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भूगोल अध्ययनशाला पं. रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय रायपुर (म.प्र.), शोध-प्रबंध 1997
सिंचाई - सिंचाई का विकास, सिंचाई का वितरण, सिंचाई के साधन, सिंचाई परियोजनाएँ, सिंचित फसलें, सिंचाई के लिये अंतर्भोम जल की उपयोगिता, सिंचाई की समस्याएँ।
जल संसाधन उपयोग
जल के उपयोग में कुछ विशिष्टताएँ होती हैं। प्राय: जल की उपलब्धता और समस्याएँ स्थानीय या क्षेत्रीय होती हैं। सामान्यत: कृषि क्षेत्र की आवश्यकता साफ जल द्वारा पूरी की जाती है। जल के विभिन्न उपयोग समय तथा स्थान विशेष के साथ बदलते हैं। किसी विशेष क्षेत्र में जल की उपयोगिता प्रबल होती है, जबकि कुछ क्षेत्रों में सहायक या महत्वहीन होती है। कई क्षेत्रों में जल की उपयोगिता एक-दूसरे का विरोध करती प्रतीत होती है। जैसे - घरेलू और सिंचाई, जबकि कुछ जल पूर्ति परिपूरक होती है, जैसे - प्रदूषण, बाढ़ की रोकथाम और मनोरंज (मोरे और रिआर्डन, 1969, 54) लेंडसबर्ग (1964, 123) ने शुद्ध जल के विविध उपयोगों को चार वर्गों तथा - जल निकास का उपयोग, बहाव उपयोग, स्थान पर उपयोग एवं नकारात्मक अथवा विपरीत उपयोग में बाँटा है।
बस्तर जिले में पहले प्रकार के जल उपयोग की प्रधानता है। यहाँ जल संसाधन का उपयोग मुख्यत: तीन कार्यों के लिये होता है - सिंचाई, औद्योगिक उपयोग एवं घरेलू जल आपूर्ति। जिले में सिंचाई और घरेलू उपयोग में जल संसाधन का सबसे अधिक उपयोग होता है।
सिंचाई : बस्तर जिले में बहुत कम, लगभग 37,993 हेक्टेयर भूमि विभिन्न साधनों से सिंचित है। यह संपूर्ण फसली क्षेत्र का केवल 4.30 प्रतिशत है। जबकि मध्य प्रदेश का औसत 13.7 प्रतिशत है।
सिंचाई की आवश्यकता : बस्तर जिले में औसत वार्षिक वर्षा 1,371 मिमी है। परंतु वर्षा की अनिश्चितता एवं अनियमितता के कारण समय-समय पर बाढ़ अथवा सूखे की स्थिति बनी रहती है। वर्षा का स्थानिक वितरण भी इस प्रकार है कि आवश्यकता के समय फसलों के लिये पर्याप्त जल उपलब्ध नहीं हो पाता। जिले की मासिक वर्षा के आर्द्रता सूचकांक में मौसमी परिवर्तन इस बात का सूचक है कि यहाँ ऋतुगत सूखे की स्थिति है। वर्षा के मौसम में धनात्मक आर्द्रता एवं सूखे मौसम में ऋणात्मक आर्द्रता की स्थिति होती है। अत: वर्षा के जल का व्यवस्थापन करके क्षेत्र में उसका उपयोग करके न केवल फसलों को नष्ट होने से बचाया जा सकता है। वरन दो फसली कृषि भी संभव है। जिले की मिट्टियों में विभिन्नता है। जिले के अधिकांश भाग पर लाल-दोमट मिट्टी पायी जाती है, जिसकी जल धारण क्षमता अधिक है। फलत: कम सिंचाई की आवश्यकता होती है। जिले के मध्यवर्ती भाग में लाल बलुई मिट्टी पायी जाती है। जिसकी जल धारण क्षमता कम है। अत: ऐसी भूमि को कृषि योग्य बनाये रखने के लिये बार-बार सिंचाई की आवश्यकता होती है। जिले में प्राय: सभी विकासखंडों में जलाभाव के कारण केवल वर्षाकालीन अवधि में ही कृषि हो पाती है। रबी की फसलों के लिये कम स्थानों पर ही सिंचाई सुविधा है। अत: जिले में रबी की फसल बहुत कम लिया जाता है।
किसी अन्य उद्योग की तुलना में सिंचाई में जल की आवश्यकता अधिक होती है। वर्तमान में निकाले गये जल का लगभग 50 प्रतिशत हिस्सा सिंचाई में उपयोग होता है। अत: सही समय पर जल की पर्याप्त मात्रा में उपलब्धता अनिश्चित होती है। क्योंकि, वार्षिक वर्षा का 80 प्रतिशत जल बह जाता है तथा जिले में सिंचाई जलाशय एवं नहरों का अभाव है। जिसके कारण सिंचाई के लिये पर्याप्त जल उपलब्ध नहीं हो पाता है। जिले में उद्योगों की कमी एवं शिक्षा के अभाव के कारण जनसंख्या का लगभग 80 प्रतिशत आजिविका के लिये कृषि पर निर्भर है। अत: जिले में सिंचाई बहुत महत्त्व रखता है।
