आर्थिक लाभ से पर्यावरण रक्षा अधिक महत्वपूर्ण

Submitted by Hindi on Wed, 11/10/2010 - 09:55
Source
दैनिक ट्रिब्यून, 10 नवंबर 2010

बड़ी परियोजनाएं


हमारे पूर्वजों ने आचरण का मंत्र दिया था ‘धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष’ यानी धर्म के लिए अर्थ को त्याग दो, अर्थ के लिए काम को त्याग दो। यहां धर्म का अर्थ हिन्दू, मुस्लिम एवं ईसाई धर्मों से नहीं है बल्कि पर्यावरण, शांति एवं सौहार्द से लेना चाहिए। अर्थात् यह मंत्र बताता है कि पर्यावरण की रक्षा करने के लिए आर्थिक लाभ को त्याग देना चाहिए। जैसे घर के आंगन में नीम का पेड़ हो तो पर्यावरण शुद्ध होता है। दुकान बनाने के लिए नीम का पेड़ नहीं काटना चाहिए। दुकान का आकार ऐसा बनाना चाहिए जिसमें पेड़ भी जिंदा रहे और दुकान भी बन जाये। पेड़ को बचाये रखने से आय लम्बे समय तक होती है। पर्यावरण शुद्ध रहता है, बीमारी कम होती है और कार्य करने की क्षमता में वृद्धि होती है। छोटी दुकान बनाने से जितनी आय की हानि होती है उससे ज्यादा लाभ पर्यावरण की शुद्धि से हासिल हो जाता है।

इसी मंत्र को केन्द्र सरकार ने उत्तराखण्ड में बन रही लोहारीनागपाला परियोजना पर लागू किया है। पर्यावरणविद् डॉ. जीडी अग्रवाल की मांग थी कि गंगोत्री से उत्तरकाशी तक भागीरथी पर कोई भी जल विद्युत परियोजना न बनाई जाये। उनका कहना था कि मुक्त बहाव वाली गंगा के दर्शन एवं स्नान से देशवासियों को ज्यादा लाभ होगा। तुलना में बिजली से कम लाभ होगा। इस आकलन में विशेष दृष्टि का समावेश है। गंगा में स्नान करने से लाभ मुख्यत: आस्थावान तीर्थयात्रियों को होता है। इसके विपरीत बिजली के उपयोग से अधिकतर लाभ उच्च आय वाले शहरवासियों को होता है जिन्हें तुलनात्मक दृष्टि से भोगी कहा जा सकता है। अत: परियोजना रद्द करने से आस्थावान तीर्थयात्रियों को लाभ होता है जबकि परियोजना के निर्माण से उच्चवर्गीय भोगियों को लाभ होता है। इस द्वन्द्व में केन्द्र सरकार ने तीर्थयात्रियों का पक्ष लिया है जिसका स्वागत किया जाना चाहिए।

लोहारीनागपाला परियोजना का लाभ उच्चवर्गीय शहरवासियों को हो तो भी इसे देश का लाभ ही कहा जायेगा। केन्द्र सरकार का ऊर्जा मंत्रालय इस परियोजना को बनाने को आतुर था। ऊर्जा मंत्रालय का मानना था कि परियोजना देश के आर्थिक विकास के हित में है। इसलिये पर्यावरण एवं आस्था के नाम पर इसे बन्द नहीं करना चाहिए। लेकिन परियोजना के आंकड़ों से अलग ही कहानी सामने आती है।

परियोजना को बनाने वाली सरकारी कम्पनी नेशनल थर्मल पावर कार्पोरेशन ने पर्यावरण मंत्रालय के सामने परियोजना के लाभ-हानि का चित्र दाखिल किया है। कहा है कि परियोजना की लागत 2775 करोड़ रुपये है। इससे 446 करोड़ रुपये प्रति वर्ष का लाभ बिजली के विक्रय से होगा। 8 करोड़ रुपये प्रति वर्ष का लाभ कर्मियों के रोजगार के माध्यम से होगा। कुल लाभ 454 करोड़ रुपये प्रति वर्ष होगा जो कि पूंजी पर 16 प्रतिशत का उत्तम रिजल्ट देता है। इस प्रकार परियोजना को आर्थिक दृष्टि से लाभप्रद बताया गया है।

परियोजना के द्वारा बताया गया लाभ सच्चा नहीं है। एनटीपीसी ने कुल बिक्री की रकम को परियोजना का लाभ बताया है। वास्तव में कुल आय में से खर्च को घटाकर लाभ की गणना की जाती है। वास्तव में परियोजना का लाभ एनटीपीसी के प्रॉफिट के बराबर भी नहीं होता है। परियोजना का लाभ अन्तत: उपभोक्ता को होता है। अत: देखना चाहिए कि 250 करोड़ यूनिट बिजली के उपयोग से उपभोक्ता को कितना लाभ होगा?

