Source
शोध प्रबंध ‘बिलासपुर जिले में जल-संसाधन विकास : एक भौगोलिक अध्ययन (Water Resource Development in Bilaspur District : A geographical study)’, भूगोल विभाग, रविशंकर विश्वविद्यालय, रायपुर, छत्तीसगढ़
बिलासपुर जिले का भौतिक पृष्ठभूमि : स्थिति एवं विस्तार
जल संसाधन से संपन्न बिलासपुर जिला मध्य प्रदेश के पूर्वांचल में अव्यवस्थित है। इस जिले का सर्वप्रथम अस्तित्व सन 1961 में आया। इसके पूर्व यह जिला मध्य प्रांत एवं बरार का एक भाग था। किंतु राज्यों के पुनर्गठन के बाद से (1956) यह मध्य प्रदेश के पूर्वी भाग का एक प्रतिनिधि जिला है।
बिलासपुर जिला 210-3’ से 230-7’ उत्तरी अक्षांश एवं 810-12’ से 830-40’ तक पूर्वी देशांतर के मध्य विस्तृत है। मध्य प्रदेश के रायपुर, दुर्ग, मंडला, शहडोल सरगुजा एवं रायगढ़ जिले, बिलासपुर जिले की सीमा बनाते हैं।
प्रशासकीय दृष्टि से 14 तहसीलों एवं 25 विकासखंडों में विभक्त इस जिले का क्षेत्रफल 1966.8 वर्ग किलोमीटर है, जो मध्य प्रदेश के कुल क्षेत्रफल का 4.5 प्रतिशत है। जिले की उत्तर-दक्षिण चौड़ाई 128 किमी एवं पूर्व-पश्चिम लंबाई 192 किमी है। बिलासपुर जिले की जनसंख्या 29.53 लाख व्यक्ति (1981) है। जो जिले के 13 शहरों एवं 3616 ग्रामों में निवास करती है। जिले की नगरीय एवं ग्रामीण जनसंख्या क्रमश: 3.99 लाख व 25.5 लाख है।
भौतिक पृष्ठभूमि
वस्तुत: भौतिक पृष्ठभूमि आर्थिक क्रियाओं के संपादन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। समष्टि के सभी भौतिक कारक भू-वैज्ञानिक, संरचना, अपवाह, जलवायु, वनस्पति आदि जल-संसाधन विकास की प्रक्रिया के आधार स्तंभ हैं।
भू-वैज्ञानिक संरचना
भू-वैज्ञानिक संरचना जल संसाधन विशेषत: भूगर्भ जल संसाधन के विकास में महत्त्वपूर्ण कारक है। भू-गर्भ जल कहाँ एवं कितना मिलेगा? उसका वितरण स्वरूप कैसा है? इन प्रश्नों के समाधान हेतु भू-वैज्ञानिक संरचना का अध्ययन आवश्यक है। बिलासपुर जिले के भू-वैज्ञानिक संरचना निम्नानुसार है -
आर्कियन शैल समूह
ये आधारभूत शैल समूह हैं, जो 300 मीटर से अधिक ऊँचे भागों में ही अनावृत हैं। ये चट्टानें विघटित तथा अपरदित हैं। जिले में इसका विस्तार उत्तरी उच्च भूमि एवं पठारी क्षेत्र में है। जिसके अंतर्गत ग्रेनाइट तथा नीस एवं धारवाड़ समूह की चिल्पी घाट क्रम की अवसादी चट्टानें सम्मिलित हैं। नीस शैल समूह का विस्तार मुख्यत: पर्वतीय ढलान एवं घाटीय क्षेत्र में बिलासपुर मैदान से लगा हुआ है। जिले के पश्चिमोत्तर भाग में स्थित मंडला जिले तक इसका विस्तार है। वहाँ से यह ढक्कन ट्रेप में सम्मिलित हो पुन: जबलपुर क्रम में गुलाबी, जामुनी, फाइलाइट, ग्रेनाइट के रूप में दिखाई देता है।
चिल्पी घाट क्रम
चिल्पी घाट क्रम की चट्टानों का विस्तार अनियमित धारवाड़ समूह की चट्टानों के साथ मुख्यत: बिलासपुर, बालाघाट एवं मंडला जिले तक है। रतनपुर के पश्चिमी क्षेत्र से प्रारंभ होकर यह क्रमश: पश्चिम की ओर मैकल श्रेणी तक विस्तृत है।
धारवाड़ क्रम
धारवाड़ शैल जो कि मुख्यत: आर्कियन के अवक्षेपन से प्राप्त मलबे के एकत्रीकरण से निर्मित है, चिल्पी घाट क्रम की चट्टानों के साथ लोरमी पठार के दक्षिणी भाग एवं मैकल श्रेणी क्षेत्र में विस्तृत है। रतनपुर के समीप इनका विशेष विस्तार दिखाई देता है। क्वार्टज, विष्ट एवं कठोर क्वार्टज स्तर से इनका निर्माण हुआ है। इनमें अधिकांश हरे रंग की है। अभ्रकीय विष्ट भी कहीं-कहीं पर देखी जा सकती है। लोरमी के पठार में प्रतिनातियाँ क्षयित हो समतल पठार में परिवर्तित हो गयी है।
कड़प्पा शैल समूह
जिले के दक्षिणी मैदानी भाग में कड़प्पा शैल समूह का विस्तार है। इसके दो उपविभाग है - निचला चंद्रपुर क्रम एवं रायपुर क्रम। लभगभग 60 से 300 मी. मोटी चंद्रपुर क्रम आर्कियन शैल समूह के ऊपर विषम विन्यस्त है। बालुका प्रस्तर, कांग्लोमरेट एवं क्वार्टजाइट प्रमुख चट्टानें हैं। सक्ती, जांजगीर एवं मुंगेली तहसील के मैदानी भागों में इस क्रम की चट्टानें पायी जाती हैं। इनके संस्तर क्षैतिज अवस्था में है तथा हल्के मोड़ों से युक्त हैं। बवरथाल की पहाड़ियाँ, दलहा पहाड़ क्वार्टजाइट युक्त बालुका प्रस्तर से निर्मित हैं रायपुर क्रम में अपेक्षाकृत कम मोटी चट्टानी संरचना है। इसके अंतर्गत मुख्य रूपेण शैल तथा चूना पत्थर की चट्टानें मिलती हैं। हिर्री की डोलोमाइट की चट्टानें इन्हीं चट्टानों का अंग है। अकलतरा एवं बाराद्वार में भी इस समूह की चट्टानों का विस्तार है।।
गोंडवाना शैल समूह
बाराकर एवं तालचिर चट्टानी श्रेणियाँ गोड़वाना युगीन चट्टानी संरचना का प्रतिनिधित्व करती हैं। ये चट्टानी जिले के उत्तर-पूर्वी भाग में मुख्य रूप से पायी जाती हैं, जिनका विस्तार क्रमश: दक्षिण पूर्वी भाग में रायगढ़ तथा उड़ीसा के संबलपुर जिले तक हुआ है।
तालचिर क्रम की चट्टानों का विस्तार मुख्यत: गौरेला (अंजली, सिंगबहार क्षेत्र) अमर कंटक तान नदी एवं अरपा बेसिन में है। बालुका प्रस्तर एवं शैल युक्त ये चट्टानें हैं, जिनकी मोटाई 198 से 200 मी. तक है। हसदो, रामपुर बेसिन क्षेत्र में हसदो नदी की घाटी में तालचिर क्रम की सघन एवं बारीक कणों वाली बालुका प्रस्तर युक्त ये चट्टानें पायी जाती हैं।
