नया ताजा

पसंदीदा आलेख

आगामी कार्यक्रम

खासम-खास

Submitted by Editorial Team on Tue, 10/04/2022 - 16:13
कूरम में पुनर्निर्मित समथमन मंदिर तालाब। फोटो - indiawaterportal
परम्परागत तालाबों पर अनुपम मिश्र की किताब ‘आज भी खरे हैं तालाब’, पहली बार, वर्ष 1993 में प्रकाशित हुई थी। इस किताब में अनुपम ने समाज से प्राप्त जानकारी के आधार पर भारत के विभिन्न भागों में बने तालाबों के बारे में व्यापक विवरण प्रस्तुत किया है। अर्थात आज भी खरे हैं तालाब में दर्ज विवरण परम्परागत तालाबों पर समाज की राय है। उनका दृष्टिबोध है। उन विवरणों में समाज की भावनायें, आस्था, मान्यतायें, रीति-रिवाज तथा परम्परागत तालाबों के निर्माण से जुड़े कर्मकाण्ड दर्ज हैं। प्रस्तुति और शैली अनुपम की है।

Content

Submitted by Shivendra on Fri, 09/26/2014 - 11:29
Source:
इंडिया टुडे, सितंबर 2014
Ken Betwa Nadijod pariyojna
प्रसिद्ध खजुराहो के मंदिरों से महज 20 किलोमीटर की दूरी पर एक नया आकर्षण जन्म ले रहा है। यह कुछ और नहीं बल्कि देश भर में सैकड़ों नदियों को एक-दूसरे से कुछ बेढब और निरा अवैज्ञानिक किस्म से जोड़ने की कोशिश है। हम इस नए अप्राकृतिक या कृत्रिम योजना को देखने के आकर्षण में पन्ना टाइगर रिजर्व के गंगऊ द्वार की तरफ बढ़ चले।

बाढ़ और सुखाड़ से निपटारा!
अब दशक से ठंडे बस्ते में पड़ी योजना को साकार किया जा रहा है। केन-बेतवा नदी जोड़ो परियोजना को नरेंद्र मोदी सरकार की मंजूरी मिलने के बाद फिजां में नए गुंताड़े चल रहे हैं। बहुत से लोगों का मानना है कि केन में अक्सर आने वाली बाढ़ में बर्बाद होने वाला पानी अब बेतवा में पहुंचकर हजारों एकड़ खेतों में फसलों को सिंचित करेगी और हमारे अनाज उत्पादन में अप्रत्याशित तौर पर बढ़ोतरी दर्ज की जाएगी।

इस सवाल का जवाब कौन देगा
दूसरा पक्ष पूछता है कि 9,000 करोड़ रुपये खर्च करने के बाद उन नदियों को मिलाने से क्या फायदा जो आगे चलकर खुद ही यमुना में मिल जाती हैं। दूसरा सवाल यह कि पहले से ही बाघों को बचाने के लिए परेशान देश क्या पन्ना टाइगर रिजर्व के 5,258 हेक्टेयर हिस्से को डुब वाले बांध का स्वागत करने को तैयार है?

प्यासी जमीन को मिलेगा पानी!
ऐस ही कुछ बुनियादी सवालों की जमीनी हकीकत को टटोलने की चाह में गंगऊ द्वार खुला और हम पन्ना टाइगर रिजर्व के अंदर पहुंच गए। विंध्याचल की पहाड़ियों पर हरे-भरे जंगलों के बीच पूरी तरह उबड़-खाबड़ रास्तों पर चलते हुए हम केन नदी पर बने 99 साल पुराने गंगऊ बांध तक पहुंच गए। बांध का दृश्य विहंगम है, लेकिन गाद से पटा बूढ़ा बांध अब बहुत पानी नहीं रोक पाता। देशभर में नदियों को जोड़ने का खाका खींचने वाली नेशनल वाटर डेवलपमेंट अथॉरटी (एनडब्ल्यूडीए) ने इस बांध से 4 किमी ऊपर डोढन गांव में नया विशाल डोढन बांध बनाने का फैसला किया है। पर्यावरणविद् अनुपम मिश्र की यह बात यहां हमें सही लगी कि बांध, नहर आदि से गाद की मात्रा बढ़ती जाती है और यह बाढ़ के खतरों को भी बढ़ाने का काम करती है।

आदिवासियों के 10 गांव डूब जाएंगे
यहां 9,000 हेक्टेयर के जलाशय में पानी रोका जाएगा। इस जलाशय में छतरपुर जिले की बिजावर तहसील के 10 आदिवासी बहुल वनग्राम सुकवाहा, भोरकुवां, घुघरी, बसुधा, कुपी, शाहपुरा, डोढन, पिलकोहा, खरयानी और मनियारी डूब जाएंगे। पास ही दो बिजली घर (पावर हाउस) बनाए जाएंगे जिनसे 78 मेगावाट हाइड्रोपावर का उत्पादन किया जाएगा। यहां से 220 किमी लंबी नहर निकाली जाएगी जो मध्य प्रदेश के छतरपुर और टीकमगढ़ जिले और उत्तर प्रदेश के महोबा जिले से होते हुए अंत में झांसी जिले के चंदेल कालीन बरुआसागर तालाब में केन के अतिरिक्त पानी को गिराएगी।

यहां से यह पानी 20 किमी आगे पारीछा बांध में पहुंच जाएगा। 4,317 हेक्टेयर क्षेत्रफल में फैली नहर अपने रास्ते में पड़ने वाले 60,000 हेक्टेयर खेतों को सींचेगी। एनडब्ल्यूडीए की विस्तार परियोजना रिपोर्ट (डीपीआर) में ऐसा दावा किया गया है। रास्ते में पानी के उपयोग के बाद 591 एमसीएम पानी शुद्ध रूप से केन नदी से बेतवा नदी को हर साल देने का दावा है. सबसे बड़ी बात यह कि अगर यह प्रयोग कामयाब रहा तो 150 साल से हवा में तैर रहे देश की अलग-अलग क्षेत्रों की नदियों को आपस में जोड़ने की 30 योजनाओं का सपना भी आंखें खोलने लगेगा।

केन में कहां है इतना पानी
डीपीआर के मुताबिक, पानी का असली उपयोग यहीं से शुरू होगा. उत्तर प्रदेश को केन का अतिरिक्त पानी देने के बाद मध्य प्रदेश करीब इतना ही पानी बेतवा की ऊपरी धारा से निकाल लेगा। परियोजना के दूसरे चरण में मध्य प्रदेश चार बांध बनाकर रायसेन और विदिशा जिलों में सिंचाई का इंतजाम करेगा इसीलिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और जल संसाधन मंत्री उमा भारती इस योजना को लेकर खासे उत्साहित हैं।

केन-बेतवा नदी जोड़ से 9,000 हेक्टेयर के जलाशय में पानी रोका जाएगा। इस जलाशय में छतरपुर जिले की बिजावर तहसील के 10 आदिवासी बहुल वनग्राम सुकवाहा, भोरकुवां, घुघरी, बसुधा, कुपी, शाहपुरा, डोढन, पिलकोहा, खरयानी और मनियारी डूब जाएंगे। पास ही दो बिजली घर बनाए जाएंगे जिनसे 78 मेगावाट हाइड्रोपावर का उत्पादन किया जाएगा। यहां से 220 किमी लंबी नहर निकाली जाएगी जो मध्य प्रदेश के छतरपुर और टीकमगढ़ जिले और उत्तर प्रदेश के महोबा जिले से होते हुए अंत में झांसी जिले के चंदेल कालीन बरुआसागर तालाब में केन के अतिरिक्त पानी को गिराएगी।34 हजार मेगावॉट बिजली का उत्पादन
उमा के उत्साह की एक वजह यह भी है कि वे इस योजना से जुड़ी उत्तर प्रदेश की झांसी लोकसभा सीट से सांसद हैं और इस योजना से जुड़े मध्य प्रदेश के छतरपुर और टीकमगढ़ जिले उनकी जन्मभूमि और राजनीति की मूल भूमि रही है। उमा ने तो लोकसभा में यहां तक कहा कि अगले 10 साल में देश में 30 नदी जोड़ो योजनाओं को पूरा किया जाएगा। इससे 34,000 मेगावाट बिजली तैयार की जा सकेगी।

