अमेरिका से लौटकर बदल दी गाँव की सूरत

Submitted by RuralWater on Mon, 12/25/2017 - 11:38
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अमर उजाला, 25 दिसम्बर 2017

सारी योजनाएँ उसी व्यवस्था के तहत थीं जिसमें कई लोगों का भ्रष्टाचार के सिवा कुछ नहीं दिखता। हाँ, अलग किया है, तो बस इतना कि सरकार द्वारा चलाए जा रहे कार्यक्रम बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ से प्रेरित होकर मैं हर उस परिवार को दो महीने की अपनी तनख्वाह देती हूँ, जिनके घर में बेटी जन्म लेती है। इस काम को मैंने सरपंच मानदेय की संज्ञा दी है। देश में सैकड़ों सरकारी योजनाएँ चल रही हैं लेकिन अशिक्षा, भ्रष्टाचार और जागरुकता की कमी के कारण वे सभी सफल नहीं हो पातीं।

बात 2012 की है, मैं उस वक्त राजनीति शास्त्र में एमए कर चुकी थी। मेरे कई परिजन अमेरिका में रहते थे। मेरे लिये अमेरिका जाना आसान था, सो मैंने भी टेक्सास की रंगीन दुनिया में जाकर अपना कैरियर बनाने का फैसला लिया। मैं वहाँ चली भी गई। मगर मेरे पिता जी को मेरा फैसला नहीं जचा।

दरअसल मेरे दादाजी और मेरे पिताजी, दोनों ने ताउम्र अपने गाँव के विकास के लिये नि:स्वार्थ सेवा की थी। बिना सरकारी मदद या किसी अपेक्षा के उनके काम ने उन्हें हमेशा उन्हें गाँव की मिट्टी से जोड़कर रखा था। और उनकी दिली इच्छा थी कि मैं उनकी भावनाओं का कद्र करते हुए जो भी करुँ, अपने गाँव के लिये करुँ।

उन्होंने मुझे समझाया कि जो सुख अपने देश की सेवा करने में है, वह कहीं नहीं मिल सकता। मैंने उन्हें निराश नहीं किया और एक साल के भीतर ही अमेरिका की लाखों रुपए वेतन वाली नौकरी छोड़कर वापस अपने देख आ गई। वतन वापसी के बाद मेरे मन में सबसे पहला ख्याल एक स्वयंसेवी संस्था बनाने का आया। इस विचार का एक कारण था।

मैंने अपने समाज में उच्च मध्यवर्गीय परिवारों की महिलाओं की बदहाल जिन्दगी के बारे में कोई नहीं सोचता। ये महिलाएँ घरेलू हिंसा को सिर्फ इसलिये सहती रहती हैं, क्योंकि परिवार की इज्जत का पूरा दारोमदार इनके मुँह न खोलने पर ही टिका रहता है। वैसे भी समाज की तथाकथित इज्जत इसी वर्ग के परिवारों में सर्वाधिक पाई जाती है।

कई महिलाओं से बात करने पर मैंने पाया कि इन्हें काउंसिल की जरूरत है, जिससे ये अपने अधिकारों के प्रति जागरुक हो सकें। मैं अपना काम कर ही रही थी कि उसी वक्त मध्य प्रदेश में पंचायत चुनाव की घोषणा हो गई। मैं चुनाव लड़ने को तैयार हो गई, इसकी वजह यह भी थी कि मेरे गाँव की सीट पन्द्रह वर्षों बाद महिलाओं के लिये आरक्षित की घोषित हुई थी। और लोक स्वार्थ यह भी था कि अगर मैं जीत गई, तो न सिर्फ उन महिलाओं बल्कि समाज के दूसरे जरूरतमन्दों के लिये भी कुछ कर सकती हूँ।

कुछ गाँव वाले भी चाहते कि चुनाव कोई पढ़ी लिखी जीते, ताकि गाँव का सही विकास हो। मैं चुनाव लड़ी और जीतकर गाँव की सरपंच बन गई। महिला सशक्तिकरण से जुड़ी प्राथमिकताओं के साथ मैं पंचायत के सभी दूसरे जरूरी कामों में तेजी लाई। पक्की सड़कें, हर ग्रामीण का राशन कार्ड, बैंक अकाउंट, मृदा स्वास्थ्य कार्ड, विभिन्न पेंशन तथा किसानों के मुआवजे के लिये मैंने हर स्तर की लड़ाई लड़ी। स्वास्थ्य के मोर्चे पर कई चुनौतियों को पार करते हुए गर्व के साथ यह कहने लायक बनी कि हमारे गाँव में एक भी कुपोषित बच्चा नहीं है।

मैंने सरपंच बनकर कोई भी काम अलग से या किसी अतिरिक्त प्रयास से नहीं कराया। ये सारी योजनाएँ उसी व्यवस्था के तहत थीं जिसमें कई लोगों का भ्रष्टाचार के सिवा कुछ नहीं दिखता। हाँ, अलग किया है, तो बस इतना कि सरकार द्वारा चलाए जा रहे कार्यक्रम बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ से प्रेरित होकर मैं हर उस परिवार को दो महीने की अपनी तनख्वाह देती हूँ, जिनके घर में बेटी जन्म लेती है।

इस काम को मैंने सरपंच मानदेय की संज्ञा दी है। देश में सैकड़ों सरकारी योजनाएँ चल रही हैं लेकिन अशिक्षा, भ्रष्टाचार और जागरुकता की कमी के कारण वे सभी सफल नहीं हो पातीं। मैं मानती हूँ कि सरपंचों का शिक्षित होना बहुत जरूरी है क्योंकि पढ़े-लिखे सरपंच ही अधिकारियों से मिलकर अपने गाँव में बदलाव ला सकते हैं।