भारत में आपदा का संक्षिप्त परिचय

Submitted by birendrakrgupta on Wed, 01/21/2015 - 10:39
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योजना, मार्च 2012
भारत में आपदा की परिचयात्मक स्थिति भारत के भू-भाग का लगभग 59 प्रतिशत भूकम्प की सम्भावना वाला क्षेत्र है (गृह मन्त्रालय, 2011)। हिमालय और उसके आसपास के क्षेत्र, पूर्वोत्तर, गुजरात के कुछ क्षेत्र और अण्डमान निकोबार द्वीपसमूह भूकम्पीय दृष्टि से सबसे सक्रिय क्षेत्र हैं।संयुक्त राष्ट्र अन्तरराष्ट्रीय आपदा शमन रणनीति (यूएनआईएसडीआर) के अनुसार प्राकृतिक आपदाओं के मामले मंa चीन के बाद दूसरा स्थान भारत का है। भारत में आपदाओं की रूपरेखा मुख्यतः भू-जलवायु स्थितियों और स्थलाकृतियों की विशेषताओं से निर्धारित होती है और उनमें जो अन्तर्निहित कमजोरियाँ होती हैं उन्हीं के फलस्वरूप विभिन्न तीव्रता की आपदाएँ वार्षिक रूप से घटित होती रहती हैं। आवृत्ति, प्रभाव और अनिश्चितताओं के लिहाज से जलवायु-प्रेरित आपदाओं का स्थान सबसे ऊपर है। प्रस्तुत आलेख में भारत में जलवायु-प्रेरित आपदाओं के जोखिम के शमन से सम्बन्धित कतिपय चुनौतियों को समझाने का प्रयास किया गया है।

भारत में आपदा की परिचयात्मक स्थिति भारत के भू-भाग का लगभग 59 प्रतिशत भूकम्प की सम्भावना वाला क्षेत्र है (गृह मन्त्रालय, 2011)। हिमालय और उसके आसपास के क्षेत्र, पूर्वोत्तर, गुजरात के कुछ क्षेत्र और अण्डमान निकोबार द्वीपसमूह भूकम्पीय दृष्टि से सबसे सक्रिय क्षेत्र हैं। देश के 68 प्रतिशत भाग में कभी हल्का तो कभी भीषण सूखा पड़ता रहता है, 38 प्रतिशत क्षेत्र में 750-1125 मि.मी. वर्षा होती है, तो 33 प्रतिशत में 750 मि.मी. से कम वर्षा होती है। भारत के पश्चिमी और प्रायद्वीपीय राज्यों के मुख्यतः शुष्क, अर्द्ध-शुष्क और कम नमी वाले क्षेत्रों में आमतौर से सूखे से दो-चार होना पड़ता है (एनआईडीएम/डीएसी 2009)। देश के बाढ़ सम्भावित 4 करोड़ हेक्टेयर में से लगभग साढ़े सात करोड़ हेक्टेयर प्रति वर्ष मामूली अथवा भीषण बाढ़ से जूझता रहता है।

हालाँकि देश के सभी नदी घाटी इलाकों में बाढ़ का प्रकोप छाया रहता है, परन्तु असम, बिहार, गुजरात, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में प्रायः प्रति वर्ष बाढ़ आती है। भारत के 7,500 कि.मी. लम्बे तटवर्ती क्षेत्र का लगभग 71 प्रतिशत (5,300 कि.मी.) भूकम्प के प्रति संवेदनशील है। अण्डमान और निकोबार द्वीपसमूह, आन्ध्र प्रदेश, ओडिशा, तमिलनाडु और पुडुचेरी में प्रायः भूकम्प के झटके आते रहते हैं।

तालिका-1 : भारत में प्राकृतिक आपदाएँ (1980-2010)

घटनाओं की संख्या

431

मृत लोगों की संख्या

1,43,039

औसत मृत प्रति वर्ष

4,614

प्रभावित लोगों की संख्या

15,21,726,127

औसत प्रभावित प्रति वर्ष

4,90,87,940

आर्थिक क्षति (अमेरिकी डॉलर)

4,80,63,830

प्रति वर्ष आर्थिक क्षति

15,50,446

स्रोत : प्रिवेन्शनवेब


तालिका-1 में 1980-2010 के दौरान घटी आपदाओं और उनसे होने वाली हानि का विवरण दिया गया है। तालिका में यह दर्शाने का प्रयास किया गया है कि प्रकृति जनित आपदाओं से भारत को किस प्रकार की क्षति उठानी पड़ती है। अन्य विकासशील देशों की तुलना में भारत पर इसका आर्थिक प्रभाव भी अधिक पड़ता है। प्राकृतिक आपदाओं से सीधे तौर पर होने वाली क्षति का अनुमान भारत के सकल घरेलू उत्पाद के 2 प्रतिशत और केन्द्र सरकार के राजस्व के 12 प्रतिशत के बराबर होने का लगाया गया है (विश्व बैंक, 2003 एवं 2009)।

