लगभग एक सौ पचहत्तर वर्ष पूर्व अंटार्कटिका की खोज यात्रा पर गए अंग्रेज नाविक विलियम्स स्मिथ ने अंटार्कटिका प्रायद्वीप के नजदीक के एक द्वीप को देखकर लिखा था ‘‘सब कुछ आश्चर्यजनक रूप से शांत था, न हवा थी, न ही समुद्र में लहरों की उथल-पुथल। आसमान किसी चित्र की तरह गहरा नीला था एवं धूप इतनी चमकदार कि मीलों तक साफ-साफ देखा जा सकता था। अचानक दूर-बहुत दूर तक भूरी सी पहाड़ी नजर आयी। ऊपर मस्तूल पर बैठे ग्लाबिनों ने चीख-चीख कर यह जानकारी दी। वह अब भी हाथ हिला- हिलाकर नाच रहा था कि वास्तव में धरती के आखिरी छोर पर पहुँच गए हैं। मौत के चंगुल में पहुँच चुके सभी लोगों के लिये यह एक नया जीवन था, परम आनंद की अनुभूति का क्षण था।”
स्मिथ वस्तुतः व्यापारिक यात्रा पर निकला था मौसम खराब हो जाने के कारण वह भटक कर दक्षिण शेरलैण्ड द्वीप तक पहुँच गया। उसकी यह खोज काफी महत्त्वपूर्ण थी परन्तु अभी भी अंटार्कटिका का अस्तित्व अंधेरे में ही था। अंग्रेजों ने दक्षिणी समुद्र के रहस्यों की खोज के लिये स्मिथ को एक बार फिर खोज अभियान पर भेजा। इसका नेतृत्व राॅयल नेवी के एडवर्ड ब्रेंसीफील्ड को सौंपा गया।
स्मिथ के दूसरे अभियान के लगभग साथ-साथ ही नोस्तोल एवं मिरनी नामक दो रूसी दल के नेता थेडिसियस नान विलिंग्सलेसन ने अंटार्कटिका महाद्वीप के एक भाग को देखने में समानता प्राप्त कर ली। यह पहला अवसर था जब मनुष्य के कदम यहाँ तक पहुँचे थे। इन तमाम सफलताओं के बावजूद अंटार्कटिका का अस्तित्व अभी तक संदिग्ध था। दो दशक बाद जनवरी, 1840 में अमरीकी खोज, अभियान दल के नेता चार्ल्स बिल्कीस ने अंटार्कटिका के समुद्र तट में मोटी बर्फ की तह भी देखी। उसकी खोज ने इस अवधारणा पर पक्की मुहर लगा दी कि अंटार्कटिका एक महाद्वीप है। उन्नीसवीं सदी में फ्रांस, इटली एवं जर्मनी द्वारा अनेक नाविक दलों की सहायता से अंटार्कटिका की खोज के अभियान चलाए गए।
इन दिनों यह तथ्य अविश्वसनीय सा प्रतीत होता है कि नब्बे से सौ टन की छोटी-छोटी नौकाओं एवं पोतों में सवार होकर अठारवीं-उन्नीसवीं शताब्दी में नाविकों ने अंटार्कटिका के भयानक समुद्र में यात्राएँ की होंगी, वह भी बिना किसी आधुनिक संचार व्यवस्था के। जबकि आज भी विज्ञान, की पर्याप्त प्रगति एवं साधनों के विकास के बावजूद अंटार्कटिका तक पहुँचना सरल नहीं हो सका है। यह आज भी एक चुनौती है।
अंटार्कटिका महाद्वीप का भविष्य पर्यावरण की दृष्टि से व्यापक मानवीय हित सुरक्षित रह सकेगा। अथवा नहीं, इस विषय पर गम्भीर बहस चल रही है। अंटार्कटिका के वायुमंडल में ओजोन छिद्र की जानकारी होने के बाद से विश्व में इस छिद्र का वैज्ञानिक अध्ययन जारी है। सितम्बर, 1987 में कनाड़ा के मॉट्रियल शहर में इस विषय पर बैठक हुई, जिसमें यह निर्णय किया गया कि ‘‘भविष्य में विश्व पर्यावरण को बचाने के लिये कारगर ढंग से सामूहिक स्तर पर काम करना होगा।” मांट्रियल संधि के नाम से इस दस्तावेज पर 16 सितम्बर, 1987 को चौबीस राष्ट्रों ने हस्ताक्षर किए। आगे चलकर इस संधि के समर्थन में विश्व के अनेक देश आगे आए।
