औद्योगिक स्वास्थ्य विज्ञान

Submitted by Hindi on Sat, 08/06/2011 - 12:39
औद्योगिक स्वास्थ्य विज्ञान मानव स्वास्थ्य विज्ञान का एक महत्वपूर्ण अंग है, क्योंकि इसके द्वारा जनता के एक बहुत बड़े श्रमजीवी भाग के स्वास्थ्य, कल्याण और मानव अधिकारों की रक्षा होती है। मशीनों के आविष्कार से उत्पन्न औद्योगिक क्रांति के पश्चात्‌ बहुत से उद्योग धंधे पनपने लगे, परंतु उनके फलस्वरूप समाज में जो अव्यवस्था आई उसकी ओर तत्काल ध्यान न देने के कारण उद्योगपतियों तथा श्रमिकों के दो परस्पर विरोधी वर्ग बन गए, जिनमें प्राय: संघर्ष होता रहता है। श्रमिक वर्ग की निर्धनताजन्य विवशता से अनुचित लाभ उठाकर धनलोलुप उद्योगपतियों ने अपने आपको अत्यधिक संपन्न बना लिया और श्रमिकों का शारीरिक, आर्थिक, सामाजिक और नैतिक पतन होता गया जिसके कारण वे भारवाही पशुवत्‌ जीवन व्यतीत करने लगे।

दुर्गंध धूलि, धूम्र और प्रधूम (फ़्यूम्स) युक्त दूषित संवातन (वेंटिलेशन), अपर्याप्त प्रकाश, अत्यधिक शीत, ताप या आर्द्रता, जनसंकुल (ओवरक्राउडेड) कोलाहलपूर्ण कार्यस्थल, अपर्याप्त भोजन, विश्रमा का अभाव, श्रांति (फ़टीग), क्लांति (स्ट्रेन) और दिन रात का घोर कष्टदायक परिश्रम, अल्पतम वेतन या मजदूरी, गंदी बस्तियों में असुविधापूर्ण आवास, शिक्षा, चिकित्सा, सामजिक न्याय और सुरक्षा का अभाव, आकस्मिक दुर्घटनाओं का बाहुल्य आदि के कारण श्रमिकों का जीवन साधारणत: दूभर रहता है। प्रति वर्ष अगणित ग्रामीण अपना परंपरागत कृषि कार्य और कुटीर उद्योग छोड़ बड़े उद्योगों में कार्य करने के लिए नगरों की गंदी बस्तियों में आ बसते हैं और कारखानों में अविराम परिश्रम कर अपना स्वास्थ्य गँवा देते हैं।

सन्‌ 1972 ई. में भारत में 1,80,00,000 व्यक्ति उत्पादक उद्योगों में काम कर रहे थे। 1973-74 में उक्त संख्या में और भी वृद्धि हुई है। अत: इतने व्यक्तियों के स्वास्थ्य तथा कल्याण के प्रति उदासीन रहना नैतिक अपराध है। भारत में अनेक निरोधसाध्य (प्रिवेंटिबिल) रोगों का नियंत्रण नहीं हो पाया, इस कारण श्रमिकों को रोगग्रस्त होने पर अपने धंधे से छुट्टी लेनी पड़ती है। निरोध साध्य रोगों के कारण उद्योग धंधों में श्रमिकों अनुपस्थिति कल कारखानों की दुर्घटनाओं के कारण होनेवाली अनुपस्थिति से कई गुनी अधिक है। मलेरिया, काला आज़ार आदि समष्टिगत रोगों (मास डिसीजेज़) के रोगियों की संख्या में पहले की अपेक्षा अब बहुत कमी हो गई है। आंत्रिक ज्वर (एंटेरिक फ़ीवर), प्लूरिसी, अतिसार, ज्वर, आमाशय व्राण (पेप्टिक अल्सर) श्रमिकों की अल्पकालीन अनुपस्थिति के मुख्य कारण हैं। दीर्घकालीन अनुपस्थिति क्षय, श्वास तथा कुष्ठ रोग के कारण होती है। व्यावसायिक रोगों में त्वचा तथा श्वास के रोगों का बाहुल्य है। क्षय रोग मुख्यत: नगरों में अत्यधिक फैला हुआ है। ट्यूबरक्युलीन परीक्षा से ज्ञात होता है कि भारत की लगभग आधी जनता क्षयरोग के संक्रमण (इन्फ़ेक्शन) से प्रभावित है। प्रतिवर्ष इस रोग के प्रति सहस्र पाँच नए रोगी पीड़ित होते हैं। पूर्ण तथा अल्प बेकारी (अनएंप्लायमेंट ऐंड अंडर-एंप्लायमेंट) इतनी अधिक है कि एक श्रमिक की रोगजन्य अनुपस्थिति की दशा में पचास अन्य श्रमिक प्राप्त हो सकते हैं। छोटे-छोटे उद्योगों में धनाभाव के कारण श्रमिकों के स्वास्थ्य तथा कल्याण के लिए कुछ भी नहीं किया जा सकता। सामाजिक सुरक्षा का लाभ केवल कुछ लाख श्रमिकों को ही प्राप्त है। श्रमिकों के हितार्थ कर्मचारी सरकारी बीमा अधिनियम के अंतर्गत जो धन देना पड़ता है उसे देकर उद्योगपतियों की यही धारणा है कि श्रमिकों के हितार्थ अब उनका कोई कर्तव्य शेष नहीं रहा। जो कुछ करना है वह इस अधिनियम के अनुसार स्थापित निगम को ही करना है। इस प्रकार की स्थिति भयावह है।

