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द्विपक्षीय शर्तों पर सहमति बनें
हम खुश हों कि अगले पांच साल में 100 अरब डॉलर के चीनी निवेश से सुविधा संपन्न रेलवे स्टेशन, रेलवे ट्रैक के विस्तार, तीव्र गति रेलगाड़ियों और अधिक औद्योगिक पार्क की हमारी भूख मिटेगी। कैलाश मानसरोवर के लिए नाथुला दर्रे से एक और रास्ता खुलेगा। इससे उत्तराखंड के मुख्यमंत्री नाराज हो रहे हैं।
हो सकता है कि सिक्क्मि के मुख्यमंत्री खुश हों। किंतु इस खुशी में हम यह कभी न भूलें कि जिस तरह जरूरत से ज्यादा किया गया भोजन जहर है, ठीक इसी तरह किसी भी संज्ञा या सर्वनाम का जरूरत से ज्यादा किया गया दोहन भी एक दिन जहर ही साबित होता है। चीन अपनी धरती पर यही कर रहा है। भारत अपने यहां यह न होने दे। चीन निवेश करे, किंतु द्विपक्षीय सहमत शर्तों पर। अभी-अभी गंगा जलमार्ग हेतु भारतीय अंतदेर्शीय जलमार्ग प्राधिकरण द्वारा जारी विज्ञापन में कहा गया है कि परामर्शदाताओं का चयन, रोजगार आदि विश्व बैंक उधारदाताओं के निर्देशों के अनुसार होगा। यह न हो।
लाभ के साथ, शुभ जरूरी
यह भी न हो कि निवेशकों की शर्त पर चलते-चलते भारत की सरकार भी निवेशक जैसी हो जाए। परियोजनाओं में वह भी सिर्फ लाभ ही देखे और सभी का शुभ भूल जाए। भारतीय परंपरा में व्यापारी, लाभ के साथ शुभ का गठजोड़ बनाकर व्यापार करता रहा है। ‘शुभ लाभ’ का यह गठजोड़ सरकार कभी न टूटने दें। यह मैं इसलिए कह रहा हूं कि चूंकि मुझे भारत भी अब उसी वैश्विक होड़ में शामिल होता दिखाई दे रहा है, जिसमें चीन और अमेरिका हैं। याद कीजिए, राहुल गांधी जी ने चुनाव के वक्त कहा था कि यदि हम पूरी शक्ति से काम में लग जाएं, तो अगले कुछ सालों में चीन को पीछे छोड़ देंगे और नरेन्द्र मोदी ने चीन की बराबरी करने की इच्छा जाहिर की है।
अलग देश फिर एक मॉडल क्यों
भारत के दो शीर्ष दलों के दो शीर्ष नेताओं के साथ-साथ वर्तमान सरकार को भी एक बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि भारतीय विकास का भावी मॉडल चाहे जो हो, वह चीन सरीखा तो कतई नहीं हो सकता। चीनी अर्थव्यवस्था का मॉडल घटिया चीनी सामान की तरह है जिसका उत्पादन, उत्पादनकर्ता, उपलब्धता और बिक्री बहुत है, किंतु टिकाऊपन की गारंटी न के बराबर। चीन आर्थिक विकास की आंधी में बहता एक ऐसा राष्ट्र बन गया है, जिसे दूसरे के पैसे और सीमा पर कब्जे की चिंता है अपनी तथा दूसरे की जिंदगी व सेहत की चिंता कतई नहीं। यह मैं नहीं कह रहा खुद चीन के कारनामें कह रहे हैं।
समग्र विकास की अनदेखी गलत
यह सच है कि चीन ने अपनी आबादी को बोझ समझने की बजाय एक संसाधन मानकर बाजार के लिए उसका उपयोग करना सीख लिया है। यह बुरा नहीं है। ऐसा करके भारत भी आर्थिक विकास सूचकांक पर और आगे दिख सकता है। किंतु समग्र विकास के तमाम अन्य मानकों की अनदेखी करके यह करना खतरनाक होगा। त्रासदियों के आंकड़े बताते हैं कि आर्थिक दौड़ में आगे दिखता चीन प्राकृतिक समृद्धि, सेहत और सामाजिक मुस्कान के सूचकांक में काफी पिछड़ गया है। उपलब्ध रिपोर्ट बताती हैं कि चीनी सामाजिक परिवेश में तनाव गहराता जा रहा है।
चीन के लांझू शहर को आपूर्ति किया जा रहा पेयजल इतना जहरीला पाया गया कि आपूर्ति ही रोक देनी पड़ी। आपूर्ति जल में बेंजीन की मात्रा सामान्य से 20 गुना अधिक पाई गई यानी एक लीटर पानी में 200 मिलीग्राम! बेंजीन की इतनी अधिक मात्रा सीधे-सीधे कैंसर को अपनी गर्दन पकड़ लेने के लिए दिया गया न्योता है। अमेरिका की गैलप नाम अग्रणी सर्वे एजेंसी के मुताबिक, दुनिया के खुशहाल देशों की सूची में भारत, चीन से 19 पायदान ऊपर है। भारत के 19 फीसदी लोग अपने रोजमर्रा के काम और तरक्की से खुश हैं, तो चीन में मात्र नौ प्रतिशत। जनवरी, 2013 से अगस्त, 2013 के आठ महीनों में करीब 50 दिन ऐसे आए, जब चीन के किसी-न-किसी हिस्से में कुदरत का कहर बरपा। औसतन एक महीने में छह दिन! बाढ़, बर्फबारी, भयानक लू, जंगल की आग, भूकंप, खदान धसान और टायफून आदि के रूप में आई कुदरती प्रतिक्रिया के ये संदेशे कतई ऐसे नहीं हैं कि इन्हें नजरअंदाज किया जा सके। खासतौर पर तब, जब उत्तराखंड और कश्मीर के जलजले के रूप में ये संदेशे अब भारत में भी आने लगे हैं।
यह कमाना है या गंवाना?
सिर्फ छह जनवरी, 2013 की ही तारीख को लें तो चीन में व्यापक बर्फबारी से सात लाख, 70 हजार लोगों के प्रभावित होने का आंकड़ा है। प्रदूषण की वजह से चीन की 33 लाख हेक्टेयर भूमि खेती लायक ही नहीं बची। ऐसी भूमि में उत्पादित फसल को जहरीला करार दिया गया है। तिब्बत को वह ‘क्रिटिकल जोन’ बनाने में लगा ही हुआ है। खबर है कि अपने परमाणु कचरे के लिए वह तिब्बत को ‘डंप एरिया’ के तौर पर इस्तेमाल कर रहा है।
तिब्बत में मूल स्रोत वाली नदियों में बहकर आने वाले परमाणु कचरा उत्तर पूर्व भारत को बीमार ही करेगा। ऐसे नजारे संयुक्त राष्ट्र देशों के भी हैं। एक रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष-2013 में प्राकृतिक आपदा की वजह से दुनिया ने 192 बिलियन डॉलर खो दिए। आपदा का यह कहर वर्ष 2014 में भी जारी है। विकसित कहे जाने वाले कई देश स्वयं को बचाने के लिए ज्यादा कचरा फेंकने वाले उद्योगों को दूसरे ऐसे देशों में ले जा रहे हैं, जहां प्रति व्यक्ति आय कम है। क्या ये किसी अर्थव्यवस्था के ऐसा होने का संकेत हैं कि उससे प्रेरित हुआ जा सके? ऐसी मलिन अर्थव्यवस्था में तब्दील हो जाने की बेसब्री उचित है? क्या भारत को इससे बचना नहीं चाहिए?
