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भारतीय पक्ष, जुलाई 2014
जोसेफ हुकर ने क्यू में अप्रतिम सुधार किए व इसे अंतरराष्ट्रीय शिक्षा संस्थान का स्वरूप दिया। आज भी समस्त विश्व के पौधे यहां अनुसंधान के लिए उगाए जाते हैं। अनेक जातियां बीमारियों से ग्रसित हो चली हैं, जिससे उनके समूल नष्ट हो जाने की संभावना है। क्यू को प्रयोगशालाओं में निरोग पौधों की प्रजातियां बनाकर वापस उनके मूल स्थान भेजा जाता है। अस्सी के दशक के केले की पौध को विश्वव्यापी वायरस ने जकड़ लिया था, तब क्यू ने उसे बचाया था। यही हाल अब हमारे आम का हो रहा है। वास्कोडिगामा एवं कोलम्बस की नौका यात्राओं ने अनेक छोटे-बड़े नाविकों के हौसलों को पर लगा दिए थे। सोलहवीं व सत्रहवीं शताब्दी में अनेक पोत यूरोप के देशों से नई दुनिया की खोज में भेजे गए। धन कमाने का यह एक अनन्य साधन था। गोले-बारूद के दम पर, कुछ अफीम व दारू के सहारे, छोटे-छोटे जनसमुदायों पर विजय प्राप्त करके उनका धन लूटना व घर ले आना आम बात बन गई। जलदस्युओं का प्रकोप बढ़ा। कोई नहीं सोचता कि ऐसी आमदनी कब तक रास आएगी।
अन्य भू-भागों की समृद्ध-संपदा खूब आकर्षण रखती थी। वह युग यंत्रों का नहीं था, धन कमाने की दृष्टि से खनिज व वनस्पति प्रमुख स्रोत थे। अभूतपूर्व फल और फूल यूरोप के नाविक अपने देशों में लाने लगे।
18वीं शताब्दी के अंत तक करीब पांच सौ प्रकार की नई किस्में इंग्लैंड में आ चुकी थीं। फिर भी खरीदारों की मांग बढ़ती जाती थी। जरूरत थी, उन्हें यहीं की मिट्टी में जमाकर उगाने की। अमेरिका और कैरेबियन से लाए पौधों को यहां के ठंडे वातावरण में उगा पाना सहज नहीं था।
सन् 1757-63 में राजकुमारी आगस्टा की जागीर क्यू गार्डन को संवारने और उसका पुनर्निर्माण करने का कार्यभार श्री विलियम चैम्बर्स को मिला। उन्होंने बीड़ा उठाया कि इस बगीचे को संसार का सबसे बड़ा वनस्पति भंडार बनाएंगे। अगले पांच सालों में उन्होंने यहां तीन हजार प्रजातियों के फूल-पौधे एकत्र किए।
सन् 1789 में श्री जोसेफ बैंक्स ने यहां कार्यभार संभाला। भारत से श्री राक्सबर्ग ने मद्रास के आस-पास कोरोमंडल की पहाड़ियों से 2500 तरह के फूल-पौधों की विस्तृत जानकारी व चित्र भेजे। बैंक्स की तब के राजा जार्ज तृतीय से दोस्ती थी, अतः अपनी परियोजना के लिए उन्होंने बहुत-सा धन भी प्राप्त किया। अपनी योजनाओं को क्रियान्वित करने के लिए, उन्होंने दुनिया के अनेक देशों में नाविक व पोत भेजे और अनेक वनस्पति जातियों की सुरक्षा व विकास के लिए क्यू गार्डन में विशालकाय कांच मंडप बनवाए ताकि बाहरी जलवायु से नवजात पौधों क बचाया जा सके।
सन् 1820 में श्री जोसेफ बैंक्स चल बसे। अगले बीस वर्षों तक कोई भी विद्वान वनस्पति शास्त्री उनके इस काम को न संभाल सका और ‘क्यू’ का बुरा हाल हो गया। 1840 में ग्लासगो स्काटलैंड के श्री विलियम हुकर को क्यू गार्डेन की रक्षा का भार सौंपा गया।
श्री हुकर एक पहुंचे हुए वनस्पति शास्त्री थे। फिर भी धन की कमी के कारण केवल 92 तरह के पौधे ही नामांकित हो पाए। तभी श्री हुकर ने अपने बेटे जोसेफ को भारत भेजा और खास हिमालय की वनस्पति का अध्ययन करने को कहा।
