आपदा प्रबन्धन : जरूरी है इच्छाशक्ति

Submitted by birendrakrgupta on Mon, 03/09/2015 - 12:42
Source
योजना, जून 2009
आपदा प्रबन्धन का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि सरकार की ओर से इच्छाशक्ति और पहल-शक्ति होनी चाहिए जिसका अभाव देखने को मिलता है। जब तक सुनियोजित ढंग से और नियमित रूप से आपदा प्रबन्धन पर ध्यान नहीं दिया जाता तब तक आपदाएँ आती रहेंगी और जान-माल का नुकसान होता रहेगा।आपदा शब्द अंग्रेजी के डिजास्टर का हिन्दी अनुवाद है। जिसका अर्थ सहसा बड़े पैमाने पर जान और माल के नुकसान से है। आपदाएँ दो प्रकार की होती हैं :

प्राकृतिक आपदाएँ


इसके अन्तर्गत भूकम्प, भूस्खलन, बाढ़, सुनामी, ज्वालामुखी विस्फोट तथा दावानल (जंगल में आग) आदि आते हैं। अर्थात ऐसी आपदाएँ जिन पर हमारा कोई नियन्त्रण नहीं होता, इसलिए इन्हें दैवी प्रकोप की भी संज्ञा दी जाती है। प्लेग, डेंगू, चिकनगुनियाँ, मलेरिया जैसे विभिन्न संक्रामक रोगों का महामारी के रूप में फैलना भी प्राकृतिक आपदा के अन्तर्गत ही आता है।

मानव-निर्मित आपदाएँ


धर्म और जिहाद के नाम पर निहित स्वार्थ सिद्ध करने के लिए दहशत फैलाने के उद्देश्य से आतंकी हमलों आदि की घटनाएँ, जैसी कि 26 नवम्बर, 2007 को मुम्बई में घटित हुई थी, भी आपदा के अन्तर्गत आती है। युद्ध की विभीषिका, नाभिकीय विस्फोट और बमबारी आदि भी आपदाएँ हैं जिनसे सामान्य नागरिक भी प्रभावित होते हैं। आजकल युद्ध के अन्य रूप, जैविक युद्ध और रसायन युद्ध भी हैं, जो अत्यन्त घातक हैं। जैविक युद्ध के लिए अनुकूल वातावरण में विभिन्न जीवाणु और विषाणुओं के साथ-साथ बिच्छुओं और घातक मच्छरों का संवर्धन कर उन्हें डिब्बा बन्द कर शत्रु कैम्पों पर विमान से छोड़ दिया जाता है जो अन्ततः पर्याप्त क्षेत्र में फैलकर महामारी का रूप ले लेते हैं।

पर्यावरण मन्त्रालय की नीति के अनुसार देश का भौगोलिक एवं पारिस्थितिकीय सन्तुलन बनाए रखने के लिए कुल क्षेत्र का लगभग 30 प्रतिशत वन होने चाहिए। जबकि भारत में कुल क्षेत्रफल का लगभग 22 प्रतिशत भाग ही वन है।
वनों के ह्रास से भूमि कटाव हो जाता है, बाढ़ की सम्भावना बढ़ जाती है और वन्य जीवों पर भी दुष्प्रभाव पड़ता है।
रसायन युद्ध भी कष्टदायक और घातक होते हैं। विषैली गैसों, बम और क्लस्टर बम को शत्रु कैम्पों पर छोड़ा जाता है। इस सन्दर्भ में इराक के पूर्व राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन के एक सलाहकार का नाम सर्वविदित है जिन्हें केमिकल अली की संज्ञा दी गई थी। कुछ आपदाएँ कम्पनियों के संयन्त्रों में लापरवाही या दोषपूर्ण रख-रखाव के कारण होती हैं जिन्हें पर्यावरणीय त्रासदी कहा जाता है। इस सन्दर्भ में भोपाल त्रासदी का उदाहरण उल्लेखनीय है।

3 दिसम्बर, 1984 को भोपाल में स्थित यूनियन कार्बाइड फैक्टरी से प्रातःकाल किसी टैंक से विषैली गैस मिथाइल आयसो सायनाइड का रिसाव शुरू हुआ। सर्दियों के दिन थे और प्रातःकाल का समय था फिर भी देखते-देखते सैकड़ों लोग मारे गए और हजारों लोग प्रभावित हुए जिनमें से अधिकांश पीढ़ी दर पीढ़ी आज भी श्वसन तथा अन्य रोगों से ग्रस्त हैं। इसी प्रकार नाभिकीय विस्फोट के प्रभाव अति विनाशकारी तथा दूरगामी होते हैं। इस आलेख में मुख्यतः प्राकृतिक आपदाओं और उनके प्रबन्धन पर चर्चा की जाएगी। साथ ही कुछ प्रमुख आपदाओं के बारे में किंचित विस्तार से वर्णन करना भी समीचीन होगा।