जिले में सिंचाई का विकास :
योजना पूर्व का काल :- विगत शताब्दी के अंत तक बस्तर जिले में सिंचाई की कोई योजना नहीं थी। सन 1896 और 1899 के विनाशकारी अकाल से कृषक और सरकार में चेतना आई और वर्षा के परिपूरक के रूप में कृत्रिम सिंचाई की जरूरत महसूस की गई। बार-बार के सूखे के कारण मध्य प्रांत के धान उत्पादक जिलों में छोटे सिंचाई के साधन बनवाने के लिये सन 1901 में भारतीय सिंचाई आयोग गठित किया गया।
बस्तर जिले की सिंचाई योजना स्वतंत्रता के बाद भी देर से 1960-61 में शुरू हुई। यद्यपि, यहाँ पर सिंचाई विभाग 1951-52 में स्थापित हो गई थी। द्वितीय पंचवर्षीय योजना के अंत तक (1960-61) जिले में सिंचाई कार्यक्रम शुरू हुई। बस्तर जिले में सिंचाई के विकास का विवरण तालिका क्रमांक 5.1 में दर्शाया गया है।
बस्तर जिले में योजना पूर्व सिंचाई कार्यक्रम नहीं था। इस समय तक लोग परम्परागत साधन यथा - तालाब, पोखर, कुआँ, इत्यादि से सिंचाई करते थे। द्वितीय पंचवर्षीय योजना काल में 57 हेक्टेयर की सिंचाई की योजना बनायी गयी। विशेष योजना के तहत 1968-69 में दुध नदी पर जलाशय का निर्माण करके छोटी नहर प्रणाली का विकास किया गया जिसके कारण 1103 हेक्टेयर भूमि सिंचित हुई। पंचम पंचवर्षीय योजना में कोटरी नदी पर परालकोट जलाशय का निर्माण हुआ, जिससे सिंचाई क्षमता बढ़कर 18100 हेक्टेयर हो गई। छठी पंचवर्षीय योजना में झीयम जलाशय का निर्माण हुआ। इस योजना में 48,699 हेक्टेयर में सिंचाई क्षमता का लक्ष्य निर्धारित किया गया, लेकिन वास्तविक वृद्धि 22102 हेक्टेयर की ही हुई। सातवीं पंचवर्षीय योजना के अंत तक 3 मध्यम जलाशय तथा 263 लघु जलाशय निर्मित हो गये थे। जिले में कुल 266 सतही उद्वहन हैं (तालिका क्र. 3.4) जिसकी रूपांकित सिंचाई क्षमता 66812 हेक्टेयर है। 1989-94 तक वास्तविक सिंचाई 22762 हेक्टेयर में हुआ है। जो कुल फसली क्षेत्र का 2.57 प्रतिशत है।
बस्तर जिले में सिंचाई योजना का विकास 1968-69 विशेष योजना अवधि के समय द्रुतगति से हुआ। जिले में चतुर्थ पंचवर्षीय योजना में तालाबों के निर्माण पर विशेष ध्यान दिया गया। तृतीय पंचवर्षीय योजना अवधि तक आशातीत वृद्धि नहीं हुई, परंतु पंचम पंचवर्षीय योजना में सिंचित क्षेत्र में तीव्र गति से वृद्धि हुई है।
इस तरह विभिन्न सरकारी योजनाओं के प्रारंभ होने से जिले में 1951-90 की अवधि में 68,110 हेक्टेयर में सिंचाई क्षमता का विकास हुआ है। यहाँ आदिवासी बाहुल्य जनसंख्या, शिक्षा का अभाव, पहाड़ी एवं पठारी भू-भाग इत्यादि के कारण जिले में सिंचाई जलाशयों एवं नहर प्रणाली का अधिकतम विकास नहीं हो पाया है। सिंचाई व्यवस्था विकसित करने के लिये जनसामान्य को स्वयं के सिंचाई व्यवस्था के लिये बैंकों द्वारा ऋण सुविधा उपलब्ध करायी जा रही है।
