आज विश्व के सामने यह समस्या है कि इस विकास को सतत एवं दीर्घगामी रूप कैसे दिया जाए। यह कहना अवांछनीय होगा कि समस्या का समाधान कुटीर एवं ग्रामीण उद्योगों में ढूँढा जा सकता है जिनके सहारे पिछली पीढ़ियों ने जीवन जिया और भूमि, जल या वातावरण के प्रदूषण से बचे रहे। आज बढ़ती जरूरतों और उनकी विविधता को देखते हुए बड़े पैमाने पर उत्पादन और वितरण व्यवस्था की आवश्यकता है।
आर्थिक विकास के अन्तर्गत मानवीय उपभोग की विविध वस्तुओं के उत्पादन में प्रगतिशल वृद्धि का भाव निहित रहता है। उत्पादन चक्र को गतिमान रखने के लिए एक नियमित और निरन्तर बढ़ती हुई ऊर्जा आपूर्ति इतनी महत्त्वपूर्ण हो जाती है कि कोई भी विकास इसकी सुनिश्चित उपलब्धता के बिना सम्भव नहीं है। पेट्रोलियम, विद्युत, कोयला-शक्ति, जलशक्ति और आणविक शक्ति वर्तमान समय में विकसित और विकासशील विश्व में ऊर्जा के प्रमुख स्रोत हैं और उनमें वायु एवं सौर ऊर्जा का भी कुछ योगदान है।
मानव इतिहास में जितनी उत्पादन वृद्धि पहले कभी देखने में नहीं आई उतनी आज पश्चिमी देशों में दिखाई पड़ रही है जो कि उल्लेखनीय है लेकिन कल के पिछड़े और आज के विकासशील कहलाने वाले देशों को इस विकास की कीमत चुकानी पड़ रही है। इन देशों के प्राकृतिक संसाधनों में कमी आई है और इन्हें पर्यावरणीय गिरावट का नुकसान भी उठाना पड़ा है।
आज विश्व के सामने यह समस्या है कि इस विकास को सतत एवं दीर्घगामी रूप कैसे दिया जाए। यह कहना अवांछनीय होगा कि समस्या का समाधान कुटीर एवं ग्रामीण उद्योगों में ढूँढा जा सकता है जिनके सहारे पिछली पीढ़ियों ने जीवन जिया और भूमि, जल या वातावरण के प्रदूषण से बचे रहे। आज बढ़ती जरूरतों और उनकी विविधता को देखते हुए बड़े पैमाने पर उत्पादन और वितरण व्यवस्था की आवश्यकता है। उपलब्ध ऊर्जा के स्रोतों के नियन्त्रित उपयोग से ही यह सम्भव होगा। कोई भी विकास सतत नहीं हो सकता जब तक कि ऊर्जा की उपलब्धता सुनिश्चित न हो। ऊर्जा की खपत पूरे विश्व में बढ़ रही है और इसके साथ ही वायु प्रदूषण और भीड़-भाड़ का स्तर भी। आज विश्व का ध्यान पर्यावरण को होने वाली हानि की ओर गया है और वायु प्रदूषण विशेषकर कार्बन-डाईऑक्साइड के कारण पृथ्वी के बढ़ते हुए तापमान ने विश्व को एक चेतावनी दी है। औद्योगीकरण के विस्तार और प्रदूषण वृद्धि ने एक के बाद दूसरे विकासशील देशों एवं बड़े-बड़े शहरों को अपनी चपेट में ले लिया है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुमान के अनुसार विश्व की शहरी जनसंख्या का 70 प्रतिशत दूषित वायु में साँस ले रहा है और बहुत जल्दी 10 प्रतिशत और शहरी जनसंख्या इस गिनती में शामिल हो जाएगी। शहरी प्रदूषण से प्रभावित लोग श्वास सम्बन्धी बीमारियों से ग्रस्त हैं। कुछ औद्योगीकृत देशों में प्रदूषण का स्तर खतरनाक रूप से ऊँचा है। परिणामस्वरूप वहाँ लोग श्वास सम्बन्धी बीमारियों से ग्रस्त हैं। पूर्व चेकोस्लोवाकिया के कुछ हिस्सों में पूरे जंगल नष्ट हो गए हैं। वायु प्रदूषण का असर उन क्षेत्रों में भी दिखाई पड़ रहा है जहाँ औद्योगिक सुविधाएँ नहीं हैं। वैज्ञानिकों ने अफ्रीका के जंगलों में तेजाबी वर्षा की सूचना दी है और बताया है कि यहाँ धुएँ का स्तर केन्द्रीय यूरोप जितना ही अधिक है।