इसका अर्थ यह भी है कि पिछले अनेक वर्षों के दौरान आर्थिक, भौतिक, सामाजिक और पर्यावरणीय विकास की उपलब्धियाँ बार-बार घटित होने वाली आपदाओं में घुल जाती हैं। आपदाओं से यह बात भी उजागर हो जाती है कि ये किन निर्णयों के सम्मिलित प्रभावों का परिणाम हैं। इनमें से कुछ निर्णय व्यक्तिगत होते हैं, कुछ सामूहिक, तो कुछ गलती से लिए जाते हैं। (विश्व बैंक और संयुक्त राष्ट्र, 2011)। विभिन्न आपदाओं से मानव-मात्र पर पड़ने वाले प्रभाव से होने वाली क्षति के बारे में कुछ और खुलासा होता है।

तालिका-2 : आपदा शोखिम आँकड़े (1967-2006)

किस प्रकार की आपदा

सं./प्रति वर्ष

वितरण प्रतिशत

हताहत संख्या प्रति वर्ष

औसत प्रभावित जनसंख्या/प्रति वर्ष (दस लाख में)

भूकम्प

0.88

11

2,672

0

बाढ़

4.05

52

1,308

18

सूखा

0.20

3

8

24

भूस्खलन

0.88

11

104

0

चक्रवात

1.83

23

1,219

2

स्रोत : फायनेंसिंग डिजास्टर मैनेजमेण्ट, एनआईडीएम 2009


1967 से 2006 के दौरान भारत में जो आपदाएँ आईं उनमें से 52 प्रतिशत बाढ़ के कारण, 23 प्रतिशत चक्रवात के कारण और 11 प्रतिशत भूकम्प और 11 प्रतिशत भू-स्खलन के कारण हुईं। परन्तु सबसे अधिक लोग भूकम्प मंआ हताहत हुए, उसके बाद बाढ़ और चक्रवात से। प्रभावित लोगों के आँकड़े (तालिका-2) से स्पष्ट है कि सबसे अधिक सूखे से लोग प्रभावित होते हैं। सूखे की प्रकृति ही ऐसी होती है कि उसका प्रभाव लम्बे समय तक बना रहता है।

जोखिम वाले राज्य


भारत में राज्यों में आपदाओं के जोखिम की विस्तृत रूपरेखा को दर्शाने वाला केवल एक ही दस्तावेज है वल्नरेविलिटी एटलस जिसे भवन निर्माण सामग्री एवं प्रौद्योगिकी संवर्धन केन्द्र (बीएमटीपीसी) ने तैयार किया है। बीएमटीपीसी द्वारा 1997 में प्रकाशित इस एटलस का नया संस्करण 2006 में तैयार किया गया था और उसमें विभिन्न आपदाओं से सम्बन्धित ताजा जानकारियाँ दी गई थीं। इस एटलस में भौतिक आपदाओं को भी सम्मिलित किया गया है। उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में बाढ़ की सम्भावना अत्यधिक हो सकती है, परन्तु वहाँ चक्रवात की सम्भावना नहीं हो सकती।

राज्यों की तुलना करने में जटिलता को देखते हुए 12वीं पंचवर्षीय योजना के लिए आपदा प्रबन्धन पर कार्यकारी समूह ने आपदा के कारण हुई विभिन्न प्रकार की क्षतियों के अनुसार राज्यों का क्रम निर्धारित किया है जिसका विवरण नीचे दी गई तालिका-3 में दिया गया है। इससे पता चलता है कि शीर्ष 10 राज्य अधिकांश श्रेणियों में एक समान हैं।

तालिका-3 : 2005-2006 के दौरान क्षति

मानव जीवन

पशुधन

मकान

फसल क्षेत्र

क्र.सं.

