सिंचाई

Submitted by Hindi on Mon, 08/29/2011 - 09:54
सिंचाई शब्द प्राय: भूसिंचन के लिए प्रयोग में आता है। कृषि के लिए जहाँ भूमि, बीज और परिश्रम की अनिवार्यता रहती है, वहाँ पौधों के विकास में जल अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य करता है। बीज से अंकुर फूटने से लेकर उससे फल फूल निकलने तक की समस्त क्रिया में जल व्यापक रूप में चाहिए; यदि जल पर्याप्त मात्रा में न हो तो उपज कम होती है।

सामान्यत: कृषि योग्य भूमि पर गिरा हुआ जल भूमि द्वारा सोख लिया जाता है और उसमें वह कुछ समय तक समाया रहता है। पौधा अपनी जड़ों के द्वारा इस जल का भूमि से तरल तत्व प्राप्त करने के लिए उपयोग करता है। इस प्रकार सिंचाई का उद्देश्य पौधों के जड़ क्षेत्र में जल तथा नमी बनाए रखना है।

मुख्यत: सिंचाई के तीन साधन हैं। प्रथम वे जिनमें नदी के बहते पानी में रोक लगाकर, वहाँ के नहरों द्वारा जल भूसिंचन के लिए लाया जाता है। दूसरे वे जहाँ जल को बाँधकर जलाशयों में एकत्र किया जाता है और फिर उन जलाशयों से नहरें निकालकर भूमि को सींचा जाता है। तीसरे ढंग से जल को पंपों अथवा अन्य साधनों द्वारा नदी या नालों से उठाकर उसे नहरों के माध्यम से खेतों तक पहुँचाया जाता है।

इनके आंतरिक भूगर्भ में संचित जल को भी, कूपों में लाया जाता है। यह तरीका अन्य सभी ढंगों से अधिक विस्तृत क्षेत्रों में फैला हुआ है क्योंकि इसमें सिंचाई क्षेत्र के आसपास ही कूप या नलकूप लगाकर जल प्राप्त करने की सुविधा रहती है।

भारत जैसे कृषि प्रधान देशों में सिंचाई का प्रचलन बहुत पुराना है। इसमें छोटी और बड़ी दोनों प्रकार की सिंचाई योजनाएँ भूसिंचन के लिए लागू की जाती रही हैं। इनमें से कई तो कई शताब्दियों पूर्व बनाई गई थीं। इनमें कावेरी का 'बड़ा एनीकट' उल्लेखनीय है। यह लगभग एक हजार वर्ष पूर्व बनाया गया था। किंतु सिंचाई के क्षेत्र में भारत ने वास्तविक प्रगति तो गत शताब्दी में ही की। तभी उत्तर प्रदेश में गंगा की बड़ी नहरों, पंजाब में सरहिंद और व्यास की विशाल नहरों के साथ अन्य प्रदेश में भी बहुत-सी अच्छी नहरों का निर्माण किया गया। बड़े-बड़े तालाबों का निर्माण तो सहस्रों वर्षों से हमारे देश में विशेषकर दक्षिण भारत में होता रहा है। ऐसे छोटे बड़े बाँधों और सरोवरों की बड़ी संख्या पठारी क्षेत्रों में विशेष रूप से विद्यमान है।

सन्‌ 1947 से स्वतंत्रता के पश्चात्‌ तो सिंचाई पर विशेष रूप से ध्यान दिया गया है। पंचवर्षीय योजनाओं में सिंचाई कार्यों को उच्च प्राथमिकता दी गई है। पंचवर्षीय योजनाएँ शुरू होने से पूर्व समस्त साधनों से केवल 5.14 करोड़ एकड़ भूमि पर सिंचाई होती थी जिसमें 2.91 करोड़ एकड़ लघु सिंचाई कार्यों से और 2-23 करोड़ एकड़ भूमि को बड़े सिंचाई कार्यों द्वारा सींचा जाता था। पंचवर्षीय योजनाओं में लगातार सिंचन क्षेत्र बढ़ता ही गया। अनुमान है, पाँचवीं पंचवर्षीय योजना के अंत तक अर्थात्‌ 1975-76 ईं. के अंत में बड़े तथा मध्यवर्गीय सिंचाई कार्यों द्वारा 11.1 करोड़ एकड़ एवं छोटे सिंचाई कार्यों द्वारा 7.5 करोड़ एकड़ भूमि के लिए सिंचाई की व्यवस्था हो जाएगी।

क्षेत्रफल की दृष्टि से भारत सिंचाई के मामले में संसार के राष्ट्रों में अग्रणी है। चीन को छोड़कर संसार के बहुत से देशों में सिंचित क्षेत्र भारत की तुलना में बहुत कम हैं।

सिंचाई (Irrigation) तथा निकास (Drainage) के अंतर्राष्ट्रीय आयोग द्वारा 1963 ई. प्रकाशित आँकड़ों से यह बात स्पष्ट हो जाती है।

सिंचित क्षेत्रफल

(करोड़ एकड़)

