अब आजादी ढोते टांगिया

Submitted by Hindi on Fri, 04/27/2012 - 11:31
Source
गांधी मार्ग, मई - जून 2012

आज से कोई 90 बरस पहले वन क्षेत्रों में काम करवाने के लिए अंग्रेजों ने कुछ लोगों को गांव से उखाड़ कर वनों के बीच जबरन बसा दिया था। गुलामी का दौर गुलामी में ही बीता। अब आजादी मिले भी इतने बरस हो चुके हैं पर इस टांगिया समाज की मुक्ति नहीं हो पाई है। वन और भूमि के ऐसे ही न जाने कितने अनसुलझे जीवन की तरफ समाज और सरकार का ध्यान खींचने के लिए ‘जन सत्याग्रह यात्रा- 2012’ कन्याकुमारी से 2 अक्तूबर को चली है और आठ महीनें तक अनेक राज्यों में से होकर ग्वालियर पहुंचेगी। तब तक सरकार की तरफ से ऐसे मामलों में किसी ठोस कदम के अभाव में फिर एक लाख लोग दिल्ली के लिए कूच करेंगे।

मैकडोनल साहब, कुरैशी साहब, जीवन सिंहजी, अदल सिंहजी, उधम सिंहजी- अस्सी साल की लक्ष्मी निषाद वन अधिकारियों के नाम पर नाम गिनाती जाती हैं। अपने जीवन की कड़वी स्मृति में से निकले ये सारे नाम उनके हैं जो उत्तर प्रदेश के गोरखपुर वन क्षेत्र में ऊंचे पदों पर रहे हैं। लक्ष्मी बताना चाहती है कि उसका पूरा जीवन इसी जंगल में बने तिलकुनिया गांव में बीता है। सरकार लक्ष्मी की बात मानने को तैयार नहीं। वह तो इस जंगल में न जाने कब से बसे तिलकुनिया गांव में अपने जन्म से रहती आई है। पर सरकार न उसे अपना नागरिक मानती है न इस गांव तिलकुनिया को पहचानती है। तिलकुनिया जिले के नक्शे पर है ही नहीं। लक्ष्मी का परिवार टांगिया कहलाता है और कागजों पर कहीं भी कोई परिवार अस्तित्व में नहीं है। कोई एक लाख टांगिया हैं यहां और उन्हें सरकार अपना न मान कर बस यही कहती रही है कि टांगिया लोगों ने वन क्षेत्र पर अवैध कब्जा कर लिया है इन्हें न जिला प्रशासन अपना मानता है, न राजस्व विभाग इनके गांवों को अपना गांव। टांगिया है तो यहीं के, पर आज नहीं है कहीं के। इस समाज का यह अभिशप्त इतिहास अंग्रेजों के समय से शुरू होता है।

उस समय अंग्रेज सरकार को इस इलाके में वनों को सुधारना था। सो उसने टांगिया समाज को यहां लाकर बसाया। कहा कि उजड़े क्षेत्र में पेड़ लगाओ। पांच साल तक यहीं रहो। इन पौधों को पाल पोस कर, सींच कर बड़ा करो और फिर ऐसे ही काम के लिए इसी जंगल में और आगे बढ़ो। इन ‘अस्थायी’ गांवों बसाहटों को कौन देता मान्यता। फिर ये तो थे शहर-गांव, प्रशासन से बहुत दूर जंगल में बसे गांव। न पंचायत, न स्कूल, न हाट बाजार। शहरी और ग्रामीण समाज से भी एकदम कटे टांगिया अपने वन क्षेत्र में किसी तरह का स्वावलंबन बना कर जीते रहे।

आजादी मिलने के बाद भी यह काम बंद नहीं हुआ। शायद इसकी तरफ किसी का ध्यान नहीं जा पाया। सन् 1980 में वन विभाग की नजर इन पर पड़ी और ये अवैध बता दिए गए। यह काम बंद कर दिया गया और उन लोगों को वन क्षेत्र से बाहर जाने के आदेश दे दिए गए। पर ये जाएं कहां? किसी को पता नहीं था। सरकार ने इन लोगों को वनक्षेत्र से खदेड़ देने की भी कोशिश की पर टांगिया समाज की दृढ़ता के आगे वह कुछ कर नहीं पाई।

जब कोई मान्यता ही नहीं तो फिर भला इन्हें सरकारी सुविधाएं कहां से मिलेगी। न राशन कार्ड, न गरीबी की रेखा वाला कार्ड, न किसी तरह की विकास योजना में हिस्सेदारी, या जिसे वे ‘लाभान्वित’ मानते हैं, उस लाभ को छू पाना। अब इन लोगों को नए बने वन अधिकार कानून से कुछ उम्मीद दिख रही है। इस कानून में पहली बार वन क्षेत्र की बसावटों को गांव की तरह मान्यता दिए जाने का प्रावधान रखा गया है। वनवासियों के जमीन, उनके साधन पर उनके हक की बात इसमें कही गई है। पर कानून तो कानून है।

