पिछले 25 वर्षों से सारे राजनैतिक लोगों के लिये कुर्सी का एक खेल बनी नर्मदा-योजना के बारे में एक बार फिर विवाद का बवंडर उठ खड़ा हुआ है। राजकोट, अहमदाबाद, सूरत और बड़ोदरा के नगर-निगमों के चुनावों में स्थानीय प्रश्नों और चर्चित घोटालों को एक बोरे में बन्द करके सब लोग ‘हमको तो नर्मदा का पानी चाहिए’ की रट के साथ अपने-अपने हथियारों को सान पर चढ़ाने के काम में जुट गए थे। नर्मदा के नाम का चाबुक चलाकर लोक-भावना को उभारने और कुर्सी की खींचतान के सपने देखे जा रहे हैं।
लेकिन जिस तरह सजे-सजाए और बैंड-बाजों की धुनों से गूँजते मंडप में दूल्हे के न पहुँचने से सन्नाटा छा जाता है, उसी तरह सरदार-सरोवर में आज सब स्तब्ध हैं। नवागाम और केवड़िया कॉलोनियों और पथिकाश्रम के कर्मचारी, इंजीनियर और ठेकेदार सवाल पूछने लगे हैंः “आपका क्या अन्दाज है? क्या पर्यावरण वालों की मंजूरी मिलेगी? काम फिर शुरू हो पाएगा? या रुका का रुका ही रह जाएगा?”
यह विवाद तो अभी-अभी शुरू हुआ है। लेकिन नर्मदा-बाँध के काम की गति तो पिछले फरवरी-मार्च 86 से ही धीमी पड़ने लगी थी। नवम्बर 1984 से दुविधा और उसे दूर करने के लिये हलचल होने लगी थी। लगता रहा कि कोई-न कोई रास्ता निकलेगा ही। बाद में, कोई एक वर्ष पहले, गुजरात के मुख्य सचिव नई दिल्ली में कोई चार बार बातचीत के लिये आए। जब उससे काम न बन पाया, तो फिर गुजरात के सभी संसद-सदस्य 12 नवम्बर 86 को श्री राजीव गाँधी से विनती करने पहुँचे कि वे हस्तक्षेप करके इस विषय में कुछ करें।
इस बैठक में भारतीय जनता पार्टी के श्री शंकरसिंह बाघेला ने अपनी तपी हुई आवाज में प्रधानमंत्री से पूछा: “आपके नाना पंडित जवाहरलालजी ने जिस बाँध का शिलान्यास किया था, आप उस बाँध को बनवाएंगे या नहीं?” असल में नर्मदा-योजना की दुन्दुभी तो स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद सन 1947 से ही बजने लगी थी। उन वर्षों में नर्मदा क्षेत्र में तरह-तरह के सर्वेक्षण करवाए गए थे। स्वतंत्र गुजरात राज्य की स्थापना के बाद सन 1961 के अप्रैल महीने में रंग-बिरंगी पोशाकों और तीर कमानों से सजे-धजे आदिवासियों की उपस्थिति में पंडित जवाहरलाल नेहरू ने नर्मदा के बाँध का शिलान्यास किया था। सिंचाई के लिये बनने वाले बाँधों को नेहरू जी ‘नए तीर्थ और मंदिर’ कहा करते थे। उन दिनों इसका नाम नर्मदा-बाँध नहीं, बल्कि भरूच सिंचाई-योजना रखा गया था। उस योजना में बाँध सिर्फ 162 फुट ऊँचा बनने वाला था। यदि यह योजना शुरू हुई होती, तो शायद बिना किसी रोक-टोक के अब तक पूरी भी हो गई होती। किन्तु आज शिलान्यास का वह पत्थर नवागाम में कहीं धूल चाट रहा है। उसकी शिला को तो कोई वहाँ से उठाकर ले गया है।
तब से लेकर अब तक नर्मदा-बाँध के मामले में गुजरात की हालत ‘लेने गई पूत और खो आई खसम’ के समान हो गई है। शिलान्यास के दो वर्ष बाद बलवंतराय मेहता ने 1963 में ‘भोपाल-एग्रीमेंट’ के नाम से जो अनुबंधकिया, उसके अनुसार बाँध की ऊँचाई 425 फुट हुई। पर तब मध्यप्रदेश की विधान सभा ने उस अनुबंध को अस्वीकार कर दिया। उसी बीच किसी के दिमाग में यह खयाल आया कि सिर्फ़ भरूच जिले में ही क्यों, नर्मदा का पानी तो ठेठ कच्छ के रेगिस्तान तक और समूचे सौराष्ट्र तक पहुँचना चाहिए। सन 1964 में डॉक्टर खोसला ने फैसला दिया कि बाँध 500 फुट ऊँचा बनाया जाए। इस हवाई किले के बनने से पहले ही महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश ने मिलकर अप्रैल, 1965 में आपस में एक समझौता सीधे-सीधे ही कर लिया। फिर तो गुजरात का कोई जोर कहीं चला नहीं। बाद में वर्षों तक मध्यप्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र के बीच बहस चली, और तीखी-तमतमाती भाषा में आवाजें उठती रहीं कि केन्द्रीय शासन अन्याय कर रहा है। अन्त में तीनों राज्यों ने नर्मदा बाँध सम्बन्धी विवाद को निपटाने के लिये इंदिराजी के कहने पर, एक ट्रिब्यूनल गठित करने के लिये अपनी सहमति दी। ट्रिब्यूनल लगातार नौ सालों तक जाँच-पड़ताल करता रहा। आखिर 16 अगस्त, 1978 के दिन न्यायाधीश अंसारी ने फैसला दिया कि गुजरात में बाँध 540 फुट नहीं, 460 फुट बनाया जाए।
मानो इस फैसले से ही सारा गुजरात हरा-भरा हो उठा हो।
गुजरात के सारे राजनीतिज्ञों ने इस तरह की डींगे हाँकनी शुरू कर दीं कि अब गुजरात के विकास की कोई सीमा नहीं रहेगी।... कच्छ का रेगिस्तान हरा भरा हो उठेगा।... कदम-कदम पर अनाज और बिजली पैदा होने लगेगी।... इतना ही नहीं, अब तो नर्मदा में जहाज भी चलने लगेंगे। जिसे जो बात सूझी, उसको वह जगह-जगह दोहराने लगा। “नमामि देवि नर्मदे!” की प्रार्थना के साथ इस काम में जुट जाओ! सफलता हमारी है! इन नारों के साथ 3000 करोड़ रुपए इकट्ठा करने के लिये ढोल-नगाड़े बजने लगे!
