मनरेगा को मैं सरकार ही नहीं देश की फ्लैगशिप योजना की तरह लेता हूं।
इस योजना को लेकर सरकार की अगंभीरता अक्सर झलक जाती है। बजट में मनरेगा को लेकर विरोधाभास दिखा। एक तरफ तो इस मद के लिए पिछले वित्त वर्ष से 100 करोड़ रुपए कम तय किए गए और दूसरी ओर सरकार ने यह भी कहा कि 100 दिनों वाली इस रोजगार योजना के तहत वेतन में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक के अनुसार बढ़ोतरी की गई है। अब कम आवंटन से बढ़ी हुई जरूरत कैसे पूरी हो सकती है यह समझ से परे है। दरअसल सरकार कई गैर जरूरी मद में राशि बढ़ाने को हमेशा तैयार रहती है जबकि भारत का कायाकल्प करने में सक्षम इस योजना को लेकर पर्याप्त गंभीरता नहीं दिखाती। यह अगंभीरता फंडिंग से लेकर योजना के कार्यान्वयन के तरीकों तक में दिखती है।
मेरा आकलन है कि भारतीय परिप्रेक्ष्य में इस योजना से बेहतर शायद ही कोई योजना हो बल्कि मैं तो मानता हूं कि दुनिया में ही शायद इस जैसी कोई योजना हो। यह अगर ठीक से संचालित हो तो गरीबी मिटाने का महात्मा गांधी का सपना पूरा होने से कोई नहीं रोक सकता। लेकिन योजना का दुखदायी पहलू यह है कि यह कागजी तौर पर तो पूरी तरह सफल है लेकिन वास्तविक तौर पर नहीं। अभी देश के कई जिले ऐसे हैं जहां इस योजना से जुड़ी घोर अनियमितताएं सामने आ रही हैं। खासकर इसमें भ्रष्टाचार का जो इतिहास रहा है उस पर गौर करने की जरूरत है। कई लोग इसे अपनी अर्थव्यवस्था में मजबूती लाने के उपाय की तरह देख रहे हैं लेकिन कई ऐसे भी हैं जिनका प्रयास है कि इसे पूरी तरह पंगु बना दिया जाए। हमने देखा है कि योजना में भ्रष्टाचार को सामने लाने वाले कुछ जुझारू कार्यकर्ताओं की हत्या तक हुई और हत्यारों को पकड़ा भी नहीं जा सका।
मौजूदा बजट में इसके लिए भले ही कम राशि का प्रावधान हो, फिर भी इसके लिए तय राशि ईमानदारी से खर्च की जाए तो हालात बदल सकते हैं। वस्तुत: योजना को और राशि की तो जरूरत है लेकिन इससे कहीं अधिक जरूरी पारदर्शिता के इसके प्रावधानों को लागू करने की है। योजना को सुधारने के लिए सबसे जरूरी एक मजबूत शिकायत निवारण मशीनरी की स्थापना की है। मौजूदा स्थिति में केंद्र और राज्य सरकार इसके जवाबदेही संबंधी प्रावधानों को महत्व नहीं दे रही हैं। योजना बेरोजगारी, गरीबी और भुखमरी से राहत दिलाने में तभी कारगर हो सकती है जब इस पर अमल ठीक से हो और किसी किस्म की लापरवाही पाए जाने पर जुर्माने और दंडित किए जाने जैसी व्यवस्था भी सुनिश्चित हो। अभी केवल गिने-चुने मामलों में ही जुर्माना तय किया गया है जबकि अनियमितता एवं लापरवाही के मामलों का अंबार लगा है।
मजदूरी के भुगतान में विलंब पर मुआवजे का प्रावधान भले हो लेकिन इसका उल्लंघन खुद राज्य सरकारें कर रही हैं। नौकरशाह तो मनरेगा की चाबी अपनी हाथ में रखना चाहते हैं जो इस योजना की मूल मंशा के ही खिलाफ है। योजना में कई सकारात्मक बातें निहित है किंतु इसे भ्रष्टाचार और अनियमितताओं से बचाए रखना होगा। नौकरशाहों को इससे जितना हो सके, दूर रखना होगा। इस योजना से भ्रष्टाचार को दूर किया सके इसके लिए इसमें सारे प्रावधान हैं। बस इसे ठीक से लागू किया जाना चाहिए। किसी भी किस्म की अनियमितता पर कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए।
कामगारों के जॉब कार्ड और उन्हें मिल रही मजदूरी की समय-समय पर जांच हो। समाज के जिस वर्ग के लिए यह योजना शुरू की गई थी, उसे इसका लाभ मिलना चाहिए। लोगों को अभी योजना की पूरी जानकारी ही नहीं है। वे नहीं जानते कि जॉब कार्ड में नाम कैसे दर्ज कराएं जाएं। तहसीलदार व ग्रामसेवक तक पूरी जानकारी से महरूम हैं। स्थिति बदलनी होगी। आखिर किसी भी अन्य विकास योजना की तरह इसका सबसे बड़ा दुश्मन भ्रष्टाचार ही है, इसे समझना होगा। केंद्र सरकार की जिम्मेदारी केवल योजना के संबंध में घोषणाएं करने की ही नहीं है बल्कि जमीनी तौर पर नियमों का कितना पालन हो रहा है, यह भी देखने की भी है।
प्रस्तुति: नीरज कुमार तिवारी