टांगिया बर्मी भाषा का शब्द है। अर्थ है पहाड़ी पर पेड़ों की खेती। जब अंग्रेज यहां आए थे तब वर्मा में यह पद्धति खूब चलन में थी और इसके परिणाम भी खूब अच्छे थे। अंग्रेजों ने इसे वहां से सीखा और यहां सन् 1921 में इसे उत्तर प्रदेश के गोरखपुर क्षेत्र में वनों के संवर्धन के लिए उतारा। इससे पहले भी अंग्रेजों का वन विभाग वन क्षेत्र के आस-पास रहने वालों से वनों का काम करवाता था।

सन् 2009 में गोरखपुर और महराजगंज के कोई 4,500 टांगिया लोगों ने इस कानून का सहारा लेकर अपनी भूमि के स्वामित्व की मांग की थी। पर सरकार ने इन कागजों को अस्वीकार कर दिया। कहा कि पहले साबित तो करो कि तुम यहां 75 बरस से रह रहे हो। इन लोगों के पास ऐसे कोई कागजात नहीं हैं। उस वन क्षेत्र में साधारण रद्दी कागज तक आसानी से नहीं मिल पाता। वहां भला इनके पास कानूनी कागज कहां से आएंगे। फिर इन्हें तो हर पांच बरस में सरकार, वन विभाग यहां से वहां खदेड़ देता था। ऐसे में एक जगह लगातार पचहत्तर बरस बने रहने का दावा कहां से साबित कर पाएंगे ये लोग।

सरकार के इस नए वन कानून के अंतर्गत बनी एक सरकारी समिति ने इनके हक को एक नहीं चार बार स्वीकार किया है और उन पर इसकी संस्तुति भी की है। पर ऊपर जाकर ये सारी मान्यता नीचे गिर जाती है। गोरखपुर में इनके बीच काम कर रही ‘विकल्प’ नामक संस्था के निदेशक विनोद तिवारी बताते हैं कि यह सब वन विभाग के कारण हो रहा है।

टांगिया बर्मी भाषा का शब्द है। अर्थ है पहाड़ी पर पेड़ों की खेती। जब अंग्रेज यहां आए थे तब वर्मा में यह पद्धति खूब चलन में थी और इसके परिणाम भी खूब अच्छे थे। अंग्रेजों ने इसे वहां से सीखा और यहां सन् 1921 में इसे उत्तर प्रदेश के गोरखपुर क्षेत्र में वनों के संवर्धन के लिए उतारा। इससे पहले भी अंग्रेजों का वन विभाग वन क्षेत्र के आस-पास रहने वालों से वनों का काम करवाता था। पर यह प्रायः बेगार की तरह होता था। लोग बेगार करते-करते, गुलामी का ऐसा बोझा उठाते हुए एकदम टूट चुके थे। इसलिए जब उनके सामने वन क्षेत्र में पांच साल के लिए बसने और पेड़ लगाने का काम करने का प्रस्ताव आया तो वे इस पर राजी हो गए थे। उस पद्धति का नाम टांगिया था। तो उसे अपनाने वालों को भी यह नया नाम टांगिया दे दिया गया- उनका सम्मान जनक पूरा इतिहास भुला कर।

इन लोगों ने तब यहां रह कर जिस साल वन लगाया था, वह इस क्षेत्र में आज भी सबसे अच्छा माना जाता है। उन्होंने उस समय इतना अच्छा काम किया था कि गुलाम होने के बाद भी कुछ अच्छे सहृदय अंग्रेज वन अधिकारी इनके सुंदर काम की खूब प्रशंसा करते थे। और बिना नियमों की परवाह किए इनके वन ग्रामों में स्वास्थ्य और शिक्षा आदि के कुछ काम करते, कराते रहते थे। ऐसे समझदार अधिकारी आते-जाते रहे और टांगिया गांवों का कुछ न कुछ काम होता रहा।

पर जब यह पद्धति समाप्त कर दी गई तो फिर कहां बचा अच्छा अधिकारी और कहां रहे टांगिया। अब तो रह गया कठोर कानून। अवैध माने गए टांगिया गांवों को वन क्षेत्र छोड़ देने के नोटिस मिल गए। नोटिस की मियाद पूरी होने पर इन गांवों में छापे भी पड़ने लगे। परेशान टांगिया गांवों ने वन विभाग के साथ संघर्ष किया। झड़पें भी हुईं। गोलियां तक चल गईं। गांव के दो लोग मारे गए। अदालत ने हस्तक्षेप किया। गांव खाली करवाने के नोटिस पर रोक लगी। सन् 1987 तक तो यही सब चलता रहा।

