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डॉ. दिनेश कुमार मिश्र की पुस्तक 'दुइ पाटन के बीच में'
गंगा की भूमि निर्माण का अर्थ था मानसी कटिहार रेल लाइन के दक्षिण नदी की पेटी का धीरे-धीरे ऊपर उठना और उसकी वजह से गंगा और उसकी सहायक नदियों के तलों में एक असंतुलन की सृष्टि, जिसके कारण रेल लाइन के उत्तर की जल निकासी में बाधा पैदा हो रही थी। इस इलाके में अब पहले से ज्यादा बाढ़ आना शुरू हो गया था। इस तरह जहाँ एक ओर आवागमन की व्यवस्था में दिनों-दिन सुधार हो रहा था, बाढ़ की स्थिति उसी अनुपात में रोज-ब-रोज बदतर होती जा रही थी।
अब एक नजर उत्तर बिहार पर डालें। यहाँ की गंगा घाटी प्रायः एक सपाट मैदान है। यहाँ जब भी रेल लाइन, सड़क या नहर बनेगी तो यह हमेशा भरावट में बनेगी और निश्चित रूप से पानी के बहाव की दिशा में रोड़े अटकाने का काम करेगी। उदाहरण के लिए हम चम्पारण को देखें। सन् 1794 में पूरे जिले में सरकार सारण (छपरा) से लेकर सरकार चम्पारण तक की केवल एक सड़क थी और वह भी इस बुरी हालत में थी कि बरसात के मौसम में यात्रियों को पानी में चलना पड़ता था। चम्पारण के कलक्टर ने 1800 में टिप्पणी की थी कि, ‘‘ऐसा नहीं लगता है कि जिले में कोई सड़क है’’ और उसने सिफारिश की कि व्यापार आदि को सुचारु रूप से चलाने के लिए 280 किलोमीटर सड़कों का निर्माण किया जाय। 1845 आते-आते चम्पारण का जिला मुख्यालय मोतिहारी, छपरा, मुजफ्फरपुर, पटना, बेतिया, और सुगौली से जोड़ दिया गया था। बेतिया होते हुये मोतिहारी का सम्पर्क रामनगर, त्रिवेणी होते हुये नेपाल से हो गया था। हन्टर के अनुसार 1876 में चम्पारण में सड़कों की लम्बाई 700 किलोमीटर तक जा पहुँची थी।सड़कों का यह विस्तार 1600 किलोमीटर (1886), 1666 किलोमीटर (1899), 2091 किलोमीटर (1906), तथा 1938 में 3770 किलोमीटर हो गया था। इन सड़कों ने यातायात तो जरूर सुधारा मगर पानी का रास्ता रोक दिया। 1896 के अकाल के बाद राहत कार्यों की शक्ल में त्रिवेणी नहर का निर्माण हुआ जो कि प्रायः भारत-नेपाल सीमा के समानान्तर पश्चिम से पूरब की दिशा में जाती थी जबकि जमीन का ढाल उत्तर-पश्चिम से दक्षिण-पूरब की ओर था। इस नहर से अटके पानी और लगातार नहर के टूटते रहने के कारण इसके रख-रखाव के लिए बहाल इंजीनियर कभी चैन से नहीं सो पाये। इस तरह की घटनायें उत्तर बिहार में अनेक स्थानों पर हो रही थीं। उत्तर बिहार में रेल सेवा की शुरुआत 1 नवम्बर 1875 को हुई जब समस्तीपुर होते हुये दलसिंह सराय से दरभंगा तक पहली बार गाड़ी चली थी। चम्पारण में रेल सेवा की शुरुआत 1888 में हुई और जब अंग्रेज भारत छोड़ कर गये तब चम्पारण में 317 किलोमीटर लम्बी रेल लाइन थी।