शीर्ष 10 राज्य

संख्या

शीर्ष 10 राज्य

संख्या

शीर्ष 10 राज्य

संख्या

शीर्ष 10 राज्य

लाख हेक्टेयर

1

हिमाचल प्रदेश

379

असम

11,659

गुजरात

2,21,664

ओडिशा

12.36

2

उत्तराखण्ड

488

हिमाचल

13,551

राजस्थान

2,69,252

गुजरात

12.85

3

महाराष्ट्र

749

गुजरात

19,365

ओडिशा

4,75,618

राजस्थान

17.36

4

वेफरल

763

बिहार

20,474

असम

4,93,228

बिहार

21.37

5

आन्ध्र प्रदेश

770

कर्नाटक

23,020

उत्तर प्रदेश

5,17,198

महाराष्ट्र

21.52

6

प. बंगाल

921

अरुणाचल

28,409

महाराष्ट्र

7,23,325

उत्तर प्रदेश

22.87

7

कर्नाटक

990

महाराष्ट्र

46,586

आन्ध्र प्रदेश

8,57,027

तमिलनाडु

23.34

8

गुजरात

1,199

प. बंगाल

47,526

बिहार

10,89,679

आन्ध्र प्रदेश

29.21

9

बिहार

1,684

राजस्थान

50,894

कर्नाटक

11,34,080

प. बंगाल

31.38

10

उत्तर प्रदेश

2,763

आन्ध्र प्रदेश

4,81,960

प. बंगाल

20,96,665

कर्नाटक

32.46

अन्य

2,340

अन्य

42,668

अन्य

9,21,314

अन्य

34.43

योगं

13,043

योग

7,86,112

योग

87,99,047

योग

259.15


गुजरात, महाराष्ट्र, आन्ध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल, कर्नाटक और बिहार मानव जीवन क्षति, पशुधन, मकानों और फसलों की क्षति के मामले में शीर्ष 10 राज्यों में आते हैं। आन्ध्र प्रदेश, राजस्थान और पश्चिम बंगाल में आपदाओं से सबसे अधिक क्षति मवेशियों की होती है। मानव जीवन की सबसे अधिक क्षति उत्तर प्रदेश, बिहार, कर्नाटक और पश्चिम बंगाल में होती है। मकानों और फसलों की क्षति भी इन्हीं चार राज्यों में सर्वाधिक होती है। यद्यपि जोखिम के कारणों का सही-सही पता तो उनके और विश्लेषण से ही चल सकेगा, परन्तु यह कहा जा सकता है कि उपर्युक्त राज्य उच्च जोखिम वाली श्रेणी के अन्तर्गत आते हैं और उन पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है (12वीं योजना आपदा प्रबन्धन पर कार्यकारी समूह)।

आपदा सम्भावित क्षेत्रों (विशेषतः तटीय क्षेत्रों) में जनसंख्या में तेजी से हो रही वृद्धि और अन्य विकास गतिविधियों से जोखिम से रू-ब-रू होने का खतरा बढ़ गया है। भौतिक, आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरणीय जोखिम के साथ जुड़कर ये खतरे बड़ी आपदाओं में परिवर्तित होते जा रहे हैं, जिनमें जन-धन की भारी क्षति होती है। इसके अतिरिक्त, सरकार और विकास के अन्य भागीदार राहत और बचाव कार्यों में भारी राशि खर्च करते रहे हैं। जीवन और सम्पत्ति की क्षति के लिए भारी मुआवजा भी दिया जाता रहा है।

राहत और बचाव कार्यों पर व्यय के आँकड़े सरकारी स्रोतों तक ही सीमित हैं, और कभी-कभी विशिष्ट दुर्घटनाओं के सन्दर्भ में ही जिन परिवारों में जन-हानि हुई है, उनकी सहायता के लिए सरकार के पास दो स्रोत हैं। ये हैं — प्रधानमन्त्री राहत कोष और मुख्यमन्त्री राहत कोष। इसके अतिरिक्त आपदा राहत कोष (सीआरएफ), जिसे अब राज्य आपदा कार्रवाई कोष (डिजास्टर रिस्पांस फण्ड- एसडीआरएफ) कहा जाता है, का उपयोग भी राहत और बचाव कार्यों पर व्यय के लिए किया जाता है। यह कोष मूलतः एक ऐसा सहमत कोष होता है जिसमें राज्य का योगदान 25 प्रतिशत होता है और शेष केन्द्र का। जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर जैसे कुछ राज्यों का योगदान अलग होता है। एसडीआरएफ के उपयोग सम्बन्धी आँकड़े राज्यों की समस्याओं की प्रकृति को समझने का उचित मापदण्ड नहीं हैं।