श्री जोसेफ डाल्टन हुकर ने अगले सात वर्षों तक हिमालय के विभिन्न प्रदेशों की यात्रा की। उनके साथ करीब सौ व्यक्तियों का कारवां होता था। पड़ाव के लिए रसद व तंबू कनातों के अलावा शेरपा लोगों को लकड़ी के विशेष बक्से भी उठाने होते थे, जिनमें रखकर हुकर पौधों की किस्में भेजते थे। हुकर को जैसे ही कोई नई प्रजाति मिलती, वे उसका विवरण लिखते और चित्र बनवाते। वे आस-पास के पर्यावरण का अध्ययन करते व लिखते। वो दर्ज करते कि अमुक प्रजाति समुद्र से किस ऊंचाई पर मिली और ऐसी ही अन्य जानकारियां भूगोल में उनकी इतनी अधिक रुचि थी कि वे पौधों के भौगोलिक विवरण के आधार पर उनकी कक्षा निर्धारित करते। उन्होंने अनेक तरह के पौधों को विशेष जातियों व उपजातियों में क्रमबद्ध किया अनेकों फूलों के स्थानीय भाषा के नाम उन्होंने मालूम किए। उनके साथ कोई भारतीय वैज्ञानिक नहीं था, न ही कोई विविध भाषा-भाषी। सामान उठाने वाले कुलियों से बातचीत करना हुकर को अपनी मर्यादा के विरुद्ध लगता था। फिर भी वही स्थानीय भाषा-भाषी रहे होंगे, जिनसे दुभाषिए काम चलाऊ मतलब की बात समझ और समझा पाते होंगे।
जैसे ही किसी प्रजाति की कोई पेटी तैयार हो जाती, वह कुलियों के हाथ उसे कलकत्ते रवाना कर देते। रास्ते के डाकू उनमें खरपतवार देखकर आश्चर्य करते।
हुकर का कार्यक्षेत्र सिक्किम और नेपाल था। दार्जिलिंग के रास्ते वह ऊपर कंचनजंगा के सघन वनों में अपनी खोज करते रहे, आस-पास के भोले-भाले नागरिकों को यह काफिला अंग्रेजों की कोई खुफिया चाल लग रही थी। लेकिन ईस्ट इंडिया कंपनी के नृशंस लोभी कारिंदों से सब डरते थे। अंततः स्थानीय जनता के दबाव में सिक्किम के राजा न उनका इस तरह ऊपर चढ़ते आना वर्जित कर दिया। स्थानीय जन-जातियों ने उनको डाकू समझकर प्रतिरोध किया, कई कुली मारे गए, रसद के रास्ते बंद हो गए, कुछ कुली जंगली पगडंडियों से उतरकर रातों-रात गायब हो गए।
पहाड़ों पर वर्षा का निर्धारित मौसम नहीं होता। वर्षा, ठंड, जोंकें, किलनियां, पिस्सू और बुखार पहाड़ों के ये सारे खतरे भी जोसेफ को हिला नहीं पाए। वे बचे-खुचे काफिले को लेकर आठ हजार फीट की ऊंचाई तक जा पहुंचे।
हुकर से पहले एक अन्य व्यक्ति, जिसका नाम विलियम टर्नर था, 1789 में तिब्बत गया था और उसने अपने यात्रा वृतांत में फूलों की वादियों का उल्लेख किया था। लेकिन फूलों की वो वादियां हुकर को कहीं भी दिखाई नहीं दीं।
तभी एक और हमला हुआ और हुकर व उसके साथी, दार्जिलिंग के सुपरिटेंडेंट, कैंपबेल को सिक्किम के राजा के सिपाहियों ने बंदी बना लिया। बांस का एक मजबूत पिंजरा बनाकर उसमें दोनों व्यक्तियों को अलग-अलग बंद कर दिया गया, जैसे वे कोई जंगली जानवर हों। खाना-दाना बंद पिंजरे की सलाखों के बीच भाले घुसाकर वह इन्हें त्रास देने लगे। हुकर का खानसामा चुपचाप यह समाचार लेकर कलकत्ता पहुंचा। ईस्ट इंडिया कंपनी के अफसरों ने इसका बदला लिया। अपने सैकड़ों सिपाही भेजकर सिक्किम पर हमला कर दिया और इस छोटी-सी घटना के बदले सिक्किम से राज्य की चौथाई से अधिक जमीन पर अनधिकृत कब्जा कर लिया। सिक्किम को जाने वाली रसद बंद कर दी, जिससे राजा ने दुखी होकर घुटने टेक दिए।
इस पूरे घटनाक्रम में गलती हुकर की थी। उन्होंने यह जरूरी नहीं समझा कि वे सिक्किम और नेपाल के राजाओं से व तिब्बत के राजा से अनुमति लें। हुकर की हालत पर जहां इंग्लैंड में उनसे सहानुभूति प्रकट की गई, वहीं कंपनी सरकार की धृष्टता पर उनकी थू-थू भी हुई।