नर्मदा तो देवी है ही। उत्तर में विन्ध्याचल और दक्षिण में सतपुड़ा पहाड़ के मध्य देवों के मन में भी ईर्ष्या जगाने वाली एक अनुपम घाटी के बीच यह बहती है। अमरकंटक से निकलकर खंभात की खाड़ी में मिलने वाली नर्मदा कुल 1313 किलोमीटर यानी 815 मील लम्बी है। नवागाम के क्षेत्र से मैदानी इलाके में प्रवेश करने वाली नर्मदा गुजरात में मुश्किल से कोई दो सौ किलोमीटर की यात्रा करती है। पुराणों में नर्मदा की गाथा गाने वाले श्लोकों में नर्मदा-क्षेत्र की वनश्री, पशु-पक्षियों और नर्मदा की अकूत प्राकृतिक सम्पदा का ऐसा अनुपम वर्णन है कि उसको पढ़कर हम तो चकित ही रह जाते हैं। ये श्लोक बताते हैं कि सरस्वती का पानी तीन दिन में, यमुना का पानी एक हफ्ते बाद और गंगा का पानी पीते ही जीवधारी को पवित्र बना देता है। किन्तु नर्मदा तो ऐसी महानदी है, ऐसी पूर्व गंगा है कि उसके दर्शन-मात्र से प्राणी पवित्र बन जाते हैं। ऋषि-मुनियों ने उसको रेवा, इन्दुजा, नागकन्या, मेकलकन्या आदि नामों से याद किया है। महाकवि कालिदास ने ‘मालविकाग्निमित्र’ नामक अपने नाटक में एक पात्र का नाम नर्मदा के बदले ‘वरदा’ रखा था। वरदा का अर्थ हुआ, मनचाहा वर देने वाली।
रेवा के किनारे केवल गुजरात में ही नहीं, बल्कि जहाँ से वह निकलती है, वहाँ से लेकर अरब सागर तक 400 से अधिक तीर्थस्थान हैं। इनमें 333 शिवतीर्थ और 28 वैष्णव तीर्थों के अलावा जैन धर्म के और दूसरे धर्मों के भी अनेकानेक तीर्थ हैं। बड़वानी के पास बावनगजा क्षेत्र में तीर्थंकर की 52 गज ऊँची बड़ी भव्य मूर्ति है। दूसरी तरफ नर्मदा के एक द्वीप पर पाँच सौ साल पुराना जोग का ऐतिहासिक किला भी है। नर्मदा की 2600 किलोमीटर लंबी पैदल परिक्रमा करने के लिये हर साल सारे भारत के हजारों श्रद्धालु तीर्थयात्री उमड़ पड़ते हैं।
ऐसी इस नर्मदा नदी में हर साल दो करोड़ अस्सी लाख एकड़ फुट पानी बहता है। नर्मदा योजना को समझने के लिये इस एकड़-फुट शब्द को समझ लेना जरूरी हैः जब आप एक एकड़ खेत में एक फुट पानी भर लेते हैं, तो बाँध की भाषा में उसको एकड़-फुट कहा जाता है। अगर एक एकड़ जमीन पानी में एक फुट डूबे तो वह पानी कितना होगा? लगभग ढाई लाख गैलन। अब तक नर्मदा में ज्ञात सबसे भयानक बाढ़ 6 सितम्बर 1970 को आई थी। उस बाढ़ में जहाँ नवागाम बाँध बन रहा है, उसके पास गरुड़ेश्वर में बना कंकरीट का पक्का पुल बह गया था। तब नर्मदा का पानी फीट सेकण्ड 24 लाख घनफुट के हिसाब से बहा था। यहां यह बात विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि ऐसे अवसर भी आए हैं जब नर्मदा में बहुत ही कम, यानी मुश्किल से 300 घनफुट पानी बहा है।
इतने अधिक पानी को ‘व्यर्थ ही’ समुद्र में मिलते देखकर बड़े-बड़े नेताओं के मुंह से लार टपकी है। सौराष्ट्र और कच्छ सहित गुजरात के लगभग सब लोग यह मानते हैं कि एक बाँध बन जाने के बाद पांच, दस या पन्द्रह सालों के भीतर सब कहीं प्रचुर मात्रा में पानी मिलने लगेगा। वे सोचते हैं कि लोगों की भलाई के इतने बढ़िया काम में केन्द्रीय सरकार के कुछ लोग और दूसरे भी कुछ लोग, व्यर्थ ही रोड़े अटका रहे हैं। लेकिन क्या सचमुच इस बाँध से गुजरात को इतना पानी मिलने वाला है? ट्रिब्यूनल ने अपने फैसले में कहा है कि नर्मदा के 100 गैलन पानी में से 30 गैलन पानी का उपयोग गुजरात कर सकेगा। मतलब यह कि नर्मदा में जो लगभग तीन करोड़ एकड़ फुट पानी बहता है उस सब पर नहीं, बल्कि उसमें से केवल 90 लाख एकड़ फुट पानी पर गुजरात का हक होगा। मान लीजिए कि पानी कम या ज्यादा बहे तो फैसले में कहा गया है कि ऐसी हालत में 73 फीसदी पानी का उपयोग मध्य प्रदेश करेगा और 24 फीसदी पानी गुजरात को मिलेगा। बाकी के तीन फीसदी में से एक प्रतिशत पानी महाराष्ट्र को और दो प्रतिशत राजस्थान को जाएगा। 45 सालों के बाद यानी सन 2023 में यदि तब तक एक नहीं, बल्कि सब बाँध बन चुके होंगे, तो सब राज्य पानी के इस बँटवारे के बारे में पुनर्विचार कर सकेंगे।
इधर गुजरात नवागाम के क्षेत्र में सरदार-सरोवर का निर्माण करना चाहता है और उधर ऊपर की तरफ मध्य प्रदेश में पुनासा के क्षेत्र में ‘नर्मदा-सागर’ बनने वाला है। आम धारणा है कि इन दो बाँधों के बन जाने से काम पूरा हो जाएगा। किन्तु राष्ट्रीय स्तर पर नर्मदा-योजना को केवल इन दो बाँधों के रूप में नहीं, बल्कि समूची नर्मदा-घाटी योजना के रूप में देखा जाता है। बहुत कम लोगों को पता होगा कि 815 मील लम्बी नर्मदा पर और उसकी नदियों पर जैसे करजण, हरण, तवा आदि पर केवल सरदार-सरोवर और नर्मदा-सागर नाम के दो बाँध ही नहीं, बल्कि 30 बड़े भीमकाय बाँध, 135 मध्यम बाँध और 3000 छोटे बाँध, यों कुल मिलाकर 3165 बाँध बनाने की यह योजना है। (वैसे ठीक संख्या किसी को नहीं मालूम) आप बैलगाड़ी लाएँ, और उसके साथ बैल न हों, गाड़ी के पहिए न हों, तो काम चलेगा नहीं। इसी तरह इनमें से कई बाँध ऐसे हैं जो एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। जब तक ये सब बाँध पूरी तरह बन नहीं जाते हैं, तब तक कोई एक बाँध ठीक से सफल नहीं हो सकेगा। ट्रिब्यूनल के फैसले में यह बात स्पष्ट कही गई है कि सरदार-सरोवर और नर्मदा-सागर से जुड़ी हुई योजनाएँ आगे-पीछे नहीं, बल्कि लगभग एक साथ पूरी होनी चाहिए।