अंटार्कटिका पर पहुँचने वाले प्रथम भारतीय नागरिक गिरिराज सिरोही थे। श्री सिरोही एक प्लांट फिजियोलॉजिस्ट थे। एवं वे एक अमरीकी अभियान दल के सदस्य के रूप में वर्ष 1960 में अंटार्कटिका पहुँचे। सिरोही ने दक्षिणी ध्रुव पर पृथ्वी के लगभग ने घूमने की स्थिति में काॅकरोच जैसे जीवों पर ‘बायलाॅजिकल कपास’ का अध्ययन किया। सिरोही के सम्मान में ही अंटार्कटिका के ब्रेडमोर ग्लेशियर के स्थान का नाम ‘सिरोही प्वांइट’ रखा गया।
भारत का पहला 21 सदस्यीय अभियान दल डा. एस. जेड कासिम के नेतृत्व में 9 जनवरी 1982 को अंटार्कटिका पहुँचा। इस अभियान दल ने दक्षिण गंगोत्री में एक बेस केम्प स्थापित किया। मौसम की निगरानी की दृष्टि से बेस कैम्प में एक मौसम केन्द्र की स्थापना भी की गयी।
दूसरा अभियान दल 28 सदस्यों के साथ अंटार्कटिका पर 28 दिसम्बर, 1982 को उतरा। इस अभियान दल के प्रमुख कार्यों में स्थायी केन्द्र की स्थापना के लिये स्थल का चुनाव, पिछले अभियान के दौरान प्रारम्भ की गई वैज्ञानिक अनुसंधान गतिविधियों को जारी रखना, बेस कैम्प के निकटवर्ती क्षेत्र में संचार सूत्र स्थापित करना था ताकि भविष्य में कार्य जारी रहे।
तीसरा अभियान दल 27 दिसम्बर, 1983 को अंटार्कटिका पर उतरा। इसके 83 सदस्यों में दो महिला वैज्ञानिक भी शामिल थीं। इसकी मुख्य उपलब्धि वर्ष पर्यन्त वैज्ञानिक अनुसंधान कार्यों को सुचारू रूप से जारी रखने के लिये दक्षिण गंगोत्री पर एक स्थायी केन्द्र की स्थापना थी।
अंटार्कटिका का चौथा अभियान दल दिसम्बर, 1984 में अंटार्कटिका पर उतरा। जिसमें 83 सदस्य थे। उसमें माॅरीशस का भी एक वैज्ञानिक था। अभियान के दौरान एक सीधा उच्च फिक्वेंसी संचार संपर्क स्थापित किया गया। वर्तमान स्थायी केन्द्र दक्षिण गंगोत्री से लगभग 70 किलोमीटर की दूरी पर स्थापित किया गया। स्थायी केन्द्र का विस्तार कर उसमें प्रयोगशाला के लिये जगह, हिम वाहनों को खड़ा करने के लिये गैराज व उपकरणों के भण्डारण के लिये स्थान जोड़ दिया गया।
पिछले अभियान ने बारह सदस्यीय जो शीतकालीन-दल अंटार्कटिका में छोड़ा था, वह वहाँ पर सर्दियों में रहा, उसे वापस लाया गया एवं कार्यमुक्त किया गया। 13 सदस्यीय नया दल सर्दियों में कार्य करने के लिये छोड़ा गया। चौथे अभियान में 6 सदस्यों का एक ऐसा दल भी आवश्यक उपकरणों व वाहनों से युक्त था जो भावी दक्षिणी ध्रुव अभियान के लिये जानकारी एवं सूचना उपलब्ध कराने की भूमिका तैयार करता था।
फरवरी, 1819 में द्वीप की खोज होने से पूर्व अधिसंख्य लोग यह मानने पर सहमत ही नहीं थे कि दक्षिणी समुद्र में धुव्रीय क्षेत्र में कोई बड़ा भू-भाग है। अंटार्कटिका की धरती को देखकर उस समय अंग्रेज नाविक कितने चकित हुए थे, अंटार्कटिका जाने वाला प्रत्येक व्यक्ति अभी भी देखकर उतना ही चकित होता है। अभी भी धरती का यह सबसे रहस्यमय, सबसे निर्जन, सबसे खतरनाक महाद्वीप मानव के लिये उतना ही कौतूहलपूर्ण है।