जहरीला पानी: कैंसर को न्योता
गौरतलब है कि जिस चीनी विकास की दुहाई देते हम नहीं थक रहे, उसी चीन के बीजिंग, शंघाई और ग्वांगझो जैसे नामी शहरों के बाशिंदे प्रदूषण की वजह से गंभीर बीमारियों के बड़े पैमाने पर शिकार बन रहे हैं। चीन के गांसू प्रांत के लांझू शहर पर औद्योगीकरण इस कदर हावी है कि लांझू चीन के सर्वाधिक प्रदूषित शहरों में शुमार हो गया है। बीते 11 अप्रैल की ही घटना है। लांझू शहर को आपूर्ति कियाजा रहा पेयजल इतना जहरीला पाया गया कि आपूर्ति ही रोक देनी पड़ी।
आपूर्ति जल में बेंजीन की मात्रा सामान्य से 20 गुना अधिक पाई गई यानी एक लीटर पानी में 200 मिलीग्राम! बेंजीन की इतनी अधिक मात्रा सीधे-सीधे कैंसर को अपनी गर्दन पकड़ लेने के लिए दिया गया न्योता है। प्रशासन ने आपूर्ति रोक जरूर दी, लेकिन इससे आपूर्ति के लिए जिम्मेदार ‘विओलिया वाटर’ नामक ब्रितानी कंपनी की जिम्मेदारी पर सवालिया निशान छोटा नहीं हो जाता। भारत के लिए इस पक्ष पर गौर करना बेहद जरूरी है। गौरतलब है कि यह वही विओलिया वाटर है, जिसकी भारतीय संस्करण बनी ’विओलिया इंडिया’ नागपुर नगर निगम और दिल्ली जल बोर्ड के साथ हुए करार के साथ ही विवादों के घेरे में है।
विओलिया वाटर का कलंक हम धो रहे हैं
यदि चीन जैसे सख्त कानून वाले देश में ‘विओलिया वाटर’ जानलेवा पानी की आपूर्ति करके भी कायम है और इससे ‘पीपीपी’ मॉडल में भ्रष्टाचार की पूरी संभावना की मौजूदगी का सत्य स्थापित होता ही है। बावजूद इसके यदि भारतीय जनता पार्टी के घोषणापत्र में उक्त तीन पी के साथ लोंगों को जोड़कर चार पी यानी ‘पीपीपीपी’ की बात कही गई थी, तो अच्छी तरह समझ लीजिए ‘मनरेगा’ की तरह ‘पीपीपीपी’ भी आखिरी लाइन में खड़े व्यक्ति को बेईमान बनाने वाला साबित होगा। अतः कम से कम बुनियादी ढांचागत क्षेत्र के विकास व बुनियादी जरूरतों की पूर्ति वाले सेवा क्षेत्र में यह मॉडल नहीं अपनाना चाहिए।
बिहार, आसाम, बंगाल और पूर्वी उत्तर प्रदेश ये मुख्यतः बाढ़ के इलाके जाने जाते हैं। परंतु पिछले कुछ वर्षों से प्रकृति ने बाढ़ के संदर्भ में ‘उल्टी गंगा बहना’ मुहावरे को साकार कर दिया है। इस वर्ष राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और मध्य प्रदेश में हुई बारिश ने तबाही मचा दी है। आश्चर्य तो यह है कि कुछ दिनों पहले इन इलाकों से पानी की कमी की खबरें आ रहीं थीं।
महाराष्ट्र को तो इस बार बाढ़ की प्राकृतिक विपदा रह-रहकर झेलनी पड़ी। राजस्थान में प्रत्येक साल जहां बूंद-बूंद के लिए लोग तरसते रहते हैं, वहीं इस बार प्रकृति ने उसे भी एक नए तरह की या यूं कहिये पारिस्थितिकी तंत्र में आ रहे जबरदस्त बदलाव से अनायास आए इस तरह की विपदा को झेलने की तैयारी की चेतावनी दे दी है।
इस साल बाढ़ ने अपना क्षेत्र बदला है और अगर हम इसे पहली चेतावनी के रूप में लेते हैं तो यह एक बड़ी भूल होगी। क्योंकि ग्लोबल वार्मिंग के बढ़ते खतरों के कारण पिछले 10 सालों में प्रकृति ने हमें अपने विकास की दिशा को पहचानने के लिए कई खतरे की घंटी सुनाई है। इस क्रम में ‘लू’ के क्षेत्र में दिन-ब-दिन विस्तार होना बहुत महत्वपूर्ण है। 2001-02 में लू का उड़ीसा और आंध्र प्रदेश में पहुंचने को वैज्ञानिकों और भूगोलविदों ने मानव समाज के लिए उभरते हुए एक बड़ी चिंता के रूप में रेखांकित किया था। मालूम हो कि 2 साल पूर्व कैलिफोर्निया लू की चपेट में आ गया था।
पेरिस का तापमान 32- 35 डिग्री तक पहुंच जाने से वहां कई लोगों की जान चली गई थी। सामान्यतः इन जगहों का तापमान शून्य से नीचे रहता है। लगभग इसी समय राजस्थान में नक्की झील के पूरी तरह से जम जाने को संघ आयोग सेवा के सिविल सर्विसेज की तैयारी में लगे छात्र और उनका दिशा निर्देशन करने वाले कोचिंग संस्थान तक ने इसे बड़ी गंभीरता से लिया और हॉट टॉपिक के रूप में विशेष महत्व दिया था।
ऐसी गड़बडि़यों के लिए पर्यावरणविद् व लेखक अनुपम मिश्र कहते हैं - “राज्य सरकार ने हमारी वर्षों से चली आ रही पारंपरिक व्यवस्था को बचाने की कभी कोई कोशिश नहीं की। बल्कि उसे बाधा ही पहुंचाई है। हमारे समाज की उन पारंपरिक व्यवस्थाओं को खारिज करने के लिए सरकार व उसके पर्यावरण मंत्रालय ने बस कुछ सुंदर व आकर्षक लगने वाले शब्द और मुहावरे के गढ़ने की दिशा में ही काम किया है।’ देश के अंदर तबाही मचेगी तो राष्ट्रव्यापी चिंता तो जाहिर सी बात होगी ही। लेकिन ग्लोबल वार्मिंग के बढ़ते इस खतरे को कम करने की दिशा में केद्र और किसी राज्य के सरकार ने बहुत महत्वपूर्ण कुछ कदम उठाए हों, ऐसा नहीं जान पड़ता है। बल्कि सरकार की मशीनरियों ने बाढ़-सुखाड़ के इस सालाना खतरे को एक उद्योग के रूप में स्थापित करके जहां मौका मिला वहां इसका भरपूर लाभ उठाया गया।
इस संदर्भ में कई धांधलियां समाज के सामने अब तक उजागर हो चुकी हैं। यही वजह है कि आजादी के छह दशक के बाद भी हम इतने पानी वाले देश होने के बावजूद कभी पानी को तरसते नजर आते हैं और कभी तो औसत के आसपास बारिश होने पर भी पानी से तौबा करते नजर आते हैं। इसको नियंत्रित करने के नाम पर ऐसी नीतियां समाज पर थोपीं गई हैं, जो निहायत ही घटिया और अवैज्ञानिक है। बाढ़ से बचने के लिए ‘बाढ़ -नियंत्रण समिति’ और ‘नदी -जोड़ो’ आदि की योजना लाई गई। बाढ़ नियंत्रण समिति के निर्माण के बाद बाढ़ के क्षेत्र में व्यापक रूप से वृद्धि हुई है।
सरकार ने इस खतरे से बचने के लिए जो उपाय समाज के सामने प्रस्तुत किये हैं, उसकी समीक्षा अभी आयी बाढ़ के परिप्रेक्ष्य में की जानी चाहिए। वर्ष 2002 में एक बहुत बड़ी लगभग 560 करोड़ की लागत वाली परियोजना ‘नदी जोड़ो’ का प्रस्ताव सुरेश प्रभु के नेतृत्व में यह तर्क देकर आया था कि इससे हर साल आने वाली बाढ़ और सुखाड़ की समस्या से निपटा जा सकेगा। उस समय यह तर्क दिया गया था कि हिमालय से निकलने वाली पूर्व में बहने वाली नदियों की अतिरिक्त जलराशि को प्रायद्वीपीय पश्चिम और द़िक्षण की नदियों को दे देंगेे।
अब यहां सवाल यह उठता है कि जब सामान्य बारिश में इन राज्यों की हालत इतनी बिगड़ जा रही है तब पूर्व की सदानीरा नदियों से पश्चिम और दक्षिण की नदियां अतिरिक्त जलराशि लेने को किस माद्दे पर सक्षम होगी? ऐसे तमाम अनुभवों के होते हुए नदियों को जोड़ने और तोड़ने का खेल जारी है। केन और बेतवा नदी को जोड़ने के लिए हरी झंडी पिछले ही साल 25 अगस्त को मुलायम सिंह यादव की सरकार ने तमाम पर्यावरणीय, राहत और पुनर्वास संबंधी आशंकाओं के रहते दे दिया।
