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डॉ. दिनेश कुमार मिश्र की पुस्तक 'बागमती की सद्गति' से
पृष्ठभूमि
‘‘...मेरे पास जमीन नहीं है। बटइया करते हैं, मेहनत करते हैं, मगर जीते शान से हैं। मनखाप में एक साल में 12 से 15 मन अनाज मालिक को देना पड़ता है, बाकी उपज हमारी। साल में दो फसल होती है, काम चल जाता है। बटइया में आधी-आधी फसल बंटती है। खर्चा हर हालत में बटायीदार का होता है। ...खरसर में बागमती का मुँह खोल देने से तो यहाँ की हालत और भी खराब हो जायेगी। उस हालत में पुरानी बागमती के इस हिस्से पर भी बांध बनाना पड़ेगा। यह बात अलग है कि मिट्टी का बांध है तो टूटेगा ही। जब इस शरीर का ही कोई भरोसा नहीं है तो बांध का क्या भरोसा? देखिये, बांध कभी अपने से नहीं टूटता, तोड़ा जाता है। पब्लिक कुछ भी न करे तो भी बांध की रखवाली तो करती ही है।’’
बागमती परियोजना का निर्माण कार्य तीन स्तरों पर हुआ था। पहला निर्माण कार्य 1954-56 के बीच हायाघाट से लेकर बदलाघाट के बीच बनने वाले तटबंधों से शुरू हुआ। यह समय आजादी के लगभग ठीक बाद का था इसलिए उसकी रवानी में समाज और देश के काम आने की ललक हर आदमी में थी। यह वह समय था जब जनता सम्बंधित विभागों की योजनाओं पर विश्वास करती थी। जो नेता थे वह स्वतंत्रता आन्दोलन के तपे-तपाये लोग थे इसलिए उन पर भरोसा न करने का कोई सवाल ही नहीं उठता था। इस तरह से उस समय पुनर्वास के मसले पर न तो आम लोगों की कोई खास अपेक्षाएं थीं और न ही पुनर्वास को लेकर कोई खास झमेला हुआ। किसी को मुआवजे के तौर पर कुछ मिल गया तो ठीक वरना न मिलने पर भी किसी ने कोई शिकायत भी नहीं की और इसे समाज तथा देश के व्यापक हित में अपना योगदान समझ कर संतोष कर लिया। उस समय के बचे हुए पुराने लोग कहते हैं कि जिस जमीन से होकर तटबंध गुजरा था उस जमीन का मुआवजा उन्हें मिला था और उसके अलावा उन्हें कुछ नहीं मिला। जिनका घर दोनों तटबंधों के बीच में पड़ गया उनमें कुछ को तटबंध के बाहर घर बनाने के लिए कुछ जमीन मिल गयी। घर बनाने के लिए किसी को कोई अनुदान नहीं मिला।उन दिनों कोसी परियोजना में पुनर्वास का विषय जरूर कुछ चर्चा में आ गया था मगर निर्माणाधीन बागमती और बूढ़ी गंडक नदियों पर बन रहे तटबंध के समय पुनर्वास किसी चर्चा में नहीं था। वहाँ पुनर्वास के मसले को जैसे-तैसे निपटा देने की ही योजना थी। इस मुद्दे पर विधान सभा की कार्यवाही रपट में भी विशेष कुछ नहीं मिलता और निश्चयपूर्वक कुछ कह सकने वाले लोग भी बहुत कम ही बचे हैं। यह तटबंध बन जाने के कई वर्षों बाद 10 फरवरी 1965 को महावीर राउत ने विधान सभा में यह सवाल उठाया कि हायाघाट के नीचे जो लोग बांध के बीच में पड़ गए हैं उनकी हालत खराब हो गयी है और उनके बसने के लिए जमीन नहीं है। बांध बन जाने के कारण