सरदार-सरोवर अपने आप में एक बड़ी योजना है। इस बाँध की लम्बाई 3932 फुट होगी। बाँध के आस-पास ऊँचे-ऊँचे पहाड़ और घाटियाँ हैं। दो पहाड़ों के बीच बाँध की दीवार बन जाने पर आस-पास के पहाड़ों में पानी इकट्ठा होने लगेगा और वहाँ एक प्राकृतिक सरोवर बन जाएगा। समुद्र जैसे इस सरोवर की डूब में कुल 37030 हेक्टेयर क्षेत्र आएगा। यह बाँध समुद्र की सतह से 455 फुट ऊँचा होगा। सरोवर में 77 लाख एकड़ फुट पानी का संग्रह किया जा सकेगा। यह तो हुई उसकी संग्रह शक्ति किन्तु रोज-मर्रा के काम के लिये उसमें 47 लाख एकड़ फुट पानी रखा जाएगा।
इंजीनियरों का दावा है कि इस बाँध से निकलने वाली मुख्य नहर दुनिया की कुछेक बड़ी नहरों में होगी। यह नहर 445 किलोमीटर लम्बी बनेगी। इसका तला 240 फुट चौड़ा होगा। ‘आग लगने पर कुआँ खोदने’ की तरह इस नर्मदा से पाइप लाइन के जरिए सौराष्ट्र में पानी पहुँचाने की जो बात कही जाती है, उसमें से डेढ़ सौ से दो सौ घनफुट पानी बहेगा। जबकि बाँध की इस मुख्य नहर में से 40,000 घनफुट पानी बहने वाला है। इससे मुख्य नहर के राक्षसी आकार का अन्दाज हो सकेगा। महेसाणा जिले के कड़ी-कलोल क्षेत्र में पहुँचने के बाद पंप की मदद से पानी को उलीचकर आगे की नहर में डालना होगा। सौराष्ट्र की भू-रचना ऐसी है कि राजकोट के आस-पास वाला क्षेत्र ऊँचा है, और उसके चारों तरफ ढालदार जमीन है। इसलिये सौराष्ट्र में पहुँचने वाली नहर का पानी लखतर के क्षेत्र में ऊपर उठाकर डाला जाएगा।
दूसरे बाँधों की तरह नर्मदा की मुख्य नहर को सीधे ही सरोवर में से निकाला नहीं जा सकेगा, क्योंकि बाँध के आस-पास के क्षेत्र में पहाड़ खड़े हैं। नहर का निर्माण करने के लिये इन पहाड़ों को खोदना होगा। यह काम ‘सोने से गढ़ाई ज्यादा महँगी’ जैसा रहेगा। इसलिये सरदार सरोवर का पानी बाँध की बगल वाली घाटी के रास्ते एक दूसरे सरोवर में पहुँचेगा। यह दूसरा सरोवर-सरदार-सरोवर से 150 फुट नीचा होगा। अतएव नहर में पहुँचने से पहले पानी के इस प्रपात से बिजली पैदा की जाएगी। फिर पहाड़ों के रास्ते पानी वहाँ से बहता-बहता दूसरे, तीसरे और चौथे सरोवर तक जाएगा। वहाँ से मैदान शुरू होने पर मुख्य नहर ठेठ चौथे सरोवर में से निकाली जाएगी।
300 फुट की ऊँचाई से शुरू होकर बहने वाली यह नहर जब राजस्थान के बाड़मेर और जालौर जिलों में पहुँचेगी, तब इसके पानी का स्तर 130 फुट नीचा होगा और पानी का प्रवाह 40,000 घन फुट से घटकर 2500 घनफुट रह जाएगा। फैसले में राजस्थान को पाँच लाख एकड़ फुट पानी देने की बात कही गई है। 445 किलोमीटर लंबी नहर में से रास्ते में पड़ने वाले जिलों और तहसीलों के लिये नहर की अलग-अलग शाखाएँ निकलेंगी। नदी के गहरे-से-गहरे भाग से नापने पर एक स्थान पर इस बाँध की ऊँचाई 534 फुट तक पहुँचेगी। अकेले इस एक बाँध पर 13.50 लाख टन सीमेंट, 65,400 लाख टन लोहा, सुरंगों पर खर्च होने वाला 700 लाख टन गोला-बारूद और कोई 11 लाख मीटर अलग-अलग प्रकार के पाइप लगेंगे। बाँध के लिये आने वाला सीमेंट मगदल्ला बन्दरगाह से बोरों में भरकर नहीं, बल्कि 35 या 20 टन के टैंकरों में लदकर आएगा। पूरा बाँध सीमेंट-कंकरीट का बनेगा।
कंकरीट के लिये काम में आने वाला ग्रेवेल नाम का पत्थर जो सीमेंट और रेत के साथ मिलाया जाता है, नदी की घाटी में से खोदकर लाया जाता है। एक निश्चित आकार की गिट्टियों को छानकर छाँटने के लिये एक भारी-भरकम प्लांट बाँध के स्थान पर ही खड़ा किया गया है। इस बाँध का डिजाइन श्री नलिन बी. देसाई के एक नौजवान इंजीनियर के मार्गदर्शन में बनाया गया है। बाँध-सम्बन्धी सब कामों के लिये वे मुख्य इंजीनियर हैं। सिंचाई-विभाग में सीधे ही कार्य-पालन मंत्री के रूप में नियुक्त हुए श्री नलिन देसाई की, अथवा सिंचाई-विभाग के इंजीनियर सचिव श्री आई.एम. शाह की और उनके नौजवान इंजीनियरों के दल की छवि बहुत साफ-सुथरी है।
आम तौर पर सीमेंट-कंकरीट के काम में पानी का उपयोग किया जाता है। पर बाँध के कंकरीट काम में पीसी गई बरफ बरती जाती है। सभी जानते हैं कि चूने व सीमेंट में पानी मिलाने पर वह गरम हो जाता है और उसका तापमान बढ़ जाता है। यदि वातावरण के तापमान की तुलना में कंकरीट का तापमान बढ़ जाता है, तो उसमें एक खतरनाक दबाव पैदा होता है। वातावरण के 80 से 90 फैरनहीट वाले तापमान के साथ सीमेंट-कंकरीट के तापमान को सुरक्षित रखने के लिये बाँध में ‘पीसी’ हुई बर्फ का उपयोग किया जाता है। बर्फ की ठंडक उस मिश्रण के तापमान को बढ़ने नहीं देती। इस काम के लिये आवश्यक अमोनिया-प्लांट भी बाँध के स्थान पर ही बनाया गया है।
बाँध में और मुख्य नहरों में पानी पहुँचाने के लिये आस-पास के छोटे सरोवरों के रॉक फिल बाँध बनाने का काम जयप्रकाश एसोसिएट्स नाम की कम्पनी कर रही है। बाँध के लिये दक्षिण कोरिया के हुंडाई, जापान की माइडा, कनाडा के टोर्नो और यूगोस्लाविया, इटली और अमेरिका के ठेकेदारों ने भी अपने-अपने टेंडर पेश किए थे। ऐसे भीमकाय काम करने वाले ठेकेदारों को ध्यान में रखकर अन्तरराष्ट्रीय नियमों के अनुसार आवश्यक नियम निश्चित किए गए हैं। जो लोग इन नियमों की कसौटी पर खरे उतरते हैं, उन्हीं को टेंडर पेश करने की अनुमति दी जाती है। इटली की एक कम्पनी ने तो धमकी दे दी थी कि अगर उसको काम नहीं दिया गया, तो वह ‘देख’ लेगी! लेकिन उसका कोई जोर चला नहीं।