बाराकर क्रम की चट्टानों का विस्तार तालचिर श्रेणी की चट्टानों के ऊपर है। कोरबा, कटघोरा, केदा, मारविन क्षेत्र में बाराकर श्रेणी की चट्टानें पायी जाती है। सफेद एवं भूरे बालुका प्रस्तर शैल एवं कोयला प्रमुख चट्टानें हैं। कोरबा कोयला क्षेत्र की कोयले की तहें बाराकार क्रम की चट्टानों के रूप में हैं। कहीं-कहीं पर कोयले की तहें अनावृत्त हो गयी हैं। कोरबा बेसिन में 21 कोयले की तहें हैं, जिनकी मोटाई 31 मी. है।
लमेटा संस्तर
मैकल श्रेणी के ढलानों पर दक्कन ट्रेप संरचना के परवर्ती क्षेत्र में इस समूह की चट्टानों का विस्तार देखा जा सकता है। सिलिका एवं छिद्रयुक्त चूरे की चट्टानें क्रीटेशियम युग की हैं। जिले में इसका विस्तार मुंगेली तहसील, लोरमी के वन क्षेत्र, (791 से 866 मी. की ऊँचाई तक) एवं अमरकंटक के पठार पर है।
दक्कन ट्रेप
जिले की दक्कन ट्रेप की चट्टानें ऊपरी क्रीटेशियस युग की है एवं सामान्यत: मध्यम तथा बारीक कणों वाली हैं। संरचना की दृष्टि से अरंध्र है। मैकल श्रेणी की पहाड़ियों पर एवं समतल पठारों पर इस क्रम की चट्टानें विस्तृत हैं। इस काल के लावा प्रवाह की यह उत्तर-पूर्वी सीमा है। अमरकंटक के समीप इसकी मोटाई 204 मी. तक है।
लेटेराइट
कटघोरा का करेला पहाड़, पौनखेरा पहाड़ का चूना पत्थर स्रोत इन्हीं लेटेराइट चट्टानों के अंग हैं।
कॉप
यह नूतन जमाव है। जिले के दक्षिणी क्षेत्र में महानदी एवं हसदो नदी के तटवर्ती क्षेत्र में कॉप का जमाव पाया जाता है।
धरातलीय स्वरूप
भौतिक रूप से बिलासपुर जिले का स्वरूप अंडाकार है, जिसकी उत्तर-पूर्व, पूर्व एवं उत्तर-पश्चिम का भाग पर्वतीय है, जबकि सघन कृषि वाला समतल मैदानी एवं घनी जनसंख्या युक्त भूमि मध्य एवं दक्षिणी क्षेत्र में विस्तृत है। (पंडया, 1961, 12)
बिलासपुर जिले को भौतिक दृश्यों की समांगता एवं अपवाह स्वरूप के आधार पर दो वर्गों में विभक्त किया जा सकता है। 300 मीटर की समोच्य रेखा के आधार पर निम्नलिखित विभाग किये जा सकते हैं -
1. उत्तरी पर्वतीय एवं पठारी प्रदेश, तथा
2. दक्षिणी मैदानी प्रदेश
1. उत्तरी पर्वतीय एवं पठारी प्रदेश
उत्तरी पर्वतीय एवं पठारी क्षेत्र अपक्षयित एवं वलित ग्रेनाइट एवं नीस चट्टानों से निर्मित हैं। जिले के प्रमुख नदियों का उद्गम यही है। इस प्रदेश को निम्नलिखित उपप्रदेशों में बाँटा जा सकता है -
अ. मैकल श्रेणी
ब. पेण्ड्रा का पठार
स. लोरमी का पठार
द. हसदो-रामपुर बेसिन
इ. छुरी की पहाड़ियाँ, एवं
फ. कोरबा बेसिन
अ. मैकल श्रेणी
यह श्रेणी संकरी एवं टेढ़ी-मेढ़ी है किंतु ऊपरी सतह समतल अथवा तरंगित पठार के रूप में हैं। यह सतह सघन वनों से आवृत्त है। यह श्रेणी दक्कन ट्रेप से बनी है तथा समतल सतह बनने की प्रवृत्ति है। साथ ही लेटेराइट की मोटी तह है, जो छिद्रयुक्त होने के कारण जल के संग्रहण के लिये उपयुक्त स्थल है। (प्रमिला कुमार, 1968, 29)।
जिले में मैकल श्रेणी बहरामगढ़ शिखर (1127 मी.) से प्रारंभ होकर अमरकंटक (1057 मी.) पहाड़ी क्षेत्र का निर्माण करती हुई पश्चिम की ओर चली जाती है। यह श्रेणी मंडला एवं बिलासपुर जिले की सीमा बनाती है। पूर्व में यह श्रेणी तीव्र ढाल स्कार्प बनाती हुई क्रमश: पेंड्रा के पठार में समाहित हो जाती है। आधार से स्कार्प की ऊँचाई 15 से 225 मी. तक है। यह श्रेणी पेण्ड्रा के पठार से 610 मी. ऊँची है।
ब. पेण्ड्रा का पठार
मैकल श्रेणी के स्कार्प युक्त ढाल के पश्चात लगभग 525 मी. की ऊँचाई युक्त पेण्ड्रा का पठार दृष्टिगत होता है। गोरा पठार (581 मी.) प्रमुख पर्वत शिखर है। पूर्व में हसदो-रामपुर बेसिन एवं पश्चिमी मैकल श्रेणी के मध्य विस्तृत यह पठार ग्रेनाइट एवं नीस चट्टानी संरचना युक्त है। सोन, गुर्जर एवं हसदो नदी की सहायक जल धाराओं ने इस पठार को विच्छेदित कर दिया है। प्रारंभ में यह मैकल श्रेणी का ही एक भाग था। अब यह एक अपरदित सतह के रूप में विद्यमान है।
स. लोरमी का पठार
पेंड्रा के पठार के दक्षिण में मैकल श्रेणी से संलग्न लोरमी का विच्छेदित पठार है। हॉफ नदी इसकी पश्चिमी सीमा का निर्धारण करती है। इस पठार की ऊँचाई लगभग 820 मीटर है। इसका अधिकांश भाग सघन वनों से आच्छादित है। चंदेली पहाड़ इसका (821 मी.) सर्वोच्च शिखर है। लोरमी का पठार मुख्यत: दक्कन लावा में नीस युक्त उच्च भूमि है। दक्षिणी भाग धारवाड़ शीष्ट से निर्मित है। चट्टानों की दिशा पूर्व से पश्चिम होने के फलस्वरूप नदीघाटियाँ लंबी, संकरी तथा गहरी है। क्षेत्र में घने वनों के बीच अचानकमार, लमनी, कोतमी, निवास खार, शिवतराई के आस-पास खुले समतल भाग हैं।
द. हसदो-रापुर बेसिन
पूर्व में छुरी की पहाड़ियाँ एवं पश्चिम की ओर पेण्ड्रा के पठार के मध्य विस्तृत इस बेसिन की औसत ऊँचाई 450 मी. के करीब है। इस क्षेत्र का ढाल दक्षिण की ओर है। हसदो एवं उसकी सहायक छोटी जल-धाराएँ इस क्षेत्र में अपवाह का निर्माण करती है।
इ. छुरी की पहाड़ियाँ
तीव्रगामी नालों, तेज ढाल युक्त पहाड़ियाँ, कटकों एवं घने वन से युक्त यह उच्च प्रदेश जिले के पूर्वी, उत्तर-पूर्व भाग को आवृत किये हुए हैं। इन पर्वतीय श्रृंखलाओं के मध्य हसदो, बोराई, गज, तान, अहिरन एवं अन्य छोटे नाले प्रवाहित होते हैं। जिनके अपरदन के परिणामस्वरूप धरातलीय स्वरूप जटिल हो गया है। नदीघाटियों ने यातायात के मार्ग निर्मित किये हैं। इस क्षेत्र में गोंडावाना युगीन चट्टानें एवं ग्रेनाइट नीस शैल समूह का विस्तार है। इस क्षेत्र की औसत ऊँचाई 700 से 1050 मी. तक है। प्रमुख पर्वत शिखरों में पौनखेरा (969.9 मीटर), खरंगी पहाड़ (1003.6 मीटर), करेला पहाड़ (967.5 मीटर), महादेव पहाड़ (988 मीटर), बिजौरा पहाड़ (1003.6 मीटर) है। गज एवं चोरनाई नदियाँ हसदो नदी से क्रमश: पूर्व पश्चिम दिशा से आकर मिलती हैं। बड़नानी पहाड़, जनता पहाड़, लाम पहाड़, माहतीन एवं धाजग पहाड़ों की श्रृंखलायें, जिनकी ऊँचाई 750 मीटर से कम है, पूर्व से पश्चिम विस्तृत है।
