असमय बूढ़ी होती नैनी झील

Submitted by Hindi on Sat, 04/29/2017 - 15:59

नैनी झील पर मँडराता आसन्न संकट


पश्चिमी वायु विक्षोम की सुस्ती, शीतकालीन शुष्कता, अलनीनो एवं वैश्विक उष्मन के दुष्परिणाम तथा शीतकालीन वर्षण के विषय में मौसम विज्ञानियों की भविष्यवाणियों के चलते नैनीझील के घटते जलस्तर के पूर्व प्रवृत्तियों के विश्लेषणों के अनुमानों के अनुरुप नैनीझील इस नये वर्ष में भी पूर्ववर्ती वर्षों से काफी पूर्व जनवरी माह में हीे शून्य जलस्तर पर पहुँची है। यह घटना इस औपनिवेशिक शहर के 175 वर्षों के इतिहास की न केवल दुखद वरन 21वीं शदी के प्रारम्भिक काल में प्रकृति और विकास के द्वन्द के पीड़ादायक एवं दर्दनाक मोड़ को इंगित करती है। अतएव आवश्यक होगा कि झील की अस्मिता को चिरस्थायी बनानेे तथा पूर्व की भाँति आगामी ग्रीष्म में पर्यटन के कारण बढते जन-दबाव के चलते इस घटते जलस्तर को एक चेतावनी के रूप में आज से समग्र रूप से विचार किया जाना अपरिहार्य होगा। प्रशासन के लिये यह जरूरी होगा कि सम्बद्ध विभाग, पर्यावरण, भूगर्भ, भूगोल, जलविज्ञान, मौसम विज्ञानी, अभियांत्रिकी के विशेषज्ञों को एक मंच पर लाकर झील की प्रकृति को समझने और इसके असमय बूढ़े होने की प्रवृत्ति के लिये दीर्घकालिक और स्थायी तथा अस्थायी प्रतिकारी उपायों को लागू किये जाने सम्बन्धी निर्णय आवश्यक ही नहीं अपरिहार्य होंगे।

क्या है जलस्तर के मानक?


नैनीझील के जलस्तर नियन्त्रण के लिये 1872-73 में नगरपालिका द्वारा इन्जिनियर कम्बरलैण्ड के निर्देशन में बनाये गये वर्तमान डॉठ (स्लूज गेटों) के बाद 1899 में तत्कालीन अधिशासी अभियन्ता पॉलव्हील द्वारा झील की प्रकृति, नैनीताल के वर्षण मिजाज, जलापूर्ती तथा बलियानदी से अनिवार्य जल निष्कासन (प्रवाह) की प्रवृत्तियों के विश्लेषण द्वारा झील के जलस्तर के मौसमी मानक निर्धारित किये गये थे। इसमें अक्टूबर 15 (मानसूनी वर्षा की समाप्ति पर), झील के लबालब भरे रहने की उच्चतम सीमा 12 फीट निर्धारित थी। नैनीताल में दीर्घ वर्षाकाल तथा भारी तीव्र एवं लगातार होने वाली पर्वतीय वर्षा से उत्पन्न धरातलीय जल सैलाब एवं प्रवाह क्षमता को ध्यान में रखते हुए वर्षाकाल में जुलाई-अगस्त के बीच यह सीमा 8 से 11 फीट के मध्य रखी गयी ताकि प्राकृतिक प्रकोपों (बादल विस्फोट, भू-धसाव) से उत्पन्न किसी भी अप्रिय स्थिति को नियन्त्रित किया जा सके। ग्रीष्मकाल (जून) में झील की अधिकतम जलस्तर सीमा 7 फीट पर रखी गयी तथा इस अवधि में भी अतिरिक्त जल की निकासी के निर्देश थे। बाद के वर्षों में 1920-22 के मध्य स्थापित दुर्गापुर जल विद्युत संयंत्र के लिये अबंधित जलापूर्ती के बावजूद ये मानक अपरिवर्तनीय रहे। 1988 में पेन स्टॉक लाईन टूटने से यह विद्युत संयंत्र सदैव के लिये बन्द कर दिया गया। यही नहीं 21वीं शदी के प्रारम्भ में नैनीताल डॉठ पर नये बस स्टेशन के निर्माण के दौरान नैनी सरोवर से इस संयंत्र को नियमित आपूर्ति की जाने वाली लाइन (जल-धारा) एवं डी-सिलटेशन चैम्बर को सदा के लिये ध्वस्त कर दिया गया।

जलस्तर का विश्लेषणः


1. झील नियन्त्रण केन्द्र से प्राप्त सूचनाओं के आधार पर विगत सौ सालों का लेखा-जोखा बताता है कि यद्यपि पहली बार वर्ष 1923 के जून माह में तदुपरान्त 1980 के मई एवं जून माह में झील शून्य जलस्तर पर पहुँची थी।

2. इसके बाद हाल के वर्षों 2002, 2004 एवं 2006 में क्रमिक अन्तराल से इस घटना की खतरनाक पुनरावृत्ति दिखाई पड़ती है। बाद के वर्षों में 2009 एवं 2011 में यह स्थिति जहाँ सरक कर मई माह में पहुँच गयी वहीं वर्ष 2012 में अप्रैल के महिने में शून्य जलस्तर पर पहुँची झील आगामी बहुत दिनों तक (4 जुलाई तक) तड़पती रही। इसके उपरान्त 2013 में मई और 2014 में फिर अप्रैल में ही झील के चारों ओर बाथ-टब जैसी बढ़ती सफेद धारियाँ एवं झील को लीलता मटमैला घेरा झील की अस्मिता पर बढ़ते संकट के गवाह थे। विगत वर्ष 2016 के माह फरवरी की 16 तारीख में ही झील के शून्य जलस्तर पर पहुँचने की घटना अप्रत्याशित ही नहीं वरन एक जलीय इकाई के रूप में झील के जीवन प्रत्याशा पर एक बड़ा सवाल था। वर्तमान 2017 की स्थिति भी इस परिप्रेक्ष्य में कमोबेश बद से बदतर ही है।