सिक्किम के राजा ने स्थिति का भान होते ही हुकर को मुक्त कर दिया। इस समय तक हुकर के पास दस-पंद्रह मातहत ही रह गए थे। नीचे से कोई संबंध नहीं रह गया था। रसद चुक गई थी, शेरपा जंगली जड़ी-बूटियों पर गुजारा कर रहे थे। वे अंदर-ही-अंदर असंतुष्ट थे। जोसेफ को बुखार था। अंत में, उसने फूलों की घाटी की आशा छोड़ दी और अगले दिन वापस नीचे उतरने का निश्चय किया। सारी रात बोरियों के तंबू में वह भीगता-ठिठूरता रहा। उसका साथी बुखार से बेहोश था।
अगले दिन सबुह का सूरज बेहद उजला निकला, मगर भोजन व साफ पानी की व्यवस्था नहीं थी। हुकर ने अपने डेरे को कूच का आदेश दिया। नित्यकर्म से निवृत्त होने के लिए कुछ दूर घूमने के मकसद से आगे चल पड़े। कुछ दूरी पर एक विशाल शिलाखंड दीवार की तरह खड़ा था। हुकर को जिज्ञासा हुई। वे शिलाखंड के आगे का दृश्य देखना चाहते थे। हिम्मत जुटाकर वे ऊपर चढ़ गए। शिला के उस पार उनके सामने दूर-दूर तक पसरी थी ‘फूलों की घाटी’, उनके सपनों का संसार, उनकी निराशा का अंत!
हुकर खुशी से चिल्ला पड़े। इतनी यातनाएं सहने के बाद उन्हें मिल गए थे वे फूल, जिनकी जातियां वह गिन नहीं सकते थे। जहां तक दृष्टि जाती, वहां तक फैले पड़े थे रंग-बिरंगे, छोटे-बड़े बुरांस, अजेलिया, चंपा, गंडज फूल जैसे नरगिस, लिली, बेगोनियां, प्राइम्युला और न जानें क्या-क्या।
हुकर ने यहां से बुरांस और चंपा व प्राइम्युला इंग्लैंड भेजे। बुरांस के बीज क्यू गार्डन के एक गड्ढे में बो दिए गए। बुरांस के फूल भारत में अप्रैल के महीने में खिलते हैं। नैनीताल में लाल बुरांस का बाहुल्य है, जिन्हें चैत्र नवरात्रों में सुहागिनें देवी को चढ़ाती हैं।
शिमला व उत्तरांचल में बैंगनी, सफेद, गुलाबी बुरांस फूलते हैं। बुरांस के पेड़ चार फीट से लेकर चालीस फीट तक ऊंचे होते हैं। इसके बाद मैगेनोलिया खिलता है। ढलानों पर बारहमासी प्राइम्यूला के जंगली पौधे खिले रहते हैं। बुरांस का रस बुखार दूर करता है। यह आज भी Rnododeudrom Dell के नाम से मशहूर है। हुकर ने जो फूलों की घाटी देखी थी, उसी का रूपांतरण इन पौधों को पहुंचने व इंग्लैंड में पनपने में महीनों या साल लगे।
1855 में Flora Indica नामक एक किताब छापी, पर यह अधूरी रह गई। हुकर की लगन में कोई कमी नहीं आई। फूल-पौधों की प्रजातियां वह इटली व ग्रीस के विद्वानों के पास नामकरण के लिए भेजते, जो अन्य देशों में पाई जाने वाली जातियों में मिलते-जुलते थे। उनका वर्गीकरण उन्हीं के आधार पर कर दिया गया। सन् 1872-1897 एक सात खंडों में उनकी महानतम कृति छपी ‘द फ्लोरा ऑफ ब्रिटिश इंडिया’। आज के दिन तक यही किताब हमारे देश के वनस्पति शास्त्रियों का धर्मग्रंथ है। खेद इस बात का है कि इतना समय बीत जाने पर भी कोई भारतीय विद्वान इस किताब को न तो अप-टू-डेट कर सका और न ही अपनी कोई ऐसी ही शोध-पुस्तक प्रस्तुत कर सका।
1854 में उन्होंने एक पुस्तक लिखी ‘द हिमालयन जर्नल्स’। इसमें उन्होंने विस्तार से अपनी यात्राओं का विवरण लिखा और इसे श्री चार्ल्स डार्विन को प्रस्तुत किया। सन 1855 में वापस लंदन आकर उन्हें अपने पिता के नीचे क्यू गार्डन में ही उनके सहकर्ता की नौकरी मिली। दस वर्ष साथ काम करने के पश्चात् उन्हें डायरेक्टर का पद दे दिया गया।