इस के बारे में साउथ एशिया नेटवर्क ऑन डैम्स, रिवर्स एंड पीपुल (सैंड्रप) के निदेशक हिमांशु ठक्कर यह सवाल करते हैं, “सारी परियोजना इस परिकल्पना पर टिकी है कि केन नदी में फालतू पानी है। डीपीआर में यह मान लिया गया है कि बेतवा बेसिन में प्रति हेक्टेयर 6,157 क्यूबिक मिलियन पानी की जरूरत है जबकि केन बेसिन में प्रति हेक्टेयर 5,327 क्यूबिक मिलियन पानी की जरूरत है। केन बेसिन में पानी की जरूरत जान-बूझकर 16 फीसदी कम बताई गई ताकि यहां फालतू पानी दिखाया जा सके।”

बाघों को बचाने का नाटक
इसके अलावा पन्ना टाइगर रिजर्व और मौजूदा गंगऊ बांध की निचली धारा में बने घड़ियाल सेंचुरी को भी इससे बड़ा खतरा पैदा हो जाएगा। वैसे भी पन्ना टाइगर रिजर्व एक बार पहले भी अपने सारे बाघ खो चुका है और वहां अब नए सिरे से बाघों को बसाया जा रहा है। सुप्रीम कोर्ट में इस मामले को उठाने वाले भोपाल के पर्यावरण कार्यकर्ता अजय कुमार दुबे कहते हैं, ‘अगर बाघों का बसेरा उजाड़कर उन्हें मार ही डालना है तो सरकार बाघ बचाने का नाटक ही क्यों करती है?’ पर्यावरण से जुड़े इन्हीं अंदेशों के कारण कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी के समर्थन के बावजूद पिछली सरकार के पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने योजना को मंजूरी नहीं दी थी।

पर्यावरण कार्यकर्ता अरुंधति धू सवाल करती हैं, ‘बेतवा का पानी विदिशा में ही रुक जाएगा और केन का पानी झांसी को पारीछा में मिलेगा, लेकिन बीच में बने माताटीला और राजघाट बांधों का क्या होगा?” ये दोनों बांध इस बड़े इलाके की सिंचाई और पेयजल व्यवस्था के साथ ही 75 मेगावाट जलविद्युत का उत्पादन भी करते हैं। 300 करोड़ रु. लागत से बना राजघाट बांध तो 31 साल तक बनते-बनते 2006 में पूरा हुआ। इन सवालों पर एनडब्ल्यूडीए की दलील है कि ये बांध अपनी लागत वसूल कर चुके हैं। यानी इनके खत्म होने में कोई बुराई नहीं है।

सरकारी कागजों में उजाड़ दिए गए बसावट वाले गांव
ये सवाल जेहन में घूम ही रहे थे कि इस बीच गंगऊ बांध पर डोढन गांव के 40 वर्षीय मुन्नालाल यादव और 70 वर्षीय श्यामलाल आदिवासी मिल गए। श्यामलाल ने केन-बेतवा लिंक के बारे में कहा, ‘हां, अखबारों में कुछ देखा है लेकिन आज तक किसी सरकारी अफसर ने गांववालों से कोई बात नहीं की।”

उनके साथ एक किमी का सफर कर डोढन गांव पहुंच गए जो पूरी परियोजना का केंद्र बिंदु है। गांव की चौपाल में लोगों ने बताना शुरू किया कि उन्हें न तो योजना के बारे में कुछ पता है और न ही यह पता है कि उन्हें कोई मुआवजा भी मिलेगा या नहीं। 24 घंटे बिजली सुविधा के दावे करने वाले मध्य प्रदेश के इस गांव में बिजली की लाइन नहीं पहुंची है। गांव पन्ना टाइगर रिजर्व के अंदर है, लिहाजा इस आदिवासी बहुल गांव तक आने वाला सड़क की वर्षों से मरम्मत न होने की वजह से पूरी तरह टूट चुके हैं।

जब उनसे पूछा गया कि 2007 में एनडब्ल्यूडीए की तरफ से तैयार प्रावधान के मुताबिक हर विस्थापित होने वाले परिवार को औसतन दो लाख रु. मुआवजा मिलेगा तो 65 वर्षीया पार्वती आदिवासी उखड़ गईं। उन्होंने कोहनी तक हाथ जोड़े (बुंदेलखंड में इस तरह के प्रणाम का मतलब है कि अब आप यहां से दफा हो जाइए) औैर कहा, ‘हम अपने गांव में ठीक हैं. हमें न बांध चाहिए, न चुटकी भर मुआवजा।’

इसी तरह जब हम दूसरे प्रभावित होने वाले गांव पिलकोहा पहुंचे तो लोगों ने यही बताया कि केन-बेतवा लिंक के बारे में उड़ती-उड़ती खबरों के सिवा उनके पास कुछ नहीं है। गांववालों के प्रति व्यवस्था की आपराधिक असंवेदनशीलता का नमूना देखना जरूरी है। पिलकोहा में बाकायदा 8वीं तक का सरकारी स्कूल चल रहा है। ग्राम पंचायत है। लोगों के पास मतदाता पहचान-पत्र हैं और 2,500 लोग यहां रह रहे हैं।

अभी 806 परिवार और विस्थापित होंगे
बांदा के आरटीआई कार्यकर्ता आशीष सागर दीक्षित की याचिका पर 1 जुलाई 2010 को एनडब्ल्यूडीए ने बताया , “डीपीआर के मुताबिक पन्ना टाइगर रिजर्व के 10 गांव प्रभावित गांवों की सूची में आते हैं। डोढन बांध से प्रभावित होने वाले 10 गांवों में से चार गांव नामतरू मैनारी, खरयानी, पिलकोहा और डोढन पूर्व में ही वन विभाग द्वारा विस्थापति कराए जा चुके हैं। शेष छह गांव के 806 परिवार विस्थापित कराने शेष हैं।” गांव की चौपाल पर आरटीआई की चिट्ठी पढ़ते-पढ़ते जैसे ही ये पंक्तियां आईं तो पिलकोहा के सरपंच जगन्नाथ यादव के हाथों से तोते उड़ गए।

सागौन, खैर और बांस के जंगलों से घिरे गांव में सन्नाटा तोड़ते हुए यादव ने कहा, ‘ये क्या मजाक है। वे तो मानते ही नहीं कि हम यहां रहते हैं।’ गांव वालों को कतई उम्मीद नहीं थी कि इस योजना के बारे में पहली आधिकारिक चिट्ठी उन्हें इस तरह देखने को मिलेगी। दो दिन तक दुर्गम गांवों में पहुंचने और गांववालों से बातचीत में यही कहानी दोहराई जाती रही।

केन की सहायक नदी स्यामरी के किनारे बसे सुकवाहा के 25 वर्षीय बलबीर सिंह यह मान चल रहे थे कि अगर उनके गांव की जमीन डूब क्षेत्र में आती है तो कम-से-कम 50 लाख रुपए मुआवजा तो मिल ही जाएगा। इससे वे छतरपुर में एक स्कूल खोल लेंगे। लेकिन मुआवजे पर छाए धुंधलके में भविष्य की उनकी योजनाएं हिचकोले खाने लगी हैं।

जब इन सारे पहलुओं पर एनडब्ल्यूडीए के चीफ इंजीनियर (मुख्यालय) आर.के. जैन से सवाल किया गया तो उन्होंने कहा, “हमारा काम डीपीआर तैयार करना है। लोगों के विस्थापन या पुनर्वास की जानकारी राज्यों की सरकारों की है। आरटीआई में वही जवाब दिया गया होगा जो आंकड़े वन विभाग से मिले हैं।”

साथ ही उन्होंने कहा, ‘लेकिन अगर कोई भी विसंगति आती है तो उसका पूरा ध्यान रखा जाएगा। मुआवजे के सवाल पर उन्होंने कहा कि 2013 में इस बारे में नया प्लान बनाया गया है और किसी भी सूरत में गांव वालों को बेहतर मुआवजा मिलेगा।’ परियोजना कब तक शुरू होगी, इस बारे में उन्होंने कहा, ‘राज्यों से तकनीकी और पर्यावरण संबंधी नियमों के अनुसार स्वीकृति मिलने के बाद ही काम शुरू होगा।’