नहरों के जरिए 44 लाख एकड़ के क्षेत्र में पानी पहुँचाने के अलावा इस बाँध से बिजली भी पैदा की जाएगी। मुख्य बाँध से दो-दो सौ मेगावाट बिजली पैदा की जा सकेगी। जब सिंचाई के लिये पानी अधिक खर्च होने लगेगा, तो बिजली का उत्पादन धीरे-धीरे घटने लगेगा। बिजली घर पहाड़ के भीतर बनी सुरंग में बनाया जाएगा। यह बाहर से किसी को दिखाई नहीं पड़ेगा। बिजली घर के लिये चट्टानें तोड़-तोड़कर 300 मीटर लम्बी और 23 मीटर चौड़ी एक भीमकाय सुरंग बनाई जाएगी। सुरंग की छत की ‘सिलाई’ लम्बे-लम्बे बोल्टों के टांकों से की जाएगी, जिससे सुरंग कभी धँस न सके। इस सुरंग का काम-काज सौराष्ट्र की धोराजीया कम्पनी कर रही है। बिजली घर में ऐसे टरबाइन लगाए जाएँगे कि बिजली पैदा करने के बाद जरूरत पड़ने पर वे उसी पानी को फिर ऊपर की तरफ सरोवर में फेंक सकें। अनुमान यह है कि इन ‘रिवर्सीबल’ टरबाइन केन्द्रों के निर्माण का काम जापान वाले करेंगे।
नर्मदा का पानी किनको मिलेगा? जैसाकि गाजे-बाजे के साथ कहा गया था, क्या यह पानी कच्छ के छोटे-बड़े रेगिस्तानों को मिलेगा? समूचे सौराष्ट्र या समूचे गुजरात को मिल पाएगा? आमतौर पर लोगों का अपना खयाल यह बना है कि एक बार सरदार-सरोवर के बन जाने पर क्या तो रेगिस्तान में, किसी को कहीं पानी की जरा भी तकलीफ नहीं रहेगी। लेकिन सच्चाई यह है कि नर्मदा का पानी कच्छ के छोटे-बड़े रेगिस्तानों तक, अथवा अंजार, लखपत, नखत्रणा, अबलासा या रापर तक पहुँच नहीं पाएगा। सौराष्ट्र में भी सुरेन्द नगर और भावनगर के जिलों में, और वहाँ भी उनकी कुछ ही तहसीलों में पानी पहुँच सकेगा। भावनगर जिले के ज्यादातर हिस्सों में, और राजकोट, जामनगर, जूनागढ़ अथवा अमरेली सहित समूचे सौराष्ट्र में पानी पहुँच ही नहीं सकेगा। पीने का पानी कोई 4700 गाँवों में और 131 कस्बों जैसे गाँवों में पहुँच पाएगा। इनमें से कितने गाँव सचमुच जरूरत वाले अथवा अकाल पीड़ित हैं, इसकी कोई ब्यौरेवार चर्चा कहीं होती नहीं है। सार्वजनिक रूप से कहीं भी इसकी जानकारी नहीं दी जाती है।
गुजरात में नहर के पानी का लाभ किन-किन को मिलेगा? भरूच जिले की जंबूसर, मियांगाम, लुहारा, अमलेश्वर, बागारा और आमोद तहसीलों में पानी पहुँचेगा। बड़ोदरा जिले की रनोली, साकरदा, देणा, कुंडेला, तिलकवाड़ा और शिनोर तहसीलों को पानी मिलेगा। पंचमहाल में डेसर क्षेत्र को गाँधी नगर जिले के कुछ हिस्सों को, अहमदाबाद जिले की खाराघोड़ा, साणंद, धोलका बावला, नल और छोरो तहसीलों तक पानी पहुँचेगा। महेसाणा में राजपुरा, बोडेरो, और झांझूवाडिया तक बनासकांठा में गोद्रीस, धीमा, माल्सा नंद, मोडका, वाजपुर, पटौई और राघवपुर तक पानी पहुँच सकेगा। कच्छ में पानी भचाऊ और मांडवी की बहुत ही तंग पट्टी तक पहुँचेगा। (अगर सचमुच पहुँचा तो!) भावनगर में वल्लभीपुर और बोटाद में, और सुरेंद्रनगर में मालिया, मोरबी, लीमड़ी, लखतर, हलवद और ध्रांगध्रा में पानी पहुँचेगा। शाखा नहरों के छोर पर जो-जो क्षेत्र होंगे, उनमें अधिक-से-अधिक तीन या चार हजार एकड़ जमीन को सिंचाई का कुछ लाभ मिल पाएगा। मुख्य नहर में से कच्छ की पट्टी की शाखा कड़ी-कलोल से और सौराष्ट्र की शाखा लखतर क्षेत्र से फूटेगी।
ट्रिब्यूनल के सामने कच्छ के रेगिस्तान तक पानी ले जाने के बारे में लम्बी बहस चली थी। कृषि-विशेषज्ञों ने कहा था कि रेगिस्तान वाले क्षेत्र में फसल के लिये अकूत पानी की जरूरत रहेगी। इसके अलावा, वहाँ ‘खराश’ यानी खारापन इतना ज्यादा है कि उसको खत्म करने के लिये अधिक पानी लगेगा। आखिर कच्छ की बात छोड़ दी गई थी।
जहाँ पानी पहुँचाने की बात कही जाती है, वहाँ भी पानी कब और कितने सालों के बाद पहुँचेगा? नहरों का निर्माण कार्य तीन चरणों में पूरा होगा। नहरों में पानी तभी आ सकेगा, जब बाँध 310 फुट ऊँचा बन जाएगा। इसलिये पहले चरण में 144 किलोमीटर नहर बनाने पर सात सालों में पानी माही नदी में पहुँच सकेगा। वहाँ से दूसरे चरण में दसवें साल में पानी पहुँचेगा। मुख्य नहर के बन जाने और उसकी शाखा-उपशाखाओं का जाल तैयार हो जाने के बाद ही कोई बीस सालों के बाद, कच्छ की पट्टी तक और राजस्थान तक पानी पहुँच पाएगा।
लेकिन शेखचिल्ली की - ‘सी’ ये सारी अटकलें ‘यदि’ और ‘तो’ के साथ जुड़ी हुई थीं। जिन क्षेत्रों की बात सोची गई है, उन सबमें बीस वर्षों में भी पानी तभी पहुँच पाएगा, जब मध्यप्रदेश के पुनासा में नर्मदा-सागर बाँध बन चुकेगा। नर्मदा-सागर से बिजली पैदा करके पानी ओंकारेश्वर के बाँध में पहुँचेगा और वहाँ बिजली पैदा करके पानी महेश्वर बाँध के रास्ते सरदार-सरोवर में आएगा। इन ऊपर वाले क्षेत्र की योजनाएँ जो अभी सिर्फ़ कागज पर ही लिखी धरी हैं, यदि कभी अमल में नहीं आ सकीं, तो सरदार-सरोवर भूतों का एक भयंकर डेरा ही बनकर रह जाएगा। एक साल की बरसात में जितना पानी इकट्ठा होगा, उतना ही सरोवर की टंकी में भर लेना पड़ेगा और फिर दूसरी बरसात की बाट देखनी होगी। इतना पानी, सौराष्ट्र की तो बात ही छोड़िए, बड़ोदरा और भरूच के लिये भी नाकाफ़ी ही होगा।
और, यदि ऐसा ही हुआ, तो बिजली भी पैदा नहीं हो पाएगी। अगर बिजली पैदा हुई भी तो उससे गुजरात को खुश होने का कोई कारण नहीं रहेगा। बस कुल 100 यूनिट बिजली ही पैदा होगी, जिसमें से पंच फैसले के अनुसार गुजरात को तो 16 यूनिट बिजली ही मिलेगी। बाकी की बिजली मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र को पहुँचानी होगी। अंदाज यह है कि जैसे-जैसे सिंचाई के लिये पानी का उपयोग बढ़ता जाएगा, वैसे-वैसे बिजली का उत्पादन भी गिरता जाएगा।
