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Submitted by Editorial Team on Tue, 10/04/2022 - 16:13
कूरम में पुनर्निर्मित समथमन मंदिर तालाब। फोटो - indiawaterportal
परम्परागत तालाबों पर अनुपम मिश्र की किताब ‘आज भी खरे हैं तालाब’, पहली बार, वर्ष 1993 में प्रकाशित हुई थी। इस किताब में अनुपम ने समाज से प्राप्त जानकारी के आधार पर भारत के विभिन्न भागों में बने तालाबों के बारे में व्यापक विवरण प्रस्तुत किया है। अर्थात आज भी खरे हैं तालाब में दर्ज विवरण परम्परागत तालाबों पर समाज की राय है। उनका दृष्टिबोध है। उन विवरणों में समाज की भावनायें, आस्था, मान्यतायें, रीति-रिवाज तथा परम्परागत तालाबों के निर्माण से जुड़े कर्मकाण्ड दर्ज हैं। प्रस्तुति और शैली अनुपम की है।

Content

Submitted by Hindi on Fri, 10/03/2014 - 10:48
Source:
एब्सल्यूट इंडिया, 03 अक्तूबर 2014
Swachh Bharat
महाराष्ट्र, यूपी, बिहार, दिल्ली सहित देश भर में शुरू हुआ अभियान स्कूली बच्चों सहित तमाम सियासी दिग्गजों ने ली स्वच्छता की शपथ अपने-अपने संसदीय क्षेत्र में सांसदों और गृह मंत्री ने भी की सफाई
नरेंद्र मोदी सरकार के स्वच्छ भारत अभियान के तहत केंद्र सरकार के लाखों कर्मचारियों ने गुरुवार को अपने दफ्तरों और आवासीय इलाके में स्वच्छता सुनिश्चित करने के लिए हर सप्ताह कम से कम दो घंटे काम करने का वचन लिया। केंद्र सरकार के प्रत्येक विभाग ने आज महात्मा गांधी की जयंती के अवसर पर अपने कर्मचारियों को शपथ दिलाने के लिए व्यापक बंदोबस्त किया था।
Submitted by Hindi on Fri, 10/03/2014 - 09:57
Source:
एब्सल्यूट इंडिया, 03 अक्तूबर 2014
Sewage

चेन्नई में 24 मई 2003 और 17 अक्टूबर 2008 के बीच 17 सीवर कर्मचारियों की मौत, मैनहोलों या गटर की सफाई करते समय गंदी जहरीली गैस चढ़ने से हो गई। सफाई कर्मचारियों की ट्रेड यूनियनों का कहना है कि यह गिनती पिछले दो दशकों में 1,000 के नजदीक पहुंचती है।
मशहूर भारतीय फिल्मकार सत्यजित रे ने अपनी एक फिल्म अमेरिका में प्रदर्शित की तो पहले शो में ही बहुत से अमेरिकी फिल्म बीच में ही छोड़कर आ गए क्योंकि सत्यजीत रे ने फिल्म के एक सीन में भारतीय लोगों को हाथों से खाना खाते हुए दिखाया था जिसे देखकर उन्हें वितृष्णा होने लगी थी।

Submitted by Hindi on Fri, 10/03/2014 - 09:07
Source:
flood in kosi
वर्ष 2008 कोसी का तटबंध नहीं टूटा होता तो यह वर्ष भी सूखे की भेंट ही चढ़ गया था। इस तरह से राज्य में सिंचाई के लिए पानी के उपयोग की वर्तमान स्थिति किसी भी पैमाने से संतोषजनक नहीं कही जा सकती है।

पश्चिम बंगाल, उसके पूर्व में है, पश्चिम में उत्तर प्रदेश, दक्षिण मेें झारखंड और उत्तर में नेपाल से घिरा भारत का एक राज्य है बिहार। यहां की आबादी 10.38 करोड़ ( 2011) है और यह उत्तर प्रदेश-महाराष्ट्र के बाद भारत का सबसे अधिक आबादी वाला राज्य है। इसका भौगोलिक क्षेत्र 94163 वर्ग किमी है और 1102 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर के जनसंख्या घनत्व के साथ यह सघन आबादी वाला इलाका है। राज्य में लिंग अनुपात 1000 पुरुषों पर 916 महिलाओं का है। यहां की साक्षरता की दर अभी भी 63.82 (2011) प्रतिशत है। जिसमें 73.39 प्रतिशत पुरुष और 53.33 प्रतिशत महिलाएं साक्षर हैं। केवल दस प्रतिशत हिस्सा शहर में और बांकि आबादी गांव में रहती है।

बिहार भारत का सबसे अधिक बाढ़ग्रस्त राज्यों में है और यहां बाढ़ पीड़ितों का घनत्व सबसे अधिक है। भारत का 16.5 प्रतिशत बाढ़ प्रभावित क्षेत्र बिहार में पड़ता है। जबकि इतने ही क्षेत्र पर देश की 22.1 प्रतिशत बाढ़ प्रभावित जनता रहती है। राज्य में बाढ़ से प्रभावित होने वाला क्षेत्र आजादी के बाद लगातार बढ़ता रहा है। बिहार के द्वितीय सिंचाई आयोग की रिपोर्ट (1994) के अनुसार राज्य का बाढ़ प्रवण इलाका जो कि 1952 में मात्र 25 लाख हेक्टेयर था, वह 1994 में बढ़कर 68.8 लाख हेक्टेयर हो गया। 2008 की कोसी तटबंध में पड़ी दरार की वजह से बाढ़ प्रवण क्षेत्र में 4.153 लाख हेक्टेयर की अतिरिक्त वृद्धि हो गई क्योंकि इस दरार की वजह से सुपौल, सहरसा, अररिया, मधेपुरा और पूर्णियां के वह हिस्से बाढ़ की चपेट में आ गए जो अब तक सुरक्षित माने जाते थे। इस अतिरिक्त क्षेत्र को जोड़ देने पर राज्य का कुल बाढ़ प्रवण क्षेत्र लगभग 73 लाख हेक्टेयर हो जाता है। जो राज्य के कुल क्षेत्रफल का लगभग 78 प्रतिशत बैठता है।

एक ऐसा राज्य जिसकी 87 प्रतिशत आबादी आज भी कृषि को अपनी आजीविका का प्रमुख स्रोत मानती है। उसके लिए इतने बड़े क्षेत्र पर बाढ़ का प्रकोप बहुत घातक है। यह बात अलग है कि बिहार सरकार के जल संसाधन विभाग ने अभी तक इस वृद्धि का संज्ञान नहीं लिया है। सरकारी सूत्रों के अनुसार राज्य में लगभग 9.42 लाख हेक्टेयर जमीन जल जमाव से ग्रस्त है और इसमें से 8.36 लाख हेक्टेयर उत्तर भारत में अवस्थित है। इतने बड़े क्षेत्र पर जल जमाव के कारण राज्य की जनसंख्या घनत्व को देखते हुए कोई एक करोड़ लोगों की रोजी-रोटी जरूर छीनती होगी।