डीपीआर में इतनी गंभीर खामियां की वजह से परियोजना के शुरू होने से पूर्व ही विश्वसनीयता पर सवाल उठने लगे हैं। क्या ऐसी परियोजना जिसकी कामयाबी देश की सूरत हमेशा के लिए बदल सकती है, कुछ ज्यादा जिम्मेदारी की मांग नहीं करती

साथ में संतोष पाठक

Submitted by Shivendra on Mon, 09/22/2014 - 15:39
Source:
Immersion Idols
गणपति बप्पा मोरया! गणपतिजी गए। नदियां उनके जाने से ज्यादा, उनकी प्रतिमाओं के नदी विसर्जन से दुखी हुईंं। विश्वकर्मा प्रतिमा का विसर्जन भी नदियों में ही हुआ। नवरात्र शुरु होने वाला है। नदियों ने बरसात के मौसम में खुद की सफाई कि अब त्योहारों का मौसम आ रहा है और लाखों मुर्तियां नदियों में विसर्जित की जाएंगी। नदियां आर्तनाद कर रही हैं कि मुझे फिर गंदला किया जाएगा।

गत् वर्ष इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के बाद शायद गंगा-यमुना बहनों ने राहत की सांस ली होगी कि अगली बार उन्हें कम-से-कम उत्तर प्रदेश में तो मूर्ति सामग्री का प्रदूषण नहीं झेलना पड़ेगा। किंतु उत्तर प्रदेश शासन की जान-बूझकर बरती जा रही ढिलाई और अदालत द्वारा दी राहत ने तय कर दिया है कि इस वर्ष भी गंगा-यमुना में मूर्ति विसर्जन जारी रहेगा।

जब राशि आवंटन ही नहीं, तो वैकल्पिक व्यवस्था कैैसी ?
उत्तर प्रदेश के प्रमुख सचिव महोदय ने अभी हाल ही में बयान दिया था कि गंगा को किसी भी हालत में प्रदूषित नहीं होने दिया जाएगा। किंतु 19 सितम्बर, 2014 को शासन ने अदालत के सामने फिर हाथ खड़े कर दिए। अदालत ने कहा कि इलाहाबाद शहर को छोड़कर गंगा-यमुना किनारे के शेष 21 जिलों में मूर्ति विसर्जन की वैकल्पिक व्यवस्था नहीं हो पाई है। लिहाजा, गंगा-यमुना में ही मूर्ति विसर्जन की छूट दी जाए। दिलचस्प है कि जारी ताजा आदेश में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने सशर्त छूट भी दे दी है। शर्त यह है कि मूर्ति विसर्जन कराते वक्त स्थानीय प्रशासन सुनिश्चित करें कि मूर्ति विसर्जन के बाबत् केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा जारी मार्ग-निर्देशों का पूरी तरह पालना हो।

कोर्ट के आदेश को लेकर उप्र. शासन इलाहाबाद कोर्ट के आदेश की पालना करने के प्रति कितना प्रतिबद्ध है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि मूर्ति विसर्जन की वैकल्पिक व्यवस्था के लिए शासन ने अभी तक राशि ही जारी नहीं की है। ऐसे में वैकल्पिक व्यवस्था की उम्मीद करें, तो करें कैसे?

तीन साल, तीन बहाने
ऐसा कोई पहली बार नहीं हुआ है; लगातार तीसरी साल यह छूट दी गई है। उत्तर प्रदेश शासन पिछले तीन साल से अदालत के सामने कोई-न-कोई बहाना बनाकर यह छूट हासिल कर रहा है।

गौरतलब है कि ‘इको ग्लोबल ऑर्गेनाइजेशन’ (याचिका संख्या-41310) नामक एक स्थानीय संगठन ने वर्ष 2010 में यमुना के इलाहाबाद स्थित सरस्वती घाट पर मूर्ति विसर्जन पर रोक का अनुरोध किया था। वर्ष-2012 में ही उत्तर प्रदेश हाईकोर्ट ने इलाहाबाद में गंगा और यमुना- दोनों में मूर्ति विसर्जन पर रोक लगा दी थी। उसने इलाहाबाद प्रशासन और विकास प्राधिकरण की जिम्मेदारी सुनिश्चित की थी, कि वह वैकल्पिक स्थान की व्यवस्था कर कोर्ट को सूचित करे।

प्रशासन ने समय की कमी का रोना रोते हुए वर्ष-2012 में यह छूट हासिल कर ली थी और यह वादा किया था कि वह अगले वर्ष वैकल्पिक व्यवस्था कर लेगा। वर्ष-2013 में उसने स्थानीय खुफिया रिपोर्ट के आधार पर कानून-व्यवस्था बिगड़ने का डर दिखाकर कोर्ट से फिर छूट हासिल की। हालांकि कोर्ट ने स्पष्ट कहा था कि गंगा-यमुना में मूर्ति विसर्जन पर यह रोक वर्ष-2014 से पूरे उत्तर प्रदेश में लागू हो जाएगी। इसके लिए उसने गंगा-यमुना प्रवाह मार्ग के जिलाधिकारियों को आवश्यक निर्देश व आवश्यक धन जारी करने का निर्देश भी उप्र. शासन को दे दिए थे।

रोक को इच्छुक नहीं शासन
‘इको ग्लोबल ऑर्गेनाइजेशन’ (याचिका संख्या-41310) नामक एक स्थानीय संगठन ने वर्ष 2010 में यमुना के इलाहाबाद स्थित सरस्वती घाट पर मूर्ति विसर्जन पर रोक का अनुरोध किया था। वर्ष-2012 में ही उत्तर प्रदेश हाईकोर्ट ने इलाहाबाद में गंगा और यमुना- दोनों में मूर्ति विसर्जन पर रोक लगा दी थी। उसने इलाहाबाद प्रशासन और विकास प्राधिकरण की जिम्मेदारी सुनिश्चित की थी, कि वह वैकल्पिक स्थान की व्यवस्था कर कोर्ट को सूचित करे, पर इसे अमल में नहीं लाया गया। हर साल नए बहाने गढ़े गए। प्रश्न यह है कि आखिर उत्तर प्रदेश शासन द्वारा अदालत के समक्ष बार-बार हाथ जोड़ कर काम चला लेने के इस रवैये के पीछे के क्या कारण है? क्या कोर्ट का दिया आदेश अव्यावहारिक है? क्या वैकल्पिक व्यवस्था करने में कोई तकनीकी दिक्कत है अथवा समाज इसके लिए तैयार नहीं? इलाहाबाद शहर में प्रशासन द्वारा तालाब बनाकर की गई वैकल्पिक व्यवस्था के बाद सब प्रश्न बेमानी हो जाते हैं, सिवाय इसके कि उप्र. शासन इस आदेश को बहुत महत्वपूर्ण नहीं मानता। वह मानता है कि गंगा-यमुना में पहले ही इतना प्रदूषण है, थोड़ा और हो गया, तो क्या फर्क पड़ेगा?

मार्गदर्शी निर्देश
उल्लेखनीय है कि केेन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने वर्ष-2010 में अलग-अलग प्रकार की जल संरचनाओं में मूर्ति विसर्जन के लिए अलग-अलग मार्गदर्शी निर्देश जारी कर दिए थे। इन निर्देशों के मुताबिक, मूर्ति विसर्जन से पहले जैविक-अजैविक पदार्थों को मूर्ति से उतारकर अलग-अलग रखना जरूरी है। वस्त्रों को उतारकर अनाथालयों में पहुंचाना चाहिए। सिंथेटिक पेंट (रंग) के स्थान पर प्राकृतिक रंगों का इस्तेमाल करना चाहिए। मूर्ति विसर्जन से पूर्व विसर्जन स्थल पर एक ऐसा जाल बिछाया जाना चाहिए, ताकि उसके अवशेषों को तुरंत बाहर निकाला जा सके।

मूर्ति के अवशेषों को मौके से हटाने की अवधि अलग-अलग जल संरचनाओं के लिए 24 से 48 घंटे निर्धारित की गई है। कहा गया है कि मूर्ति विसर्जन के स्थान आदि निर्णयों की बाबत् नदी प्राधिकरण, जलबोर्ड, सिंचाई विभाग, प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, स्थानीय स्वयंसेवी संगठन आदि से पूछा जाना चाहिए। इन्हें शामिल कर कमेटी गठित करने का भी निर्देश है। मूर्ति विसर्जन के सैद्धांतिक मार्गदर्शी निर्देशों को लागू कराने के लिए जनजागृति की जिम्मेदारी राज्य व जिला प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड इकाइयों को सौंपी गई है।