श्री जोसेफ हुकर ने क्यू गार्डेन में अप्रतिम सुधार किए। उन्होंने इसे अंतरराष्ट्रीय शिक्षा संस्थान का स्वरूप दिया। आज भी समस्त विश्व के पौधे यहां अनुसंधान के लिए उगाए जाते हैं। दुनिया में अनेक जातियां इस समय बीमारियों से ग्रसित हो चली हैं, जिससे उनके समूल नष्ट हो जाने की संभावना है। ऐसे में क्यू की प्रयोगशालाओं में निरोग पौधों की प्रजातियां बनाकर वापस उनके मूलस्थान भेजी जाती हैं। अस्सी के दशक के केले की पौध को विश्वव्यापी वायरस ने जकड़ लिया था, तब क्यू ने ही उसे बचाया था। यही हाल अब हमारे आम का हो रहा है।
जोसेफ हुकर ने करीब सात हजार तरह के फूल-पौधे एकत्र किए और उन्हें सफलतापूर्वक इंग्लैंड में उगाया। उसी के कारण आज इंग्लैंड को बगीचों का देश कहा जाता है। यहां का प्रत्येक गृहस्थ ‘माली’ होता है और प्रत्येक गृहस्थन ‘सफाई वाली’। यहां पर सबसे अधिक खिलने वाले फूल हैं-बुरांस, मैगनोलिया हाइड्रोन्जिया, बैगोनिया, प्राइम्यूला, डेजी, सूरजमुखी, डैफ्रनी, लिली, सोनछड़ी, कृष्णकमल, गुलाब, जूही, गेंदा, गुलमेंहदी (बिजी-लिजी), गुलदाउदी, कैना और न जाने क्या-क्या।
मुश्किल यह है कि मैदान में, खासकर गंगा, यमुना के मैदानों में हिमालय के पूल नहीं लगते। बारहमासी पौधे, जैसे बुरांस उत्तर भारत के मैदानों की गर्मी सह ही नहीं सकता, तो जो लोग पहाड़ी प्रदेशों में नहीं जाते, उन्हें क्या पता इनका। मैदान के गर्म प्रदेशों के फूल अंग्रेज यहां नहीं उगा पाते, जैसे कुंद, कटबेला, मोगरा, या मधुमालती या हरसिंगार।
हमारे देखते ही देखते पिछले तीस सालों में यहां गेंदा उगाया जाने लगा है। कुछ तो इसका कारण हम भारतीय प्रवासी हैं, जिन्हें पूजा के लिए गेंदा चाहिए। कुछ इसका कारण ग्लोबल वार्मिंग है। पहले सितबंर से पतझड़ शुरू होता था और नवंबर में बर्फ पड़ने लगती थी। अब नवंबर आने तक भी फूल नहीं खिलते हैं। यद्यपि अनेकों देशों से अनेकों फूल यहां लाए गए, परंतु इंग्लैंड के बगीचों को सदाबाहर व रंगीन बनाने का श्रेय जोसेफ हुकर को ही दिया जाता है। उन्होंने यहां के लिए जो किया सो किया, हमारे देश के लिए भी वह उतने ही उदात्त थे। मलेरिया की बीमारी का इलाज कुनैन से होता है और यह चिनचोना नामक पेड़ से प्राप्त होता है। हुकर ने ब्राजील से यह पेड़ लाकर भारत में लगवाए। इसके अलावा पट्टा पारचा के पेड़ लगवाए। रबड़ के पेड़ लगवाए और टिंबर यानी बल्ली के जंगल लगवाए।
सन् 1990 में मेरी अंग्रेज सहेली ने यहां एक घर खरीदा, जिसके साथ एक लकड़ी की टाल थी। टाल को हटाकर उसने एक कमरा बनवा लिया। जब दीवार और छत आदि का प्लास्टर छील दिया गया तो छत की बल्ली पर कुछ लिखा पाया गया। चाक से उसे रगड़कर अक्षरों को उभारा तो हिंदी में एक जहाज का नाम व विजगापट्टम लिखा पाया। यानी विजगापट्टम में वह जहाज बना होगा और उसके टूट जाने पर वह लकड़ी मकान बनाने के काम में लाई गई होगी। सबसे सुंदर बात यह लगी कि उस समय अंग्रेज भी हिंदी का प्रयोग सारे भारत में करते थे।
फिलहाल इस लेख के उपसंहार में मैं अपने समस्त भारतवासियों से इल्तिजा करूंगी कि वह जब भी लंदन आएं, क्यू गार्डन जरूर देखें। भारत का अमूल्य धन केवल कपड़े व कांच के बर्तन खरीदने पर न खर्चें। अपने देशवासी, सुंदरता के वाहक, स्वर्ग के प्रतिनिधि, फूलों को अवश्य देखें। स्वयं भी माली बनें। जब टामस रो भारत आया था, तब भारत बगीचों का देश था। अब भी बन सकता है। फूल उगाने से बढ़कर भगवान का सान्निध्य और क्या होगा।
