। कई किलोमीटर तक फैला यह तालाब एक समय यहां के लोगों की लाइफ लाइन हुआ करता था। बताया जाता है कि यह तालाब इतना विशाल था कि मशहूर घुमक्कड़ इब्नबतूता ने इस तालाब को देखकर लिखा था कि उसने पूरी दुनिया की सैर की है, लेकिन इतना विशाल और भव्य तालाब कहीं नहीं देखा। उसने इसे भव्य जलस्रोत की संज्ञा दी थी। इतना ही नहीं प्रसिद्ध गांधीवादी अनुपम मिश्र ने अपनी किताब आज भी खरे हैं तालाब में शम्सी तालाब का जिक्र किया है।

नवंबर-2013 के पहले सप्ताह में दिल्ली की हाई कोर्ट ने एक जनहित याचिका के फैसले में लिखा है कि तालाब पर्यावरण को बेहतर बनाने में मदद करते हैं, इसलिए उन पर किसी भी तरह का अतिक्रमण नहीं किया जाना चाहिए। अदालत ने दिल्ली सरकार के राजस्व विभाग को यह भी आदेश दिया कि यदि ऐसे तालाब किन्ही संस्था को आवंटित किए गए हैं तो उन्हें अन्य किसी स्थान पर आवंटन कर तालाब के मूल स्वरूप को लौटाया जाए।

कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 48 ए का हवाला दे कर सरकार को तालाबों के संरक्षण के लिए पहल करने को कहा। लेकिन दिल्ली में जमीन इतनी बेशकीमती है कि इसके लिए अदालतों को नकारने में भी लोग नहीं हिचकिचाते हैं। बीते 13 सालों से दिल्ली के तालाबों को बचाने की लड़ाई लड़ रहे सामाजिक कार्यकर्ता विनोद जैन ने जून-2013 में एक बार फिर दिल्ली हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाते हुए कहा कि सन् 2003,2005 और 2007 के अदालती आदेशों के बावजूद दिल्ली सरकार तालाबों के संरक्षण में असफल रही है।

विडंबना है कि जब अदालत तालाबों का पुराना स्वरूप लौटाने के निर्देश दे रही है, तब राज्य सरकार तालाबों को दीगर कामों के लिए आबंटित कर रही है। डीडीए ने वसंत कुंज के एक सूखे तालाब को एक गैस एजेंसी को अलाट कर दिया, वहीं घड़ोली के तालाब को उसका पुराना स्वरूप देने की जगह उसे एक स्कूल को आबंटित कर दिया। बकौल आईआईटी, दिल्ली, बीते एक दशक में दिल्ली में 53 फीसदी जल-क्षेत्र घट गया है।

अदालत में अवमानना याचिका भी दाखिल है, लेकिन मुकदमों को लंबा खींचने व खुद को अवमानना से बचाने के हथकंडों में सरकारें माहिर होती हैं। अदालती अवमानाना से तो गुंताड़ों से बचा जा सकता है लेकिन डेढ़ करोड़ की आबादी के कंठ तर करने के लिए कोई जुगत नहीं, बस पारंपरिक जलस्रोत ही काम आएंगे।





Submitted by Hindi on Sun, 10/19/2014 - 10:20
Source:
द सी एक्सप्रेस, 03 अगस्त 2014
Pollution of the Ganges

आज लाखों लोग गंगा के अस्तित्व को लेकर चिंतित हैं। वे गंगा-जल की निर्मलता चाहते हैं, गंगा में नालों, सीवरों और उद्योगों के केमिकल युक्त कचरों के मिला देने से गंगा मैली हो गई है। गंगा भारत की नदियों में प्रमुख पवित्र नदी है। गंगा किसी के लिए आस्था, श्रद्धा और विश्वास है, तो किसी के लिए मोक्षदायनी। गंगा अपने अविरल प्रवाह से पर्यावरण को हरा भरा बनाती है, खेतों को सींचती है, अन्न और औषधियां उगाती है, तो तटवर्ती हजारों हाथों को अनेक प्रकार से रोजगार देती है, गंगा हर प्रकार से जीवनदायनी नदी है।