गंगा जो कि पूरे राज्य के लिए मास्टर ड्रेन का काम करती है, पश्चिम से पूर्व की दिशा में राज्य के बीचों-बीच बहती है। राज्य में इस नदी की लंबाई 432 किलोमीटर है। गंगा के उत्तर में अवस्थित मैदानी इलाका उत्तर बिहार कहलाता है और यह 08 बड़ी नदियों का क्रिड़ा क्षेत्र है, जिनके नाम घाघरा, गंडक, बूढ़ी गंडक, बागमती, अधवारा समूह, कमला, कोसी और महानंदा है। घाघरा और महानंदा क्रमशः उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल से होती हुई, बिहार में प्रवेश करती है। बूढ़ी गंडक को छोड़कर अन्य सभी नदियां उत्तर बिहार में नेपाल से आती हैं। बूढ़ी गंडक का उद्गम भले ही बिहार में हो पर इसका काफी बड़ा जल ग्रहण क्षेत्र नेपाल में पड़ता है। जहां से इसकी बहुत सी सहायक धाराएं आती हैं।

बिहार में गंगा दक्षिण दिशा से मिलने वाली है। मुख्य नदियां कर्मनाशा, सोन, पुनपुन, हरोहर, किउल, बडुआ और चान्दन हैं। उत्तर की ओर बहने वाली इन नदियों का उद्गम विंध्याचल, छोटानागपुर और राजमहल पर्वतमालाओं में स्थित है। इनमें से कोई भी नदी ग्लेशियर से नहीं निकलती है। इसलिए गर्मी के महीनों में इनका प्रवाह बहुत ही कम होता है।

यहां की जमीन का ढाल दक्षिण से उत्तर की ओर है। पटना के पूर्व में गंगा नदी का दाहिना किनारा स्वाभाविक रूप से ऊपर उठने लगता है और एक तरह से प्राकृतिक तटबंध का काम करता है। एक कृत्रिम तटबंध की तरह यह भी जल निकासी में बाधा डालता है जिसके कारण गंगा के दक्षिण का एक अच्छा खासा इलाका जल जमाव में फंसा रहता है। गंगा के दक्षिण में एक तरह से तालों की श्रृंखला है। जिसमें फतुहा ताल, बख्तियारपुर ताल, बाढ़ ताल, मोर ताल, मोकामा ताल, बढ़हिया ताल और सिंघौला ताल मुख्य हैं।

बिहार भारत का सबसे अधिक बाढ़ग्रस्त राज्यों में है और यहां बाढ़ पीड़ितों का घनत्व सबसे अधिक है। भारत का 16.5 प्रतिशत बाढ़ प्रभावित क्षेत्र बिहार में पड़ता है। जबकि इतने ही क्षेत्र पर देश की 22.1 प्रतिशत बाढ़ प्रभावित जनता रहती है। राज्य में बाढ़ से प्रभावित होने वाला क्षेत्र आजादी के बाद लगातार बढ़ता रहा है। बिहार के द्वितीय सिंचाई आयोग की रिपोर्ट (1994) के अनुसार राज्य का बाढ़ प्रवण इलाका जो कि 1952 में मात्र 25 लाख हेक्टेयर था, वह 1994 में बढ़कर 68.8 लाख हेक्टेयर हो गया।गंगा के पानी में उफान होने पर उसका पानी भी इन तालों में भरता है। लगभग 1,00,000 हेक्टेयर डूबी हुई जमीन साल में कुछ समय के लिए पानी से ऊपर निकलती है। जिस पर रबी की जबर्दस्त फसल होती है। जहां पानी के इतने स्रोत हों वहां खेती समृद्ध होनी चाहिए, पर क्या सचमुच ऐसा होता है?

राज्य की बड़ी सिंचाई परियोजनाओं में (जिसका कमान क्षेत्र 10,000 हेक्टेयर से ज्यादा है) उत्तर बिहार की कोसी और गंडक परियोजनाओं तथा दक्षिण बिहार की सोन नहरों का नेटवर्क शामिल है। इसके अलावाा बहुत सी सिंचाई परियोजनाएं मध्यम दर्जे की गिनती में आती हैं (जिनका कमान क्षेत्र 2000 हेक्टेयर से लेकर 10,000 हेक्टेयर तक है) और सैकड़ों लघु सिंचाई परियोजनाएं भी कार्यरत हैं।

फिर मार्च 2015 तक बड़ी मध्यम योजनाओं से अर्जित सिंचाई क्षमता मात्र 29.13 लाख हेक्टेयर थी। (सिंचाई नेटवर्क से जुड़ा हुआ क्षेत्र) लेकिन जो वास्तविक सिंचाई थी पिछले 20 वर्षों से 16 लाख हेक्टेयर के आस-पास टिकी रही। उपलब्ध आंकड़ों पर एक नजर डालने से पता लगता है कि राज्य में 1990 तक तो सिंचाई क्षमता और वास्तविक सिंचाई के आंकड़े दोनों ही बढ़ते रहे। मगर उसके बाद सिंचाई क्षमता भले ही ऊपर की ओर बढ़ती रही हो मगर वास्तविक सिंचाई का रकबा नीचे गिरने लगा।

1990 और 2000 (जब झारखंड एक अलग राज्य बना) के बीच अविभाजित बिहार में 1,13,000 हेक्टेयर की अतिरिक्त सिंचाई क्षमता अर्जित की गई मगर इसी दौरान जो वास्तव में होने वाली सिंचाई थी उसमें 5,53,000 हेक्टेयर की गिरावट आई। सन 2000 में राज्य विभाजन के बाद मार्च 2001 से 2013 तक 2,96,000 हेक्टेयर की सिंचाई क्षमता अर्जित की गई मगर सिंचित क्षेत्र केवल दो बार 17 लाख हेक्टेयर के आंकड़े को पार कर पाया।

सिंचाई के लिए जो टैक्स की वसूली राज्य सरकार करती है, यह आज तक 16 लाख हेक्टेयर के आंकड़े को छु नहीं पाई। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) के शासन काल में मार्च 2006 से मार्च 2013 के बीच वृहद और मध्यम सिंचाई योजनाओं में 2,76,000 हेक्टेयर की क्षमता अर्जित की गई। मगर वास्तविक सिंचाई में 98000 हेक्टेयर की गिरावट आई। आश्चर्य की बात है कि इस विषय पर जब भी संवैधानिक संस्थाओं में बहस होती है तो सत्ता पक्ष सिंचाई के सृजित क्षमता में होने वाली बढ़ोत्तरी को लेकर अपनी पीठ खूब ठोंकता है।

मगर ठहरी हुई सिंचाई व्यवस्था पर विपक्ष भी उंगली बिरले ही उठाता है। उसे कहीं ना कहीं यह डर जरूर रहता है कि कभी वह सत्ता में आ गया तो इस तरह के परेशान करने वाले सवालों का जवाब उसे भी देना पड़ सकता है। पिछले वर्षों से सिंचित होने वाला यह क्षेत्र 16 लाख हेक्टेयर के आस-पास बना हुआ है। यह ध्यान रखते हुए कि आजादी के समय, अगस्त 1947 में राज्य का सिंचित क्षेत्र 4,04,000 हेक्टेयर था। पिछले 67 वर्षों में केवल 12 लाख हेक्टेयर की वृद्धि कोई उत्साहवर्द्धक वृद्धि नहीं है। विकास की अगर यही दर कायम रहे तो राज्य में पूरी सिंचाई विकसित करने में अब से 200 वर्ष से भी अधिक समय लग जाएगा।