भारत

6.34

संयुक्त राज्य अमरीका

3.77

सोवियत यूनियन

3.04

पाकिस्तान

2.66

ईराक

0.91

इंडोनेशिया

0.90

जापान

0.78

संयुक्त अरब गणराज्य

0.67

मेक्सिको

0.67

इटली

0.66

सूडान

0.62

फ्रांस

0.61

स्पेन

0.45

चिली

0.34

पीरू

0.30

आर्जेंटीना

0.27

थाइलैंड

0.26



बाकी अन्य देशों में दो लाख एकड़ से भी कम भूमि पर सिंचाई की व्यवस्था है।

बड़े सिंचाई कार्य अधिक विस्तृत क्षेत्रों में सिंचाई की व्यवस्था करने की क्षमता रखते हैं और उनसे जल की काफी मात्रा भी प्राप्त हो जाती है, लेकिन उन्हें हर जगह लागू नहीं किया जा सकता। ऐसे कार्यों के लिए बहुधा प्राकृतिक साधन भी छोटे पड़ जाते हैं। कई बार आर्थिक साधनों की अनुपलब्धता के कारण भी उन्हें अपनाया नहीं जा पाता, ऐसी अवस्था में छोटे सिंचाई कार्यों से काम चलाया जाता है। अतएव ऐसे क्षेत्रों में जहाँ किन्हीं भी कारणों से बड़ी सिंचाई योजनाएँ हाथ में लेना संभव न हो, वहाँ छोटी योजनाएँ बनाना अनिवार्य हो जाता है।

छोटे सिंचाई कार्यों के अंतर्गत कच्चे या पक्के कूप, नलकूल, छोटे पंप और छोटे-छोटे जलाशय आते हैं। इन कार्यों को संपन्न करने में समय कम लगता है। इनकी एक विशेषता यह भी है कि इनके द्वारा जहाँ भी जल उपलब्ध हो वहीं सिंचाई की जा सकती है। हमारे देश में कूपों पर ढेंकुली लगाकर काफी पुराने समय से सिंचाई की जाती रही है, लेकिन इस तरह बहुत ही छोटे खेतों को ही सींचा जा सकता है। बीच के दर्जे के किसान आम तौर पर रहट, भोट या चरस लगाकर सिंचाई करते हैं। जिन स्थानों में काफी हवा चलती है, वहाँ हवाई चक्कियों से भी सिंचाई की जाती है। इस तरह की हवाई चक्कियाँ खास तौर पर बंबई, सौराष्ट्र और धारवाड़ के क्षेत्रों में लगाई जाती है।

इसके अतिरिक्त छोटे जलाशयों में वर्षा का पानी जमा करके उसे साल भर सिंचाई के काम में लाने का भी प्रचलन है। लेकिन जब कभी वर्षा कम हो जाती है, तब उनका लाभ भी घट जाता है। नलकूप इस बात में विशेषता रखते हैं। वे वर्षा की मात्रा पर सर्वथा निर्भर नहीं होते और उनसे जल भी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हो जाता है। सिंचाई कार्य चाहे बड़े हों अथवा छोटे, उनका आर्थिक समीक्षण करना अति आवश्यक रहता है। कोई भी सिंचाई कार्य तभी सफल हो सकता है, जब उस पर लगाई गई पूँजी पर राज्यकोष को यथानुकूल आय हो सके। अतएव किसी भी सिंचाई कार्य से प्राप्य जल द्वारा इतनी उपज बढ़ाई जानी चाहिए कि सिंचाई पर लगी पूँजी में यथा मात्रा आय हो सके और राज्य कोष को घाटा न उठाना पड़े।

इस दृष्टि से जल के समुचित उपयोग पर ध्यान देने की बड़ी आवश्यकता है। जल के दुरुपयोग को रोकने के लिए कृषि विभाग तथा सिंचाई विभाग आपस में सहयोग करके ऋतु और फसल की आवश्यकतानुसार जल प्रयोग करने की आदत का विकास करा सकते हैं।

आवश्यकता से अधिक मात्रा में पानी देने से कई बार लाभ के स्थान पर हानि हो जाती है। कभी-कभी तो ऐसी भूमि इतनी जलमग्न हो जाती है कि वह कृषि के योग्य नहीं रह जाती। खेत को दिए गए जल का काफी बड़ा भाग रिसकर भूगर्भ में संचित जल का तल ऊपर उठ जाता है जिसके कारण सींची हुई भूमि में खारापन बढ़ जाता है और उसकी उर्वरक शक्ति घट जाती है।