फ. कोरबा बेसिन
छुरी की पहाड़ियाँ एवं पेण्ड्रा के पठार के मध्य यह स्थित है। यह क्षेत्र मुख्यत: हसदो का प्रवाह क्षेत्र है। अहीरन, टेगुरनाला तथा फुलखरी के किनारे भूमि कटी-फटी है। जो गोंडवाना बालुका प्रस्तर तथा शैल के विशेष अपरदन के कारण है। बेसिन के दक्षिण की ओर असांतत्य पहाड़ियों की श्रृंखला है। कहीं-कहीं पर अवशिष्ट एकांकी पर्वत भी विस्तृत हैं। बेसिन की सामान्य ऊँचाई 300 मी. के लगभग है।
2. दक्षिणी मैदानी प्रदेश
हसदो, मांद एवं बोराई नदियों ने अपने निचले भाग में विस्तृत समतल मैदानी भाग का निर्माण किया है। कड़प्पा बालुका प्रस्तर शैल एवं चूने के पत्थर के क्षैतिजिक संस्तरों में युक्त इस मैदान की औसत ऊँचाई लगभग 290-300 मी. है। मैदान का सामान्य ढाल मंद है तथा दक्षिण की ओर है। मैदानी क्षेत्र में दलहा पहाड़ (244 मी.) कठोर चट्टानी संरचना से युक्त अवशिष्ट पर्वत है, जो अपरदन प्रतिरोधी चट्टान के कारण एकांकी पहाड़ के रूप में विस्तृत है। संपूर्ण भू-दृश्य एक प्रौढ़ मैदान का है, जिसमें नदियाँ धीमे एवं लंबे विसर्पों में बहती है। उपजाऊ मैदान, समतल क्षेत्र समृद्ध प्राकृतिक प्रदेश के फलस्वरूप ग्राम्य जीवन सुदृढ़ है। धान इस क्षेत्र की प्रमुख फसल है।
ब. बिलासपुर का मैदान
बिलासपुर का मैदान छत्तीसगढ़ के मैदान का ही उत्तरी मध्यवर्ती विस्तार है। जिले के मुंगेली, बिलासपुर एवं जांजगीर तहसील में इस मैदानी क्षेत्र का विस्तार है। मैकल श्रेणी, पेंड्रा का पठार एवं कोरबा की पहाड़ियाँ इसकी उत्तरी सीमा का निर्धारण करती है। लगभग 200 कि. मी. पूर्व पश्चिम लंबाई एवं 50 से 80 किमी उत्तर दक्षिण चौड़ाई युक्त यह मैदान मुख्यत: कडप्पा युगीन चूना पत्थर एवं शैल चट्टानों वाला क्षेत्र है। मैदान का ढाल दक्षिण-पूर्व की ओर है। संपूर्ण मैदान की औसत ऊँचाई 200 मी. से अधिक नहीं है। मैदानी क्षेत्र के 2/3 से अधिक क्षेत्र में कृषि कार्य संपादित होता है। अरपा, खारून, लीलागन, मनियारी, हॉफ यहाँ की प्रमुख नदियाँ हैं, जो इस क्षेत्र में अपवाह स्वरूप का निर्माण करती है। अरपा नदी जिसके तट पर बिलासपुर नगर अवस्थित है। इस मैदानी क्षेत्रों को दो भागों में विभक्त करती है -
1. पूर्वी बिलासपुर का मैदान, तथा
2. पश्चिमी बिलासपुर का मैदान
1. पूर्वी बिलासपुर का मैदान
पूर्वी बिलासपुर का मैदान मुख्यत: लीलागर, खारून एवं अरपा नदियों द्वारा अपवाहित है। इस मैदानी क्षेत्र की औसत ऊँचाई 265 मी. है। धान इस मैदान की प्रमुख फसल है।
2. पश्चिमी बिलासपुर का मैदान
मनियारी, आगर, हॉफ नदियों के प्रवाह क्षेत्र वाले इस मैदान का विस्तार अरपा नदी के पश्चिमी तट से हॉफ नदी तक है। उत्तरी भाग में (पठारी भाग से संलग्न) इस मैदान की औसत ऊँचाई (360 मी.) दक्षिण भाग (शिवनाथ नदी से संलग्न) की अपेक्षाकृत अधिक है। इस मैदान में बहने वाली समस्त नदियों के शीर्ष मैकल श्रेणी अथवा लोरमी पठार में है। भूमि का ढाल दक्षिण की ओर मंद है। अरपा नदी के किनारे सामान्य ढाल 1:3:33 है। यह मैदान काली मिट्टी का क्षेत्र है, जो कि लावा प्रवाह से निर्मित है। गेहूँ यहाँ की प्रमुख फसल है।
अपवाह
अपवाह एवं जल संसाधन एक दूसरे के पूरक हैं। वस्तुत: जल संसाधन का स्वरूप ही अपवाह है।
बिलासपुर जिले का अधिकांश भाग (94.2 प्रतिशत) महानदी प्रवाह क्रम द्वारा अपवाहित है। लगभग 5.5 प्रतिशत भाग गंगा नदी प्रवाह प्रक्षेत्र के अंतर्गत आता है। शिवनाथ एवं उसकी सहायक नदियाँ महानदी प्रवाह क्रम का एवं सोन नदी क्रम गंगा नदी प्रवाह क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करती हैं। जिले के देवयरी शिखर, जो गौरेला के निकट स्थित है, से होकर ‘‘जल विभाज्य रेखा’’ गुजरती है। इस जल विभाज्य का उत्तरी भाग सोन एवं उसकी सहायक नदियों द्वारा अपवाहित हैं (वर्मा, 1961, 19)। दक्षिणी भाग महानदी एवं उसकी सहायक नदी क्रम से अपवाहित हैं। सोन नदी क्रम उत्तर की ओर तथा शेष सभी नदियों का प्रवाह क्रम दक्षिण एवं दक्षिण-पूर्व की ओर है। महानदी एवं शिवनाथ नदियाँ पूर्व की ओर प्रवाहित होती है एवं जिले की दक्षिणी सीमा का निर्धारण करती हैं। मैकल श्रेणी का दक्षिणी भाग (पश्चिमी सीमा रेखा के साथ) महानदी प्रवाह क्रम को नर्मदा प्रवाह क्रम से अलग करता है।
शिवनाथ एवं उसकी सहायक नदियाँ पश्चिम से पूर्व एवं दक्षिण-पूर्व की ओर प्रवाहित होती है। फोंक, हॉफ, टेसुओं, आगर, मनियारी, अरपा, खारून एवं लीलागर प्रमुख नदियाँ हैं, जो शिवनाथ में मिलती हैं। प्रथम छ: की उत्पत्ति मैकल श्रेणी से हुई है। शेष का उद्गम मध्यवर्ती पठारी क्षेत्र है। शिवनाथ एवं उसकी सहायक नदियों के अतिरिक्त जो नदियाँ महानदी में मिलती हैं, उनमें प्रमुख हसदो, बोराई मांद (रायगढ़) हैं, जो महानदी के उत्तरी तट पर उससे मिलती है। जिले की अधिकांश नदियाँ प्रौढ़ावस्था में हैं एवं उनका प्रवाह मंद हैं।
महानदी
