मेघों की चाल से धरती पर जिंदगी की नियति तय होती है। इसी नाते इधर कुछ वर्षों में मौसम के उलटफेर के चलते धरती की आबोहवा में भी कुछ बदलाव दिखने शुरू हुए, तो कहा जाने लगा कि मेघों ने अपनी चाल बदल ली है। लेकिन क्या सचमुच मेघों की चाल बदली है या माजरा कुछ और है? प्रसिद्ध गांधीवादी विचारक और ‘आज भी खरे हैं तालाब’ के चर्चित लेखक के विचार दिलचस्प हैं।
बहुत से नेता आपको यह कहते हुए मिलेंगे कि हमारी खेती भगवान भरोसे है, इसलिए हम पिट जाते हैं। वे कहते हैं कि यह हमारे भरोसे होनी चाहिए और हम विज्ञान से उसको करके दिखा सकते हैं। इसीलिए बड़े-बड़े बांध बनते हैं, फिर उनकी सैकड़ों किलोमीटर की नहरें बनती हैं। वे यह मानते हैं कि मेघ अपनी चाल बदल देंगे, तो हमारे पास उनको अंगूठा दिखाने का एक तरीका है कि हमने भी अपनी चाल इतनी आधुनिक कर ली है कि हम तुमको याद भी नहीं करने वाले और हमारे खेतों में पानी पहुंच जाएगा। अकसर यह कहा जाता है कि अब मेघों ने अपनी चाल बदल दी है। असल में मेघों की चाल बदली या नहीं बदली, यह पक्के तौर पर कहना कठिन है। उससे ज्यादा भरोसे के साथ यह कहा जा सकता है कि हमारी चाल जरूर बदल गई है।
पिछले सौ-सवा सौ साल में मौसम विभाग-जैसा कोई विभाग हमारे समाज में, हमारे देश में और दुनिया के विभिन्न देशों में अस्तित्व में आया है। दो- पांच वर्ष का अंतर होगा, लेकिन ऐसी चीजें बहुत पुरानी नहीं हैं। वर्षा, मेघ, पानी का गिरना, आषाढ़ का आना, सावन-भादों- ये सब हजारों साल के अनुभव हैं समाज के, उसके सदस्यों के, विशेषकर किसानों के-जिनका पूरा जीवन इस पर टिका रहता है।
उन्होंने कभी अपनी चाल नहीं बदली, बल्कि मेघों की चाल देखकर अपना व्यवहार तय किया था।
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