सिंचाई का वितरण : बस्तर जिले के प्राकृतिक स्वरूप के कारण जिले में सिंचिंत क्षेत्र के वितरण में क्षेत्रीय विभिन्नता स्पष्टतया परिलक्षित होती है। जिले के उत्तरी एवं दक्षिणी मैदानी क्षेत्रों में सिंचाई का केंद्रीकरण अधिक हुआ है। सिंचाई के विकास का लंबा इंतिहास होने के बावजूद भी जिले में केवल 37,993 हेक्टेयर अर्थात कुल फसली क्षेत्र का 4.30 प्रतिशत ही सिंचित है। जिले की भौतिक पृष्ठभूमि के कारण सिंचाई संरक्षण किस्म की है। जिले में सिंचाई का विकास खरीफ फसल, विशेषकर धान की फसल के लिये विकसित किया गया है। बस्तर जिले में खरीफ फसल का 36,639 हेक्टेयर (कुल फसली क्षेत्र के 4.14 प्रतिशत) और रबी फसल का 1,379 हेक्टेयर (कुल फसली क्षेत्र का मात्र 0.15 प्रतिशत) क्षेत्र सिंचित है। जिले के 13 विकासखंडों में रबी के मौसम में कोई सिंचाई की सुविधा नहीं है। शेष विकासखंडों में भी रबी की फसल का कुल 5 प्रतिशत ही सिंचित है। जिले में भानुप्रतापपुर (7.32 प्रतिशत), चाराम (7.17 प्रतिशत), तथा भोपालपटनम (6.97 प्रतिशत) विकासखंडों में सिंचाई का अधिक विकास हुआ है।
सिंचाई की उपलब्धता में स्थानिक परिवर्तन भी बहुत अधिक है जैसे भोपालपटनम एवं चारामा में धान की फसल का क्रमश: 29.64 एवं 27.78 प्रतिशत क्षेत्र सिंचित है। वहीं भैरमगढ़ तथा बास्तानार में क्रमश: 0.07 एवं 0.11 प्रतिशत क्षेत्र ही सिंचित है। जिले में 96.43 प्रतिशत सिंचाई केवल खरीफ फसल (धान) के लिये होती है। जिले के कई विकासखंडों में सिंचित क्षेत्र 5 प्रतिशत से भी कम है (मानचित्र क्र. 5.3)। मध्य पूर्वी एवं दक्षिणी क्षेत्र के 6 विकासखंडों में 10 से 15 प्रतिशत सिंचित क्षेत्र तथा उत्तरी भाग के दो विकासखंडों में 15 प्रतिशत से अधिक सिंचित क्षेत्र है (तालिका क्र. 5.2)।
अध्ययन की दृष्टि से जिले के विकासखंडों को चार सिंचाई प्रबलता क्षेत्रों में बाँटा गया है : (1) उच्च सिंचाई प्रबलता (कुल फसली क्षेत्र के 15 प्रतिशत से अधिक) (2) सामान्य सिंचाई प्रबलता (कुल फसली क्षेत्र के 10 से 15 प्रतिशत) (3) निम्न सिंचाई प्रबलता (कुल फसली क्षेत्र के 5 से 10 प्रतिशत) एवं (4) अति निम्न सिंचाई प्रबलता (कुल फसली क्षेत्र के 5 प्रतिशत से कम)।
(1) उच्च सिंचाई प्रबलता वाले क्षेत्र अंतर्गत दो विकासखंड हैं। ये एक समतल क्षेत्र हैं। इंद्रावती और महानदी के बीच स्थित, चारामा, विकासखंड में महानदी की सहायक दुध नदी की नहर के माध्यम से सिंचाई होती है। भोपालपटनम विकासखंड इंद्रावती बेसिन में स्थित है। जहाँ लघु सिंचाई योजनाओं से सिंचाई होती है। इन विकासखंडों में फसली क्षेत्र का क्रमश: 24.97 एवं 23.50 प्रतिशत सिंचित है।
(2) सामान्य सिंचाई प्रबलता वाले क्षेत्र के अंतर्गत तीन विकासखंड आते हैं। इनमें नरहरपुर (सरोना) (कुल फसली क्षेत्र का 12.66 प्रतिशत सिंचित), कांकेर (11.74 प्रतिशत) एवं कोयलीबेड़ा (11.33 प्रतिशत) विकासखंड सम्मिलित हैं।
(3) निम्न सिंचाई प्रबलता वाला क्षेत्र केवल उसूर विकासखंड हैं। कुल फसली क्षेत्र के 7.25 प्रतिशत क्षेत्र में सिंचाई होती है।
(4) अति निम्न सिंचाई प्रबलता वाले क्षेत्र के अंतर्गत जिले के 32 विकासखंडों में से 26 विकासखंड हैं जहाँ कुल फसली क्षेत्र के 5 प्रतिशत से भी कम क्षेत्र में सिंचाई होती है। ये सभी क्षेत्र पठारी एवं पहाड़ी हैं।
इस प्रकार जिले में लगभग 75 प्रतिशत क्षेत्र में सिंचाई उपलब्ध कराने के लिये विभिन्न स्रोतों को एक साथ जोड़ा जाना है। जिले का उबड़ खाबड़ धरातलीय स्वरूप एवं विभिन्न प्रकार की मिट्टी सिंचाई के विकास में प्रमुख बाधा है। जिले में सिंचाई प्रगति में यह एक विरोधाभास यह है कि पठारी एवं पहाड़ी क्षेत्र जो नदियों को जन्म देती है और बांध निर्माण के लिये उपयुक्त स्थल उपलब्ध कराते हैं यही क्षेत्र सिंचाई की लाभ से वंचित रह जाते हैं, क्योंकि ये क्षेत्र जहाँ कठोर चट्टान के कारण नहर बनाने एवं कुआँ खोदने के लिये कठिनाई-युक्त हैं, वहीं तो दूसरी ओर इन क्षेत्रों में कृषि योग्य भूमि का विस्तार भी कम है।