भूकम्प और भूस्खलन


भूकम्प एक अत्यन्त विनाशकारी तथा विध्वंसकारी प्राकृतिक आपदा है जिसका न तो पूर्वानुमान ही किया जा सकता है और न भविष्यवाणी। भूकम्प आने के बाद सहज एक जिज्ञासा होती है कि भूकम्प क्या है, क्यों आते हैं, कब तक आएँगे और क्या इनके विनाश से बचा जा सकता है? इन प्रश्नों के उत्तर तो मिल गए परन्तु अभी भी कई प्रश्नों के उत्तर उपलब्ध नहीं हैं।

पृथ्वी के धरातल पर होने वाली आकस्मिक हलचल को भूकम्प कहा जाता है। यह हलचल दो कारणों से होती है :

1. अविवर्तनिक : भारी वाहनों से उत्पन्न हलचल अथवा मकान, खदान अथवा भारी वस्तुओं का धँसना, बाँधों में जल की विपुल मात्रा का भण्डारण, भूस्खलन अथवा उल्कापात का होना। ये भूकम्प खतरनाक नहीं होते।

2. विवर्तनिक : ये भूकम्प ज्वालामुखी के फटने से, पृथ्वी के अन्दर पर्याप्त गहराई पर चट्टानों अथवा पृथ्वी की परतों के टूटने से उत्पन्न होते हैं। आन्तरिक चट्टानों के टूटने का कारण यह है कि हमारी पृथ्वी एक सक्रिय ग्रह है और इसके अन्दर लगातार बल लगते रहते हैं जो तनाव और दाब उत्पन्न करते हैं। यदि वे बल काफी अधिक मात्रा में और काफी समय तक लगते रहे तो चट्टानें या परतें एकाएक टूट जाती हैं इस क्रिया को भ्रंशन कहते हैं। भ्रंश के टूटे हुए अंश की चट्टानें या तो ऊपर-नीचे अथवा आगे-पीछे खिसक जाती हैं। भ्रंशन के बाद पृथ्वी में विपुल ऊर्जा मुक्त होती है। विस्फोट जनित ऊर्जा, पृथ्वी के अन्दर तरंगें उत्पन्न करती हैं जो पृथ्वी के धरातल पर कम्पन अथवा भूकम्प लाती है।

दुर्भाग्यवश दिल्ली, हरियाणा, हिमाचल तथा उत्तराखण्ड सहित समस्त उत्तर भारत भूकम्प प्रवृत्त क्षेत्र है। इस कारण समय-समय पर भूकम्प आते रहते हैं। इसके अतिरिक्त एक विवर्तन प्लेट महाराष्ट्र होती हुई गुजरात में भुज तक जाती है। भूकम्प की प्रवृत्ति पर्वतजनन क्रिया से भी सम्बन्धित है। हिमाचल अपेक्षाकृत किजोर पर्वतमाला है, इस कारण यहाँ पर्वतजनन के कारण भूकम्पीय प्रवृत्ति बनी हुई है जबकि सतपुड़ा, विन्ध्याचल तथा नीलगिरि आदि वयस्क पर्वत श्रेणियाँ हैं और इनमें पर्वतजनन न होने के कारण भूकम्प की सम्भावना नहीं के बराबर है।

भूकम्प का मापन


भूकम्प के मापन के लिए सर्वाधिक प्रचलित पैमाना अमेरिकी भूकम्प विज्ञानी द्वारा अन्वेषित रियेक्टर स्केल है। इसमें एक अंक से दूसरे अंक में 10 गुने का अन्तर होता है। अर्थात छह रियेक्टर स्केल का भूकम्प, 5 रियेक्टर स्केल के भूकम्प से 10 गुना शक्तिशाली होगा। महाराष्ट्र के लातूर, 20 अक्तूबर, 1999 को उत्तरकाशी, 29 मार्च, 1999 को चमोली, 26 जनवरी, 2002 में अहमदाबाद और भुज में भयंकर भूकम्प आए थे जिनसे बहुत नुकसान हुआ।