महानदी बिलासपुर जिले की प्रमुख नदी है, जो उत्तरी उच्च भूमि के समस्त सतही जल को अपनी सहायक नदियों के माध्यम से एकत्र कर बंगाल की खाड़ी में गिरती है। रायपुर जिले की सिहावा की पहाड़ियों से निकल कर यह नदी प्रारंभ में दक्षिण-पश्चिम से उत्तर-पूर्व की ओर बहती है। लगभग 210-40’ अक्षांश एवं 820-30’ देशांश के निकट यह पूर्व की ओर मुड़ जाती है। यहीं से इसका प्रवेश जिले की सीमा में होता है। लगभग 32 किमी सीमा रेखा पार करने के पश्चात इस नदी में इसकी सहायक नदी हसदो आकर मिलती है। उसके पश्चात यह नदी क्रमश: पूर्व की ओर प्रवाहित होते हुए बंगाल की खाड़ी में गिरती है। महानदी का तल 1.5 से 2.25 किमी तक चौड़ा, उथला एवं रेतीला है। वर्षाऋतु में कभी-कभी बाढ़ आ जाती है। ग्रीष्म ऋतु में यह एक पतली धारा के रूप में बदल जाती है।
शिवनाथ महानदी की प्रमुख सहायक नदी है जो संपूर्ण पूर्वी भाग का जल लाती है एवं इसके संगम से ही महानदी एक चौड़ी वृहत जलधारा के रूप में दृष्टिगोचर होती है। उत्तर की अन्य सहायक नदियों में हसदो एवं मांद है। ये सभी नदियाँ सम्मिलित रूप से अभिकेंद्री प्रवाह प्रतिरूप बनाती है।
शिवनाथ नदी
पश्चिमी दुर्ग जिले की सीमा पर स्थित पहाड़ियों (625 मी.) से निकलने वाली यह नदी अपने प्रवाह क्षेत्र जल ग्रहण की क्षमता एवं लंबाई की दृष्टि से छत्तीसगढ़ की सबसे महत्त्वपूर्ण नदी है। यह महानदी की प्रमुख सहायक नदी है। यह नदी यद्यपि बिलासपुर जिले में प्रवाहित नहीं होती तथापि महानदी से मिलने के पूर्व जिले की लगभग 67 किमी सीमा रेखा का निर्धारण करती है। बैतुलपुर के समीप यह जिले में प्रविष्ट होकर खरगहनी ग्राम के निकट महानदी में विलीन हो जाती है। इस नदी का प्रवाह पूर्व की ओर है।
शिवनाथ नदी का तल प्रमुखत: चट्टानी है। कहीं-कहीं पर बालुका प्रस्तर के जमाव भी देखे जाते हैं। बिलासपुर के मैदान में हॉफ, आगर, मनियारी, अरपा तथा लीलागर नदियां शिवनाथ की सहायक नदियां हैं। यह नदी वर्ष भर जल से पूर्ण रहती हैं। नदी में बाढ़ की स्थिति अचानक एवं गंभीर होती है, जिसके परिणाम स्वरूप जलोढ़ मिट्टियों का उपजाऊ आवरण समीपस्थ क्षेत्र में बिछ जाता है। जिले में नदी की कुल लंबाई 352 किलो मीटर है।
हसदो नदी
हसदो नदी बिलासपुर जिले की सर्व प्रमुख नदी है जो सरगुजा जिले की देवगढ़ पहाड़ी 1230-30’ उत्तर एवं 820-30’ पूर्व से निकल कर जिले की चट्टानी एवं घने वनाच्छादित मातीन एवं उपरोरा क्षेत्र तथा चांपा के मैदान में प्रवाहित होती हुई अंत में शिवरीनारायण से 12 किमी दूर महानदी में विलिन हो जाती है। जिले में प्रविष्ट होने के 29 किमी के पश्चात गज नदी इसके दाहिने तट पर आकर मिलती है। नदी का उत्तरी भाग गहरा एवं संकरा है। तान नदी के मिलने के पश्चात (बांगों के समीप) नदी का तल चौड़ा, रेतीला एवं द्विपयुक्त हो गया है। हसदो एवं उसकी सहायक नदियाँ गोंडावाना चट्टानी संरचना के संधियों एवं विभागों का अनुसरण करती है। इसका प्रवाह स्वरूप सामान्यत: आयताकार है। कहीं-कहीं पर वृक्षाकार प्रवाह प्रणाली भी दृष्टिगत होती है। नदी प्रौढ़ एवं प्रवणित है जो निष्कोण वक्र बनाती है। नदी का प्रवाह क्षेत्र 3500 वर्ग किलोमीटर है। हसदो के बेसिन में उतरते ही उसकी सहायक नदियाँ छोटे-छोटे प्रपात बनाती है। नदी की कुल लंबाई 233 किमी है, जिसमें से 100 किमी बिलासपुर जिलान्तर्गत है। इस नदी पर वृहत सिंचाई योजना (हसदो-बांगों वृहत सिंचाई परियोजना) का निर्माण किया गया है। जिसके मातहत जिले के समस्त पूर्वी तहसीलों में सिंचाई हेतु आवश्यक जल प्राप्ति संभव हो सकती है।
बोराई नदी
कोरबा के पठार से निकल कर दक्षिण की ओर बहती हुई महानदी में मिलती है। इसका प्रवाह क्षेत्र लगभग 1810 वर्ग किमी है।
मांद नदी
मांद नदी का कुछ भाग ही जिले की सीमांतर्गत है किंतु सक्ती तहसील के गाँवों को इसकी अपवर्तता का लाभ मिलता है। मैनपाट (सरगुजा जिला) के दक्षिणी भाग में स्थित कुनकुरी क्षेत्र में इस नदी का उद्गम हुआ है। रायगढ़ एवं बिलासपुर जिले के मध्य सीमा बनाती हुई चंद्रपुर के निकट यह नदी महानदी में मिल जाती है। इस नदी का तल चौड़ा एवं रेतीला है। नदी का प्रवाह क्षेत्र 880 वर्ग किमी है।
अरपा नदी
अरपा नदी शिवनाथ नदी की सहायक नदी है। जिले के खोडरी गाँव के उत्तर में 9.66 किमी दूरी पर समुद्र सतह से लगभग 621.95 मी. की ऊँचाई से यह नदी निकलती है। उद्गम से धोबनपारा ग्राम के निकट तक यह उत्तर-दक्षिण एवं पूर्व की ओर प्रवाहित होती है। यह पहाड़ी क्षेत्र को छोड़ कर लोखंडी गाँव 220-12’ अक्षांश तथा 820-6’ देशांश जो कि अरपा के उद्गम के 17.58 किमी की दूरी पर स्थित है, के पास मैदानी भाग में प्रवेश करती है। नदी की कुल लंबाई 95.38 किमी है। मैदानी क्षेत्र में उसकी ऊँचाई 47.49 किमी है। बिलासपुर शहर के पास इसमें अधिकतर बाढ़ आ जाती है, शेष भाग में यह अपने किनारों तक ही सीमित है। नदी नाला, मतहनिया नाला, दाहिने किनारे पर एवं खारंग नदी, जवाली नाला, दायें किनारे पर इसकी प्रमुख सहायक नदियाँ है। नदी का प्रवाह क्षेत्र 7521 वर्ग किमी है।
लीलागर नदी
उत्तरी पर्वतीय क्षेत्र से निकल कर दक्षिण प्रवाहित होती हुई लीलागर नदी, महानदी में मिलती है, इसका प्रवाह क्षेत्र 1373 वर्ग किमी है।
मनियारी नदी
मैकल श्रेणियों से निकल कर दक्षिण पूर्व ढाल का अनुसरण करते हुए मनियारी नदी शिवनाथ नदी में मिलती है। इसकी कुल लंबाई 109 किलो मीटर है। आगर एवं टेसुआ इसकी प्रमुख सहायक नदियाँ हैं। इन नदियों द्वारा अपवाहित मिट्टियों के कारण मुंगेली तहसील का क्षेत्र उपजाऊ बन गया है। नदी का प्रवाह क्षेत्र 2885 वर्ग किमी है। इस नदी पर मनियारी जलाशय निर्मित है, जिससे सिंचाई की सुविधा समीपस्थ क्षेत्रों को प्राप्त हुई है।