पाँचवाँ 88 सदस्यीय अभियान, दल अंटार्कटिका पर 24 दिसम्बर, 1985 को पहुँचा। इस दल में बारह संस्थानों के 21 वैज्ञानिक सदस्य थे जिसमें दो महिला वैज्ञानिक भी शामिल थी। अन्य सुविधाएँ उपलब्ध कराने के ध्येय से सेना के तीनों अंगों के 67 कर्मचारी भी शामिल थे। यह अभियान दल इस बर्फीले महाद्वीप पर 69 दिन रहने के बाद अपना लक्ष्य प्राप्त करके ही वापस लौटा।
छठा अभियान दल अंटार्कटिका पर 21 दिसम्बर, 1986 को पहुँचा। इसमें 18 वैज्ञानिक ग्रीष्मकालीन कार्य के लिये एवं 6 वैज्ञानिक शीतकालीन कार्य के लिये थे। अन्य सुविधाएँ उपलब्ध कराने के ध्येय से सेना के तीनों अंगों के कर्मचारी भी इस दल में शामिल थे। इस अभियान के दौरान ऊर्जा उत्पादन के लिये स्थापित की गई पवन चक्की की कार्यकुशलता का भी अध्ययन किया गया।
भारत का सातवाँ अभियान दल अंटार्कटिका पर 70 दिन बिताने के बाद 26 मार्च, 1988 को गोवा लौटा। इस अभियान ने 15 सदस्यों का शीतकालीन दल वहाँ छोड़ा। इस अभियान की प्रमुख उपलब्धियों में 1000 वर्ग कि.मी. से अधिक क्षेत्र का भूगर्भ विज्ञान सर्वेक्षण एवं छमबोल्ट मैसिक एवं बोल्टेट पर्वत श्रृंखलाओं से चट्टानों के नमूने एकत्र करना, पृथ्वी की ओजोन परत में विगल छिद्र प्रक्रिया का अध्ययन आदि शामिल था। मैत्री में दूसरे स्थायी केन्द्र की नींव डाली गई। साथ ही दक्षिण गंगोत्री में 26 जनवरी, 1988 को एक डाकघर का उद्घाटन किया गया।
अगला अभियान दल 28 नवम्बर, 1988 को गोवा के मरमुगाओं बंदरगाह से रवाना होकर 24 दिसम्बर, 1988 को अंटार्कटिका पहुँचा। इसमें विभिन्न अनुसंधान एवं अन्य कार्यों के लिये सौ वैज्ञानिक एवं सशस्त्र सेना के कर्मचारी थे। इसने दक्षिण गंगोत्री से लगभग 70 कि.मी. की दूरी पर अगले स्थायी केन्द्र मैत्री की स्थापना की जिससे उच्च कोटि के वैज्ञानिक अनुसंधान में सहायता मिलने की सम्भावना बढ़ी।
नवां वैज्ञानिक अभियान दल, जो नवम्बर, 1989 के अंतिम सप्ताह में अंटार्कटिका के लिये गया था। 27 मार्च, 1990 को मरमुगाओं पहुँचा। इसमें आठवें अभियान दल की शीतकालीन टीम के 17 सदस्य एवं नौवें अभियान दल की ग्रीष्मकालीन टीम के सदस्य भी थे।
70 सदस्यीय दसवाँ अभियान दल 28 नवम्बर, 1990 को गोवा से रवाना हुआ। इस दल ने नौवे अभियान दल के अंटार्कटिका पर रुके तीस सदस्यों के साथ अंटार्कटिका सम्बंधी महत्त्वपूर्ण वैज्ञानिक अध्ययन किए।
अंटार्कटिका के जमे हुए समुद्र एवं वेगवान तुफानों को पार करने के लिये विशेष प्रकार के जहाजों की आवश्यकता होती है। भारतीय अभियान दल पिछले बारह वर्षों से नार्वे, फिनलैंड एवं स्वीडन से ऐसे विशेष प्रकार के जहाजों को किराए पर लेकर अंटार्कटिका जा रहे हैं। विश्व के 13 देश अंटार्कटिका में अपने स्थायी केन्द्र चला रहे हैं। एवं नियमित रूप से अंटार्कटिका में वैज्ञानिक शोध कार्य कर रहे हैं। अंटार्कटिका की विशेष भू-भौगोलिक परिस्थितियाँ एवं वातावरण वैज्ञानिकों के लिये प्राकृतिक प्रयोगशाला का कार्य करते हैं। साथ ही प्लेटिनम, तांबा, निकल, क्रोमियम, जस्ता, कोबाल्ट, सोना, कोयला, तेल आदि खनिजों के अपार भण्डार वैज्ञानिकों को अंटार्कटिका की तरफ सम्मोहित करते हैं।