3. विगत 50 वर्षों के प्राप्त आकड़ों का विश्लेषण से यह कहा जा सकता है कि ग्रीष्म काल (जून माह) में केवल दो बार (वर्ष 1993 एवं 2001) झील का जल अपने अधिकतम वांछित स्तर 7 फिट के ऊपर था।

4. 21वीं शदी के दर्ज आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2000 से 2016 के मध्य नैनी झील अंग्रेजों द्वारा लबालब भरे रहने की सीमा (12 फिट) तक कभी भी नहीं पहुँच सकी।

5. इससे ठीक उलट इस उपरोक्त अवधि (2000 से 2017) में 10 बार नैनी झील का जलस्तर शून्य अथवा उससे नीचे के पायदान पर था।

6. झील के गिरते जलस्तर पर यह और भी विचारणीय तथ्य है कि 2002 से 2017 तक के बीच झील के जलस्तर की शून्य सीमा ग्रीष्म का (जून माह) से आगे खिसकती हुयी 2016 शीतकाल फरवरी तक पहुँच चुकी है।

7. झील/कैचमेण्ट के जलीय बजट के सामान्य विश्लेषण के निष्कर्ष भी इस तथ्य की ओर संकेत करते हैं कि झील के जल का बलिया नाला के माध्यम से नैसर्गिक प्रवाह हाल के वर्षों में कम हुआ है। यहाँ इस तथ्य पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि दुर्गापुर विद्युत संयंत्र को अबन्धित जलापूर्ति 1988 के बाद बन्द हो गयी और यह भी कि नैनीताल के वर्षण की मात्रा में कमोबेश बढ़ोत्तरी दृष्टव्य है।

यह एक सवालिया निशान है कि झील में न केवल पानी घट रहा है वरन इसके मौसमी जलस्तर के सरकाव की खौफनाक प्रवृत्ति (जून से जनवरी) इसके सम्पूर्ण जलीय-चक्र में मौलिक उलटफेर को दर्शाता है। यह मानते हुए कि यह मौसमी तालाब ही तो है।

उत्तरदायित्व की बात


रूग्ण नैनी झील की अस्मिता का संकट धीरे-धीरे न केवल गम्भीर हो रहा है वरन लाइलाज भी। विकास एवं पर्यावरण के वैश्विक द्वन्द में ऐसा न हो यह मासूम झील क्रमशः तालाब एवं पोखर के रूप में पर्यटकों के उपहास एवं तिरस्कार के साथ अपने ही लोगों की प्यास बुझाने में हाथ खड़े कर दे। यह चिन्ता की जानी चाहिए कि मानव सभ्यता के विकास की यह चरम स्थिति निश्चय ही अकल्पनीय एवं दुखद होगी।

एक बारगी झील की वर्तमान दशा एवं दिशा के लिये निरंकुश, अनियन्त्रित, अवैज्ञानिक, मानवीय हस्तक्षेप सबसे बड़ा कारण माना जा सकता है। इस दिशा में स्थानीय नेतृत्व की निष्क्रियता तथा रूखेपन के चलते यह भी है कि अक्सर आरोपो-प्रत्यारोपों के साथ नैनीताल के हितैषी एवं जागरूक नागरिक, पर्यावरणविद, न्यायपालिका का सहारा लेते हुए इसकी बर्बादी को थामने की बात करते हैं। सरकार एवं प्रशासन के विभिन्न हिस्से एकमुस्त उपचार/समाधान के बजाय टुकड़ों में इस शहर एवं झील के सौन्दर्य, रख-रखाव एवं विकास की योजनाओं का क्रियान्वयन निर्धारित करते हैं। अधिसंख्य उदासीन एवं इस सबसे बेखबर हठघमीं नगरवासी अपनी आर्थिकी से जुड़े रह कर झील को अपनी दैनिक जरूरतों,पेयजल, जल-मल निस्तारण का स्रोत मानकर चलते हैं। विषय विशेषज्ञ हिमालयी विशिष्टता के परिप्रेक्ष में वैश्विक पर्यावरण में आने वाली कतिपय सामयिक विसंगतियों को सूक्ष्म स्तर पर लागू कर अनेक तथ्यों को इसके बिगड़ते स्वरूप के लिये उत्तरदायी मानते है। उत्तरदायित्व के इस घालमेल में झील को बचाने का यक्ष प्रश्न विगत पच्चीस वर्षों से न्यायालयी हस्तक्षेप के बावजूद जस का तस है।

पर्यावरण का रूखापन और सिकुड़ती नैनी झील


2015 में ग्रीष्म कालीन मानसूनी वर्षा के नैनीताल में पटाक्षेप की तिथि 12 सितम्बर थी जबकि 12,70 मि.मी. वर्षा रिकॉर्ड की गयी। जिसके फलस्वरूप नैनीताल में वार्षिक वर्षा की मात्रा उच्चतम शिखर पर थी। यद्यपि आगामी नवम्बर के प्रथम सप्ताह में आकाश की मेघाछन्नता तथा गर्जन-तर्जन से छिटपुट वर्षा आने वाले शीतकाल में वर्षा तथा हिमपात का अच्छा संकेत था परन्तु पर्यावरण के रूखेपन, जिसको वैज्ञानिक वैश्विक उष्मन से जोड़ते हैं और अल-नीनो की बानगी मानते हैं के कारण आगामी लगभग 6 माह तक इस सरोवर नगरी में न मेघ बरसे, न अनायास हिमाच्छादन हुआ और न ही अपनी प्रकृति के अनुरूप श्वेतान्धकार (कोहरे) की चादर ने इस पहाड़ी शहर को अपने आगोश में लेकर भीषण ठिठुरन का आभाष कराया।