नब्बे के दशक में सतत विकास की एक नई अवधारणा उभरी है। 1987 के ब्रन्टलैंड कमीशन की रिपोर्ट ने सतत विकास को इस प्रकार परिभाषित किया है- ‘‘वह विकास जो भावी पीढ़ी की जरूरतों को पूरा करने की क्षमता रखता है।’’ इसका अर्थ यह है कि भावी सम्पन्न मानवीय गतिविधियाँ प्रकृति के नवीनीकरण की क्षमता के सन्तुलन पर निर्भर है। हमें न सिर्फ यह ध्यान रखना है कि हमारी भावी पीढ़ी की स्वच्छ हवा और पानी की जरूरतें पूरी हों वरन यह भी देखना है कि उन्हें पर्याप्त मात्रा में कई किस्म के संसाधन मिलें ताकि उनकी भौतिक जरूरतें पूरी हो सकें। सरल रूप में इसका अर्थ है कि आर्थिक वृद्धि इस प्रकार हो कि इससे प्राकृतिक पर्यावरण को लाभ हो या कम से कम कोई नुकसान न हो। व्यावहारिक रूप में इसका अर्थ यह है कि पुरानी समस्याओं के समाधान हेतु नए प्रस्ताव अथवा तरीकों पर विचार कर उसे अमल में लाया जाए। नई प्रौद्योगिकी का विकास या पुराने सरल तरीकों को व्यवहार में लाना एक तरीका हो सकता है लेकिन लक्ष्य यही है कि आर्थिक वृद्धि और पर्यावरण सुरक्षा परस्पर सकारात्मक रूप से सम्बन्धित रहें।
ऊर्जा क्षेत्र में सतत विकास के लिए जरूरी है- कार्यकुशलता में सुधार, ऊर्जा की बचत एवं संरक्षण तथा पर्यावरणीय सुरक्षा। आर्थिक विकास के लिए ऊर्जा की जरूरत निरन्तर बढ़ती ही जाएगी और जहाँ ऊर्जा-आपूर्ति के विस्तार के लिए वित्तीय संसाधन सीमित हों वहाँ बेहतर ऊर्जा प्रबन्ध द्वारा ही ऊर्जा कुशलता एवं सुरक्षा की प्राप्ति सम्भव हो सकेगी। इस प्रकार के सुधारों द्वारा विकास के लिए आवश्यक ऊर्जा निवेश में पर्याप्त कमी की जा सकती है जिससे संसाधनों को सुरक्षित भी रखा जा सकेगा। और पर्यावरणीय दुष्प्रभावों में भी कमी आएगी। वास्तव में आवश्यकता इस बात की है कि ऊर्जा और पर्यावरण के मध्य एक बेहतर तालमेल एवं सहयोग विकसित किया जाए।
ऊर्जा के उपयोग में कुशलता बढ़ाकर इसके सम्पूर्ण सामाजिक उपभोग को कम किया जा सकता है जिससे इसके दुष्प्रभाव भी कम होंगे। कई औद्योगिक देशों में 1970 के तेल संकट के समय ऊर्जा के उपयोग में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुआ। अधिकांश विकसित देशों ने ऐसी व्यूहरचना की जिससे तेल के उपयोग में कमी आई और इसके लिए उन्होंने अपनी कार्यकुशलता बढ़ाने तथा गैर-पेट्रोलियम ऊर्जा स्रोतों को विकसित करने का लक्ष्य तय किया। आर्थिक सहयोग और विकास संगठन के सदस्य देशों में सकल राष्ट्रीय उत्पादन की एक इकाई के उत्पादन हेतु आवश्यक ऊर्जा की मात्रा में 25 प्रतिशत की गिरावट आई। इससे जाहिर है कि उनकी नीतियों एवं व्यूह रचनाओं का काफी प्रभाव पड़ा। 1970 के दशक में तेल आयात धीमी गति से बढ़ा और 1980 के दशक में इसमें गिरावट प्रारम्भ हो गई।