वर्ष 1959 से पूर्व ब्रिटेन, अर्जेटिना, चिली, आस्ट्रेलिया, नार्वे एवं न्यूजीलैण्ड के बीच अंटार्कटिका को लेकर एक समझौता हुआ एवं इन 6 देशों ने अंटार्कटिका की भूमि पर अपना-अपना हिस्सा भी तय कर लिया था। उपरोक्त 6 देशों के अतिरिक्त फ्रांस, जापान, बेल्ज्यिम, अमेरिका, सोवियत संघ एवं दक्षिण अफ्रीका इस संधि में शामिल थे। इस संधि के अनुसार अंटार्कटिका में कंजर्वेशन आॅफ अंटार्कटिका में कार्य करने के लिये अनेक नियम कानून बनाए गए। भारत को 1984 में इसकी सदस्यता प्राप्त हुई।
वर्ष 1991 की अंटार्कटिका संधि के अनुसार अगले पाँच दशक तक अंटार्कटिका से किसी भी प्रकार के खनिज अथवा प्राकृतिक संसाधनों का दोहन नहीं किया जाएगा। साथ ही वहाँ पर सम्पन्न किए जा रहे वैज्ञानिक कार्यों की जानकारी भी संबद्ध देश एक-दूसरे को उलपलब्ध कराएंगे। अंटार्कटिका में किसी प्रकार के परमाणु परीक्षण न करने एवं अंटार्कटिका का उपयोग शांतिपूर्ण कार्यों के लिये करने का प्रावधान भी संधि में शामिल है।
वायुमंडल में ओजोन की परत का कायम रहना परम आवश्यक है। क्योंकि यही पर्त सूर्य से निकलने वाली परा-बैंगनी (अल्ट्रा वायलट) किरणों की पृथ्वी तक पहुँचने से रोकती हैं। औद्योगिक कारखानों से निकलने वाली गैसों सी एफ सी (क्लोरो फ्लोरो कार्बन) के रिसाव के इस ओजोन परत पर दुष्प्रभाव पड़ा एवं उसमें छिद्र हो गया। माँट्रियल संधि के बाद से क्लोरो-फ्लोरो कार्बन के रिसाव पर कुछ रोक लगी है। लेकिन वैज्ञानिकों का ऐसा भी मानना है कि अब तक इतना अधिक सी एफ सी का रिसाव हो चुका है कि अब यदि इसका रिसाव शून्य भी कर दिया जाए फिर भी वर्तमान छिद्र एक शताब्दी तक नहीं भर सकेगा।
1989 के जनवरी माह में एक जहाज अंटार्कटिका स्टेशन की तरफ जा रहा था। अमेरिकी पामर स्टेशन के पास अचानक यह जहाज टकरा गया एवं लाखों लीटर ईंधन समुद्र के जल में विलीन हो गया। इससे स्थानीय जैविकों पर काफी घातक प्रभाव पड़ा। लुटोक नामक समुद्री पक्षी की पूरी पीढ़ी समाप्त प्रायः हो गयी। चौबीस वर्षों से जारी अमेरिका शोध कार्य की आधार रेखा भी क्षतिग्रस्त हो गयी। इस घटना के लगभग दो माह बाद अलास्क के तट पर गुजरते हुए एक टेंकर से भी पैट्रोल का रिसाव हुआ। इन रिसावों से ठंडे स्थानों के पर्यावरण पर पेट्रोल का घातक दुष्प्रभाव दिखाई दिया।
इस प्रायद्वीप पर अधिकार जताने का पहला औपचारिक दावा ब्रिटेन ने वर्ष 1908 में किया था। पुराने जमाने के लोग अभी भी ब्रितानियों को यहाँ पर ‘फ्डिस’ के रूप में जानते है, यानी- ‘फाकलैंड आइजर्लेण्डस डिपेंडेंसीज सर्वे’ आजकल इसके स्थान पर ब्रिटिश अंटार्कटिका सर्वे काम कर रहा है परन्तु इस इलाके में सबसे लम्बा व लगातार गतिविधियों का रिकार्ड अर्जेन्टीना का है, जिसने वर्ष 1904 से काम करना प्रारम्भ किया था।