भूकम्प प्रबन्धन


1. प्रत्येक भूकम्प के बाद यह बात सामने आती है कि इस संकट से निपटने के लिए जो तैयारियाँ की गईं थीं वह न के बराबर थी। इसके लिए हमें देश के विभिन्न भागों के लिए कार्रवाई योजना तैयार करनी चाहिए। इन योजनाओं के कारगर होने की भी आवश्यक जाँच की जानी चाहिए और बदलते परिप्रेक्ष्य में इनका समय-समय पर मूल्यांकन होना चाहिए।

2. पहाड़ों में भूकम्प के बाद भूस्खलन और पुल टूट जाने से आवागमन या पहुँच मार्ग अवरुद्ध हो जाते हैं। खाद्य सामग्री, कपड़े दवाइयाँ, घायलों को निकालने जैसे आवश्यक कार्यों के लिए वैकल्पिक तकनीकों का पता लगाना होगा।

3. भूकम्परोधी निर्माण के लिए आवास एवं नगर विकास निगम तथा निर्माण सामग्री एवं प्रौद्योगिकी संवर्धन परिषद, नई दिल्ली द्वारा कई सिफारिशें की गई हैं। भवन निर्माण में इनके उपयोग से भूकम्प से हुए नुकसान को काफी कम किया जा सकता है। सुनियोजित अभियान द्वारा इनके प्रयोग के प्रति जागरुकता उत्पन्न की जानी चाहिए।

4. पहाड़ों पर बहुमंजिला भवनों के निर्माण को प्रोत्साहन नहीं दिया जाना चाहिए। प्रतिबलित कंक्रीट भवनों में लम्बे स्तम्भ (कॉलम) भूकम्पों का प्रतिरोध करते हैं।

बाढ़


बाढ़ से प्रतिवर्ष हमारे देश में बहुत अधिक जान व माल का नुकसान होता है। अत्यधिक वर्षा, जल ग्रहण क्षेत्र में जल की अधिक मात्रा का होना तथा बाँधों की समुचित देख-रेख व समय पर उनकी मरम्मत न होने से उनसे रिसाव होना या उनमें दरार पड़ना बाढ़ के कारण हैं। जल ग्रहण क्षेत्र से अथवा बाँध की दीवारों पर दाब कम करने के लिए अतिरिक्त जल के नदियों में छोड़े जाने से भी बाढ़ की स्थिति उत्पन्न होती है। कभी-कभी जल के दबाव में नदियाँ अपना मार्ग भी बदल देती हैं जिससे अनेक गाँव बाढ़ की चपेट में आ जाते हैं।

वर्ष 2008 में बिहार में कोसी नदी में आई भयंकर बाढ़ ने जो कहर बरपाया था उसे बिहारवासी वर्षों तक नहीं भूल पाएँगे। सरकार कुछ अन्तरिम आर्थिक सहायता देकर पल्ला झाड़ लेती है और स्थायी उपाय करने की बात कही जाती है, जिसे बाद में भुला दिया जाता है। जो कुछ राहत राशि मंजूर होती है उसका आंशिक भाग ही बाढ़ पीड़ितों तक पहुँच पाता है। भारत के एक युवा प्रधानमन्त्री ने एक जनसभा को सम्बोधित करते हुए कहा था कि सरकार द्वारा स्वीकृत राहत राशि में से मात्र 14 प्रतिशत ही पीड़ितों तक पहुँच पाती है। उनके इस बयान से थोड़ा हड़कम्प मच गया था। परन्तु वास्तविकता को नहीं नकारा जा सकता।