परिवहन सुविधा का विस्तार जरूरी था मगर जब यह बेतरह और अवैज्ञानिक तरीके से हो तब दूसरी किस्म की मुसीबतें पैदा होती हैं और अंग्रेजों ने यह मुसीबतें मोल ले ली हुई थीं। उधर नदियों के किनारे जमीन्दारों के तटबंध नए भी बन रहे थे और जो पुराने थे उनका रख-रखाव चलता ही था। धीरे-धीरे अंग्रेजों का किया हुआ उनके सामने आने लगा था। नदियाँ अपना पानी नहीं संभाल पा रही थीं क्योंकि वह संकरी हो रही थीं। गाद/बालू के जमाव के कारण उनकी पेटी ऊपर आ रही थी, तटबन्धों के बाहर की जमीन की उर्वराशक्ति घट रही थी क्योंकि उसे नदी का ताजा पानी नहीं मिलता था, जल-जमाव और पानी का अटकना आम बात होने लगी जिससे मलेरिया और उस जैसी बहुत सी जान-लेवा बीमारियाँ फैलने लगीं। इन सबके ऊपर जो सबसे बड़ी बात थी वह यह कि तटबन्धों के बीच फंसी नदियाँ एक तरह से विस्फोट के कगार पर पहुँच गईं जिसकी वजह से भारी बर्बादी और भीषण बाढ़ का सामना करना पड़ता था।
जल्दी ही तटबन्धों का रख-रखाव विभाग के लिए निहायत परेशानी का सबब बन गया क्योंकि सूखे मौसम में उसे तटबन्धों की मरम्मत करके उन्हें सही ऊँचाई और शक्ल देनी पड़ती थी और पूरी बरसात उनकी बाढ़ से सुरक्षा के साथ-साथ ग्रामवासियों के हमले से भी हिफाजत करनी पड़ती थी। सूखे के समय तो तटबन्धों पर दिन-रात नजर रखनी पड़ती थी मगर उसके बावजूद लोग (सिंचाई के लिए) तटबन्धों को काट देते थे जिससे थोड़े से इलाके पर फसलों को जरूर फायदा होता था मगर बाद में बड़े इलाके पर तबाही मचती थी।’’ इन्हीं सब झंझटों की वजह से अंग्रेजों ने दामोदर परियोजना से हाथ धो कर किसी तरह अपना पीछा छुड़ाया और इसी तजुर्बे की बुनियाद पर जब 1872 में उत्तर बिहार में गंडक परियोजना का प्रस्ताव किया गया तब लाट साहब ने उसे जैसे का तैसा लौटा दिया। तटबन्धों का तो काम तब कुछ हद तक रुका मगर रेल लाइनों का विस्तार निर्बाध गति से चलता रहा और रेल कम्पनी पर संभवतः पहली बार 1895 में सारण जिले में बंसवार चक पुल पर पानी की निकासी में बाधा पहुँचाने और बाढ़ लाकर किसानों की फसल का नुकसान करने का इल्जाम लगाया गया। रेल कम्पनी को एक नदी की धारा को छेंकने और उसकी वजह से किसानों को नुकसान पहुँचाने की भरपाई के लिए 60,000 रुपये का मुआवजा देना पड़ा था।
कोसी नदी पर जब कुरसेला में पुल बन रहा था तब उत्तरी क्षेत्र के सुपरिन्टेडिंग इंजीनियर एच.एन.सी. क्लोएट ने भागलपुर और संथाल परगना के कमिश्नर को एक पत्र लिखकर (पत्र संख्या 1537 दिनांक 6 अप्रैल 1897) आगाह किया कि इस पुल के निर्माण से बाढ़ की आशंका बढ़ेगी और अगर ऐसा होता है तो रेल कम्पनी को किसानों की क्षतिपूर्ति के लिए कहा जाना चाहिये। ‘‘पूरे इलाके में बिना पानी की निकासी की व्यवस्था किये बगैर ऊँचे तटबन्धों के निर्माण की वजह से प्राकृतिक बाढ़ के बदले प्रत्येक नदी घाटी में ऊपर तक पानी भरा रहेगा और यह तब तक भरा रहेगा जब तक या तो यह जमीन में रिसकर या फिर वाष्पीकरण की वजह से समाप्त न हो जाये। हमें ऐसी परिस्थिति से अपना बचाव करना चाहिये जिसके लिए सरकार ने आदेश भी जारी किये हैं मगर इसके अंजाम की तलवार हमेशा हमारे सिर पर लटकती रहेगी।’’