समाज करे पहल
उत्तर प्रदेश का राज भले ही इच्छुक न हो, समाज चाहे तो इन निर्देशों का पालन कर मिसाल पेश कर सकता है। समाज भी जागे और नदी की पीड़ा के बहाने यह समझे कि नदियों के मलिन होने से उसकी आर्थिकी, भूगोल, खेती और सेहत... सब कुछ मलिन हो रहे हैं। इससे उबरने के लिए जरूरी है कि हम खुद वैकल्पिक व्यवस्था करने की खुद पहल करें। नदियों में मूर्ति विसर्जन की बजाय या तो भूमि विसर्जन करें अथवा स्थानीय तालाबों में विसर्जन करें। यह करते वक्त केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के मार्ग-निर्देशों का पालन करना न भूलें। ऐसा कर हम अपनी नदियों का सहयोग करेंगे, और अपनी सेहत का भी।

.... ताकि बने नजीर
वैकल्पिक व्यवस्था हेतु धनराशि जारी करने को लेकर अदालत ने आगामी 26 सितम्बर को फिर सुनवाई तय की है। उत्तर प्रदेश के सामाजिक संगठनों द्वारा इलाहाबाद हाईकोर्ट से बड़े पैमाने पर निवेदन किए जाने की जरूरत है कि वह आदेश के दायरे में आने वाले सभी शहरों के जिलाधीशों से मूर्ति विसर्जन की वैकल्पिक व्यवस्था संबंधी समयबद्ध कार्य योजना का हलफनामा ले। पालना होने पर उनके दण्ड से भी अभी ही अवगत करा दे, ताकि 2014 में मिली छूट अंतिम हो और उत्तर प्रदेश की गंगा-यमुना में मूर्ति विसर्जन को लेकर यह आदेश एक नजीर बने और इससे प्रेरित हो देश की सभी नदियों में मूर्ति विसर्जन पर रोक की राह खुले। हो सकता कि तब शंकराचार्य जी धर्म संसद कर इस बाबत् भी कोई धर्मादेश जारी कर दें।

Submitted by Shivendra on Mon, 09/22/2014 - 13:29
Source:
bhutnal lake

कनार्टक के बीजापुर जिले की कोई बीस लाख आबादी को पानी की त्राहि-त्राहि के लिए गर्मी का इंतजार नहीं करना पड़ता है। कहने को इलाके चप्पे-चप्पे पर जल भंडारण के अनगिनत संसाधन मौजूद है, लेकिन हकीकत में बारिश का पानी यहां टिकता ही नहीं हैं।

लोग रीते नलों को कोसते हैं, जबकि उनकी किस्मत को आदिलशाही जल प्रबंधन के बेमिसाल उपकरणों की उपेक्षा का दंश लगा हुआ है। समाज और सरकार पारंपरिक जल-स्रोतों कुओं, बावड़ियों और तालाबों में गाद होने की बात करता है, जबकि हकीकत में गाद तो उन्हीं के माथे पर है। सदानीरा रहने वाली बावड़ी-कुओं को बोरवेल और कचरे ने पाट दिया तो तालाबों को कंक्रीट का जंगल निगल गया।

प्रयास

Submitted by Editorial Team on Thu, 12/08/2022 - 13:06
सीतापुर का नैमिषारण्य तीर्थ क्षेत्र, फोटो साभार - उप्र सरकार
श्री नैभिषारण्य धाम तीर्थ परिषद के गठन को प्रदेश मंत्रिमएडल ने स्वीकृति प्रदान की, जिसके अध्यक्ष स्वयं मुख्यमंत्री होंगे। इसके अंतर्गत नैमिषारण्य की होली के अवसर पर चौरासी कोसी 5 दिवसीय परिक्रमा पथ और उस पर स्थापित सम्पूर्ण देश की संह्कृति एवं एकात्मता के वह सभी तीर्थ एवं उनके स्थल केंद्रित हैं। इस सम्पूर्ण नैमिशारण्य क्षेत्र में लोक भारती पिछले 10 वर्ष से कार्य कर रही है। नैमिषाराण्य क्षेत्र के भूगर्भ जल स्रोतो का अध्ययन एवं उनके पुनर्नीवन पर लगातार कार्य चल रहा है। वर्षा नल सरक्षण एवं संम्भरण हेतु तालाबें के पुनर्नीवन अनियान के जवर्गत 119 तालाबों का पृनरुद्धार लोक भारती के प्रयासों से सम्पन्न हुआ है।

नोटिस बोर्ड

Submitted by Shivendra on Tue, 09/06/2022 - 14:16
Source:
चरखा फीचर
'संजॉय घोष मीडिया अवार्ड्स – 2022
कार्य अनुभव के विवरण के साथ संक्षिप्त पाठ्यक्रम जीवन लगभग 800-1000 शब्दों का एक प्रस्ताव, जिसमें उस विशेष विषयगत क्षेत्र को रेखांकित किया गया हो, जिसमें आवेदक काम करना चाहता है. प्रस्ताव में अध्ययन की विशिष्ट भौगोलिक स्थिति, कार्यप्रणाली, चयनित विषय की प्रासंगिकता के साथ-साथ इन लेखों से अपेक्षित प्रभाव के बारे में विवरण शामिल होनी चाहिए. साथ ही, इस बात का उल्लेख होनी चाहिए कि देश के विकास से जुड़ी बहस में इसके योगदान किस प्रकार हो सकता है? कृपया आलेख प्रस्तुत करने वाली भाषा भी निर्दिष्ट करें। लेख अंग्रेजी, हिंदी या उर्दू में ही स्वीकार किए जाएंगे
Submitted by Shivendra on Tue, 08/23/2022 - 17:19
Source:
यूसर्क
जल विज्ञान प्रशिक्षण कार्यशाला
उत्तराखंड विज्ञान शिक्षा एवं अनुसंधान केंद्र द्वारा आज दिनांक 23.08.22 को तीन दिवसीय जल विज्ञान प्रशिक्षण प्रारंभ किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए यूसर्क की निदेशक प्रो.(डॉ.) अनीता रावत ने अपने संबोधन में कहा कि यूसर्क द्वारा जल के महत्व को देखते हुए विगत वर्ष 2021 को संयुक्त राष्ट्र की विश्व पर्यावरण दिवस की थीम "ईको सिस्टम रेस्टोरेशन" के अंर्तगत आयोजित कार्यक्रम के निष्कर्षों के क्रम में जल विज्ञान विषयक लेक्चर सीरीज एवं जल विज्ञान प्रशिक्षण कार्यक्रमों को प्रारंभ किया गया
Submitted by Shivendra on Mon, 07/25/2022 - 15:34
Source:
यूसर्क
जल शिक्षा व्याख्यान श्रृंखला
इस दौरान राष्ट्रीय पर्यावरण  इंजीनियरिंग अनुसंधान संस्था के वरिष्ठ वैज्ञानिक और अपशिष्ट जल विभाग विभाग के प्रमुख डॉक्टर रितेश विजय  सस्टेनेबल  वेस्ट वाटर ट्रीटमेंट फॉर लिक्विड वेस्ट मैनेजमेंट (Sustainable Wastewater Treatment for Liquid Waste Management) विषय  पर विशेषज्ञ तौर पर अपनी राय रखेंगे।

Latest

खासम-खास

तालाब ज्ञान-संस्कृति : नींव से शिखर तक

Submitted by Editorial Team on Tue, 10/04/2022 - 16:13
Author
कृष्ण गोपाल 'व्यास’
talab-gyan-sanskriti-:-ninv-se-shikhar-tak
कूरम में पुनर्निर्मित समथमन मंदिर तालाब। फोटो - indiawaterportal
परम्परागत तालाबों पर अनुपम मिश्र की किताब ‘आज भी खरे हैं तालाब’, पहली बार, वर्ष 1993 में प्रकाशित हुई थी। इस किताब में अनुपम ने समाज से प्राप्त जानकारी के आधार पर भारत के विभिन्न भागों में बने तालाबों के बारे में व्यापक विवरण प्रस्तुत किया है। अर्थात आज भी खरे हैं तालाब में दर्ज विवरण परम्परागत तालाबों पर समाज की राय है। उनका दृष्टिबोध है। उन विवरणों में समाज की भावनायें, आस्था, मान्यतायें, रीति-रिवाज तथा परम्परागत तालाबों के निर्माण से जुड़े कर्मकाण्ड दर्ज हैं। प्रस्तुति और शैली अनुपम की है।

Content

जोड़ने की या उजाड़ने की योजना

Submitted by Shivendra on Fri, 09/26/2014 - 11:29
Author
पीयूष बबेले
Source
इंडिया टुडे, सितंबर 2014
Ken Betwa Nadijod pariyojna
. प्रसिद्ध खजुराहो के मंदिरों से महज 20 किलोमीटर की दूरी पर एक नया आकर्षण जन्म ले रहा है। यह कुछ और नहीं बल्कि देश भर में सैकड़ों नदियों को एक-दूसरे से कुछ बेढब और निरा अवैज्ञानिक किस्म से जोड़ने की कोशिश है। हम इस नए अप्राकृतिक या कृत्रिम योजना को देखने के आकर्षण में पन्ना टाइगर रिजर्व के गंगऊ द्वार की तरफ बढ़ चले।

बाढ़ और सुखाड़ से निपटारा!