तेल की खपत को कम करने के लिए स्वच्छ तथा कम प्रदूषणकारी ईंधन का प्रयोग किया जाना चाहिए। 1970 से कोयला उपयोग में सिर्फ 22 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। जो कि समग्र ऊर्जा उपभोग की दर के आधे से भी कम है। इसी तरह दूसरे सर्वाधिक प्रदूषणकारी फासिल ईंधन तेल के उपभोग में भी कुछ कमी आई है जबकि 80 के दशक के मध्य से इसके वास्तविक मूल्यों में गिरावट शुरू हो गई थी। दूसरी ओर प्राकृतिक गैस (फासिल ईंधन में सर्वाधिक स्वच्छ) के उपयोग में निरन्तर वृद्धि हुई है और अब इसका उपयोग लगभग कोयले के बराबर हो रहा है।
कई सरकारें अब ऐसे ऊर्जा स्रोतों के उपयोग को प्रोत्साहन दे रही हैं। जिन्हें दोहराया जा सके। जियोथर्मल, सौर ऊर्जा, बायोमास और वायुशक्ति-ये गैर-प्रदूषणकारी और न समाप्त होने वाले संसाधन आस्ट्रेलिया, आस्ट्रिया, कनाडा, डेनमार्क, स्वीडन और स्विटजरलैंड जैसे देशों की कुल ऊर्जा जरूरत का 5 प्रतिशत तक प्रदान कर रहे हैं।
नई एवं कम प्रदूषणकारी प्रौद्योगिकी अपनाकर बिजली संयन्त्रों की कमियों एवं प्रदूषण को सीमित किया जा सकता है। ऊर्जा उपयोग और वायु प्रदूषण को कम करने हेतु उपलब्ध प्रौद्योगिकी पूर्ति एवं माँग दोनों पक्षों से जुड़ी होती है। पूर्ति पक्ष यानी जहाँ ऊर्जा निर्मित की जाती है और माँग पक्ष, जहाँ ऊर्जा की वास्तव में खपत होती है। पूर्ति पक्ष की प्रौद्योगिकी कई श्रेणियों में विभक्त होती है- ऊर्जा उपभोग या रूप परिवर्तन से सम्बन्धित प्रौद्योगिकी जिसका प्रयोग पावर संयन्त्रों में फासिल ईंधन ऊर्जा को विद्युत में बदलने के लिए होता है; पूरक प्रदूषण नियन्त्रक प्रौद्योगिकी जैसे कि कैटालिटिक कन्वर्टर्स जिनसे मोटरगाड़ियों से ऑक्साइड को कम किया जा सकता है और ऊर्जा-संरक्षण उपाय जैसे कि सह-सृजन जिसमें ताप का जो कि अन्यथा हवा में मिलकर व्यर्थ जाता, कुछ उपयोग हो जाता है। इसमें वे बातें शामिल होती हैं जिनसे ऊर्जा उपभोग में कमी होती है पर उत्पादन स्तर पूर्ववत बना रहता है। नए बिजली बल्ब और सम्बन्धित उपकरण ज्यादा कुशलता के साथ बेहतर उजाला प्रदान करते हैं।
तीन प्रमुख फासिल ईंधनों में कोयला सर्वाधिक व्यापक रूप से वितरित ईंधन है। विश्व के कुल कोयला भंडारों का 60 प्रतिशत से अधिक विकासशील देशों में है। विश्व पर्यावरण के बढ़ते तापमान, तेजाबी वर्षा और अन्य प्रभावों के प्रति बढ़ती चिन्ता के बावजूद कोयला अभी भी व्यापक रूप से इस्तेमाल हो रहा है। परम्परागत तौर पर कोयले का चूरा बनाकर और उसे पल्वराज्ड कोल पावर प्लांट्स में जलाकर बिजली बनाई जाती है। इस प्रक्रिया से प्रदूषण होता है जिससे तेजाबी वर्षा और स्याह धुँआ पैदा होता है। अतः या तो कोयले को अधिक कुशलता से जलाया जाए या उससे गैस बनाई जाए।