धरती के सबसे ठंडे, सबसे ऊँचे एवं सबसे तूफानी हवाओं वाले और सबसे बड़े रेगिस्तान जैसे बफीर्ले महाद्वीप अंटार्कटिका में भारत की उपस्थिति का अभी मात्र एक दशक हुआ है परन्तु इस अल्प अवधि में ही भारत के वैज्ञानिकों, इंजीनियरों एवं तकनीशियनों ने वहाँ पर अनेक उल्लेखनीय सफलताएँ हासिल की हैं। इतना ही नहीं, अंटार्कटिका सम्बंधी विश्व राजनीति में भी भारत ने अपना महत्त्वपूर्ण स्थान बनाया है। वर्ष 1991 में अंटार्कटिका के प्राकृतिक संसाधनों के दोहन को अगले पाँच दशक तक रोके जाने सम्बंधी-विश्व संधि से भी भारत की पहल निर्णायक रही थी।
तस्वीर का दूसरा रुख
अंटार्कटिका का प्रत्येक अभियान पिछले अभियानों से अधिक अव्यवस्थित होता जा रहा है। और हमारी गम्भीरता भी कम होती जा रही है।
वर्ष 1988 के बाद सेशिरमाचर पर्वत श्रृंखला स्थित मैत्री केन्द्र को हम प्रमुख स्थायी केन्द्र के रूप में प्रयोग कर रहे हैं। किन्तु वैज्ञानिक अभियान का स्थायी केन्द्र होने के बावजूद मैत्री में विज्ञान का माहौल नहीं है। अंटार्कटिका की कल्पनातीत सर्दियों एवं महीनों लम्बी काली रातों को झलने में सक्ष्म मैत्री केन्द्र के लगभग बीस कमरों में से मात्र एक कमरा ही ऐसा है जिसे प्रयोगशाला कहा जा सकता है एवं इस कमरे में भी भारत मौसम विभाग के नियमित रूप में काम आने वाले उपकरण रखे हैं।
भारत मौसम विभाग को मौसम अध्ययनों के लिये वायुमंडल मे गुब्बारे छोड़ने पड़ते हैं परन्तु इन गुब्बारों को उचित रूप से उड़ाने के लिये ढाँचा, मैत्री केन्द्र में स्थापित नहीं किया जा सका है जबकि लगभग पाँच कि.मी. दूर रूसी अंटार्कटिका केन्द्र ‘नोवो’ में इस कार्य के लिये लकड़ी की एक छोटी सी प्रयोगशाला बनी है एवं वहीं से बिना किसी बाधा के सोवियत वैज्ञानिक अपने प्रायोगिक गुब्बारे वायुमंडल में छोड़ते रहते हैं।
भारतीय अंटार्कटिका अभियान की फिजूलखर्ची के कारण भी अभियान दल को अंटार्कटिका तक पहुँचाने वाले स्वीडिश जहाजकर्मी भारतीयों को ‘भूमध्य रेखा के नीचे के सबसे अमीर’ कहकर सम्बोधित करते हैं। इस प्रकार के मामलों में डी ओ डी का एक ही उत्तर है कि हमें अंटार्कटिका से वापस आने वाले सदस्यों से सही जानकारियाँ नहीं मिल पाती। ‘फीड बैक’ न मिल पाने से ही सारी गड़बड़ियाँ होती हैं। परन्तु दसवें अभियान दल के एक सदस्य की मान्यता थी कि- यदि ग्यारह वर्ष तक भी यह समझ में नहीं आया कि सही क्या है- गलत क्या है? तो फिर हमें अंटार्कटिका में आने एवं रहने का क्या हक है।
अंटार्कटिका का प्रदूषण
विश्व में तेजी से बढ़ रहे प्रदूषण के बावजूद अंटार्कटिका को अब भी स्वच्छ एवं प्रकृति का अंतिम प्रदूषण रहित भूभाग माना जाता है परन्तु अनुसंधान के ध्येय से जहाँ अनेक दशों के वैज्ञानिकों का आना अनवरत रूप से जारी है। वहीं प्रकृति का अद्भुत सौंदर्य देखने के लिये विश्व के पर्यटक भी अनवरत रूप से आ रहे हैं जो कुछ-न-कुछ प्रदूषण फैलाते हैं।
