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जनसत्ता (रविवारी), 25 मई 2014
गरीब बेरोजगारों को सौ दिन की न्यूनतम रोजगार योजना छलावा साबित हो रही है। नीति निर्माण और क्रियान्वयन में खामियों से भरी इस योजना को सबसे बड़ा झटका भ्रष्टाचार ने दिया है। क्यों और कैसे यह कार्यक्रम अपने लक्ष्य से भटका, इसकी पड़ताल कर रहे हैं मनोज राय।
रोजगार गारंटी योजना के संदर्भ में इसे गड्ढा खोदने के उदाहरण के जरिए समझा जा सकता है। इस काम में हर लाभार्थी के लिए एक निश्चित आकार का गड्ढा खोदना अनिवार्य कर दिया जाता है। इसमें महिलाओं और पुरुषों को एक समान लक्ष्य दिया जाता है। जाहिर है कि महिलाओं और पुरुषों की शारीरिक कार्य-क्षमता अलग-अलग होती है। इसलिए एक निश्चित समयावधि में जितना काम एक पुरुष कर पाएगा उतना कार्य एक महिला के लिए करना मुश्किल है। इस वजह से महिलाओं को पुरुषों के मुकाबले कम मजदूरी मिल रही है। महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना, जिसे संक्षेप में मनरेगा के नाम से जाना जाता है, गरीब जनता के साथ छलावा साबित हो रही है। बारीकी से देखने पर साफ हो जाता है कि सौ दिन के न्यूनतम रोजगार का कार्यक्रम सौ दिन के अधिकतम रोजगार योजना में बदल गया है। अफसरशाही और भ्रष्टाचार जैसे बिमारियां इस योजना में पलीता लगा चुकी हैं। हो सकता है केंद्र में आने वाली राजग सरकार इस योजना में कोई सुधार करे, बदले या खत्म ही कर दे। लेकिन यूपीए-दो की इस योजना की कमियां सामने आ चुकी हैं।
मनमोहन सरकार के कृषि मंत्री की अध्यक्षता वाले मंत्रिमंडल समूह की अनुशंसा पर मनरेगा में कार्य अवधि की संख्या बढ़ाकर सौ से डेढ़ सौ दिन किया गया था, लेकिन यहां भी गड़बड़ी की गई। प्रचार ऐसे किया गया जैसे यह व्यवस्था पूरे देश के लिए हो, जबकि यह प्रावधान सिर्फ आदिवासी और प्राकृतिक आपदाओं की मार झेलने वाले इलाकों के लिए हुआ।
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