हॉफ नदी
बिलासपुर जिले के पश्चिमी भाग में उत्तर से दक्षिण प्रवाहित इस नदी का प्रवाह क्षेत्र 725 वर्ग किमी है। शिवनाथ नदी की इस सहायक नदी का उद्गम मैकल श्रेणी से हुआ है।
सोन नदी
जिले के उत्तरी-पश्चिमी भाग में सोन नदी प्रवाहित होती है। क्षेत्र के सामान्य प्रवाह क्रम के विपरीत इस नदी का प्रवाह उत्तर की ओर है। जिले के अमरकंटक से उद्गमित होकर लगभग 48 किमी में एक सकरे बेसिन का निर्माण करती है। आगे उत्तर-पूर्व की ओर बहते हुए अंत में गंगा नदी में विलिन हो जाती है। गुजर नाला एवं खुरजी नाला इसकी प्रमुख सहायक नदियाँ हैं। नदी तल मुख्य रूप से विंध्यन क्रम के बालुका प्रस्तर से निर्मित है। नदी का प्रवाह क्षेत्र 964 वर्ग किमी है। जिले की अन्य छोटी नदियों में अहीरन, आगर, तान, टेसुआ इत्यादि प्रमुख हैं, जो जिले के अपवाह स्वरूप में अपना योगदान देती है।
मिट्टी
मिट्टी एवं जल संसाधन उपलब्धता का परस्पर सम्बन्ध है। वस्तुत: आर्द्रता के रूप में मिट्टी में जल की उपलब्धता एवं मिट्टी की जलग्राही क्षमता धरातलीय प्रवाह पर प्रभाव डालती है। जल चक्रीय व्यवस्था में मिट्टी की भी अहम भूमिका है।
जिले की मिट्टियों का गहन सर्वेक्षण नहीं हुआ है। गोविंद राजन एवं दत्ता (1970) के अनुसार - ‘‘क्षेत्र के गहन सर्वेक्षण का कार्य अभी नहीं हुआ है, तथापि मिट्टी के वर्गीकरण के अनेक उपक्रम विभिन्न शिक्षाविदों के द्वारा अपनाये गये हैं।’’ अखिल भारतीय मिट्टी एवं भूमि उपयोग सर्वेक्षण संस्थान के अनुसार जिले में लाल एवं पीली मिट्टी का बाहुल्य है। अन्य मिट्टियों में लेटेराइट, काली एवं लाल बलुई एवं लाल दोमट मिट्टी प्रमुख है।
गोविंद राजन एवं गोपाल राव (1971, 28) के अनुसार जिले की मिट्टियाँ लाल एवं पीली मिट्टी का प्रकार है। राय चौधरी (19, 27) के अनुसार जिले में मुख्यत: लाल एवं पीली मिट्टी ही पायी जाती है।
सामान्य रूप से जिले की मिट्टियों को निम्नलिखित तीन प्रमुख प्रकारों में विभक्त किया जा सकता है -
1. गहरी मृतिका मिट्टी
2. पीली बलुई दोमट मिट्टी
3. मिश्रित मिट्टी (गहरी एवं पीली मृतिका बलुई मिट्टी)।
स्थानीय रूप से इन मिट्टियों को क्रमश: कन्हार मिट्टी, मटासी मिट्टी एवं डोरसा मिट्टी के नामों से जाना जाता है। जिले की अन्य मिट्टियों में भाठा मिट्टी तथा कछारी मिट्टी है।
1. कन्हारी मिट्टी
इस मिट्टी का निर्माण बेसाल्ट, चूना पत्थर, शैल के अपरदन तथा विघटन से प्राप्त पदार्थों से हुआ है। कैल्शियम कार्बोनेट की उपस्थिति के आधार पर इस मिट्टी को दो वर्गों में विभाजित किया गया है -
अ. चूना युक्त कन्हार मिट्टी
ब. चूना रहित कन्हार मिट्टी
चूना युक्त कन्हार मिट्टी में कैल्शियम कार्बोनेट की मात्रा 5 प्रतिशत से अधिक होती है। एवं यह अत्यधिक उपजाऊ होती है। जबकि चूना रहित कन्हार मिट्टी में बेसाल्ट की बहुतायत होती है।
कन्हार मिट्टी में मृतिका की मात्रा 40 से 60 प्रतिशत तक पायी जाती है। कहीं-कहीं पर यह 60 प्रतिशत से भी अधिक मिलती है। बिलासपुर जिले की कन्हारी मिट्टी में लौह एवं मैग्नेशियम युक्त छोटे-छोटे कंकड़ भी पाये जाते हैं। गठन की दृष्टि से यह भुर-भुरी एवं हल्की है।
जलधारण क्षमता
इस मिट्टी में जल धारण क्षमता मृतिका के कारण बहुत अधिक होती है। यह 45 प्रतिशत से 70 प्रतिशत तक होती है। भारी कन्हारी मिट्टी में यह प्रतिशत अधिक होता है। मिट्टी का पीएच मान 7.5 से 7.7 तक है। अत: यह क्षारीय प्रकार की मिट्टी है। जब तक इस मिट्टी में जल की मात्रा उपलब्ध रहती है, यह गीली एवं सघन होती है। इसके अभाव में इसमें दरारें पड़ जाती है।
उपलब्ध जलधारण क्षमता
कन्हार मिट्टी में उपलब्ध जल धारण क्षमता 12-16 सेमी तक होती है, जो किसी मिट्टी में सर्वाधिक है। यह 10 सेमी में जल की गहराई का ‘कॉलम’ है। यह मिट्टी समतल एवं गहरी होती है अत: इनमें सभी फसलें जल विकास की व्यवस्था के उचित प्रबंध के बिना भी उगाई जा सकती है। धान, दलहन, सोयाबीन जैसी फसलें उचित जल के निकास की स्थिति में ही उगाई जा सकती है। किंतु रबी फसलों - गेहूँ, चना, मटर इत्यादि के लिये यह मिट्टी अत्यंत उपयुक्त है। अधिक जल धारण क्षमता के कारण असिंचित दशा में भी चना, मटर, सरसों जैसी फसलें ली जा सकती हैं।
विस्तार
कन्हार मिट्टी का विस्तार मुंगेली तहसील, जरहागाँव, हॉफ एवं फौक दोआब, पथरिया, पंडरिया, लोरमी तहसील के दक्षिणी भागों में है।
मटासी मिट्टी
यह मिट्टी दोमट या जल युक्त दोमट मिट्टी है। रंग हल्का पीला एवं हरा है। यह मिट्टी हल्की होती है। इनमें मृतिका का प्रतिशत 15-20 या उससे कम रह जाता है। बालूका की मात्रा में वृद्धि (80 प्रतिशत तक) देखी जा सकती है। मटासी मिट्टी का निर्माण मुख्य रूप से चूना युक्त शैल एवं बालूका प्रसार क्वार्टजाइट जैसी चट्टानों से हुआ है। जिसके फलस्वरूप मृतिका एवं सिल्ट का अंश बनता है।
मटासी मिट्टी में 35 से 85 प्रतिशत तक बालूका प्रस्तर, मृतिका 5 से 20 प्रतिशत, मोटे बालुमय कण 30 से 35 प्रतिशत तक हो सकते हैं। मटासी प्राय: उथली होती है। इनकी गहराई 20 से 50 मीटर तक होती है। इस मिट्टी के नीचे की चट्टानें कड़ी होती हैं। यह मिट्टी प्राकृतिक ढलान वाले क्षेत्रों में होती है अत: भूमि क्षरण की अधिकता रहती है।
जल धारण क्षमता