नर्मदा-घाटी के कुल 3156 बाँधों में से अकेले एक सरदार-सरोवर पर कुल कितना खर्च होगा, क्या हममें से किसी को इसकी कोई कल्पना है? आँकड़ों के मायाजाल का यह एक अजब-गजब खेल है। सबसे पहले जब नर्मदा बाँध की बात गुजरात के कानों तक पहुँची थी, तो उस समय 700 करोड़ रुपयों के खर्च का अन्दाज था। जब ट्रिब्यूनल ने फैसला दिया, उस समय खर्च कोई 3000 करोड़ रुपयों तक पहुँचा। अब आज की तारीख में आधिकारिक रूप से यह 5793 करोड़ रुपयों का माना जा रहा है। (विश्व बैंक के एक विवरण के अनुसार खर्च का सही अंदाज सन 1983 में 7200 करोड़ माना गया था, पर उन दिनों उसको प्रकट नहीं होने दिया गया।) खर्च बहुत भयानक न दिखे इसलिये उसके अलग-अलग आंकड़े पेश किए जाते हैं। उदाहरण के लिये जब पूछा जाता है कि नहरों पर कुल कितना खर्च होगा, तो कहा जाता है कि कुल खर्च 1412 करोड़ रुपयों में होगा।
कोई साफ-साफ यह बताता ही नहीं है कि यह खर्च तो अकेली एक मुख्य नहर का ही है, अन्य नहरों पर होने वाला खर्च 3412 करोड़ रुपयों तक पहुँचेगा। बाँध पर कुल खर्च 725 करोड़ रुपयों का होगा। बिजली घर के लिये 691 करोड़, विकास के लिये 604 करोड़, और दूसरे अन्य कामों के लिये 361 करोड़ रुपयों का खर्च कूता गया है। जितनी देर होती जाएगी, उस हिसाब से हर दिन एक करोड़ रुपयों का खर्च बढ़ता जाएगा।
कोई व्यापारी कभी किसी ऐसे आदमी को अपना माल उधार दे बैठे जो उसे हड़प ले और जब वह व्यापारी उगाही के लिये उसके घर पहुँचे, तो उसे और नया माल उधार दे दे, और वह आदमी फिर लाख रुपयों का माल दबाकर बस दस हजार रुपये ही चुकाए, कुछ वैसी फ़जीहत वैसा तमाशा इस योजना में चल रहा है।
मुख्यमंत्री से लेकर अलग-अलग पार्टी के संसद सदस्यों तक ने हो हल्ला मचा रखा है कि अब तक नर्मदा पर 350 करोड़ रुपये फूँके जा चुके हैं। विश्व बैंक अपने पैसों की थैली का मुँह खुला रखकर खड़ा है। ऐसी हालत में उसे अचानक रोका क्यों जा रहा है? काम फिर से झटपट शुरू करो, झटपट शुरू करो! मानों 5400 करोड़ रुपए खर्च हो चुके हों, और काम बिलकुल किनारे आ लगा हो, ऐसी हायतौबा ये लोग मचा रहे हैं।
सचमुच कितना काम अब तक हुआ है? बाँध के क्षेत्र में नदी के प्रवाह को मोड़ने का काम, उसके लिये आवश्यक काम चलाऊ बाँध; खुदाई का काम; नींव में मिली दूसरी अलग किस्म की चट्टानों को सुधारने का काम चल रहा है; जिस सरोवर में से पानी को नहर में मोड़ना है, उसके बीच की टेकरियों पर बने बाँधों को मिलाकर अब तक कुल 104 करोड़...हाँ, सब मिलाकर कुल 104 करोड़ रुपयों का काम हुआ है। कुल 455 किलोमीटर लम्बी मुख्य नहर में से 9 किलोमीटर तक की खुदाई में, लाइनिंग में बीस फीसदी काम में, दूसरे 10 किलोमीटर की खुदाई में नहर के रास्ते में आने वाले कुछ निर्माण काम आदि को मिलाकर दूसरे 50 करोड़ रुपयों का काम और हुआ है। बिजली घर में मुश्किल से 7 करोड़ रुपयों का खर्च हुआ है। इस सबको जोड़ने पर कुल बाँध पर अब तक 350 करोड़ का नहीं, योजना सम्बन्धी कुल काम मुश्किल से 161 करोड़ रुपयों का हुआ है। तो फिर बाकी 189 करोड़ रुपए कहाँ खर्च हुए हैं? इसके तफसीलवार आंकड़े अभी तक प्रकाशित नहीं हो सके हैं; शायद यह मान लिया गया है कि सर्वे पर, कॉलोनी के और रास्तों के निर्माण कार्य पर, कर्मचारियों के लिये बिजली पानी की व्यवस्था पर और विद्यालय, कार्यालय, मेहमान-घर आदि के निर्माण पर यह सारा खर्च हुआ है।
जब सन 1978 में पंच का फैसला सामने आया था, उस समय कहा गया था कि सन 1995 तक बाँध का सारा काम पूरा हो चुकेगा। इसका मतलब यह हुआ कि आज 1986 के अंत तक आधा काम तो हो ही जाना चाहिए था। यानी अब तक कुल 3000 करोड़ रुपयों का काम पूरा होना था। पर काम तो मुश्किल से तीन फीसदी ही हो पाया है। और इस तीन फीसदी की उगाही वसूल करने के लिये हड़पने वाला व्यापारी जिद करके लोगों से 97 फीसदी रकम, यानी 5400 करोड़ रुपये माँग रहा है, और कह रहा है कि यदि यह रकम नहीं दी गई, तो फिर उसकी कोई जिम्मेदारी नहीं! अजब-गजब सी जिद है यह।
‘विश्व बैंक तैयार खड़ा है। जल्दी करो... जल्दी करो...’ इस पुकार पर भी जरा ध्यान दें। पूरी योजना 6000 करोड़ की है। आठ सालों में मुश्किल से 104 करोड़ रुपये खर्च हो पाए हैं। मतलब यह कि हर साल कोई 13 करोड़ रुपये खर्च हुए। विश्व बैंक उदारतापूर्वक आखिर कितनी रकम देगा? और देने में विश्व बैंक के बाप का क्या जाता है? देश आपका है। आप जो चाहें, सो करें। आज की घड़ी तक विश्व बैंक ने 45 करोड़ डॉलर देना कबूल किया है। मतलब अधिक से अधिक 550 करोड़ रुपए। 150 करोड़ रुपयों का कर्ज जापान देने वाला है। यों, कुल 700 करोड़ रुपए हुए। बाकी बचे काम के टेंडर मँगवा लिये गए हैं।... गाना आज यह गाया जा रहा है कि इस रकम की मंजूरी मिल जाए, तो रॉकेट की सी गति से काम शुरू किया जा सकता है। टेंडर भी सब मिलाकर 700 करोड़ के ही हैं। मतलब यह है कि विश्व बैंक जितनी रकम उधार देगा, उतनी ही रकम की मर्यादा में टेंडर या तो खुले हैं या खुलेंगे।