अब दशक से ठंडे बस्ते में पड़ी योजना को साकार किया जा रहा है। केन-बेतवा नदी जोड़ो परियोजना को नरेंद्र मोदी सरकार की मंजूरी मिलने के बाद फिजां में नए गुंताड़े चल रहे हैं। बहुत से लोगों का मानना है कि केन में अक्सर आने वाली बाढ़ में बर्बाद होने वाला पानी अब बेतवा में पहुंचकर हजारों एकड़ खेतों में फसलों को सिंचित करेगी और हमारे अनाज उत्पादन में अप्रत्याशित तौर पर बढ़ोतरी दर्ज की जाएगी।

इस सवाल का जवाब कौन देगा


दूसरा पक्ष पूछता है कि 9,000 करोड़ रुपये खर्च करने के बाद उन नदियों को मिलाने से क्या फायदा जो आगे चलकर खुद ही यमुना में मिल जाती हैं। दूसरा सवाल यह कि पहले से ही बाघों को बचाने के लिए परेशान देश क्या पन्ना टाइगर रिजर्व के 5,258 हेक्टेयर हिस्से को डुब वाले बांध का स्वागत करने को तैयार है?

प्यासी जमीन को मिलेगा पानी!


ऐस ही कुछ बुनियादी सवालों की जमीनी हकीकत को टटोलने की चाह में गंगऊ द्वार खुला और हम पन्ना टाइगर रिजर्व के अंदर पहुंच गए। विंध्याचल की पहाड़ियों पर हरे-भरे जंगलों के बीच पूरी तरह उबड़-खाबड़ रास्तों पर चलते हुए हम केन नदी पर बने 99 साल पुराने गंगऊ बांध तक पहुंच गए। बांध का दृश्य विहंगम है, लेकिन गाद से पटा बूढ़ा बांध अब बहुत पानी नहीं रोक पाता। देशभर में नदियों को जोड़ने का खाका खींचने वाली नेशनल वाटर डेवलपमेंट अथॉरटी (एनडब्ल्यूडीए) ने इस बांध से 4 किमी ऊपर डोढन गांव में नया विशाल डोढन बांध बनाने का फैसला किया है। पर्यावरणविद् अनुपम मिश्र की यह बात यहां हमें सही लगी कि बांध, नहर आदि से गाद की मात्रा बढ़ती जाती है और यह बाढ़ के खतरों को भी बढ़ाने का काम करती है।

आदिवासियों के 10 गांव डूब जाएंगे


यहां 9,000 हेक्टेयर के जलाशय में पानी रोका जाएगा। इस जलाशय में छतरपुर जिले की बिजावर तहसील के 10 आदिवासी बहुल वनग्राम सुकवाहा, भोरकुवां, घुघरी, बसुधा, कुपी, शाहपुरा, डोढन, पिलकोहा, खरयानी और मनियारी डूब जाएंगे। पास ही दो बिजली घर (पावर हाउस) बनाए जाएंगे जिनसे 78 मेगावाट हाइड्रोपावर का उत्पादन किया जाएगा। यहां से 220 किमी लंबी नहर निकाली जाएगी जो मध्य प्रदेश के छतरपुर और टीकमगढ़ जिले और उत्तर प्रदेश के महोबा जिले से होते हुए अंत में झांसी जिले के चंदेल कालीन बरुआसागर तालाब में केन के अतिरिक्त पानी को गिराएगी।

यहां से यह पानी 20 किमी आगे पारीछा बांध में पहुंच जाएगा। 4,317 हेक्टेयर क्षेत्रफल में फैली नहर अपने रास्ते में पड़ने वाले 60,000 हेक्टेयर खेतों को सींचेगी। एनडब्ल्यूडीए की विस्तार परियोजना रिपोर्ट (डीपीआर) में ऐसा दावा किया गया है। रास्ते में पानी के उपयोग के बाद 591 एमसीएम पानी शुद्ध रूप से केन नदी से बेतवा नदी को हर साल देने का दावा है. सबसे बड़ी बात यह कि अगर यह प्रयोग कामयाब रहा तो 150 साल से हवा में तैर रहे देश की अलग-अलग क्षेत्रों की नदियों को आपस में जोड़ने की 30 योजनाओं का सपना भी आंखें खोलने लगेगा।

केन में कहां है इतना पानी


डीपीआर के मुताबिक, पानी का असली उपयोग यहीं से शुरू होगा. उत्तर प्रदेश को केन का अतिरिक्त पानी देने के बाद मध्य प्रदेश करीब इतना ही पानी बेतवा की ऊपरी धारा से निकाल लेगा। परियोजना के दूसरे चरण में मध्य प्रदेश चार बांध बनाकर रायसेन और विदिशा जिलों में सिंचाई का इंतजाम करेगा इसीलिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और जल संसाधन मंत्री उमा भारती इस योजना को लेकर खासे उत्साहित हैं।

केन-बेतवा नदी जोड़ से 9,000 हेक्टेयर के जलाशय में पानी रोका जाएगा। इस जलाशय में छतरपुर जिले की बिजावर तहसील के 10 आदिवासी बहुल वनग्राम सुकवाहा, भोरकुवां, घुघरी, बसुधा, कुपी, शाहपुरा, डोढन, पिलकोहा, खरयानी और मनियारी डूब जाएंगे। पास ही दो बिजली घर बनाए जाएंगे जिनसे 78 मेगावाट हाइड्रोपावर का उत्पादन किया जाएगा। यहां से 220 किमी लंबी नहर निकाली जाएगी जो मध्य प्रदेश के छतरपुर और टीकमगढ़ जिले और उत्तर प्रदेश के महोबा जिले से होते हुए अंत में झांसी जिले के चंदेल कालीन बरुआसागर तालाब में केन के अतिरिक्त पानी को गिराएगी।

34 हजार मेगावॉट बिजली का उत्पादन


उमा के उत्साह की एक वजह यह भी है कि वे इस योजना से जुड़ी उत्तर प्रदेश की झांसी लोकसभा सीट से सांसद हैं और इस योजना से जुड़े मध्य प्रदेश के छतरपुर और टीकमगढ़ जिले उनकी जन्मभूमि और राजनीति की मूल भूमि रही है। उमा ने तो लोकसभा में यहां तक कहा कि अगले 10 साल में देश में 30 नदी जोड़ो योजनाओं को पूरा किया जाएगा। इससे 34,000 मेगावाट बिजली तैयार की जा सकेगी।

इस के बारे में साउथ एशिया नेटवर्क ऑन डैम्स, रिवर्स एंड पीपुल (सैंड्रप) के निदेशक हिमांशु ठक्कर यह सवाल करते हैं, “सारी परियोजना इस परिकल्पना पर टिकी है कि केन नदी में फालतू पानी है। डीपीआर में यह मान लिया गया है कि बेतवा बेसिन में प्रति हेक्टेयर 6,157 क्यूबिक मिलियन पानी की जरूरत है जबकि केन बेसिन में प्रति हेक्टेयर 5,327 क्यूबिक मिलियन पानी की जरूरत है। केन बेसिन में पानी की जरूरत जान-बूझकर 16 फीसदी कम बताई गई ताकि यहां फालतू पानी दिखाया जा सके।”