जल संसाधन विभाग (लघु सिंचाई) की रिपोर्टों से यह अंदाजा लगता है कि बिहार से झारखंड के अलग होने के समय वर्ष 2000 तक राज्य में 2,22,000 हेक्टेयर क्षेत्र पर सिंचाई क्षमता अर्जित की गई। जिसमें से 84000 हेक्टेयर सतही स्रोतों से और 1,32,000 हेक्टेयर क्षेत्र लिफ्ट इरिगेशन की योजनाओं तथा बिजली चालित पंपों के अधीन थी। लेकिन रिपोर्टो के अनुसार जो सतही सिंचाई की योजनाएं हैं वह 60 प्रतिशत से क्षमता पर काम नहीं कर पाती हैं और लिफ्ट इरिगेशन की दक्षता तो सिर्फ 10 प्रतिशत ही है। मशीनों का पुराना पड़ जाना बिजली आपूर्ति में अनियमितता, अक्षम प्रबंधन और उपयोग करने वालों की उदासीनता, कुछ ऐसे कारण हैं जिनकी वजह से इन सुविधाओं का उपयोग नहीं हो पाता।

राज्य में सन 2000 में कुल 2316 लिफ्ट इरिगेशन की योजनाएं थीं, जिनमें 679 बिजली के दोषों के कारण काम नहीं कर पाती थीं, 104 के काम न करने के पीछे यांत्रिक दोष थे, 826 इन दोनों कारणों के सम्मिश्रण से काम नहीं कर पाती थीं। इसके अलावा 221 योजनाएं ऐसी थीं कि जो नदी के पंप वेल से दूर खिसक जाने के कारण काम नहीं कर पाती थीं। इसके अलावा 221 योजनाएं ऐसी थीं जो नदी के पंप वेल से दूर खिसक जाने की वजह से या पंप वेल के बालू में दफन हो जाने की वजह से बेकार हो गईं।

इस तरह ले देकर 480 योजनाएं (21 प्रतिशत) ही कार्यकारी थीं। राज्य में 5558 ट्यूब वेल्स थे जिनका कूल कमान क्षेत्र 3,07,000 हेक्टेयर है। इसमें से 5,122 को ही बिजली मिल पाई। इन सरकारी ट्यूब वेल्स की कार्यक्षमता उत्साहवर्धक नहीं है। इनमें 2886 सेट बिजली के दोषों के कारण काम नहीं करते, 85 यांत्रिक कारणों से बेकार बने हुए हैं और 302 के लिए ट्रांसफार्मरों का काम न करना रुकावट डालता है। लघु सिंचाई विभाग की वार्षिक रिपोर्ट 2000 के अनुसार, 1,12,000 हेक्टेयर की सिंचाई क्षमता के स्थान पर 1990-2000 में असली सिंचाई क्षेत्र 19,468 हेक्टेयर ही हो पाया।

यह तो हुई बिहार के विभाजन के समय की स्थिति लेकिन फिलहाल बिहार में लघु सिंचाई की योजनाओं से 64.01 लाख हेक्टेयर जमीन सींचे जाने का प्रस्ताव है। इसमें 15.44 लाख हेक्टेयर वह जमीन भी शामिल है, जिसे आहर पाइन की मदद से सींचा जाएगा और इसे पिछले वर्ष ही इस मद में जोड़ा गया है। बिहार सरकार की लघु सिंचाई विभाग की 2011-12 की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार विभाग ने दसवीं पंचवर्षिय योजना के अंत तक 36.26 लाख हेक्टेयर के सिंचाई की क्षमता अर्जित की थी, मगर उससे वास्तविक सिंचाई 0.72 लाख हेक्टेयर पर ही हो पाती थी और इसमें भी निजी नल कूपों से 8.15 लाख हेक्टेयर क्षेत्र पर सिंचाई होती थी।

जो कि इस माध्यम से सिंचाई का 84 प्रतिशत था। इस समय तक राज्य के 4575 नलकूपों से केवल 1630 नलकूप चालू हालत में थे। ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में विभाग ने बड़ी रकम खर्च की मगर नतीजा वही ढाक के तीन पात।

भारत सरकार राज्य में सिंचाई की बदहाली के लिए चिंतित थीं और उसने 2009 में एक विशेष टास्क फोर्स का गठन करके इस समस्या का अध्ययन करवाया। टास्क फोर्स की रिपोर्ट (2009) कहती है कि राज्य का एक फसली क्षेत्र छप्पन हजार वर्ग किलोमीटर और दुफसली इलाका चैबीस हजार वर्ग किमी है। यानी कुल मिलाकर अस्सी हजार वर्ग किमी क्षेत्र पर राज्य में खेती संभव है। राज्य में हमेशा आने वाली बाढ़ से उस क्षेत्र का इन्फ्रास्ट्राक्चर पूरी तरह ध्वस्त हो जाता है जो बाढ़ से प्रभावित होता है। जहां सिंचाई क्षमता अर्जित कर ली गई है।

लेकिन वह बाढ़ से सुरक्षित नहीं है। यह अर्जित सिंचाई है, इसके अलावा आर्थिक संसाधनों का भी अभाव है। इस विभाग का जो संगठनात्मक ढांचा है उसके प्रबंधन, कर्मचारियों के चयन तथा उनकी कार्यक्षमता को देखते हुए यह लगता है कि उसमें बहुआयामी बड़े कामों को कर पाने की क्षमता ही नहीं है। ज्यादा से ज्यादा वह पहले से बनी हुई परियोजना का संचालन और रख-रखाव भी कर सकता है। फील्ड लेवल पर तो हालात और भी ज्यादा बदत्तर है।’’ इसके बाद तो कहने को कुछ बचता ही नहीं।

बिहार के पास बहुत पानी है और बाढ़ की भी कमी नहीं है मगर यह वही राज्य है जो कि लगातार सूखे की मार भी झेलता है। इस राज्य में झारखंड समेत 1250 मिलीमीटर से लेकर 1350 मिलीमीटर तक हर साल बारिश होती है और इसमें से अधिकांश किसान खेती के लिए बारिश पर ही निर्भर करते हैं, इसलिए धान की बुआई, रोपनी और दूब आने के समय में देरी होना आम बात है और इस से फसल को नुकसान पहुंचता है। सही समय पर सही मात्रा में बारिश न होने की वजह से किसानों की फसल का उत्पादन आधे से लेकर तीन चौथाई तक मारा जाता है।

राज्य दूसरा सिंचाई आयोग कहता है- ‘वह क्षेत्र जो कि बीस वर्षो में पांच से छह बार सूखे का प्रकोप झेलते हैं, उन्हें सूखा प्रवण क्षेत्र कहा जा सकता है। जबकि जहां सात से आठ बार सूखा पड़ जाए उसे लगातार पड़ने वाला सूखे का क्षेत्र कहा जा सकता है। (खंड 03, पृष्ठ 34)’ इस परिभाषा के अनुसार खगड़िया का शुमार लगातार पड़ने वाले सूखे के क्षेत्र के रूप में भी किया जा सकता है। लेकिन एक दूसरे स्थान पर यह रिपोर्ट यह भी कहती है कि उत्तर बिहार में कोई इलाका सूखा प्रवण नहीं है। (खंड 03, पृष्ठ 360।

आयोग की रिपोर्ट में आगे यह भी कहती है कि बिहार के कुल 16.36 लाख हेक्टेयर के सूखा प्रवण क्षेत्र में 29000 हेक्टेयर गंगा स्टेम में और 16.07 लाख क्षेत्र दक्षिण बिहार में अवस्थित है। जल संसाधन विभाग संभवतः उत्तर बिहार के किसी भी भाग को सूखा ग्रस्त नहीं मानता। यद्यपि 2009 और 2010 के दोनों वर्षों में उत्तर बिहार के कई जिलों को सूखा ग्रस्त घोषित करना पड़ा है।

