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नई दुनिया, 28 अक्टूबर 2011
चीन यारलुंग झांगबो पर जल विद्युत संयंत्र बना रहा है। एक ऐसी निर्माणाधीन परियोजना भारतीय प्रवेश बिंदु से लगभग 540 किलोमीटर आगे 510 मेगावाट का झांगमू पावर स्टेशन है लेकिन इस परियोजना में बिजली उत्पन्न करने के लिए टर्बाइन चलाने हेतु सिर्फ नदी के प्रवाह की ऊंचाई को बढ़ाना और फिर बांध या बैराज के दूसरी ओर उसे गिराना शामिल है। ऐसी परियोजनाओं में पानी का उपयोग नहीं होता। टर्बाइन रोटेट करने के बाद पानी फिर से नदी में मिल जाता है।
भारत ने चीन की इस घोषणा से राहत की सांस ली है कि वह ब्रह्मपुत्र नदी की धारा को अपने मुख्य भू-भाग की ओर मोड़ने की कोशिश नहीं करेगा। समाचार पत्रों की रिपोर्टों के मुताबिक, चीन ने 'दोनों देशों के बीच संबंधों' पर संभावित असर के चलते डाइवर्जन परियोजना पर काम न करने का फैसला किया है। भारत की राहत स्वाभाविक है क्योंकि यदि चीन ने ब्रह्मपुत्र नदी की धारा अपने भू-भाग को ओर मोड़ दिया होता तो भारत पर इसका जबर्दस्त प्रतिकूल प्रभाव पड़ता। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो चीन ने यह विचार इसलिए छोड़ दिया है कि इससे भारत के साथ उसके रिश्तों पर विशेष रूप से असर पड़ेगा। चीन में जल संसाधन के उप प्रमुख जियाओ यंग ने 13 अक्टूबर को बीजिंग में एक सवाल के जवाब में पत्रकारों से स्पष्ट कहा कि ब्रह्मपुत्र नदी की दिशा में किसी प्रकार के परिवर्तन की चीनी सरकार की कोई योजना नहीं है।उन्होंने कहा - 'हालांकि चीन में यारलुंग झांगबो (ब्रह्मपुत्र का चीनी नाम) के जल का अधिक उपयोग करने की मांग है, लेकिन तकनीकी मुश्किलों, दिशा परिवर्तन की वास्तविक आवश्यकता और पर्यावरण तथा द्विराष्ट्रीय संबंधों पर संभावित प्रभाव को देखते हुए इस नदी पर किसी डाइवर्जन परियोजना की चीन सरकार की कोई योजना नहीं है।' कहने की आवश्यकता नहीं कि उनके इस बयान के बाद भारत का अंदेशा दूर हो गया है। चीन की यह घोषणा स्वागत योग्य है कि उसने द्विपक्षीय सरोकारों का ख्याल रखा, हालांकि 2006 में चीनी राष्ट्रपति हू जिंताओ के भारत दौरे की पूर्व संध्या पर चीनी जल संसाधन मंत्री वांग शूचेंग को यह कहते हुए उद्धृत किया गया था कि डाइवर्जन परियोजना 'अनावश्यक, अव्यावहारिक और अवैज्ञानिक' है। दरअसल, ब्रह्मपुत्र के दिशा परिवर्तन के मुद्दे पर दोनों देशों के बीच अविश्वास का माहौल इतना गहरा है कि लोगों ने इस परियोजना के प्रौद्योगिकीय व व्यावहारिक पहलुओं पर विचार नहीं किया है।
आइए, पहले व्यावहारिक पहलू पर विचार करें। मान लिया जाए कि भारत की ओर ब्रह्मपुत्र के 'विशाल यू टर्न' से ठीक पहले तिब्बती भूमि की ऊंचाई लगभग 8,000 फीट है। उस बिंदु से जल को उत्तर की ओर ले जाने के लिए नदी के जल स्तर को 13,000 से 14,000 फीट तक ऊंचा उठाना होगा ताकि वह तिब्बत के पठार को पार कर सके। अब सवाल है कि क्या इस जल को चीन की मुख्य भूमि की ओर डाइवर्ट करने के लिए लाखों क्यूबिक फुट जल को लगातार पूरे वर्ष लगभग 4,000 से 5,000 फीट तक ऊंचा करना संभव है? मान लीजिए कि किसी तरह ऐसा कर लिया जाता है, लेकिन समस्या यह है कि मुख्यभूमि में प्रयोग के लिए उस जल को किधर ले जाया जाएगा? एक आम एटलस में देखने पर यह पता चलता है कि पथांतरित जल को थ्री गॉर्जेज डैम की ओर ले जाने के लिए यांग सिक्यांग के ऊपरी भाग की ओर ले जाना होगा, जहां से इस नदी के जल को ह्वांग हो या येलो रिवर होते हुए या इस नदी को बाईपास करते हुए उत्तर में बीजिंग की ओर ले जाने के लिए चैनल बनाए गए हैं। चीन की मुख्य जल आवश्यकताएं उत्तर में हैं, यांगसे दक्षिण की जरूरतें पूरी करती है।
तिब्बत के पठार के बाद कोई मैदानी भूमि नहीं है, जहां से पथांतरित ब्रह्मपुत्र नदी आसानी से यांगसे की ओर प्रवाहित होगी। उस मार्ग पर उबड़-खाबड़, ऊंची-नीची जमीन है। पथांतरित जल को उस मार्ग से यांगसे तक पहुंचाने के लिए ऊपर-नीचे करने में बहुत अधिक ऊर्जा की जरूरत होगी। क्या चीन में कहीं भी इतनी अधिक ऊर्जा उपलब्ध है? अगर यांगसे को छोड़ भी दिया जाए और जल को सीधे ह्वांग हो ले जाया जाए, तो भी ये समस्याएं होंगी। ऐसा लगता है कि 50 या 60 के दशक की शुरुआत में ऐसी कार्य योजना पर विचार किया गया था। उस समय इस पर विचार किया गया था कि क्या परमाणु ऊर्जा जल को तिब्बत से उत्तरी चीन की ओर धकेलने के लिए पर्याप्त होगा। इस संबंध में पत्रिका 'द साइंटिफिक अमेरिकन' के जून 1996 अंक को उद्धृत किया जा सकता है।
चीन के उत्तरी भू-भाग में