दिसम्बर, 1994 का ग्रीन पेपर यू.एस.आई.ए. बताता है कि ऐसी एक प्रणाली है एकीकृत गैसीकरण कम्बाइन्ड सायकल (आई.जी.सी.सी.), जिससे दो टरबाइनों की सहायता से कोयले को गैस में बदला जा सकता है। पहले तो कोयला गैसों को एक गैस टरबाइन में जलाया जाता है फिर अतिरेक ताप का उपयोग भाप टरबाइन को चलाने के लिए किया जाता है (जबकि साधारणतः अधिकतर पावर संयन्त्रों में यह ताप वातावरण में छोड़ दिया जाता है। इस शोध पत्र में यह भी लिखा है कि इस आई.जी.सी.सी. प्रौद्यागिकी से हर तरह के कोयले को जलाया जा सकता है और लगभग 99 प्रतिशत सल्फर संक्रमण को रोका जा सकता है।
अमेरिका के ऊर्जा विभाग का यह अनुमान है कि यह प्रौद्योगिकी सल्फर-डाइऑक्साइड के निष्कासन को 50 प्रतिशत कम कर सकती है और इससे विद्युत लागत उसी स्तर पर बनी रहेगी। यही नहीं, कई मामलों में यह निर्धारित मात्रा से कम भी हो सकती है। विकसित प्रौद्योगिकी जिसमें लुइडाइज्ड बैड्स का प्रयोग होता है, पूर्ण दाह प्रदान करता है जिससे प्रदूषण में कमी आती है। ऐसे अनेक प्रकार के प्लुइडाइज्ड बैड सिस्टम हैं जिनमें कई तरह के ईंधन को अधिक कुशलता और कम प्रदूषण के साथ जलाने की क्षमता है जबकि परम्परागत पलवराइज्ड को बायलर्स में इतनी कुशलता नहीं होती। कर्टिस मूर की रिपोर्ट के अनुसार ड्यूनबर्ग, जर्मनी में एक सरकुलेटिंग बेड सिस्टम इतना कम प्रदूषण करता है कि इसके चारों तरफ रिहायशी मकान बने हैं और यह शहर के बीचो-बीच है।
प्राकृतिक गैस कई ऐसी प्रौद्योगिकियों को अपनाना सम्भव बनाती है जो कोयले और तेल की अपेक्षा अधिक कुशल और कम प्रदूषणकारी हैं। अतः प्राकृतिक गैस को अपनाकर प्रदूषण को दो स्तरों पर कम किया जा सकता है।
सुधारे हुए ईंधन को विकसित करके बेन्जिन (जिससे ल्यूकेमिया होता है) के कुछ ब्लैण्ड्स में 10 प्रतिशत तक की कमी की जा सकती है। परम्परागत ईंधन भी विकसित क्लीन अप टेक्नोलॉजी (जैसे कि विद्युत से गर्म किए गए कैटालिटिक कन्वर्टर्स) होने पर कम प्रदूषण छोड़ते हैं। इसिलिए आज विकसित देश स्वच्छ ऊर्जा की ओर अग्रसर हो रहे हैं। विद्यमान प्रौद्योगिकी से उत्पन्न प्रदूषण को नियंत्रित करने के प्रयास विशेष सफल नहीं हो पाए हैं। पर्यावरण से संगति रखते हुए उत्पादन प्राप्त करने का लक्ष्य रखकर किए गए प्रौद्योगिकी नव प्रवर्तन सम्भवतः प्रदूषण को अनुमति योग्य स्तर पर रख सकें। विकासशील देश अक्सर विकसित देशों से प्रौद्योगिकी उधार लेते हैं अतः प्रदूषण नियन्त्रक प्रौद्योगिकी एवं विकसित देशों में प्रयोग इन देशों को भी लाभ देगा।
बिजली की औसत दर
फरवरी 11, 1997 को पैसा प्रति किलोवाट घंटा (यूनिट) के हिसाब से राज्यवार औसत दर (अनुमानित)
राज्य | दरें लागू होने की तिथी | घरेलू 100 किलोवाट महीना | घरेलू 100 किलोवाट महीना से अधिक खपत पर | कृषि | लघु उद्योग | मझोले उद्योग | बड़े उद्योग |
आंध्र प्रदेश | 1.8.96 | 136.00 | 248.50 | 20.05 | 293.43 | 318.54 | 340.90 |
असम | 8.9.94 | 105.00 | 230.00 | 150.00 | 178.60 | 227.10 | 214.10 |