दुष्परिणाम जल्द ही सामने था जब 16 फरवरी 2016 को नैनीझील के जलस्तर का शून्य पर पहुँचना, नैनीताल झील के ज्ञात इतिहास की बड़ी घटनाओं में से एक थी। 1872-73 में अंग्रेजों द्वारा जलस्तर नियन्त्रण के मानकों के आधार पर इस समय यह 12 फीट जल से लबालब लगभग भरी झील होनी चाहिए थी। बात यहीं पर खत्म नही होती क्योंकि इसके बाद भी झील का जलस्तर लगभग एक इन्च प्रतिदिन की दर से घट रहा था और अप्रेल के दूसरे सप्ताह में यह शून्य से 36 इन्च (3 फिट) के ऋणात्मक स्तर पर पहुँच गया था। यहाँ पर यह तथ्य इस गम्भीरता की ओर लक्षित करता है कि इस समय नैनीझील अपने मूल सामयिक जलस्तर से 15 फीट घट चुकी थी। इससे अधिक चौंकाने वाली बात यह है कि 2012 के आंकड़े जो कि मध्य जून में झील के सिकुड़ने की दर को 10 से.मी. प्रतिदिन इंगित कर रहे थे वह मार्च 2016 में बढ़ कर 19 से.मी. से अधिक थी। इस प्रकार झील के जलस्तर के सिकुड़न (स्थलीय सरकाव) तथा झील के संलग्न स्थलीय पट्टी का घेरे में पूर्व की अपेक्षा दोगुना रफ्तार से वृद्धि हो रही थी। यह अप्रत्याशित बढ़ता खिसकाव न केवल झील वरन नैनीताल के लिये खतरे की घंटी और चेतावनी का सबब है।

जहाँ तक इसके उत्तरदायी कारणों एवं निदान का प्रश्न है। जल वैज्ञानिक, भू-वैज्ञानिक, पर्यावरणविद एवं तकनीकी विशेषज्ञों एवं प्रशासनिक अधिकारियों के एक मुश्त राय से विश्लेषण अपेक्षित है। मोटे-मोटे तौर पर लगभग 52 प्रतिशत वर्षण पर निर्भर इस झील के वर्तमान हालातों के लिये मौसमी सूखापन एक बड़ा कारण माना जा सकता है। क्योंकि मौसम के आंकड़ों को देखें तो 2016 के विगत 3 माह में मात्र 10 से.मी. वर्षा रिकॉर्ड की गयी और 2015 में मानसून उपरान्त काल सितम्बर 12 के उपरान्त शरद एवं ग्रीष्म शीत कालीन वर्षण जिसका औसत लगभग 35-40 से.मी. वर्षा इसको प्रथम दृष्टया पर्यावरणीय रूखेपन से उत्पन्न समस्या मानना है। तथापि नैनीताल के वर्षण एवं झील के जलस्तर के पारस्परिक सम्बन्धों को गहराई से देखा जाय तो पता चलता है कि 1977 से 2016-17 के मध्य लगभग 50 सालों में न्यूनतम वर्षा वर्ष (1991-रिकॉर्डेड 136 से.मी वर्षा ) बावजूद अप्रैल से जून महीनों के दौरान झील का जलस्तर 9.05 से 7.70 फीट के बीच था।

नैनीताल की न्यूनतम वार्षिक वर्षण के वर्ष

वर्ष

वार्षिक वर्षा

झील का जलस्तर (फिट)

अप्रैल

मई

जून

1979

171.9

4.35

2.10

3.40

1981

170.4

3.52

2.10

4.10

1987

151.8

6.20

5.50

4.25

1991

136.7

9.05

7.96

7.70

1992

158.0

7.68

6.70

8.88

1994

139.7

8.12

7.01

7.32

1997

143.20

6.18

9.94

5.90

 

विशेषज्ञों की मानें तो नैनीझील में कुल वार्षिक जल प्राप्ति में आधे से अधिक हिस्सा (52.63 प्रतिशत) वर्षण का है जबकि भूगर्भिक प्रवाह एवं झील के अतिरिक्त अदृश्य प्राकृतिक स्रोत अवशेष जल की मात्रा उपलब्ध कराते हैं।

जहॉ तक नैनीताल में वार्षिक औसत वर्षा का प्रश्न है, यह ज्यादा चौंकाने और गौर करने की बात है कि 2010 से (यमुना की बाढ़ एवं सुमगढ़ त्रासदी, 2013 केदारनाथ त्रासदी वर्ष), 2015 के बीच इसकी सर्वाधिक इंगित मात्रात्मक वृद्धि, झील के लिये खुशनुमा अहसास होना चाहिए था और झील को लबालब भरा रहना चाहिए था। यहाँ यह भी ध्यान देने योग्य बात हैं कि 5 जुलाई 2015 को नैनीताल में हुयी भारी वर्षा (15 इन्च) से माल रोड में नाला नं. 2 एवं 3 में बना मलवे का पहाड़ तथा मल्लीताल रिक्शा स्टैण्ड एवं बोट हाउस क्लब में जमा मलबा और 9 जुलाई को नाला नं. 5 में इसकी पुनरावृत्ति की स्मृतियँ वर्षा के तांडव एवं जलसैलाब के साथ मानवीय हठधर्मिता को भी बयाँ करते हैं। जल सैलाब से एकाएक बड़े झील के जलस्तर से 6 जुलाई से 22 सितम्बर के मध्य (34 दिनों तक) झील को नियन्त्रित करने के लिये स्लूज गेट खोलने पड़े।