बाघों को बचाने का नाटक


इसके अलावा पन्ना टाइगर रिजर्व और मौजूदा गंगऊ बांध की निचली धारा में बने घड़ियाल सेंचुरी को भी इससे बड़ा खतरा पैदा हो जाएगा। वैसे भी पन्ना टाइगर रिजर्व एक बार पहले भी अपने सारे बाघ खो चुका है और वहां अब नए सिरे से बाघों को बसाया जा रहा है। सुप्रीम कोर्ट में इस मामले को उठाने वाले भोपाल के पर्यावरण कार्यकर्ता अजय कुमार दुबे कहते हैं, ‘अगर बाघों का बसेरा उजाड़कर उन्हें मार ही डालना है तो सरकार बाघ बचाने का नाटक ही क्यों करती है?’ पर्यावरण से जुड़े इन्हीं अंदेशों के कारण कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी के समर्थन के बावजूद पिछली सरकार के पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने योजना को मंजूरी नहीं दी थी।

पर्यावरण कार्यकर्ता अरुंधति धू सवाल करती हैं, ‘बेतवा का पानी विदिशा में ही रुक जाएगा और केन का पानी झांसी को पारीछा में मिलेगा, लेकिन बीच में बने माताटीला और राजघाट बांधों का क्या होगा?” ये दोनों बांध इस बड़े इलाके की सिंचाई और पेयजल व्यवस्था के साथ ही 75 मेगावाट जलविद्युत का उत्पादन भी करते हैं। 300 करोड़ रु. लागत से बना राजघाट बांध तो 31 साल तक बनते-बनते 2006 में पूरा हुआ। इन सवालों पर एनडब्ल्यूडीए की दलील है कि ये बांध अपनी लागत वसूल कर चुके हैं। यानी इनके खत्म होने में कोई बुराई नहीं है।

सरकारी कागजों में उजाड़ दिए गए बसावट वाले गांव


ये सवाल जेहन में घूम ही रहे थे कि इस बीच गंगऊ बांध पर डोढन गांव के 40 वर्षीय मुन्नालाल यादव और 70 वर्षीय श्यामलाल आदिवासी मिल गए। श्यामलाल ने केन-बेतवा लिंक के बारे में कहा, ‘हां, अखबारों में कुछ देखा है लेकिन आज तक किसी सरकारी अफसर ने गांववालों से कोई बात नहीं की।”

उनके साथ एक किमी का सफर कर डोढन गांव पहुंच गए जो पूरी परियोजना का केंद्र बिंदु है। गांव की चौपाल में लोगों ने बताना शुरू किया कि उन्हें न तो योजना के बारे में कुछ पता है और न ही यह पता है कि उन्हें कोई मुआवजा भी मिलेगा या नहीं। 24 घंटे बिजली सुविधा के दावे करने वाले मध्य प्रदेश के इस गांव में बिजली की लाइन नहीं पहुंची है। गांव पन्ना टाइगर रिजर्व के अंदर है, लिहाजा इस आदिवासी बहुल गांव तक आने वाला सड़क की वर्षों से मरम्मत न होने की वजह से पूरी तरह टूट चुके हैं।

जब उनसे पूछा गया कि 2007 में एनडब्ल्यूडीए की तरफ से तैयार प्रावधान के मुताबिक हर विस्थापित होने वाले परिवार को औसतन दो लाख रु. मुआवजा मिलेगा तो 65 वर्षीया पार्वती आदिवासी उखड़ गईं। उन्होंने कोहनी तक हाथ जोड़े (बुंदेलखंड में इस तरह के प्रणाम का मतलब है कि अब आप यहां से दफा हो जाइए) औैर कहा, ‘हम अपने गांव में ठीक हैं. हमें न बांध चाहिए, न चुटकी भर मुआवजा।’

इसी तरह जब हम दूसरे प्रभावित होने वाले गांव पिलकोहा पहुंचे तो लोगों ने यही बताया कि केन-बेतवा लिंक के बारे में उड़ती-उड़ती खबरों के सिवा उनके पास कुछ नहीं है। गांववालों के प्रति व्यवस्था की आपराधिक असंवेदनशीलता का नमूना देखना जरूरी है। पिलकोहा में बाकायदा 8वीं तक का सरकारी स्कूल चल रहा है। ग्राम पंचायत है। लोगों के पास मतदाता पहचान-पत्र हैं और 2,500 लोग यहां रह रहे हैं।

केन-बेतवा में विस्थापित होने वाले पिलकोहा गांव के लोग

अभी 806 परिवार और विस्थापित होंगे


बांदा के आरटीआई कार्यकर्ता आशीष सागर दीक्षित की याचिका पर 1 जुलाई 2010 को एनडब्ल्यूडीए ने बताया , “डीपीआर के मुताबिक पन्ना टाइगर रिजर्व के 10 गांव प्रभावित गांवों की सूची में आते हैं। डोढन बांध से प्रभावित होने वाले 10 गांवों में से चार गांव नामतरू मैनारी, खरयानी, पिलकोहा और डोढन पूर्व में ही वन विभाग द्वारा विस्थापति कराए जा चुके हैं। शेष छह गांव के 806 परिवार विस्थापित कराने शेष हैं।” गांव की चौपाल पर आरटीआई की चिट्ठी पढ़ते-पढ़ते जैसे ही ये पंक्तियां आईं तो पिलकोहा के सरपंच जगन्नाथ यादव के हाथों से तोते उड़ गए।

सागौन, खैर और बांस के जंगलों से घिरे गांव में सन्नाटा तोड़ते हुए यादव ने कहा, ‘ये क्या मजाक है। वे तो मानते ही नहीं कि हम यहां रहते हैं।’ गांव वालों को कतई उम्मीद नहीं थी कि इस योजना के बारे में पहली आधिकारिक चिट्ठी उन्हें इस तरह देखने को मिलेगी। दो दिन तक दुर्गम गांवों में पहुंचने और गांववालों से बातचीत में यही कहानी दोहराई जाती रही।

केन की सहायक नदी स्यामरी के किनारे बसे सुकवाहा के 25 वर्षीय बलबीर सिंह यह मान चल रहे थे कि अगर उनके गांव की जमीन डूब क्षेत्र में आती है तो कम-से-कम 50 लाख रुपए मुआवजा तो मिल ही जाएगा। इससे वे छतरपुर में एक स्कूल खोल लेंगे। लेकिन मुआवजे पर छाए धुंधलके में भविष्य की उनकी योजनाएं हिचकोले खाने लगी हैं।

जब इन सारे पहलुओं पर एनडब्ल्यूडीए के चीफ इंजीनियर (मुख्यालय) आर.के. जैन से सवाल किया गया तो उन्होंने कहा, “हमारा काम डीपीआर तैयार करना है। लोगों के विस्थापन या पुनर्वास की जानकारी राज्यों की सरकारों की है। आरटीआई में वही जवाब दिया गया होगा जो आंकड़े वन विभाग से मिले हैं।”

साथ ही उन्होंने कहा, ‘लेकिन अगर कोई भी विसंगति आती है तो उसका पूरा ध्यान रखा जाएगा। मुआवजे के सवाल पर उन्होंने कहा कि 2013 में इस बारे में नया प्लान बनाया गया है और किसी भी सूरत में गांव वालों को बेहतर मुआवजा मिलेगा।’ परियोजना कब तक शुरू होगी, इस बारे में उन्होंने कहा, ‘राज्यों से तकनीकी और पर्यावरण संबंधी नियमों के अनुसार स्वीकृति मिलने के बाद ही काम शुरू होगा।’

केन बेतवा नदी जोड़ परियोजना से विस्थापित होने वाले गांव के लोगडीपीआर में इतनी गंभीर खामियां की वजह से परियोजना के शुरू होने से पूर्व ही विश्वसनीयता पर सवाल उठने लगे हैं। क्या ऐसी परियोजना जिसकी कामयाबी देश की सूरत हमेशा के लिए बदल सकती है, कुछ ज्यादा जिम्मेदारी की मांग नहीं करती