इन कष्टदायक और संकटापन्न परिस्थितियों में काम करनेवाले श्रमिकों की रक्षा के हेतु फैक्टरी अधिनियम के अंतर्गत फैक्टरियों के मुख्य निरीक्षक के अधीन सरकारी निरीक्षक, प्रमाणपत्रदाता सर्जन आदि नियुक्त किए गए हैं जो श्रमिकों को नाना प्रकार की सुविधाएँ प्राप्त कराते हैं और उनकी सुरक्षा एवं कल्याण संबंधी नियमों का पालन कराते हैं। पूरे 14 वर्ष से कम आयुवाले बालकों को किसी भी कार्य पर नहीं नियुक्त किया जा सकता। 18 वर्ष पूरा कर चुकनेवाले वयस्क श्रमिक कहलाते हैं, इससे कम अवस्था के किशोर श्रमिक कहलाते हैं। किशोर श्रमिकों को शारीरिक स्वस्थता का प्रमाणपत्र प्राप्त करना होता है और एक बिल्ला धारण करना पड़ता है। कोई भी वयस्क श्रमिक सप्ताह में 48 घंटे से अधिक और एक दिन में साधारणतया 9 घंटे से अधिक समय के लिए काम पार नहीं लगाया जा सकता। सप्ताह में एक दिन की पूरी छुट्टी और प्रतिदिन अधिक से अधिक पाँच घंटे तक काम कर चुकने पर कम से कम आधे घंटे का विश्राम दिया जाता है। धूति, धूम्र, प्रधूम तथा अत्यधिक शीतोष्णता और आर्द्रता आदि का समुचित प्रबंध कर परिवेश स्वास्थ्यानुकुल और सुविधापूर्ण बनाया जाता है। प्रकाश, संवातन (वेंटिलेशन) और जनसंकुलता संबंधी नियमों का पालन करना पड़ता है। हानि-लाभ-रहित लागत मूल्य पर जलपान, चाय, दूध, शर्बत, मिठाई, नमकीन, चबैना आदि खाद्य और पेय पदार्थों का प्रबंध किया जाता है। बड़ी फैक्ट्रियों में महिला श्रमिकों के दूध पीते बालकों के लिए उपचारिकाओं (नर्सों) की देख-रेख में उपचार गृह चलाए जाते हैं और ऐसे बालकों को दूध पिलाने के लिए श्रमिक माताओं को समय-समय पर छुट्टी दी जाती है। समुचित वेतन, सवेतन छुट्टियाँ तथा अन्य सुविधाएँ भी श्रमिकों को दी गई हैं।

आकस्मिक दुर्घटनाओं और उद्योगजन्य व्यावसायिक रोगों की रोकथाम तथा चिकित्सा की व्यवस्था की जाती है। स्वास्थ्य संरक्षण के हेतु प्राथमिक चिकित्सा (फ़र्स्ट एड) और शारीरिक स्वच्छता के हेतु स्नानागार और शौचालय स्थापित किए जाते हैं। स्त्रियों तथा किशोर श्रमिकों के लिए विशेष प्रकार के आपजनक कार्य वर्जित हैं। विभिन्न प्रकार के उद्योगों के लिए और मुख्य व्यावसायिक रोगों के लिए विशेष प्रतिबंध लगाए गए हैं। रासायनिक पदार्थों का निरापद रीति से उपयोग करना अनिवार्य है।