पर्यावरण सम्बन्धी स्वीकृति मिल जाए, और विश्व बैंक के पैसे से कामकाज फिर शुरू हो भी जाए, तो भी कुल मिलाकर 800 करोड़ रुपयों का काम पूरा हो सकेगा। इसके बाद भी 5,200 करोड़ रुपयों की आवश्यकता पड़ेगी। क्या किसी ने सोचा है कि गुजरात सरकार ये रुपए कहाँ से लाएगी? अकाल की हालत में पिछले साल 85 करोड़ रुपयों के लिये तो सरकार को श्री विश्वनाथ प्रतापसिंह के पास दौड़कर जाना पड़ा था। टैक्स और खनिज तेल की रॉयल्टी पेटे उनसे पेशगी रकम लानी पड़ी थी। आज गुजरात में सिंचाई पर कुल मिलाकर 200 करोड़ रुपए खर्च होते हैं। सारे गुजरात राज्य के सब सिंचाई कामों को रोककर यदि उस पूरी रकम को नर्मदा पर ही होम कर दिया जाए, तो भी उससे काम बनेगा नहीं। दूसरे राज्यों में मिलने वाली सहायता को छोड़ दें तो भी हर साल 200 करोड़ रुपयों के खर्च से योजना को पूरा करने में 20 साल और बीत जाएँगे। तब तक नर्मदा के बाँध का अनुमानित खर्च 6,000 करोड़ रुपयों से बढ़कर 26,000 करोड़ रुपयों तक पहुँच चुकेगा। ‘इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ अर्बन अफेयर्स’ नामक संस्था ने दो साल पहले अंदाज लगाया था कि नर्मदा पर बनने वाले बाँध का खर्च आखिर 25,000 करोड़ रुपयों तक पहुँचेगा।
यह बड़ी विचित्र बात है कि किसी भी योजना को मंजूर करने के बाद कुल मिलाकर उसका परिणाम क्या होगा, इस पर कोई ठीक बहस ही नहीं होती। एक छोटा-सा घर बनाते समय हम हजार तरह की बातें सोचते विचारते हैं। लेकिन जिस योजना पर 7,000 करोड़ रुपए खर्च होने वाले हैं, उसके बारे में कहीं कोई चर्चा हुई ही नहीं है। यों तो इस पर भी बहस होनी चाहिए, हिसाब लगाया जाना चाहिए कि पूरे देश में बनी ऐसी सिंचाई योजनाओं, बाँधों से लाभ की तुलना में नुकसान कितना हुआ है, गड़बड़ें कितनी हुई हैं, आफतें कितनी आई हैं और आने वाली पीढियाँ इन पीढ़ियों को क्षमा न कर सकें-ऐसी कितनी बर्बादी हुई है।
तो फिर भविष्य में भी होगा यही कि मामा का घर कितनी दूर है? उतनी दूर जितनी दूर दीया जलता रहे। 350 करोड़ रुपयों का काम हो चुका है। अब कहा जा रहा है कि इसको रोका न जाए। विश्व बैंक से 700 करोड़ खर्च हो जाने के बाद फिर पुकार मचेगी कि 1,000 करोड़ रुपए तो खर्च हो चुके हैं। आगे के लिये और रकम मंजूर कीजिए। इस अवधि में विश्व बैंक का ब्याज तो चक्रवृद्धि ब्याज के रूप में बढ़ता ही जाएगा। नर्मदा-योजना के लिये गुजरात में कोई 7 करोड़ रुपयों के कीमती यंत्र और आयात किए जा चुके हैं। नहरों में लाइनिंग का काम करने वाले स्क्रेपर यंत्र इस समय पड़े-पड़े जंग खा रहे हैं। कोई 6,000 टन वजन की लोहे की प्लेटें जापान से मँगवाई गई हैं। इनसे बिजलीघर के लिये ‘पेनस्टॉक पाइप’ बनवाए जाएँगे। और इस बीच में स्टोर रूम में से कोई तीन लाख रुपयों की ऐसी प्लेटें चुराई भी जा चुकी हैं। अमानत में खयानत का ही एक नमूना बना है। पर ऐसे भारी नुकसानों का तो कोई अंदाज दिया ही नहीं जा सकता है।इस योजना को पूरा करने के लिये अकेले एक सरदार-सरोवर में ही 267 गाँव पानी में डूबने वाले हैं। इनमें से 182 गाँव मध्यप्रदेश के हैं। (इनके पुनर्वास के काम में कितनी लापरवाही बरती जा रही है, इसकी एक जरा सी, लेकिन भयानक झलक ‘मार्ग’ नामक संस्था के एक सर्वे में दिखती है। इन गाँवों को खाली करवाने के लिये कोई 11,000 परिवारों को बाँध क्षेत्र से हटाना पड़ेगा। 11,000 एकड़ में फैले गुजरात के जंगलों के साथ कुल 27,000 एकड़ में फैले जंगल पानी में डूबेंगे। वैसे, कुल मिलाकर 90,000 एकड़ जमीन पानी में डूबेगी। दूसरे 3164 बाँधों में जो जमीन डूबेगी, वह इससे अलग होगी। लेकिन अकेले एक सरदार सरोवर के बन जाने से कोई काम बनेगा नहीं। न तो आवश्यक पानी इकट्ठा हो पाएगा, और न उससे गुजरात को जो 16 फीसदी बिजली मिलने वाली है, वह बिजली भी पैदा हो सकेगी।
जिस पर सरदार-सरोवर का सारा दारोमदार है, उस नर्मदा-सागर बाँध के कारण और उससे जुड़े अनगिनत अन्य बाँधों के कारण मध्यप्रदेश में, या कहिए कि पूरे देश में, जो भारी उथल-पुथल होने वाली है, स्वतंत्र भारत के इतिहास में शायद वह अपने ढंग की एक अभूतपूर्व बर्बादी साबित होगी। कुछ समय पहले से विश्व बैंक को भारत के कुछ विशेषज्ञों ने और विभिन्न देशों के लोगों ने कहा था कि “ईस्ट इंडिया कम्पनी की तरह आप भी उधार रकमें दे-देकर गरीब देशों को बर्बाद कर रहे हैं।” तब अनमने भाव से विवश होकर बैंक नर्मदा-घाटी के लिये कुछ कड़ी शर्तों को तो मंजूर करते हैं, किन्तु वे स्वयं अपने लोगों की दारुण स्थिति को देखना-समझना नहीं चाहते। जिस दिन भोपाल में गैस वाली दुर्घटना घटी, उसी दिन विश्व बैंक ने इस नर्मदा योजना से सम्बंधित राज्यों को अपने यहाँ पर्यावरण-समितियाँ गठित करने के लिये विवश किया था। तब तक न तो गुजरात ने और मध्य प्रदेश ने ही स्वेच्छा से इसकी कोई व्यवस्था अपने यहाँ की थी।
मध्यप्रदेश की पर्यावरण-समिति के अध्यक्ष श्री एस.डी.एन. तिवारी ने कहा कि नर्मदा-सागर के 91,348 हेक्टेयर में फैले सरोवर के कारण और दूसरे बाँधों के कारण (गुजरात के सरदार-सरोवर की डूब में आने वाले गाँवों के अलावा) अन्य 317 गाँव और डूबेंगे। जंगलों के डूब जाने के बाद उस क्षेत्र में पानी जिस तरह चारों ओर फैलेगा, उसकी वजह से उस क्षेत्र में लोगों का आना-जाना बंद हो जाएगा। परिणाम यह होगा कि कुल 875,000 एकड़ जंगल का इलाका बेकार बन जाएगा। नदी किनारे की कोई पाँच लाख एकड़ बहुत ही उपजाऊ जमीन नष्ट हो जाएगी। एक लाख एकड़ की गोचर भूमि डूबेगी। कोई सवा लाख लोगों को अपने घर और गाँव छोड़कर कहीं दूर जाना और बसना पड़ेगा। इनमें पूर्व निमाड़ जिले का हरसूद कस्बा तो पूरी तरह डूबेगा। 32 किलोमीटर लम्बी रेल की पटरियाँ भी डूबेंगी। इनके अलावा, नर्मदा क्षेत्र के कई बहुत पुराने और प्रसिद्ध तीर्थ, मंदिर, पुरातत्व की दृष्टि से अनमोल स्मारक, जोग का किला, जंगलों में रहने वाले अनगिनत पशु-पक्षी और पानी में ही जीने वाले अद्भूत जलचरों का जो नाश होगा, उसका हिसाब देना या अंदाज लगाना तो सम्भव ही नहीं है।