नहरें पानी लाने का काम करती हैं और नदियां पानी ले जाने का काम करती हैं। नदियों के कारण आए बाढ़ से पुराने समय में तबाही नहीं के बराबर हुआ करती थीं। नदियों को जगह-जगह बांध दिए जाने से उनमें अवसाद ज्यादा टिकना शुरू हो गया है। परिणामतः नदियों का तल उथला होता चला जा रहा है। अब औसत या औसत से थेाड़ी कम बारिश से ही नदियां प्रलंयकारी हो उठती हैं। इसलिए हमें सिंचाई और पीने के पानी की निर्भरता नहरों पर कम करके अपनी पुरानी पारंपरिक तरीकों को पुर्नजीवित करने की तरफ ध्यान देना चाहिए। ताल-तलैयों, पाटपानी, जातकुड़ी, कुओं आदि की ओर लौट जाना ही बेहतरी होगी
इसी मौके पर मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री बाबूलाल गौर ने चंबल और पार्वती नदी को जोड़ने की इच्छा जाहिर कर दी थी। मुलायम सिंह यादव की तात्कालिक आशंकाएं वाजिब थीं क्योंकि पर्यावरणीय परिवर्तन एक लंबी प्रक्रिया के तहत स्वाभाविक तौर पर हो तो अनुकूल परिणाम देती है, अन्यथा ऐसी आपदाएं उत्पन्न करती हैं, जिसकी भरपाई कर पाना किसी भी समाज के लिए बहुत ही मुश्किल हो जाता है। राजस्थान के बाड़मेर जिला और मध्य प्रदेश के कुछ हिस्सों को अगर छोड़ दें तो प्रत्येक साल की औसत वर्षा से इस साल कहीं भी ज्यादा वर्षा नहीं हुई है।यह जरूर हुआ है कि दस-पन्द्रह दिन में गिरने वाली औसत वर्षा इस साल दो-चार दिन में गिर गई। इन राज्यों के ऐसे छोटे-छोटे बांध जिनके नाम समाज में कुछ कम प्रतिष्ठित रहें हैं उन्हें अचानक खोलने की नौबत के आ जाने से समाज को बाढ़ की विभीषिका झेलनी पड़ रही है। देश के अंदर अभी कई ऐसी बड़ी प्रतिष्ठित परियोजना काम कर रहीं हैं, कभी उसे खोलना पड़ा तो उसकी तबाही का अंदाजा शायद हम नहीं लगा सकते हैं।
दरअसल सिद्धांत यह है कि नहरें पानी लाने का काम करती हैं और नदियां पानी ले जाने का काम करती हैं। नदियों के कारण आए बाढ़ से पुराने समय में तबाही नहीं के बराबर हुआ करती थीं। नदियों को जगह-जगह बांध दिए जाने से उनमें अवसाद ज्यादा टिकना शुरू हो गया है।
परिणामतः नदियों का तल उथला होता चला जा रहा है। अब औसत या औसत से थेाड़ी कम बारिश से ही नदियां प्रलंयकारी हो उठती हैं। इसलिए हमें सिंचाई और पीने के पानी की निर्भरता नहरों पर कम करके अपनी पुरानी पारंपरिक तरीकों को पुर्नजीवित करने की तरफ ध्यान देना चाहिए। ताल-तलैयों, पाटपानी, जातकुड़ी, कुओं आदि की ओर लौट जाना ही बेहतरी होगी।
यहां पर राष्ट्रपति भवन में पानी की कमी से संबंधित एक किस्से का स्मरण हो आया है। राष्ट्रपति भवन में पानी की कमी को दूर करने के लिए ‘तरूण भारत संघ’ को आमंत्रित किया गया कि वे यहां आएं और पानी की कमी के लिए उपयुक्त जगह ढूंढ़कर बताएं। राजेन्द्र सिंह ने इस काम में निपुण राजस्थान के एक ग्रामीण गोपाल सिंह को बुलवाया। और गोपाल सिंह के बताए जगह पर तालाब खोदी गई और आज वहां पानी की दिक्कत नहीं है। कहानी कहने का तात्पर्य यह है कि लोग अपनी हजारों साल से मानी हुई व्यवस्था को यूं ही नहीं ठुकराएं।
अगर विकास की यही प्रक्रिया चलती रही तो आज नहीं तो कल उन्हें मुड़कर अपनी व्यवस्था में लौटना होगा। क्योंकि जल को रिचार्ज करने की सबसे अच्छी पद्धति ताल-तलैयों द्वारा ही हो सकती है।
जिन छोटे बांधों को खोला गया उनमें उकाई के खोले जाने से सूरत, धारोई और वानकवोरी से गुजरात, कोटा बांध से पानी के छोड़े जाने के कारण राजस्थान और मध्य प्रदेश के भिंड जिले के लगभग 10 गांव, सांगली और खड़गवासला के पास कोई छोटे बांध खोले जाने से महाराष्ट्र में बाढ़ आई है। पंचमहाल और आणंद की बाढ़ भी इसी तरीके के छोटे और मंझोले किस्म के बांध खोले जाने से आई है।
दुर्भाग्य तो यह है कि अगस्त का महीना समाप्त हो चुका है लेकिन बिहार, बंगाल और आसाम में इतनी भी बारिश नहीं हुई कि किसान धान की रोपाई कर सकेे। इन हिस्सों में राज्य सरकार की नीतियों और मानव समुदाय की कुछ लाचारियों की वजह से बाढ़ से निश्चित तौर पर प्रत्येक साल तबाही आती है। लेकिन यह भी उतना ही सच है कि बाढ़ का इंतजार यहां के किसान करते हैं। बाढ़ प्रकृति के चक्र का एक महत्वपूर्ण पहलू है। परंतु हमारे विकास के मानदंड प्रकृति की दिनचर्या के साथ तालमेल बिठाकर तय नहीं किए जा रहे हैं। इसलिए वह हमारे लिए कभी सुखद या बाट जोहे जाने वाले स्थिति का निर्माण नहीं कर सकते हैं।
जल, जंगल और जमीन - उलट-पुलट पर्यावरण
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क्रम
अध्याय
पुस्तक परिचय - जल, जंगल और जमीन - उलट-पुलट पर्यावरण1
चाहत मुनाफा उगाने की
2
बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के आगे झुकती सरकार
3
खेती को उद्योग बनने से बचाएँ
4
लबालब पानी वाले देश में विचार का सूखा
5
उदारीकरण में उदारता किसके लिये
6
डूबता टिहरी, तैरते सवाल
7
मीठी नदी का कोप
8
कहाँ जाएँ किसान
9
पुनर्वास की हो राष्ट्रीय नीति
10
उड़ीसा में अधिकार माँगते आदिवासी
11
बाढ़ की उल्टी गंगा
12
पुनर्वास के नाम पर एक नई आस
13
पर्यावरण आंदोलन की हकीकत
14
वनवासियों की व्यथा
15
बाढ़ का शहरीकरण
16
बोतलबन्द पानी और निजीकरण
17
तभी मिलेगा नदियों में साफ पानी
18
बड़े शहरों में घेंघा के बढ़ते खतरे
19
केन-बेतवा से जुड़े प्रश्न
20
बार-बार छले जाते हैं आदिवासी
21
हजारों करोड़ बहा दिये, गंगा फिर भी मैली
22
उजड़ने की कीमत पर विकास
23
वन अधिनियम के उड़ते परखचे
24
अस्तित्व के लिये लड़ रहे हैं आदिवासी
25
निशाने पर जनजातियाँ
26
किसान अब क्या करें
27
संकट के बाँध
28
लूटने के नए बहाने
29
बाढ़, सुखाड़ और आबादी
30
पानी सहेजने की कहानी
31
यज्ञ नहीं, यत्न से मिलेगा पानी
32
संसाधनों का असंतुलित दोहन: सोच का अकाल
33
पानी की पुरानी परंपरा ही दिलाएगी राहत
34
स्थानीय विरोध झेलते विशेष आर्थिक क्षेत्र
35
बड़े बाँध निर्माताओं से कुछ सवाल
36
बाढ़ को विकराल हमने बनाया
कितने अवैध कार्यों को लेकर रोक के आदेश भी हैं और आदेश के उल्लंघन का परिदृश्य भी। किसी भी न्यायतंत्र की इससे ज्यादा कमजोरी क्या हो सकती है, कि उसे अपने ही आदेश की पालना कराने के लिए कई-कई बार याद दिलाना पड़ेे। आखिर यह कब तक चलेगा और कैसे रुकेगा? बहस का बुनियादी प्रश्न यही है।
आदेश 1: दादरी जलक्षेत्र