उत्तरदायी कारणों की खोज


स्थिति में पर्वतीय,पैदाइश में विवर्तनिक, निर्माण प्रक्रिया में अवरोधात्मक,जलीय दृष्टि से समुद्री हरे रंग की मीठे जल की, आकार में नयनाकार अथवा किडनी बीन सरीखी तथा प्रकृति में मौसमी नैनी झील की वर्तमान दुर्दशा के लिये प्रथम दृष्टया निम्नांकित कारणों को माना जा सकता है।

1.पुनर्भरण क्षेत्रों की सिकुड़न


(अ)- सूखाताल (endorheic Lake) की दयनीय स्थिति
परसे वैरन ने दिसम्बर 1842 में अपने नयनीताल प्रवास के दौरान नैनीसरोवर से ऊपर एक छोटी और पूर्णतः ठोस और गहरे हिमजमाव से ढकी एक झील का जिक्र किया । एटकिन्सन (1880) ने भी अपने विवरण में सेन्ट जोन्स चर्च तथा हांडी -बांडी के बीच बने गहरे गर्त को सूखाताल बताया, वर्षा ऋतु में भरने वाली इस मौसमी झील को चांदमारी स्थल तथा पत्थर की खदान के रूप में भी इस्तेमाल किये जाने का जिक्र किया है।

nainital lakeउत्तर में नैनापीक से देवपाठा की धार, दक्षिण में बैरन हिल पूर्व में सेन्ट जोन्स चर्च से चीना पार्क के द्वारा सृजित पनढ़ाल तथा पश्चिम में हांडी-बांडी (प्रतिध्वनित विशेषता होने वाली) पहाड़ी से सीमांकित इस प्राकृतिक गर्त का जलग्रहण क्षेत्र लगभग 78 हेक्टेयर है। 1872 के मानचित्र में सीमांकित सूखाताल को बरसाती झील के रूप में निर्दिष्ट किया गया था। 1899 के मानचित्र में इसके कुल क्षेत्रफल का आगणन 3.3 हेक्टेयर था, जिसमें वालिन्टियर राइफल रेंज के साथ 30 फिट से अधिक गहरे वर्षाकालीन जलमग्न क्षेत्र लगभग 2.17 हेक्टेयर, 10 से 20 फिट गहरा क्षेत्र 1.07 हेक्टेयर तथा 20 से 30 फिट गहरा क्षेत्र 0.31 हेक्टेयर आंकलित कर अधिकतम जल भन्डारण क्षमता 7.3 लाख घन मीटर आंकी जा सकती है। 1936-37 एवं 1971 के भारतीय सर्वेक्षण विभाग द्वारा प्रकाशित नैनीताल गाइड मैप में अधिकतम 35 फिट गहरी इस मौसमी झील का सीमांकित वर्षाकालीन जलमग्न क्षेत्र का अनुमान लगभग 4.0 हेक्टेयर से कम है। जबकि 2014 के गूगल आधारित आकाशीय चित्र से इसमें लगभग 10,000 वर्गमीटर की सिकुड़न का अनुमान है।

विषय विशेषज्ञ सूखाताल तथा नैनीझील के मध्य प्रगाढ़ एवं जीवन्त भूमिगत सम्बन्धों की बात करते हैं। हो भी क्यों नहीं क्योंकि क्षेत्रीय भूगर्भिक संरचना में आड़े-तिरछे भ्रंशों की उपस्थिति, घाटी के शीर्ष पर बने इस प्राकृतिक गर्त एवं नैनी झील के ऊपरी सिरे के मध्य लगभग 700 मीटर की कुल क्षेत्रीय दूरी के बीच लगभग 75 मीटर का भू-आकृतिक झुकाव, पर्दा धारा की उपस्थिति और नैनीझील के वार्षिक जलीय बजट की प्रवृत्ति, ये सभी तथ्य मोटा-मोटी इसके प्रमाण माने जा सकते हैं। शोध के निष्कर्ष (एन.आई.एच. 1999) भी इंगित करते हैं कि नैनी झील को वर्ष भर मिलने वाले जल में अधोभौमिक जल का हिस्सा 42.8 प्रतिशत है और इस आने वाली अदृश्य जलराशि का अकेले 43 प्रतिशत जमीन के अन्दरूनी रास्ते सूखाताल से प्राप्त होता है। इसीलिए यह मौसमी झील नैनी सरोवर के लिये ममतामयी माँ के समान है जिसके वर्षा से सरोबार आँचल के छिपे खजाने का जल आहिस्ता-आहिस्ता जमीनी रास्तों से नैनी झील को वर्ष पर्यन्त मिलता रहता है। इसीलिए वर्षाकाल के काफी बाद भी एक लम्बे अर्से तक नैनी झील का जल अपने पूरे सबाब पर रहता था।

20वीं शदी के प्रारम्भिक वर्षों में सूखाताल और नैनीझील के मध्य भू-पृष्ठीय सम्पर्क साधने के प्रयास अंग्रेज अधिकारियों के मन में बने रहे जोकि सफलता प्राप्त नहीं कर सके। सूखाताल के विषय में ए.एल.काउलॉन (भारतीय भूगर्भिक सर्वेक्षण विभाग) की रिपोर्ट (1929) में बताया गया कि 1903 तक पूरे शीतकाल के दौरान सूखाताल पानी से भरा रहता था। इसी वर्ष स्थानीय मुस्लिमों द्वारा ताजिये दफन करने के लिये की गयी खुदाई के फलस्वरूप उत्खनित स्थानों में आन्तरिक दरारों के खुलने के कारण जल के तीव्र रिसाव से यह कम होता गया। 1960 के दौरान तत्कालीन सभासदों द्वारा इसको तरणताल में प्रतिस्थापित करने के प्रयास नैनीताल नगरपालिका की कार्यवाही में मिलते हैं। सूखाताल की नैनीझील के लिये प्राकृतिक पुनर्भरण उपादेयता का मूल्यांकन 90 के दशक की सोच है। क्योंकि 1980 के मध्य नैनीताल में भू-भक्षियों तथा भवन निर्माण के बड़े ठेकेदारों द्वारा अबंधित भवन निर्माण एवं मोटर मार्ग आदि विकासीय अवरचनाओं के कारण दिन-रात लाखों टन मलबा सूखाताल गर्त पर उडेला गया। सूखाताल झील के पैंदे को पाटने के पीछे जो भी विकासोन्मुख अथवा कुत्सित सोच रही हो, यह एक पुनर्भरण गर्त के रूप में बनने वाली मौसमी झील की भ्रूण हत्या करने जैसा कृत्य था। क्योंकि शेरवुड कालेज के समीप बरसाती तालाब को पाटकर सीमेन्ट -कंक्रीट की पार्किंग बना देने की एक ऐसी ही साजिश शासन, प्रशासन तथा पर्यावरणविदों को आज भी झकझोर नहीं पायी।