सुनामी


सुनामी वास्तव में जापानी भाषा का शब्द है जिसमें सु का अर्थ ‘बन्दरगाह’ और नामी का अर्थ ‘लहर’ होता है। दूसरे शब्दों में हम सुनामी को तटीय लहर कह सकते हैं। ये समुद्र के अन्दर आए शक्तिशाली भूकम्प, उल्कापात अथवा ज्वालामुखीय विस्फोट के कारण उत्पन्न होती हैं। प्रलय का ताण्डव करती हुई सुनामी तरंगें 600 कि.मी. प्रति घण्टे की तेज चाल से गमन करती हैं और इनकी लम्बाई 300 कि.मी. से भी अधिक हो सकती है। ये इतनी सशक्त होती हैं कि पूरे द्वीप को देखते-देखते नष्ट कर सकती है।सुनामी वास्तव में जापानी भाषा का शब्द है जिसमें सु का अर्थ ‘बन्दरगाह’ और नामी का अर्थ ‘लहर’ होता है। दूसरे शब्दों में हम सुनामी को तटीय लहर कह सकते हैं। ये समुद्र के अन्दर आए शक्तिशाली भूकम्प, उल्कापात अथवा ज्वालामुखीय विस्फोट के कारण उत्पन्न होती हैं। प्रलय का ताण्डव करती हुई सुनामी तरंगें 600 कि.मी. प्रति घण्टे की तेज चाल से गमन करती हैं और इनकी लम्बाई 300 कि.मी. से भी अधिक हो सकती है। ये इतनी सशक्त होती हैं कि पूरे द्वीप को देखते-देखते नष्ट कर सकती है। रोचक बात यह है कि बीच समुद्र में इनकी ऊँचाई मात्र 2 फुट होती है परन्तु समुद्र तट तक पहुँचते-पहुँचते इनकी ऊँचाई 50-60 फुट तक हो सकती है। सुनामी का दायरा, भूकम्प प्रभावित क्षेत्र के आकार पर निर्भर करता है। ये लहरें मूलरूप से मेहराब के आकार की होती हैं। सुनामी तरंगें, ज्वारीय अथवा चक्रवात तरंगों से भिन्न होती हैं। खुले समुद्र में सुनामी तरंगें विनाशकारी नहीं होतीं लेकिन तटीय क्षेत्रों में पहुँचकर रौद्र रूप धारण कर लेती हैं। सुनामी का प्रकोप जापान के तटीय किनारों पर अधिक देखा गया है।

हाल ही में 26 दिसम्बर, 2004 को इण्डोनेशिया के सुमात्रा के निकट गहरे हिन्द महासागर में समुद्र तल से 40 कि.मी. नीचे 8.9 रियेक्टर तीव्रता के भूकम्प के कारण विनाशकारी तरंगें उत्पन्न हुईं जिनसे पूरे दक्षिण एशिया में जमकर तबाही हुई। अण्डमान-निकोबार द्वीप सहित भारत के तटीय क्षेत्र— श्रीलंका, इण्डोनेशिया, थाइलैण्ड, मलेशिया, म्यांमार एवं मालद्वीप प्रभावित हुए। इस प्राकृतिक आपदा से लगभग एक लाख से भी अधिक लोगों तथा सैकड़ों मवेशियों की जानें गईं। कहर इतना जबरदस्त था कि तमाम बस्तियाँ ध्वस्त हो गईं।

इस प्राकृतिक आपदा से स्पष्ट हो गया कि प्रभावित क्षेत्रों में आपदा प्रबन्धन की कोई व्यवस्था नहीं थी। हमारे देश के तीन हिस्से समुद्र तट से घिरे हुए हैं फिर भी समुद्री आपदा प्रबन्धन की संतोषजनक व्यवस्था नहीं है। यदि एशिया में सुनामी अभिज्ञान तन्त्र स्थापित होते और सुनामी लहरों से बचाव सम्बन्धी चेतावनी केन्द्र होते तो हजारों लोगों की जाने और सम्पत्ति को बचाया जा सकता था।

सुनामी जैसी प्राकृतिक आपदा ने यह सिद्ध कर दिया कि प्रकृति से खिलवाड़ कितनी विनाशकारी हो सकती है। यदि उड़ीसा के समुद्र तटीय क्षेत्रों में स्थित मैनग्रोव वनों को न काटा जाता तो समुद्री लहरों की तीव्रता को कम किया जा सकता था। भविष्य में समुद्री तूफानों से जान-माल की रक्षा करने के लिए समुद्र तटीय क्षेत्रों में मैनग्रोव वनों की हरित पट्टी का निर्माण अति आवश्यक है।

दावानल


वृक्ष हमारे लिए देवता के समान है। पर्यावरण मन्त्रालय की नीति के अनुसार देश का भौगोलिक एवं पारिस्थितिकीय सन्तुलन बनाए रखने के लिए कुल क्षेत्र का लगभग 30 प्रतिशत वन होने चाहिए। जबकि भारत में कुल क्षेत्रफल का लगभग 22 प्रतिशत भाग ही वन है। दावानल, जानबूझ कर अथवा लापरवाही या विद्वेष के कारण लगाई गई वनाग्नि से प्रतिवर्ष भूमि का बहुत बड़ा भाग प्रभावित होता है। खरपतवार, पेड़ों से झड़ी हुई पत्तियों अथवा काटी गई टहनियों को हटाने के लिए कभी-कभी जानबूझ कर आग लगाई जाती है। इस नियन्त्रित आग से खरपतवार नष्ट हो जाते हैं, नाइट्रोजन का यौगिकीकरण हो जाता है। बलुई मिट्टी में फास्फोरस की मात्रा तथा भूमि की उर्वरता बढ़ जाती है। जानबूझ कर आग समुचित विधि द्वारा उचित समय पर पवन की दिशा को ध्यान में रखकर विशेषज्ञों की देख-रेख में ही लगाई जानी चाहिए वरना लाभ के बजाय नुकसान हो सकता है। वनों के ह्रास से भूमि कटाव हो जाता है, बाढ़ की सम्भावना बढ़ जाती है और वन्य जीवों पर भी दुष्प्रभाव पड़ता है।