दादरी, ग्रेटर नोएडा का एक गांव है, बील अकबरपुर। यहां स्थित एक विशाल जलक्षेत्र 300 से अधिक दुर्लभ प्रजाति के पक्षियों का घर है। वास्तव में यह जलक्षेत्र नदी के निचले तट की ओर स्थित बाढ़ क्षेत्र है। रिकॉर्ड में दर्ज इसका मूल रकबा 72 हेक्टेयर था। वर्ष 2009 में जांच के दौरान कुछ पर्यावरण कार्यकताओं ने मात्र 32.7 हेक्टेयर रकबा ही अतिक्रमण के चंगुल से बाहर पाया; बाकि पर पहले ही अतिक्रमण हो चुका था। इस पर एक निजी विश्वविद्यालय द्वारा किए अतिक्रमण को लेकर मामला प्रकाश में आया।
इस संबंध में दायर मामले पर विचार करते हुए राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण ने वर्ष-2012 में इस जलक्षेत्र के 500 मीटर के दायरे में निर्माण पर रोक लगा दी थी। यह न्यायिक आदेश की प्रशासनिक अवहेलना नहीं तो और क्या है कि बावजूद इसके निर्माण जारी रहा। लिहाजा, दो वर्ष बाद 19 सितम्बर, 2014 को राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण मौके की वीडियोग्राफी का आदेश देने को विवश हुआ।
आदेश 2: नदी नियमन क्षेत्र
तीसरा मामला, एक दिन इसी साल के 18 सितम्बर का है। राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण ने ‘रिवर रेगुलेटरी जोन’ को लेकर स्पष्ट विचार पेश न करने को लेकर केन्द्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय को एक बार फिर कटघरे में खड़ा किया है। ‘रिवर रेगुलेटरी जोन’ यानी नदी नियमन क्षेत्र! समुद्री नियमन क्षेत्र की तर्ज पर इसे एक ऐसे क्षेत्र के रूप में परिभाषित और अधिसूचित किया जाना अपेक्षित है, ताकि नदियों के बाढ़ क्षेत्र में बढ़ आए अतिक्रमण को रोकने की कानूनी बाध्यता सुनिश्चित की जा सके।
गौरतलब है कि हिंडन-यमुना बाढ़ क्षेत्र में अतिक्रमण के इसी मामले की सुनवाई करते हुए पिछले साल न्यायाधिकरण ने मंत्रालय से पूछा था कि वह क्या कार्रवाई कर रहा है। दो दिसम्बर, 2013 यानी करीब साढ़े नौ महीने पहले मंत्रालय ने मंजूर किया था कि वह देश की सभी नदियों के किनारों को ‘नदी नियमन क्षेत्र’ के रूप में अधिसूचित करने के बारे में गंभीरता से विचार करेगा। मंत्रालय ने यह भी कहा था कि बाढ़ क्षेत्रों की वस्तुस्थिति और ‘नदी नियमन क्षेत्र’ कैसे हों; इस पर रिपोर्ट तैयार करने के लिए उसने विशेषज्ञ समूह गठित कर लिया है। किंतु पिछले साढे़ नौ महीनों में आठ सुनवाई के बावजूद मंत्रालय ने कोई रिपोर्ट पेश नहीं की।
आदेश 3: मूर्ति विसर्जन
बीते 19 सितम्बर को अदालती आदेश की पालना में ढिलाई का एक दिलचस्प मामला इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा वर्ष 2012 में नदियों में मूर्ति विसर्जन को लगाई रोक को लेकर है। उप्र. शासन ने अदालत के सामने एक बार फिर हाथ खड़ेे कर दिए कि मूर्ति विसर्जन की वैकल्पिक व्यवस्था नहीं कर पा रहा है। यह लगातार तीसरा साल है कि जब शासन ने अलग-अलग बहाने बनाकर छूट हासिल की है।
तीन साल बीत जाने के बावजूद शासन द्वारा मूर्ति विसर्जन के लिए वैकल्पिक व्यवस्था न कर पाने को लेकर इलाहाबाद हाईकोर्ट भी यही रुख अपना सकता है। बेहतर तो यह होता कि नदी, भूगोल, प्रदूषण और पानी पर काम करने वाली विशेषज्ञ भारतीय एजेंसियां स्वयं पहल कर अपनी सक्षमता का सबूत देते हुए अदालत से कहती की कि वे यह काम कर सकती हैं। अदालत यह काम उन्हें सौंप दे। खर्च और विलंब के कारण हुए पर्यावरणीय नुकसान के हर्जाने की वसूली संबंधित सरकारों के संबंधित विभाग व अधिकारियों की तनख्वाह से की जाती। हकीकत यह है कि शासन ने मूर्ति विसर्जन की वैकल्पिक व्यवस्था के लिए अभी तक राशि ही जारी नहीं की है, तो वैकल्पिक व्यवस्था कहां से हो? जाहिर है कि इस अदालती आदेश की पालना में शासन की कोई रुचि नहीं। फिर भी इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा छूट-पर-छूट दिया जाना, किसी को अचरज में डाल सकता है।
बहानेबाजी पर नरमी
इतनी बार बहाने बनाकर तो कोई एक छोटे से बच्चे को नहीं फुसला सकता, जितनी बार इस मामले में मंत्रालय ने हरित न्यायाधिकरण के आदेश की अनसुनी की है। नदियों के प्रवाह और भूमि की सुरक्षा पर हमारी सरकारों का यह रवैया तब है जब उत्तराखंड-हिमाचल में गत् वर्ष घटी त्रासदी की याद अभी मिटी नहीं है और जम्मू-कश्मीर के जलजले से हुई मौतों पर आसुंओं के बहने का सिलसिला अभी जारी ही है।
मुझे ताज्जुब है कि साढ़े नौ महीने बाद भी मंत्रालय वही कह रहा है कि ‘नदी नियमन क्षेत्र’ की व्यावहारिकता जांचने के लिए उसने विशेषज्ञ समूह बनाया है। जल संसाधन मंत्रालय कह रहा है कि उसे और समय चाहिए और न्यायाधिकरण है कि अभी भी देरी की वजह पूछ रहा है।
सरकारें अक्षम, तो वसूलो हर्जाना ; दूसरे को सौंपो काम
यदि ‘रिवर रेगुलेटरी जोन’ को परिभाषित और अधिसूचित करने को लेकर मंत्रालय कोई रिपोर्ट पेश नहीं कर पा रहा, तो अदालत उसे अक्षम करार देकर यह काम नदी पर काम करने वाली किसी अन्य भारतीय एजेंसी को यह काम क्यों नहीं सौंप देती? राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण चाहता तो यह काम जियोग्राफीकल सर्वे ऑफ इंडिया अथवा किसी अन्य विशेषज्ञ संस्था को सीधे सौंप सकता है।
तीन साल बीत जाने के बावजूद शासन द्वारा मूर्ति विसर्जन के लिए वैकल्पिक व्यवस्था न कर पाने को लेकर इलाहाबाद हाईकोर्ट भी यही रुख अपना सकता है। बेहतर तो यह होता कि नदी, भूगोल, प्रदूषण और पानी पर काम करने वाली विशेषज्ञ भारतीय एजेंसियां स्वयं पहल कर अपनी सक्षमता का सबूत देते हुए अदालत से कहती की कि वे यह काम कर सकती हैं। अदालत यह काम उन्हें सौंप दे। खर्च और विलंब के कारण हुए पर्यावरणीय नुकसान के हर्जाने की वसूली संबंधित सरकारों के संबंधित विभाग व अधिकारियों की तनख्वाह से की जाती।
दो पहलू और भी
उक्त तीनों मामले तो ताजा नजीर भर हैं। दिल्ली में जंगल क्षेत्र के चिन्हीकरण के लिए राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण ने गत् वर्ष दिल्ली के वन विभाग को छह माह का समय दिया था। वन विभाग ने चिन्हीकरण कर डिजीटल नक्शा बनाने में एक साल लगा दिया। ऐसे मामलों कोे देखकर हम अंदाजा लगा सकते हैं कि देश के लिए अहम् माने जाने वाले कितने आदेशों की पालना को लेकर सरकारी रवैया यही होगा।