क्लोएट की कोशिश रंग लाई और भागलपुर के कमिश्नर ने बंगाल सरकार के राजस्व विभाग के सचिव को एक बहुत ही कड़ा पत्र (पत्रांक 133R दिनांक 11 अप्रैल 1897) लिख कर कहा कि, ‘‘रेल प्रशासन हमें अन्धेरे में रखता है और ऐसा लगता है कि वह हमारी उपेक्षा कर रहा है। उनके इन कारगुजारियों को बदनीयती के अलावा और कोई नाम नहीं दिया जा सकता। कम्पनी के कार्य-कलाप को मैंने लन्दन में भी देखा है जिससे मेरी इस धारणा को बल मिलता है कि वह पूंजी निवेश करने वालों के हितों की रक्षा करने के अलावा किसी भी चीज की कुर्बानी दे सकती है।’’ वास्तव में इस रेलवे बांध और नदी के पानी की निकासी के लिए आवश्यकता से कहीं कम जलमार्ग दिये जाने पर पूर्णियाँ के कलक्टर और गोण्डवारा नील फैक्टरी के मालिकों ने भी ऐतराज किया था मगर रेलवे कम्पनी बराण्डी, बोरो और छोटी कोसी जैसी नदियों पर बने पुलों पर कुछ अतिरिक्त जलमार्ग देकर और पूर्णियाँ के सम्बद्ध लोगों को कुछ ले-दे कर मामले को रफा-दफा कर देना चाहती थी।
वह इन लोगों को गंगा के उत्तर में हुये कुछ नुकसान की भरपायी करने के लिए भी तैयार थी। इस रफा-दफा समझौते पर 28 जनवरी 1898 को दस्तखत हुये मगर किसी तरह से यह राज भागलपुर के कमिश्नर को मालूम हो गया और उसने इस समझौते में भागलपुर और मुंगेर के प्रशासन को शामिल न किये जाने पर खासा ऐतराज जताया। उसने रेल कम्पनी को मजबूर कर दिया कि वह भागलपुर प्रशासन के साथ उसी तरह का समझौता करे जो कि उसने पूर्णियाँ के प्रशासन के साथ किया था और इस तरह के एक करार पर 5 दिसम्बर 1898 को दस्तखत किये गये। मगर रेलवे वाले मुंगेर प्रशासन को झांसा देने में कामयाब हो गये और वहाँ रेल लाइन का निर्माण बिना किसी झंझट के चलता रहा। 1904 की बाढ़ में जब मुंगेर में बेगूसराय के इलाके में इस रेलवे बांध के कारण, जो कि गंगा के समानान्तर चलता था, भारी तबाही हुई तब बाढ़ पीड़ित लोग रेलवे प्रशासन को मुआवजा देने के लिए खोजते रहे पर वह क्यों नजर आते?
सड़कों और रेलों का विकास कभी भी न रुकने वाली विकास की प्रक्रिया है। अंग्रेजों ने रेलों और सड़कों का विकास करके विद्रोहों को दबाने, कानून और व्यवस्था बनाये रखने तथा अपने व्यापार और मौज-मस्ती की पूरी व्यवस्था कर ली थी। उन्होंने पूरी तरह अपनी पकड़ प्रशासन पर मजबूत कर ली पर यहाँ से एक दूसरी समस्या का जन्म हुआ। गंगा की भूमि निर्माण का अर्थ था मानसी कटिहार रेल लाइन के दक्षिण नदी की पेटी का धीरे-धीरे ऊपर उठना और उसकी वजह से गंगा और उसकी सहायक नदियों के तलों में एक असंतुलन की सृष्टि, जिसके कारण रेल लाइन के उत्तर की जल निकासी में बाधा पैदा हो रही थी। इस इलाके में अब पहले से ज्यादा बाढ़ आना शुरू हो गया था। इस तरह जहाँ एक ओर आवागमन की व्यवस्था में दिनों-दिन सुधार हो रहा था, बाढ़ की स्थिति उसी अनुपात में रोज-ब-रोज बदतर होती जा रही थी।