वैश्विक तपन और हिमालयी पर्यावरण


हिमालय के पर्यावरण पर वैश्विक तपन (ग्लोबल वार्मिंग) के चमत्कारिक प्रभाव पड़ने की सम्भावना है जिसके संकेत मिलने शुरू हो गए हैं। अध्ययनों से पता चला है कि हिमरेखा ऊपर सिकुड़ रही है और हिमनद संकुचित हो रहे हैं। इस कारण हिमालय में बाढ़ तथा भूस्खलन की घटनाएँ बढ़ रही हैं। हिम आवरण के पिघलने से भ्रंश सक्रिय हो गए हैं जिससे भूकम्प की घटनाओं में वृद्धि हुई है। हिमनदों के क्षरण से भारतीय मरुस्थलों का दायरा बढ़ सकता है। पंजाब व उत्तर प्रदेश की उपजाऊ भूमि की उर्वरता में कमी आ सकती है। बाढ़ के कारण समुद्र तल के ऊँचा उठने से भारत के प्रमुख तटवर्ती नगर मुम्बई, चेन्नई और कोलकाता आदि के तटीय क्षेत्र जलमग्न हो सकते हैं।

आपदा प्रबन्धन सम्बन्धी कुछ अन्य सुझाव


1. सुप्रशिक्षित कार्य दल और घटना स्थल पर उनकी यथाशीघ्र उपलब्धता, आपदा प्रबन्धन का मूल मन्त्र है। हमारा देश इस मामले में बहुत पीछे है।

2. आतंकी हमलों से निपटने के लिए कमाण्डो और राष्ट्रीय सुरक्षा गार्डों की संख्या में पर्याप्त वृद्धि के साथ-साथ उनका विकेन्द्रीकरण होना चाहिए ताकि आवश्यकता पड़ने पर ये यथाशीघ्र पहुँच जाएँ। हाल ही में हुए मुम्बई आतंकी हमले में राष्ट्रीय सुरक्षा गार्डों को पहुँचने में लगभग नौ घण्टे लग गए। यदि प्रशिक्षित गार्ड 3-4 घण्टे में पहुँच जाते तो हताहतों की संख्या कम रहती।

3. नये-नये प्रशिक्षण संस्थान खोले जाने चाहिए जहाँ आपदा प्रबन्धन की नयी-नयी तकनीकों की जानकारी मिल सके। विश्वविद्यालयों का भी सहयोग लिया जा सकता है।

4. जो देश आपदा प्रबन्धन में बहुत आगे हैं उनसे सहयोग लिया जाना चाहिए।

5. बाढ़ और सुनामी की पूर्व सूचना मिल जाती है। ऐसी स्थिति में प्रशिक्षित बचाव दलों की यथाशीघ्र तैनाती होना चाहिए और सम्भावित क्षेत्रों से नागरिकों को सुरक्षित स्थानों पर पहुँचाने का कार्य युद्ध-स्तर पर होना चाहिए।

6. प्रत्येक भूकम्प के बाद विभिन्न स्वैच्छिक संस्थाओं और प्रशासन की ओर से पर्याप्त राहत सामग्री भेजी जाती है। इस तरह की सामग्री के संकलन और उचित वितरण में समन्वय नहीं रहता। सामग्री के उचित वितरण के लिए योजना बनाने की आवश्यकता है।

7. भूकम्प सम्भावित क्षेत्रों में नागरिकों को भूकम्प के दौरान और भूकम्प के बाद आवश्यक सावधानी बरतने के लिए समय-समय पर अभियान चलाए जाने चाहिए।

8. आपदा प्रबन्धन का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि सरकार की ओर से इच्छाशक्ति और पहल-शक्ति होनी चाहिए जिसका अभाव देखने को मिलता है। जब तक सुनियोजित ढंग से और नियमित रूप से आपदा प्रबन्धन पर ध्यान नहीं दिया जाता तब तक आपदाएँ आती रहेंगी और जान-माल का नुकसान होता रहेगा।

(लेखक वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली आयोग से सम्बद्ध रहे हैं)