अन्य भू-भागों की समृद्ध-संपदा खूब आकर्षण रखती थी। वह युग यंत्रों का नहीं था, धन कमाने की दृष्टि से खनिज व वनस्पति प्रमुख स्रोत थे। अभूतपूर्व फल और फूल यूरोप के नाविक अपने देशों में लाने लगे।
18वीं शताब्दी के अंत तक करीब पांच सौ प्रकार की नई किस्में इंग्लैंड में आ चुकी थीं। फिर भी खरीदारों की मांग बढ़ती जाती थी। जरूरत थी, उन्हें यहीं की मिट्टी में जमाकर उगाने की। अमेरिका और कैरेबियन से लाए पौधों को यहां के ठंडे वातावरण में उगा पाना सहज नहीं था।
सन् 1757-63 में राजकुमारी आगस्टा की जागीर क्यू गार्डन को संवारने और उसका पुनर्निर्माण करने का कार्यभार श्री विलियम चैम्बर्स को मिला। उन्होंने बीड़ा उठाया कि इस बगीचे को संसार का सबसे बड़ा वनस्पति भंडार बनाएंगे। अगले पांच सालों में उन्होंने यहां तीन हजार प्रजातियों के फूल-पौधे एकत्र किए।
सन् 1789 में श्री जोसेफ बैंक्स ने यहां कार्यभार संभाला। भारत से श्री राक्सबर्ग ने मद्रास के आस-पास कोरोमंडल की पहाड़ियों से 2500 तरह के फूल-पौधों की विस्तृत जानकारी व चित्र भेजे। बैंक्स की तब के राजा जार्ज तृतीय से दोस्ती थी, अतः अपनी परियोजना के लिए उन्होंने बहुत-सा धन भी प्राप्त किया। अपनी योजनाओं को क्रियान्वित करने के लिए, उन्होंने दुनिया के अनेक देशों में नाविक व पोत भेजे और अनेक वनस्पति जातियों की सुरक्षा व विकास के लिए क्यू गार्डन में विशालकाय कांच मंडप बनवाए ताकि बाहरी जलवायु से नवजात पौधों क बचाया जा सके।
सन् 1820 में श्री जोसेफ बैंक्स चल बसे। अगले बीस वर्षों तक कोई भी विद्वान वनस्पति शास्त्री उनके इस काम को न संभाल सका और ‘क्यू’ का बुरा हाल हो गया। 1840 में ग्लासगो स्काटलैंड के श्री विलियम हुकर को क्यू गार्डेन की रक्षा का भार सौंपा गया।
श्री हुकर एक पहुंचे हुए वनस्पति शास्त्री थे। फिर भी धन की कमी के कारण केवल 92 तरह के पौधे ही नामांकित हो पाए। तभी श्री हुकर ने अपने बेटे जोसेफ को भारत भेजा और खास हिमालय की वनस्पति का अध्ययन करने को कहा।
श्री जोसेफ डाल्टन हुकर ने अगले सात वर्षों तक हिमालय के विभिन्न प्रदेशों की यात्रा की। उनके साथ करीब सौ व्यक्तियों का कारवां होता था। पड़ाव के लिए रसद व तंबू कनातों के अलावा शेरपा लोगों को लकड़ी के विशेष बक्से भी उठाने होते थे, जिनमें रखकर हुकर पौधों की किस्में भेजते थे। हुकर को जैसे ही कोई नई प्रजाति मिलती, वे उसका विवरण लिखते और चित्र बनवाते। वे आस-पास के पर्यावरण का अध्ययन करते व लिखते। वो दर्ज करते कि अमुक प्रजाति समुद्र से किस ऊंचाई पर मिली और ऐसी ही अन्य जानकारियां भूगोल में उनकी इतनी अधिक रुचि थी कि वे पौधों के भौगोलिक विवरण के आधार पर उनकी कक्षा निर्धारित करते। उन्होंने अनेक तरह के पौधों को विशेष जातियों व उपजातियों में क्रमबद्ध किया अनेकों फूलों के स्थानीय भाषा के नाम उन्होंने मालूम किए। उनके साथ कोई भारतीय वैज्ञानिक नहीं था, न ही कोई विविध भाषा-भाषी। सामान उठाने वाले कुलियों से बातचीत करना हुकर को अपनी मर्यादा के विरुद्ध लगता था। फिर भी वही स्थानीय भाषा-भाषी रहे होंगे, जिनसे दुभाषिए काम चलाऊ मतलब की बात समझ और समझा पाते होंगे।