बिहार | 1.7.93 | 137.00* | 148.75 | 29.09 | 155.09 | 138.54 | 209.99 |
|
| 44.00+ | - | - | - | - | - |
गुजरात | 22.10.96 | 186.25* | 307.72 | 61.22 | 239.69 | 268.26 | 356.21 |
| - | 170.69+ | 277.27 | - | - | - | - |
हरियाणा | 1.7.96 | 224.00 | 246.00 | 50.00 | 329.00 | 329.00 | 329.00 |
हिमाचल प्रदेश | 1.11.95 | 61.00 | 71.00 | 65.00 | 105.00 | 145.00 | 165.00 |
कर्नाटक | 1.7.96 | 185.00 | 203.75 | 7.65 | 206.02 | 221.48 | 370.37 |
केरल | 1.10.94 | 77.00 | 148.50 | 14.21 | 119.04 | 115.65 | 116.57 |
जम्मू कश्मीर | 1.4.88 | 54.90 | 54.9 | 12.20 | 48.80 | 48.80 | 48.80 |
मध्य प्रदेश | 1.7.96 | 90.00 | 163.25 | 45.91 | 125.00 | 292.51 | 342.77 |
महाराष्ट्र | 1.7.96 | 122.50 | 249.00 | 38.26 | 208.30 | 407.12 | 373.61 |
मेघालय | 1.9.96 | 85.00 | 103.75 | 56.00 | 149.49 | 168.43 | 156.07 |
उड़ीसा | 21.5.96 | 98.75 | 155.94 | 70.00 | 85.00 | 150.00 | 306.58 |
पंजाब | 11.7.96 | 135.25 | 168.06 | 52.75 | 195.00 | 210.00 | 233.00 |
राजस्थान | 1.10.96 | 132.50 | 158.88 | 41.46 | 214.00 | 254.00 | 275.00 |
तमिलनाडु | 1.2.95 | 90.00 | 152.50 | 0.00 | 206.30 | - | - |
चेन्नई मेट्रो क्षेत्र | - | - | - | - | - | 292.07 | 288.53 |
मेट्रो क्षेत्र के अलावा | - | - | - | - | - | 281.57 | 278.03 |
उत्तर प्रदेश | 3.1.97 | 145.00* | 186.25 | 47.29 | 295.11 | - | - |
| - | 38.50+ | - | - | - | - | - |
गैर-परिचालित उद्योग | - | - | - | - | - | 304.9 | 331.5 |
परिचालित उद्योग | - | - | - | - | - | 322.49 | 357.7 |
प. बंगाल | 7.1.95 | 104.43 | 267.1 | 87.00 | 235.93 | 291.6 | 274.4 |
* नगरीय क्षेत्र + ग्रामीण क्षेत्र स्रोतः ऊर्जा मन्त्रालय |
ऐसी अनेक शिकायतें विकसित देशों के विरुद्ध सुनी जा रही हैं कि ये देश अपनी पुरानी पड़ चुकी प्रौद्योगिकी को अल्प-विकसित देशों में बिना पर्याप्त सुरक्षा उपायों के भेज रहे हैं। लेकिन अब अल्प-विकसित देश विकसित देशों के लिए प्रदूषण-रहित पर्यावरण तथा जीवन का उच्च स्तर बनाए रखने में सहयोग नहीं करेंगे। विकसित देश आज इस स्थिति में हैं कि वे पर्यावरण से मित्रता रखती हुई आर्थिक विकास की उपयुक्त टेक्नोलाॅजी विकसित कर सकें और इस हेतु वे सुरक्षित ऊर्जा स्रोतों का इस्तेमाल कर सकते हैं। सौर ऊर्जा को प्रभावी और संरक्षित करने वाली टेक्नोलाॅजी के विकास की प्रक्रिया जारी है।
निकट भविष्य में ऊर्जा की माँग निश्चित रूप से बढ़ने वाली है ऊर्जा विकास के साथ-साथ होने वाली पर्यावरणीय गिरावट को तभी नियंत्रित किया जा सकता है यदि ऊर्जा के सुरक्षित स्रोतों को काम में लाते हुए उन्हें संरक्षित करने के लिए प्रौद्योगिकी में महत्त्वपूर्ण सुधार किए जाएँ।
(लेखक योजना आयोग में उप सलाहकार और लेखिका शासकीय स्नातकोत्तर महिला महाविद्यालय बिलासपुर, मध्य प्रदेश में सह अध्यापिका हैं।)