साथ में संतोष पाठक

ऐसे कैसे रुकेगा नदियों में मूर्ति विसर्जन

Submitted by Shivendra on Mon, 09/22/2014 - 15:39
Author
अरुण तिवारी
Immersion Idols
. गणपति बप्पा मोरया! गणपतिजी गए। नदियां उनके जाने से ज्यादा, उनकी प्रतिमाओं के नदी विसर्जन से दुखी हुईंं। विश्वकर्मा प्रतिमा का विसर्जन भी नदियों में ही हुआ। नवरात्र शुरु होने वाला है। नदियों ने बरसात के मौसम में खुद की सफाई कि अब त्योहारों का मौसम आ रहा है और लाखों मुर्तियां नदियों में विसर्जित की जाएंगी। नदियां आर्तनाद कर रही हैं कि मुझे फिर गंदला किया जाएगा।

गत् वर्ष इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के बाद शायद गंगा-यमुना बहनों ने राहत की सांस ली होगी कि अगली बार उन्हें कम-से-कम उत्तर प्रदेश में तो मूर्ति सामग्री का प्रदूषण नहीं झेलना पड़ेगा। किंतु उत्तर प्रदेश शासन की जान-बूझकर बरती जा रही ढिलाई और अदालत द्वारा दी राहत ने तय कर दिया है कि इस वर्ष भी गंगा-यमुना में मूर्ति विसर्जन जारी रहेगा।

जब राशि आवंटन ही नहीं, तो वैकल्पिक व्यवस्था कैैसी ?


उत्तर प्रदेश के प्रमुख सचिव महोदय ने अभी हाल ही में बयान दिया था कि गंगा को किसी भी हालत में प्रदूषित नहीं होने दिया जाएगा। किंतु 19 सितम्बर, 2014 को शासन ने अदालत के सामने फिर हाथ खड़े कर दिए। अदालत ने कहा कि इलाहाबाद शहर को छोड़कर गंगा-यमुना किनारे के शेष 21 जिलों में मूर्ति विसर्जन की वैकल्पिक व्यवस्था नहीं हो पाई है। लिहाजा, गंगा-यमुना में ही मूर्ति विसर्जन की छूट दी जाए। दिलचस्प है कि जारी ताजा आदेश में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने सशर्त छूट भी दे दी है। शर्त यह है कि मूर्ति विसर्जन कराते वक्त स्थानीय प्रशासन सुनिश्चित करें कि मूर्ति विसर्जन के बाबत् केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा जारी मार्ग-निर्देशों का पूरी तरह पालना हो।

कोर्ट के आदेश को लेकर उप्र. शासन इलाहाबाद कोर्ट के आदेश की पालना करने के प्रति कितना प्रतिबद्ध है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि मूर्ति विसर्जन की वैकल्पिक व्यवस्था के लिए शासन ने अभी तक राशि ही जारी नहीं की है। ऐसे में वैकल्पिक व्यवस्था की उम्मीद करें, तो करें कैसे?

तीन साल, तीन बहाने


ऐसा कोई पहली बार नहीं हुआ है; लगातार तीसरी साल यह छूट दी गई है। उत्तर प्रदेश शासन पिछले तीन साल से अदालत के सामने कोई-न-कोई बहाना बनाकर यह छूट हासिल कर रहा है।

गौरतलब है कि ‘इको ग्लोबल ऑर्गेनाइजेशन’ (याचिका संख्या-41310) नामक एक स्थानीय संगठन ने वर्ष 2010 में यमुना के इलाहाबाद स्थित सरस्वती घाट पर मूर्ति विसर्जन पर रोक का अनुरोध किया था। वर्ष-2012 में ही उत्तर प्रदेश हाईकोर्ट ने इलाहाबाद में गंगा और यमुना- दोनों में मूर्ति विसर्जन पर रोक लगा दी थी। उसने इलाहाबाद प्रशासन और विकास प्राधिकरण की जिम्मेदारी सुनिश्चित की थी, कि वह वैकल्पिक स्थान की व्यवस्था कर कोर्ट को सूचित करे।

प्रशासन ने समय की कमी का रोना रोते हुए वर्ष-2012 में यह छूट हासिल कर ली थी और यह वादा किया था कि वह अगले वर्ष वैकल्पिक व्यवस्था कर लेगा। वर्ष-2013 में उसने स्थानीय खुफिया रिपोर्ट के आधार पर कानून-व्यवस्था बिगड़ने का डर दिखाकर कोर्ट से फिर छूट हासिल की। हालांकि कोर्ट ने स्पष्ट कहा था कि गंगा-यमुना में मूर्ति विसर्जन पर यह रोक वर्ष-2014 से पूरे उत्तर प्रदेश में लागू हो जाएगी। इसके लिए उसने गंगा-यमुना प्रवाह मार्ग के जिलाधिकारियों को आवश्यक निर्देश व आवश्यक धन जारी करने का निर्देश भी उप्र. शासन को दे दिए थे।

रोक को इच्छुक नहीं शासन


‘इको ग्लोबल ऑर्गेनाइजेशन’ (याचिका संख्या-41310) नामक एक स्थानीय संगठन ने वर्ष 2010 में यमुना के इलाहाबाद स्थित सरस्वती घाट पर मूर्ति विसर्जन पर रोक का अनुरोध किया था। वर्ष-2012 में ही उत्तर प्रदेश हाईकोर्ट ने इलाहाबाद में गंगा और यमुना- दोनों में मूर्ति विसर्जन पर रोक लगा दी थी। उसने इलाहाबाद प्रशासन और विकास प्राधिकरण की जिम्मेदारी सुनिश्चित की थी, कि वह वैकल्पिक स्थान की व्यवस्था कर कोर्ट को सूचित करे, पर इसे अमल में नहीं लाया गया। हर साल नए बहाने गढ़े गए। प्रश्न यह है कि आखिर उत्तर प्रदेश शासन द्वारा अदालत के समक्ष बार-बार हाथ जोड़ कर काम चला लेने के इस रवैये के पीछे के क्या कारण है? क्या कोर्ट का दिया आदेश अव्यावहारिक है? क्या वैकल्पिक व्यवस्था करने में कोई तकनीकी दिक्कत है अथवा समाज इसके लिए तैयार नहीं? इलाहाबाद शहर में प्रशासन द्वारा तालाब बनाकर की गई वैकल्पिक व्यवस्था के बाद सब प्रश्न बेमानी हो जाते हैं, सिवाय इसके कि उप्र. शासन इस आदेश को बहुत महत्वपूर्ण नहीं मानता। वह मानता है कि गंगा-यमुना में पहले ही इतना प्रदूषण है, थोड़ा और हो गया, तो क्या फर्क पड़ेगा?

मार्गदर्शी निर्देश


उल्लेखनीय है कि केेन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने वर्ष-2010 में अलग-अलग प्रकार की जल संरचनाओं में मूर्ति विसर्जन के लिए अलग-अलग मार्गदर्शी निर्देश जारी कर दिए थे। इन निर्देशों के मुताबिक, मूर्ति विसर्जन से पहले जैविक-अजैविक पदार्थों को मूर्ति से उतारकर अलग-अलग रखना जरूरी है। वस्त्रों को उतारकर अनाथालयों में पहुंचाना चाहिए। सिंथेटिक पेंट (रंग) के स्थान पर प्राकृतिक रंगों का इस्तेमाल करना चाहिए। मूर्ति विसर्जन से पूर्व विसर्जन स्थल पर एक ऐसा जाल बिछाया जाना चाहिए, ताकि उसके अवशेषों को तुरंत बाहर निकाला जा सके।

मूर्ति के अवशेषों को मौके से हटाने की अवधि अलग-अलग जल संरचनाओं के लिए 24 से 48 घंटे निर्धारित की गई है। कहा गया है कि मूर्ति विसर्जन के स्थान आदि निर्णयों की बाबत् नदी प्राधिकरण, जलबोर्ड, सिंचाई विभाग, प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, स्थानीय स्वयंसेवी संगठन आदि से पूछा जाना चाहिए। इन्हें शामिल कर कमेटी गठित करने का भी निर्देश है। मूर्ति विसर्जन के सैद्धांतिक मार्गदर्शी निर्देशों को लागू कराने के लिए जनजागृति की जिम्मेदारी राज्य व जिला प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड इकाइयों को सौंपी गई है।