इन नजीरों से यह भी स्पष्ट है कि सरकारें जिन मामलों की पालना करना नहीं चाहती, उनमें ऐसा ही टालू रवैया अपनाती हैं। छिपा एजेंडा किसी अवैध कार्य को जारी रखने में शासन-प्रशासन की सहमति होती है। प्रशासक सहमत नहीं होते हैं तो वैसी स्थिति में उनके साथ क्या घट सकता है, हम रेत खनन के दो मामलों में उनका हश्र हम क्रमशः नोएडा और चम्बल में देख चुके हैं। शायद यहां एक मौजूं प्रश्न, पालना करने वालों की सुरक्षा की भी है।
किंतु हकीकत का यह पहलू सिर्फ कारपोरेट लालच के खिलाफ आए आदेशों की पालना का है। दूसरा पहलू इससे जुदा है। कारपोरेट हित के मामलों में जारी आदेशों की पालना सरकार बिना समय गंवाए करती हैं। दिल्ली में ई-रिक्शा संबंधी मूल आदेश सामने है, जिसके जारी होने के अगले ही दिन एक नामी ऑटो कंपनी के तिपहिया का विज्ञापन कमोबेश सभी अखबारों में दिखाई दिया।
राजस्थान से लेकर बिहार तक जुगाड़ गाड़ियों को लेकर भी कुछ ऐसा ही चित्र था। बहस इस विरोधाभास को लेकर भी इतनी ही जरूरी है, जितनी कि पर्यावरणीय मामलों में ढिलाई को लेकर।
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ड्रैगन जैसा न हो भारत का विकास
द्विपक्षीय शर्तों पर सहमति बनें
हम खुश हों कि अगले पांच साल में 100 अरब डॉलर के चीनी निवेश से सुविधा संपन्न रेलवे स्टेशन, रेलवे ट्रैक के विस्तार, तीव्र गति रेलगाड़ियों और अधिक औद्योगिक पार्क की हमारी भूख मिटेगी। कैलाश मानसरोवर के लिए नाथुला दर्रे से एक और रास्ता खुलेगा। इससे उत्तराखंड के मुख्यमंत्री नाराज हो रहे हैं।
हो सकता है कि सिक्क्मि के मुख्यमंत्री खुश हों। किंतु इस खुशी में हम यह कभी न भूलें कि जिस तरह जरूरत से ज्यादा किया गया भोजन जहर है, ठीक इसी तरह किसी भी संज्ञा या सर्वनाम का जरूरत से ज्यादा किया गया दोहन भी एक दिन जहर ही साबित होता है। चीन अपनी धरती पर यही कर रहा है। भारत अपने यहां यह न होने दे। चीन निवेश करे, किंतु द्विपक्षीय सहमत शर्तों पर। अभी-अभी गंगा जलमार्ग हेतु भारतीय अंतदेर्शीय जलमार्ग प्राधिकरण द्वारा जारी विज्ञापन में कहा गया है कि परामर्शदाताओं का चयन, रोजगार आदि विश्व बैंक उधारदाताओं के निर्देशों के अनुसार होगा। यह न हो।
लाभ के साथ, शुभ जरूरी
यह भी न हो कि निवेशकों की शर्त पर चलते-चलते भारत की सरकार भी निवेशक जैसी हो जाए। परियोजनाओं में वह भी सिर्फ लाभ ही देखे और सभी का शुभ भूल जाए। भारतीय परंपरा में व्यापारी, लाभ के साथ शुभ का गठजोड़ बनाकर व्यापार करता रहा है। ‘शुभ लाभ’ का यह गठजोड़ सरकार कभी न टूटने दें। यह मैं इसलिए कह रहा हूं कि चूंकि मुझे भारत भी अब उसी वैश्विक होड़ में शामिल होता दिखाई दे रहा है, जिसमें चीन और अमेरिका हैं। याद कीजिए, राहुल गांधी जी ने चुनाव के वक्त कहा था कि यदि हम पूरी शक्ति से काम में लग जाएं, तो अगले कुछ सालों में चीन को पीछे छोड़ देंगे और नरेन्द्र मोदी ने चीन की बराबरी करने की इच्छा जाहिर की है।
अलग देश फिर एक मॉडल क्यों
भारत के दो शीर्ष दलों के दो शीर्ष नेताओं के साथ-साथ वर्तमान सरकार को भी एक बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि भारतीय विकास का भावी मॉडल चाहे जो हो, वह चीन सरीखा तो कतई नहीं हो सकता। चीनी अर्थव्यवस्था का मॉडल घटिया चीनी सामान की तरह है जिसका उत्पादन, उत्पादनकर्ता, उपलब्धता और बिक्री बहुत है, किंतु टिकाऊपन की गारंटी न के बराबर। चीन आर्थिक विकास की आंधी में बहता एक ऐसा राष्ट्र बन गया है, जिसे दूसरे के पैसे और सीमा पर कब्जे की चिंता है अपनी तथा दूसरे की जिंदगी व सेहत की चिंता कतई नहीं। यह मैं नहीं कह रहा खुद चीन के कारनामें कह रहे हैं।
समग्र विकास की अनदेखी गलत
यह सच है कि चीन ने अपनी आबादी को बोझ समझने की बजाय एक संसाधन मानकर बाजार के लिए उसका उपयोग करना सीख लिया है। यह बुरा नहीं है। ऐसा करके भारत भी आर्थिक विकास सूचकांक पर और आगे दिख सकता है। किंतु समग्र विकास के तमाम अन्य मानकों की अनदेखी करके यह करना खतरनाक होगा। त्रासदियों के आंकड़े बताते हैं कि आर्थिक दौड़ में आगे दिखता चीन प्राकृतिक समृद्धि, सेहत और सामाजिक मुस्कान के सूचकांक में काफी पिछड़ गया है। उपलब्ध रिपोर्ट बताती हैं कि चीनी सामाजिक परिवेश में तनाव गहराता जा रहा है।
चीन के लांझू शहर को आपूर्ति किया जा रहा पेयजल इतना जहरीला पाया गया कि आपूर्ति ही रोक देनी पड़ी। आपूर्ति जल में बेंजीन की मात्रा सामान्य से 20 गुना अधिक पाई गई यानी एक लीटर पानी में 200 मिलीग्राम! बेंजीन की इतनी अधिक मात्रा सीधे-सीधे कैंसर को अपनी गर्दन पकड़ लेने के लिए दिया गया न्योता है। अमेरिका की गैलप नाम अग्रणी सर्वे एजेंसी के मुताबिक, दुनिया के खुशहाल देशों की सूची में भारत, चीन से 19 पायदान ऊपर है। भारत के 19 फीसदी लोग अपने रोजमर्रा के काम और तरक्की से खुश हैं, तो चीन में मात्र नौ प्रतिशत। जनवरी, 2013 से अगस्त, 2013 के आठ महीनों में करीब 50 दिन ऐसे आए, जब चीन के किसी-न-किसी हिस्से में कुदरत का कहर बरपा। औसतन एक महीने में छह दिन! बाढ़, बर्फबारी, भयानक लू, जंगल की आग, भूकंप, खदान धसान और टायफून आदि के रूप में आई कुदरती प्रतिक्रिया के ये संदेशे कतई ऐसे नहीं हैं कि इन्हें नजरअंदाज किया जा सके। खासतौर पर तब, जब उत्तराखंड और कश्मीर के जलजले के रूप में ये संदेशे अब भारत में भी आने लगे हैं।
यह कमाना है या गंवाना?
सिर्फ छह जनवरी, 2013 की ही तारीख को लें तो चीन में व्यापक बर्फबारी से सात लाख, 70 हजार लोगों के प्रभावित होने का आंकड़ा है। प्रदूषण की वजह से चीन की 33 लाख हेक्टेयर भूमि खेती लायक ही नहीं बची। ऐसी भूमि में उत्पादित फसल को जहरीला करार दिया गया है। तिब्बत को वह ‘क्रिटिकल जोन’ बनाने में लगा ही हुआ है। खबर है कि अपने परमाणु कचरे के लिए वह तिब्बत को ‘डंप एरिया’ के तौर पर इस्तेमाल कर रहा है।
तिब्बत में मूल स्रोत वाली नदियों में बहकर आने वाले परमाणु कचरा उत्तर पूर्व भारत को बीमार ही करेगा। ऐसे नजारे संयुक्त राष्ट्र देशों के भी हैं। एक रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष-2013 में प्राकृतिक आपदा की वजह से दुनिया ने 192 बिलियन डॉलर खो दिए। आपदा का यह कहर वर्ष 2014 में भी जारी है। विकसित कहे जाने वाले कई देश स्वयं को बचाने के लिए ज्यादा कचरा फेंकने वाले उद्योगों को दूसरे ऐसे देशों में ले जा रहे हैं, जहां प्रति व्यक्ति आय कम है। क्या ये किसी अर्थव्यवस्था के ऐसा होने का संकेत हैं कि उससे प्रेरित हुआ जा सके? ऐसी मलिन अर्थव्यवस्था में तब्दील हो जाने की बेसब्री उचित है? क्या भारत को इससे बचना नहीं चाहिए?