अगर कुसहा में 2008 में कोसी तटबंध टूटने की घटना नहीं हुई होती तो 2008 का वर्ष भी बिहार में सूखे के वर्ष के रूप में ही याद किया जाता। 2007 के बाद लगभग पूरा बिहार नियमित रूप से सूखे की चपेट में आ रहा है। 2008 की कोसी क्षेत्र की बाढ़ की घटना अधिक प्रवाह की वजह से न होकर विभागीय लापरवाही की वजह से हुई थी। कोसी का तटबंध नहीं टूटा होता तो यह वर्ष भी सूखे की भेंट ही चढ़ गया था। इस तरह से राज्य में सिंचाई के लिए पानी के उपयोग की वर्तमान स्थिति किसी भी पैमाने से संतोषजनक नहीं कही जा सकती है।

बोल मछली कितना पानी…
1966-67 और 1986-87 के बीच वर्षा के आंकड़ों के आधार पर बिहार राज्य के दूसरे सिंचाई आयोग ने बिहार के विभिन्न राज्यों में पड़ने वाले सूखे की बारंबारता का बड़ा ही दिलचस्प अध्ययन किया है। खगड़िया में जो कि उत्तर बिहार के सबसे बाढ़ प्रभावित जिलों में से एक है और इसने राज्य में एक डुबे जिले की शोहरत हासिल कर रखी है, इन बीस वर्षों में 07 बार सूखा पड़ा है। इस रिपोर्ट में इन बीस वर्षों में विभिन्न जिलों की एक सूचि तैयार की है, जिसे नीचे दिया जा रहा है-

उत्तर बिहार

07 साल

खगड़िया

06 साल

सहरसा (यह कभी राज्य और देश में बाढ़ की राजधानी हुआ करता था।) बेगूसराय और समस्तीपुर

05 साल

मधेपुरा और वैशाली

04 साल

कटिहार, पूर्णियां, मधुबनी, दरभंगा, पूर्वी चम्पारण, सीतामढ़ी, मुजफरपुर और सारण

03 साल

सिवान

02 साल

गोपालगंज

01 साल

पश्चिम चम्पारण

 



दक्षिण बिहार

08 वर्ष

मुंगेर

07 वर्ष

भागलपुर, रोहतास, गया, जहानाबाद, नवादा और औरंगाबाद

06 वर्ष

पटना और नालंदा

04 वर्ष

भोजपुर

 



प्रयास

Submitted by Editorial Team on Thu, 12/08/2022 - 13:06
सीतापुर का नैमिषारण्य तीर्थ क्षेत्र, फोटो साभार - उप्र सरकार
श्री नैभिषारण्य धाम तीर्थ परिषद के गठन को प्रदेश मंत्रिमएडल ने स्वीकृति प्रदान की, जिसके अध्यक्ष स्वयं मुख्यमंत्री होंगे। इसके अंतर्गत नैमिषारण्य की होली के अवसर पर चौरासी कोसी 5 दिवसीय परिक्रमा पथ और उस पर स्थापित सम्पूर्ण देश की संह्कृति एवं एकात्मता के वह सभी तीर्थ एवं उनके स्थल केंद्रित हैं। इस सम्पूर्ण नैमिशारण्य क्षेत्र में लोक भारती पिछले 10 वर्ष से कार्य कर रही है। नैमिषाराण्य क्षेत्र के भूगर्भ जल स्रोतो का अध्ययन एवं उनके पुनर्नीवन पर लगातार कार्य चल रहा है। वर्षा नल सरक्षण एवं संम्भरण हेतु तालाबें के पुनर्नीवन अनियान के जवर्गत 119 तालाबों का पृनरुद्धार लोक भारती के प्रयासों से सम्पन्न हुआ है।

नोटिस बोर्ड

Submitted by Shivendra on Tue, 09/06/2022 - 14:16
Source:
चरखा फीचर
'संजॉय घोष मीडिया अवार्ड्स – 2022
कार्य अनुभव के विवरण के साथ संक्षिप्त पाठ्यक्रम जीवन लगभग 800-1000 शब्दों का एक प्रस्ताव, जिसमें उस विशेष विषयगत क्षेत्र को रेखांकित किया गया हो, जिसमें आवेदक काम करना चाहता है. प्रस्ताव में अध्ययन की विशिष्ट भौगोलिक स्थिति, कार्यप्रणाली, चयनित विषय की प्रासंगिकता के साथ-साथ इन लेखों से अपेक्षित प्रभाव के बारे में विवरण शामिल होनी चाहिए. साथ ही, इस बात का उल्लेख होनी चाहिए कि देश के विकास से जुड़ी बहस में इसके योगदान किस प्रकार हो सकता है? कृपया आलेख प्रस्तुत करने वाली भाषा भी निर्दिष्ट करें। लेख अंग्रेजी, हिंदी या उर्दू में ही स्वीकार किए जाएंगे
Submitted by Shivendra on Tue, 08/23/2022 - 17:19
Source:
यूसर्क
जल विज्ञान प्रशिक्षण कार्यशाला
उत्तराखंड विज्ञान शिक्षा एवं अनुसंधान केंद्र द्वारा आज दिनांक 23.08.22 को तीन दिवसीय जल विज्ञान प्रशिक्षण प्रारंभ किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए यूसर्क की निदेशक प्रो.(डॉ.) अनीता रावत ने अपने संबोधन में कहा कि यूसर्क द्वारा जल के महत्व को देखते हुए विगत वर्ष 2021 को संयुक्त राष्ट्र की विश्व पर्यावरण दिवस की थीम "ईको सिस्टम रेस्टोरेशन" के अंर्तगत आयोजित कार्यक्रम के निष्कर्षों के क्रम में जल विज्ञान विषयक लेक्चर सीरीज एवं जल विज्ञान प्रशिक्षण कार्यक्रमों को प्रारंभ किया गया
Submitted by Shivendra on Mon, 07/25/2022 - 15:34
Source:
यूसर्क
जल शिक्षा व्याख्यान श्रृंखला
इस दौरान राष्ट्रीय पर्यावरण  इंजीनियरिंग अनुसंधान संस्था के वरिष्ठ वैज्ञानिक और अपशिष्ट जल विभाग विभाग के प्रमुख डॉक्टर रितेश विजय  सस्टेनेबल  वेस्ट वाटर ट्रीटमेंट फॉर लिक्विड वेस्ट मैनेजमेंट (Sustainable Wastewater Treatment for Liquid Waste Management) विषय  पर विशेषज्ञ तौर पर अपनी राय रखेंगे।

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खासम-खास

तालाब ज्ञान-संस्कृति : नींव से शिखर तक

Submitted by Editorial Team on Tue, 10/04/2022 - 16:13
Author
कृष्ण गोपाल 'व्यास’
talab-gyan-sanskriti-:-ninv-se-shikhar-tak
कूरम में पुनर्निर्मित समथमन मंदिर तालाब। फोटो - indiawaterportal
परम्परागत तालाबों पर अनुपम मिश्र की किताब ‘आज भी खरे हैं तालाब’, पहली बार, वर्ष 1993 में प्रकाशित हुई थी। इस किताब में अनुपम ने समाज से प्राप्त जानकारी के आधार पर भारत के विभिन्न भागों में बने तालाबों के बारे में व्यापक विवरण प्रस्तुत किया है। अर्थात आज भी खरे हैं तालाब में दर्ज विवरण परम्परागत तालाबों पर समाज की राय है। उनका दृष्टिबोध है। उन विवरणों में समाज की भावनायें, आस्था, मान्यतायें, रीति-रिवाज तथा परम्परागत तालाबों के निर्माण से जुड़े कर्मकाण्ड दर्ज हैं। प्रस्तुति और शैली अनुपम की है।

