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नेशनल दुनिया, 24 मार्च 2014
जल संकट नई बात नहीं है। यह लगातार बढ़ता जा रहा है। विकास के चाहे जितने बड़े-बड़े दावें किए जा रहे हों पर अब भी भारत के ही विभिन्न इलाकों में पानी का विकराल संकट है। लोगों को कई किलोमीटर दूर जाकर वहां से पीने के लिए पानी ले आना पड़ता है। कई इलाकों में जल स्तर इतना नीचे चला जा रहा है कि उसे खोज पाना मुश्किल होता जा रहा है। जहां पानी मिल भी जा रहा है वह इतना खराब होता है कि उससे कपड़े तक नहीं धोए जा सकते, पीने लायक तो वह कतई होता ही नहीं है।
संयुक्त राष्ट्र की एक ताजा रिपोर्ट में आगाह किया गया है कि आने वाले समय में जल संकट गहरा जाएगा। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि सन 2025 तक दुनिया की करीब 3.4 अरब जनसंख्या गंभीर जल संकट से जुझ रही होगी। यह संकट अगले 25 सालों में और भी गहरा हो जाएगा। यह इतना गहरा हो जाएगा कि पानी के लिए लोग एक दूसरे की जान के दुश्मन हो जाएंगे। इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि जल संकट का सबसे खराब असर दक्षिण एशिया खासकर भारत पर पड़ सकता है। ऐसा यहां की भौगोलिक स्थितियों के कारण होगा।वैसे तो यह रिपोर्ट जल दिवस के विशेष संदर्भ में तैयार और जारी की गई है लेकिन इसके कालातीत महत्व को समझने की आवश्यकता है।अगर इसे मात्र रस्मी मानकर चला जाएगा और यह सोचकर छोड़ दिया जाएगा कि इस तरह की रिपोर्ट हर साल जारी होती है तो हम एक ऐसे गंभीर खतरे की तरफ से आंख मूंद लिए होंगे जो भविष्य में हमारे जीवन को ही संकट में डालने वाला साबित हो सकता है। इस तरह का बढ़ता जल संकट मानवता के लिए बड़ी चेतावनी है।
जल संकट नई बात नहीं है। यह लगातार बढ़ता जा रहा है। विकास के चाहे जितने बड़े-बड़े दावें किए जा रहे हों पर अब भी भारत के ही विभिन्न इलाकों में पानी का विकराल संकट है। लोगों को कई किलोमीटर दूर जाकर वहां से पीने के लिए पानी ले आना पड़ता है। कई इलाकों में जल स्तर इतना नीचे चला जा रहा है कि उसे खोज पाना मुश्किल होता जा रहा है। जहां पानी मिल भी जा रहा है वह इतना खराब होता है कि उससे कपड़े तक नहीं धोए जा सकते, पीने लायक तो वह कतई होता ही नहीं है। जलाशय या तो सूखते जा रहे हैं या बच ही नहीं रहे हैं। नदियों का भी वही हालत होता जा रहा है।
देश की बहुत सारी नदियों में पानी इतना कम होता जा रहा है कि लगता ही नहीं कि वे नदी हैं। नाले समाप्तप्राय हैं। वर्षा के पानी को संचित करने की योजना नहीं है। नदियों को जोड़ने की महत्वाकांक्षी योजना का पता नहीं चल पाया कि वह कहां चली गई। इस सबसे ज्यादा चिंताजनक बात यह है कि जल संकट को लेकर किसी के भीतर यह उत्कंठा भी नहीं दिख रही है कि कैसे इस संकट को कम किया जाएगा।
यह समझने की जरूरत है कि चीजें दो तरफा चल रही हैं। एक तरफ तो पानी की जरूरत और मांग लगातार बढ़ रही है दूसरी तरफ इसकी उपलब्धता कम होती जा रही है। पानी की मांग बढ़ने के मामले में माना जा रहा है कि भारत 2050 तक चीन को पछाड़ देगा। तब 1.6 अरब लोगों के लिए जल संकट बहुत विकराल रूप धारण कर सकता है। यह भी ध्यान देने की बात है कि घरेलू, कृषि और औद्योगिक क्षेत्रों में हर साल कुल 829 अरब घनमीटर पानी का उपयोग किया जाता है। वर्ष 2025 तक इसमें करीब 40 प्रतिशत की वृद्धि हो सकती है। यह स्थिति जनसंख्या के अनुपात में और भी जटिल हो सकती है। जनसंख्या बढ़ती जा रही है। जब लोग बढ़ेंगे तो पानी की जरूरत भी बढ़ेगी ही लेकिन वह आएगा कहां से। हम प्रकृति के साथ लगातार खिलवाड़ करते जा रहे हैं। लोगों के समझ में ही नहीं आ रहा है कि वे क्या कर रहे हैं। वनस्पतियों और जंगल नष्ट करते जा रहे हैं। उनकी जगह कंक्रीट के जंगल खड़ा करते जा रहे हैं।