जहरीला पानी: कैंसर को न्योता
गौरतलब है कि जिस चीनी विकास की दुहाई देते हम नहीं थक रहे, उसी चीन के बीजिंग, शंघाई और ग्वांगझो जैसे नामी शहरों के बाशिंदे प्रदूषण की वजह से गंभीर बीमारियों के बड़े पैमाने पर शिकार बन रहे हैं। चीन के गांसू प्रांत के लांझू शहर पर औद्योगीकरण इस कदर हावी है कि लांझू चीन के सर्वाधिक प्रदूषित शहरों में शुमार हो गया है। बीते 11 अप्रैल की ही घटना है। लांझू शहर को आपूर्ति कियाजा रहा पेयजल इतना जहरीला पाया गया कि आपूर्ति ही रोक देनी पड़ी।
आपूर्ति जल में बेंजीन की मात्रा सामान्य से 20 गुना अधिक पाई गई यानी एक लीटर पानी में 200 मिलीग्राम! बेंजीन की इतनी अधिक मात्रा सीधे-सीधे कैंसर को अपनी गर्दन पकड़ लेने के लिए दिया गया न्योता है। प्रशासन ने आपूर्ति रोक जरूर दी, लेकिन इससे आपूर्ति के लिए जिम्मेदार ‘विओलिया वाटर’ नामक ब्रितानी कंपनी की जिम्मेदारी पर सवालिया निशान छोटा नहीं हो जाता। भारत के लिए इस पक्ष पर गौर करना बेहद जरूरी है। गौरतलब है कि यह वही विओलिया वाटर है, जिसकी भारतीय संस्करण बनी ’विओलिया इंडिया’ नागपुर नगर निगम और दिल्ली जल बोर्ड के साथ हुए करार के साथ ही विवादों के घेरे में है।
विओलिया वाटर का कलंक हम धो रहे हैं
यदि चीन जैसे सख्त कानून वाले देश में ‘विओलिया वाटर’ जानलेवा पानी की आपूर्ति करके भी कायम है और इससे ‘पीपीपी’ मॉडल में भ्रष्टाचार की पूरी संभावना की मौजूदगी का सत्य स्थापित होता ही है। बावजूद इसके यदि भारतीय जनता पार्टी के घोषणापत्र में उक्त तीन पी के साथ लोंगों को जोड़कर चार पी यानी ‘पीपीपीपी’ की बात कही गई थी, तो अच्छी तरह समझ लीजिए ‘मनरेगा’ की तरह ‘पीपीपीपी’ भी आखिरी लाइन में खड़े व्यक्ति को बेईमान बनाने वाला साबित होगा। अतः कम से कम बुनियादी ढांचागत क्षेत्र के विकास व बुनियादी जरूरतों की पूर्ति वाले सेवा क्षेत्र में यह मॉडल नहीं अपनाना चाहिए।
बाढ़ की उल्टी गंगा
बिहार, आसाम, बंगाल और पूर्वी उत्तर प्रदेश ये मुख्यतः बाढ़ के इलाके जाने जाते हैं। परंतु पिछले कुछ वर्षों से प्रकृति ने बाढ़ के संदर्भ में ‘उल्टी गंगा बहना’ मुहावरे को साकार कर दिया है। इस वर्ष राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और मध्य प्रदेश में हुई बारिश ने तबाही मचा दी है। आश्चर्य तो यह है कि कुछ दिनों पहले इन इलाकों से पानी की कमी की खबरें आ रहीं थीं।
महाराष्ट्र को तो इस बार बाढ़ की प्राकृतिक विपदा रह-रहकर झेलनी पड़ी। राजस्थान में प्रत्येक साल जहां बूंद-बूंद के लिए लोग तरसते रहते हैं, वहीं इस बार प्रकृति ने उसे भी एक नए तरह की या यूं कहिये पारिस्थितिकी तंत्र में आ रहे जबरदस्त बदलाव से अनायास आए इस तरह की विपदा को झेलने की तैयारी की चेतावनी दे दी है।
इस साल बाढ़ ने अपना क्षेत्र बदला है और अगर हम इसे पहली चेतावनी के रूप में लेते हैं तो यह एक बड़ी भूल होगी। क्योंकि ग्लोबल वार्मिंग के बढ़ते खतरों के कारण पिछले 10 सालों में प्रकृति ने हमें अपने विकास की दिशा को पहचानने के लिए कई खतरे की घंटी सुनाई है। इस क्रम में ‘लू’ के क्षेत्र में दिन-ब-दिन विस्तार होना बहुत महत्वपूर्ण है। 2001-02 में लू का उड़ीसा और आंध्र प्रदेश में पहुंचने को वैज्ञानिकों और भूगोलविदों ने मानव समाज के लिए उभरते हुए एक बड़ी चिंता के रूप में रेखांकित किया था। मालूम हो कि 2 साल पूर्व कैलिफोर्निया लू की चपेट में आ गया था।
पेरिस का तापमान 32- 35 डिग्री तक पहुंच जाने से वहां कई लोगों की जान चली गई थी। सामान्यतः इन जगहों का तापमान शून्य से नीचे रहता है। लगभग इसी समय राजस्थान में नक्की झील के पूरी तरह से जम जाने को संघ आयोग सेवा के सिविल सर्विसेज की तैयारी में लगे छात्र और उनका दिशा निर्देशन करने वाले कोचिंग संस्थान तक ने इसे बड़ी गंभीरता से लिया और हॉट टॉपिक के रूप में विशेष महत्व दिया था।
ऐसी गड़बडि़यों के लिए पर्यावरणविद् व लेखक अनुपम मिश्र कहते हैं - “राज्य सरकार ने हमारी वर्षों से चली आ रही पारंपरिक व्यवस्था को बचाने की कभी कोई कोशिश नहीं की। बल्कि उसे बाधा ही पहुंचाई है। हमारे समाज की उन पारंपरिक व्यवस्थाओं को खारिज करने के लिए सरकार व उसके पर्यावरण मंत्रालय ने बस कुछ सुंदर व आकर्षक लगने वाले शब्द और मुहावरे के गढ़ने की दिशा में ही काम किया है।’ देश के अंदर तबाही मचेगी तो राष्ट्रव्यापी चिंता तो जाहिर सी बात होगी ही। लेकिन ग्लोबल वार्मिंग के बढ़ते इस खतरे को कम करने की दिशा में केद्र और किसी राज्य के सरकार ने बहुत महत्वपूर्ण कुछ कदम उठाए हों, ऐसा नहीं जान पड़ता है। बल्कि सरकार की मशीनरियों ने बाढ़-सुखाड़ के इस सालाना खतरे को एक उद्योग के रूप में स्थापित करके जहां मौका मिला वहां इसका भरपूर लाभ उठाया गया।
इस संदर्भ में कई धांधलियां समाज के सामने अब तक उजागर हो चुकी हैं। यही वजह है कि आजादी के छह दशक के बाद भी हम इतने पानी वाले देश होने के बावजूद कभी पानी को तरसते नजर आते हैं और कभी तो औसत के आसपास बारिश होने पर भी पानी से तौबा करते नजर आते हैं। इसको नियंत्रित करने के नाम पर ऐसी नीतियां समाज पर थोपीं गई हैं, जो निहायत ही घटिया और अवैज्ञानिक है। बाढ़ से बचने के लिए ‘बाढ़ -नियंत्रण समिति’ और ‘नदी -जोड़ो’ आदि की योजना लाई गई। बाढ़ नियंत्रण समिति के निर्माण के बाद बाढ़ के क्षेत्र में व्यापक रूप से वृद्धि हुई है।
सरकार ने इस खतरे से बचने के लिए जो उपाय समाज के सामने प्रस्तुत किये हैं, उसकी समीक्षा अभी आयी बाढ़ के परिप्रेक्ष्य में की जानी चाहिए। वर्ष 2002 में एक बहुत बड़ी लगभग 560 करोड़ की लागत वाली परियोजना ‘नदी जोड़ो’ का प्रस्ताव सुरेश प्रभु के नेतृत्व में यह तर्क देकर आया था कि इससे हर साल आने वाली बाढ़ और सुखाड़ की समस्या से निपटा जा सकेगा। उस समय यह तर्क दिया गया था कि हिमालय से निकलने वाली पूर्व में बहने वाली नदियों की अतिरिक्त जलराशि को प्रायद्वीपीय पश्चिम और द़िक्षण की नदियों को दे देंगेे।
अब यहां सवाल यह उठता है कि जब सामान्य बारिश में इन राज्यों की हालत इतनी बिगड़ जा रही है तब पूर्व की सदानीरा नदियों से पश्चिम और दक्षिण की नदियां अतिरिक्त जलराशि लेने को किस माद्दे पर सक्षम होगी? ऐसे तमाम अनुभवों के होते हुए नदियों को जोड़ने और तोड़ने का खेल जारी है। केन और बेतवा नदी को जोड़ने के लिए हरी झंडी पिछले ही साल 25 अगस्त को मुलायम सिंह यादव की सरकार ने तमाम पर्यावरणीय, राहत और पुनर्वास संबंधी आशंकाओं के रहते दे दिया।
