
यह खेत उत्तर बिहार के समस्तीपुर जिले के महमदा गांव स्थित अरविंद सिंह का है, जो मुजफ्फरपुर से पूसा रोड पर स्थित है। गांव में अरविंद सिंह का घर है लेकिन उनसे संपर्क नहीं हो सका। खेत के पास ही चाय की दुकान पर रामेश्वर पासवान नामक 80 साल के एक बुजुर्ग से मुलाकात हुई, जिन्होंने यहां की खेती के बारे में बताया। उनका कहना है कि हथिया नक्षत्र में पानी बरसा। न तो इससे पहले रोपनी के समय अच्छी बारिश हुई और न ही हथिया के बाद। धान की इस कमजोर फसल का सबसे बड़ा कारण यही है।
यह स्थिति तब है जब जिले और आस-पास के किसान इस साल को पिछले कुछ सालों की तुलना में कृषि, खासकर धान की खेती के लिहाज से बेहतर मान रहे हैं। ऐसे में पिछले सालों में क्या हुआ होगा, इसका अंदाजा आप खुद लगा सकते हैं।
इस तरह की कमजोर फसल वाला यह अकेला मामला नहीं है। उत्तर बिहार में आमतौर पर ऐसे खेत मिल जाएंगे। पिछले 20-30 सालों में इलाके की फसली स्थिति बद से बदतर ही होती गई है। मानसूनी बारिस की कमी, असमय वर्षा, गर्मी में बढ़ोतरी और अन्य प्राकृतिक कारणों के साथ ही कुछ कृत्रिम व प्रशासनिक कारण भी रहे हैं। लेकिन ध्यान देने वाली बात है कि जलवायु परिवर्तन के कृषि क्षेत्र पर पड़ने वाले जिस असर की बात विशेषज्ञ करते रहे हैं, उसका नतीजे की शुरुआत इन खेतों में देखी जा सकती है।
कृषि विशेषज्ञों का कहना है कि पिछले पचास सालों में मानसून एक महीना आगे खिसक गया है। इस बदलाव के कारण धान की कई शुरुआती किस्में पूरी तरह नष्ट हो गई। हां, प्रयोगशालाओं में विकसित नई फसलें जरूर आई हैं लेकिन स्वाद, पौधे, लागत और देखभाल में वह बात नहीं है। कृषि विज्ञान की प्रयोगशाला यहां से 20 किलोमीटर ही पूरब ढोली स्थित तिरहुत कृषि कॉलेज में है और राजेंद्र कृषि विश्वविद्यालय समस्तीपुर जिला स्थित पूसा में। पूसा में ही भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान की क्षेत्रीय इकाई भी है। यहां से धान की कई उन्नत किस्में विकसित की गई हैं।
हालांकि, राजेन्द्र कृषि विश्वविद्यालय में ठीक से कृषि पर जलवायु परिवर्तन के असर को लेकर कोई अध्ययन शुरू नहीं हुआ है, लेकिन यहां के वैज्ञानिक इस बात से वाकिफ हैं कि कृषि में जो प्राकृतिक स्तर पर बदलाव और असर पड़ रहा है, उसमें जलवायु परिवर्तन एक बड़ा कारक है। विश्वविद्यालय के मुख्य वैज्ञानिक (धान) और अध्यक्ष (पौधा जनन) डॉ. नितेन्द्र कुमार सिंह का मानना है कि जलवायु में हो रहे परिवर्तन का असर फसलों पर साफ देखा जा सकता है। उन्होंने बताया कि इस साल बारिश हथिया नक्षत्र के अंत में तो ठीक हुई। लेकिन उसके पहले और बाद में बारिश औसत से कम रही है। उत्तर बिहार के संदर्भ में औसत बारिश का मानक 1250 मिलीमीटर है जो इस साल मात्र 880 मिलीमीटर ही हुई। इसका असर लंबी अवधि में तैयार होनेवाले धान पर पड़ता है। कम अवधि और मध्यम अवधि में तैयार होनेवाली धान की किस्मों में तो किसान बोरिंग से सिंचाई करते हैं तो फसल ठीक हो जाएगी, लेकिन लंबी अवधि के धान में कृत्रिम सिंचाई का असर नहीं होता। इसमें चावल न होकर खखरा भर रह जाता है। काफी दिनों से ऐसे हालत रहने के कारण लोगों ने अब लंबी अवधि का धान लगाना ही बंद कर दिया है। लंबी अवधि का धान यानी 150 दिनों में तैयार होने वाली किस्में होती हैं। इससे भी कई किस्में खत्म हो गईं या खत्म होने के कगार पर है।