जैसे ही किसी प्रजाति की कोई पेटी तैयार हो जाती, वह कुलियों के हाथ उसे कलकत्ते रवाना कर देते। रास्ते के डाकू उनमें खरपतवार देखकर आश्चर्य करते।
हुकर का कार्यक्षेत्र सिक्किम और नेपाल था। दार्जिलिंग के रास्ते वह ऊपर कंचनजंगा के सघन वनों में अपनी खोज करते रहे, आस-पास के भोले-भाले नागरिकों को यह काफिला अंग्रेजों की कोई खुफिया चाल लग रही थी। लेकिन ईस्ट इंडिया कंपनी के नृशंस लोभी कारिंदों से सब डरते थे। अंततः स्थानीय जनता के दबाव में सिक्किम के राजा न उनका इस तरह ऊपर चढ़ते आना वर्जित कर दिया। स्थानीय जन-जातियों ने उनको डाकू समझकर प्रतिरोध किया, कई कुली मारे गए, रसद के रास्ते बंद हो गए, कुछ कुली जंगली पगडंडियों से उतरकर रातों-रात गायब हो गए।
पहाड़ों पर वर्षा का निर्धारित मौसम नहीं होता। वर्षा, ठंड, जोंकें, किलनियां, पिस्सू और बुखार पहाड़ों के ये सारे खतरे भी जोसेफ को हिला नहीं पाए। वे बचे-खुचे काफिले को लेकर आठ हजार फीट की ऊंचाई तक जा पहुंचे।
हुकर से पहले एक अन्य व्यक्ति, जिसका नाम विलियम टर्नर था, 1789 में तिब्बत गया था और उसने अपने यात्रा वृतांत में फूलों की वादियों का उल्लेख किया था। लेकिन फूलों की वो वादियां हुकर को कहीं भी दिखाई नहीं दीं।
तभी एक और हमला हुआ और हुकर व उसके साथी, दार्जिलिंग के सुपरिटेंडेंट, कैंपबेल को सिक्किम के राजा के सिपाहियों ने बंदी बना लिया। बांस का एक मजबूत पिंजरा बनाकर उसमें दोनों व्यक्तियों को अलग-अलग बंद कर दिया गया, जैसे वे कोई जंगली जानवर हों। खाना-दाना बंद पिंजरे की सलाखों के बीच भाले घुसाकर वह इन्हें त्रास देने लगे। हुकर का खानसामा चुपचाप यह समाचार लेकर कलकत्ता पहुंचा। ईस्ट इंडिया कंपनी के अफसरों ने इसका बदला लिया। अपने सैकड़ों सिपाही भेजकर सिक्किम पर हमला कर दिया और इस छोटी-सी घटना के बदले सिक्किम से राज्य की चौथाई से अधिक जमीन पर अनधिकृत कब्जा कर लिया। सिक्किम को जाने वाली रसद बंद कर दी, जिससे राजा ने दुखी होकर घुटने टेक दिए।
इस पूरे घटनाक्रम में गलती हुकर की थी। उन्होंने यह जरूरी नहीं समझा कि वे सिक्किम और नेपाल के राजाओं से व तिब्बत के राजा से अनुमति लें। हुकर की हालत पर जहां इंग्लैंड में उनसे सहानुभूति प्रकट की गई, वहीं कंपनी सरकार की धृष्टता पर उनकी थू-थू भी हुई।
सिक्किम के राजा ने स्थिति का भान होते ही हुकर को मुक्त कर दिया। इस समय तक हुकर के पास दस-पंद्रह मातहत ही रह गए थे। नीचे से कोई संबंध नहीं रह गया था। रसद चुक गई थी, शेरपा जंगली जड़ी-बूटियों पर गुजारा कर रहे थे। वे अंदर-ही-अंदर असंतुष्ट थे। जोसेफ को बुखार था। अंत में, उसने फूलों की घाटी की आशा छोड़ दी और अगले दिन वापस नीचे उतरने का निश्चय किया। सारी रात बोरियों के तंबू में वह भीगता-ठिठूरता रहा। उसका साथी बुखार से बेहोश था।
अगले दिन सबुह का सूरज बेहद उजला निकला, मगर भोजन व साफ पानी की व्यवस्था नहीं थी। हुकर ने अपने डेरे को कूच का आदेश दिया। नित्यकर्म से निवृत्त होने के लिए कुछ दूर घूमने के मकसद से आगे चल पड़े। कुछ दूरी पर एक विशाल शिलाखंड दीवार की तरह खड़ा था। हुकर को जिज्ञासा हुई। वे शिलाखंड के आगे का दृश्य देखना चाहते थे। हिम्मत जुटाकर वे ऊपर चढ़ गए। शिला के उस पार उनके सामने दूर-दूर तक पसरी थी ‘फूलों की घाटी’, उनके सपनों का संसार, उनकी निराशा का अंत!
