के.एन.जोशी
जनसंख्या की लगातार वृद्धि ने आज विकास के लक्ष्यों को बेअसर कर दिया है। मालथस का सिद्धान्त कहता है कि पृथ्वी में पोषण क्षमता सीमित है। अत: प्राकृतिक पारिस्थितिकी के पुनर्भरण की क्षमता के मध्य इसका सन्तुलित उपभोग करने पर ही पृथ्वी के प्राकृतिक संसाधन तथा पर्यावरण को लम्बे समय तक टिकाऊ रखा जा सकता है अन्यथा जनसंख्या की बेतहाशा वृद्धि प्रकृति के विनाश का कारण बन सकती है। आज विश्व की बढ़ती हुई आबादी की मांग की पूर्ति के लिए जिस तरह प्रकृति के नियमों को दरकिनार कर तीव्र गति के औद्योगिकरण, शहरीकरण व मशीनीकरण के माध्यम से प्राकृतिक संसाधनों का अन्धाधुन्ध दोहन हो रहा है उसी का परिणाम है कि हमारी सारी नदियां सूखती जा रही हैं। समुद्र प्रदूषित हो रहा है। जल, जंगल और जमीन घटते जा रहे हैं। कहीं बाढ़ तो कहीं सूखे का सामना करना पड़ रहा है। जलवायु परिवर्तन जैसे मुद्दे पर विश्वव्यापी बहस छिड़ गई है।
विश्व की 16.87 प्रतिशत जनसंख्या भारतीय भू-भाग पर निवास करती है। जनसंख्या का यह प्रतिशत लगातार बढ़ रहा है परन्तु दूसरी ओर भूमि का भाग स्थिर है। अत: प्रति व्यक्ति भूमि की उपलब्धता घट रही है। भारत की लगभग 75 प्रतिशत जनसंख्या गांवों में रहती है जिसकी आजीविका खेती, चारागाह तथा वनोत्पादन जैसे प्राथमिक व्यवसाय पर निर्भर है। आजादी के बाद सरकार ने पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से खेती की उन्नति के कई प्रयास किए। सिंचाई के साधनों का विकास किया तथा भूमि सुधार के माध्यम से खेती योग्य भूमि में भी विस्तार किया। फलस्वरूप सन् 1951 में जहां देश के कुल भौगोलिक भू-भाग का 36.20 प्रतिशत भाग खेती के योग्य था वह सन् 2001 में बढ़कर 43 प्रतिशत हो गया। इसमें सिंचित क्षेत्र जहां 1951 में 17.75 प्रतिशत था वह सन् 2001 में 40.52 प्रतिशत हो गया परन्तु इस विकास व विस्तार का अपेक्षित लाभ नहीं मिला। जनसंख्या में प्रति व्यक्ति हिस्सेदारी में भूमि में कमी होती गई। जनसंख्या वृद्धि के कारण ग्रामीण जीवन के जीविकोपार्जन के मूलभूत संसाधन घटते चले जा रहे हैं। यही स्थिति जल, ऊर्जा तथा अन्य खनिज संसाधनों की है।
इन सब प्रयासों के बावजूद भी जनसंख्या की प्राकृतिक वृद्धि दर अपेक्षा से अधिक ही रही। भविष्य में भारत में जनसंख्या वृद्धि की दर यही रहती है तो वह दिन दूर नहीं जब आम आदमी के जीवनयापन के लिए न्यूनतम साधन उपलब्ध कराना भी कठिन हो जाएगा। जीवन निर्वाह के सभी मूलभूत प्राकृतिक संसाधन और घट जाएंगे, पर्यावरण और अधिक प्रदूषित हो जाएगा तथा विज्ञान व प्रौद्योगिकी विकास की पूर्ण क्षमता होने के बावजूद मनुष्य के जीवन पोषण की पारिस्थिकी को बचाया नहीं जा सकेगा। अत: आवश्यकता इस बात की है कि जनसंख्या का नियन्त्रण हो तथा लोगों में इस बात की शिक्षा का प्रचार-प्रसार हो कि हमारे प्राकृतिक संसाधन जल, भूमि, ऊर्जा, खनिज आदि सीमित हैं तथा यह असीमित जनसंख्या का पोषण नहीं कर सकते। साथ ही प्राकृतिक संसाधन के संवर्द्धन तथा संरक्षण की भी ठोस योजना पर कार्य होना चाहिए।