जमीन का दाम बढ़ कर 400 रुपये प्रति कट्ठा हो गया है। गरीब हरिजन इतना पैसा दे नहीं सकते। हसनपुर इलाके में 30-40 गाँवों के लोगों को बसाना होगा और सिंचाई विभाग तथा सरकार की यह जिम्मेवारी बनती है कि इन लोगों को जमीन दे। उन्होंने इस सवाल को एक बार फिर विधान सभा में 31 मार्च 1965 के दिन भी उठाया जिसके जवाब में सरकार की तरफ से महेश प्रसाद सिंह ने जरूर यह स्वीकार किया था कि करेह नदी के बांध से उजड़े हुए लोगों का कोई प्रबंध नहीं हो पाया है। यहाँ भूमिहीन लोग तटबंध पर ही रह रहे हैं। उन्होंने आगे कहा कि तृतीय पंचवर्षीय योजना में निधि के अभाव के कारण अभी तक कोई कार्यवाही नहीं हो पायी है। चतुर्थ पंचवर्षीय योजना में निधि के उपलब्ध होने पर पुनर्वास की कार्यवाही की जायेगी। पुनर्वास के इस आश्वासन का मतलब था कि तटबंध का काम तो पहली पंचवर्षीय योजना में हो जाना था मगर पुनर्वास के लिए उसके बाद कम से कम 10 वर्ष इंतजार करना था। बागमती के निचले हिस्से में पुनर्वास का मसला एक बार फिर 17 फरवरी 1966 को उठा जब महाबीर राउत ने ही वहाँ तटबंधों पर बसे लोगों को सरकार द्वारा हटाये जाने की धमकी दिये जाने का सवाल उठाया। उनका कहना था कि ऐसे लोग बड़ी दयनीय स्थिति में जी रहे हैं और वहाँ से हटाये जाने पर उनकी हालत और बदतर होगी। सरकार की तरफ से जो जवाब दिये गए वे गोल-मटोल थे। ग्राम कुण्डल, सिंघिया प्रखण्ड, जिला समस्तीपुर के गंगेश प्रसाद सिंह बताते हैं, ‘‘...जब यह तटबंध बन रहा था तब हम लोग बच्चे थे और चौथी-पाँचवीं कक्षा में पढ़ते रहे होंगे। पिताजी बताते थे कि सरकार से मुआवजे की अपेक्षा लोगों को थी मगर सरकार का यह कहना था कि प्रभावित लोगों को बॉण्ड दिया जायेगा। बॉण्ड क्या होता है इसका मतलब ही लोगों को नहीं मालुम था। जो समझते भी थे उनको भी बॉण्ड देने में इतना परेशान किया गया कि वे लोग भी थक हार कर बैठ गए और ककड़ी के मोल जमीन हाथ से निकल गयी। पुनर्वास किसी को मिला नहीं और तटबंध और नदी के बीच रहने वाले अधिकांश लोग तटबंध या उसके बगल की जमीन पर ही घर बना कर रह रहे हैं। इनकी संख्या में हर साल वृद्धि होती है क्योंकि जहाँ-जहाँ गांव नदी की धारा से कटते हैं या डूबते हैं, वहाँ-वहाँ के लोग तटबंध पर चले आते हैं।’’
कुछ इसी तरह की व्यवस्था के बारे में बताते हैं करांची (प्रखण्ड बिथान, जिला समस्तीपुर) के पूर्व अध्यापक राम सुधारी यादव, जिनका कहना है, ‘‘...पुनर्वास तो एक औपचारिकता थी जिसे जैसे-तैसे पूरा कर दिया गया था। यहाँ तटबंध के किनारे घनी बस्तियाँ हैं। यह जमीन सरकारी है। बरसात में पूरा इलाका डूबता है क्योंकि बांध कहीं न कहीं टूटता ही है-उसका पानी आता है। बारिश का पानी है ही। किसी भी आपात् स्थिति का सामना करने के लिए तटबंध के ऊपर शरण ली जा सकती है। इसलिए लोग बांध के नजदीक रहना पसंद करते हैं। कुछ परिवारों ने बांध के आस-पास जमीन खरीद कर भी घर बना लिये हैं।’’