प्रयास

Submitted by Editorial Team on Thu, 12/08/2022 - 13:06
सीतापुर का नैमिषारण्य तीर्थ क्षेत्र, फोटो साभार - उप्र सरकार
श्री नैभिषारण्य धाम तीर्थ परिषद के गठन को प्रदेश मंत्रिमएडल ने स्वीकृति प्रदान की, जिसके अध्यक्ष स्वयं मुख्यमंत्री होंगे। इसके अंतर्गत नैमिषारण्य की होली के अवसर पर चौरासी कोसी 5 दिवसीय परिक्रमा पथ और उस पर स्थापित सम्पूर्ण देश की संह्कृति एवं एकात्मता के वह सभी तीर्थ एवं उनके स्थल केंद्रित हैं। इस सम्पूर्ण नैमिशारण्य क्षेत्र में लोक भारती पिछले 10 वर्ष से कार्य कर रही है। नैमिषाराण्य क्षेत्र के भूगर्भ जल स्रोतो का अध्ययन एवं उनके पुनर्नीवन पर लगातार कार्य चल रहा है। वर्षा नल सरक्षण एवं संम्भरण हेतु तालाबें के पुनर्नीवन अनियान के जवर्गत 119 तालाबों का पृनरुद्धार लोक भारती के प्रयासों से सम्पन्न हुआ है।

नोटिस बोर्ड

Submitted by Shivendra on Tue, 09/06/2022 - 14:16
Source:
चरखा फीचर
'संजॉय घोष मीडिया अवार्ड्स – 2022
कार्य अनुभव के विवरण के साथ संक्षिप्त पाठ्यक्रम जीवन लगभग 800-1000 शब्दों का एक प्रस्ताव, जिसमें उस विशेष विषयगत क्षेत्र को रेखांकित किया गया हो, जिसमें आवेदक काम करना चाहता है. प्रस्ताव में अध्ययन की विशिष्ट भौगोलिक स्थिति, कार्यप्रणाली, चयनित विषय की प्रासंगिकता के साथ-साथ इन लेखों से अपेक्षित प्रभाव के बारे में विवरण शामिल होनी चाहिए. साथ ही, इस बात का उल्लेख होनी चाहिए कि देश के विकास से जुड़ी बहस में इसके योगदान किस प्रकार हो सकता है? कृपया आलेख प्रस्तुत करने वाली भाषा भी निर्दिष्ट करें। लेख अंग्रेजी, हिंदी या उर्दू में ही स्वीकार किए जाएंगे
Submitted by Shivendra on Tue, 08/23/2022 - 17:19
Source:
यूसर्क
जल विज्ञान प्रशिक्षण कार्यशाला
उत्तराखंड विज्ञान शिक्षा एवं अनुसंधान केंद्र द्वारा आज दिनांक 23.08.22 को तीन दिवसीय जल विज्ञान प्रशिक्षण प्रारंभ किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए यूसर्क की निदेशक प्रो.(डॉ.) अनीता रावत ने अपने संबोधन में कहा कि यूसर्क द्वारा जल के महत्व को देखते हुए विगत वर्ष 2021 को संयुक्त राष्ट्र की विश्व पर्यावरण दिवस की थीम "ईको सिस्टम रेस्टोरेशन" के अंर्तगत आयोजित कार्यक्रम के निष्कर्षों के क्रम में जल विज्ञान विषयक लेक्चर सीरीज एवं जल विज्ञान प्रशिक्षण कार्यक्रमों को प्रारंभ किया गया
Submitted by Shivendra on Mon, 07/25/2022 - 15:34
Source:
यूसर्क
जल शिक्षा व्याख्यान श्रृंखला
इस दौरान राष्ट्रीय पर्यावरण  इंजीनियरिंग अनुसंधान संस्था के वरिष्ठ वैज्ञानिक और अपशिष्ट जल विभाग विभाग के प्रमुख डॉक्टर रितेश विजय  सस्टेनेबल  वेस्ट वाटर ट्रीटमेंट फॉर लिक्विड वेस्ट मैनेजमेंट (Sustainable Wastewater Treatment for Liquid Waste Management) विषय  पर विशेषज्ञ तौर पर अपनी राय रखेंगे।