भूगर्भ के जल तल के ऊपर उठने से भूमि की उर्वरक शक्ति कम होने की सेम लगना कहते हैं। इस रोग के लक्षण प्रकट होने पर खेतों में पानी की मात्रा तुरंत कम कर देनी चाहिए। इसके साथ ही ऐसा प्रबंध किए जाने चाहिए जिनमें भूगर्भ के जल का स्तर फिर से नीचे गिर जाए। इसके लिए नलकूप बहुत लाभकारी रहते हैं। नलकूप भूगर्भ के जल को खींचकर भूमि पर सिंचाई के काम में तो लाते ही हैं, उनकी मदद से भूगर्भ का जलस्तर भी उचित स्थान पर स्थिर किया जा सकता है। सेम से बचाव के लिए सिंचाई के साथ-साथ जल निकासों की ओर भी पूरा ध्यान दिया जाना चाहिए। जल निकास नालियों की गहराई और चौड़ाई इतनी रखी जाए कि उनमें होकर उस क्षेत्र का समस्त वर्षा का जल बह सके। इन नालियों की ढाल भी ठीक रहनी चाहिए ताकि उनमें जल रुके नहीं और बिना किसी रुकावट के किसी बड़ी नदी अथवा नाले आदि में जा गिरे।

सिंचाई के लिए जल जुटाने में कापी धन एवं शक्ति लगती है। अत: जल की प्रत्येक बूँद कीमती होती है और उसकी हर प्रकार से रक्षा करना आवश्यक होता है।

जल की हानि के कारणों में पहला तो जल का सूर्य की गर्मी से भाप बनकर उड़ जाता है। इस हानि को कम किया जा सकता है। यदि सिंचाई के लिए जल ले जाने वाली नहरों की चौड़ाई घटा दी जाए और उनकी गहराई को कुछ अधिक कर दिया जाए, तो जल की यह हानि काफी कम हो जाती है क्योंकि उस अवस्था में सूर्य की किरणें जल के अपेक्षाकृत कम क्षेत्रफल पर पड़ती हैं।

जल की हानि का एक बड़ा दूसरा कारण जल का भूमि में रिस जाना है। यह हानि विशेष रूप से रेतीली और पथरीली भूमियों में अधिक होती है। इसकी रोकथाम के लिए नहरें पक्की बनाई जाती हैं। खेतों तक जाने वाली गूलों में भी जल के रिसाव को कम करने के उद्देश्य से उन पर पलस्तर करने का चलन हो गया है।

उपलब्ध जल राशि के किफायती उपयोग के लिए कुछ नए तरीके भी ढूँढ़े गए हैं। इनमें फुहार रीति (sprinkle method) विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इस रीति में जल पाइपों में बहता हुआ घूमने वाली संकरे मुँह की टोंटियों से फुहार के रूप में बाहर निकलता है। फुहार रीति का सबसे बड़ा लाभ यह है कि इसमें पौधों का विकास अच्छी तरह होता है। इसके अतिरिक्त इस रीति में जल की बरबादी बिलकुल नहीं होती। न तो पानी के भाप बनकर उड़ जाने का डर रहता है और न ही नहरों आदि के द्वारा उसके भूमि में रिस जाने की संभावना रहती है। इस रीति का एक अन्य लाभ यह भी है कि इसमें द्रव के रूप मे कीटाणुनाशक औषधियों को जल में मिलाकर फसलों को कीटाणुओं आदि से भी बचाया जा सकता है।

पश्चिमी देशों में तो यह रीति बहुत सफल हुई है। भारत में यह रीति कुछ अधिक खर्चीली होने के कारण अधिक प्रचलित नहीं हो पाई है। फिर भी कुछ स्थानों पर इसे सफलतापूर्वक अजमाया गया है। देहरादून के कुछ पहाड़ी क्षेत्रों में यह रीति ऊँचे पहाड़ी क्षेत्रों और गहरी घाटियों में अधिक लाभदायक सिद्ध हो सकती है।

देश की अर्थव्यवस्था में 'सिंचित कृषि' का महत्वपूर्ण स्थान है। वास्तव में हमारे देश की अर्थव्यवस्था का आधार ही कृषि है। अत: सिंचित भूखंडों का इस प्रकार संचालन होना चाहिए कि उनके द्वारा उत्पादन अधिकतम हो सके। उत्पादन बढ़ाने के लिए वैज्ञानिक, आर्थिक, शासकीय, परिवहनीय एवं सामाजिक आदि जितने भी पहलू सामने आएँ, उनके ऊपर पूरा-पूरा ध्यान दिया जाना आवश्यक हो जाता है।

इन तमाम बातों की समुचित व्यवस्था 'विस्तार सेवा' द्वारा हो सकती है और इस सेवा का संबंध प्रशासन एवं विश्वविद्यालयों से होना आवश्यक है। कृषि उत्पादन बढ़ाने के लिए सिंचाई का सुचारू रूप से प्रबंध तथा प्रयोग आवश्यक है। सिंचाई के द्वारा कृषि उत्पादन को स्थिरता प्रदान की जा सकती है और उसके ऊपर आधारित उत्पादन पर समुचित रूप से कृषि योजनाओं को कार्यान्वित किया जा सकता है। अतएव सिंचाई का विषय हमारे जैसे कृषि प्रधान देशों के लिए बड़ा महत्वपूर्ण है।

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अन्य स्रोतों से




संदर्भ
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बाहरी कड़ियाँ
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