नहरें पानी लाने का काम करती हैं और नदियां पानी ले जाने का काम करती हैं। नदियों के कारण आए बाढ़ से पुराने समय में तबाही नहीं के बराबर हुआ करती थीं। नदियों को जगह-जगह बांध दिए जाने से उनमें अवसाद ज्यादा टिकना शुरू हो गया है। परिणामतः नदियों का तल उथला होता चला जा रहा है। अब औसत या औसत से थेाड़ी कम बारिश से ही नदियां प्रलंयकारी हो उठती हैं। इसलिए हमें सिंचाई और पीने के पानी की निर्भरता नहरों पर कम करके अपनी पुरानी पारंपरिक तरीकों को पुर्नजीवित करने की तरफ ध्यान देना चाहिए। ताल-तलैयों, पाटपानी, जातकुड़ी, कुओं आदि की ओर लौट जाना ही बेहतरी होगी
इसी मौके पर मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री बाबूलाल गौर ने चंबल और पार्वती नदी को जोड़ने की इच्छा जाहिर कर दी थी। मुलायम सिंह यादव की तात्कालिक आशंकाएं वाजिब थीं क्योंकि पर्यावरणीय परिवर्तन एक लंबी प्रक्रिया के तहत स्वाभाविक तौर पर हो तो अनुकूल परिणाम देती है, अन्यथा ऐसी आपदाएं उत्पन्न करती हैं, जिसकी भरपाई कर पाना किसी भी समाज के लिए बहुत ही मुश्किल हो जाता है। राजस्थान के बाड़मेर जिला और मध्य प्रदेश के कुछ हिस्सों को अगर छोड़ दें तो प्रत्येक साल की औसत वर्षा से इस साल कहीं भी ज्यादा वर्षा नहीं हुई है।यह जरूर हुआ है कि दस-पन्द्रह दिन में गिरने वाली औसत वर्षा इस साल दो-चार दिन में गिर गई। इन राज्यों के ऐसे छोटे-छोटे बांध जिनके नाम समाज में कुछ कम प्रतिष्ठित रहें हैं उन्हें अचानक खोलने की नौबत के आ जाने से समाज को बाढ़ की विभीषिका झेलनी पड़ रही है। देश के अंदर अभी कई ऐसी बड़ी प्रतिष्ठित परियोजना काम कर रहीं हैं, कभी उसे खोलना पड़ा तो उसकी तबाही का अंदाजा शायद हम नहीं लगा सकते हैं।
दरअसल सिद्धांत यह है कि नहरें पानी लाने का काम करती हैं और नदियां पानी ले जाने का काम करती हैं। नदियों के कारण आए बाढ़ से पुराने समय में तबाही नहीं के बराबर हुआ करती थीं। नदियों को जगह-जगह बांध दिए जाने से उनमें अवसाद ज्यादा टिकना शुरू हो गया है।
परिणामतः नदियों का तल उथला होता चला जा रहा है। अब औसत या औसत से थेाड़ी कम बारिश से ही नदियां प्रलंयकारी हो उठती हैं। इसलिए हमें सिंचाई और पीने के पानी की निर्भरता नहरों पर कम करके अपनी पुरानी पारंपरिक तरीकों को पुर्नजीवित करने की तरफ ध्यान देना चाहिए। ताल-तलैयों, पाटपानी, जातकुड़ी, कुओं आदि की ओर लौट जाना ही बेहतरी होगी।
यहां पर राष्ट्रपति भवन में पानी की कमी से संबंधित एक किस्से का स्मरण हो आया है। राष्ट्रपति भवन में पानी की कमी को दूर करने के लिए ‘तरूण भारत संघ’ को आमंत्रित किया गया कि वे यहां आएं और पानी की कमी के लिए उपयुक्त जगह ढूंढ़कर बताएं। राजेन्द्र सिंह ने इस काम में निपुण राजस्थान के एक ग्रामीण गोपाल सिंह को बुलवाया। और गोपाल सिंह के बताए जगह पर तालाब खोदी गई और आज वहां पानी की दिक्कत नहीं है। कहानी कहने का तात्पर्य यह है कि लोग अपनी हजारों साल से मानी हुई व्यवस्था को यूं ही नहीं ठुकराएं।
अगर विकास की यही प्रक्रिया चलती रही तो आज नहीं तो कल उन्हें मुड़कर अपनी व्यवस्था में लौटना होगा। क्योंकि जल को रिचार्ज करने की सबसे अच्छी पद्धति ताल-तलैयों द्वारा ही हो सकती है।
जिन छोटे बांधों को खोला गया उनमें उकाई के खोले जाने से सूरत, धारोई और वानकवोरी से गुजरात, कोटा बांध से पानी के छोड़े जाने के कारण राजस्थान और मध्य प्रदेश के भिंड जिले के लगभग 10 गांव, सांगली और खड़गवासला के पास कोई छोटे बांध खोले जाने से महाराष्ट्र में बाढ़ आई है। पंचमहाल और आणंद की बाढ़ भी इसी तरीके के छोटे और मंझोले किस्म के बांध खोले जाने से आई है।
दुर्भाग्य तो यह है कि अगस्त का महीना समाप्त हो चुका है लेकिन बिहार, बंगाल और आसाम में इतनी भी बारिश नहीं हुई कि किसान धान की रोपाई कर सकेे। इन हिस्सों में राज्य सरकार की नीतियों और मानव समुदाय की कुछ लाचारियों की वजह से बाढ़ से निश्चित तौर पर प्रत्येक साल तबाही आती है। लेकिन यह भी उतना ही सच है कि बाढ़ का इंतजार यहां के किसान करते हैं। बाढ़ प्रकृति के चक्र का एक महत्वपूर्ण पहलू है। परंतु हमारे विकास के मानदंड प्रकृति की दिनचर्या के साथ तालमेल बिठाकर तय नहीं किए जा रहे हैं। इसलिए वह हमारे लिए कभी सुखद या बाट जोहे जाने वाले स्थिति का निर्माण नहीं कर सकते हैं।
जल, जंगल और जमीन - उलट-पुलट पर्यावरण (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें) | |
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पुस्तक परिचय - जल, जंगल और जमीन - उलट-पुलट पर्यावरण | |
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ऐसा कब तक चलेगा, मी लॉर्ड
कितने अवैध कार्यों को लेकर रोक के आदेश भी हैं और आदेश के उल्लंघन का परिदृश्य भी। किसी भी न्यायतंत्र की इससे ज्यादा कमजोरी क्या हो सकती है, कि उसे अपने ही आदेश की पालना कराने के लिए कई-कई बार याद दिलाना पड़ेे। आखिर यह कब तक चलेगा और कैसे रुकेगा? बहस का बुनियादी प्रश्न यही है।
आदेश 1: दादरी जलक्षेत्र
दादरी, ग्रेटर नोएडा का एक गांव है, बील अकबरपुर। यहां स्थित एक विशाल जलक्षेत्र 300 से अधिक दुर्लभ प्रजाति के पक्षियों का घर है। वास्तव में यह जलक्षेत्र नदी के निचले तट की ओर स्थित बाढ़ क्षेत्र है। रिकॉर्ड में दर्ज इसका मूल रकबा 72 हेक्टेयर था। वर्ष 2009 में जांच के दौरान कुछ पर्यावरण कार्यकताओं ने मात्र 32.7 हेक्टेयर रकबा ही अतिक्रमण के चंगुल से बाहर पाया; बाकि पर पहले ही अतिक्रमण हो चुका था। इस पर एक निजी विश्वविद्यालय द्वारा किए अतिक्रमण को लेकर मामला प्रकाश में आया।
इस संबंध में दायर मामले पर विचार करते हुए राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण ने वर्ष-2012 में इस जलक्षेत्र के 500 मीटर के दायरे में निर्माण पर रोक लगा दी थी। यह न्यायिक आदेश की प्रशासनिक अवहेलना नहीं तो और क्या है कि बावजूद इसके निर्माण जारी रहा। लिहाजा, दो वर्ष बाद 19 सितम्बर, 2014 को राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण मौके की वीडियोग्राफी का आदेश देने को विवश हुआ।
आदेश 2: नदी नियमन क्षेत्र