खैर वापस गुजरात पर आएँ। गुजरात का कोई 11,000 एकड़ जंगल डूबेगा। इसकी पूर्ति कैसे होगी? इसके जवाब में गुजरात के आदिवासी मुख्यमंत्री जो स्वयं जंगल में ही पल-पोसकर बड़े हुए हैं, बड़े ही ठंडे मन से कहते हैं कि करेंगे... करेंगे... इसका भी कोई उपाय करेंगे। गुजरात में ताप्ती नदी पर बना उकाई बाँध सन 1972 में तैयार हुआ था। उससे पहले, उसके सरोवर में डूबने वाली 55,000 एकड़ जमीन में फैला घना जंगल काटा गया। इस जंगल में 27 लाख पेड़ खड़े थे। इस बात को 14 साल बीत चुके हैं। इस अवधि में वैसा या उतना बड़ा दूसरा कोई जंगल कहीं खड़ा नहीं किया जा सका। गुजरात के मुख्यमंत्री श्री अमरसिंह चौधरी का घर भी इसी क्षेत्र में है। वे भी इस सच्चाई को जानते हैं। इस बीच सन 1986 में अकाल की चीख-पुकार शुरू हो चुकी है। जनता को मूर्ख बनाने के काम में सरकारी विभाग कितना निर्लज्ज, जड़ और संवेदन-शून्य बन सकता है, इसका एक उदाहरण सोनगढ़ के जंगल विभाग ने हमारे सामने पेश किया है। जब उकाई के जंगलों की बात चल रही थी, तब इस विभाग ने बताया था कि सन 1968 में वहाँ कुल 20,000 हेक्टेयर में जंगल खड़ा था। इसके दूसरे ही साल विभाग ने इस क्षेत्र में 89,000 हेक्टेयर में जंगल की बात कह दी! असल में कुल जमीन 74,000 हेक्टेयर थी। इसका मतलब यह हुआ कि जितनी कुल जमीन थी, उससे कहीं अधिक जमीन पर जंगल होने की बात कह दी गई। ‘सेंटर फॉर सोशल स्टडीज़’ के युवक कार्यकर्ता श्री कश्यप मंकोड़ी के अध्ययन से इस सारी गड़बड़ी का भेद खुला।
अब गुजरात की सरकार कहती है कि नर्मदा में डूबने वाले जंगल के बदले वह कच्छ के रेगिस्तान में नया जंगल खड़ा करेगी। हजारों वर्षों पुराने कुदरती जंगल के ढंग का नया जंगल आज का हमारा अदना-सा आदमी 15 सालों में कैसे खड़ा कर सकेगा इसे तो गुजरात की वह सरकार ही जाने, जो सामाजिक वन खड़े करने के नाम पर आज केवल यूकेलिप्टस के पेड़ ही उगाने में लगी है! और यह काम भी वह कच्छ के रेगिस्तान में करना चाहती है! उस रेगिस्तान में, जहाँ नर्मदा का पानी पहुँच ही नहीं सकेगा। ऐसी हालत में, क्या गुजरात की सरकार भचाऊ और मांडवी की संकरी पट्टी में पहुँचने वाले थोड़े पानी की मदद से वहाँ नए जंगल खड़े कर सकेगी?
यह एक ऐसी बात है, जिस पर कभी विश्वास नहीं किया जा सकता। फिर भी थोड़ी देर के लिये हम मान लें कि केवल गुजरात के जंगल, जैसे पहले थे, वैसे ही दूसरी जगह में खड़े हो जाएंगे। (मध्यप्रदेश का हिसाब तो बिलकुल अलग ही है) फिर भी गुजरात के कांग्रेसियों को अथवा विपक्षी राजनीतिज्ञों को या नर्मदा के सपने देखने वाले गुजरात के आम लोगों को यह बात तो समझ ही लेनी है कि इसमें अंडों के लोभ में मुर्गी को मारने का खतरा बराबर बना रहेगा। होशंगाबाद के वयोवृद्ध कृषि-विशेषज्ञ श्री बनवारीलाल चौधरी हों, जल-संशेाधन-विभाग के निष्णात श्री बी.एल. वर्मा हों या साधारण बुद्धि वाले समझदार लोग हों, इन सबकी आम राय यह है कि नर्मदा और हिमालय की गंगा के बीच एक बुनियादी अंतर है। गंगा में बर्फ पिघलने से पानी आता है, जबकि नर्मदा-क्षेत्र के जंगल नर्मदा की घाटी में पानी को बहता रखते हैं और वहाँ की मिट्टी को पकड़कर रखते हैं आज हमारे मन को ललचाने वाला नर्मदा का पानी इन जंगलों पर आधारित है। आगे जब ये सब जंगल कट जाएँगे, चाहे ये मध्यप्रदेश के हों, चाहे गुजरात के, तो बाँध तो बन जाएँगे, पर क्या नर्मदा नर्मदा रह पाएगी?
बाँधों की सारी झीलें खाली पड़ी रहेंगी। यह प्रक्रिया एक दो सालों में नहीं होगी, पर जो स्थिति 14 सालों के बाद आज उकाई में सामने आ रही है, वैसे ही स्थिति गिनती के कुछ सालों में ही नर्मदा-क्षेत्र की भी हो सकती है। 12 नवम्बर 1986 के दिन जब गुजरात के संसद-सदस्य श्री राजीव गाँधी से मिलने पहुँचे, उस समय प्रधानमंत्री ने नर्मदा-बाँध की नींव में पर्यावरण नाम का जो फच्चर फँसाया था उसका कारण ये जंगल ही हैं। गुजरात के अहमद पटेल ने कहा है, समूची नर्मदा-घाटी को नहीं, तो सिर्फ़ सरदार-सरोवर से पर्यावरण को कोई भारी नुकसान नहीं पहुँचेगा। लेकिन सरदार-सरोवर की सफलता तो नर्मदा के ऊपरी क्षेत्र में बनने वाले बाँधों पर निर्भर करती है। यदि ये बाँध न बनने वाले हों, तो इसको आज की अपनी योजना को घटाकर आधी कर लेना होगा। देश की स्वतंत्रता के समय से लेकर आज तक की सिंचाई योजनाओं के कारण समूचे राष्ट्र की, और आने वाली अनेकानेक पीढ़ियों की कितनी शाश्वत हानि हुई है, उसका कहीं कोई हिसाब लगाया नहीं जाता है। सिंचाई के बाँध यानी पानी, और पानी यानी खेती, इस तरह का सीधा-सादा हिसाब योजना आयोग के सामने रखा जाता है और वह भी उन्हें मंजूर करता जाता है। सन 1980 में वन-विधेयक स्वीकृत हुआ, उसके कारण अब एकाध बाँध पर नहीं, बल्कि समग्र रूप से कितना लाभ और कितनी हानि होती है, इसका हिसाब पर्यावरण की दृष्टि से लगाया जाता है। गुजरात के मुख्यमंत्री जी ने हमारे साथ की बातचीत में यह स्वीकार किया था कि “अब तक तो सब कुछ ठीक ही चल रहा था, पर्यावरण-सम्बन्धी समझ और चेतना तो अभी-अभी ही आई है।”