सिंचाई के स्रोत : बस्तर जिले में सिंचाई के 4 स्रोत हैं - नहर जलाशय (तालाब), नलकूप - कुआँ और अन्य स्रोत।
(1) नहर : बस्तर जिले में नहरों से सिंचाई 1968-69 में प्रारंभ हुई थी। जिले में नहरों का स्थान तीसरा है, नहर द्वारा 9018 हेक्टेयर क्षेत्र में सिंचाई होती है। जो कुल सिंचित क्षेत्र का 23.73 प्रतिशत और कुल फसली क्षेत्र का 1.02 प्रतिशत है। जिले के 32 विकासखंडों में से 10 विकासखंड में ही नहर द्वारा सिंचाई होती है। कोयलीबेड़ा में कुल सिंचित क्षेत्र का 87.71 प्रतिशत, नरहरपुर में 87.15 प्रतिशत एवं छिंदगढ़ में 83.06 प्रतिशत क्षेत्र पर नहर द्वारा सिंचाई होती है। सात विकासखंडों में 5 से 25 प्रतिशत तक नहरों द्वारा सिंचाई होती है। बाकी 22 विकासखंडों में नहर द्वारा सिंचाई नहीं होती है। जिले में दूध नदी, कोटरी नदी एवं झीयम नदी पर बने मध्यम जलाशय से ही नहर प्रणाली का विकास हुआ है। अत: मानसूनी वर्षा, जलाशयों की कमी एवं पहाड़ी क्षेत्र होने के कारण नहर प्रणाली का विकास अधिक नहीं हुआ है।
(2) तालाब/जलाशय : जनजाति बहुल बस्तर जिले में जलाशय ग्रामीण प्राकृतिक भू-दृश्य का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। जिले के अधिकांश हिस्से में स्थित भूमि प्राकृतिक जलाशय के निर्माण के लिये उपयुक्त है। जलाशय का निर्माण घाटी में, जल बहाव के आर-पार अथवा ढाल की ओर मिट्टी या पत्थर की दीवार बनाकर किया जाता है, जिनका आकार छोटा होता है। इन जलाशयों में वर्षा काल में मानसून के समय जल एकत्रित हो जाता है, जिसका उपयोग फसल की सिंचाई के लिये होता है।
जिले के इन जलाशयों के आकार, सिंचाई-क्षमता एवं संख्या में स्थानिक भिन्नता मिलती है। समतल क्षेत्र के प्रत्येक गाँव में कम से कम दो तालाब मिलते हैं। पिछले 3 दशकों में सिंचाई के जलाशय सहायता कार्यों के अंतर्गत बनाये गये हैं। छोटे-छोटे तालाब सिंचाई योजना में ज्यादा कारगर सिद्ध हुए हैं। परंतु अधिकांश जलाशय कम गहरे हैं। जिसके कारण गर्मी के मौसम में ये जलाशय प्राय: सूख जाते हैं। ये जलाशय पानी के लिये पूरी तरह मानसूनी वर्षा पर निर्भर रहते हैं, सूखा या अपर्याप्त वर्षा होने की स्थिति में सिंचाई की दृष्टि से ये जलाशय उपयुक्त नहीं है केवल बड़े जलाशयों में, जो गिनती में थोड़े हैं, साल भर पानी रहता है। अत: जलाशय जल के निरंतर स्रोत नहीं है।
जिले में 10,291 हेक्टेयर में जलाशय द्वारा सिंचाई होती है। जो जिले की कुल कृषि क्षेत्र का 1.16 प्रतिशत है। जिले में लगभग 266 सिंचाई के जलाशय हैं। जिनमें 31 जलाशय की सिंचाई क्षमता 40 हेक्टेयर से भी कम है। 235 जलाशय 40 हेक्टेयर से अधिक की सिंचाई क्षमता वाले जलाशय हैं। जिले में द्वितीय योजना काल में जलाशय द्वारा केवल 500 हेक्टेयर से भी कम क्षेत्र में सिंचाई उपलब्ध थी। इसमें लगातार वृद्धि होते जा रही है। जिले की भौगोलिक दशाओं के कारण नहर द्वारा सिंचाई सुविधा अपेक्षाकृत कम है, जिससे जलाशय द्वारा सिंचाई के लिये निर्भरता अधिक है। जिले में जलाशय द्वारा सिंचाई दूसरे स्थान पर है। जलाशयों द्वारा कुल सिंचित क्षेत्र का 27.08 प्रतिशत क्षेत्र सिंचित है। जलाशयों द्वारा अधिक सिंचाई भोपालपटनम, लोहाण्डीगुडा, चारामा एवं कोंटा विकासखंड में कुल सिंचित क्षेत्र का क्रमश: 93.38, 82.35, 63.30 एवं 55.55 प्रतिशत क्षेत्र सिंचित है। जलाशयों द्वारा सबसे कम सिंचित क्षेत्र कोयलीबेड़ा विकासखंड में (0.07 प्रतिशत) है। उसके पश्चात नरहरपुर (0.17 प्रतिशत), अंतागढ़ (0.49 प्रतिशत) विकासखंड का स्थान है। जबकि 9 विकासखंडों में जलाशयों द्वारा सिंचाई नहीं होती।