अंटार्कटिका पर किसी देश विशेष का अधिकार न होने पर किसी को भी यहाँ आने से रोकना काफी मुश्किल है। अंटार्कटिका संधि देश भी इस बावत कुछ कर पाने की स्थिति में नहीं है। पहले पर्यटकों का यहाँ पर आ पाना सरल नहीं था परन्तु बर्फ तोड़ने वाले जहाजों के निर्माण के बाद अंटार्कटिका की यात्रा पर जाने के लिये मार्ग भी खुल गया। इसके अतिरिक्त पर्वतारोहण में रुचि रखने वाले जनमानस भी खिंचे चले आ रहे हैं। इस प्रकार पर्यटकों की संख्या का बढ़ते जाना स्वयं वैज्ञानिकों के लिये भी तकलीफें खड़ी कर रहा है।
बर्फ में सीसा, कार्बन डाइऑक्साइड बढ़ने एवं प्राणियों के उतकों में डी डी टी पाए जाने से यह स्पष्ट प्रायः हो गया है कि अंटार्कटिका महाद्वीप भी प्रदूषण की गिरफ्त में आ गया।
निजी रूप से इस तथ्य पर प्रत्येक जनमानस सहमत है कि पर्यावरण सुरक्षा की दृष्टि से किंग जार्ज टापू पर अधिक व्यस्तता उचित नहीं है। वेलिंग हाउसेन आधार शिविर के एक कमांडर के अनुसार ‘‘अंटार्कटिका की भलाई इसी तथ्य में निहित है कि उसमें चल रही वैज्ञानिक शोधों का संचालन किसी एक ही अन्तरराष्ट्रीय केन्द्र से हो।” परन्तु अर्जेंटीना एवं चिली का दावा बरकरार रहने तक ऐसा होना सम्भव नहीं दीखता। इधर कुछ वर्षों से विश्व जनमत अंटार्कटिका को ‘वर्ल्ड पार्क’ में परिवर्तित करना चाहता है। अप्रैल, 1991 में अंटार्कटिका संधि (ग्रीनपीस) के सदस्य राष्ट्रों ने इस महाद्वीप पर आगामी पाँच दशकों के लिये खुदाई पर पाबंदी लगा दी है।
‘ग्रीन पीस’ का वर्तमान ध्येय भी यही है कि अंटार्कटिका के आधार शिविरों में एकत्रित अपशिष्ट पदार्थ को साफ किया जाना चाहिए। विज्ञान की प्रगति के लिये किया जा रहा कार्य ‘ग्रीन पीस’ की नजरों में एक दीगर सवाल है। ग्रीन पीस के एक कार्यकर्ता की मान्यता है कि ‘‘यदि आधार स्टेशन का उपयोग वैज्ञानिक खोज में वास्तविक प्रगति लाने के ध्येय से हो रहा हो, तब तक ठीक है, परन्तु इसके विपरीत यदि कोई देश इस आधार स्टेशनों की स्थापना मात्र अपना झंडा बुलंद करने के ध्येय से करता है तो ऐसा सरासर अनुचित है।’’
ग्रीन पीस अभियानद ल के एक सदस्य के अनुसार - ‘‘हम इस महाद्वीप पर ‘वर्ल्ड पार्क’ की अपेक्षा ‘नेचुरल पार्क’ बनाने की वकालत करते हैं। उस नेचुरल पार्क की देखभाल कौन करता है, इसकी चिंता फिलहाल हमें नहीं है। अभी हम केवल यही चाहते हैं कि किसी भी स्थिति में यहाँ के पर्यावरण पर ही संपूर्ण विश्व पर्यावरण का दारोमदार टिका है। ग्रीन पीस द्वारा अपने अभियान पर प्रतिवर्ष 15 लाख डॉलर का खर्च उठाया जा रहा है। इसके कारण के प्रत्युत्तर में एक सदस्य ने कहा ‘पर्यावरण की सुरक्षा के लिये हमने विश्व की अनेक सरकारों का ध्यान अंटार्कटिका की तरफ आकर्षित कराया है।’’
अप्रत्यक्ष रूप में आज प्रत्येक देश अंटार्कटिका की खनिज सम्पदा का किसी न किसी प्रकार से दोहन करने के प्रयास में हैं। परन्तु दोहन के प्रयास में ऐसी विनाशशीलता भी संभावित है जिसमें कुछ शेष न रहेगा। अतः ऐसे किसी भी प्रयास को यथा सम्भव रोकने की कोशिश में भारत को भी आवश्यक रूप से पहल करनी चाहिए।
67, पुरदिलपुर, गोरखपुर (उ.प्र.)