सूखाताल के उत्तर पूर्वी छोर पर वर्ष 1992-93 में स्थापित ट्यूब वैल जोकि अपने सतह से 60 मीटर की गहराई तल सूखाताल के जलीय खजाने से 0.72 एम/एल/प्रतिदिन की दर से पेयजल आपूर्ति कर रहा है। इसके मानवीय योगदान के साथ इसकी मौसमी प्रकृति के लिये भी उत्तरदायी सिद्ध होता है। यही नहीं विगत अनेक वर्षों से सूखाताल क्षेत्र में वर्षाकाल में जलभराव समस्या के त्वरित निदान के लिये विद्युत चलित पम्पों द्वारा रात-दिन बलात निकाली जाने वाली विशाल जलराशि के आंकड़ों को जुटाना एवं बताया जाना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है। 2015 में क्षेत्र सर्वेक्षण के दौरान इस क्षेत्र के अनेक सम्मानित निवासियों से इस बात की पुष्टि हुयी कि 70-80 के दशकों के मध्य तक सूखाताल में मनोरंजन के लिये अल्प काल के लिये ही सही नौकायन किया जाता रहा तथा जलस्तर के दंड मापकों द्वारा इसके जल भराव का अनुमान लगाया जाता था।

सिमटने, सूखते एवं विलुप्त होते पुनर्भरण क्षेत्र


सूखाताल के अलावा अयारपाटा क्षेत्र में भ्रंशों के सहारे बने अवरोध से उत्पन्न यत्रतत्र बिखरे अनकों मौसमी पोखर तथा गर्त, इनमें शेरउड एयर फाइल, डलहौजी विला, स्लीपी होलो, एटीआइ/मल्ला पोखर, सेन्ट अम्तुल्स, टिफिन टॉप, बेननिवास तथा कचहरी आदि के समीपवर्ती स्थित थे, आकार में छोटे होने के बावजूद अपनी संख्या और भूगर्भिक जल के रिसाव की एकमुश्त के मात्रा की दृष्टि से नैनी झील के लिये कम महत्त्वपूर्ण नहीं थे, ये सभी आज मानवीय हठधर्मिता एवं हस्तक्षेप से सिकुड़ते-सिमटते अदृश्य से हो चुकेे हैं।

झील के पैदें में स्थित प्राकृतिक स्रोतों की भूमिका


भूगर्भिक प्रवाह के अन्तर्गत केवल बेसिन के चारों ओर से भूमिगत जल का रिसाव के साथ झील के पेंदे में स्थित प्राकृतिक स्रोतों की उपस्थिति भी झील के जलीय बजट के निर्धारण में महत्त्वपूर्ण है। यह बताया गया है कि यह संख्या में 3 से 5 है। झील के कैचमेन्ट में दोनों ओर शेर के डांडा तथा अयारपाटा ब्लॉक के साथ-साथ बलिया के मार्ग में विभिन्न ऊँचाई वाले स्थानों पर प्राकृतिक स्रोतों (नौले/धारों) की उपस्थिति जो संख्या में लगभग 25 से अधिक हैं और उनके प्रवाह के मौसमी प्रवृत्ति झील के पेंदे में इन स्रोतों के अस्तित्व को स्वीकारने के लिये काफी है। लेकिन क्रमिक अवसादीकरण के कारण औसत 0.75 सेमी/वर्ष जो किनारों पर 1.24 से 1.50, मध्य में 0.64 तथा गहराई में 0.48 सेमी/वर्ष है (रेडियोमिट्रिक डेटिंग विधि-भीष्म कुमार एवं नचियापन के शोधपत्र-2003) इनके प्रवाह/स्राव में केवल कमी संभव है इसकी वर्तमान दशा के लिये उत्तरदायी महत्त्वपूर्ण कारण है।

झील के भू-गर्भिक रिसाव की वृद्धि


झील का भूगर्भिक रिसाव जोकि कुल निष्कासन का 17.80 बताया गया है, की मात्रा में बढोतरी भी झील के विद्यमान जलीय बजट की परिवर्तनीयता एवं जलस्तर में आयी घटोतरी का एक महत्त्वपूर्ण कारक हो सकती है। यद्यपि इसकी सत्यता की परख के लिये वैज्ञानिक आधार एवं विशेषज्ञों की जरूरत है, तो भी स्थानीय निवासियों के अनुसार रईस होटल के समीप 2010 के बाद बारहमासी स्रोत की उपस्थिति ,दुर्गापुर के समीप स्रोत के प्रवाह का बढ़ना। इसी प्रकार कैंची मन्दिर के समीप प्राकृतिक स्रोत, बलियानाला क्षेत्र में प्राकृतिक प्रवाह की अनयमितता भी चिन्ता का विषय हो सकता है। 1895 में नगर पालिका द्वारा बनायी गयी जाँच समिति में मिस्टर एम.एफ.गिल्स ने माल रोड ग्रान्ड होटल तथा बैंकहाउस के पीछे दरारों की पुष्टि की थी। इस स्थान पर यदा कदा होते झील के तट पर भू-धसाव को लेकर विशेषज्ञों ने यह सम्भावना जाहिर की है कि यह क्षेत्र झील का प्रमुख जल रिसाव का क्षेत्र हो सकता है।