जनसंख्या की लगातार वृद्धि ने आज विकास के लक्ष्यों को बेअसर कर दिया है। मालथस का सिद्धान्त कहता है कि पृथ्वी में पोषण क्षमता सीमित है। अत: प्राकृतिक पारिस्थितिकी के पुनर्भरण की क्षमता के मध्य इसका सन्तुलित उपभोग करने पर ही पृथ्वी के प्राकृतिक संसाधन तथा पर्यावरण को लम्बे समय तक टिकाऊ रखा जा सकता है अन्यथा जनसंख्या की बेतहाशा वृद्धि प्रकृति के विनाश का कारण बन सकती है। आज विश्व की बढ़ती हुई आबादी की मांग की पूर्ति के लिए जिस तरह प्रकृति के नियमों को दरकिनार कर तीव्र गति के औद्योगिकरण, शहरीकरण व मशीनीकरण के माध्यम से प्राकृतिक संसाधनों का अन्धाधुन्ध दोहन हो रहा है उसी का परिणाम है कि हमारी सारी नदियां सूखती जा रही हैं। समुद्र प्रदूषित हो रहा है। जल, जंगल और जमीन घटते जा रहे हैं। कहीं बाढ़ तो कहीं सूखे का सामना करना पड़ रहा है। जलवायु परिवर्तन जैसे मुद्दे पर विश्वव्यापी बहस छिड़ गई है।
विश्व की 16.87 प्रतिशत जनसंख्या भारतीय भू-भाग पर निवास करती है। जनसंख्या का यह प्रतिशत लगातार बढ़ रहा है परन्तु दूसरी ओर भूमि का भाग स्थिर है। अत: प्रति व्यक्ति भूमि की उपलब्धता घट रही है। भारत की लगभग 75 प्रतिशत जनसंख्या गांवों में रहती है जिसकी आजीविका खेती, चारागाह तथा वनोत्पादन जैसे प्राथमिक व्यवसाय पर निर्भर है। आजादी के बाद सरकार ने पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से खेती की उन्नति के कई प्रयास किए। सिंचाई के साधनों का विकास किया तथा भूमि सुधार के माध्यम से खेती योग्य भूमि में भी विस्तार किया। फलस्वरूप सन् 1951 में जहां देश के कुल भौगोलिक भू-भाग का 36.20 प्रतिशत भाग खेती के योग्य था वह सन् 2001 में बढ़कर 43 प्रतिशत हो गया। इसमें सिंचित क्षेत्र जहां 1951 में 17.75 प्रतिशत था वह सन् 2001 में 40.52 प्रतिशत हो गया परन्तु इस विकास व विस्तार का अपेक्षित लाभ नहीं मिला। जनसंख्या में प्रति व्यक्ति हिस्सेदारी में भूमि में कमी होती गई। जनसंख्या वृद्धि के कारण ग्रामीण जीवन के जीविकोपार्जन के मूलभूत संसाधन घटते चले जा रहे हैं। यही स्थिति जल, ऊर्जा तथा अन्य खनिज संसाधनों की है।
इन सब प्रयासों के बावजूद भी जनसंख्या की प्राकृतिक वृद्धि दर अपेक्षा से अधिक ही रही। भविष्य में भारत में जनसंख्या वृद्धि की दर यही रहती है तो वह दिन दूर नहीं जब आम आदमी के जीवनयापन के लिए न्यूनतम साधन उपलब्ध कराना भी कठिन हो जाएगा। जीवन निर्वाह के सभी मूलभूत प्राकृतिक संसाधन और घट जाएंगे, पर्यावरण और अधिक प्रदूषित हो जाएगा तथा विज्ञान व प्रौद्योगिकी विकास की पूर्ण क्षमता होने के बावजूद मनुष्य के जीवन पोषण की पारिस्थिकी को बचाया नहीं जा सकेगा। अत: आवश्यकता इस बात की है कि जनसंख्या का नियन्त्रण हो तथा लोगों में इस बात की शिक्षा का प्रचार-प्रसार हो कि हमारे प्राकृतिक संसाधन जल, भूमि, ऊर्जा, खनिज आदि सीमित हैं तथा यह असीमित जनसंख्या का पोषण नहीं कर सकते। साथ ही प्राकृतिक संसाधन के संवर्द्धन तथा संरक्षण की भी ठोस योजना पर कार्य होना चाहिए।
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विकिपीडिया से (Meaning from Wikipedia)
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