समाज करे पहल


उत्तर प्रदेश का राज भले ही इच्छुक न हो, समाज चाहे तो इन निर्देशों का पालन कर मिसाल पेश कर सकता है। समाज भी जागे और नदी की पीड़ा के बहाने यह समझे कि नदियों के मलिन होने से उसकी आर्थिकी, भूगोल, खेती और सेहत... सब कुछ मलिन हो रहे हैं। इससे उबरने के लिए जरूरी है कि हम खुद वैकल्पिक व्यवस्था करने की खुद पहल करें। नदियों में मूर्ति विसर्जन की बजाय या तो भूमि विसर्जन करें अथवा स्थानीय तालाबों में विसर्जन करें। यह करते वक्त केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के मार्ग-निर्देशों का पालन करना न भूलें। ऐसा कर हम अपनी नदियों का सहयोग करेंगे, और अपनी सेहत का भी।

मुर्ति विसर्जन

.... ताकि बने नजीर


वैकल्पिक व्यवस्था हेतु धनराशि जारी करने को लेकर अदालत ने आगामी 26 सितम्बर को फिर सुनवाई तय की है। उत्तर प्रदेश के सामाजिक संगठनों द्वारा इलाहाबाद हाईकोर्ट से बड़े पैमाने पर निवेदन किए जाने की जरूरत है कि वह आदेश के दायरे में आने वाले सभी शहरों के जिलाधीशों से मूर्ति विसर्जन की वैकल्पिक व्यवस्था संबंधी समयबद्ध कार्य योजना का हलफनामा ले। पालना होने पर उनके दण्ड से भी अभी ही अवगत करा दे, ताकि 2014 में मिली छूट अंतिम हो और उत्तर प्रदेश की गंगा-यमुना में मूर्ति विसर्जन को लेकर यह आदेश एक नजीर बने और इससे प्रेरित हो देश की सभी नदियों में मूर्ति विसर्जन पर रोक की राह खुले। हो सकता कि तब शंकराचार्य जी धर्म संसद कर इस बाबत् भी कोई धर्मादेश जारी कर दें।

आदिलशाही जल प्रणाली पर भारी पड़ी लोकतांत्रिक प्रबंधन प्रणाली

Submitted by Shivendra on Mon, 09/22/2014 - 13:29
Author
पंकज चतुर्वेदी
bhutnal lake

.कनार्टक के बीजापुर जिले की कोई बीस लाख आबादी को पानी की त्राहि-त्राहि के लिए गर्मी का इंतजार नहीं करना पड़ता है। कहने को इलाके चप्पे-चप्पे पर जल भंडारण के अनगिनत संसाधन मौजूद है, लेकिन हकीकत में बारिश का पानी यहां टिकता ही नहीं हैं।

लोग रीते नलों को कोसते हैं, जबकि उनकी किस्मत को आदिलशाही जल प्रबंधन के बेमिसाल उपकरणों की उपेक्षा का दंश लगा हुआ है। समाज और सरकार पारंपरिक जल-स्रोतों कुओं, बावड़ियों और तालाबों में गाद होने की बात करता है, जबकि हकीकत में गाद तो उन्हीं के माथे पर है। सदानीरा रहने वाली बावड़ी-कुओं को बोरवेल और कचरे ने पाट दिया तो तालाबों को कंक्रीट का जंगल निगल गया।

प्रयास

सीतापुर और हरदोई के 36 गांव मिलाकर हो रहा है ‘नैमिषारण्य तीर्थ विकास परिषद’ गठन  

Submitted by Editorial Team on Thu, 12/08/2022 - 13:06
sitapur-aur-hardoi-ke-36-gaon-milaakar-ho-raha-hai-'naimisharany-tirth-vikas-parishad'-gathan
Source
लोकसम्मान पत्रिका, दिसम्बर-2022
सीतापुर का नैमिषारण्य तीर्थ क्षेत्र, फोटो साभार - उप्र सरकार
श्री नैभिषारण्य धाम तीर्थ परिषद के गठन को प्रदेश मंत्रिमएडल ने स्वीकृति प्रदान की, जिसके अध्यक्ष स्वयं मुख्यमंत्री होंगे। इसके अंतर्गत नैमिषारण्य की होली के अवसर पर चौरासी कोसी 5 दिवसीय परिक्रमा पथ और उस पर स्थापित सम्पूर्ण देश की संह्कृति एवं एकात्मता के वह सभी तीर्थ एवं उनके स्थल केंद्रित हैं। इस सम्पूर्ण नैमिशारण्य क्षेत्र में लोक भारती पिछले 10 वर्ष से कार्य कर रही है। नैमिषाराण्य क्षेत्र के भूगर्भ जल स्रोतो का अध्ययन एवं उनके पुनर्नीवन पर लगातार कार्य चल रहा है। वर्षा नल सरक्षण एवं संम्भरण हेतु तालाबें के पुनर्नीवन अनियान के जवर्गत 119 तालाबों का पृनरुद्धार लोक भारती के प्रयासों से सम्पन्न हुआ है।

नोटिस बोर्ड

'संजॉय घोष मीडिया अवार्ड्स – 2022

Submitted by Shivendra on Tue, 09/06/2022 - 14:16
sanjoy-ghosh-media-awards-–-2022
Source
चरखा फीचर
'संजॉय घोष मीडिया अवार्ड्स – 2022
कार्य अनुभव के विवरण के साथ संक्षिप्त पाठ्यक्रम जीवन लगभग 800-1000 शब्दों का एक प्रस्ताव, जिसमें उस विशेष विषयगत क्षेत्र को रेखांकित किया गया हो, जिसमें आवेदक काम करना चाहता है. प्रस्ताव में अध्ययन की विशिष्ट भौगोलिक स्थिति, कार्यप्रणाली, चयनित विषय की प्रासंगिकता के साथ-साथ इन लेखों से अपेक्षित प्रभाव के बारे में विवरण शामिल होनी चाहिए. साथ ही, इस बात का उल्लेख होनी चाहिए कि देश के विकास से जुड़ी बहस में इसके योगदान किस प्रकार हो सकता है? कृपया आलेख प्रस्तुत करने वाली भाषा भी निर्दिष्ट करें। लेख अंग्रेजी, हिंदी या उर्दू में ही स्वीकार किए जाएंगे

​यूसर्क द्वारा तीन दिवसीय जल विज्ञान प्रशिक्षण प्रारंभ

Submitted by Shivendra on Tue, 08/23/2022 - 17:19
USERC-dvara-tin-divasiy-jal-vigyan-prashikshan-prarambh
Source
यूसर्क
जल विज्ञान प्रशिक्षण कार्यशाला
उत्तराखंड विज्ञान शिक्षा एवं अनुसंधान केंद्र द्वारा आज दिनांक 23.08.22 को तीन दिवसीय जल विज्ञान प्रशिक्षण प्रारंभ किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए यूसर्क की निदेशक प्रो.(डॉ.) अनीता रावत ने अपने संबोधन में कहा कि यूसर्क द्वारा जल के महत्व को देखते हुए विगत वर्ष 2021 को संयुक्त राष्ट्र की विश्व पर्यावरण दिवस की थीम "ईको सिस्टम रेस्टोरेशन" के अंर्तगत आयोजित कार्यक्रम के निष्कर्षों के क्रम में जल विज्ञान विषयक लेक्चर सीरीज एवं जल विज्ञान प्रशिक्षण कार्यक्रमों को प्रारंभ किया गया

28 जुलाई को यूसर्क द्वारा आयोजित जल शिक्षा व्याख्यान श्रृंखला पर भाग लेने के लिए पंजीकरण करायें

Submitted by Shivendra on Mon, 07/25/2022 - 15:34
28-july-ko-ayojit-hone-vale-jal-shiksha-vyakhyan-shrinkhala-par-bhag-lene-ke-liye-panjikaran-karayen
Source
यूसर्क
जल शिक्षा व्याख्यान श्रृंखला
इस दौरान राष्ट्रीय पर्यावरण  इंजीनियरिंग अनुसंधान संस्था के वरिष्ठ वैज्ञानिक और अपशिष्ट जल विभाग विभाग के प्रमुख डॉक्टर रितेश विजय  सस्टेनेबल  वेस्ट वाटर ट्रीटमेंट फॉर लिक्विड वेस्ट मैनेजमेंट (Sustainable Wastewater Treatment for Liquid Waste Management) विषय  पर विशेषज्ञ तौर पर अपनी राय रखेंगे।

Upcoming Event

Popular Articles