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खासम-खास

तालाब ज्ञान-संस्कृति : नींव से शिखर तक

Submitted by Editorial Team on Tue, 10/04/2022 - 16:13
Author
कृष्ण गोपाल 'व्यास’
talab-gyan-sanskriti-:-ninv-se-shikhar-tak
कूरम में पुनर्निर्मित समथमन मंदिर तालाब। फोटो - indiawaterportal
परम्परागत तालाबों पर अनुपम मिश्र की किताब ‘आज भी खरे हैं तालाब’, पहली बार, वर्ष 1993 में प्रकाशित हुई थी। इस किताब में अनुपम ने समाज से प्राप्त जानकारी के आधार पर भारत के विभिन्न भागों में बने तालाबों के बारे में व्यापक विवरण प्रस्तुत किया है। अर्थात आज भी खरे हैं तालाब में दर्ज विवरण परम्परागत तालाबों पर समाज की राय है। उनका दृष्टिबोध है। उन विवरणों में समाज की भावनायें, आस्था, मान्यतायें, रीति-रिवाज तथा परम्परागत तालाबों के निर्माण से जुड़े कर्मकाण्ड दर्ज हैं। प्रस्तुति और शैली अनुपम की है।

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नदी की तरफ पीठ करके बैठी एक सभ्यता

Submitted by Hindi on Mon, 10/20/2014 - 10:28
Author
पुष्यमित्र
.इंसान नदियों के किनारे बसते ही इसलिए थे कि नदियां इंसानों के जीवन में हर तरह से सुविधा का इंतजाम करती थी। नहाने-धोने-खाने-पकाने से लेकर घर के हर काम में आने वाली पानी की जरूरत नदियां पूरी करती थी। फिर खेतों की सिंचाई से लेकर परिवहन तक में नदियां सहायक रही हैं। इसी वजह से नदियां लोगों के लिए बाद में धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व का केंद्र बनी। मगर जैसे ही इंसान ने मशीनों की मदद से धरती के अंदर से पानी निकालने का हुनर सीखा नदियां उसके लिए नकारा होने लगी।

यह कहानी अगर किसी और नदी की हो तो फर्क नहीं पड़ता, मगर जब सांस्कृतिक रूप से समृद्ध कोसी-मिथिला के इलाके के लोग नदी की तरफ पीठ करके बैठ जाएं तो सचमुच अजीब लगता है। मगर यह सच है, लगभग पिछले पचास सालों से हम कोसी वासी अपनी सबसे प्रिय नदी कोसी की तरफ पीठ करके बैठे हैं।

कभी दिल्ली के दिल में धड़कते थे दरिया

Submitted by Shivendra on Sun, 10/19/2014 - 12:29
Author
पंकज चतुर्वेदी
Gandhak-ki-Baoli
. ग्रामीण दिल्ली के कंझावला का जोंती गांव कभी मुगलों की पसंदीदा शिकारगाह था।, वहां घने जंगल थे और जंगलों में रहने वाले जानवरों के लिए बेहतरीन तालाब। इस तालाब का निर्माण मुगल बादशाह शाहजहां ने करवाया था। आज इसका जिम्मा पुरातत्व विभाग के पास है, बस जिम्मा ही रह गया है क्योंकि तालाब तो कहीं नदारद हो चुका है। कुछ समय पहले ऐतिहासिक-सांस्कृतिक संस्था इंटेक को इसके रखरखाव का जिम्मा देने की बात आई थी, लेकिन मामला कागजों से आगे बढ़ा नहीं।

ना अब वहां जंगल बचा और ना ही तालाब। उसका असर वहां के भूजल पर भी पड़ा जो अब पाताल के पार जा चुका है। रामायण में एक चौपाई है - जो जो सुरसा रूप दिखावा, ता दोगुनी कपि बदन बढ़ावा। दिल्ली, मुंबई, हैदराबाद, अहमदाबाद...... किसी भी शहर का नाम ले लो, बस शहर का नाम व भौगोलिक स्थिति बदलेगी, वहां रोजी-रोटी की आस में आए परदेशियों को सिर छिपाने की जगह देना हो या फिर सड़क, बाजार बनाने का काम; तालाबों की ही बलि दी गई और फिर अब लोग गला सूखने पर अपनी उस गलती पर पछताते दिखते हैं।

