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बात आई-गई हो गई और एक दशक का लंबा वक्त बीत गया। पिछले साल की गर्मियों में प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और नगर विकास मंत्री आजम खान ने एक बार फिर बुंदेलखंड के तालाबों के संरक्षण को लेकर दिलचस्पी जाहिर की। कुल 16 तालाबों के संरक्षण के नाम पर 66 करोड़ रुपए जारी किए गए। संरक्षण बनाने के लिए नगरपालिका ने जब अपने रिकॉर्ड खंगाले तो उसमें मुनि तालाब का जिक्र तक नहीं था और वाजपेयी तालाब भी अपनी भौगोलिक सरहद में आधा ही बचा हुआ था।
अवैध कब्जे का सिलसिला
यह कहानी अकेले मुनि तालाब की नहीं है। बांदा के आरटीआई कार्यकर्ता आशीष सागर दीक्षित ने उत्तर प्रदेश सरकार के राजस्व विभाग से तालाबों के पूरे आंकड़े हासिल किए। इनसे पता चलता है कि नवंबर 2013 की खतौनी के मुताबिक, प्रदेश में 8,75,345 तालाब, झील, जलाशय और कुएं हैं। इनमें से 1,12,043 यानी कोई 15 फीसदी जल स्रोतों पर अवैध कब्जा किया जा चुका है। राजस्व विभाग का दावा है कि 2012-13 के दौरान 65,536 अवैध कब्जों को हटाया गया।
अवैध कब्जे तले दम तोड़ चुके जल स्रोतों के क्षेत्रफल पर नजर डालें तो यह 19,000 हेक्टेयर से भी ज्यादा बड़ा हिस्सा बैठता है। उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र में सिंचाई विभाग के पूर्व इंजीनियर के.के. जैन बताते हैं, ‘तालाब के हिस्से में पड़ने वाली यह जमीन अगर बचा ली जाती और इसका उचित तरीके से संरक्षण किया जाता तो यह कम-से-कम मझोले आकार के 10 बांधों से ज्यादा पानी उपलब्ध करा पाती। वह भी मुफ्त। बांध और नहर के निर्माण का खर्च भी बचाया जा सकता था।’ बांधों के लिए जमीन अधिग्रहण और विस्थापन जैसी समस्या भी पैदा नहीं होती।
शीतलीकरण का काम करते हैं तालाब
इन तालाबों पर अवैध कब्जे हुए कैसे? इसके बारे में राजस्व विभाग की ओर से रटी-रटाई दलीलें दी जाती हैं। आरटीआई के तहत मांगी गई एक जानकारी के जवाब में राजस्व विभाग की ओर से बताया गया है ‘पुरानी आबादी का होना, पक्का निर्माण, पट्टों का आवंटन और विवादों का अदालत में लंबित होना।’ हालांकि तालाबों के खत्म होने की इन सरकारी दलीलों के बहुत आगे भी नहीं ठहरती है।
बुंदेलखंड के चंदेल कालीन (9वीं से 14वीं शताब्दी) तालाबों की डिजाइन और इंजीनियरिंग पर 1980 के दशक में शिद्दत से काम करने वाले इनोवेटिव इंडियन फाउंडेशन (आइआइएफ) के डायरेक्टर सुधीर जैन की सुनिए, ‘‘इस इलाके में एक भी प्राकृतिक झील नहीं है। चंदेलों ने 1,300 साल पहले बड़े-बड़े तालाब बनवाए और उन्हें आपस में खूबसूरत अंडरग्राउंड वाटर चैनल्स के जरिए जोड़ा गया था। उस बेहद कम आबादी वाले जमाने में वे यह काम सिर्फ पीने के पानी के इंतजाम के लिए नहीं किया गया था। वे तो अपने शहरों को 48 डिग्री तापमान से बचाने के भी ऐसा पुख्ता इंतजाम किया करते थे।”
मऊरानीपुर से 50 किलोमीटर पूर्व में आल्हा-ऊदल के शहर महोबा में आज भी चंदेल कालीन विशाल तालाब दिख जाते हैं। इनमें सबसे प्रमुख मदन सागर तालाब के बीच में भगवान शंकर का विशाल अधबना मंदिर है। तालाब चारों तरफ से पहाड़ियों से घिरा है। लेकिन अब बरसात का पानी पहाड़ों से सरसराता हुआ तालाब में नहीं आता। बीच में घनी बस्ती, ऊंची सड़कें और पहाड़ों का पानी बह जाने के लिए नए रास्ते हैं।
तालाब के जिस छोर पर मई यह रिपोर्टर खड़ा था, उस जगह का उपयोग नगरपालिका कूड़ा फेंकने के लिए कर रही है। चारों ओर सूअरों का जमावड़ा लगा रहता है। वे वहीं मलमूत्र का त्याग करते हैं और तालाब किनारे के कीचड़ में वे लोटपोट होते रहते हैं। तालाबों के उद्धार के लिए पिछले साल उत्तर प्रदेश सरकार की तरफ से आमंत्रित विशेषज्ञ समिति के सदस्य रहे जैन कहते हैं, ‘‘महोबा के बाकी तालाब भी अपना वैभव खो रहे हैं।’’
बेजोड़ इंजीनियरिंग और डिजाइन की मिसाल
तालाबों की इंजीनियरिंग और डिजाइन पर नजर डालें तो यहां तालाबों की लंबी श्रृंखला है जो एक शहर तक सीमित नहीं बल्कि 100 किमी. के दायरे में पानी की ढाल पर बने कस्बों में फैली है। यानी जब एक शहर के सारे तालाब भर जाएं तो पानी अगले शहर के तालाबों को भरे और इलाके के सारे तालाब भरने के बाद ही बारिश का बचा हुआ पानी किसी नदी में गिरे।
तालाबों के साथ यह मजाक राजधानी दिल्ली में भी बदस्तूर जारी है। इस साल फरवरी में दिल्ली सरकार को सौंपी गई सेंटर फॉर साइंस ऐंड एनवायरनमेंट (सीएसई) की रिपोर्ट के मुताबिक, दिल्ली में 1,012 चिन्हित जल स्रोत हैं। इनमें से 338 पूरी तरह सूख चुके हैं। 107 ऐसे हैं, जिनकी अब पहचान ही नहीं की जा सकती। 70 पर आंशिक और 98 पर पूरी तरह कब्जा हो चुका है। 78 के ऊपर कानूनी तौर पर और 39 के ऊपर गैर-कानूनी तरीके से बुलंद इमारतें तामीर हो चुकी हैं।
आशीष सागर याद दिलाते हैं, ‘बांदा शहर की परिधि पर 12 तालाब थे। अब खोजने पर भी एक नहीं मिलता है।’ इस कस्बे का बाबू सिंह तालाब तो अब किसी छोटे-से पोखर जैसा दिखता है जो चारों तरफ से पक्के मकानों की बस्ती से जुड़ा हुआ है और सभी घरों से निकलने वाला गंदा पानी इस तालाब में जाता है। बांदा के नवाबों की शान रहे नवाब टैंक में भैंसें लोटती हुई दिख जाती हैं। महोबा जिले में ही बेलाताल कस्बे का चंदेल कालीन बेलासागर आज भी भोपाल के बड़े तालाब से टक्कर लेता दिखता है।यह तालाब विशाल है और इसका अंदाजा महज इस बात से लगाया जा सकता है कि इसके बीच में जल महल बने हुए हैं और अंग्रेजों ने इससे 3 बड़ी नहरें निकालीं थीं जो आगे जाकर छोटे-छोटे 1,000 तालाबों को पानी देती थीं लेकिन इस ब्रिटिश स्थापत्य की निशानी इन नहरों में पिछले साल तक कूड़ा जमा था और नहरों के फौलादी फाटक जाम हो चुके थे।
पिछले 12 साल से न तो तालाब पूरा भरा था और न कोई नहर चली। पिछले साल जब विशेषज्ञ समिति ने इसकी पड़ताल की तो पता चला कि गोंची नदी से तालाब में पानी लाने वाले नाले पर सिंचाई विभाग ने फाटक की जगह दीवार बना दी थी।