मटासी मिट्टी में जल धारण क्षमता कम होती है, इसमें उपलब्ध जल धारण क्षमता 3 से 9 सेमी तक होती है। मृतिका की उपस्थिति के आधार पर इसे दो वर्गों में विभक्त करते हैं - (1) दूधिया मटासी में मृतिका की मात्र 40 से 45 प्रतिशत तक होती है तथा (2) अधिक रेतीले प्रकार में 25 प्रतिशत तक होती है। पीएच मान 6.65 है। आर्द्रताग्राही नहीं होने के कारण इस मिट्टी में बिना सिंचाई के रबी फसल नहीं उगाई जा सकती है। इस मिट्टी में धान के अतिरिक्त मूंगफली, तिल, ज्वार, मक्का, कोदो एवं कुटकी की फसल भी उगाई जा सकती है। बिना मेढ़ वाली टिकरा भूमि पर अपरदन अधिक होता है।
विस्तार
हसदो-मांद के मैदान में व्यापक रूप से यह मिट्टी पायी जाती है। जांजगीर (जैजपुर क्षेत्र को छोड़कर) तथा सक्ती तहसील में यह मिट्टी प्रमुखत: पायी जाती है।
डोरसा मिट्टी
यह मिट्टी भूरे एवं पीले रंग की मिट्टी होती है। डोरसा मिट्टी का क्षेत्र कन्हारी मिट्टी के क्षेत्र से लगा हुआ मिलता है। प्राय: इनके निचले भाग में कन्हार एवं ऊपरी भाग में मटासी मिट्टी पायी जाती है। वस्तुत: यह मिश्रित मिट्टी है। इसमें मृतिका की मात्रा 35 प्रतिशत तक एवं सिल्ट की मात्रा 40 प्रतिशत से अधिक रहती है। इनका निर्माण बेसाल्ट, शैल एवं चूना पत्थर के साथ-साथ ग्रेनाइट, बालूका प्रस्तर एवं क्वार्टजाइट शैलों से प्राप्त पदार्थों से होता है। बिलासपुर जिले में क्वार्टज एवं शैल ही इसकी पैतृक चट्टानें हैं। इसका पीएच मान 7.3 से 7.6 तक होता है। यह हल्की क्षारीय प्रकार की मिट्टी है।
जल धारण क्षमता
डोरसा मिट्टी की जल धारण क्षमता अधिक होती है। इसमें कन्हार मिट्टी का अंश अधिक होता है। इस मिट्टी की उपलब्ध जल धारण क्षमता 9 सेमी से 12 सेमी तक आंकी गयी है। डोरसी मिट्टी में मृतिका की मात्रा 55 प्रतिशत से अधिक है, ऐसी मिट्टी में खरीफ के साथ रबी चना, गेहूँ तथा दालें भी असिंचित दशा में उगाई जा सकती है। प्राय: सभी फसलों के लिये यह उपयुक्त है। कुछ निचले स्थान में पाये जाने वाली डोरसा मिट्टियों में खरीफ दालें उगाने से जल निकास की समस्या उत्पन्न हो जाती है। समग्र रूप से यह खरीफ एवं रबी दोनों प्रकार की फसलों के उत्पादन के लिये उपयुक्त है।
विस्तार
डोरसा मिट्टी बिलासपुर तहसील में तखतपुर, कोटा तथा लीलागर एवं मनियारी नदी के मध्यवर्ती क्षेत्र में पायी जाती है। दूसरा क्षेत्र हसदो नदी के पूर्व में जांजगीर तहसील के जैजेपुर विकासखंड में विस्तृत है।
भाठा मिट्टी
यह सबसे हल्की एवं ऊँचाई पर पाई जाने वाली मिट्टी है। यह 10 से.मी से 14 से.मी तक की गहराई में मिलता है। यह कृषि के लिये अयोग्य भूमि है। लौह युक्त लाल भूरे रंग के 2 से 6 मिलीमीटर आकार के कंकड़ बड़ी संख्या में इसमें पाये जाते हैं। लेटेराइजेशन की प्रक्रिया के कारण इनका रंग गहरे पीले से लाल भूरा होता है। भाठा मिट्टी से मुरूम प्राप्त होता है, जो सड़क निर्माण कार्य में प्रयुक्त होता है। मिट्टी का पीएचमान 5.0 से 6.0 एवं नाइट्रोजन एवं ह्यूमस कम होता है, अतएव यह गैर कृषि कार्यों के लिये ही उपयुक्त है। कहीं-कहीं पर इस मिट्टी में मोटे अनाज जैसे - कोदो, कुटकी आदि अच्छी वर्षा की स्थिति में उत्पन्न किया जा सकता है।
विस्तार
प्राय: हर गाँव में 1/4 क्षेत्र भाठा जमीन के अंतर्गत आता है, वर्षांत में इन पर मवेशी चारण किया जाता है। गाँव में ऐसी मिट्टी वाले क्षेत्र में घर बनाये जाते हैं।
कछारी मिट्टी
नदियों के तटवर्ती उपयुक्त स्थान पर इनका विस्तार अधिक होता है। जिले में इसका प्रमुख आवरण समग्र रूप से महानदी तटीय क्षेत्र में मिलता है। अन्य नदियों के तटों में भी 1.5 हेक्टेयर की चौड़ी पट्टी में यह मिट्टी पायी जाती है। जलोढ़ मिट्टियाँ मृतिका युक्त दोमट एवं रेतीली होती है। शाक-भाजी, खरबुज आदि का उत्पादन इस पर किया जाता है।
इसके अतिरिक्त जिले के उच्च भूमि पर कई प्रकार की वनीय मिट्टियाँ पायी जाती हैं। जिनमें रेतीली (65 से 70 प्रतिशत रेत की मात्रा) मिट्टी, दोमट मिट्टी प्रमुख हैं।
जिले के उत्तर-पूर्वी भाग में धाखाड़ चट्टानों पर विकसित मृतिका युक्त दोमट प्रकार की मिट्टी मिलती है।
जलवायु
सामान्यत: बिलासपुर जिले की जलवायु भारतीय मानसूनी जलवायु व्यवस्था का ही अंग है। दैनिक एवं वार्षिक तापांतर, वर्षा की अनियमितता, जलवायु का ऋत्विक क्रम, जिले की जलवायु की प्रमुख विशेषता है।
कर्क रेखा के दक्षिण में स्थित होने के कारण यहाँ ग्रीष्म ऋतु उष्ण एवं शीत ऋतु अपेक्षाकृत ठंडी है। वर्षा मानसूनी है, जो जून से सितंबर की अवधि में केंद्रित है।
जिले के उच्चावच में विभिन्नता, वानस्पतिक आवरण आदि तथ्य स्थानिक रूप से वायुमंडलीय दशाओं को प्रभावित करते हैं। सामान्यत: जिले का अधिक तापक्रम मई के महिने में 400 से. एवं न्यून तापमान दिसंबर जनवरी में 10.90 रहता है।
कोपेन के वर्गीकरण के अनुसार यह जिला (उष्ण कटिबंधीय सवाना) प्रकार एवं थार्नथ्वेट के अनुसार (अत्यंत शीतकालीन वर्षा के साथ आर्द्र उष्ण कटिबंधीय जलवायु) के अंतर्गत सन्निहित हैं।
बिलासपुर जिले की ऋतुएँ भारत की ऋतुओं से भिन्न नहीं है, अर्थात जिले में भी मुख्यत: 3 ऋतुएँ होती हैं -
शीत ऋतु - नवंबर से फरवरी तक
ग्रीष्म ऋतु - मार्च से मध्य जून तक
वर्षा ऋतु - मध्य जून से सितंबर तक
अक्टूबर एक संक्रमणीय महिना है, जो शीत एवं वर्षा कालीन जलवायु दशाओं को समाहित किये रहता है।
शीत ऋतु
