पेयजल सफाई के लिए वनवासियों के पारंपरिक तरीके

Submitted by Anonymous (not verified) on Fri, 03/04/2016 - 07:47
नाम
दीपक आचार्य
फोन न.
9824050784
ईमेल
patalkot@gmail.com
फेसबुक आईडी
www.facebook.com/patalkot
डाक पता/ Postal Address
4th Floor, Shreeji Chambers, B/h Cargo Motors, CG Road, Ahmedabad- 15, Gujarat
Language
Hindi
Story Idea Theme
स्वच्छता (Sanitation)
Story Language
4 - हिन्दी
भारत के मध्यप्रदेश प्रांत में स्थित छिंदवाडा जिले की पातालकोट घाटी सदियों से आदिवासियों का घर है। गोंड और भारिया जनजाति के आदिवासी यहाँ हजारों सालों से निवासी हैं। प्राथमिक चिकित्सा और शिक्षा के अभाव में घाटी के अनेक गाँव आज भी समाज की मुख्यधारा से सैकडों साल पीछे है लेकिन जिस तरह से ये आदिवासी स्वास्थ्य संबंधी विकारों के उपचारों, दैनिक दिनचर्या और रहन सहन में प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करते रहें है, ये देखकर मैं शहरी विकसित-समाज को पिछ्डा हुआ देखता हूँ। पातालकोट सारी दुनिया से कुछ इस तरह से कटा हुआ है कि इन आदिवासियों को अपनी हर छोटी-बड़ी जरूरतों के लिए आत्मनिर्भर होना पड़ता है। चाहे कोई बीमारी हो या फिर कोई और समस्या, इन आदिवासियों के पास हर बात का समाधान है। पातालकोट समुद्र सतह से ३००० फ़ीट नीचे खाई में बसा २५०० आदिवासियों का प्राकृतिक आवास है और इसकी भूगर्भ-संरचना कुछ इस तरह है कि यहाँ बरसाती जल को रोक पाना काफ़ी हद तक संभव नहीं है और ऐसी स्थिती में गर्मियों के आते ही पेयजल एक समस्या बन जाती है। पातालकोट के आदिवासियों को खेती से लेकर पीने के पानी के लिए पूर्णत: बारिश पर निर्भर रहना पड़ता है। साल भर यहां के नदी, झरनों, छोटे-छोटे तालाबों और पोखरों में भरे पानी से ही इन आदिवासियों को गुजारा होता है। हालांकि सरकार ने कुछ गाँवों में शुद्ध पानी पहुँचाने के प्रबंध किए हैं जिसके चलते कुछ गांवो तक साफ पानी पंहुचाया जा रहा है लेकिन यहाँ की कठिन और दुर्गम भौगोलिक संरचना के कारण हर गाँवों तक इस तरह की सुविधा नहीं पंहुच सकी है। तालाब और नदियों का पानी अक्सर मटमैला और दूषित होता है, इसमें मौजूद सूक्ष्मजीव और मिट्टी के कण इस पानी को संक्रमित बनाते हैं। पातालकोट की घाटी में बसे इन आदिवासियों के पास बहुत से ऐसे पारंपरिक तरीके हैं जिनसे अशुध्द पानी को पीने लायक बना कर उपयोग में लाया जाता है। यह नुस्खे पूर्णत: प्राकृतिक, आसान और काफ़ी किफायती हैं तथा इसमें प्रयोग होने वाले प्राकृतिक संसाधन भी प्रचुरता से उपलब्ध हैं। जल शुद्धीकरण की इन देसी तकनीक को आम शहरी लोग भी घरेलू स्तर पर जल शुद्धीकरण करने के लिए अपना सकते हैं।पातालकोट घाटी के राथेड़ गांव की महिलाएं राजा की खोह नामक घाटी के पोखरों से पानी भरती हैं, सामान्यत: गहराई में बसे होने के कारण खोह का पानी मटमैला हो जाता है। पानी में से मिट्टी के कण, कीचड़ तथा अन्य गंदगियों को साफ करने के लिए महिलाएं निर्गुंडी (वाईटेक्स निगुंडो/ चेस्ट ट्री) नामक पौधे की पत्तियों का प्रयोग करती हैं। इस मैले पानी को घड़े या मटके में भर लिया जाता है और घड़े को तलवे से आधा निर्गुंडी की पत्तियों से भर कर इसमें मटमैला एकत्रित किया हुआ पानी डाल दिया जाता है और इसे आधे से एक घंटे के लिए ढ़ांक कर रखा जाता है। ऐसा करने से पानी में मौजूद गंदगी नीचे बैठ जाती है और पानी साफ हो जाता है। आदिवासियों के अनुसार निर्गुंडी की पत्तियाँ मिट्टी के कणों को अपनी ओर आकर्षित करती हैं जिससे गर्त या कण इनकी सतहों पर लिपट जाते है और मिट्टी के भारी कणों के साथ सूक्ष्मजीव भी इन सतहों तक चले आते हैं। आयुर्वेद में भी निर्गुंडी के बीजों में जल शुद्धीकरण की उपयोगिता का जिक्र किया गया है।गर्मियों में पातालकोट के हर्रा का छार गाँव के आदिवासी नदी के किनारों पर छोटे-छोटे गड्ढे करके पीने का पानी प्राप्त करते हैं, इस पानी में मिट्टी आदि के कण पाए जाने के कारण यह मटमैला होता है। शुद्ध पानी प्राप्त करने के लिए आदिवासी गड्ढे में एक कप दही डाल देते है, एक दो घंटे में पानी में घुले मिट्टी के कण तली में बैठ जाते है और आहिस्ता आहिस्ता पानी एकत्र कर लिया जाता है। माना जाता है कि दही सूक्ष्मजीवों को अपनी ओर आकर्षित कर लेता है क्योंकि सूक्ष्मजीव दही में अपना भोज्य पदार्थ पाते हैं। पानी पेय योग्य हो जाता है, शहरों में लोग आसानी से इस पद्दिती का इस्तमाल कर सकते हैं और पानी को फ़िल्टर करने का यह एक उत्तम उपाय हो सकता है|
Story Theme
पेयजल सफाई