प्रशासन ने दीवार हटाई तो तालाब लबालब हो गया, लेकिन इस दौरान इससे जुड़े 1,000 तालाबों पर क्या गुजरी, इसका लेखा-जोखा बाकी है। आधुनिक इंजीनियरिंग ने पुरानी तकनीक के साथ बड़ा भद्दा मजाक किया।
दिल्ली में मिट चुके हैं तालाब
तालाबों के साथ यह मजाक राजधानी दिल्ली में भी बदस्तूर जारी है। इस साल फरवरी में दिल्ली सरकार को सौंपी गई सेंटर फॉर साइंस ऐंड एनवायरनमेंट (सीएसई) की रिपोर्ट के मुताबिक, दिल्ली में 1,012 चिन्हित जल स्रोत हैं। इनमें से 338 पूरी तरह सूख चुके हैं। 107 ऐसे हैं, जिनकी अब पहचान ही नहीं की जा सकती। 70 पर आंशिक और 98 पर पूरी तरह कब्जा हो चुका है। 78 के ऊपर कानूनी तौर पर और 39 के ऊपर गैर-कानूनी तरीके से बुलंद इमारतें तामीर हो चुकी हैं।
तालाबों की दुनिया में लंबे समय से काम करने वाले अनुपम मिश्र कहते हैं, ‘‘शहर को पानी चाहिए, तालाब नहीं। जमीन की कीमत आसमान पर है। इसी शहर ने तो 10 तालाबों को मिटाकर एयरपोर्ट का टी-3 टर्मिनल बनाया है।’’ यह वही शहर है जहां एक घंटे की बारिश में जल प्रलय जैसा दृश्य उभर आता है और टीवी पर हाहाकार मच जाता है। अनुपम कहते हैं, ‘‘तालाब बाढ़ को रोकते हैं और भूजल के स्तर को बढ़ाने का काम करते हैं।”
एमपी भी अजब-गजब है
दिल्ली में अगर पानी के पुराने स्रोतों के प्रति ऐसी लापरवाही है तो उज्जैन की शिप्रा नदी में पाइपलाइन के जरिए नर्मदा का पानी लाने वाला मध्य प्रदेश भी पीछे नहीं है। भोपाल की बड़ी झील में आज भी पानी हिलोरें मार रहा है, लेकिन 50 से ज्यादा छोटे-बड़े तालाबों में से अधिकांश मिट चुके हैं।
शाहपुरा झील के इतने करीब तक मकान बन गए हैं, वे हाउसबोट मालूम पड़ते हैं। छोटे तालाब का पानी जरा-सा ऊपर उठता है तो प्रोफेसर कॉलोनी में डूब की आशंका भी हिलोरें मारने लगती हैं। भव्य ताजुल मस्जिद के पास सिद्दीक हसन खां झील में तो यह खोजना मुश्किल है कि यह झील है या पोखर। पर्यावरण कार्यकर्ता अजय दुबे कहते हैं, ‘शहर के ज्यादातर तालाब भूमाफिया की भेंट चढ़ चुके हैं।’ पहले सरकार इन तालाबों तक आने वाले पानी के रास्ते बंद होने देती है, जिससे तालाब की बहुत-सी जमीन सूखी रह जाती है। बाद में इस पर अतिक्रमण होता जाता है।
यही हाल अशोक नगर जिले के ऐतिहासिक चंदेरी कस्बे का है। पहाड़ पर बने किले में महान संगीतकार बैजू बावरा के स्मारक और जौहर करने वाली वीरांगनाओं के स्मारक की बगल में गिलौआ तालाब है। ऐसा ही एक और तालाब इस किले पर था। पहाड़ पर ही स्थित महल में कुएं हैं जिनमें पानी की आपूर्ति इन्हीं तालाबों के जरिए पानी रिसने से होती थी। पहाड़ के नीचे भी लोहार तालाब और कई शृंखलाबद्ध तालाब हैं। लेकिन इस कस्बे ने वे दिन भी देखे जब पानी की किल्लत के कारण यहां लोगों ने अपनी बेटियां ब्याहना बंद कर दिया था। अब राजघाट बांध बनने के बाद कस्बे को वहां से पानी की आपूर्ति हो रही है। पानी जो सहज उपलब्ध थीं उसकी भरपाई अब अरबों रुपए की लागत से बना बांध कर रहा है।
शहर-दर-शहर बदहाली से दो चार होते हुए गंगा बेसिन को पहले जैसा बनाने का ब्लू प्रिंट तैयार कर रहे आईआईटी कानपुर के प्रोफेसर विनोद तारे की बाद याद आती है। वे कहते हैं ‘‘गंगा का मतलब गोमुख से निकली जलधारा नहीं है। इससे जुड़े सारे ग्लेशियर, सारी नदियां, बेसिन का पूरा भूजल और सारे जल स्रोत मिलकर गंगा बनाते हैं। इनमें से एक भी मरा तो गंगा मर जाएगी।’’ गंगा रक्षकों को याद रखना होगा कि कहीं कोई मुनि तालाब उनका इंतजार कर रहा है और कोई मदन सागर अपनी किस्मत पर रो रहा है। अगर गंगा को बचाना है तो हमें अपने ताल, तलैयों और तालाबों को भी बचाना होगा।
स्ट्रेटोस्फियर में ओजोन परत एख सुरक्षा-कवच के रूप में कार्य करती है और पृथ्वी को हानिकारक पराबैंगनी विकिरण से बचाती है। स्ट्रेटोस्फियर में ओजोन एक हानिकारक प्रदूषक की तरह काम करती है। ट्रोपोस्फियर (भीतरी सतह) में इसकी मात्रा जरा भी अधिक होने पर यह मनुष्य के फेफड़ों एवं ऊतकों को हानि पहुंचाती है एवं पौधों पर भी दुष्प्रभाव डालती है।
वायुमंडल में ओजोन की मात्रा प्राकृतिक रूप से बदलती रहती है। यह मौसम वायु-प्रवाह तथा अन्य कारकों पर निर्भर है। करोड़ों वर्षों से प्रकृति ने इसका एक स्थायी संतुलन सीमित कर रखा है। आज कुछ मानवीय क्रियाकलाप ओजोन परत को क्षति पहुंचाकर, वायुंडल की ऊपरी सतह में इसकी मात्रा कम रहे हैं। यही कमी ओजोन-क्षरण, ओजोन-विहीनता कहलाती है और जो रसायन इसे उत्पन्न करने के कारक हैं, वे ओजोन-क्षरक पदार्थ कहलाते हैं। ओजोन परत में छिद्रों का निर्माण, पराबैंगनी विकिरण को आसानी से पृथ्वी के वायुमंडल में आने का मार्ग प्रदान कर देता है। इसका मानवीय स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। यह शरीर की रोग-प्रतिरोधक क्षमता कम करके कैंसर एवं नेत्रों पर कुप्रभाव डालता है।
ओजोन समस्या का ज्ञान
1980 के आस-पास अंटार्कटिक में कार्य करने वाले कुछ ब्रिटिश वैज्ञानिक अंटार्कटिक के ऊपर वायुमंडल ओजोन माप रहे थे यहां उन्हें जो दिखा वे उससे जरा भी खुशगवार नहीं हुए। उन्होंने पाया कि हर सितंबर-अक्टूबर में यहां के ऊपर ओजोन परत में काफी रिक्तता आ जाती है और तब तक प्रत्येक दक्षिणी बसंत में अंटार्कटिक के 15-24 कि.मी. ऊपर स्ट्रेटोस्फियर में 50 से 95 प्रतिशत ओजोन नष्ट हो जाती है। इससे ओजोन परत में कुछ रिक्त स्थान बन जाते हैं, जिन्हें अंटार्कटिक ओजोन छिद्र कहा गया।
अंटार्कटिक विशिष्ट जलवायु स्थितियों के कारण ओजोन छिद्रता का प्रमुख केंद्र है और यही कारण है कि ओजोन-क्षरण का प्रभाव पूरे विश्व पर पड़ रहा है, लेकिन कुछ हिस्से दूसरों की अपेक्षा अधिक प्रभावित होंगे, जिनमें दक्षिणी गोलार्द्ध के अधिक भूखंड मसलन-ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, दक्षिणी अफ्रीका, दक्षिणी अमेरिका के कुछ हिस्से जहां की ओजोन परत में छिद्र है, अन्य देशों की अपेक्षा अधिक खतरे में है।
ओजोन छिद्र चिंता का कारण क्यों?
