मैं पटना में पली बढ़ी। इसके बावजूद ग्रामीण भारत की समस्याओं को मैं गहराई से समझती हूँ। वर्ष 2014 में टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज (टीआईएसएस) से सामाजिक उद्यमिता में मास्टर्स की डिग्री लेने के बाद मैं इंटर्नशिप करने के लिये मध्य प्रदेश में झाबुआ के एक गाँव में चली गई। झाबुआ की उस यात्रा ने मेरी आँखें खोल दी। वहाँ के जिस गाँव में मैं गई, वहाँ किसी घर में शौचालय नहीं था और न ही बिजली थी। इस कारण औरतें अंधेरा होने से पहले ही रसोई का काम निपटा लेती थीं। चूँकि रसोई बनाने और रात का भोजन करने के बीच कई घंटों का फासला होता, ऐसे में उन्हें ठंडा खाना ही खाना पड़ता था।
किसानों में भी जागरुकता की भारी कमी थी। वे खेती के लिये रासायनिक खाद और कीटनाशकों पर पूरी तरह निर्भर थे, इससे इनके खेतों की उर्वरा शक्ति कम होती जा रही थी। तालाब के पानी से ही वे अपनी जरूरत का सारा काम निपटाते थे। जबकि रसोई से निकलने वाले कूड़े को वे उसी तालाब में डालते और उसी में अपने पशुओं को नहलाते भी। जगह-जगह कूड़े का ढेर जमा होने के कारण मच्छरों का प्रकोप ज्यादा था। पर साफ-सफाई करने के बजाय वे भूसा जलाकर मच्छरों को भगाने की कोशिश करते, जिससे और प्रदूषण ही होता।
चूँकि ग्रामीण भारत पशुपालन पर निर्भर है और झाबुआ का वह गाँव भी इसका अपवाद नहीं था। लिहाजा वहाँ बायो-इलेक्ट्रिसिटी की पर्याप्त सम्भावनाएँ थीं। इससे जहाँ लोगों को बिजली मिलती, वहीं गाँव की महिलाओं को बायोगैस भी उपलब्ध होती। चूँकि मेरा प्रोजेक्ट दो सप्ताह का था, इसलिए झाबुआ में तो मैं कुछ कर नहीं पाई, पर बिहार लौटकर मैंने स्वयंभू नाम का एक एनजीओ शुरू किया, जिसका लक्ष्य बायो-इलेक्ट्रिसिटी के जरिए ग्रामीण इलाकों के अंधेरे कोने को रोशन करना था।
मैंने समस्तीपुर के एक गाँव से शुरुआत की। उस गाँव में करीब पचास दलित भीषण गरीबी में बिजली के बगैर अपना जीवन यापन कर रहे थे। वे दलित पास के समृद्ध किसानों के खेतों में काम करते थे। उनका खूब शोषण होता था। मसलन, खेतों के समय जब इन लोगों को बिजली की जरूरत पड़ती थी, तब जमींदार इन्हें बिजली देते थे, पर एक घंटे की बिजली के लिये उनसे डेढ़ सौ रुपए लिये जाते थे। अपना मोबाइल चार्ज करने के लिये रोज पाँच रुपए देने में उन्हें कोई एतराज नहीं था, पर गाँव में बिजली की उपलब्धता के प्रति वे बहुत उत्सुक नहीं थे। जब मैंने उन्हें बायोगैस प्लांट के बारे में बताया, तो उन्हें लगा कि इसके लिये काफी पैसे देने होंगे। पर उन्हें समझाने के साथ मैं अपने मिशन में लगी रही। बायोगैस प्लांट के लिये दूसरी जाति के एक व्यक्ति ने थोड़ी जमीन दी। टीआईएसएस के जिस सहपाठी ने मुझे बायो-इलेक्ट्रिक पर काम करने का सुझाव दिया था, वह वहाँ प्रखण्ड विकास पदाधिकारी था। इसलिये इस काम में मुझे पूरा सहयोग मिला। अब उस गाँव में बिजली है और लोगों को इसके लिये महीने में सिर्फ साठ रुपए खर्च करने पड़ते हैं। डीएसबी बैंक सिंगापुर ने सबसे पहले हमारी परियोजना के लिये फंडिंग की। उसके बाद सरकारी और गैर सरकारी क्षेत्रों से भी हमें मदद मिली। बिजली की उपलब्धता के अलावा ग्रामीणों में जागरुकता जगाना भी हमारा लक्ष्य है। स्वयंभू के प्रयासों से गाँव के लोग रासायनिक खाद और कीटनाशक के इस्तेमाल से मुँह मोड़ रहे हैं और स्वास्थ्य तथा पर्यावरण के प्रति भी जागरूक हो रहे हैं।
-विभिन्न साक्षात्कारों पर आधारित
Source
अमर उजाला, 14 मार्च, 2019