तीसरा मामला, एक दिन इसी साल के 18 सितम्बर का है। राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण ने ‘रिवर रेगुलेटरी जोन’ को लेकर स्पष्ट विचार पेश न करने को लेकर केन्द्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय को एक बार फिर कटघरे में खड़ा किया है। ‘रिवर रेगुलेटरी जोन’ यानी नदी नियमन क्षेत्र! समुद्री नियमन क्षेत्र की तर्ज पर इसे एक ऐसे क्षेत्र के रूप में परिभाषित और अधिसूचित किया जाना अपेक्षित है, ताकि नदियों के बाढ़ क्षेत्र में बढ़ आए अतिक्रमण को रोकने की कानूनी बाध्यता सुनिश्चित की जा सके।
गौरतलब है कि हिंडन-यमुना बाढ़ क्षेत्र में अतिक्रमण के इसी मामले की सुनवाई करते हुए पिछले साल न्यायाधिकरण ने मंत्रालय से पूछा था कि वह क्या कार्रवाई कर रहा है। दो दिसम्बर, 2013 यानी करीब साढ़े नौ महीने पहले मंत्रालय ने मंजूर किया था कि वह देश की सभी नदियों के किनारों को ‘नदी नियमन क्षेत्र’ के रूप में अधिसूचित करने के बारे में गंभीरता से विचार करेगा। मंत्रालय ने यह भी कहा था कि बाढ़ क्षेत्रों की वस्तुस्थिति और ‘नदी नियमन क्षेत्र’ कैसे हों; इस पर रिपोर्ट तैयार करने के लिए उसने विशेषज्ञ समूह गठित कर लिया है। किंतु पिछले साढे़ नौ महीनों में आठ सुनवाई के बावजूद मंत्रालय ने कोई रिपोर्ट पेश नहीं की।
आदेश 3: मूर्ति विसर्जन
बीते 19 सितम्बर को अदालती आदेश की पालना में ढिलाई का एक दिलचस्प मामला इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा वर्ष 2012 में नदियों में मूर्ति विसर्जन को लगाई रोक को लेकर है। उप्र. शासन ने अदालत के सामने एक बार फिर हाथ खड़ेे कर दिए कि मूर्ति विसर्जन की वैकल्पिक व्यवस्था नहीं कर पा रहा है। यह लगातार तीसरा साल है कि जब शासन ने अलग-अलग बहाने बनाकर छूट हासिल की है।
तीन साल बीत जाने के बावजूद शासन द्वारा मूर्ति विसर्जन के लिए वैकल्पिक व्यवस्था न कर पाने को लेकर इलाहाबाद हाईकोर्ट भी यही रुख अपना सकता है। बेहतर तो यह होता कि नदी, भूगोल, प्रदूषण और पानी पर काम करने वाली विशेषज्ञ भारतीय एजेंसियां स्वयं पहल कर अपनी सक्षमता का सबूत देते हुए अदालत से कहती की कि वे यह काम कर सकती हैं। अदालत यह काम उन्हें सौंप दे। खर्च और विलंब के कारण हुए पर्यावरणीय नुकसान के हर्जाने की वसूली संबंधित सरकारों के संबंधित विभाग व अधिकारियों की तनख्वाह से की जाती। हकीकत यह है कि शासन ने मूर्ति विसर्जन की वैकल्पिक व्यवस्था के लिए अभी तक राशि ही जारी नहीं की है, तो वैकल्पिक व्यवस्था कहां से हो? जाहिर है कि इस अदालती आदेश की पालना में शासन की कोई रुचि नहीं। फिर भी इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा छूट-पर-छूट दिया जाना, किसी को अचरज में डाल सकता है।
बहानेबाजी पर नरमी
इतनी बार बहाने बनाकर तो कोई एक छोटे से बच्चे को नहीं फुसला सकता, जितनी बार इस मामले में मंत्रालय ने हरित न्यायाधिकरण के आदेश की अनसुनी की है। नदियों के प्रवाह और भूमि की सुरक्षा पर हमारी सरकारों का यह रवैया तब है जब उत्तराखंड-हिमाचल में गत् वर्ष घटी त्रासदी की याद अभी मिटी नहीं है और जम्मू-कश्मीर के जलजले से हुई मौतों पर आसुंओं के बहने का सिलसिला अभी जारी ही है।
मुझे ताज्जुब है कि साढ़े नौ महीने बाद भी मंत्रालय वही कह रहा है कि ‘नदी नियमन क्षेत्र’ की व्यावहारिकता जांचने के लिए उसने विशेषज्ञ समूह बनाया है। जल संसाधन मंत्रालय कह रहा है कि उसे और समय चाहिए और न्यायाधिकरण है कि अभी भी देरी की वजह पूछ रहा है।
सरकारें अक्षम, तो वसूलो हर्जाना ; दूसरे को सौंपो काम
यदि ‘रिवर रेगुलेटरी जोन’ को परिभाषित और अधिसूचित करने को लेकर मंत्रालय कोई रिपोर्ट पेश नहीं कर पा रहा, तो अदालत उसे अक्षम करार देकर यह काम नदी पर काम करने वाली किसी अन्य भारतीय एजेंसी को यह काम क्यों नहीं सौंप देती? राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण चाहता तो यह काम जियोग्राफीकल सर्वे ऑफ इंडिया अथवा किसी अन्य विशेषज्ञ संस्था को सीधे सौंप सकता है।
तीन साल बीत जाने के बावजूद शासन द्वारा मूर्ति विसर्जन के लिए वैकल्पिक व्यवस्था न कर पाने को लेकर इलाहाबाद हाईकोर्ट भी यही रुख अपना सकता है। बेहतर तो यह होता कि नदी, भूगोल, प्रदूषण और पानी पर काम करने वाली विशेषज्ञ भारतीय एजेंसियां स्वयं पहल कर अपनी सक्षमता का सबूत देते हुए अदालत से कहती की कि वे यह काम कर सकती हैं। अदालत यह काम उन्हें सौंप दे। खर्च और विलंब के कारण हुए पर्यावरणीय नुकसान के हर्जाने की वसूली संबंधित सरकारों के संबंधित विभाग व अधिकारियों की तनख्वाह से की जाती।
दो पहलू और भी
उक्त तीनों मामले तो ताजा नजीर भर हैं। दिल्ली में जंगल क्षेत्र के चिन्हीकरण के लिए राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण ने गत् वर्ष दिल्ली के वन विभाग को छह माह का समय दिया था। वन विभाग ने चिन्हीकरण कर डिजीटल नक्शा बनाने में एक साल लगा दिया। ऐसे मामलों कोे देखकर हम अंदाजा लगा सकते हैं कि देश के लिए अहम् माने जाने वाले कितने आदेशों की पालना को लेकर सरकारी रवैया यही होगा।
इन नजीरों से यह भी स्पष्ट है कि सरकारें जिन मामलों की पालना करना नहीं चाहती, उनमें ऐसा ही टालू रवैया अपनाती हैं। छिपा एजेंडा किसी अवैध कार्य को जारी रखने में शासन-प्रशासन की सहमति होती है। प्रशासक सहमत नहीं होते हैं तो वैसी स्थिति में उनके साथ क्या घट सकता है, हम रेत खनन के दो मामलों में उनका हश्र हम क्रमशः नोएडा और चम्बल में देख चुके हैं। शायद यहां एक मौजूं प्रश्न, पालना करने वालों की सुरक्षा की भी है।
किंतु हकीकत का यह पहलू सिर्फ कारपोरेट लालच के खिलाफ आए आदेशों की पालना का है। दूसरा पहलू इससे जुदा है। कारपोरेट हित के मामलों में जारी आदेशों की पालना सरकार बिना समय गंवाए करती हैं। दिल्ली में ई-रिक्शा संबंधी मूल आदेश सामने है, जिसके जारी होने के अगले ही दिन एक नामी ऑटो कंपनी के तिपहिया का विज्ञापन कमोबेश सभी अखबारों में दिखाई दिया।
राजस्थान से लेकर बिहार तक जुगाड़ गाड़ियों को लेकर भी कुछ ऐसा ही चित्र था। बहस इस विरोधाभास को लेकर भी इतनी ही जरूरी है, जितनी कि पर्यावरणीय मामलों में ढिलाई को लेकर।
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'संजॉय घोष मीडिया अवार्ड्स – 2022
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