अक्टूबर से तापमान का क्रमश: कम होना एवं नवंबर में तापमान में तीव्र गिरावट शीतकाल के आगमन की सूचना है। कैण्ड्रयू के अनुसार - स्वच्छ आकाश, सुहावना मौसम, निम्न तापमान एवं आर्द्रता, सर्वोच्च दैनिक तापांतर तथा धीमी चलने वाली हवाएँ इस ऋतु की प्रमुख विशेषताएँ हैं।
तापमान
सामान्यत: औसत न्यूनतम तापक्रम 100 से 150 से. तक रहता है। अंतर्क्षेत्रीय दृष्टि से तापक्रम में विभिन्नता है। जिले के मैदानी क्षेत्रों में तापक्रम 130 से. (चांपा न्यूनतम) रहता है। पर्वतीय क्षेत्रों में सामान्यत: 100 से (न्यूनतम पेंड्रा) तापक्रम रहता है। दैनिक उच्चतम तापक्रम 27.280 से. चांपा (मैदान) में एवं 240 पेंड्रा (पर्वतीय क्षेत्र) में रहता है। दैनिक तापांतर 140 से 150 से. तक रहता है। साधारणतया सर्वाधिक शीत महिना जनवरी है, इस महिने का न्यूनतम तापक्रम 100 से. से भी कम रहता है। उत्तरी भागों में दक्षिणी क्षेत्र की अपेक्षा अधिक ठंड पड़ती है। जिले का सर्वाधिक न्यूनतम शीतकालीन तापक्रम 3.30 से. पेण्ड्रा में सन 1947 में अंकित किया गया था। चांपा में न्यूनतम तापक्रम 1950 में अंकित किया गया था।
वायुदाब एवं पवनें
शीत ऋतु में वायु दाब सामान्यत: 946 से 945 मिलीबार तक रहता है। पर्वतीय क्षेत्रों में मैदानी क्षेत्रों की अपेक्षा 1150 मिलीबार रहता है। तापक्रम न्यूनता इसका सामान्य कारण है। उच्च वायु दाब के कारण पवनों की गति मंद (4 से 3 प्रति सेकेंड) एवं ये अधोमुखी दशा में रहती है। सामान्यत: उनकी दिशा उत्तर एवं उत्तर-पूर्व हुआ करती है (आरेख क्रमांक - 1)।
वर्षा
इस ऋतु में वर्षा की मात्रा नगण्य है। संपूर्ण औसत वार्षिक वर्षा का 4.6 प्रतिशत भाग ही इस ऋतु में प्राप्त होता है।
जिले के विभिन्न भागों में शीतकालीन वर्षा का औसत विवरण सारिणी क्रमांक 4 में दर्शाया गया है।
ग्रीष्म ऋतु
तापमान मार्च के महिने में दिन के तापक्रम में पर्याप्त वृद्धि हो जाती है परंतु हवा के ऊपरी सतह तक उष्णता नहीं पहुँचने के कारण रातें शीतल ही रहती हैं। गर्म दिन एवं शीतल रात्रि दैनिक ताप परिसर में वृद्धि का कारक बनते हैं। वास्तव में मार्च अधिकतम ताप परिसर वाला महिना है जिसका मान पेण्ड्रा तथा चांपा में क्रमश: 150 एवं 160 से. है। अप्रैल माह में हवा की ऊपरी तहों में भी गर्मी पहुँचने के कारण रात्रि के तापमान में वृद्धि तीव्रता से होने लगती है। रात्रि के तापक्रम में वृद्धि के कारण दैनिक ताप परिसर में गिरावट आती है। अप्रैल माह में तापमान क्रमश: बढ़ते-बढ़ते मानसून प्रस्फोट के पूर्व अपनी चरम अवस्था में पहुँच जाता है। मई के महिने में दैनिक तापक्रम 440 से. तक पहुँच जाता है। पेण्ड्रा में दिन एवं रात्रि का औसत तापक्रम क्रमश: 39.30 से. एवं 26.10 से. तथा चांपा में क्रमश: 430 से. एवं 28.90 से. रहता है। स्पष्ट है मैदानी भाग अत्यधिक गर्म रहते हैं।
वायुदाब एवं सापेक्षिक आर्द्रता में गिरावट आती है। वायु भार लगभग 936 मिलीबार तक आंका गया है। सापेक्षिक आर्द्रता 24 से 30 प्रतिशत तक अंकित की गई है। मैदानी (चांपा) भागों में 20 प्रतिशत एवं दक्षिणी भागों में 15 प्रतिशत है।
हवाओं की गति सामान्यत: इस क्षेत्र में 5 प्रति किमी तक रहती है। इन हवाओं की दिशा उत्तर पश्चिम रहती है। कभी-कभी कहीं-कहीं पर पश्चिम एवं दक्षिण दिशा से भी हवाएँ चलती हैं। समग्र रूपेण हवाओं की दिशा परिवर्तनशील होती है। ये पश्चिमी हवाएँ अत्यधिक गर्म एवं शुष्क होती है। स्थानीय भाषा में इसे ‘‘लू’’ कहते हैं। ग्रीष्मावधि में पेण्ड्रा एवं कटघोरा के उच्च भागों में सघन वनों के कारण मौसम अपेक्षाकृत सुखद रहता है। इसके विपरीत दक्षिणी भाग में मौसम गर्म एवं शुष्क रहता है। इस अवधि में वर्षा अपेक्षाकृत कम होती है।
समग्र रूपेण मौसम शुष्क एवं गर्म हो जाता है। धरातलीय जलस्रोत सूख जाते हैं। अधिकांश क्षेत्र में जल की न्यूनता की स्थिति निर्मित हो जाती है।
वर्षाऋतु
जून के माह में मानसून प्रस्फोट के साथ ही जिले के तापमान में ह्रास होने लगता है। जून से अगस्त के मध्य मानसून अधिक प्रबल रहने के कारण इन महिनों के मध्य होने वाला तापमान ह्रास मई-जून की तुलना में अधिक होता है। जुलाई-अगस्त के मध्य होने वाला तापमान ह्रास औसतन 50 से. रहता है।
मेघा छान्नता अधिक होने के कारण तापांतर कम रहता है जिसका मान पेण्ड्रा में 50 से. एवं चांपा में 60 से. है। इस ऋतु में अधिकतम तापक्रम पेण्ड्रा में 28.70 से. एवं चांपा में मेघाछन्नता कम होने के कारण औसत तापमान में वृद्धि होती है। अधिकतम दैनिक तापमान चांपा में 31.80 से. है। परंतु अक्टूबर माह में औसत दैनिक तापमान कम होना आरंभ हो जाता है। अक्टूबर का औसत तापमान लगभग 23.80 से. पेंड्रा से 26.40 से. चांपा रहता है। औसत तापमान में कमी का प्रमुख कारण तापमान में तीव्र ह्रास है।
वायु भार औसतन 932 मिलीवार पेण्ड्रा से 971 मिलीबार चांपा तक रहता है। सापेक्षिक आर्द्रता में भारी वृद्धि होती है और यह वृद्धि 80 से 86 प्रतिशत अंकित की गई है।
वर्षा
सामान्यत: जिले में मानसून का आगमन 10 जून से 15 जून के मध्य होता है। इस अवधि में जिले के सभी भागों में अच्छी वर्षा होती है। लगभग 90 प्रतिशत वर्षा इसी अवधि में होती है।
सितंबर माह में मानसून के क्रमिक निवर्तन के साथ आर्द्रता तथा मेघाच्छन्न कम हो जाती है। अपेक्षाकृत साफ मौसम में आपतन की मात्रा बढ़ने के कारण सितंबर माह में तापमान में वृद्धि होती है। वर्षा की मात्रा कम हो जाती है। अक्टूबर का महिना संक्रमणीय होता है। वर्षा अपेक्षाकृत कम होती है एवं तापक्रम घटने लगता है और शीत ऋतु का प्रारंभ होने लगता है।