बहुत से गाँवों का पुनर्वास हुआ ही नहीं और ऐसे गाँव अभी भी करेह के तटबंधों के बीच नारकीय जीवन जीने के लिए अभिशप्त हैं। ऐसा ही एक गांव है दरभंगा जिले के हायाघाट प्रखंड का अकराहा जो कि दरभंगा-समस्तीपुर रेल लाइन पर पुल संख्या 17 के पूरब में बसा हुआ है। यहाँ की अविश्वसनीय जीवन शैली के बारे में बताते हैं पचपन वर्षीय दामोदर यादव। वे कहते हैं, ‘‘...पुनर्वास तो कभी नहीं मिला। अगर मिला होता तो चले ही गए होते। हमारा गांव रेल लाइन के पूरब में है। कम से कम तीन महीनें तो पूरा पानी भरा रहता है। उस समय हम गांव छोड़ कर रेल लाइन पर या बांध पर चले जाते हैं। पानी घटता है तब लौटते हैं। बांध पर बाढ़ के समय तो सरकार रहने देती है मगर कहीं टूट-फूट हो जाए तब मरम्मत करने के लिए वहां से भी हटा देती है। हमलोगों की हालत 1987 के बाद से बहुत ज्यादा खराब हो गयी। यहां पास में खरसर के पास एक पंचफुट्टा (पांच फुट ऊँचा) बांध हुआ करता था। पानी ज्यादा बढ़ने पर उसके ऊपर से वह निकल जाया करता था और हमारे यहां पानी कम हो जाता था। 1987 के बाद सरकार द्वारा इसे ऊँचा और मजबूत बना दिया गया और तभी से हमारी बरबादी शुरू हो गयी। अब अगर पास में कहीं टूट जाए तो हमें फायदा होता है। दूर नीचे टूटने पर तो हमें कोई फायदा नहीं होता। जब बांध पर रहते हैं तो नाव से आकर घर-द्वार की हालत देख जाते हैं और फिर वापस बांध पर। तीन-चार महीनें तो बाहरी दुनियाँ से कोई संपर्क रहता ही नहीं है। गांव का प्राइमरी स्कूल भी इस दौरान बंद रहता है। ...एक ही फसल होती है यहां रब्बी की। गेहूँ, मकई के अलावा अब कुछ भी नहीं उपजता। बाहर जमीन है नहीं हमारी। रिलीफ आदि भी कुछ नहीं मिलता, कभी-कभी कोई मेहरबानी कर के कुछ दे गया तो बड़ी बात है। खर्चा-पानी के लिए तो गांव से बाहर निकलना ही पड़ता है। लहेरियासराय में मजदूरी कर लें या दिल्ली चले जायें। सिर्फ गेहूँ और मकई पैदा करके तो जीवन चलने वाला नहीं है। चावल खरीदना ही पड़ता है। रोजमर्रा की चीजों, शादी-ब्याह, जीवन-मरण सब के लिए तो नगद पैसा चाहिये। हमारे गांव के अधिकांश लोग दिल्ली के आस-पास सब्जी उगाने में मजदूरी करते हैं। गांव में कुछ लोगों के पास भैसें हैं-दूध होता है, लहेरियासराय में बेच लेते हैं। बरसात के महीनें में हम चाहे जहाँ भी रहें हमारा गांव से संपर्क बना रहता है। सुनते हैं कि बांध ऊँचा और मजबूत किया जायेगा। अगर ऐसा हुआ तो पानी हमारे घर के ऊपर से बहेगा और तब तो बांध पर ही रहना पड़ेगा क्योंकि हमारी हैसियत नहीं है कि कहीं अपनी जमीन खरीद कर घर बना लें।’’