कर्मचारी राज्य बीमा अधिनियम (एंप्लॉयीज़ स्टेट इन्श्योरेन्स ऐक्ट) के अंतर्गत रोगावस्था, जरावस्था, अकाल मृत्यु, अपंगता आदि की दशा में चिकित्सा, आर्थिक सहायता या छुट्टी की व्यवस्था है। स्त्रियों के लिए मातृत्व सहायता के रूप में प्रसव के छह सप्ताह पूर्व से लेकर छह सप्ताह पश्चात्‌ तक तीन मास की छुट्टी और धन की सहायता मिलती है, रोगावस्था में सबकी चिकित्सा की जाती है। कर्मचारीगण, उद्योगपति, राज्य सरकारें तथा केंद्र सरकार इस नियम को चलाने के लिए नियमानुसार आर्थिक योग देती हैं। श्रमिकों को अपने वेतन से आय के अनुसार कटौती करानी पड़ती है। 400 रुपए मासिक से कम आयवाले श्रमिकों को ही ये हितलाभ (बेनिफ़िट) प्राप्त हैं। जिस स्थान में कर्मचारी सरकारी बीमा योजना अभी चालू नहीं की जा सकती है वहाँ कर्मचारी क्षतिपूर्ति अधिनियम (वर्कमेंन्स कंपेन्सेशन ऐक्ट) के अंतर्गत श्रमिकों का कारखानें में काम करने से अंगभंग, अशक्तता अथवा मृत्यु होने पर श्रमिकों या उनके परिवार के सदस्यों को आर्थिक सहायता मिलने की व्यवस्था है।

दुर्बल और असंतुष्ट श्रमिकों द्वारा किया गया उत्पादन कार्य निम्नकोटि का और मात्रा में कम होता है। उनकी कार्यक्षमता कम होने से उत्पादन कार्य पूर्ण रूप से लाभदायक नहीं होता। श्रमिकों की दशा सुधारने से उद्योगपतियों को भी लाभ होता है। भारत में उद्योग धंधों का श्रीगणेश संतोषजनक ढंग से नहीं हुआ। पश्चिमी देशों ने गत शताब्दी में जो भूलें कीं उनसे बचने का प्रयास नहीं किया गया। इस कारण कानपुर, अहमदाबाद, बंबई, कलकत्ता आदि में श्रमिकों की दशा अत्यंत शोचनीय हो गई थी। परंतु अब सरकार इस ओर जागरूक है और उद्योगपतियों तथा श्रमिकों के परस्पर संबंध सुधारते हुए, बहुमुखी कल्याणकारी योजनाओं द्वारा श्रमिक, उद्योगपति तथा उपभोक्ताओं के हितों में सामंजस्य स्थापित कर, नए-नए उद्योग चालू करने में सभी प्रकार की सहायता देती है।

मुख्य कार्य तो श्रमिकों तथा उनके परिवार को गंदी बस्तियों से निकालकर स्वच्छ परिवेश (एन्वाइरन्मेंट) में स्वास्थ्यप्रद आवासों में बसाने का है। इसके साथ ही उनकी आर्थिक दशा सुधार कर और उनकी व्यवसाय संबंधी कठिनाइयों को दूर कर उसको अधिक कार्यकुशल बनाना है। मालिक-श्रमिक-संघर्ष को शांतिपूर्ण और न्यायोचित ढंग से दूर कर परस्पर सद्भावपूर्ण सहयोग उत्पन्न करना है जिससे नए-नए उद्योग धंधे चालू कर उत्पादन बढ़ाया जा सके और व्यापक बेकारी दूर की जा सके। सामाजिक न्याय तथा सुरक्षा संबंधी मान्यताओं के आधार पर श्रमनीति निर्धारित करनी चाहिए। कृषि, कुटीर और बड़े उद्योगों में समन्वय स्थापित कर, खाद्य और अन्य आवश्यक पदार्थों का उत्पादन बढ़ाकर देश को आत्मनिर्भर बनाने की ओर सबको कटिबद्ध होना चाहिए। श्रमिकों के कल्याण द्वारा ही नवभारत का निर्माण संभव है।

औद्योगिक स्वास्थ्य सुधार श्रमकल्याण का महत्वपूर्ण अंग है। श्रमकल्याण से ही स्वास्थ्य में सुधार होता है, उत्पादन बढ़ता है और श्रमिकों का जीवनस्तर उन्नत होता है। फैक्टरी अधिनियम (1948), न्यूनतम वेतन अधिनियम (1948), बागान श्रम अधिनियम (1951), उत्तर प्रदेश वाणिज्य प्रतिष्ठान अधिनियम (1941), औद्योगिक विवाद अधिनियम (1947), श्रमजीवी पत्रकार अधिनियम (1955), कर्मचारी चीनी एवं चालक मद्यसार अधिनियम (1951), औद्योगिक आवास अधिनियम (1955), आदि अधिनियमों को गत कुछ ही वर्षों में जारी कर उद्योगों में काम करनेवाले श्रमिकों के कल्याण की ओर बड़ी तत्परता से कार्य हो रहा है।

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संदर्भ
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