तालाबों को चौपट करने का खामियाजा समाज ने किस तरह भुगता, इसकी सबसे बेहतर बानगी राजधानी दिल्ली ही है। यहां समाज, अदालत, सरकार सभी कुछ असहाय है जमीन माफिया के सामने। अवैध कब्जों से दिल्ली के तालाब बेहाल हो चुके हैं। थोड़ा सा पानी बरसा तो सारा शहर पानी-पानी होकर ठिठक जाता है और अगले ही दिन पानी की एक-एक बूंद के लिए हरियाणा या उत्तर प्रदेश की ओर ताकने लगता है।

सब जानते हैं कि यह त्रासदी दिल्ली के नक्शे में शामिल उन तालाबों के गुमने से हुई है जो यहां के हवा-पानी का संतुलन बनाए रखते थे, मगर दिल्ली को स्वच्छ और सुंदर बनाने के दावे करने वाली सरकार इन्हें दोबारा विकसित करने के बजाय तालाबों की लिस्ट छोटी करती जा रही है। इ

तना ही नहीं, हाई कोर्ट को दिए गए जवाब में जिन तालाबों को फिर से जीवित करने लायक बताया गया था, उनमें भी सही ढंग से काम नहीं हो रहा है। हर छह महीने में स्थिति रिपोर्ट देने का आदेश भी दरकिनार कर दिया गया है। यह अनदेखी दिल्ली के पर्यावरणीय संतुलन को बिगाड़ चुकी है तभी थोड़ी सी बारिश में दिल्ली दरिया बन जाता है।

तपस नामक एनजीओ ने सन् 2000 में दिल्ली के कुल 794 तालाबों का सर्वे किया था। इसके मुताबिक, ज्यादातर तालाबों पर अवैध कब्जा हो चुका था और जो तालाब थे भी, उनकी हालत खराब थी। इस बारे में एनजीओ ने दिल्ली हाईकोर्ट में जनहित याचिका दायर की, जिसकी सुनवाई में तीन बार में दिल्ली सरकार ने 629 तालाबों की जानकारी दी, जो दिल्ली सरकार, डीडीए, एएसआई, पीडब्ल्यूडी, एमसीडी, फॉरेस्ट डिपार्टमेंट, सीपीडब्ल्यूडी और आईआईटी के तहत आते हैं।

सरकार ने इनमें से सिर्फ 453 को पुनर्जीवन करने के लायक बताया था। इस मामले में हाईकोर्ट ने सन् 2007 में आदेश दिया कि फिर से जीवित करने लायक बचे 453 तालाबों को दोबारा विकसित किया जाए और इसकी देखरेख के लिए मुख्य सचिव की अध्यक्षता में कमिटी गठित की जाए। साथ में यह भी कहा गया कि हर छह महीने में तालाबों के विकास से संबंधित रिपोर्ट सौंपी जाए, मगर साल-दर-साल बीत जाने के बावजूद कोई रिपोर्ट नहीं दी गई है।

तपस के प्रमुख विनोद कुमार जैन कहते हैं कि सरकारी एजेंसियों के पास तालाबों को जीवित करने की इच्छा शक्ति ही नहीं है। जहां काम हो भी रहा है, वहां सिर्फ सौंदर्यीकरण पर ज्यादा ध्यान दिया जा रहा है, ताकि पैसा बनाया जा सके। तालाबों को पर्यावरणीय तंत्र को विकसित करने पर कोई जोर नहीं है।

उधर, फ्लड एंड इरिगेशन डिपार्टमंट के अधिकारियों का कहना है कि दिल्ली सरकार के 476 तालाबों में से 185 की दोबारा खुदाई कर दी गई है, जब बारिश होगी तब इनमें पानी भरा जाएगा। बकाया 139 खुदाई के काबिल नहीं हैं, 43 गंदे पानी वाले हैं और 89 तालाबों को विकसित करने के लिए डीएसआईडीसी को सौंपा गया है। जबकि 20 तालाब ठीक-ठाक हैं।