ओजोन परत हानिकारक पराबैंगनी विकिरण को पृथ्वी पर पहुंचने से पूर्व ही अवशोषित कर लेती है। ओजोन छिद्रों में इसकी मात्रा कम होने के कारण हानिकारक पराबैंगनी किरणें पृथ्वी की सतह पर पहुंचने लगेंगी। इसकी अधिक मात्रा का मानव-जीवन, जंतु-जगत वनस्पति-जगत तथा द्रव्यों पर सीधा प्रभाव पड़ता है।
ओजोन-क्षरण के प्रभाव
मनुष्य तथा जीव-जंतु – यह त्वचा-कैंसर की दर बढ़ाकर त्वचा को रूखा, झुर्रियों भरा और असमय बूढ़ा भी कर सकता है। यह मनुष्य तथा जंतुओं में नेत्र-विकार विशेष कर मोतियाबिंद को बढ़ा सकती है। यह मनुष्य तथा जंतुओं की रोगों की लड़ने की प्रतिरोधक क्षमता को कम कर सकता है।
वनस्पतियां-पराबैंगनी विकिरण वृद्धि पत्तियों का आकार छोटा कर सकती है अंकुरण का समय बढ़ा सकती हैं। यह मक्का, चावल, सोयाबीन, मटर गेहूं, जैसी पसलों से प्राप्त अनाज की मात्रा कम कर सकती है।
खाद्य-शृंखला- पराबैंगनी किरणों के समुद्र सतह के भीतर तक प्रवेश कर जाने से सूक्ष्म जलीय पौधे (फाइटोप्लैकटॉन्स) की वृद्धि धीमी हो सकती है। ये छोटे तैरने वाले उत्पादक समुद्र तथा गीली भूमि की खाद्य-शृंखलाओं की प्रथम कड़ी हैं, साथ ही ये वायुमंडलीय कार्बन डाइऑक्साइड को दूर करने में भी योगदान देते हैं। इससे स्थलीय खाद्य-शृंखला भी प्रभावित होगी।
द्रव्य - बढ़ा हुआ पराबैंगनी विकिरण पेंट, कपड़ों को हानि पहुंचाएगा, उनके रंग उड़ जाएंगे। प्लास्टिक का फर्नीचर, पाइप तेजी से खराब होंगे।
ओजोन-क्षरक पदार्थ
ये सभी नामव-निर्मित हैं-
सी.एफ.सी. क्लोरोफ्लोरोकार्बन, क्लोरीन, फ्लोरीन एवं ऑक्सीजन से बनी गैसें या द्रव पदार्थ हैं। ये मानव-निर्मित हैं, जो रेफ्रिजरेटर तथा वातानुकूलित यंत्रों में शीतकारक रूप में प्रयोग होते हैं। साथ ही इसका प्रयोग कम्प्यूटर, फोन में प्रयुक्त इलेक्ट्रॉनिक सर्किट बोर्ड्स को साफ करने में भी होता है। गद्दों के कुशन, फोम बनाने, स्टायरोफोम के रूप में एवं पैकिंग सामग्री में भी इसका प्रयोग होता है।
हैलोन्स – ये भी एक सी.एफ.सी. हैं, किंतु यह क्लोरीन के स्थान पर ब्रोमीन का परमाणु होता है। ये ओजोन परत के लिए सी.एफ.सी. से ज्यादा खतरनाक है। यह अग्निशामक तत्वों के रूप में प्रयोग होते हैं। ये ब्रोमिन, परमाणु क्लोरीन की तुलना में सौ गुना अधिक ओजोन अणु नष्ट करते हैं।
कार्बन टेट्राक्लोराइड- यह सफाई करने में प्रयुक्त होने वाले विलयों में पाया जाता है। 160 से अधिक उपभोक्ता उत्पादों में यह उत्प्रेरक के रूप में प्रयुक्त होता है। यह भी ओजोन परत को हानि पहुंचाता है।
वायुमंडल में ओजोन की मात्रा प्राकृतिक रूप से बदलती रहती है। यह मौसम वायु-प्रवाह तथा अन्य कारकों पर निर्भर है। करोड़ों वर्षों से प्रकृति ने इसका एक स्थायी संतुलन सीमित कर रखा है। आज कुछ मानवीय क्रियाकलाप ओजोन परत को क्षति पहुंचाकर, वायुंडल की ऊपरी सतह में इसकी मात्रा कम रहे हैं। यही कमी ओजोन-क्षरण, ओजोन-विहीनता कहलाती है और जो रसायन इसे उत्पन्न करने के कारक हैं, वे ओजोन-क्षरक पदार्थ कहलाते हैं।ओजोन कैसे नष्ट होती है?
1. बाहरी वायुमंडल की पराबैंगनी किरणें सी.एफ.सी. से क्लोरीन परमाणु को अलग कर देती हैं।
2. मुक्त क्लोरीन परमाणु ओजोन के अणु पर आक्रमण करता है और इसे तोड़ देता है। इसके फलस्वरूप ऑक्सीजन अणु तथा क्लोरीन मोनोऑक्साइड बनती है-
C1+O3=C1o+O3
3. वायुमंडल का एक मुक्त ऑक्सीजन परमाणु क्लोरीन मोनोऑक्साइड पर आक्रमण करता है तथा एक मुक्त क्लोरीन परमाणु और एक ऑक्सीजन अणु का निर्माण करता है।
C1+O=C1+O2
4. क्लोरीन इस क्रिया को 100 वर्षों तक दोहराने के लिए मुक्त है।
ओजोन समस्या के समाधान के प्रयास
भारत ओजोन समस्या के प्रति चिंतित है। उसने सन् 1992 में मांट्रियल मसौदे पर हस्ताक्षर कर दिए हैं। ओजोन को क्षति पहुंचाने वाले कारकों को दूर करने के लिए क्षारकों के व्यापार पर प्रतिबंध, आयात-निरयात की लाइसेंसिंग तथा उत्पादन सुविधाओ में विकास पर रोक आदि प्रमुख हैं।
प्रकृति द्वारा प्रदत्त इस सुरक्षा-कवच में और अधिक क्षति को रोकने में हम भी सहायक हो सकते हैं-
1. उपभोक्ता के रूप में यह जानकरी लें कि जो उत्पाद खरीद रहे हैं, उनमें सी.एफ.सी. है या नहीं। जहां विकल्प हो वहां ओजोन मित्र उत्पादन यानी सी.एफ.सी. रहित उत्पाद ही लें।
2. वातानुकूलित संयंत्रों तथा रेफ्रिजरेटर का प्रयोग सावधानी से करें, ताकि उनकी मरम्मत कम-से-कम करनी पड़े। सी.एफ.सी. वायुमंडल में मुक्त होने की बजाय पुनः चक्रित हो।
3. पारंपरिक रूई के गद्दों एवं तकियों का प्रयोग करें।
4. स्टायरोफाम के बर्तनों की जगह पारंपरि मिट्टी के कुल्हड़ों, पत्तलों का प्रयोग करें या फिर धातु और कांच के बर्तनों का।
5. अपने-अपने क्षेत्रों में ओजोन परत क्षरण जागरुकता अभियान चलाएं।
संयुक्त राष्ट्र संघ की आम सभा ने 16 सितंबर को ओजोन परत संरक्षण दिवस के रूप में स्वीकार किया है। 1987 में इसी दिन ओजोन क्षरण कारक पदार्थों के निर्माण और खपत में कमी संबंधी मांट्रियल सहमति पर विभिन्न देशों ने (कनाडा) मांट्रियल में हस्ताक्षर किए थे। संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा गठित समिति ने सी.एफ.सी. की चरणबद्ध कमी करने के लिए समझौते का मसौदा तैयार किया है, जिसे मांट्रियल प्रोटोकाल कहा जाता है। यह 1987 से प्रभावी है। अब तक लगभग 150 देशों के हस्ताक्षर इस प हो चुके हैं और इसके नियमों को स्वीकारा जा चुका है।
संदर्भ
1. पर्यावरणीय अध्ययन, 2000-पर्यावरण शिक्षक केंद्र सेंटर फॉर एन्वायरमेंट एजुकेशन सी.ई.ई.पर्यावरण एवं वन मंत्रालय।
2. पर्यावरण अध्ययन श्री रतन जोशी, नई दिल्ली।
3. व्याख्याता शिक्षा विभाग, मैट्स विश्वविद्यालय गुल्लू (आरंग)
हाल ही में मुझे बुंदेलखंड जाने का मौका मिला। वहां यह देख-सुनकर धक्का लगा कि यहां सैकड़ों की संख्या में मवेशियों को चारे-पानी के अभाव में खुला छोड़ दिया जाता है जिससे वे कमजोर और बीमार हो जाते हैं और कई बार तो सड़क दुर्घटनाओं में असमय छोड़कर चले जाते हैं। यहां पानी की कमी कोई नई बात नहीं है और अन्ना प्रथा भी नई नहीं है लेकिन मौसम बदलाव ने जिस तरह खेती और आजीविका के संकट को बढ़ाया है, उसी तरह मवेशियों के लिए भी संकट बढ़ गया है।