हुकर खुशी से चिल्ला पड़े। इतनी यातनाएं सहने के बाद उन्हें मिल गए थे वे फूल, जिनकी जातियां वह गिन नहीं सकते थे। जहां तक दृष्टि जाती, वहां तक फैले पड़े थे रंग-बिरंगे, छोटे-बड़े बुरांस, अजेलिया, चंपा, गंडज फूल जैसे नरगिस, लिली, बेगोनियां, प्राइम्युला और न जानें क्या-क्या।
हुकर ने यहां से बुरांस और चंपा व प्राइम्युला इंग्लैंड भेजे। बुरांस के बीज क्यू गार्डन के एक गड्ढे में बो दिए गए। बुरांस के फूल भारत में अप्रैल के महीने में खिलते हैं। नैनीताल में लाल बुरांस का बाहुल्य है, जिन्हें चैत्र नवरात्रों में सुहागिनें देवी को चढ़ाती हैं।
शिमला व उत्तरांचल में बैंगनी, सफेद, गुलाबी बुरांस फूलते हैं। बुरांस के पेड़ चार फीट से लेकर चालीस फीट तक ऊंचे होते हैं। इसके बाद मैगेनोलिया खिलता है। ढलानों पर बारहमासी प्राइम्यूला के जंगली पौधे खिले रहते हैं। बुरांस का रस बुखार दूर करता है। यह आज भी Rnododeudrom Dell के नाम से मशहूर है। हुकर ने जो फूलों की घाटी देखी थी, उसी का रूपांतरण इन पौधों को पहुंचने व इंग्लैंड में पनपने में महीनों या साल लगे।
1855 में Flora Indica नामक एक किताब छापी, पर यह अधूरी रह गई। हुकर की लगन में कोई कमी नहीं आई। फूल-पौधों की प्रजातियां वह इटली व ग्रीस के विद्वानों के पास नामकरण के लिए भेजते, जो अन्य देशों में पाई जाने वाली जातियों में मिलते-जुलते थे। उनका वर्गीकरण उन्हीं के आधार पर कर दिया गया। सन् 1872-1897 एक सात खंडों में उनकी महानतम कृति छपी ‘द फ्लोरा ऑफ ब्रिटिश इंडिया’। आज के दिन तक यही किताब हमारे देश के वनस्पति शास्त्रियों का धर्मग्रंथ है। खेद इस बात का है कि इतना समय बीत जाने पर भी कोई भारतीय विद्वान इस किताब को न तो अप-टू-डेट कर सका और न ही अपनी कोई ऐसी ही शोध-पुस्तक प्रस्तुत कर सका।
1854 में उन्होंने एक पुस्तक लिखी ‘द हिमालयन जर्नल्स’। इसमें उन्होंने विस्तार से अपनी यात्राओं का विवरण लिखा और इसे श्री चार्ल्स डार्विन को प्रस्तुत किया। सन 1855 में वापस लंदन आकर उन्हें अपने पिता के नीचे क्यू गार्डन में ही उनके सहकर्ता की नौकरी मिली। दस वर्ष साथ काम करने के पश्चात् उन्हें डायरेक्टर का पद दे दिया गया।
श्री जोसेफ हुकर ने क्यू गार्डेन में अप्रतिम सुधार किए। उन्होंने इसे अंतरराष्ट्रीय शिक्षा संस्थान का स्वरूप दिया। आज भी समस्त विश्व के पौधे यहां अनुसंधान के लिए उगाए जाते हैं। दुनिया में अनेक जातियां इस समय बीमारियों से ग्रसित हो चली हैं, जिससे उनके समूल नष्ट हो जाने की संभावना है। ऐसे में क्यू की प्रयोगशालाओं में निरोग पौधों की प्रजातियां बनाकर वापस उनके मूलस्थान भेजी जाती हैं। अस्सी के दशक के केले की पौध को विश्वव्यापी वायरस ने जकड़ लिया था, तब क्यू ने ही उसे बचाया था। यही हाल अब हमारे आम का हो रहा है।