आपदा प्रभावित राज्य सरकारें जब एसडीआरएफ आवंटन से व्यय वहन करने में समर्थ नहीं होतीं, वे क्षति का पूरा विवरण देते हुए राष्ट्रीय आपदा आकस्मिक निधि (एनसीसीएफ), जिसे अब राष्ट्रीय आपदा कार्रवाई कोष (एनडीआरएफ) कहा जाता है, के माध्यम से केन्द्र सरकार से सहायता की माँग करती हैं। प्रभावित राज्यों में स्थिति का अध्ययन करने के लिए भेजे गए केन्द्रीय दल की सिफारिश पर केन्द्र सरकार सहायता राशि जारी करती है। जारी राशि से इस बात का पता चलता है कि आपदा से निपटने के लिए बाहरी सहायता राशि पर किस सीमा तक निर्भर रहना पड़ता है। इससे पुनर्निर्माण की आवश्यकताओं की पूर्ति पूर्णरूप से नहीं हो पाती, परन्तु क्षति और पुनर्निर्माण की आवश्यकता के आकलन की किसी वैज्ञानिक पद्धति की अनुपस्थिति में, जारी एनडीआरएफ राशि से ही विभिन्न राज्यों में जोखिम की स्थिति का पता चल जाता है।

पिछले 6 वर्षों में एनडीआरएफ ने विभिन्न तीव्रता और आकार की आपदाओं के बाद राज्यों को जो राशि सहायता के रूप में प्राप्त हुई है, उसमें से 10 शीर्ष राज्यों का विवरण तालिका-4 में दिया गया है। पिछले 6 वर्षों में एनडीआरएफ द्वारा जो राशि जारी की गई है, उससे पता चलता है कि कुल राशि का 85.7 प्रतिशत कर्नाटक, तमिलनाडु, गुजरात, महाराष्ट्र, आन्ध्र प्रदेश, बिहार, राजस्थान, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश और असम के खाते में गई है।

तालिका-4 : जारी एनडीआरएफ राशि (करोड़ रुपए में)

1995-1996 से 2009-2010 के दौरान औसत प्रति वर्ष

क्र.सं.

राज्य

करोड़ रु.

1

असम

98.74

2

उत्तर प्रदेश

140.14

3

पं. बंगाल

181.97

4

राजस्थान

281.49

5

बिहार

314.04

6

आन्ध्र प्रदेश

332.44

7

महाराष्ट्र

332.65

8

गुजरात

456.15

9

तमिलनाडु

494.67

10

कर्नाटक

517.04

अन्य

523.66

कुल

3,672.66


संस्थागत और वैधानिक तन्त्र


राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन अधिनियम 2005 में पारित हुआ था। राष्ट्रीय, राज्य, जिला एवं स्थानीय स्तर पर आपदा प्रबन्धन से जुड़े विभिन्न कार्यों को अंजाम देने के लिए एक संस्थागत तन्त्र की व्यवस्था करने के अलावा इसमें विभिन्न सरकारी विभागों, एजेंसियों, मन्त्रालयों द्वारा शमन और बचाव के लिए उठाए जाने वाले विभिन्न कदमों का उल्लेख भी किया गया है।

अधिनियम के अनुरूप सरकार ने 2005 में राष्ट्रीय स्तर पर राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन प्राधिकरण (एनडीएमए) का गठन किया जबकि राज्यों और जिलों के स्तर पर विभिन्न सरकारों ने राज्य और जिला आपदा प्रबन्धन प्राधिकरणों (एसडीएमएओ और डीडीएमए) का गठन किया है। इनके अतिरिक्त, सरकार ने आपदाओं के समय कार्रवाई के लिए विशिष्ट बलों का गठन किया है, प्रशिक्षण और अनुसन्धान के लिए राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन संस्थान की स्थापना की है और तुरन्त राहत के लिए धनराशि मुहैया कराने हेतु तन्त्र की व्यवस्था की है। इसने विभिन्न शमन उपायों को हाथ में लेने के लिए कोष के गठन की आवश्यकता भी रेखांकित की है।

आपदा प्रबन्धन के दृष्टिकोण में अब परिवर्तन आ गया है और यह राहतोन्मुखी न रहकर पहले से तैयारी कर आपदाओं के जोखिम को सीमित करने पर जोर देता है। वित्त मन्त्रालय ने यह सुनिश्चित करने के आदेश जारी किए हैं कि मंजूरी के लिए प्राप्त सभी विकास परियोजनाओं की आपदा प्रबन्धन के नजरिये से छानबीन की जानी चाहिए। यह प्रमाण-पत्र जारी करना होगा कि अमुक परियोजना से किसी जोखिम में बढ़ोत्तरी नहीं होगी।