भूमि उपयोग का अनियंत्रित एवं असहज मानवीयकरण:


यद्यपि अंग्रेजों द्वारा बसाये गये इस खूबसूरत पहाड़ी नगर के नियोजन का कोई अलग सा दस्तावेज नहीं बनाया गया तो भी इसके भूगोल, भूगर्भ, पर्यावरण और पारिस्थितिकी के साथ इस मासूम झील के मध्य नाजुक ताने-बाने को बनाये रखने के लिये नगर पालिका द्वारा अपने पैदाइश (1850) से ही अनेकों नियम, उपनियमों के माध्यम से इस शहर को दीर्घकाल तक सुरक्षित एवं संरक्षित रखा गया। बाद के वर्षों में वैध-अवैध एवं बेतरतीब निर्माणों तथा नगरीय सुविधाओं, प्रगति और विकास के नाम पर लगभग 85 कि.मी. लम्बे मार्ग जाल तथा पैदल सड़कों का मोटर मार्गों में रूपान्तण तथा सौन्दर्यीकरण के नाम पर डामरीकरण एवं सीमेन्टीकरण से जमीन की सहज भू-गर्भिक जल रिसाव (जल रन्ध्रता) क्षमता में कमी महत्त्वपूर्ण कारक हो सकती है। भूमि उपयोग के कालिक परिवर्तनों से निरन्तर बढ़ता हुआ अपारगम्य धरातल एवं इसके अतिरिक्त झील के कैचमेन्ट में प्राकृतिक स्रोतों का सूखना तथा उनमें जल की न्यूनता भी झील के विद्यमान जलीय बजट की परिवर्तनीयता एवं जलस्तर में आयी गिरावट का एक महत्त्वपूर्ण संकेतक है।

झील में निरन्तर बढ़ता अवसादीकरण एवं पसरती गन्दगी की खतरनाक प्रवृत्ति:


यद्यपि अपनी स्थिति के कारण झील सदैव ही एक नैसर्गिक गर्त के रूप में यह अपने समस्त अपवाह क्षेत्र एवं संलग्न पहाड़ियों के प्राकृतिक एवं मानवजनित अवशिष्टों के लिये आदर्श संग्रहण स्थान (डस्टबिन) है। किनारों पर 1.24 से 1.50, मध्य में 0.64 तथा गहराई में 0.48 सेमी/वर्ष (रेडियोमिट्रिक डेटिंग विधि-भीष्म कुमार एवं नचियापन के शोधपत्र-2003) इसी कारण अत्यधिक वर्षण वाले इस प्रभाग में अंग्रेजों द्वारा भू-पृष्ठीय जल सैलाब और उससे होने वाली हानि के बचाव की जुगत के साथ-साथ झील को सुरक्षित एवं नियन्त्रित जलापूर्ति के लिये 29 सदानीरा एवं मौसमी नालों और 235 शाखाओं का लगभग 79 कि.मी. लम्बा चट्टानी, एक व्यवस्थित एवं विशाल तंत्र को विकसित करने की कवायद की गयी। यह तन्त्र झील को आज भी 18 प्रतिशत से ज्यादा जलराशि का योगदान करता है। तथापि आज नैनीताल की धमनियाँ कहे जाने वाले नालों से वर्षा का जल कम, अवैध निर्माणों का मलवा, सीमेंट कंक्रीट, मिट्टी तथा अजैविक सामग्री झील में उडेली जाती है। यहाँ यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि 5 जुलाई 2015 को नैनीताल में हुयी भारी वर्षा (15 इन्च) से माल रोड में नाला नं. 2 एवं 3 में बना मलवे का पहाड़ तथा मल्लीताल रिक्शा स्टैण्ड एवं बोट हाउस क्लब में जमा मलवा और 9 जुलाई को नाला नं. 5 में इसकी पुनरावृत्ति की स्मृतियाँ वर्षा के तांडव एवं जल सैलाब के साथ मानवीय हठधर्मिता को भी बयाँ करते हैं। जल सैलाब से एकाएक बड़े झील के जलस्तर से 6 जुलाई से 22 सितम्बर के मध्य (34 दिनों तक) झील को नियन्त्रित करने के लिये स्लूज गेट खोलने पड़े। यह मलवा झील के पैंदे में अवसादीकरण/गाद ही नहीं भरता वरन सीमेंट कंक्रीट की एक अपारगम्य परत बिछा देता है जोकि झील के आन्तरिक स्रोतों के जल प्रवाह को भी प्रभावित कर जल-तंत्र में विकार उत्पन्न करता है।

सांस्कृतिक यूट्रोफिकेशन/प्रदूषण:


नगरीय झीलों की यह एक सर्वव्यापी समस्या है जो जोकि झील में होने वाले अवसाद के जमाव तथा अवांछित शैवालों की वृद्धि का संकेतक है। समय के साथ चरणबद्ध रूप से मृत जीवाश्म एवं अवसादों के जमाव से झील का पटते जाना (उथला होना) अप्रत्याशित नहीं वरन एक सामान्य प्राकृतिक परिघटना है। पर्यटकों के अतिशय दबाव एवं धरातलीय अपवाह तन्त्र की विशिष्टता के कारण नैनी झील लेक डिस्ट्रिक्ट की सर्वाधिक प्रदूषित झील मानी गयी है जिसका टी एस आई इंडेक्स 74 है जबकि नौकुचियाताल का मान न्यूनतम 20 है। झील के असमय बूढ़े होने का यह भी एक कारण है।

