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दैनिक भास्कर, 22 मार्च 2012
पानी बचाना बना लिया धर्म, मंदिर में होते हैं रोज यही प्रवचन
हर व्यक्ति को हर रोज 145 लीटर पानी चाहिए। खेती के लिए और भी ज्यादा पानी चाहिए। अभी मिल भी रहा है। लेकिन कब तक? क्योंकि जमीन का पानी धीरे-धीरे सूख रहा है। बरसात के दिन घट रहे हैं। संकेत साफ है। अगर आज से ही पानी बचाना शुरु करेंगे तो निश्चित ही कल सूखा नहीं रहेगा। दैनिक भास्कर अपने पाठकों के जरिए जल सत्याग्रह अभियान में जुटा है ऐसे जल सैनिकों के जज्बे और जुनून को आगे बढ़ाने में। विश्व जल दिवस के मौके पर आइए मिलते हैं इनसे। खेती के तौर तरीके हों या रोजमर्रा के काम। कैसे छोटी-छोटी आदतों में बदलाव लाकर अपने क्षेत्रों को जल संकट से उबार सकते हैं, पढ़िए कुछ ग्राउंड रिपोर्ट.. राजस्थान के एक गांव के एक पुजारी जल सैनिक बन गए और पानी बचाने के लिए हर संभव कोशिश कर रहे हैं। बीकानेर का छोटा-सा गांव गारबदेसर। इस गांव की पहचान ओलम्पिक सिल्वर मेडलिस्ट निशानेबाज राज्यवर्द्धन सिंह के गांव के रूप में है। कुछ साल पहले तक प्राचीन लक्ष्मीनारायण मंदिर के कारण यह गांव पहचाना जाता था। इसी मंदिर के पुजारी किशन शर्मा ने दो दशक पहले तक गांव की औरतों को पानी के लिए तीन-तीन कोस दूर जाते देखा था। पानी के एक घड़े पर एक रुपया शुल्क देना होता था। जलदाय योजना आई। पानी घरों में आने लगा। बर्बादी शुरू हो गई। इस बर्बादी को देख शर्मा तैश में आ जाते और लोगों से कहासुनी और झगड़ा भी हो जाता था, मगर उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। धीरे-धीरे कुछ लोगों के बात समझ आने लगी। खासतौर पर प्रवचन सुनने के लिए मंदिर आने वाली महिलाओं को पानी बचाने लिए दी जा रही सीख काम आ रही थी। पानी बचाने को धर्म मानते हुए उन्होंने बर्बादी पर अंकुश लगाना शुरू कर दिया। देखादेखी कई पुरुष भी इस अभियान में आ जुटे। मंदिर में नियमित सुबह-शाम जल बचाने की नसीहतें दी जाने लगी । अब पूरा गांव जल बचाने के लिए जुट गया है। बुजुर्ग पृथ्वीसिंह चौहान कहते हैं, पहले हम पुजारी का मजाक उड़ाते थे मगर अब इनके साथ हैं।
ऐसे देते हैं बचत का मंत्र
• सुबह मंदिर खुलते ही गणेश अर्चना के तुरंत बाद मंदिर के माइक से पानी बचाने का अनुरोध
• आरती के बाद प्रवचन में पानी बचाने के तरीके बताना
• शाम को आरती के बाद और रात को ठाकुरजी के शयन से ठीक पहले यही प्रक्रिया।
• दिन में जिस गली से पंडितजी गुजरते हैं घर के आगे बहते पानी को देख रुक जाते हैं। दरवाजा खटखटाकर नसीहत देते हैं।
• जलापूर्ति के दौरान देर रात को भी गांव के कुछ लोगों के साथ गलियों में गश्त पर निकलते हैं। जिस घर से पानी बहता दिखे उसका दरवाजा खटखटाकर बर्बादी रुकवाते हैं।
जल वितरण के दौरान पानी की बर्बादी होती थी लेकिन अब हर घर में इस पर रोक लग गई है।
रेत से बर्तनों की सफाई, जल बचत की परंपरा लौट आई
भविष्य में आने वाले संकट से निबटने के लिए पूरी तरह तैयार हैं सिंगरासर के लोग, अपने बच्चों को भी सिखा रहे हैं पानी बचाने के पुराने तौर-तरीके। 10 साल पहले खेत में 20 फीट गहरा कुंड बनवाया था। इसी कुंड में बरसाती पानी इकट्ठा कर लेते हैं। किसान, पशु पालक, राहगीर व कई बार सेना के जवान भी इसी कुंड से प्यास बुझाते हैं। ऐसे कुंडों पर एक लंबी रस्सी बंधी बाल्टी रखी रहती है। जिससे पानी निकाला जा सकता है।
सिंगरासर के 73 वर्षीय पतराम भादू बताते हैं कि सूरतगढ़ तहसील के टिब्बा क्षेत्र के गांव सिंगरासर सहित अन्य क्षेत्रों में अक्सर पीने के पानी का संकट रहता है। इसीलिए लोगों ने घरों व खेतों में कुंड (टांके) बना रखे हैं, जिसमें बारिश का पानी एकत्र कर लिया जाता है। बारिश नहीं होने या कम होने पर यही कुंड सहारा बनते हैं। कुंड के पास एक खेली बनाई जाती है। जिसमें नीचे गिरने वाला पानी इकट्ठा होता जाता है, जिसे पशु, पक्षी व वन्य जीव पीते हैं।
पानी बचाने के तरीके भी अनोखे हैं। रावला क्षेत्र के गांव 9 पीएसडी में गोमतीदेवी ने पानी व साबुन की बजाय रेत से बर्तन साफ करने की परंपरा घर में कायम कर रखी है। इससे जहां पानी की बचत होती है वहीं रेत से हाथ भी खराब नहीं होते। अपनी पढ़ी लिखी बेटियों को बी उन्होंने यही सीख दी है।
यहां के कार्यालय में भी बरसाती पानी को सहेजने के लिए डिग्गी (छोटे भूमिगत पानी के टैंक) बनाई गई हैं। छत से पाइप के सहारे पानी को इन डिग्गियों में पहुंचा दिया जाता है। फिर साल भर इस पानी का उपयोग पीने और रोजाना के कामों में किया जाता है।
साबुन से बर्तन साफ करने में बहुत पानी लगता था। अब रेत का उपयोग किया जाता है।