(3) कुआँ : जिले में कुओं द्वारा सर्वाधिक क्षेत्र की सिंचाई होती है। कुओं द्वारा सिंचाई का क्षेत्रफल 15,231 है। यह कुल सिंचित क्षेत्र का 39.73 प्रतिशत तथा कुल कृषि क्षेत्र का 1.72 प्रतिशत है। सिंचाई के कुओं की संख्या 12,470 है। जिले में विद्युत लाइनों का विस्तार अधिक नहीं है। फिर भी परंपरागत तरीके (टेड़ा विधि) द्वारा कुओं से पानी निकालकर सिंचाई होती है। जिले में औसत रूप से प्रति कुआँ मात्र 1.21 हेक्टेयर सिंचित क्षेत्र है। कुओं में वर्ष भर पानी उपलब्ध होने के कारण कुओं से सिंचाई नहरों एवं तालाबों के मुकाबले अधिक उत्तम है। परंतु इससे अधिक क्षेत्र की सिंचाई नहीं हो पाती है। जैसा कि प्राय: नहरों द्वारा सिंचाई में होता है। फिर भी छोटे क्षेत्रों की सिंचाई के लिये कुएँ पर्याप्त होते हैं और इनका उपयोग छोटे क्षेत्र पर धान एवं बागवानी की फसल की सिंचाई के लिये होता है। कुओं द्वारा सिंचाई उन क्षेत्रों में होती है, जहाँ अन्य सिंचाई के स्रोत उपलब्ध नहीं है। धान के लिये अत्यधिक जल की जरूरत को पूरा करने के लिये लाल दोमट मिट्टी कृषि क्षेत्र में भी कुओं द्वारा सिंचई की जाती है।
जिले के सभी विकासखंडों में कुओं द्वारा सिंचाई होती है (तालिका क्र. 5.2)। कुओं द्वारा सबसे अधिक सिंचित क्षेत्र कांकेर में 1,794 हेक्टेयर है। इसके पश्चात चारामा में 1,782 हेक्टेयर सिंचित है। लेकिन कुल सिंचित क्षेत्र का सबसे अधिक सिंचित क्षेत्र दुर्गकोंदल 98.73 प्रतिशत, नारायणपुर 85 प्रतिशत, अंतागढ़ 78.20 प्रतिशत है। कुवाकोंडा और कटेकल्याण में कुल सिंचित क्षेत्र का 100 प्रतिशत सिंचाई कुओं द्वारा होती है। कुओं द्वारा कम सिंचाई क्षेत्र बास्तानार में 6 हेक्टेयर तथा भैरमगढ़ में 10 हेक्टेयर होती है। लेकिन कुल सिंचित क्षेत्र का कुओं द्वारा कम सिंचाई उसूर (1.87 प्रतिशत), भोपालपटनम (2.58 प्रतिशत) एवं छिंदगढ़ (3.36 प्रतिशत) विकासखंड में होती है।
(4) नलकूप : जिले में नलकूप के द्वारा सिंचाई अन्य स्रोतों की अपेक्षा सबसे कम है। इसके द्वारा कुल सिंचित क्षेत्र का केवल 0.35 प्रतिशत सिंचित होता है। कुल फसली क्षेत्र का 0.01 प्रतिशत नलकूप के द्वारा सिंचित होती है। सिंचाई के नलकूपों की संख्या 39 है। जिले के सिर्फ 7 विकासखंडों में ही नलकूप के द्वारा सिंचाई होती है। नलकूप के द्वारा सबसे अधिक नरहरपुर में 54 हेक्टेयर क्षेत्र सिंचित है। जगदलपुर में 37 हेक्टेयर क्षेत्र सिंचित है। बाकी 5 विकासखंडों में 1 से 30 हेक्टेयर तक क्षेत्र नलकूपों से सिंचित होती है। नलकूप से सिंचाई की विधि अपेक्षाकृत आधुनिक एवं उत्तम है। इससे भूमिगत जल का पूर्णत: उपयोग हो पायेगा। जिले में लगभग 75 प्रतिशत भाग पठारी एवं पहाड़ी होने के कारण नलकूप खनन कार्य सफल नहीं हो पा रहा है।
सिंचाई के अन्य स्रोत : बस्तर जिले में सिंचाई के अन्य स्रोतों के द्वारा 3,453 हेक्टेयर भूमि में सिंचाई होती है। जो कुल कृषि क्षेत्र का 0.39 प्रतिशत और कुल सिंचित क्षेत्र का 9.08 प्रतिशत है। इस वर्ग में नाले, पोखर का घुमावदार सिंचाई के तरीके आते हैं। ये मौसमी साधन हैं। इसमें जल इकट्ठा करते हैं। इस एकत्रित जल को व्यर्थ भूमि से और बहुत छोटे नालियों से खेतों में पहुँचाया जाता है। नाले और तालाब द्वारा सिंचाई फसलों के संरक्षण के लिये सामान्य मानसून या कम वर्षा के समय में पर्याप्त होता है। घुमावदार सिंचाई में नदी के बहाव को खेतों की ओर मोड़कर प्रभावी