यहां पहले अन्ना प्रथा के चलते गर्मियों की शुरूआत में मवेशियों को छोड़ दिया जाता था। अगली फसल के पहले तक वे खुले घूमते थे फिर उन्हें घरों में बांध लेते थे। लेकिन अब वे पूरे समय खुले ही रहते हैं। चाहे बारिश हो या ठंड साल भर खुले इधर-उधर भटकते रहते हैं। ऐसी दुर्दशा मवेशियों की पहले न सुनी और न देखी थी।
यहां सड़कों और सार्वजनिक स्थलों पर सैकड़ों की संख्या में गाय-बैल खड़े रहते हैं। दिन भर इधर-उधर चारे-पानी के लिए भटकते हैं और शाम को सड़कों पर अपना आशियाना बनाते हैं। कई बार सड़कों पर बैठे या सोए हुए दुर्घटना के शिकार हो जाते हैं। भूख से ये इतने दुर्बल हो गए हैं कि इनकी हडिड्यों को गिना जा सकता है।
बदलते मौसम में पानी की बेहद कमी हो गई हैं। ज्यादातर परंपरागत स्रोत सूख गए हैं। तालाब, बावड़ियां या तो सूख गई हैं या उनमें गाद और कचरे से पट गई हैं। पुराने जमाने के तालाब भी कम ही दिखाई देते हैं। यानी बारिश कम हुई और उस बारिश के पानी को सहेजने का जतन भी कम हो गया। इससे संकट बढ़ता ही गया।
हमारे यहां मवेशियों और खासतौर से गाय-बैल के साथ किसानों का एक विशेष लगाव रहा है। वे उनका बच्चों की तरह पालन-पोषण करते रहे हैं। खासतौर से बच्चे और महिलाओं का जिम्मा उनकी देखरेख करने का रहता था। उन्हें चारा या भूसा डालने से लेकर उन्हें पानी पिलाने का काम भी बच्चे करते थे। जब कोई किसान अपने नाते रिश्तेदार के घर जाता था तो वहां परिवार के बाल-बच्चों के साथ पशु धन की कुशल क्षेम पूछी जाती थी।
हमारी कृषि सभ्यता है। हमारे ज्यादातर त्यौहार खेती और गाय-बैल से जुड़े हैं। दीवापली, होली और पोला जैसे त्योहारों पर गाय-बैल की पूजा की जाती है। उन्हें सजाया जाता है और विशेष पकवान खिलाए जाते हैं। गाय तो हमारी गोमाता है, जो हमारी परंपरागत और प्रकृति से जुड़ी खेती पद्धति थी उसमें गाय-बैलों का विशेष महत्व था।
मवेशियों को चरने के लिए चरनोई की जमीन होती थी। पानी के लिए तालाब या नदियां होती थीं। गांव के ढोरों को चराने के लिए चरवाहा होता था। छत्तीसगढ़ जैसी प्रांतों में अब भी यह परंपरा बची हुई है। मवेशियों का स्थानीय स्तर पर जड़ी-बूटियों से इलाज करने वाले जानकार होते थे। आज भी अधिकांश लोग परंपरागत इलाज ही करवाते हैं, पशु चिकित्सकों की पहुंच गांव तक नहीं है।
खेती और पशुपालन एक दूसरे के पूरक थे। अनुकूल मिट्टी, हवा, पानी, बीज, पशु ऊर्जा और मानव ऊर्जा से ही खेतों में अनाज पैदा हो जाता था। अब तक वास्तविक उत्पादन सिर्फ खेती में ही होता है। एक दाना बोओ तो कई दाने पैदा होते हैं और उसी से हमारी भोजन की जरूरत पूरी होती है।
मवेशियों को चरने के लिए चरनोई की जमीन होती थी। पानी के लिए तालाब या नदियां होती थीं। गांव के ढोरों को चराने के लिए चरवाहा होता था। छत्तीसगढ़ जैसी प्रांतों में अब भी यह परंपरा बची हुई है। मवेशियों का स्थानीय स्तर पर जड़ी-बूटियों से इलाज करने वाले जानकार होते थे। आज भी अधिकांश लोग परंपरागत इलाज ही करवाते हैं, पशु चिकित्सकों की पहुंच गांव तक नहीं है। खेती और पशुपालन एक दूसरे के पूरक थे। अनुकूल मिट्टी, हवा, पानी, बीज, पशु ऊर्जा और मानव ऊर्जा से ही खेतों में अनाज पैदा हो जाता था। गाय से खेत में जोतने के लिए बैल मिलते थे। पशु ऊर्जा के दम पर ही कृषि का विकास हुआ है। जमीन को उर्वरक बनाने के लिए गोबर खाद मिलती थी और बदले में खेत में पैदा हुई फसल के डंठलों का भूसा मवेशियों को खिलाया जाता था। खेतों में कई प्रकार के चारे और हरी घास मिला करती थी।
परंपरागत खेती में बैलों से जुताई, मोट और रहट से सिंचाई और बैलगाड़ी के जरिए फसलों व अनाज की ढुलाई की जाती थी। खेत से खलिहान तक, खलिहान से घर तक और घर से बाजार तक किसान बैलगाड़ियों से अनाज ढोते थे। बैलगाड़ियों की चू-चर्र और बैलों के गले में बंधी घंटियां मोहती थी।
परंपरागत खेती में अलग से बाहरी निवेश की जरूरत नहीं थी। न फसलों में खाद डालने की जरूरत थी और न ही कीटनाशक। पशुओं की देखभाल में अतिरिक्त खर्च नहीं होता था। दूसरी तरफ खेत में डंठल व पुआल आदि सड़कर जैव खाद बनाते थे और पशुओं के गोबर से बहुत अच्छी खाद मिल जाती थी। गोबर खाद से खेतों में मिट्टी की उर्वरकता बढ़ती जाती थी। फसलों के मित्र कीट ही कीटनाशक का काम करते थे।
खेती और पशुपालन की जोड़ी का एक अच्छा उदाहरण है जो घुमंतू पशुपालक राजस्थान से भेड़ और ऊंट लेकर मैदानी क्षेत्रों में आते थे तो किसान उन्हें अपने खेतों में ठहरने के लिए बुलाते थे जिससे खेतों को उर्वरक खाद मिले और बदले में ऊंट व भेड़ों को चारा। एक पूरा चक्र था, जो हरित क्रांति के आने के बाद गड़बड़ा गया।
छोटे और गरीब किसानों का ये मवेशी बड़ा सहारा हुआ करते थे। बकरी, मुर्गी, गाय, बैल, भैंस, सुअर,गधा, घोड़ा आदि से उनकी आजीविका जुड़ी हुई है। कोई गरीब आदमी एक बकरी से शुरू करके अपनी आय बढ़ाते जा सकता था। ये मवेशी उनके फिक्सड डिपॉजिट की तरह हुआ करते थे।
लेकिन हरित क्रांति के दौरान देशी बीजों की जगह चमत्कारी हाईब्रीड आए। मिश्रित खेती की जगह एकल और नगदी फसलें आ गईं। गोबर खाद की जगह बेतहाशा रासायनिक खाद, कीटनाशक और खरपतवारनाशकों का इस्तेमाल होने लगा। बैलों की जगह ट्रैक्टर और कंबाईन हारवेस्टर आ गए। खेत और बैल का रिश्ता टूट गया।
लेकिन अब हरित क्रांति का संकट भी सामने आ गया है। देश के कई प्रांतों से किसानों की अपनी जान देने की खबरें आ रही हैं। ऐसे में बिजली और ऊर्जा के संकट के दौर में खेती में पशु ऊर्जा के महत्व को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। जलवायु बदलाव की समस्या है। इससे ग्लोबल वार्मिंग की समस्या बढ़ सकती है। क्या हम पशु ऊर्जा, प्रचुर मानव श्रम और मिट्टी पानी का संरक्षण करते हुए अपनी स्वावलंबी और टिकाऊ खेती को नहीं कर सकते?
लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं
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दम तोड़ रहे हैं हमारे तालाब
बात आई-गई हो गई और एक दशक का लंबा वक्त बीत गया। पिछले साल की गर्मियों में प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और नगर विकास मंत्री आजम खान ने एक बार फिर बुंदेलखंड के तालाबों के संरक्षण को लेकर दिलचस्पी जाहिर की। कुल 16 तालाबों के संरक्षण के नाम पर 66 करोड़ रुपए जारी किए गए। संरक्षण बनाने के लिए नगरपालिका ने जब अपने रिकॉर्ड खंगाले तो उसमें मुनि तालाब का जिक्र तक नहीं था और वाजपेयी तालाब भी अपनी भौगोलिक सरहद में आधा ही बचा हुआ था।
अवैध कब्जे का सिलसिला
यह कहानी अकेले मुनि तालाब की नहीं है। बांदा के आरटीआई कार्यकर्ता आशीष सागर दीक्षित ने उत्तर प्रदेश सरकार के राजस्व विभाग से तालाबों के पूरे आंकड़े हासिल किए। इनसे पता चलता है कि नवंबर 2013 की खतौनी के मुताबिक, प्रदेश में 8,75,345 तालाब, झील, जलाशय और कुएं हैं। इनमें से 1,12,043 यानी कोई 15 फीसदी जल स्रोतों पर अवैध कब्जा किया जा चुका है। राजस्व विभाग का दावा है कि 2012-13 के दौरान 65,536 अवैध कब्जों को हटाया गया।
अवैध कब्जे तले दम तोड़ चुके जल स्रोतों के क्षेत्रफल पर नजर डालें तो यह 19,000 हेक्टेयर से भी ज्यादा बड़ा हिस्सा बैठता है। उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र में सिंचाई विभाग के पूर्व इंजीनियर के.के. जैन बताते हैं, ‘तालाब के हिस्से में पड़ने वाली यह जमीन अगर बचा ली जाती और इसका उचित तरीके से संरक्षण किया जाता तो यह कम-से-कम मझोले आकार के 10 बांधों से ज्यादा पानी उपलब्ध करा पाती। वह भी मुफ्त। बांध और नहर के निर्माण का खर्च भी बचाया जा सकता था।’ बांधों के लिए जमीन अधिग्रहण और विस्थापन जैसी समस्या भी पैदा नहीं होती।
शीतलीकरण का काम करते हैं तालाब
इन तालाबों पर अवैध कब्जे हुए कैसे? इसके बारे में राजस्व विभाग की ओर से रटी-रटाई दलीलें दी जाती हैं। आरटीआई के तहत मांगी गई एक जानकारी के जवाब में राजस्व विभाग की ओर से बताया गया है ‘पुरानी आबादी का होना, पक्का निर्माण, पट्टों का आवंटन और विवादों का अदालत में लंबित होना।’ हालांकि तालाबों के खत्म होने की इन सरकारी दलीलों के बहुत आगे भी नहीं ठहरती है।
बुंदेलखंड के चंदेल कालीन (9वीं से 14वीं शताब्दी) तालाबों की डिजाइन और इंजीनियरिंग पर 1980 के दशक में शिद्दत से काम करने वाले इनोवेटिव इंडियन फाउंडेशन (आइआइएफ) के डायरेक्टर सुधीर जैन की सुनिए, ‘‘इस इलाके में एक भी प्राकृतिक झील नहीं है। चंदेलों ने 1,300 साल पहले बड़े-बड़े तालाब बनवाए और उन्हें आपस में खूबसूरत अंडरग्राउंड वाटर चैनल्स के जरिए जोड़ा गया था। उस बेहद कम आबादी वाले जमाने में वे यह काम सिर्फ पीने के पानी के इंतजाम के लिए नहीं किया गया था। वे तो अपने शहरों को 48 डिग्री तापमान से बचाने के भी ऐसा पुख्ता इंतजाम किया करते थे।”
मऊरानीपुर से 50 किलोमीटर पूर्व में आल्हा-ऊदल के शहर महोबा में आज भी चंदेल कालीन विशाल तालाब दिख जाते हैं। इनमें सबसे प्रमुख मदन सागर तालाब के बीच में भगवान शंकर का विशाल अधबना मंदिर है। तालाब चारों तरफ से पहाड़ियों से घिरा है। लेकिन अब बरसात का पानी पहाड़ों से सरसराता हुआ तालाब में नहीं आता। बीच में घनी बस्ती, ऊंची सड़कें और पहाड़ों का पानी बह जाने के लिए नए रास्ते हैं।
तालाब के जिस छोर पर मई यह रिपोर्टर खड़ा था, उस जगह का उपयोग नगरपालिका कूड़ा फेंकने के लिए कर रही है। चारों ओर सूअरों का जमावड़ा लगा रहता है। वे वहीं मलमूत्र का त्याग करते हैं और तालाब किनारे के कीचड़ में वे लोटपोट होते रहते हैं। तालाबों के उद्धार के लिए पिछले साल उत्तर प्रदेश सरकार की तरफ से आमंत्रित विशेषज्ञ समिति के सदस्य रहे जैन कहते हैं, ‘‘महोबा के बाकी तालाब भी अपना वैभव खो रहे हैं।’’
बेजोड़ इंजीनियरिंग और डिजाइन की मिसाल
तालाबों की इंजीनियरिंग और डिजाइन पर नजर डालें तो यहां तालाबों की लंबी श्रृंखला है जो एक शहर तक सीमित नहीं बल्कि 100 किमी. के दायरे में पानी की ढाल पर बने कस्बों में फैली है। यानी जब एक शहर के सारे तालाब भर जाएं तो पानी अगले शहर के तालाबों को भरे और इलाके के सारे तालाब भरने के बाद ही बारिश का बचा हुआ पानी किसी नदी में गिरे।
तालाबों के साथ यह मजाक राजधानी दिल्ली में भी बदस्तूर जारी है। इस साल फरवरी में दिल्ली सरकार को सौंपी गई सेंटर फॉर साइंस ऐंड एनवायरनमेंट (सीएसई) की रिपोर्ट के मुताबिक, दिल्ली में 1,012 चिन्हित जल स्रोत हैं। इनमें से 338 पूरी तरह सूख चुके हैं। 107 ऐसे हैं, जिनकी अब पहचान ही नहीं की जा सकती। 70 पर आंशिक और 98 पर पूरी तरह कब्जा हो चुका है। 78 के ऊपर कानूनी तौर पर और 39 के ऊपर गैर-कानूनी तरीके से बुलंद इमारतें तामीर हो चुकी हैं।
आशीष सागर याद दिलाते हैं, ‘बांदा शहर की परिधि पर 12 तालाब थे। अब खोजने पर भी एक नहीं मिलता है।’ इस कस्बे का बाबू सिंह तालाब तो अब किसी छोटे-से पोखर जैसा दिखता है जो चारों तरफ से पक्के मकानों की बस्ती से जुड़ा हुआ है और सभी घरों से निकलने वाला गंदा पानी इस तालाब में जाता है। बांदा के नवाबों की शान रहे नवाब टैंक में भैंसें लोटती हुई दिख जाती हैं। महोबा जिले में ही बेलाताल कस्बे का चंदेल कालीन बेलासागर आज भी भोपाल के बड़े तालाब से टक्कर लेता दिखता है।यह तालाब विशाल है और इसका अंदाजा महज इस बात से लगाया जा सकता है कि इसके बीच में जल महल बने हुए हैं और अंग्रेजों ने इससे 3 बड़ी नहरें निकालीं थीं जो आगे जाकर छोटे-छोटे 1,000 तालाबों को पानी देती थीं लेकिन इस ब्रिटिश स्थापत्य की निशानी इन नहरों में पिछले साल तक कूड़ा जमा था और नहरों के फौलादी फाटक जाम हो चुके थे।
पिछले 12 साल से न तो तालाब पूरा भरा था और न कोई नहर चली। पिछले साल जब विशेषज्ञ समिति ने इसकी पड़ताल की तो पता चला कि गोंची नदी से तालाब में पानी लाने वाले नाले पर सिंचाई विभाग ने फाटक की जगह दीवार बना दी थी।
