Source
प्रसार शिक्षा निदेशालय, बिरसा कृषि विश्वविद्यालय, राँची, जनवरी-दिसम्बर 2009
शल्ककन्दीय फूल के रूप में ग्लैडिओलस विश्व स्तर पर कट-फ्लावर के रूप में उगाया जाता है। भारत में इसकी खेती बंगलुरु, श्रीनगर, नैनीताल, पुणे व उटकमण्डलम में वृहत रूप से होता है। झारखण्ड के धनबाद में अब इसकी खेती छोटे पैमाने पर आरम्भ हो चुकी है। इसकी खेती गृह बाजार तथा निर्यात, दोनों हेतु किया जाता है। शीतकाल में ग्लैडिओलस का यूरोपियन देशों में निर्यात किया जाता है। जिसके कारण काफी विदेशी मुद्रा का अर्जन होता है।
किस्म
रंग के आधार पर इसके कई किस्म पाये जाते हैं। उगाए जाने योग्य अधिकतर किस्म जैसे मेलोडी, ट्रॉपीक, सिज, स्नो, प्रिन्स, फ्रेंडशीप, एप्पल, ब्लॉसम, किंग लियर इत्यादि नीदरलैंड में विकसित किये गए हैं। सागर, श्रीदूर, शक्ति, अग्निरेखा, श्वेता, सुनयना, नीलम, चिराग, बिंदिया, अंजली, अर्चना इत्यादि भारत में विकसित की गई है।
पादप प्रवर्धन
ग्लैडिओलस बीज, कंद व उत्तक संवर्धन द्वारा उगाए जाते हैं। उच्च गुणवत्ता के कंद विकसित करने के लिये 10-15 से.मी. की दूरी पर अवस्थित पंक्तियों में 5 से.मी. की दूरी पर छोटे कंदों को लगाया जाता है। जिससे प्रति हेक्टेयर 4-5 लाख बड़े कंद प्राप्त किये जाते हैं।
मृदा व जलवायु
ग्लैडिओलस की खेती के लिये भूमि का पी.एच. मान 5.5-6.5 रहना चाहिए। बलुआही, दोमट, पोषक तत्वों से भरपूर अच्छी जलनिकास वाली भूमि अच्छी होती है। पी.एच. ठीक करने हेतु चूना अथवा डोलोमाइट का प्रयोग करना चाहिए। इसकी खेती 15-25 सेंटीग्रेड तापमान तथा पर्याप्त प्रकाश में सबसे अच्छे तरीके से सम्भव है। बहुत ज्यादा आर्द्रता रोगों को बढ़ावा देता है।
जमीन की तैयारी
कंदों की रोपाई से करीब दो माह पूर्व 25-30 सेंटीमीटर की गहराई तक जमीन जोत लें एवं 40-50 टन प्रति हेक्टेयर कम्पोस्ट मिट्टी में मिला दें। रोपाई से 15-20 दिन पूर्व दूसरी जुताई कर दें।
कंद की रोपाई
2.5-4 सेंटीमीटर आकार के बड़े कंदों से शल्क को हटाकर 2.5 ग्राम डाइथेन एम- 45, 1 ग्राम बैविस्टिन प्रति लीटर पानी में घोलकर उपचारित करें। रोपाई की दूरी 10-20 से.मी. रखी जाती है। रोपाई की गहराई बड़े फूल वाले किस्मों हेतु 15 से.मी. व छोटे हेतु 5 से.मी. रखें।
रोपाई का समय
सितम्बर-नवम्बर (वर्षा ऋतु खत्म होने के बाद)
उर्वरक
अच्छे पुष्प उत्पादन हेतु 70-80 किलो नत्रजन, 100-110 किलो स्फूर तथा 60-65 किलो पोटाश प्रति हेक्टेयर उपयोग में लाना चाहिए। 4-5 पत्तों के अवस्था में दूसरी बार 60 किलो नत्रजन, 120 किलो स्फूर व पोटाश का उपयोग किया जाता है।
सिंचाई
ग्लैडिओलस को काफी सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है। रोपाई के पश्चात तुरन्त काफी परिमाण में सिंचाई की जाती है। गर्म मौसम में प्रति सप्ताह 2-3 सिंचाई की जाती है।
देखभाल
पौधों के जड़ों के आस-पास निराई-गुड़ाई कर मिट्टी चढ़ा दी जाती है। पुष्प आने तक खेत को खरपतवार विहीन रखें। डायूरॉन अथवा ट्रायफ्लूरालीन का उपयोग भी खरपतवार को नियंत्रित करने में प्रभावी होता है।
फूलों की तुड़ाई
रोपाई के 60-110 दिन बाद ग्लैडिओलस के पुष्प खिलते हैं। पुष्प की तुड़ाई प्रातः काल में की जाती है। तुड़ाई तेजधार चाकू से भूमि से 10-15 सेंटीमीटर ऊपर से की जाती है। तत्काल पुष्पगुच्छ को जल में स्थानान्तरित कर दिया जाता है।
ढुलाई के समय पुष्पगुच्छ को हमेशा खड़ा रखा जाता है। तुड़ाई के पश्चात तुरन्त इनका तापक्रम 2-5 डिग्री सेंटीग्रेड तक कम कर दिया जाता है। बाजार को ध्यान में रखकर 5 पुष्पगुच्छ का बंच बनाया जाता है। पैकेजिंग निर्यातक के माँग के अनुसार किया जाता है।
पुष्प उत्पादन
2-3 लाख पुष्पगुच्छ प्रति हेक्टेयर
पादप संरक्षण
रोग-कीट नियंत्रण हेतु हमेशा रोधी किस्म का व्यवहार, साफ-सुथरी खेती, रोग-कीट मुक्त व उपचारित बीज/कंद का प्रयोग किया जाता है। कवक जनित रोग नियंत्रण हेतु कंदों को बैविस्टिन का 2 ग्राम 1 लीटर पानी में घोलकर उपचारित कर लिया जाता है। जड़ों के पास सड़न बीमारी से बचाव हेतु कंदों को गर्म पानी अथवा बैविस्टिन का 2 ग्राम मात्रा प्रति लीटर पानी के घोल से उपचारित किया जाता है। कंदो के सड़न बीमारी से बचाव हेतु मिथाइल ब्रोमाइड द्वारा भूमि शोधन किया जाता है।
डैम्पींग आॅफ रोग व पर्णधब्बा बीमारी से बचाव हेतु 2.5 डायथेन एम-45 एक लीटर पानी में घोलकर छिड़काव किया जाता है। विषाणु जनित रोगों से बचाव हेतु रोग रहित कंद का प्रयोग किया जाता है तथा असर नजर आने पर तत्काल अस्वस्थ पौधों को उखाड़कर हटा दिया जाता है। लाही कीट को नियंत्रित करने से विषाणु जनित रोग भी नहीं फैलते। लाल मकड़ी के फैलने पर पत्ते व पुष्प दोनों प्रभावित होते हैं। पत्ते सिल्वर रंग के हो जाते हैं। इन कीटों के नियंत्रण हेतु नुवाक्राॅन (0.1-0.15 प्रतिशत) तथा केलथेन (0.025-0.04 प्रतिशत) का उपयोग लाभप्रद होता है।
पठारी कृषि (बिरसा कृषि विश्वविद्यालय की त्रैमासिक पत्रिका) जनवरी-दिसम्बर, 2009 (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।) | |
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2 | उर्वरकों की क्षमता बढ़ाने के उपाय (Measures to increase the efficiency of fertilizers) |
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4 | फसल उत्पादन के लिये पोटाश का महत्त्व (Importance of potash for crop production) |
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