Content

देश भर में चली स्वच्छता की झाड़ू

Submitted by Hindi on Fri, 10/03/2014 - 10:48
Author
एब्सल्यूट इंडिया
Source
एब्सल्यूट इंडिया, 03 अक्तूबर 2014
Swachh Bharat
महाराष्ट्र, यूपी, बिहार, दिल्ली सहित देश भर में शुरू हुआ अभियान स्कूली बच्चों सहित तमाम सियासी दिग्गजों ने ली स्वच्छता की शपथ अपने-अपने संसदीय क्षेत्र में सांसदों और गृह मंत्री ने भी की सफाई
.नरेंद्र मोदी सरकार के स्वच्छ भारत अभियान के तहत केंद्र सरकार के लाखों कर्मचारियों ने गुरुवार को अपने दफ्तरों और आवासीय इलाके में स्वच्छता सुनिश्चित करने के लिए हर सप्ताह कम से कम दो घंटे काम करने का वचन लिया। केंद्र सरकार के प्रत्येक विभाग ने आज महात्मा गांधी की जयंती के अवसर पर अपने कर्मचारियों को शपथ दिलाने के लिए व्यापक बंदोबस्त किया था।

कहां सुधरी सफाईकर्मियों की हालत?

Submitted by Hindi on Fri, 10/03/2014 - 09:57
Author
एब्सल्यूट इंडिया
Source
एब्सल्यूट इंडिया, 03 अक्तूबर 2014
Sewage

चेन्नई में 24 मई 2003 और 17 अक्टूबर 2008 के बीच 17 सीवर कर्मचारियों की मौत, मैनहोलों या गटर की सफाई करते समय गंदी जहरीली गैस चढ़ने से हो गई। सफाई कर्मचारियों की ट्रेड यूनियनों का कहना है कि यह गिनती पिछले दो दशकों में 1,000 के नजदीक पहुंचती है।
.मशहूर भारतीय फिल्मकार सत्यजित रे ने अपनी एक फिल्म अमेरिका में प्रदर्शित की तो पहले शो में ही बहुत से अमेरिकी फिल्म बीच में ही छोड़कर आ गए क्योंकि सत्यजीत रे ने फिल्म के एक सीन में भारतीय लोगों को हाथों से खाना खाते हुए दिखाया था जिसे देखकर उन्हें वितृष्णा होने लगी थी।

बिहार और उसका पानी

Submitted by Hindi on Fri, 10/03/2014 - 09:07
Author
दिनेश कुमार मिश्र
flood in kosi
वर्ष 2008 कोसी का तटबंध नहीं टूटा होता तो यह वर्ष भी सूखे की भेंट ही चढ़ गया था। इस तरह से राज्य में सिंचाई के लिए पानी के उपयोग की वर्तमान स्थिति किसी भी पैमाने से संतोषजनक नहीं कही जा सकती है।

. पश्चिम बंगाल, उसके पूर्व में है, पश्चिम में उत्तर प्रदेश, दक्षिण मेें झारखंड और उत्तर में नेपाल से घिरा भारत का एक राज्य है बिहार। यहां की आबादी 10.38 करोड़ ( 2011) है और यह उत्तर प्रदेश-महाराष्ट्र के बाद भारत का सबसे अधिक आबादी वाला राज्य है। इसका भौगोलिक क्षेत्र 94163 वर्ग किमी है और 1102 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर के जनसंख्या घनत्व के साथ यह सघन आबादी वाला इलाका है। राज्य में लिंग अनुपात 1000 पुरुषों पर 916 महिलाओं का है। यहां की साक्षरता की दर अभी भी 63.82 (2011) प्रतिशत है। जिसमें 73.39 प्रतिशत पुरुष और 53.33 प्रतिशत महिलाएं साक्षर हैं। केवल दस प्रतिशत हिस्सा शहर में और बांकि आबादी गांव में रहती है।

बिहार भारत का सबसे अधिक बाढ़ग्रस्त राज्यों में है और यहां बाढ़ पीड़ितों का घनत्व सबसे अधिक है। भारत का 16.5 प्रतिशत बाढ़ प्रभावित क्षेत्र बिहार में पड़ता है। जबकि इतने ही क्षेत्र पर देश की 22.1 प्रतिशत बाढ़ प्रभावित जनता रहती है। राज्य में बाढ़ से प्रभावित होने वाला क्षेत्र आजादी के बाद लगातार बढ़ता रहा है। बिहार के द्वितीय सिंचाई आयोग की रिपोर्ट (1994) के अनुसार राज्य का बाढ़ प्रवण इलाका जो कि 1952 में मात्र 25 लाख हेक्टेयर था, वह 1994 में बढ़कर 68.8 लाख हेक्टेयर हो गया। 2008 की कोसी तटबंध में पड़ी दरार की वजह से बाढ़ प्रवण क्षेत्र में 4.153 लाख हेक्टेयर की अतिरिक्त वृद्धि हो गई क्योंकि इस दरार की वजह से सुपौल, सहरसा, अररिया, मधेपुरा और पूर्णियां के वह हिस्से बाढ़ की चपेट में आ गए जो अब तक सुरक्षित माने जाते थे। इस अतिरिक्त क्षेत्र को जोड़ देने पर राज्य का कुल बाढ़ प्रवण क्षेत्र लगभग 73 लाख हेक्टेयर हो जाता है। जो राज्य के कुल क्षेत्रफल का लगभग 78 प्रतिशत बैठता है।

एक ऐसा राज्य जिसकी 87 प्रतिशत आबादी आज भी कृषि को अपनी आजीविका का प्रमुख स्रोत मानती है। उसके लिए इतने बड़े क्षेत्र पर बाढ़ का प्रकोप बहुत घातक है। यह बात अलग है कि बिहार सरकार के जल संसाधन विभाग ने अभी तक इस वृद्धि का संज्ञान नहीं लिया है। सरकारी सूत्रों के अनुसार राज्य में लगभग 9.42 लाख हेक्टेयर जमीन जल जमाव से ग्रस्त है और इसमें से 8.36 लाख हेक्टेयर उत्तर भारत में अवस्थित है। इतने बड़े क्षेत्र पर जल जमाव के कारण राज्य की जनसंख्या घनत्व को देखते हुए कोई एक करोड़ लोगों की रोजी-रोटी जरूर छीनती होगी।

गंगा जो कि पूरे राज्य के लिए मास्टर ड्रेन का काम करती है, पश्चिम से पूर्व की दिशा में राज्य के बीचों-बीच बहती है। राज्य में इस नदी की लंबाई 432 किलोमीटर है। गंगा के उत्तर में अवस्थित मैदानी इलाका उत्तर बिहार कहलाता है और यह 08 बड़ी नदियों का क्रिड़ा क्षेत्र है, जिनके नाम घाघरा, गंडक, बूढ़ी गंडक, बागमती, अधवारा समूह, कमला, कोसी और महानंदा है। घाघरा और महानंदा क्रमशः उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल से होती हुई, बिहार में प्रवेश करती है। बूढ़ी गंडक को छोड़कर अन्य सभी नदियां उत्तर बिहार में नेपाल से आती हैं। बूढ़ी गंडक का उद्गम भले ही बिहार में हो पर इसका काफी बड़ा जल ग्रहण क्षेत्र नेपाल में पड़ता है। जहां से इसकी बहुत सी सहायक धाराएं आती हैं।