जोसेफ हुकर ने करीब सात हजार तरह के फूल-पौधे एकत्र किए और उन्हें सफलतापूर्वक इंग्लैंड में उगाया। उसी के कारण आज इंग्लैंड को बगीचों का देश कहा जाता है। यहां का प्रत्येक गृहस्थ ‘माली’ होता है और प्रत्येक गृहस्थन ‘सफाई वाली’। यहां पर सबसे अधिक खिलने वाले फूल हैं-बुरांस, मैगनोलिया हाइड्रोन्जिया, बैगोनिया, प्राइम्यूला, डेजी, सूरजमुखी, डैफ्रनी, लिली, सोनछड़ी, कृष्णकमल, गुलाब, जूही, गेंदा, गुलमेंहदी (बिजी-लिजी), गुलदाउदी, कैना और न जाने क्या-क्या।
मुश्किल यह है कि मैदान में, खासकर गंगा, यमुना के मैदानों में हिमालय के पूल नहीं लगते। बारहमासी पौधे, जैसे बुरांस उत्तर भारत के मैदानों की गर्मी सह ही नहीं सकता, तो जो लोग पहाड़ी प्रदेशों में नहीं जाते, उन्हें क्या पता इनका। मैदान के गर्म प्रदेशों के फूल अंग्रेज यहां नहीं उगा पाते, जैसे कुंद, कटबेला, मोगरा, या मधुमालती या हरसिंगार।
हमारे देखते ही देखते पिछले तीस सालों में यहां गेंदा उगाया जाने लगा है। कुछ तो इसका कारण हम भारतीय प्रवासी हैं, जिन्हें पूजा के लिए गेंदा चाहिए। कुछ इसका कारण ग्लोबल वार्मिंग है। पहले सितबंर से पतझड़ शुरू होता था और नवंबर में बर्फ पड़ने लगती थी। अब नवंबर आने तक भी फूल नहीं खिलते हैं। यद्यपि अनेकों देशों से अनेकों फूल यहां लाए गए, परंतु इंग्लैंड के बगीचों को सदाबाहर व रंगीन बनाने का श्रेय जोसेफ हुकर को ही दिया जाता है। उन्होंने यहां के लिए जो किया सो किया, हमारे देश के लिए भी वह उतने ही उदात्त थे। मलेरिया की बीमारी का इलाज कुनैन से होता है और यह चिनचोना नामक पेड़ से प्राप्त होता है। हुकर ने ब्राजील से यह पेड़ लाकर भारत में लगवाए। इसके अलावा पट्टा पारचा के पेड़ लगवाए। रबड़ के पेड़ लगवाए और टिंबर यानी बल्ली के जंगल लगवाए।
सन् 1990 में मेरी अंग्रेज सहेली ने यहां एक घर खरीदा, जिसके साथ एक लकड़ी की टाल थी। टाल को हटाकर उसने एक कमरा बनवा लिया। जब दीवार और छत आदि का प्लास्टर छील दिया गया तो छत की बल्ली पर कुछ लिखा पाया गया। चाक से उसे रगड़कर अक्षरों को उभारा तो हिंदी में एक जहाज का नाम व विजगापट्टम लिखा पाया। यानी विजगापट्टम में वह जहाज बना होगा और उसके टूट जाने पर वह लकड़ी मकान बनाने के काम में लाई गई होगी। सबसे सुंदर बात यह लगी कि उस समय अंग्रेज भी हिंदी का प्रयोग सारे भारत में करते थे।
फिलहाल इस लेख के उपसंहार में मैं अपने समस्त भारतवासियों से इल्तिजा करूंगी कि वह जब भी लंदन आएं, क्यू गार्डन जरूर देखें। भारत का अमूल्य धन केवल कपड़े व कांच के बर्तन खरीदने पर न खर्चें। अपने देशवासी, सुंदरता के वाहक, स्वर्ग के प्रतिनिधि, फूलों को अवश्य देखें। स्वयं भी माली बनें। जब टामस रो भारत आया था, तब भारत बगीचों का देश था। अब भी बन सकता है। फूल उगाने से बढ़कर भगवान का सान्निध्य और क्या होगा।