प्रतिकारी उपाय


नैनी झील के लिये सुझाये जा सकने वाले अल्पकालिक एवं दीर्घ कालिक (स्थायी) उपायों की एक लम्बी फेहरिस्त बनायी जा सकती है। आवश्यकता इस बात की है कि प्रकृति एवं मानव के सामन्जस्य के सामान्य सिद्धान्तों के आधार पर प्राथमिकताएँ निर्धारित कर इन उपायों को ईमानदारी और समयबद्ध रूप से तुरन्त लागू किया जाय। प्रशासन की भूमिका हस्तक्षेप विभिन्न सम्बन्धित विभागों/कार्यदायी संस्थाओं के बीच बेहतर सामन्जस्य /तालमेल स्थापित कर विषय विशेषज्ञों की राय के अनुसार क्रियान्वयन होना चाहिए। स्थानीय जनता नेता एवं पर्यावरणविदों के लिये भी जरूरी है कि आरोप -प्रत्यारोप को छोड़ जो ठीक, सुन्दर एवं उपयोगी है उसे स्वीकार करें। भविष्य में झील के बेहतर रख-रखाव के लिये व्यक्तिगत हितों को तिलान्जलि देकर सामूहिक लाभ के प्रति ध्यान दिया जाय।

अल्पकालिक उपाय


जल आपूर्ति नियन्त्रण: ग्रीष्मकाल में झील के जलस्तर में गिरावट से उत्पन्न समस्या के फौरी निजात पाने के लिये संस्थान द्वारा पेयजल की क्षेत्र एवं स्थान एवं समयबद्ध राशनिंग की पहल ने विगत वर्षों में पर्यटकों से भरे इस शहर में किसी अप्रिय घटना को घटित नहीं होने दिया। स्थिति की गम्भीरता के बावजूद विभागीय अधिकारियों को क्या इसका श्रेय नहीं दिया जाना चाहिए? वास्तव में पेयजल की विश्वव्यापी कमी के परिप्रेक्ष्य में झील पर अवलम्बित इस शहर में पानी का अय्याशी पूर्ण अनियंत्रित जल दुरुपयोग की प्रवृत्ति को रोकना समय एवं भविष्य की आवश्यकता है।

लीकेज एवं दुरुपयोग नियन्त्रण: एक अनुमान के अनुसार जल आपूर्ति एवं वितरण में होने वाली क्षति (लिकेज एवं अन्य) लगभग 20 प्रतिशत है। एशियन विकास बैंक की पाइप लाइनों में इसका प्रतिशत बढ़ा है। जलरिसाव की इस समस्या की तकनीकी खामियों को मानवीय कौशल के यथोचित एवं समयबद्ध का समाधान जल संरक्षण की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम होगा। इसके अतिरिक्त नैनीताल के होटलों, रेस्टोरेन्टों, आवासीय विद्यालयों, कार्यालयों तथा घरों में लगे आरो संयंत्र में माध्यम से किये जा रहे जल शुद्धीकरण प्रक्रिया में निकलने वाला अतिरिक्त जल जिसकी मात्रा लगभग 50 प्रतिशत होती है, को बेकार एवं अनुपयोगी मानकर सीवर/अन्य के माध्यम से व्यर्थ समझकर दुरुपयोग किया जाता है। जबकि सामान्य स्थिति में इस जल को अन्य प्रयोगों में लाया जा सकता है।

झील में समाने वाले नालों की नियमित सफाई एवं निरीक्षण: झील में गिरने वाले नालों की समयबद्ध और चरणबद्ध सफाई झील में उत्पन्न किसी समस्या के लिये पहली जरूरत है। इस कार्य के लिये जिम्मेदार विभाग/विभागों द्वारा इसकी महत्ता को जानते हुए भी प्रायः प्रभावशाली निर्णय नहीं लिये जाते। वर्षाकाल में विभिन्न स्थानों पर घटित होने वाली अप्रिय स्थितियों के बावजूद प्रशासन द्वारा भी इस मामले में किसी भी ठोस पहल और कार्यवाही का न किया जाना समस्या की विकरालता को बढ़ा देता है। आवश्यकता इसी बात की है कि सम्बद्ध नालों के निर्माण एवं साफ-सफाई के लिये उत्तरदायी विभाग अथवा विभागों पर यह जिम्मेदारी सुनिश्चित की जाय कि वे प्रत्येक नाले की परिस्थिति की रिपोर्ट सम्बन्धित अधिकारी को मासिक रूप से अनिवार्यतः प्रस्तुत करें।

कैचमेण्ट के विभिन्न क्षेत्रों में वर्षाजल का सीवर द्वारा प्रवाह पर प्रतिबन्ध : नगर के अनेक क्षेत्र एवं स्थानों में वर्षाजल को सीवर लाइन को एक साथ मिला दिया गया है। यह समस्या 7 नम्बर में सर्वाधिक है। इसके कारण न केवल झील में जल की मात्रा प्रभावित होती है वरन जिसके प्रत्यक्ष दुष्परिणाम वर्षाकाल तथा ग्रीष्म में विभिन्न स्थानों पर सीवर लाइन फटने तथा जल प्रदूषण के रूप में देखा जा सकता है।

रेन वॉटर हार्वेस्टिंग- वर्षाजल संग्रहण को प्रसारित कर अधिकतम जल निष्कासन को नालों के द्वारा झील में उडेला जाना आवश्यक होगा। इसके अतिवृष्टि से उत्पन्न जल सैलाब के विध्वंसकारी प्रभावों को भी नियन्त्रित किया जा सकेगा। गैर जरूरी सार्वजनिक स्टैण्ड जिनकी संख्या 50 है तथा टीटीएस (1000 ली. की क्षमता वाले) इसके अतिरिक्त विभिन्न क्षेत्रों में ऐसे सार्वजनिक नल जिनमें वाहन धोने के साथ अबन्धित जल दुरुपयोग हो रहा है को बन्द किया जाना ।