प्रशासन ने दीवार हटाई तो तालाब लबालब हो गया, लेकिन इस दौरान इससे जुड़े 1,000 तालाबों पर क्या गुजरी, इसका लेखा-जोखा बाकी है। आधुनिक इंजीनियरिंग ने पुरानी तकनीक के साथ बड़ा भद्दा मजाक किया।
दिल्ली में मिट चुके हैं तालाब
तालाबों के साथ यह मजाक राजधानी दिल्ली में भी बदस्तूर जारी है। इस साल फरवरी में दिल्ली सरकार को सौंपी गई सेंटर फॉर साइंस ऐंड एनवायरनमेंट (सीएसई) की रिपोर्ट के मुताबिक, दिल्ली में 1,012 चिन्हित जल स्रोत हैं। इनमें से 338 पूरी तरह सूख चुके हैं। 107 ऐसे हैं, जिनकी अब पहचान ही नहीं की जा सकती। 70 पर आंशिक और 98 पर पूरी तरह कब्जा हो चुका है। 78 के ऊपर कानूनी तौर पर और 39 के ऊपर गैर-कानूनी तरीके से बुलंद इमारतें तामीर हो चुकी हैं।
तालाबों की दुनिया में लंबे समय से काम करने वाले अनुपम मिश्र कहते हैं, ‘‘शहर को पानी चाहिए, तालाब नहीं। जमीन की कीमत आसमान पर है। इसी शहर ने तो 10 तालाबों को मिटाकर एयरपोर्ट का टी-3 टर्मिनल बनाया है।’’ यह वही शहर है जहां एक घंटे की बारिश में जल प्रलय जैसा दृश्य उभर आता है और टीवी पर हाहाकार मच जाता है। अनुपम कहते हैं, ‘‘तालाब बाढ़ को रोकते हैं और भूजल के स्तर को बढ़ाने का काम करते हैं।”
एमपी भी अजब-गजब है
दिल्ली में अगर पानी के पुराने स्रोतों के प्रति ऐसी लापरवाही है तो उज्जैन की शिप्रा नदी में पाइपलाइन के जरिए नर्मदा का पानी लाने वाला मध्य प्रदेश भी पीछे नहीं है। भोपाल की बड़ी झील में आज भी पानी हिलोरें मार रहा है, लेकिन 50 से ज्यादा छोटे-बड़े तालाबों में से अधिकांश मिट चुके हैं।
शाहपुरा झील के इतने करीब तक मकान बन गए हैं, वे हाउसबोट मालूम पड़ते हैं। छोटे तालाब का पानी जरा-सा ऊपर उठता है तो प्रोफेसर कॉलोनी में डूब की आशंका भी हिलोरें मारने लगती हैं। भव्य ताजुल मस्जिद के पास सिद्दीक हसन खां झील में तो यह खोजना मुश्किल है कि यह झील है या पोखर। पर्यावरण कार्यकर्ता अजय दुबे कहते हैं, ‘शहर के ज्यादातर तालाब भूमाफिया की भेंट चढ़ चुके हैं।’ पहले सरकार इन तालाबों तक आने वाले पानी के रास्ते बंद होने देती है, जिससे तालाब की बहुत-सी जमीन सूखी रह जाती है। बाद में इस पर अतिक्रमण होता जाता है।
यही हाल अशोक नगर जिले के ऐतिहासिक चंदेरी कस्बे का है। पहाड़ पर बने किले में महान संगीतकार बैजू बावरा के स्मारक और जौहर करने वाली वीरांगनाओं के स्मारक की बगल में गिलौआ तालाब है। ऐसा ही एक और तालाब इस किले पर था। पहाड़ पर ही स्थित महल में कुएं हैं जिनमें पानी की आपूर्ति इन्हीं तालाबों के जरिए पानी रिसने से होती थी। पहाड़ के नीचे भी लोहार तालाब और कई शृंखलाबद्ध तालाब हैं। लेकिन इस कस्बे ने वे दिन भी देखे जब पानी की किल्लत के कारण यहां लोगों ने अपनी बेटियां ब्याहना बंद कर दिया था। अब राजघाट बांध बनने के बाद कस्बे को वहां से पानी की आपूर्ति हो रही है। पानी जो सहज उपलब्ध थीं उसकी भरपाई अब अरबों रुपए की लागत से बना बांध कर रहा है।
शहर-दर-शहर बदहाली से दो चार होते हुए गंगा बेसिन को पहले जैसा बनाने का ब्लू प्रिंट तैयार कर रहे आईआईटी कानपुर के प्रोफेसर विनोद तारे की बाद याद आती है। वे कहते हैं ‘‘गंगा का मतलब गोमुख से निकली जलधारा नहीं है। इससे जुड़े सारे ग्लेशियर, सारी नदियां, बेसिन का पूरा भूजल और सारे जल स्रोत मिलकर गंगा बनाते हैं। इनमें से एक भी मरा तो गंगा मर जाएगी।’’ गंगा रक्षकों को याद रखना होगा कि कहीं कोई मुनि तालाब उनका इंतजार कर रहा है और कोई मदन सागर अपनी किस्मत पर रो रहा है। अगर गंगा को बचाना है तो हमें अपने ताल, तलैयों और तालाबों को भी बचाना होगा।
ओजोन तथा इसका क्षरण
स्ट्रेटोस्फियर में ओजोन परत एख सुरक्षा-कवच के रूप में कार्य करती है और पृथ्वी को हानिकारक पराबैंगनी विकिरण से बचाती है। स्ट्रेटोस्फियर में ओजोन एक हानिकारक प्रदूषक की तरह काम करती है। ट्रोपोस्फियर (भीतरी सतह) में इसकी मात्रा जरा भी अधिक होने पर यह मनुष्य के फेफड़ों एवं ऊतकों को हानि पहुंचाती है एवं पौधों पर भी दुष्प्रभाव डालती है।
वायुमंडल में ओजोन की मात्रा प्राकृतिक रूप से बदलती रहती है। यह मौसम वायु-प्रवाह तथा अन्य कारकों पर निर्भर है। करोड़ों वर्षों से प्रकृति ने इसका एक स्थायी संतुलन सीमित कर रखा है। आज कुछ मानवीय क्रियाकलाप ओजोन परत को क्षति पहुंचाकर, वायुंडल की ऊपरी सतह में इसकी मात्रा कम रहे हैं। यही कमी ओजोन-क्षरण, ओजोन-विहीनता कहलाती है और जो रसायन इसे उत्पन्न करने के कारक हैं, वे ओजोन-क्षरक पदार्थ कहलाते हैं। ओजोन परत में छिद्रों का निर्माण, पराबैंगनी विकिरण को आसानी से पृथ्वी के वायुमंडल में आने का मार्ग प्रदान कर देता है। इसका मानवीय स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। यह शरीर की रोग-प्रतिरोधक क्षमता कम करके कैंसर एवं नेत्रों पर कुप्रभाव डालता है।
ओजोन समस्या का ज्ञान
1980 के आस-पास अंटार्कटिक में कार्य करने वाले कुछ ब्रिटिश वैज्ञानिक अंटार्कटिक के ऊपर वायुमंडल ओजोन माप रहे थे यहां उन्हें जो दिखा वे उससे जरा भी खुशगवार नहीं हुए। उन्होंने पाया कि हर सितंबर-अक्टूबर में यहां के ऊपर ओजोन परत में काफी रिक्तता आ जाती है और तब तक प्रत्येक दक्षिणी बसंत में अंटार्कटिक के 15-24 कि.मी. ऊपर स्ट्रेटोस्फियर में 50 से 95 प्रतिशत ओजोन नष्ट हो जाती है। इससे ओजोन परत में कुछ रिक्त स्थान बन जाते हैं, जिन्हें अंटार्कटिक ओजोन छिद्र कहा गया।
अंटार्कटिक विशिष्ट जलवायु स्थितियों के कारण ओजोन छिद्रता का प्रमुख केंद्र है और यही कारण है कि ओजोन-क्षरण का प्रभाव पूरे विश्व पर पड़ रहा है, लेकिन कुछ हिस्से दूसरों की अपेक्षा अधिक प्रभावित होंगे, जिनमें दक्षिणी गोलार्द्ध के अधिक भूखंड मसलन-ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, दक्षिणी अफ्रीका, दक्षिणी अमेरिका के कुछ हिस्से जहां की ओजोन परत में छिद्र है, अन्य देशों की अपेक्षा अधिक खतरे में है।
ओजोन छिद्र चिंता का कारण क्यों?