सन् 2002 में उच्च न्यायालय के निर्देश पर दिल्ली में लगभग एक हजार तालाबों और जोहड़ों की पहचान की गई। लेकिन आज भी उनकी हालत क्या है, यह किसी से छिपा नहीं है। आज दिल्ली को एक ऐसे शहर के रूप में जाना जाने लगा है जहां तालाबों पर बिना पैसा खर्च किए प्यास बुझाना मुमकिन नहीं है। जलाशयों के अस्तित्व पर संकट कोई नियति की देन नहीं, बल्कि इसके पीछे इंसानी व्यवहार है। खासतौर पर शहरी इलाकों में लोग झीलों-तालाबों के महत्व और उनकी उपयोगिता को लेकर उदासीन रहते हैं। फिर महज तात्कालिक सुविधाओं के लिए लोग जलाशयों के रकबे को भी व्यावसायिक नजरिए से देखने लगे हैं। पर्यावरण के लिए काम करने वाली एक अन्य संस्था टॉक्सिक वॉच के गोपाल कृष्ण कहते हैं कि तालाब जैसी जल संरचनाएं ना केवल भूजल को संरक्षित करती है, बल्कि परिवेश को ठंडा रखने में भी मददगार होती हैं। तालाबों की घटती संख्या का एक असर यह भी हुआ है कि एडिस मच्छरों का लार्वा खाने वाली गंबूजिया मछली भी कम जगह डाली जा रही हैं। 2006 में जहां 288 जगहों पर मछलियां डाली गई थीं, वहीं 2007 में 181 और 2008 में सिर्फ 144 जगहों पर ही इन्हें डाला गया। जबकि यह डेंगू की रोकथाम का एनवायरनमेंट फ्रेंडली तरीका है।

प्राकृतिक संसाधनों के साथ जिस तरह खिलवाड़ किया है, उसके निशाने पर सभी तरह के जलस्रोत भी आए, वह भूजल हो या ताल-तलैया। राजधानी से तालाब, झील और जोहड़ अगर लगातार गायब होते जा रहे हैं तो इसकी सबसे बड़ी वजह शहरी नियोजन में पर्यावरणीय तकाजों की अनदेखी ही रही है।

गौरतलब है कि सन् 2002 में उच्च न्यायालय के निर्देश पर दिल्ली में लगभग एक हजार तालाबों और जोहड़ों की पहचान की गई। लेकिन आज भी उनकी हालत क्या है, यह किसी से छिपा नहीं है। आज दिल्ली को एक ऐसे शहर के रूप में जाना जाने लगा है जहां तालाबों पर बिना पैसा खर्च किए प्यास बुझाना मुमकिन नहीं है। जलाशयों के अस्तित्व पर संकट कोई नियति की देन नहीं, बल्कि इसके पीछे इंसानी व्यवहार है। खासतौर पर शहरी इलाकों में लोग झीलों-तालाबों के महत्व और उनकी उपयोगिता को लेकर उदासीन रहते हैं। फिर महज तात्कालिक सुविधाओं के लिए लोग जलाशयों के रकबे को भी व्यावसायिक नजरिए से देखने लगे हैं। एक अध्ययन-रिपोर्ट में यह सामने आ चुका है कि झीलों-तालाबों में ज्यादातर अतिक्रमण की भेंट चढ़ गए या उन पर रिहाइशी और व्यावसायिक इमारतें खड़ी हो चुकी हैं।

दूसरे राज्यों में भी यह हुआ है। ऐसे कई मामलों में सर्वोच्च न्यायालय ने नाराजगी भी जताई है। यह समझना मुश्किल नहीं है कि नगर निगम, दिल्ली विकास प्राधिकरण आदि महकमों की निगरानी के बावजूद जलाशयों को पाट कर उन पर इस तरह के निर्माण किनके बीच मिलीभगत के चलते संभव हुए होंगे। जाहिर है, सरकारों को भी इस बात की कोई चिंता नहीं है कि एक तालाब या झील का खत्म होना मानव समाज के लिए कितना नुकसानदेह है।