स्थायी एवं दीर्घकालिक उपाय:


सौन्दर्यीकरण/पर्यटक सुविधा के नाम पर झील और झील के समीप किसी भी प्रकार के अतिक्रमण पर पाबन्दीः यहाँ यह जानना जरूरी है कि अपनी खोज और शहर के प्रारम्भिक विकास से आज तक नैनीझील लगभग 40 हजार वर्गमीटर सिमट चुकी है। यह भी महत्त्वपूर्ण है कि झील के किनारे एवं झील में किये गये मानवीय अतिक्रमण एवं घुसपैठ के अलावा विगत वर्षों में झील के गिरते जलस्तर से उत्पन्न कंकड़-पत्थर की एक पट्टी से भी झील का जल आवृत्त क्षेत्र भी निरन्तर घटता जा रहा है। इसका सीधा प्रभाव झील के जल भरण क्षमता में क्रमशः आने वाली कमी से होगा और यही भविष्य में नैनीताल की पेयजल समस्या का कारण होगा।

नैनीझील की जलभरण क्षमता का आकलन एवं उसके कालिक परिवर्तन

वर्ष

जल आवृत क्षेत्रफल (हेक्टेयर में)

अधिकतम गहराई (फीट/मीटर में)

अधिकतम जल भण्डारण क्षमता (लाख घन मीटर)

जल भण्डारण क्षमता में गिरावट का प्रतिशत

वास्तविक जल भण्डारण (लाख घन मीटर)

1872

47.72

93 (28.35)

87.32

100

 

1899

46.50

87.3 (26.60)

85.26

97.64

 

1936

45.49

85.10 (26.18)

82.27

95.36

 

1973

44.99

84.31/2 (25.70)

82.36

94.32

 

2010

44.78

83.2 (25.35)

81.95

93.85

 

2012*

41.31

83.2 (25.35)

81.21

93.00

77.33

*13 जून की वास्तविक स्थिति, सर्वे परिणामों के उपरान्त

 

झील के वैज्ञानिक मॉनीटरिंग (अनुश्रवण) के लिये एक स्थायी शोधशाला की स्थापनाः


झील की गिरती हालत के लिये स्थायी समाधान की दिशा में झील की प्रकृति की वैज्ञानिक विश्लेषणों की तात्कालिक आवश्यकता अनिवार्य है। वैज्ञानिक जानकारी के लिये उपलब्ध उपकरणों एवं आधुनिक तकनीक के अनुप्रयोग द्वारा झील और झील के जल से सम्बन्धित विभिन्न जानकारी हासिल कर झील सुरक्षा एवं संरक्षण की एक समन्वित एवं ठोस रणनीति बनायी जा सके।

1. जलीय पारिस्थितिक तंत्र की स्वास्थ्य एवं सुरक्षा सम्बन्धी जानकारी के लिये प्रयुक्त होने वाले कतिपय जैविक संवेदक (Biological sensor)

2. झील के जल की अनेक विशेषताओं यथा लवणता अम्लीयता, घुलित ऑक्सीजन मात्रा, पोषकता आदि की जाँच के लिये रासायनिक संवेदक (Chemical Sensor)

3. झील केे जलस्तर को प्रभावित करने वाले मौसमविज्ञानी संवेदक (Metrological Sensor)

4. झील के जलीय तापक्रम गंदलापन पारदर्शिता, रंग, गहराई के दबाव तथा भू-गर्भिक जल रिसाव एवं प्रवाह के लिये प्रयुक्त भौतिक संवेदकों (Physical Sensor) से झील के विषय में सूक्ष्म, वैज्ञानिक एवं उपयोगी जानकारी जुटायी जा सके। विगत 2-3 दशकों से झील संरक्षण के प्रयासों में लगे विभिन्न विभागों को वैज्ञानिक आधार देने के लिये भी इसकी उपयोगिता अपरिहार्य होगी। संसाधन संरक्षण पर मनुस्मृति के इस कथनः जो प्राप्त नहीं है उसे प्राप्त करने की इच्छा जो प्राप्त है उसकी प्रयत्नपूर्वक रक्षा। जो रक्षित है उसकी अभिवृद्धि और जो अधिक है उसे सुपात्र को दान से अभिप्रेरित झील सरीखी नाजुक, अल्हड़, मासूम एवं प्राकृतिक नेमत, का दीर्घकालिक उपयोग निम्नांकित चार व्यवहारिक बिन्दुओं पर निर्भर होगा: प्रथम उसका सम्मान द्वितीय उसकी रक्षा तृतीय उसका संरक्षण और अन्ततः चतुर्थ उसके साथ आनंद। इस परिप्रेक्ष में झील के प्राकृतिक स्वरूप को यथावत रखते हुए इसके पुनर्जीवित करने के प्रयासों को मानवीय परिप्रेक्ष्य में केन्द्रित करते हुए युक्तियुक्त निर्णय की अपेक्षा करनी चाहिए। सामान्य जनता को यह समझाने की जरूरत है कि शहर और उसके निवासियों के बीच आत्मा और शरीर का सम्बन्ध होता है। शरीर के किसी भी हिस्से में किसी भी प्रकार की क्षति का दुष्परिणाम अंततः निवासियों के लिये हानिकारक सिद्ध होता है। अतएव प्राकृतिक जोखिमों को नजर अंदाज़ कर प्रकृति के साथ की गयी छेड़छाड़ एवं हस्तक्षेप अंततः स्वयं के पैरों में कुल्हाड़ी मारने जैसा होगा।

 

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