रूप से फल का संरक्षण किया जाता है। यह निश्चित सिंचाई उपलब्ध नहीं कराती, परंतु यह पर्याप्त संरक्षात्मक सिंचाई उपलब्ध कराती है। जिले के 5 विकासखंडों में अन्य स्रोतों से सिंचाई बिलकुल नहीं होती है। अन्य स्रोतों से अधिक सिंचित क्षेत्र, बीजापुर विकासखंड में 57.22 प्रतिशत, दंतेवाड़ा विकासखंड में 55.22 प्रतिशत है। कम सिंचित क्षेत्र दुर्गकोंदल, नरहरपुर, कोयलीबेड़ा, विकासखंडों में 1 से 2 प्रतिशत तक ही है। जनजाति बहुल जनसंख्या, शिक्षा का अभाव, उबड़-खाबड़ एवं वनाच्छादित धरातल के कारण बस्तर जिले में सिंचाई का विकास अत्यंत अल्प हुआ है।
सिंचित फसलें : विश्वसनीय फसल उत्पादन के लिये उन सभी भागों में जहाँ वर्षा की कमी और अनियमित वितरण के कारण फसल उत्पादन प्रभावित होता है, पानी एक महत्त्वपूर्ण अवयव है। फसल उत्पादन के लिये पानी की पर्याप्त मात्रा में आवश्यकता होती है। फसल के लिये पानी की आवश्यकता की पूर्ति के लिये नियंत्रित अंतराल में आपूर्ति की जरूरत होती है। इसलिये विश्वसनीय फसल उत्पादन के लिये उपलब्ध सिंचाई जल का दक्षता से उपयोग करना जरूरी होता है (हुकेसी और पाण्डे, 1977, 163)।
जिले में सिंचाई योजना पूर्व के शासकों द्वारा निर्मित तालाबों एवं कुओं के द्वारा की जाती थी, लेकिन सुनियोजित ढंग से सिंचाई योजना 1965 के लगभग शुरू हुई है। वर्तमान में केवल 37,993 हेक्टेयर अर्थात कुल फसली क्षेत्र का 4.30 प्रतिशत क्षेत्र ही सिंचाई के अंतर्गत है। जिले में केवल धान फसल के लिये सिंचाई का उपयोग ज्यादातर होता है। अन्य फसलों के अंतर्गत गन्ना, सब्जियाँ, दलहन फसलों का सिंचाई बहुत कम क्षेत्र में किया जाता है। कुल सिंचित क्षेत्र का 96.43 प्रतिशत क्षेत्र केवल धान का है (तालिका क्र. 5.5)। अन्य फसलों की सिंचाई नाम मात्र होती है। कुल सिंचित क्षेत्र में 3.96 प्रतिशत क्षेत्र अन्य फसलों का है। इसमें सब्जी, गन्ना इत्यादि फसलें हैं। सब्जियाँ मुख्यत: घर के निकट छोटे बगीचों में उगाये जाते हैं।
सिंचित एवं असिंचित धान फसल : धान जिले की मुख्य फसल है। इसके अंतर्गत 5,84,358 हेक्टेयर क्षेत्र है। (कुल कृषि क्षेत्र का 66.04 प्रतिशत) इसमें से 36,639 हेक्टेयर क्षेत्र सिंचित है। जो धान के कुल क्षेत्र का 6.26 प्रतिशत है।
क्षेत्रीय फसल के रूप में चावल की आपेक्षिक महत्ता का अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है, कि जिले में इसकी पैदावार अन्य सभी फसल के मुकाबले में ज्यादा है। धान ज्यादा पानी की जरूरत वाला पौध है। इसकी विस्तृत पैदावार के लिये पानी की कमी मुख्य बाधक तत्व है। धान की फसल के लिये 100 से 150 सेमी वर्षा की जरूरत होती है। धान के कुल क्षेत्र का केवल 6.26 प्रतिशत क्षेत्र ही सिंचाई प्राप्त करता है। इस तरह धान की फसल का बहुत बड़ा हिस्सा पूरी तरह मानसून की वर्षा पर निर्भर करता है। विकासखंडवार धान और सिंचित धान का क्षेत्र (तालिका क्र. 5.6) में दर्शाया गया है।
यद्यपि जिले में सिंचित क्षेत्र का 96.43 प्रतिशत धान के अंतर्गत है। फिर भी धान की फसल के लिये सिंचाई की उपलब्धता में स्थानिक अंतर है। चारामा विकासखंड में धान की फसल क्षेत्र का 31.27 प्रतिशत सिंचित है। वहीं सुकमा विकासखंड में केवल 0.68 प्रतिशत धान क्षेत्र ही सिंचित है। जिले में 9 विकासखंड ऐसे हैं जहाँ धान का सिंचित क्षेत्र एक प्रतिशत से भी कम है। 8 विकासखंडों में धान का सिंचित क्षेत्र 5 से 15 प्रतिशत तक है तथा 8 विकासखंडों में 5 प्रतिशत तक है।
