गंगा किनारे बसे राज्य के बारह जिलों भागलपुर, कटिहार, खगडिय़ा, मुंगेर, लखीसराय, बेगूसराय, समस्तीपुर, पटना, भोजपुर, बक्सर, वैशाली और सारण के लगभग 80 प्रखंडों में आर्सेनिक का खतरा मंडरा रहा है। हालांकि, वैज्ञानिक अभी यह बता पाने में अक्षम हैं कि जल में जहर के रूप में आर्सेनिक कहां से और कैसे फैलता जा रहा है, पर यह भी सच है कि इस खतरे से बांग्लादेश, पश्चिम बंगाल तथा नेपाल के भीतर का बड़ा हिस्सा भी प्रभावित है।तिलका मांझी विश्वविद्यालय भागलपुर के वनस्पति विभाग की टीम ने डा. सुनील कुमार चौधरी और पटना स्थित अनुग्रह नारायण कालेज के पर्यावरण और जल प्रबंधन विभाग के डा. एके घोष के नेतृत्व में एक सर्वे किया। इसमें भागलपुर होकर बहने वाली जमनिया नदी की सतह पर भी आर्सेनिक की मौजूदगी पायी। जमुनिया नदी गंगा से लिंक नदी है और इसी नदी के पानी का ट्रीटमेंट कर भागलपुर के लोगों को पानी आपूर्ति की जाती है। इस टीम का मानना था कि सूबे में तीस लाख के खर्चे से जगह-जगह ट्रीटमेंट प्लांट तो लगाये गये, पर उनमें से बीस प्रतिशत ही ठीक से काम कर रहे हैं। ज्यादातर ट्रीटमेंट प्लांट पानी से आर्सेनिक को निकाल पाने में सक्षम नहीं है।
खतरे की बात यह है कि आर्सेनिक से होने वाले रोग आज भी लाइलाज ही समझे जाते हैं और आज तक इसकी कोई दवा भी ईजाद नहीं की जा सकी है। हालांकि, राज्य सरकार ने इस ओर ध्यान देना शुरू किया है। इसी वर्ष 21 मार्च को पटना के तारामंडल में आर्सेनिक युक्त जल से मुक्ति पाने के उपायों पर विचार को कार्यशाला आयोजित की गयी। इस चिंता में केन्द्र भी शामिल हो चुका है और उसकी ओर से कई इलाकों (पटना के मनेर, हाजीपुर के बिदुपुर, बक्सर के सिमरी व बक्सर शहर) में ट्रीटमेंट प्लांट लगाने और आर्सेनिक मुक्त पानी उपलब्ध कराने के लिए पौने तीन सौ करोड़ की योजनाओं को मंजूरी दी गयी है। लोक अभियंत्रण विभाग अलग-थलग बस्तियों की भी पहचान में जुटा हुआ है। देखना तो यही है कि इन सरकारी प्रयासों से दिन-रात खतरे में जी रहे लोगों को आर्सेनिक युक्त पानी से कब छुटकारा मिल पाता है?
लेयर भी दे रहा खतरे का संकेत :
उत्तर बिहार में आम तौर पर 30 से 40 फुट पर पानी मिल जाया करता था। यह पीने के लिए भी मुफीद होता था। यानी इस लेयर पर चापाकल हो या कुआं, स्वच्छ और मीठा जल मिल जाता था।
पिछले पांच वर्षों में इस लेयर में जगह-जगह फर्क आया है। गंगा बेसिन का इलाका समझे जाने वाले समस्तीपुर में सर्वाधिक 40 फुट का फर्क दर्ज किया जा रहा है। अब वहां 70-80 फुट की गहराई में जाने पर ही पानी मिलता है। अन्य जिलों में यह फर्क 10-20 फुट का है। यह लेयर पानी मिलने का है। ताजा रिपोर्टों और स्थल परीक्षणों में पाया गया कि अब इस लेयर का पानी पीने योग्य बिल्कुल नहीं है। पीने का पानी 150 फुट या इससे नीचे उतरने पर ही मिल है। मधुबनी के कुछ इलाकों में इसका स्तर जहां 250 फुट की गहराई पकड़ चुका है, वहीं दरभंगा के कुछ इलाकों (मनीगाछी के कुछ क्षेत्रों) में 300 फुट से ऊपर जाने पर ही पीने योग्य पानी मिलता है।
समस्तीपुर के पटोरी, मोहनपुर, मोहिउद्दीननगर व गंगा दियारा इलाके में भी पानी पीने के लिए 320 फुट की गहराई पर ही चापाकल गाड़े जा रहे हैं। हिमालय की गोद में बसे चंपारण के दोनों जिले पूर्वी और पश्चिमी चंपारण भी गिरते जलस्तर से वंचित नहीं हैं। इस इलाके में जलस्तर सामान्य समझा जाता है, पर यहां भी यह एक से दो फुट नीचे खिसका है। हालांकि, इन इलाकों में चालीस से पचास फुट की गहराई पर पीने योग्य पानी मिल जाता है