बिहार में गंगा दक्षिण दिशा से मिलने वाली है। मुख्य नदियां कर्मनाशा, सोन, पुनपुन, हरोहर, किउल, बडुआ और चान्दन हैं। उत्तर की ओर बहने वाली इन नदियों का उद्गम विंध्याचल, छोटानागपुर और राजमहल पर्वतमालाओं में स्थित है। इनमें से कोई भी नदी ग्लेशियर से नहीं निकलती है। इसलिए गर्मी के महीनों में इनका प्रवाह बहुत ही कम होता है।

यहां की जमीन का ढाल दक्षिण से उत्तर की ओर है। पटना के पूर्व में गंगा नदी का दाहिना किनारा स्वाभाविक रूप से ऊपर उठने लगता है और एक तरह से प्राकृतिक तटबंध का काम करता है। एक कृत्रिम तटबंध की तरह यह भी जल निकासी में बाधा डालता है जिसके कारण गंगा के दक्षिण का एक अच्छा खासा इलाका जल जमाव में फंसा रहता है। गंगा के दक्षिण में एक तरह से तालों की श्रृंखला है। जिसमें फतुहा ताल, बख्तियारपुर ताल, बाढ़ ताल, मोर ताल, मोकामा ताल, बढ़हिया ताल और सिंघौला ताल मुख्य हैं।

बिहार भारत का सबसे अधिक बाढ़ग्रस्त राज्यों में है और यहां बाढ़ पीड़ितों का घनत्व सबसे अधिक है। भारत का 16.5 प्रतिशत बाढ़ प्रभावित क्षेत्र बिहार में पड़ता है। जबकि इतने ही क्षेत्र पर देश की 22.1 प्रतिशत बाढ़ प्रभावित जनता रहती है। राज्य में बाढ़ से प्रभावित होने वाला क्षेत्र आजादी के बाद लगातार बढ़ता रहा है। बिहार के द्वितीय सिंचाई आयोग की रिपोर्ट (1994) के अनुसार राज्य का बाढ़ प्रवण इलाका जो कि 1952 में मात्र 25 लाख हेक्टेयर था, वह 1994 में बढ़कर 68.8 लाख हेक्टेयर हो गया।गंगा के पानी में उफान होने पर उसका पानी भी इन तालों में भरता है। लगभग 1,00,000 हेक्टेयर डूबी हुई जमीन साल में कुछ समय के लिए पानी से ऊपर निकलती है। जिस पर रबी की जबर्दस्त फसल होती है। जहां पानी के इतने स्रोत हों वहां खेती समृद्ध होनी चाहिए, पर क्या सचमुच ऐसा होता है?

राज्य की बड़ी सिंचाई परियोजनाओं में (जिसका कमान क्षेत्र 10,000 हेक्टेयर से ज्यादा है) उत्तर बिहार की कोसी और गंडक परियोजनाओं तथा दक्षिण बिहार की सोन नहरों का नेटवर्क शामिल है। इसके अलावाा बहुत सी सिंचाई परियोजनाएं मध्यम दर्जे की गिनती में आती हैं (जिनका कमान क्षेत्र 2000 हेक्टेयर से लेकर 10,000 हेक्टेयर तक है) और सैकड़ों लघु सिंचाई परियोजनाएं भी कार्यरत हैं।

फिर मार्च 2015 तक बड़ी मध्यम योजनाओं से अर्जित सिंचाई क्षमता मात्र 29.13 लाख हेक्टेयर थी। (सिंचाई नेटवर्क से जुड़ा हुआ क्षेत्र) लेकिन जो वास्तविक सिंचाई थी पिछले 20 वर्षों से 16 लाख हेक्टेयर के आस-पास टिकी रही। उपलब्ध आंकड़ों पर एक नजर डालने से पता लगता है कि राज्य में 1990 तक तो सिंचाई क्षमता और वास्तविक सिंचाई के आंकड़े दोनों ही बढ़ते रहे। मगर उसके बाद सिंचाई क्षमता भले ही ऊपर की ओर बढ़ती रही हो मगर वास्तविक सिंचाई का रकबा नीचे गिरने लगा।

1990 और 2000 (जब झारखंड एक अलग राज्य बना) के बीच अविभाजित बिहार में 1,13,000 हेक्टेयर की अतिरिक्त सिंचाई क्षमता अर्जित की गई मगर इसी दौरान जो वास्तव में होने वाली सिंचाई थी उसमें 5,53,000 हेक्टेयर की गिरावट आई। सन 2000 में राज्य विभाजन के बाद मार्च 2001 से 2013 तक 2,96,000 हेक्टेयर की सिंचाई क्षमता अर्जित की गई मगर सिंचित क्षेत्र केवल दो बार 17 लाख हेक्टेयर के आंकड़े को पार कर पाया।

सिंचाई के लिए जो टैक्स की वसूली राज्य सरकार करती है, यह आज तक 16 लाख हेक्टेयर के आंकड़े को छु नहीं पाई। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) के शासन काल में मार्च 2006 से मार्च 2013 के बीच वृहद और मध्यम सिंचाई योजनाओं में 2,76,000 हेक्टेयर की क्षमता अर्जित की गई। मगर वास्तविक सिंचाई में 98000 हेक्टेयर की गिरावट आई। आश्चर्य की बात है कि इस विषय पर जब भी संवैधानिक संस्थाओं में बहस होती है तो सत्ता पक्ष सिंचाई के सृजित क्षमता में होने वाली बढ़ोत्तरी को लेकर अपनी पीठ खूब ठोंकता है।

मगर ठहरी हुई सिंचाई व्यवस्था पर विपक्ष भी उंगली बिरले ही उठाता है। उसे कहीं ना कहीं यह डर जरूर रहता है कि कभी वह सत्ता में आ गया तो इस तरह के परेशान करने वाले सवालों का जवाब उसे भी देना पड़ सकता है। पिछले वर्षों से सिंचित होने वाला यह क्षेत्र 16 लाख हेक्टेयर के आस-पास बना हुआ है। यह ध्यान रखते हुए कि आजादी के समय, अगस्त 1947 में राज्य का सिंचित क्षेत्र 4,04,000 हेक्टेयर था। पिछले 67 वर्षों में केवल 12 लाख हेक्टेयर की वृद्धि कोई उत्साहवर्द्धक वृद्धि नहीं है। विकास की अगर यही दर कायम रहे तो राज्य में पूरी सिंचाई विकसित करने में अब से 200 वर्ष से भी अधिक समय लग जाएगा।

जल संसाधन विभाग (लघु सिंचाई) की रिपोर्टों से यह अंदाजा लगता है कि बिहार से झारखंड के अलग होने के समय वर्ष 2000 तक राज्य में 2,22,000 हेक्टेयर क्षेत्र पर सिंचाई क्षमता अर्जित की गई। जिसमें से 84000 हेक्टेयर सतही स्रोतों से और 1,32,000 हेक्टेयर क्षेत्र लिफ्ट इरिगेशन की योजनाओं तथा बिजली चालित पंपों के अधीन थी। लेकिन रिपोर्टो के अनुसार जो सतही सिंचाई की योजनाएं हैं वह 60 प्रतिशत से क्षमता पर काम नहीं कर पाती हैं और लिफ्ट इरिगेशन की दक्षता तो सिर्फ 10 प्रतिशत ही है। मशीनों का पुराना पड़ जाना बिजली आपूर्ति में अनियमितता, अक्षम प्रबंधन और उपयोग करने वालों की उदासीनता, कुछ ऐसे कारण हैं जिनकी वजह से इन सुविधाओं का उपयोग नहीं हो पाता।