लोहारी नागपाला परियोजना से बिजली की उत्पादन लागत 1.78 रुपये प्रति यूनिट बैठती है। यदि यह परियोजना नहीं बनेगी तो उपभोक्ता को बिजली दूसरे महंगे स्रोतों से खरीदनी होगी। मेरा आकलन है कि दूसरे स्रोत से बिजली 2.60 पैसे प्रति यूनिट बैठेगी। इस प्रकार परियोजना का लाभ 80 पैसे प्रति यूनिट अथवा 143 करोड़ प्रति वर्ष होगा। लाभ को आज की गणना के लिये डिस्काउंट किया जाता है। जैसे पांच वर्ष बाद फिक्स डिपाजिट से आप पाना चाहते हों तो आज केवल 660 रुपये जमा कराने होते हैं। डिस्काउंट करने के बाद 30 वर्षों में यह रकम 688 करोड़ बैठती है। रोजगार से भविष्य में होने वाले लाभ की रकम 42.4 करोड़ रुपये बैठती है। परियोजना के 30 वर्ष के जीवन काल में कुल 730 करोड़ रुपये बैठता है। यानी देश के लिए परियोजना घाटे का सौदा है। 2775 करोड़ की लागत के सामने लाभ केवल 730 करोड़ है।

इसके अलावा परियोजना से समाज को भारी नुकसान होता है। नदी को टनल में बहाने से पानी का धरती, हवा एवं सूक्ष्म प्राणियों से सम्पर्क कट जाता है जिससे उसकी गुणवत्ता में गिरावट आती है। लोहारी नागपाला आर्थिक और सामाजिक दोनों दृष्टि से असफल है। फिर भी केन्द्र सरकार का ऊर्जा मंत्रालय इसे बनाने को उद्यत है। कारण कि परियोजना एक विशेष वर्ग के लिये लाभप्रद है जैसे सिगरेट और शराब की मार्केटिंग विशेष वर्ग के लिए लाभप्रद है। जहां तक एनटीपीसी का सवाल है, घोषित 1.78 रुपये के बिजली के विक्रय मूल्य पर यह परियोजना घाटे का सौदा है। 446 करोड़ की कुल बिक्री में कम्पनी का लाभ 110 करोड़ भी मान लें तो भी कुल लागत पर लाभांश मात्र 4 प्रतिशत बैठता है। वास्तव में बिजली की बिक्री 1.78 से ऊंचे दाम पर की जायेगी। परन्तु केन्द्रीय विद्युत प्राधिकरण से स्वीकृति लेने के लिए इसे कम दिखाया गया है। अर्थ हुआ कि उपभोक्ता को नुकसान होगा और एनटीपीसी को लाभ। इसके अलावा ऊर्जा मंत्रालय के लाभ भी परियोजना से जुड़े हुए हैं। दूसरी सार्वजनिक इकाइयों की तरह एनटीपीसी के द्वारा भी उच्च अधिकारियों को राशि पहुंचाई जाती होगी। सम्भवतया इस राशि के लालच में ऊर्जा मंत्रालय इस हानिप्रद परियोजना को लागू करना चाहता हो।

राज्य सरकार भी परियोजना के पक्ष में खड़ी है चूंकि इसे उत्पादित बिजली में से 12 प्रतिशत बिजली मुफ्त मिलेगी जिससे हुई आय से सरकारी कर्मचारियों के वेतन, भत्ते एवं सुविधाओं का भुगतान किया जा सकेगा। लोहारी नागपाला के चलने से अन्य जल विद्युत परियोजनाओं का भी आवंटन किया जा सकेगा। याद रहे कि हाल में उत्तराखण्ड हाईकोर्ट ने 56 आवंटनों को अनियमितताओं के चलते रद्द किया था। अत: लोहारीनागपाला परियोजना में धर्म और अर्थ का द्वन्द्व नहीं बल्कि अनर्थ और कमीशन का द्वन्द्व निहित था। यह परियोजना न तो धर्म का विस्तार करती थी न ही अर्थ का। केवल सरकारी अधिकारियों के पोषण के लिए इसे बनाया जा रहा था। इसे रद्द करना सर्वथा उचित है।