हाल ही में केंद्र सरकार ने देर से ही सही, लेकिन राजधानी दिल्ली के सूखते जलाशयों की सुध ली है। केंद्रीय शहरी विकास मंत्रालय ने इसके लिए एक कार्य दल गठित किया है। यह दल जलाशयों को पुनर्जीवित करने के बारे में सुझाव देगा। साथ ही संभावना भी तलाश करेगा कि पुनर्जीवित करने के लिए इन जलाशयों को निजी क्षेत्र को सौंप दिया जाए। यह कार्य दल जलाशयों (प्राकृतिक झील या तालाब) को पुनर्जीवित करने के लिए अब तक हुए प्रयासों की समीक्षा करेगा और साथ ही जो जलाशय पुनर्जीवित हो गए हैं, उनके लिए अपनाई गई कार्यनीति के बारे में भी विचार करेगा कि क्या इस नीति को अपनाकर दूसरे जलाशयों की हालत में सुधार किया जा सकता है।

मंत्रालय ने कार्य दल के सदस्यों के भेजे पत्र में स्पष्ट तौर पर कहा है कि झील-तालाबों में गिरने वाले शहर के सीवर के पानी को रोकने के लिए दिशा-निर्देश तय किए जाएं। साथ ही राज्य सरकार के लिए प्रबंधन योजना तैयार किया जाए, ताकि इस योजना के मुताबिक राजधानी की झील, तालाब, जोहड़ को फिर से जीवन प्रदान किया जा सके।

दिल्ली सरकार और प्रशासन की लापरवाही के चलते महरौली में एक हजार साल पुराना ऐतिहासिक शम्सी तालाब लगातार धीमी मौत मर रहा है। किसी समय यही तालाब यहां के दर्जनों गांवों के लोगों की पानी संबंधी जरूरतों को पूरा करता था। मवेशियों की प्यास बुझाता था और जमीन के जल स्तर को दुरुस्त रखता था, लेकिन यहां सक्रिय भूमाफियाओं की कारगुजारियों के चलते यह तालाब लगातार सूखता और सिकुड़ता जा रहा है। महरौली का सारा इलाका अरावली पर्वत पर बसा हुआ है। यहां की जमीन पथरीली थी, जिस कारण इस पूरे इलाके में पानी की बेहद कमी थी, इसी कमी से निजात पाने के लिए गुलामवंश के राजाओं ने करीब एक हजार साल पहले शम्सी तालाब का निर्माण कराया था।

पहले इसे हौज ए शम्सी के नाम से जाना जाता था। कई किलोमीटर तक फैला यह तालाब एक समय यहां के लोगों की लाइफ लाइन हुआ करता था। बताया जाता है कि यह तालाब इतना विशाल था कि मशहूर घुमक्कड़ इब्नबतूता ने इस तालाब को देखकर लिखा था कि उसने पूरी दुनिया की सैर की है, लेकिन इतना विशाल और भव्य तालाब कहीं नहीं देखा। उसने इसे भव्य जलस्रोत की संज्ञा दी थी। इतना ही नहीं प्रसिद्ध गांधीवादी अनुपम मिश्र ने अपनी किताब आज भी खरे हैं तालाब में शम्सी तालाब का जिक्र किया है।

गंधक की बावड़ीनवंबर-2013 के पहले सप्ताह में दिल्ली की हाई कोर्ट ने एक जनहित याचिका के फैसले में लिखा है कि तालाब पर्यावरण को बेहतर बनाने में मदद करते हैं, इसलिए उन पर किसी भी तरह का अतिक्रमण नहीं किया जाना चाहिए। अदालत ने दिल्ली सरकार के राजस्व विभाग को यह भी आदेश दिया कि यदि ऐसे तालाब किन्ही संस्था को आवंटित किए गए हैं तो उन्हें अन्य किसी स्थान पर आवंटन कर तालाब के मूल स्वरूप को लौटाया जाए।

कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 48 ए का हवाला दे कर सरकार को तालाबों के संरक्षण के लिए पहल करने को कहा। लेकिन दिल्ली में जमीन इतनी बेशकीमती है कि इसके लिए अदालतों को नकारने में भी लोग नहीं हिचकिचाते हैं। बीते 13 सालों से दिल्ली के तालाबों को बचाने की लड़ाई लड़ रहे सामाजिक कार्यकर्ता विनोद जैन ने जून-2013 में एक बार फिर दिल्ली हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाते हुए कहा कि सन् 2003,2005 और 2007 के अदालती आदेशों के बावजूद दिल्ली सरकार तालाबों के संरक्षण में असफल रही है।

विडंबना है कि जब अदालत तालाबों का पुराना स्वरूप लौटाने के निर्देश दे रही है, तब राज्य सरकार तालाबों को दीगर कामों के लिए आबंटित कर रही है। डीडीए ने वसंत कुंज के एक सूखे तालाब को एक गैस एजेंसी को अलाट कर दिया, वहीं घड़ोली के तालाब को उसका पुराना स्वरूप देने की जगह उसे एक स्कूल को आबंटित कर दिया। बकौल आईआईटी, दिल्ली, बीते एक दशक में दिल्ली में 53 फीसदी जल-क्षेत्र घट गया है।

दिल्ली का झीलअदालत में अवमानना याचिका भी दाखिल है, लेकिन मुकदमों को लंबा खींचने व खुद को अवमानना से बचाने के हथकंडों में सरकारें माहिर होती हैं। अदालती अवमानाना से तो गुंताड़ों से बचा जा सकता है लेकिन डेढ़ करोड़ की आबादी के कंठ तर करने के लिए कोई जुगत नहीं, बस पारंपरिक जलस्रोत ही काम आएंगे।

अग्रसेन की बावड़ी

शम्सी तालाब

गंगा: आस्था से जुड़ा कल्याणकारी आन्दोलन

Submitted by Hindi on Sun, 10/19/2014 - 10:20
Author
डॉ. राधाकृष्ण दीक्षित
Source
द सी एक्सप्रेस, 03 अगस्त 2014
Pollution of the Ganges

.आज लाखों लोग गंगा के अस्तित्व को लेकर चिंतित हैं। वे गंगा-जल की निर्मलता चाहते हैं, गंगा में नालों, सीवरों और उद्योगों के केमिकल युक्त कचरों के मिला देने से गंगा मैली हो गई है। गंगा भारत की नदियों में प्रमुख पवित्र नदी है। गंगा किसी के लिए आस्था, श्रद्धा और विश्वास है, तो किसी के लिए मोक्षदायनी। गंगा अपने अविरल प्रवाह से पर्यावरण को हरा भरा बनाती है, खेतों को सींचती है, अन्न और औषधियां उगाती है, तो तटवर्ती हजारों हाथों को अनेक प्रकार से रोजगार देती है, गंगा हर प्रकार से जीवनदायनी नदी है।

प्रयास

सीतापुर और हरदोई के 36 गांव मिलाकर हो रहा है ‘नैमिषारण्य तीर्थ विकास परिषद’ गठन  

Submitted by Editorial Team on Thu, 12/08/2022 - 13:06
sitapur-aur-hardoi-ke-36-gaon-milaakar-ho-raha-hai-'naimisharany-tirth-vikas-parishad'-gathan
Source
लोकसम्मान पत्रिका, दिसम्बर-2022
सीतापुर का नैमिषारण्य तीर्थ क्षेत्र, फोटो साभार - उप्र सरकार
श्री नैभिषारण्य धाम तीर्थ परिषद के गठन को प्रदेश मंत्रिमएडल ने स्वीकृति प्रदान की, जिसके अध्यक्ष स्वयं मुख्यमंत्री होंगे। इसके अंतर्गत नैमिषारण्य की होली के अवसर पर चौरासी कोसी 5 दिवसीय परिक्रमा पथ और उस पर स्थापित सम्पूर्ण देश की संह्कृति एवं एकात्मता के वह सभी तीर्थ एवं उनके स्थल केंद्रित हैं। इस सम्पूर्ण नैमिशारण्य क्षेत्र में लोक भारती पिछले 10 वर्ष से कार्य कर रही है। नैमिषाराण्य क्षेत्र के भूगर्भ जल स्रोतो का अध्ययन एवं उनके पुनर्नीवन पर लगातार कार्य चल रहा है। वर्षा नल सरक्षण एवं संम्भरण हेतु तालाबें के पुनर्नीवन अनियान के जवर्गत 119 तालाबों का पृनरुद्धार लोक भारती के प्रयासों से सम्पन्न हुआ है।