राज्य में सन 2000 में कुल 2316 लिफ्ट इरिगेशन की योजनाएं थीं, जिनमें 679 बिजली के दोषों के कारण काम नहीं कर पाती थीं, 104 के काम न करने के पीछे यांत्रिक दोष थे, 826 इन दोनों कारणों के सम्मिश्रण से काम नहीं कर पाती थीं। इसके अलावा 221 योजनाएं ऐसी थीं कि जो नदी के पंप वेल से दूर खिसक जाने के कारण काम नहीं कर पाती थीं। इसके अलावा 221 योजनाएं ऐसी थीं जो नदी के पंप वेल से दूर खिसक जाने की वजह से या पंप वेल के बालू में दफन हो जाने की वजह से बेकार हो गईं।

.इस तरह ले देकर 480 योजनाएं (21 प्रतिशत) ही कार्यकारी थीं। राज्य में 5558 ट्यूब वेल्स थे जिनका कूल कमान क्षेत्र 3,07,000 हेक्टेयर है। इसमें से 5,122 को ही बिजली मिल पाई। इन सरकारी ट्यूब वेल्स की कार्यक्षमता उत्साहवर्धक नहीं है। इनमें 2886 सेट बिजली के दोषों के कारण काम नहीं करते, 85 यांत्रिक कारणों से बेकार बने हुए हैं और 302 के लिए ट्रांसफार्मरों का काम न करना रुकावट डालता है। लघु सिंचाई विभाग की वार्षिक रिपोर्ट 2000 के अनुसार, 1,12,000 हेक्टेयर की सिंचाई क्षमता के स्थान पर 1990-2000 में असली सिंचाई क्षेत्र 19,468 हेक्टेयर ही हो पाया।

यह तो हुई बिहार के विभाजन के समय की स्थिति लेकिन फिलहाल बिहार में लघु सिंचाई की योजनाओं से 64.01 लाख हेक्टेयर जमीन सींचे जाने का प्रस्ताव है। इसमें 15.44 लाख हेक्टेयर वह जमीन भी शामिल है, जिसे आहर पाइन की मदद से सींचा जाएगा और इसे पिछले वर्ष ही इस मद में जोड़ा गया है। बिहार सरकार की लघु सिंचाई विभाग की 2011-12 की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार विभाग ने दसवीं पंचवर्षिय योजना के अंत तक 36.26 लाख हेक्टेयर के सिंचाई की क्षमता अर्जित की थी, मगर उससे वास्तविक सिंचाई 0.72 लाख हेक्टेयर पर ही हो पाती थी और इसमें भी निजी नल कूपों से 8.15 लाख हेक्टेयर क्षेत्र पर सिंचाई होती थी।

जो कि इस माध्यम से सिंचाई का 84 प्रतिशत था। इस समय तक राज्य के 4575 नलकूपों से केवल 1630 नलकूप चालू हालत में थे। ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में विभाग ने बड़ी रकम खर्च की मगर नतीजा वही ढाक के तीन पात।

भारत सरकार राज्य में सिंचाई की बदहाली के लिए चिंतित थीं और उसने 2009 में एक विशेष टास्क फोर्स का गठन करके इस समस्या का अध्ययन करवाया। टास्क फोर्स की रिपोर्ट (2009) कहती है कि राज्य का एक फसली क्षेत्र छप्पन हजार वर्ग किलोमीटर और दुफसली इलाका चैबीस हजार वर्ग किमी है। यानी कुल मिलाकर अस्सी हजार वर्ग किमी क्षेत्र पर राज्य में खेती संभव है। राज्य में हमेशा आने वाली बाढ़ से उस क्षेत्र का इन्फ्रास्ट्राक्चर पूरी तरह ध्वस्त हो जाता है जो बाढ़ से प्रभावित होता है। जहां सिंचाई क्षमता अर्जित कर ली गई है।

लेकिन वह बाढ़ से सुरक्षित नहीं है। यह अर्जित सिंचाई है, इसके अलावा आर्थिक संसाधनों का भी अभाव है। इस विभाग का जो संगठनात्मक ढांचा है उसके प्रबंधन, कर्मचारियों के चयन तथा उनकी कार्यक्षमता को देखते हुए यह लगता है कि उसमें बहुआयामी बड़े कामों को कर पाने की क्षमता ही नहीं है। ज्यादा से ज्यादा वह पहले से बनी हुई परियोजना का संचालन और रख-रखाव भी कर सकता है। फील्ड लेवल पर तो हालात और भी ज्यादा बदत्तर है।’’ इसके बाद तो कहने को कुछ बचता ही नहीं।

बिहार के पास बहुत पानी है और बाढ़ की भी कमी नहीं है मगर यह वही राज्य है जो कि लगातार सूखे की मार भी झेलता है। इस राज्य में झारखंड समेत 1250 मिलीमीटर से लेकर 1350 मिलीमीटर तक हर साल बारिश होती है और इसमें से अधिकांश किसान खेती के लिए बारिश पर ही निर्भर करते हैं, इसलिए धान की बुआई, रोपनी और दूब आने के समय में देरी होना आम बात है और इस से फसल को नुकसान पहुंचता है। सही समय पर सही मात्रा में बारिश न होने की वजह से किसानों की फसल का उत्पादन आधे से लेकर तीन चौथाई तक मारा जाता है।

राज्य दूसरा सिंचाई आयोग कहता है- ‘वह क्षेत्र जो कि बीस वर्षो में पांच से छह बार सूखे का प्रकोप झेलते हैं, उन्हें सूखा प्रवण क्षेत्र कहा जा सकता है। जबकि जहां सात से आठ बार सूखा पड़ जाए उसे लगातार पड़ने वाला सूखे का क्षेत्र कहा जा सकता है। (खंड 03, पृष्ठ 34)’ इस परिभाषा के अनुसार खगड़िया का शुमार लगातार पड़ने वाले सूखे के क्षेत्र के रूप में भी किया जा सकता है। लेकिन एक दूसरे स्थान पर यह रिपोर्ट यह भी कहती है कि उत्तर बिहार में कोई इलाका सूखा प्रवण नहीं है। (खंड 03, पृष्ठ 360।

.आयोग की रिपोर्ट में आगे यह भी कहती है कि बिहार के कुल 16.36 लाख हेक्टेयर के सूखा प्रवण क्षेत्र में 29000 हेक्टेयर गंगा स्टेम में और 16.07 लाख क्षेत्र दक्षिण बिहार में अवस्थित है। जल संसाधन विभाग संभवतः उत्तर बिहार के किसी भी भाग को सूखा ग्रस्त नहीं मानता। यद्यपि 2009 और 2010 के दोनों वर्षों में उत्तर बिहार के कई जिलों को सूखा ग्रस्त घोषित करना पड़ा है।