यह बड़ी विचित्र बात है कि किसी भी योजना को मंजूर करने के बाद कुल मिलाकर उसका परिणाम क्या होगा, इस पर कोई ठीक बहस ही नहीं होती। एक छोटा-सा घर बनाते समय हम हजार तरह की बातें सोचते विचारते हैं। लेकिन जिस योजना पर 7,000 करोड़ रुपए खर्च होने वाले हैं, उसके बारे में कहीं कोई चर्चा हुई ही नहीं है। यों तो इस पर भी बहस होनी चाहिए, हिसाब लगाया जाना चाहिए कि पूरे देश में बनी ऐसी सिंचाई योजनाओं, बाँधों से लाभ की तुलना में नुकसान कितना हुआ है, गड़बड़ें कितनी हुई हैं, आफतें कितनी आई हैं और आने वाली पीढियाँ इन पीढ़ियों को क्षमा न कर सकें-ऐसी कितनी बर्बादी हुई है।
वन-विभाग जंगलों के कटने से कितनी कीमत वाली इमारती लकड़ी का नुकसान होगा उसका हिसाब पेश कर देता है। एक पेड़ 50 सालों में 16 लाख रुपयों का काम कर देता है। वह सूर्य-प्रकाश को चूसकर हर पत्तों में मौजूद क्लोरोफिल में से उस प्राण वायु का निर्माण करता है, जिसके बिना जीवन ही नहीं रह सकता। पेड़ ही ऑक्सीजन बनाते हैं। हम अपने साँस-उसांस के जरिए जिस जहरीली गैस को बाहर निकालते हैं, उसका उपयोग कर वनस्पति प्राप्त प्राणियों को खुराक देता है। (आजकल तो रुपयों का हिसाब ही समझाया जाता है, इसलिये रुपयों की भाषा में हिसाब समझेंः वैसे, प्रकृति की कोई कीमत कूती नहीं जा सकती) सारे संसार के पेड़ एक साल में 130 अरब टन शक्कर का, अर्थात कार्बोहाइड्रेट का निर्माण करते हैं। इतने ही समय में सारी दुनिया के लोग मुश्किल से तीन अरब टन फौलाद अथवा दो अरब टन सीमेंट बना पाते हैं। इसके अलावा, फौलाद और सीमेंट बनाने में जो कोयला खर्च होता है, और जो बिजली खर्च होती है, उसमें हमारी निरंतर खर्च होने वाली प्राकृतिक संपत्ति का ही उपयोग होता है। पेड़ों को ऐसी किसी चीज की आवश्यकता नहीं रहती। जंगल नहीं रहेंगे, तो नर्मदा में पानी भी इकट्ठा नहीं हो पाएगा। यही नहीं, इस योजना के कारण लगभग 9 लाख एकड़ में फैले जो पेड़ कटने वाले हैं, उनका गुणा 16 लाख रुपयों से करने पर जो रकम बनती है, उतनी रकम की हानि होगी। आगे आने वाली पीढ़ियों को ये पेड़ जो लाभ देने वाले हैं, उसकी विराट हानि की योजना से होने वाले लाभ के मुकाबले में रखकर सारा हिसाब लगाना चाहिए।
दूसरा मुद्दा यह है कि कितने एकड़ में पानी कहाँ पहुँचेगा। चींटी बहुत खाए तो चींटा बन जाए, हाथी तो वह बन नहीं सकती! खेती के जानकारों की राय है कि जिस क्षेत्र में बाँध से सिंचाई होने वाली है, उसमें फसलों के लिये बरसात के 16 से 20 इंच पानी की ही जरूरत रहती है। अगर बहुत पानी पहुँचाया जाता है, तो जैसा ताप्ती पर बने उकाई बाँध के क्षेत्र में हुआ है, उस क्षेत्र में गेहूँ, ज्वार, धान आदि की सब फसलें खत्म हो जाएँगी, और खेतों में सिर्फ गन्ने जैसी फसलें ही उगाई जा सकेंगी। इससे गाँवों की सीमा वाला क्षेत्र भी प्रभावित होगा। उदाहरण के लिये कहा यह जाता है कि इस योजना के कारण गुजरात की 44 लाख एकड़ जमीन में पानी पहुँचेगा। इसमें से अकाल-पीड़ित-क्षेत्र तो मुश्किल से 35 फीसदी है। ऐसी स्थिति में क्या केवल 16 लाख एकड़ जमीन में पानी पहुँचाने के लिये 7,000 करोड़ रुपए खर्च करना मुनासिब होगा? (इससे बिजली मिलेगी नहीं। यदि नर्मदा-सागर बाँध न बना, तो इतना पानी भी नहीं मिलेगा। इस पानी में जहाज भी नहीं चल सकेंगे, क्योंकि नर्मदा की गिनती राष्ट्रीय जल-मार्ग के रूप में नहीं की गई है। आज बाढ़ के कारण जो बर्बादी होती है, बाँध बंध जाने के बाद भी बाढ़ पर अंकुश नहीं रखा जा सकेगा। यह बात इस योजना में ही स्पष्ट की जा चुकी है।) विश्व बैंक का 7000 करोड़ रुपयों का ब्याज, और बाँध की देखरेख पर होने वाला खर्च, क्या यह सब उचित है?
फिर ऐसी बहुत-सी बातें और हैं, जिनकी कोई गारण्टी दे भी दे तो उनके न घटने की तरफ से बेफिक्र नहीं हुआ जा सकेगा। 3165 बाँधों का उमड़ता पानी जब आपस में टकराएगा, तो समूची नर्मदा घाटी के क्षेत्र में उसके धक्के लगेंगे ही। इन धक्कों के कारण इस क्षेत्र में कभी भूकम्प आएँगे ही नहीं, इसकी गारण्टी कोई नहीं दे सकता। भाखड़ा, उकाई और कोयना योजनाओं के क्षेत्रों में भूकम्प के झटके लग चुके हैं। भावनावश, उत्तेजनावश और स्वार्थवश अंधे बनकर 7000 करोड़ रुपयों में से कितने फीसदी रुपए हमारी जेबों में पहुँचेंगे, इसका हिसाब छोड़कर, जब हम शांतिपूर्वक विचार करेंगे, तभी इन बाँधों के कारण पैदा होने वाली सिस्टोमाईसिस, कोइटा, पंगुता आदि बीमारियों के साथ ही क्षार के बढ़ जाने से बर्बाद होने वाली उपजाऊ जमीन, जंगली जानवरों, डूब में आने वाली खनिज सम्पत्ति बहुत पुरानी गुफाओं, किलों, तीर्थों आदि की अनगिनत गम्भीर हानि का अंदाज लग सकेगा। लोग सदियों से नर्मदा की परिक्रमा करते आ रहे हैं। बाँधों के बन जाने पर भावनाशील यात्री नर्मदा की परिक्रमा कैसे कर सकेंगे? और अगर सारे तीर्थ और मंदिर डूब ही जाने वाले हैं, तो फिर परिक्रमा किनकी की जाएगी?
यह योजना जो विकास करना चाहती है, वह कैसा विकास है? इस पर किन-किन की बलि चढ़ेगी? इससे किसको, कितना और कैसा लाभ होगा? बाँध की उमर 100 साल। उसके बाद वाली पीढ़ी इस पीढ़ी को जरूर कोसेगी।
अज्ञान भी ज्ञान है (इस पुस्तक के अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें) | |
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यह लेख सन 1986 में गुजराती पत्रिका चित्रलेखा में छपा था। गुजराती से हिन्दी अनुवाद श्री काशीनाथ त्रिवेदी ने किया था।