बाजारीकरण और व्यावसायीकरण की बदौलत प्राकृतिक दोहन इतना तेजी से बढ़ गया है कि प्राकृतिक संतुलन बिगड़ता जा रहा है। ग्लोबल वार्मिंग के खतरे का खतरा जितनी तेजी से बढ़ रहा है उतनी तेजी से उसकी अनदेखी की जा रही है। जिन लोगों को सुख-सुविधाएं उपलब्ध होती जा रही हैं वे शायद यह मानकर चल रहे हैं कि पूरी दुनिया उन्हीं की तरह सुखी है। वे यह भूल जा रहे हैं कि बहुत सारे लोगों की कीमत पर उनको सुविधाएं उपलब्ध कराई जा रही हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि कभी वह भी कम पड़ने लगे क्योंकि जिस तरह प्रकृति दोहन हो रहा है उससे यह खतरा बढ़ता जा रहा है कि एक दिन कुछ बचेगा ही नहीं।
हाल फिलहाल जिस तरह का मौसम चल रहा है वह संकेत माना जा सकता है आने वाले समय का। यह समय बरसात का नहीं है लेकिन लगातार बारिश हो रही है। ओले पड़ रहे हैं। इससे फसल तो बरबाद हो ही रही है, लोग बीमार भी हो रहे हैं। देखा जाए तो पूरा ऋतु चक्र ही बदलता जा रहा है। जब बरसात की जरूरत होती है तब सूखा पड़ जाता है। जब सूखे की जरूरत होती है तब बरसात होने लगती है। इससे सबसे ज्यादा प्रभावित फसल और किसान होते हैं। उनका सब कुछ बर्बाद हो जाता है। ऐसे में उनके सामने जीवन-मरण का सवाल खड़ा हो जाया करता है।
प्राकृतिक आपदा से बचाव का उनके पास कोई साधन भी नहीं होता। प्रकृति के हाथों वे खुद को मजबूर पाते हैं। सब कुछ सामान्य रहने पर तो वे किसी तरह अपनी फसल को बचा भी सकते थे लेकिन प्रकृति के कोप से खुद को कैसे बचा सकेंगे। हाल मे महाराष्ट्र समेत कई राज्यों में किसान इसलिए आत्महत्या करने को मजबूर हो रहे हैं कि हाल में आए आंधी-तूफान से उनकी पूरी फसल ही बर्बाद हो गई। यह सब हो रहा है तो सिर्फ इस वजह से कि हम विकास की अंधी दौड़ में प्रकृति और प्राकृतिक संतुलन को बिल्कुल भुला बैठे हैं।
अब जरा वास्तविक स्थितियों पर नजर डाली जाए और यह देखने की कोशिश की जाए कि इस संकट से पार पाने का हमारे पास क्या कोई उपाय है। एक अनुमान के अनुसार देश में हल साल औसतन चार हजार अरब घन मीटर बारिश होती है लेकिन इसमें से मात्र 18 फीसदी पानी का ही उपयोग हो पाता है। शेष बेकार चला जाता है। इसके उपयोग का कोई तरीका नहीं निकाला जा सका है।
इसका साफ मतलब यह होता है कि हमारे यहां जल संचयन का कोई इंतजाम नहीं है। इसके विपरीत मौसम को ठीक रखने और पानी की उपलब्धता के लिए वनस्पतियों और पेड़-पौधों का होना बहुत जरूरी होता है। लेकिन हो यह रहा है कि जंगल लगातार कम होते जा रहे हैं। पहाड़ों को खोदकर समतल कर दिया जा रहा है। नदियों को पाटा जा रहा है। गांवों में सिंचाई का एक महत्वपूर्ण साधन रहे तालाब लुप्त हो चुके हैं। नदियों में ही पानी नहीं है तो नहरों में कहां से आएगा। कुएं सूखते जा रहे हैं। तभी तो कुछ पर्यावरणवादी कार्यकर्ता यहां तक कहने लगे हैं कि अगला विश्वयुद्ध पानी के लिए लड़ा जाएगा।
हालात भले ही इतने खतरनाक न हुए हों पर कमोबेश हैं ऐसे ही है। इस खतरे को समय रहते समझने और इससे पार पाने की जरूरत है। इसके पहले कि जलसंकट विकराल रूप धारण करे, हमें आवश्यक उपाय कर लेने चाहिए अन्यथा प्रकृति के कोप से हम बच नहीं पाएंगे।