अगर कुसहा में 2008 में कोसी तटबंध टूटने की घटना नहीं हुई होती तो 2008 का वर्ष भी बिहार में सूखे के वर्ष के रूप में ही याद किया जाता। 2007 के बाद लगभग पूरा बिहार नियमित रूप से सूखे की चपेट में आ रहा है। 2008 की कोसी क्षेत्र की बाढ़ की घटना अधिक प्रवाह की वजह से न होकर विभागीय लापरवाही की वजह से हुई थी। कोसी का तटबंध नहीं टूटा होता तो यह वर्ष भी सूखे की भेंट ही चढ़ गया था। इस तरह से राज्य में सिंचाई के लिए पानी के उपयोग की वर्तमान स्थिति किसी भी पैमाने से संतोषजनक नहीं कही जा सकती है।

बोल मछली कितना पानी…


1966-67 और 1986-87 के बीच वर्षा के आंकड़ों के आधार पर बिहार राज्य के दूसरे सिंचाई आयोग ने बिहार के विभिन्न राज्यों में पड़ने वाले सूखे की बारंबारता का बड़ा ही दिलचस्प अध्ययन किया है। खगड़िया में जो कि उत्तर बिहार के सबसे बाढ़ प्रभावित जिलों में से एक है और इसने राज्य में एक डुबे जिले की शोहरत हासिल कर रखी है, इन बीस वर्षों में 07 बार सूखा पड़ा है। इस रिपोर्ट में इन बीस वर्षों में विभिन्न जिलों की एक सूचि तैयार की है, जिसे नीचे दिया जा रहा है-

उत्तर बिहार

07 साल

खगड़िया

06 साल

सहरसा (यह कभी राज्य और देश में बाढ़ की राजधानी हुआ करता था।) बेगूसराय और समस्तीपुर

05 साल

मधेपुरा और वैशाली

04 साल

कटिहार, पूर्णियां, मधुबनी, दरभंगा, पूर्वी चम्पारण, सीतामढ़ी, मुजफरपुर और सारण

03 साल

सिवान

02 साल

गोपालगंज

01 साल

पश्चिम चम्पारण

 



दक्षिण बिहार

08 वर्ष

मुंगेर

07 वर्ष

भागलपुर, रोहतास, गया, जहानाबाद, नवादा और औरंगाबाद

06 वर्ष

पटना और नालंदा

04 वर्ष

भोजपुर

 



प्रयास

सीतापुर और हरदोई के 36 गांव मिलाकर हो रहा है ‘नैमिषारण्य तीर्थ विकास परिषद’ गठन  

Submitted by Editorial Team on Thu, 12/08/2022 - 13:06
sitapur-aur-hardoi-ke-36-gaon-milaakar-ho-raha-hai-'naimisharany-tirth-vikas-parishad'-gathan
Source
लोकसम्मान पत्रिका, दिसम्बर-2022
सीतापुर का नैमिषारण्य तीर्थ क्षेत्र, फोटो साभार - उप्र सरकार
श्री नैभिषारण्य धाम तीर्थ परिषद के गठन को प्रदेश मंत्रिमएडल ने स्वीकृति प्रदान की, जिसके अध्यक्ष स्वयं मुख्यमंत्री होंगे। इसके अंतर्गत नैमिषारण्य की होली के अवसर पर चौरासी कोसी 5 दिवसीय परिक्रमा पथ और उस पर स्थापित सम्पूर्ण देश की संह्कृति एवं एकात्मता के वह सभी तीर्थ एवं उनके स्थल केंद्रित हैं। इस सम्पूर्ण नैमिशारण्य क्षेत्र में लोक भारती पिछले 10 वर्ष से कार्य कर रही है। नैमिषाराण्य क्षेत्र के भूगर्भ जल स्रोतो का अध्ययन एवं उनके पुनर्नीवन पर लगातार कार्य चल रहा है। वर्षा नल सरक्षण एवं संम्भरण हेतु तालाबें के पुनर्नीवन अनियान के जवर्गत 119 तालाबों का पृनरुद्धार लोक भारती के प्रयासों से सम्पन्न हुआ है।

नोटिस बोर्ड

'संजॉय घोष मीडिया अवार्ड्स – 2022

Submitted by Shivendra on Tue, 09/06/2022 - 14:16
sanjoy-ghosh-media-awards-–-2022
Source
चरखा फीचर
'संजॉय घोष मीडिया अवार्ड्स – 2022
कार्य अनुभव के विवरण के साथ संक्षिप्त पाठ्यक्रम जीवन लगभग 800-1000 शब्दों का एक प्रस्ताव, जिसमें उस विशेष विषयगत क्षेत्र को रेखांकित किया गया हो, जिसमें आवेदक काम करना चाहता है. प्रस्ताव में अध्ययन की विशिष्ट भौगोलिक स्थिति, कार्यप्रणाली, चयनित विषय की प्रासंगिकता के साथ-साथ इन लेखों से अपेक्षित प्रभाव के बारे में विवरण शामिल होनी चाहिए. साथ ही, इस बात का उल्लेख होनी चाहिए कि देश के विकास से जुड़ी बहस में इसके योगदान किस प्रकार हो सकता है? कृपया आलेख प्रस्तुत करने वाली भाषा भी निर्दिष्ट करें। लेख अंग्रेजी, हिंदी या उर्दू में ही स्वीकार किए जाएंगे

​यूसर्क द्वारा तीन दिवसीय जल विज्ञान प्रशिक्षण प्रारंभ

Submitted by Shivendra on Tue, 08/23/2022 - 17:19
USERC-dvara-tin-divasiy-jal-vigyan-prashikshan-prarambh
Source
यूसर्क
जल विज्ञान प्रशिक्षण कार्यशाला
उत्तराखंड विज्ञान शिक्षा एवं अनुसंधान केंद्र द्वारा आज दिनांक 23.08.22 को तीन दिवसीय जल विज्ञान प्रशिक्षण प्रारंभ किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए यूसर्क की निदेशक प्रो.(डॉ.) अनीता रावत ने अपने संबोधन में कहा कि यूसर्क द्वारा जल के महत्व को देखते हुए विगत वर्ष 2021 को संयुक्त राष्ट्र की विश्व पर्यावरण दिवस की थीम "ईको सिस्टम रेस्टोरेशन" के अंर्तगत आयोजित कार्यक्रम के निष्कर्षों के क्रम में जल विज्ञान विषयक लेक्चर सीरीज एवं जल विज्ञान प्रशिक्षण कार्यक्रमों को प्रारंभ किया गया

28 जुलाई को यूसर्क द्वारा आयोजित जल शिक्षा व्याख्यान श्रृंखला पर भाग लेने के लिए पंजीकरण करायें

Submitted by Shivendra on Mon, 07/25/2022 - 15:34
28-july-ko-ayojit-hone-vale-jal-shiksha-vyakhyan-shrinkhala-par-bhag-lene-ke-liye-panjikaran-karayen
Source
यूसर्क
जल शिक्षा व्याख्यान श्रृंखला
इस दौरान राष्ट्रीय पर्यावरण  इंजीनियरिंग अनुसंधान संस्था के वरिष्ठ वैज्ञानिक और अपशिष्ट जल विभाग विभाग के प्रमुख डॉक्टर रितेश विजय  सस्टेनेबल  वेस्ट वाटर ट्रीटमेंट फॉर लिक्विड वेस्ट मैनेजमेंट (Sustainable Wastewater Treatment for Liquid Waste Management) विषय  पर विशेषज्ञ तौर पर अपनी राय रखेंगे।

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