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डॉ. दिनेश कुमार मिश्र की पुस्तक 'दुइ पाटन के बीच में'
1972 में केन्द्र सरकार ने प्रति वर्ष दो करोड़ रुपयों की व्यवस्था करने का दायित्व संभाला परन्तु नेपाल से हुये समझौते में पश्चिमी कोसी नहर का 35 कि.मी. लम्बा नेपाल भाग फरवरी 1975 में पूरा कर लिया जाना था और केवल इसी की लागत 7.5 करोड़ रुपये थी और केन्द्रीय अनुदान इसके लिए भी पूरा नहीं पड़ता था। भारतीय भाग में किसी काम के बारे में तो इस पैसे से सोचा भी नहीं जा सकता था।
पटना से प्रकाशित दी इण्डियन नेशन ने 7 अगस्त 1971 के अपने सम्पादकीय में यह आशंका व्यक्त की थी कि ‘‘(डगमारा) बराज के तकनीकी औचित्य पर सन्देह कर के वास्तव में जनता को धोखा देने की कोशिश हो रही है। सरकार द्वारा इस योजना को हरी झंडी दिखाने में नेपाल सरकार द्वारा पश्चिमी कोसी नहर योजना को स्वीकृति दिये जाने के संकेत आड़े आ रहे हैं। कुछ ही दिन पहले समाचार पत्रों में एक खबर छपी थी कि काठमाण्डू से इस प्रकार के आश्वासन मिल रहे हैं।’’ इण्डियन नेशन का यह अनुमान सही निकला और 27 अक्टूबर 1971 को काठमाण्डू में इस आशय के एक समझौते पर दोनों देशों ने दस्तखत किये और डगमारा बराज बनाने के विचार को छोड़ दिया गया।योजना को मंजूरी देने के समय नेपाल ने यह शर्त रखी थी कि नहरों के स्वाभाविक प्रवाह से वहाँ 13,800 हेक्टेयर (34,000 एकड़) क्षेत्र पर सिंचाई की व्यवस्था की जाय और एक 15 मीटर लिफ्ट इरिगेशन स्कीम के जरिये 11,740 हेक्टेयर (29,000 एकड़) जमीन के लिए नहर से पानी उपलब्ध करवाया जाय। इस तरह से नहर के निर्माण की जो सबसे बड़ी अड़चन थी उसका समाधान हो गया मगर जो दूसरी समस्या थी संसाधन जुटाने की, वह अपनी जगह बनी रही। सिर्फ बातचीत का दौर चलाते हुये इस नहर के निर्माण की अनुमानित राशि 13.49 करोड़ रुपयों से बढ़ कर 37 करोड़ रुपयों तक जा पहुँची थी।
घर में नहीं है दाने, अम्मा चली भुनाने
तभी डा. के.एल. राव के लोक सभा में 23 नवम्बर 1971 के बयान से योजना पर एक बार फिर तुषारापात हुआ जब यह कहा गया कि 37 करोड़ रुपये लागत वाली पश्चिमी कोसी नहर योजना का खर्च राज्य सरकार को स्वयं वहन करना पड़ेगा। राज्य सरकार के लिए इतने रुपयों की व्यवस्था करना एक असंभव सी बात थी क्योंकि बिहार सरकार की औकात क्या थी यह सब को पता था। जहाँ तक दरभंगा/मधुबनी के किसानों का सवाल था उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता था कि योजना के लिए पैसा केन्द्र या राज्य सरकार में से कौन लगायेगा। उसके लिए तो बस इतना ही काफी था कि किसी तरह उसके खेतों को पानी मिल जाय।
1972 में केन्द्र सरकार ने प्रति वर्ष दो करोड़ रुपयों की व्यवस्था करने का दायित्व संभाला परन्तु नेपाल से हुये समझौते में पश्चिमी कोसी नहर का 35 कि.मी. लम्बा नेपाल भाग फरवरी 1975 में पूरा कर लिया जाना था और केवल इसी की लागत 7.5 करोड़ रुपये थी और केन्द्रीय अनुदान इसके लिए भी पूरा नहीं पड़ता था। भारतीय भाग में किसी काम के बारे में तो इस पैसे से सोचा भी नहीं जा सकता था। किसी तरह योजना की गाड़ी दो साल घिसटती रही और फिर तथाकथित निरीह बिहार सरकार की कारगुजारी रोशनी में आई जब कि योजना पर नेपाल में काम बन्द कर दिया गया जिस पर परदा डालने की भरसक कोशिश की गई। एक समाचार संस्था का हवाला देते हुये इण्डियन नेशन ने पुनः 13 सितम्बर 1973 को अपने सम्पादकीय में लिखा कि, ‘‘पश्चिमी कोसी नहर का निर्माण कार्य नेपाल में भूमि अर्जन पर खड़े एक विवाद के कारण पिछले पाँच महीनों से रुका पड़ा है जिसकी वशह से बिहार सरकार को प्रति दिन 10,000/रु0 (दस हजार रुपये) का नुकासन उठाना पड़ रहा है।
किन्तु राज्य सरकार ने जान बूझ कर इस सूचना को दबा कर जनता को गुमराह किया है।’’ पत्र आगे लिखता है, “... दो वर्ष पहले केन्द्रीय मंत्री डॉ. के.एल. राव के काठमाण्डू प्रवास के दौरान नेपाल सरकार ने यह वायदा किया था कि वह फरवरी 1972 के बाद 35 कि.मी लम्बी नहर के पहले 22 कि.मी. अंश वाली जमीन, तत्कालीन मुआवजे की दर का भुगतान कर देने के बाद, उपलब्ध करवा देगी। आश्चर्य है कि इस का अधिकांश, 23.22 लाख रुपये नेपाली मुद्रा, कोसी योजना के बैंक खाते में जमा भी कर दिया गया था जिसका भुगतान जमीन के मालिकों को नहीं किया गया और इन लोगों ने पिछली मई में इस वजह से काम रुकवा दिया कि उन लोगों को मुआवजे की रकम नहीं मिली।
... बिहार सरकार ने इस वर्ष जुलाई में एक दूसरी ही तस्वीर पेश की। नदी घाटी योजना विभाग द्वारा प्रचारित एक पुस्तिका में कहा गया है कि निशान देने का काम प्रारम्भ हो गया है, 27 से 35 कि.मी. भूमि का स्थानान्तरण भी हो गया है और नहर की खुदाई का काम प्रगति में है। पहले 10 कि.मी. में नहर में ईंट की लाइनिंग का भी काम इस वर्ष शुरू हो जाने की सम्भावना है। क्या बिहार सरकार को सचमुच जुलाई में वास्तविक स्थिति का पता नहीं था?’’