ओजोन परत हानिकारक पराबैंगनी विकिरण को पृथ्वी पर पहुंचने से पूर्व ही अवशोषित कर लेती है। ओजोन छिद्रों में इसकी मात्रा कम होने के कारण हानिकारक पराबैंगनी किरणें पृथ्वी की सतह पर पहुंचने लगेंगी। इसकी अधिक मात्रा का मानव-जीवन, जंतु-जगत वनस्पति-जगत तथा द्रव्यों पर सीधा प्रभाव पड़ता है।
ओजोन-क्षरण के प्रभाव
मनुष्य तथा जीव-जंतु – यह त्वचा-कैंसर की दर बढ़ाकर त्वचा को रूखा, झुर्रियों भरा और असमय बूढ़ा भी कर सकता है। यह मनुष्य तथा जंतुओं में नेत्र-विकार विशेष कर मोतियाबिंद को बढ़ा सकती है। यह मनुष्य तथा जंतुओं की रोगों की लड़ने की प्रतिरोधक क्षमता को कम कर सकता है।
वनस्पतियां-पराबैंगनी विकिरण वृद्धि पत्तियों का आकार छोटा कर सकती है अंकुरण का समय बढ़ा सकती हैं। यह मक्का, चावल, सोयाबीन, मटर गेहूं, जैसी पसलों से प्राप्त अनाज की मात्रा कम कर सकती है।
खाद्य-शृंखला- पराबैंगनी किरणों के समुद्र सतह के भीतर तक प्रवेश कर जाने से सूक्ष्म जलीय पौधे (फाइटोप्लैकटॉन्स) की वृद्धि धीमी हो सकती है। ये छोटे तैरने वाले उत्पादक समुद्र तथा गीली भूमि की खाद्य-शृंखलाओं की प्रथम कड़ी हैं, साथ ही ये वायुमंडलीय कार्बन डाइऑक्साइड को दूर करने में भी योगदान देते हैं। इससे स्थलीय खाद्य-शृंखला भी प्रभावित होगी।
द्रव्य - बढ़ा हुआ पराबैंगनी विकिरण पेंट, कपड़ों को हानि पहुंचाएगा, उनके रंग उड़ जाएंगे। प्लास्टिक का फर्नीचर, पाइप तेजी से खराब होंगे।
ओजोन-क्षरक पदार्थ
ये सभी नामव-निर्मित हैं-
सी.एफ.सी. क्लोरोफ्लोरोकार्बन, क्लोरीन, फ्लोरीन एवं ऑक्सीजन से बनी गैसें या द्रव पदार्थ हैं। ये मानव-निर्मित हैं, जो रेफ्रिजरेटर तथा वातानुकूलित यंत्रों में शीतकारक रूप में प्रयोग होते हैं। साथ ही इसका प्रयोग कम्प्यूटर, फोन में प्रयुक्त इलेक्ट्रॉनिक सर्किट बोर्ड्स को साफ करने में भी होता है। गद्दों के कुशन, फोम बनाने, स्टायरोफोम के रूप में एवं पैकिंग सामग्री में भी इसका प्रयोग होता है।
हैलोन्स – ये भी एक सी.एफ.सी. हैं, किंतु यह क्लोरीन के स्थान पर ब्रोमीन का परमाणु होता है। ये ओजोन परत के लिए सी.एफ.सी. से ज्यादा खतरनाक है। यह अग्निशामक तत्वों के रूप में प्रयोग होते हैं। ये ब्रोमिन, परमाणु क्लोरीन की तुलना में सौ गुना अधिक ओजोन अणु नष्ट करते हैं।
कार्बन टेट्राक्लोराइड- यह सफाई करने में प्रयुक्त होने वाले विलयों में पाया जाता है। 160 से अधिक उपभोक्ता उत्पादों में यह उत्प्रेरक के रूप में प्रयुक्त होता है। यह भी ओजोन परत को हानि पहुंचाता है।
वायुमंडल में ओजोन की मात्रा प्राकृतिक रूप से बदलती रहती है। यह मौसम वायु-प्रवाह तथा अन्य कारकों पर निर्भर है। करोड़ों वर्षों से प्रकृति ने इसका एक स्थायी संतुलन सीमित कर रखा है। आज कुछ मानवीय क्रियाकलाप ओजोन परत को क्षति पहुंचाकर, वायुंडल की ऊपरी सतह में इसकी मात्रा कम रहे हैं। यही कमी ओजोन-क्षरण, ओजोन-विहीनता कहलाती है और जो रसायन इसे उत्पन्न करने के कारक हैं, वे ओजोन-क्षरक पदार्थ कहलाते हैं।
ओजोन कैसे नष्ट होती है?
1. बाहरी वायुमंडल की पराबैंगनी किरणें सी.एफ.सी. से क्लोरीन परमाणु को अलग कर देती हैं।
2. मुक्त क्लोरीन परमाणु ओजोन के अणु पर आक्रमण करता है और इसे तोड़ देता है। इसके फलस्वरूप ऑक्सीजन अणु तथा क्लोरीन मोनोऑक्साइड बनती है-
C1+O3=C1o+O3
3. वायुमंडल का एक मुक्त ऑक्सीजन परमाणु क्लोरीन मोनोऑक्साइड पर आक्रमण करता है तथा एक मुक्त क्लोरीन परमाणु और एक ऑक्सीजन अणु का निर्माण करता है।
C1+O=C1+O2
4. क्लोरीन इस क्रिया को 100 वर्षों तक दोहराने के लिए मुक्त है।
ओजोन समस्या के समाधान के प्रयास
भारत ओजोन समस्या के प्रति चिंतित है। उसने सन् 1992 में मांट्रियल मसौदे पर हस्ताक्षर कर दिए हैं। ओजोन को क्षति पहुंचाने वाले कारकों को दूर करने के लिए क्षारकों के व्यापार पर प्रतिबंध, आयात-निरयात की लाइसेंसिंग तथा उत्पादन सुविधाओ में विकास पर रोक आदि प्रमुख हैं।
प्रकृति द्वारा प्रदत्त इस सुरक्षा-कवच में और अधिक क्षति को रोकने में हम भी सहायक हो सकते हैं-
1. उपभोक्ता के रूप में यह जानकरी लें कि जो उत्पाद खरीद रहे हैं, उनमें सी.एफ.सी. है या नहीं। जहां विकल्प हो वहां ओजोन मित्र उत्पादन यानी सी.एफ.सी. रहित उत्पाद ही लें।
2. वातानुकूलित संयंत्रों तथा रेफ्रिजरेटर का प्रयोग सावधानी से करें, ताकि उनकी मरम्मत कम-से-कम करनी पड़े। सी.एफ.सी. वायुमंडल में मुक्त होने की बजाय पुनः चक्रित हो।
3. पारंपरिक रूई के गद्दों एवं तकियों का प्रयोग करें।
4. स्टायरोफाम के बर्तनों की जगह पारंपरि मिट्टी के कुल्हड़ों, पत्तलों का प्रयोग करें या फिर धातु और कांच के बर्तनों का।
5. अपने-अपने क्षेत्रों में ओजोन परत क्षरण जागरुकता अभियान चलाएं।
संयुक्त राष्ट्र संघ की आम सभा ने 16 सितंबर को ओजोन परत संरक्षण दिवस के रूप में स्वीकार किया है। 1987 में इसी दिन ओजोन क्षरण कारक पदार्थों के निर्माण और खपत में कमी संबंधी मांट्रियल सहमति पर विभिन्न देशों ने (कनाडा) मांट्रियल में हस्ताक्षर किए थे। संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा गठित समिति ने सी.एफ.सी. की चरणबद्ध कमी करने के लिए समझौते का मसौदा तैयार किया है, जिसे मांट्रियल प्रोटोकाल कहा जाता है। यह 1987 से प्रभावी है। अब तक लगभग 150 देशों के हस्ताक्षर इस प हो चुके हैं और इसके नियमों को स्वीकारा जा चुका है।
संदर्भ
1. पर्यावरणीय अध्ययन, 2000-पर्यावरण शिक्षक केंद्र सेंटर फॉर एन्वायरमेंट एजुकेशन सी.ई.ई.पर्यावरण एवं वन मंत्रालय।
2. पर्यावरण अध्ययन श्री रतन जोशी, नई दिल्ली।
3. व्याख्याता शिक्षा विभाग, मैट्स विश्वविद्यालय गुल्लू (आरंग)
बुंदेलखंड : अन्ना प्रथा को मजबूर गायें
हाल ही में मुझे बुंदेलखंड जाने का मौका मिला। वहां यह देख-सुनकर धक्का लगा कि यहां सैकड़ों की संख्या में मवेशियों को चारे-पानी के अभाव में खुला छोड़ दिया जाता है जिससे वे कमजोर और बीमार हो जाते हैं और कई बार तो सड़क दुर्घटनाओं में असमय छोड़कर चले जाते हैं। यहां पानी की कमी कोई नई बात नहीं है और अन्ना प्रथा भी नई नहीं है लेकिन मौसम बदलाव ने जिस तरह खेती और आजीविका के संकट को बढ़ाया है, उसी तरह मवेशियों के लिए भी संकट बढ़ गया है।