नोटिस बोर्ड

'संजॉय घोष मीडिया अवार्ड्स – 2022

Submitted by Shivendra on Tue, 09/06/2022 - 14:16
sanjoy-ghosh-media-awards-–-2022
Source
चरखा फीचर
'संजॉय घोष मीडिया अवार्ड्स – 2022
कार्य अनुभव के विवरण के साथ संक्षिप्त पाठ्यक्रम जीवन लगभग 800-1000 शब्दों का एक प्रस्ताव, जिसमें उस विशेष विषयगत क्षेत्र को रेखांकित किया गया हो, जिसमें आवेदक काम करना चाहता है. प्रस्ताव में अध्ययन की विशिष्ट भौगोलिक स्थिति, कार्यप्रणाली, चयनित विषय की प्रासंगिकता के साथ-साथ इन लेखों से अपेक्षित प्रभाव के बारे में विवरण शामिल होनी चाहिए. साथ ही, इस बात का उल्लेख होनी चाहिए कि देश के विकास से जुड़ी बहस में इसके योगदान किस प्रकार हो सकता है? कृपया आलेख प्रस्तुत करने वाली भाषा भी निर्दिष्ट करें। लेख अंग्रेजी, हिंदी या उर्दू में ही स्वीकार किए जाएंगे

​यूसर्क द्वारा तीन दिवसीय जल विज्ञान प्रशिक्षण प्रारंभ

Submitted by Shivendra on Tue, 08/23/2022 - 17:19
USERC-dvara-tin-divasiy-jal-vigyan-prashikshan-prarambh
Source
यूसर्क
जल विज्ञान प्रशिक्षण कार्यशाला
उत्तराखंड विज्ञान शिक्षा एवं अनुसंधान केंद्र द्वारा आज दिनांक 23.08.22 को तीन दिवसीय जल विज्ञान प्रशिक्षण प्रारंभ किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए यूसर्क की निदेशक प्रो.(डॉ.) अनीता रावत ने अपने संबोधन में कहा कि यूसर्क द्वारा जल के महत्व को देखते हुए विगत वर्ष 2021 को संयुक्त राष्ट्र की विश्व पर्यावरण दिवस की थीम "ईको सिस्टम रेस्टोरेशन" के अंर्तगत आयोजित कार्यक्रम के निष्कर्षों के क्रम में जल विज्ञान विषयक लेक्चर सीरीज एवं जल विज्ञान प्रशिक्षण कार्यक्रमों को प्रारंभ किया गया

28 जुलाई को यूसर्क द्वारा आयोजित जल शिक्षा व्याख्यान श्रृंखला पर भाग लेने के लिए पंजीकरण करायें

Submitted by Shivendra on Mon, 07/25/2022 - 15:34
28-july-ko-ayojit-hone-vale-jal-shiksha-vyakhyan-shrinkhala-par-bhag-lene-ke-liye-panjikaran-karayen
Source
यूसर्क
जल शिक्षा व्याख्यान श्रृंखला
इस दौरान राष्ट्रीय पर्यावरण  इंजीनियरिंग अनुसंधान संस्था के वरिष्ठ वैज्ञानिक और अपशिष्ट जल विभाग विभाग के प्रमुख डॉक्टर रितेश विजय  सस्टेनेबल  वेस्ट वाटर ट्रीटमेंट फॉर लिक्विड वेस्ट मैनेजमेंट (Sustainable Wastewater Treatment for Liquid Waste Management) विषय  पर विशेषज्ञ तौर पर अपनी राय रखेंगे।

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