बदल रहा है लद्दाख का पर्यावरण

Submitted by Hindi on Fri, 06/01/2012 - 11:38
Source
चौथी दुनिया, 03 अगस्त 2011
देश के चुनिंदा पर्यटन स्थलों में लद्दाख का एक अलग ही स्थान है। दूसरे पर्यटन स्थलों पर लोग जहां केवल प्रकृति की अनुपम सुंदरता के दर्शन करते हैं वहीं लद्दाख में उन्हें प्रकृति के साथ-साथ इंसानी जीवनशैली भी आकर्षित करती है। लद्दाख अपनी अद्भुत संस्कृति, स्वर्णिम इतिहास और शांति के लिए विश्व भर में प्रसिद्ध है। दुनिया भर से लाखों की संख्या में पर्यटक खूबसूरत मठों, स्तूपों और एतिहासिक धरोहरों को देखने के लिए हर साल यहां का रूख करते हैं। बेतहाशा कचरा बढ़ने तथा पानी बर्बाद करने से लद्दाख का पर्यावरण बदल रहा है।

लद्दाख में पानी की समस्या हमेशा से रही है। बढ़ते पर्यटन के कारण गेस्ट हाउस और होटलों की संख्या में तेजी से बढ़ोतरी हुई है, इससे पानी का बेतहाशा उपयोग हो रहा है। स्थानीय नागरिक पानी बचाने के लिए सूखे शौचालयों का प्रयोग करते थे, जो अब कम होता जा रहा है। घरों एवं होटलों आदि का कूड़ा-करकट खुले स्थानों पर फेंका जा रहा है, जिससे पर्यावरण और भी दूषित हो रहा है।

प्रदूषण वायु, जल और धरती की भौतिक, रासायनिक और जैविक विशेषताओं का एक ऐसा अवांछनीय परिवर्तन है, जो जीवन को हानि पहुंचा सकता है। दुनिया भर में हो रहे तथाकथित विकास की प्रक्रिया ने प्रकृति एवं पर्यावरण के सामंजस्य को झकझोर दिया है। इस असंतुलन के चलते लद्दाख जैसे सुंदर क्षेत्र भी प्रदूषण जैसी समस्या से प्रभावित हुए हैं। कुछ वर्ष पूर्व या कोई 25 वर्ष पहले हर मौसम का आगमन सामयिक होता था, मगर अब ऐसा नहीं है और इसमें कुछ अनिश्चितता आ गई है। लद्दाख में भीषण गर्मी के कारण हिमनद तेज गति से और कम समय में पिघल रहे हैं। इस कारण फसल के समय पानी यकायक गायब हो जाता है। पहाड़ों पर बर्फ लंबे समय तक नहीं रह पाती है, जिससे वहां घास नहीं उग पा रही है। घास न उगने के कारण वहां रहने वाले अनेक वन्यजीव इंसानी आबादी के निकट आ जाते हैं, जैसा कि विगत कई वर्षों से देखा जा रहा है।

यदि मौसम में ऐसी अनियमितताएं अगले 10 वर्षों तक चलती रहीं तो आशंका इस बात की है कि ये वन्यजीव लुप्तप्राय हो जाएंगे, क्योंकि ये गर्मी नहीं सह सकते। इसका उदाहरण वे बकरियां हैं, जिनसे पशमीना ऊन मिलता है। प्रकृति ने उन्हें ठंडे क्षेत्रों में पाला है, ताकि अधिकतम ऊन मिल सके, परंतु यदि इन क्षेत्रों में गर्मी इसी तरह बढ़ती रही तो कुछ समय बाद पशमीना मिलना दुर्लभ हो जाएगा। लद्दाख के अधिकतर गांव हिमनद के पानी पर निर्भर हैं। आज सर्दी में कम हिमपात के कारण हिमनद घटते जा रहे हैं और बढ़ती गर्मी के कारण शीघ्र पिघल भी रहे हैं। ऐसे में स्थानीय लोगों को शायद अन्य स्थानों की ओर पलायन करना पड़े, क्योंकि अगले 20-30 वर्षों में इन गांवों में पानी उपलब्ध नहीं होगा। पहले लेह में प्रदूषण मुख्यत: श्रीनगर जैसे विकसित पड़ोसी क्षेत्रों के कारण होता था, मगर अब तो लद्दाखी स्वयं इस स्थिति को बढ़ा रहे हैं।

आज लेह में मोटर गाड़ियों की संख्या बेहिसाब बढ़ गई है, क्योंकि हर व्यक्ति अपने पास कार रखना चाहता है और निर्माण गतिविधियों के दबाव के कारण भारी गाड़ियों की संख्या भी बढ़ी है। परोक्ष रूप से सेना भी इसमें योगदान कर रही है, क्योंकि उसकी भी भारी संख्या में गाड़ियां हैं और डीजल जनरेटरों का लगातार उपयोग भी कई कारणों से हो रहा है। बाहर से आए लोग भी प्रदूषण बढ़ाते हैं। एक तरफ जहां श्रमिक गर्मी पाने और खाना पकाने के लिए रबड़ के टायर, प्लास्टिक और पुराने कपड़े आदि जलाते हैं, वहीं गर्मी में जब पर्यटन चरम सीमा पर होता है तो पर्यटक पानी एवं अन्य पेय पदार्थों की बोतलें और खाने के सामान की थैलियां आदि जगह-जगह फेंकते रहते हैं।बढ़ते कचरे की वजह से बदल रहा है लद्दाख का पर्यावरणबढ़ते कचरे की वजह से बदल रहा है लद्दाख का पर्यावरणलद्दाख में पानी की समस्या हमेशा से रही है। बढ़ते पर्यटन के कारण गेस्ट हाउस और होटलों की संख्या में तेजी से बढ़ोतरी हुई है, इससे पानी का बेतहाशा उपयोग हो रहा है। स्थानीय नागरिक पानी बचाने के लिए सूखे शौचालयों का प्रयोग करते थे, जो अब कम होता जा रहा है। घरों एवं होटलों आदि का कूड़ा-करकट खुले स्थानों पर फेंका जा रहा है, जिससे पर्यावरण और भी दूषित हो रहा है। लद्दाख में सफाई एवं कचरा प्रबंधन की पारंपरिक व्यवस्था चरमरा रही है और आशंका है कि अनियंत्रित कचरा और मल एक दिन पानी के मुख्य स्रोतों को भी प्रदूषित कर देगा। एक अन्य प्रकार का प्रदूषण भी लद्दाख के शांत एवं रमणीय वातावरण को प्रभावित कर रहा है, बढ़ता हुआ शोर।

कुछ समय पहले तक सामाजिक अवसरों पर और त्योहारों में पारंपरिक ढोल (दमन) और बांसुरी (सुरना) के सुरीले-मीठे स्वर ही झंकृत होते थे। यह संगीत अब खो गया है, इसके स्थान पर अब आधुनिक तकनीक वाले साधनों द्वारा प्रसारित आवाजों का शोर ही सुनाई देता है। एक पुरानी लद्दाखी कहावत है, अमे ओमा नात मेत, गुख पे छवा गाल मेत अर्थात जैसे मां का दूध रोग मुक्त होता है, बहता पानी भी कीटाणु रहित होता है। लद्दाख के पुराने नागरिक आज बड़े दु:खी मन से अपनी लुप्त होती सुंदरता और नैसर्गिता को देख रहे हैं और सोच रहे हैं कि आने वाली पीढ़ियों के लिए क्या कोई इन्हें बचा पाएगा, संजो पाएगा?