यहां पहले अन्ना प्रथा के चलते गर्मियों की शुरूआत में मवेशियों को छोड़ दिया जाता था। अगली फसल के पहले तक वे खुले घूमते थे फिर उन्हें घरों में बांध लेते थे। लेकिन अब वे पूरे समय खुले ही रहते हैं। चाहे बारिश हो या ठंड साल भर खुले इधर-उधर भटकते रहते हैं। ऐसी दुर्दशा मवेशियों की पहले न सुनी और न देखी थी।
यहां सड़कों और सार्वजनिक स्थलों पर सैकड़ों की संख्या में गाय-बैल खड़े रहते हैं। दिन भर इधर-उधर चारे-पानी के लिए भटकते हैं और शाम को सड़कों पर अपना आशियाना बनाते हैं। कई बार सड़कों पर बैठे या सोए हुए दुर्घटना के शिकार हो जाते हैं। भूख से ये इतने दुर्बल हो गए हैं कि इनकी हडिड्यों को गिना जा सकता है।
बदलते मौसम में पानी की बेहद कमी हो गई हैं। ज्यादातर परंपरागत स्रोत सूख गए हैं। तालाब, बावड़ियां या तो सूख गई हैं या उनमें गाद और कचरे से पट गई हैं। पुराने जमाने के तालाब भी कम ही दिखाई देते हैं। यानी बारिश कम हुई और उस बारिश के पानी को सहेजने का जतन भी कम हो गया। इससे संकट बढ़ता ही गया।
हमारे यहां मवेशियों और खासतौर से गाय-बैल के साथ किसानों का एक विशेष लगाव रहा है। वे उनका बच्चों की तरह पालन-पोषण करते रहे हैं। खासतौर से बच्चे और महिलाओं का जिम्मा उनकी देखरेख करने का रहता था। उन्हें चारा या भूसा डालने से लेकर उन्हें पानी पिलाने का काम भी बच्चे करते थे। जब कोई किसान अपने नाते रिश्तेदार के घर जाता था तो वहां परिवार के बाल-बच्चों के साथ पशु धन की कुशल क्षेम पूछी जाती थी।
हमारी कृषि सभ्यता है। हमारे ज्यादातर त्यौहार खेती और गाय-बैल से जुड़े हैं। दीवापली, होली और पोला जैसे त्योहारों पर गाय-बैल की पूजा की जाती है। उन्हें सजाया जाता है और विशेष पकवान खिलाए जाते हैं। गाय तो हमारी गोमाता है, जो हमारी परंपरागत और प्रकृति से जुड़ी खेती पद्धति थी उसमें गाय-बैलों का विशेष महत्व था।
मवेशियों को चरने के लिए चरनोई की जमीन होती थी। पानी के लिए तालाब या नदियां होती थीं। गांव के ढोरों को चराने के लिए चरवाहा होता था। छत्तीसगढ़ जैसी प्रांतों में अब भी यह परंपरा बची हुई है। मवेशियों का स्थानीय स्तर पर जड़ी-बूटियों से इलाज करने वाले जानकार होते थे। आज भी अधिकांश लोग परंपरागत इलाज ही करवाते हैं, पशु चिकित्सकों की पहुंच गांव तक नहीं है।
खेती और पशुपालन एक दूसरे के पूरक थे। अनुकूल मिट्टी, हवा, पानी, बीज, पशु ऊर्जा और मानव ऊर्जा से ही खेतों में अनाज पैदा हो जाता था। अब तक वास्तविक उत्पादन सिर्फ खेती में ही होता है। एक दाना बोओ तो कई दाने पैदा होते हैं और उसी से हमारी भोजन की जरूरत पूरी होती है।
मवेशियों को चरने के लिए चरनोई की जमीन होती थी। पानी के लिए तालाब या नदियां होती थीं। गांव के ढोरों को चराने के लिए चरवाहा होता था। छत्तीसगढ़ जैसी प्रांतों में अब भी यह परंपरा बची हुई है। मवेशियों का स्थानीय स्तर पर जड़ी-बूटियों से इलाज करने वाले जानकार होते थे। आज भी अधिकांश लोग परंपरागत इलाज ही करवाते हैं, पशु चिकित्सकों की पहुंच गांव तक नहीं है। खेती और पशुपालन एक दूसरे के पूरक थे। अनुकूल मिट्टी, हवा, पानी, बीज, पशु ऊर्जा और मानव ऊर्जा से ही खेतों में अनाज पैदा हो जाता था। गाय से खेत में जोतने के लिए बैल मिलते थे। पशु ऊर्जा के दम पर ही कृषि का विकास हुआ है। जमीन को उर्वरक बनाने के लिए गोबर खाद मिलती थी और बदले में खेत में पैदा हुई फसल के डंठलों का भूसा मवेशियों को खिलाया जाता था। खेतों में कई प्रकार के चारे और हरी घास मिला करती थी।
परंपरागत खेती में बैलों से जुताई, मोट और रहट से सिंचाई और बैलगाड़ी के जरिए फसलों व अनाज की ढुलाई की जाती थी। खेत से खलिहान तक, खलिहान से घर तक और घर से बाजार तक किसान बैलगाड़ियों से अनाज ढोते थे। बैलगाड़ियों की चू-चर्र और बैलों के गले में बंधी घंटियां मोहती थी।
परंपरागत खेती में अलग से बाहरी निवेश की जरूरत नहीं थी। न फसलों में खाद डालने की जरूरत थी और न ही कीटनाशक। पशुओं की देखभाल में अतिरिक्त खर्च नहीं होता था। दूसरी तरफ खेत में डंठल व पुआल आदि सड़कर जैव खाद बनाते थे और पशुओं के गोबर से बहुत अच्छी खाद मिल जाती थी। गोबर खाद से खेतों में मिट्टी की उर्वरकता बढ़ती जाती थी। फसलों के मित्र कीट ही कीटनाशक का काम करते थे।
खेती और पशुपालन की जोड़ी का एक अच्छा उदाहरण है जो घुमंतू पशुपालक राजस्थान से भेड़ और ऊंट लेकर मैदानी क्षेत्रों में आते थे तो किसान उन्हें अपने खेतों में ठहरने के लिए बुलाते थे जिससे खेतों को उर्वरक खाद मिले और बदले में ऊंट व भेड़ों को चारा। एक पूरा चक्र था, जो हरित क्रांति के आने के बाद गड़बड़ा गया।
छोटे और गरीब किसानों का ये मवेशी बड़ा सहारा हुआ करते थे। बकरी, मुर्गी, गाय, बैल, भैंस, सुअर,गधा, घोड़ा आदि से उनकी आजीविका जुड़ी हुई है। कोई गरीब आदमी एक बकरी से शुरू करके अपनी आय बढ़ाते जा सकता था। ये मवेशी उनके फिक्सड डिपॉजिट की तरह हुआ करते थे।
लेकिन हरित क्रांति के दौरान देशी बीजों की जगह चमत्कारी हाईब्रीड आए। मिश्रित खेती की जगह एकल और नगदी फसलें आ गईं। गोबर खाद की जगह बेतहाशा रासायनिक खाद, कीटनाशक और खरपतवारनाशकों का इस्तेमाल होने लगा। बैलों की जगह ट्रैक्टर और कंबाईन हारवेस्टर आ गए। खेत और बैल का रिश्ता टूट गया।
लेकिन अब हरित क्रांति का संकट भी सामने आ गया है। देश के कई प्रांतों से किसानों की अपनी जान देने की खबरें आ रही हैं। ऐसे में बिजली और ऊर्जा के संकट के दौर में खेती में पशु ऊर्जा के महत्व को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। जलवायु बदलाव की समस्या है। इससे ग्लोबल वार्मिंग की समस्या बढ़ सकती है। क्या हम पशु ऊर्जा, प्रचुर मानव श्रम और मिट्टी पानी का संरक्षण करते हुए अपनी स्वावलंबी और टिकाऊ खेती को नहीं कर सकते?
लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं
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सीतापुर और हरदोई के 36 गांव मिलाकर हो रहा है ‘नैमिषारण्य तीर्थ विकास परिषद’ गठन
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'संजॉय घोष मीडिया अवार्ड्स – 2022
यूसर्क द्वारा तीन दिवसीय जल विज्ञान प्रशिक्षण प्रारंभ
28 जुलाई को यूसर्क द्वारा आयोजित जल शिक्षा व्याख्यान श्रृंखला पर भाग लेने के लिए पंजीकरण करायें
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