राजा कैंप क्षेत्र में रहने वाले रामदयाल निषाद का कहना है कि हमारे पुरखे पांच पीढ़ी से इसी जंगल में रहते आए हैं। वे कागज का प्रमाण कहां से लाएं, उनके लगे पेड़ देख लो, उन पेड़ों की उमर जांच लो, सब अस्सी से ऊपर के होंगे। उनके मन में कितना दर्द होगा जब वे कहते हैं कि पेड़ों की उमर अस्सी से कम साबित होगी तो हम यह देश ही छोड़ जाएंगे।

फिर बनने लगी इन लोगों की पुनर्वास की योजनाएं। गोरखपुर के वकील रवि श्रीवास्तव पूछते हैं कि इन लोगों के पुनर्वास के लिए जमीन कौन देगा भला? न वन विभाग तैयार था, न राजस्व विभाग। और वन क्षेत्र में बरसों से बसे इनके गांव तो हटाने ही थे सरकार को। तो सन् 1999, 2000 और फिर 2002 तक इनके पुनर्वास की योजनाएं कागज पर बनती रहीं। पर इन्हें लागू करने की जमीन तो मिली नहीं। टांगिया बताते रहे कि हम यहां न जाने कब से बसे हैं पर वन विभाग तो कागज देखकर बताता है कि तिलकुनिया रेंज अंग्रेजों ने सन् 1937 में बनाई थी। उससे पहले इन लोगों का यहां होना संभव नहीं। सन् 1937 अब 75 बरस जोड़कर देख लो। कानून के अनुसार सन् 2005 तक पचहत्तर बरस पूरे होने चाहिए। ये तो हुआ नहीं।

इसलिए एक तरफ कुछ हजार टांगिया अपने अस्तित्व को साबित करने के लिए अपील करते हैं कुछ संस्थाएं, कुछ वकील उनकी मदद करते हैं और वन विभाग उन्हें खारिज कर देता है। उत्तरप्रदेश के मुख्य वन संरक्षक साफ बताते हैं कि कानून के मुताबिक उनका कोई हक नहीं बनता। सरकार उन गांवों को अधिकृत कर दे तो अलग बात है। नहीं तो कानून की नजरों में टांगिया वन क्षेत्र पर अवैध कब्जा किए बैठे हैं- यही हमारी एक मात्र राय है।

इस 1937 वाले प्रसंग में भी टांगिया की राय अलग है। वे तो बताते हैं कि हमें अंग्रेज सरकार इससे पहले यहां ले आई थी। हमारे पुरखे यहां तब भी पेड़ लगा रहे थे जब बगल में सन् 1922 में चैरी-चैरा कांड हुआ था। हम इस सबके कागज जंगल में भला कहां रखते, क्यों रखते, रख कर करते भी क्या? हमें यह थोड़ी पता था कि हमारी बाद की संतानों पर अपने ही देश में ऐसा संकट आ खड़ा होगा।

नए वन कानून से विभाग पर एक खतरा आ सकता है। टांगिया ने इस क्षेत्र में कोई 50,000 हैक्टेयर में साल का सुंदर वन खड़ा किया है। एक समय वे वन विभाग के बंधुआ मजदूर की तरह थे। आज सरकार उन्हें विस्थापित करना चाहते हैं। पर नया कानून बताता है कि इस विशाल वन पर उनका हक हो जाता है। इस बात को भी नहीं भूलना चाहिए कि वन विभाग अपनी ओर से इतने शानदार साल-वन खड़े नहीं कर पाया है। सन् 1985 में इस प्रथा के बंद होने के बाद कोई भी कहने लायक साल वन यहां खड़ा नहीं हो पाया है।

अपने ही समाज के एक अभिन्न अंग को अंग्रेजों के कारण हमने एक नया नाम, दे दिया और उन्हें अब हम पचहत्तर वर्ष का कोई तराजू लाकर तौल रहे हैं और कह रहे हैं कि ये लोग तो हमारे हैं ही नहीं। उधर राजा कैंप क्षेत्र में रहने वाले रामदयाल निषाद का कहना है कि हमारे पुरखे पांच पीढ़ी से इसी जंगल में रहते आए हैं। वे कागज का प्रमाण कहां से लाएं, उनके लगे पेड़ देख लो, उन पेड़ों की उमर जांच लो, सब अस्सी से ऊपर के होंगे। उनके मन में कितना दर्द होगा जब वे कहते हैं कि पेड़ों की उमर अस्सी से कम साबित होगी तो हम यह देश ही छोड़ जाएंगे।

तब टांगिया अंग्रेजों की गुलामी ढो रहे थे। आज टांगिया वन विभाग की आजादी को ढो रहे हैं।