तटबंधों के आस-पास या उनके अंदर जहाँ ऐसी स्थिति है, तटबंधों से दूर भी हालात कोई बहुत अच्छे नहीं हैं। पुरानी बागमती का वह रास्ता जिससे वह बूढ़ी गंडक से मिलती थी, उसी के बायें किनारे का गाँव है हथौड़ी, मौजे धोबीपुर टोला, जिला दरभंगा-और यहीं कच्ची सड़क के दूसरी तरफ किशनपुर बैकुण्ठ गांव है, प्रखंड वारिस नगर, जिला समस्तीपुर। यह सड़क ही दोनों जिलों की सीमा बनाती है। बाढ़ के समय यहाँ गर्दन भर पानी रहता है। उस समय लोग यहां से उठ कर गांव के चौक के पास जहाँ सड़क ऊँची है, वहां चले जाते हैं अपने जानवरों के साथ। वहां भी पानी बढ़ता है तो चौकी पर ईंटें बिछा कर पहले अनाज बचाते हैं फिर उतनी सी ही जगह में पूरा परिवार रहता है। तब भी अगर पानी बढ़ता है तो वाटरवेज के बांध पर चले जाते हैं। पानी बहुत ज्यादा बढ़ने पर हथौड़ी कोठी के पास करेह नदी के बांध पर जगह मिल जाती है-जो यहां से 2-3 किलोमीटर पड़ता है। कुछ लोग बागमती के बांध पर मधुरापुर चले जाते हैं। तीन महीना इसी तरह यहाँ से वहाँ और वहाँ से यहाँ बिस्तर हटाने का इंतजाम करते बीत जाता है। अनाज रहता है मगर खाना बनाने का जुगाड़ नहीं बैठता। सारा जीवन नाव, बांस और तैरने पर निर्भर हो जाता है।
यहां पानी करेह का ही आता है भले ही यह नदी हायाघाट के नीचे बंधी हुई है मगर इसका तटबंध कहीं न कहीं हर साल टूटता ही है। तटबंध टूटा और यहाँ लोगों की हालत खराब हुई। फिर भी बाढ़ के पानी से फायदा होता है कि फसल अच्छी हो जाती है। इधर दो साल से तटबंध नहीं टूटा है तो किसानों को सिंचाई का इंतजाम करना पड़ रहा है। सरकार की कोई व्यवस्था है नहीं। प्राइवेट बोरिंग से 75 रुपया प्रति घंटा पर सिंचाई होती है। 6 कट्ठा मकई की सिंचाई के लिए साढ़े तीन घंटा पानी देना पड़ता है। क्या बचेगा ऐसे में? स्टेट बोरिंग रहती तो इतना खर्चा नहीं पड़ता मगर उसके लिए भी बिजली चाहिये जिसकी न तो कोई निश्चितता है और न समय। दिन में तीन घंटा भी निश्चित समय तक बिजली रहे और सारे दिन न भी रहे फिर भी किसान का काम चलता मगर इतना भी नहीं हो पाता है। धोबीपुर टोला के लक्ष्मी महतो अपनी हालत बड़े दार्शनिक भाव से बताते हैं, ‘‘...मेरे पास जमीन नहीं है। बटइया करते हैं, मेहनत करते हैं, मगर जीते शान से हैं। मनखाप में एक साल में 12 से 15 मन अनाज मालिक को देना पड़ता है, बाकी उपज हमारी। साल में दो फसल होती है, काम चल जाता है। बटइया में आधी-आधी फसल बंटती है। खर्चा हर हालत में बटायीदार का होता है। ...खरसर में बागमती का मुँह खोल देने से तो यहाँ की हालत और भी खराब हो जायेगी। उस हालत में पुरानी बागमती के इस हिस्से पर भी बांध बनाना पड़ेगा। यह बात अलग है कि मिट्टी का बांध है तो टूटेगा ही। जब इस शरीर का ही कोई भरोसा नहीं है तो बांध का क्या भरोसा? देखिये, बांध कभी अपने से नहीं टूटता, तोड़ा जाता है। पब्लिक कुछ भी न करे तो भी बांध की रखवाली तो करती ही है।’’