वनस्पति
जल और वन प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष दोनों ही रूप में अंतरसंबंधी हैं। एक ओर जहाँ पौधों एवं वृक्षों की प्रथम आवश्यकता जल है तो दूसरी ओर जल चक्र के संपादन में वनस्पति के रूप में अपनी भूमिका निभाती है। समतल भूमि की आर्द्रता बनाए रखना एवं बाढ़ को संयमित करने और नदियों के निरंतर एवं संतुलित प्रवाह को कायम रखने में भी वन सहायक सिद्ध होते हैं (करण, 1975, 66)।
बिलासपुर जिले के 21.6 प्रतिशत भाग में वनों का विस्तार है। जिले को वन विस्तार की दृष्टि से स्पष्टतया दो वर्गों में विभक्त किया जा सकता है। उत्तरी घने वन युक्त क्षेत्र तथा दक्षिणी न्यून अथवा नगण्य वन क्षेत्र जिले में वनों का विस्तार मुख्यत: लोरमी, पंडरिया, पेण्ड्रा कोटा एवं कटघोरा तहसील में है। जिले में वन लगभग 3,28,890 हेक्टेयर क्षेत्र में विस्तृत है।
बिलासपुर जिले की प्राकृतिक वनस्पति शुष्क, चौड़े पत्ते वाले मिश्रवन हैं। दक्षिणी भागों में कृषि क्षेत्र के विस्तार के फलस्वरूप वनक्षेत्र घट गया है। वनों का विस्तार 300 मीटर से अधिक ऊँचाई वाले क्षेत्रों में है। बिलासपुर जिले में मुख्यत: साल एवं मिश्रित वन पाये जाते हैं। संपूर्ण जिले को दो वन वृत्तों में विभक्त किया गया है।
1. बिलासपुर वन मंडल
2. कोरबा वन मंडल
जिले के वनों को प्रशासकीय आधार पर दो भागों में विभक्त किया जा सकता है -
1. संरक्षित वन एवं
2. आरक्षित वन
बिलासपुर जिले में संरक्षित वन लगभग 112.381 वर्ग किमी एवं आरक्षित वन लगभग 2976.79 वर्ग किमी क्षेत्र में फैले हुए हैं।
चैंपीयन एवं सेठ (1968) के वर्गीकरण के अनुसार बिलासपुर जिलों के वनीय क्षेत्र को निम्नलिखित विभागों एवं उपविभागों में विभक्त किया गया है :
अ- 1. उत्तरी उष्ण प्रदेशीय शुष्क पर्णपाती प्रायद्वीपीय वन
2. उ. उष्ण प्रदेशीय शुष्क पर्णपाती प्रायद्वीपीय साल वन
3. उ. उष्ण प्रदेशीय शुष्क पर्णपाती मिश्रित वन
4. सलई वन
5. मिश्रित वन
ब- 1. उत्तरी उष्ण प्रदेशीय आर्द्र पर्णपाती वन
2. उत्तरी उष्ण प्रदेशीय आर्द्र प्रायद्वीपीय साल वन
3. उच्च तलीय साल वन
4. शुष्क सघन बांस वन (यदि बांस उपलब्ध हो)
5. उत्तरी उष्ण प्रदेशीय आर्द्र मिश्रित पर्णपाती वन
प्रबंध एवं अध्ययन की सरलता की दृष्टि से जिले के वनों को निम्नलिखित प्रमुख विभागों में बाँटा जा सकता है -
साल के वन
सागौन के वन
शुष्क मिश्रित वन
बांस के वन
घास भूमि।
साल वन
बिलासपुर जिले में साल के वन बहुतायत में पाए जाते हैं। साल के वन लगभग 250768 हेक्टेयर भूमि (25.08 वर्ग किमी क्षेत्र में) आवृत्त हैं, जो कुल वनक्षेत्र का 76.2 प्रतिशत है। बिलासपुर जिले में साल वन के क्षेत्र मुख्य रूप से छुरी की पहाड़ियों, लाम्नी एवं लोरमी वन क्षेत्र के अंतर्गत पाए जाते हैं। बारीक कणों वाले धारवाड़ शिष्ट चट्टानों एवं गोंड़वाना युगीन चट्टानी संरचना वाले क्षेत्र में इनका विस्तार है। साल वनीय क्षेत्र अधिक वर्षण वाले क्षेत्र हैं। तथापि कुछ वन अपेक्षाकृत शुष्क क्षेत्रों में भी साल के वन मिलते हैं। मूलत: साल के वृक्षों का प्रसरण शीघ्र होता है। अत: जिले में इनका निस्तार अधिक है। जिले में दो प्रकार के साल वनों का विस्तार है -
1. आर्द्र साल वन एवं
2. शुष्क साल वन
प्रथम प्रकार के वृक्ष ऊँचे सीधे एवं वृक्षों का घनत्व 16 से 8 तक होता है। ये वनीय क्षेत्र सामान्यत: 175 सेमी या अधिक वर्षा वाले क्षेत्र है। लोरमी, केंदई, कोरबा, कोटा, छुरी, वनीय क्षेत्र इनमें सम्मिलित हैं। द्वितीय प्रकार के वन मध्यवर्ती पहाड़ी एवं पठारी क्षेत्र की वृक्षों का घनत्व 14 से 6 रहता है। 25-50 सेमी वर्षा वाले ये क्षेत्र हैं।
मिश्रित वन
जिले के मिश्रित वनों के प्रमुख वृक्ष साल, सागौन, शीशम, बीजा, जामुन, महुआ, सेमल, हर्रा आदि हैं। तेंदू, आंवला, पलास के वृक्ष भी इनके अंतर्गत सम्मिलित हैं। कई छोटी लताएँ भी अमरबेल, रामरतोस एवं कई छोटी महत्त्वपूर्ण बगई, रूसा, खर्रा घास भी पाया जाता है।
जिले में मिश्रित वन 158687 हैं। भूमि में विस्तृत हैं, जो कुल वनीय क्षेत्र का 33.8 प्रतिशत है। सामान्यत: ये वन उधले, तीव्र जल निकास वाले नदी के तटवर्ती क्षेत्र गहरी मिट्टियों, मंद ढाल वालों आर्द्र स्थानों पर पाए जाते हैं। पेंड्रा का पठार वन स्थल की पहाड़ियों के समीप प्रमुख रूप से इन वनों का विस्तार है।
बांस के वन
बिलासपुर जिले के कोटा, जाम्नी, लोरमी क्षेत्र में बांस के संपन्न वन मिलते हैं। ब्रजराजनगर के कागज के कारखानों के लिये कच्चे माल के रूप में बांस की आपूर्ति इन वनीय क्षेत्र से ही की जाती है।
बिलासपुर जिले में जल संसाधन विकास एक भौगोलिक अध्ययन 1990 (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।) | |
1 | बिलासपुर जिले की भौतिक पृष्ठभूमि (Geographical background of Bilaspur district) |
2 | बिलासपुर जिले की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि (Cultural background of Bilaspur district) |
3 | बिलासपुर जिले की जल संसाधन संभाव्यता (Water Resource Probability of Bilaspur District) |
4 | बिलासपुर जिले के जल संसाधनों का उपयोग (Use of water resources in Bilaspur district) |
5 |