जिले में सिंचाई का स्तर निम्न है। जिसके कारण धान के उत्पादन क्षेत्र भी कम है। इसका मुख्य कारण है - पठारी एवं पहाड़ी क्षेत्र, जहाँ लाल दोमट मिट्टी एवं लाल बलुई मिट्टी पायी जाती है।
सिंचाई के लिये जल उपयोग : सामान्यत: सिंचाई क्षमता का निर्धारण फसल के लिये पानी की जरूरत के आधार पर किया जाता है। पानी के प्रेषण और अन्य क्षति को प्राय: इकट्ठे ही लिया जाता है। सतही जल के लिये लगभग 150 मिमी के जल को निर्धारित किया जाता है और भूमिगत जल के लिये लगभग 650 मिमी गहराई के जल अन्य आवश्यक सिंचाई कार्यों में निर्धारित किया जाता है (डॉ. एनके बाघमार, 1988, 153)।
खेतों में प्रति इकाई जल की आवश्यकता के लिये स्रोत से 1.25 से 1.50 इकाई जल निर्गमित किया जाता है। बस्तर जिले में सिंचाई क्षमता सभी स्रोतों से (सिंचाई परियोजना भूमिगत जल तथा अन्य स्रोतों से) लगभग 400.8×106 घन मीटर है। 1995 तक सभी स्रोतों से लगभग 17.20×106 घन मी. सिंचाई क्षमता हासिल की गई है। इस प्रकार लगभग 4.30 प्रतिशत जल स्रोत क्षमता का वर्तमान में उपयोग किया गया है। विकासखंड अनुसार क्षमता और सिंचाई जल के उपयोग का विस्तृत विवरण तालिका क्र. 5.7 में दर्शाया गया है। सिंचाई के लिये सतही जल स्रोत भूमिगत जल स्रोत की तुलना में ज्यादा विकसित है। सतही जल स्रोत का 2.57 प्रतिशत उपयोग किया गया है। जबकि भूमिगत जल स्रोत का 1.72 प्रतिशत सिंचाई के लिये उपयोग किया गया है।
सतही जल उपयोग : जिले में सतही जल से सिंचित क्षेत्र 22,762 हेक्टेयर है। जिले में सिंचित जल की क्षमता 316×106 घन मीटर है। लेकिन सिंचाई के लिये उपयोग किये गये जल की मात्रा 11.42×106 घन मीटर है। सिंचाई का जल चारामा विकासखंड में अधिक (3.40×106 घन मीटर है) तथा जिले के उत्तरी क्षेत्र के 6 विकासखंडों में सिंचाई के लिये जल उपयोग की मात्रा 1.01×106 घन मीटर है। जिले के शेष विकासखंडों में जल उपयोग एक घन मीटर से भी कम है।
भूमिगत जल का उपयोग : जिले में भू-गर्भ जल की संभाव्य क्षमता 84.08×106 घन मीटर है, जिसमें से 5.78×106 घन मीटर उपयोग किया गया है। जिले में कांकेर विकासखंड में 1.19×106 घन मीटर भूगर्भिक जल का उपयोग किया गया है, जो सर्वाधिक है। बाकी विकासखंड में भू-गर्भ स्रोत से 15.231 हेक्टेयर क्षेत्र सिंचित है। जिले के उत्तरी क्षेत्र और मध्यवर्ती पूर्वी क्षेत्र में ही भू-गर्भ के स्रोत अधिक पाये गये हैं।
वास्तव में जिले की भौगोलिक दशाओं के कारण अब तक मात्र 4 प्रतिशत भूमिगत जल का उपयोग किया जा रहा है। अत: इसके निकास की पर्याप्त संभावना भविष्य में है।
सिंचाई की समस्या : बस्तर जिले में केवल 4.30 प्रतिशत भूमि सिंचित है। धरातलीय विषमताओं के कारण सिंचाई के स्थानिक वितरण में पर्याप्त विषमताएँ मिलती हैं। जिले के उत्तरी क्षेत्र में जल संसाधन दक्षिण क्षेत्र की अपेक्षा अधिक है। उत्तरी क्षेत्र में पर्याप्त जल संसाधन के होते हुए भी विकास का स्पष्टत: अभाव है। जिले में सिंचाई सम्बन्धी समस्याओं के निम्नलिखित कारण हैं :
(1) प्रशासकीय समस्याएँ : जिले में सिंचाई सुविधा की संभावना उपलब्ध होने के बाद भी सिंचाई के क्षेत्र में वांछित प्रगति नहीं हुई है। आजादी के पूर्व शासकों द्वारा कुएँ और तालाबों से अधिक सिंचाई होती थी, आज भी कुओं से अत्यधिक क्षेत्र की सिंचाई होती है। जिले में कुल 37,993 क्षेत्र हेक्टेयर सिंचित है। जो जिले के कुल फसली क्षेत्र का 4.30 प्रतिशत है। जिले में लघु एवं मध्यम सिंचाई योजना का निर्माण कार्य चल रहा है। साथ ही बोधघाट वृहत सिंचाई परियोजना भी निर्माणाधीन है। लेकिन इन परियोजना के निर्माण से वृहत वनों का नुकसान एवं आदिवासी बस्तियों के विस्थापित हो जाने के कारण यह परियोजना प्रशासन के पास पुन: विचाराधीन है। वर्तमान में निर्माण कार्य बंद है। विश्व बैंक की अनेक कठिन शर्त एवं राज्य शासन में व्याप्त वित्तीय संकट के कारण इस क्षेत्र में लघु एवं मध्यम सिंचाई परियोजना भी अपूर्ण है।
जिले में दक्षिणी भाग में इंद्रावती नदी एवं उसकी शाखा कोटरी, तालपेरू इत्यादि नदियाँ जिले के आधे भाग में जल संग्रहण करते हैं। ये मौसमी नदी हैं। इनके जल को मानसून काल में रोककर सिंचाई के लिये उपयोग किया जा सकता है। आदिवासी विकास योजना एवं अन्य मदों से इस क्षेत्र में अनेक लघु योजनाएँ पिछले 10 वर्षों से स्वीकृत हैं। परंतु राजनैतिक एवं प्रशासकीय कठिनाइयों के फलस्वरूप ये योजनाएँ भी अपूर्ण हैं। यद्यपि इन योजनाओं के नाम पर करोड़ों रुपये व्यय हो चुके हैं।
(2) अवैज्ञानिक सिंचाई पद्धति : बस्तर जिले में सिंचाई के लिये सामान्यत: एक से दूसरे खेत में पानी प्रवाहित किया जाता है। जिससे प्रारंभ में स्थित खेतों को पहले जल उपलब्ध होने के पश्चात क्रमश: निचले भागों के खेतों में जल पहुँचता है। इस प्रक्रिया से न केवल पानी का अपव्यय होता है, बल्कि समीप के खेत भी अधिक समय तक पानी में डुबे रहते हैं, जिससे इन खेतों में जल के जमाव की समस्या प्रारंभ हो जाती है। इससे कालांतर में इन खेतों में पैदावार भी घटने लगती है।
पहले खेत से अंतिम खेत तक पानी पहुँचने में काफी समय लग जाता है और कृषक इस अवधि तक प्रतीक्षा कर सकने की स्थिति में नहीं होते। इस परिस्थिति के कारण अक्सर झगड़े होते हैं तथा कानून एवं व्यवस्था की समस्या पैदा होती है। समय पर पौधों को जल उपलब्ध नहीं होने से उत्पादन भी प्रभावित होता है।
वित्तीय समस्या : जिले में मक्का एवं गन्ना उत्पादन के लिये अनुकूल परिस्थितियाँ हैं। इसके लिये कम सिंचाई की आवश्यकता होती है। जिले में लोगों को कुआँ बनाने, ट्यूबवेल जैसी सुविधा उपलब्ध कराएँ तो जिले में फसल उत्पादन में बढ़ोत्तरी होगी। प्रशासन के पास वित्तीय समस्या के कारण यह सुविधा उपलब्ध नहीं हो पा रही है।
भौगोलिक समस्या : बस्तर जिले का 80 प्रतिशत भाग पठारी एवं पहाड़ी क्षेत्र है। इसलिये जिले में नहर प्रणाली का विकास नहीं हो रहा है। चट्टानी भूमि होने के कारण कुआँ एवं नलकूप खुदाई के लिये अधिक समय लगता है। साथ ही इसमें पानी अवशोषण की क्रिया कम होती है।
बस्तर जिले में जल संसाधन मूल्यांकन एवं विकास एक भौगोलिक विश्लेषण, शोध-प्रबंध 1997 (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।) | |
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2 | बस्तर जिले की भौगोलिक पृष्ठभूमि (Geography of Bastar district) |
3 | बस्तर जिले की जल संसाधन का मूल्यांकन (Water resources evaluation of Bastar) |
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5 | बस्तर जिले का अंतर्भौम जल (Subsurface Water of Bastar District) |
6 | बस्तर जिले का जल संसाधन उपयोग (Water Resources Utilization of Bastar District) |
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8 | बस्तर जिले के जल का अन्य उपयोग (Other uses of water in Bastar District) |
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11 | बस्तर जिले के जल संसाधन विकास एवं नियोजन (Water Resources Development & Planning of Bastar District) |