आपदा प्रबन्धन को सरकार के केवल एक विभाग के कार्य के रूप में नहीं देखा जा सकता। यह सभी विभागों और विकास सहभागियों का उत्तरदायित्व है। उपर्युक्त के बावजूद, विभिन्न राज्यों में आपदाओं से निपटने में केन्द्र के सामने अनेक चुनौतियाँ हैं। अधिकांश आपदाएँ जलीय और मौसम विज्ञान सम्बन्धी खतरों के कारण आती हैं। दुर्भाग्यवश इनकी संख्या, भयावहता और तीव्रता बढ़ती जा रही है। जोखिम की सम्भावना वाले अधिकतर राज्यों में इन भीषण घटनाओं से निपटने की तैयारियाँ पर्याप्त नहीं हैं। इन आपदाओं का चरित्र पूर्व की तुलना में अब अधिक भयावह होता जा रहा है। घटनाओं की प्रकृति में यह बदलाव केवल उनकी तीव्रता अथवा प्रभाव क्षेत्र में कालान्तर में आए परिवर्तन तक ही सीमित नहीं रह गया है, बल्कि अब यह घटनाएँ नये-नये क्षेत्रों में भी घटित होने लगी हैं। बाड़मेर इस तथ्य का एक ज्वलन्त उदाहरण है, जो सदा से सूखा प्रभावित क्षेत्र रहा है, परन्तु अब वह बाढ़ से घिरा रहता है।

आपदाओं के इस बदलते परिदृश्य में मौसम में जो बदलाव देखने को मिल रहा है, उसने मौजूदा चुनौतियों में और इजाफा कर दिया है। यदि मौसम के कारण आने वाली आपदाओं की तीव्रता और अनिश्चितता का यही रुख बरकरार रहा तो इससे निश्चित ही खतरे और जोखिम का परिदृश्य ही बदल जाएगा। विभिन्न क्षेत्रों पर इसका प्रभाव अलग-अलग रूप से प्रकट होगा और समस्याएँ बढ़ेंगी। एक उदाहरण अग्रलिखित है :

1. संक्रामक, श्वास सम्बन्धी और जलवाही रोगों के साथ-साथ गर्म और शीतलहर की स्थितियों से लोगों का स्वास्थ्य प्रभावित होगा। जिन शहरों में कथित रूप से वाहनों के उत्सर्जन पर नियन्त्रण की बात कही जाती है, वहाँ भी श्वास सम्बन्धी रोग बढ़ रहे हैं।

2. पानी की उपलब्धता सम्बन्धी अनिश्चितताओं से कृषि उत्पादकता, पैदावार, सिंचाई की माँग और कीट-प्रकोप की समस्याएँ अतिरिक्त चुनौतियाँ पेश करेंगी।

3. उपलब्ध जल में घट-बढ़ के कारण पानी की माँग में आए अन्तर को पूरा करने के लिए भू-जल की निकासी पर प्रभाव पड़ेगा। इससे गुणवत्ता प्रभावित होगी और भू-जल स्तर में गिरावट से जुड़ी समस्याएँ बढ़ेंगी।

4. भीषण घटनाओं से शहरों की मौजूदा जल निकासी प्रणाली पर दबाव और बढ़ जाएगा। मुम्बई की 2005 की बाढ़ और हैदराबाद, बंगलुरु तथा चेन्नई में आने वाली बाढ़ इस बात का उदाहरण हैं कि मौजूदा अधोसंरचनाएँ दबाव को सहन नहीं कर सकतीं।

उपर्युक्त परिदृश्य को दृष्टिगत रखते हुए और यह देखते हुए कि शहरी क्षेत्रों में विकास की गति में तेजी आई है, आपदा के जोखिम में कमी लाने के दृष्टिकोण में जलवायु-प्रेरित आपदाओं पर विशेष रूप से ध्यान केन्द्रित करना होगा।

जलवायु में आ रहे परिवर्तनों का प्रभाव भारत के अनेक राज्यों में आपदा के स्वरूप को पुनर्परिभाषित कर रहा है। भारत सरकार राष्ट्रीय और राज्य जलवायु परिवर्तन कार्ययोजनाओं के जरिये जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों का मुकाबला करने का प्रयास कर रही है। इन परिवर्तनों से निपटने के लिए प्रणालियों को सुदृढ़ बनाया जा रहा है। परन्तु इन्हें आपदा के जोखिम को कम करने के उपायों से जोड़ने की आवश्यकता होगी। वैसे इन उपायों में भी भारी बदलाव की आवश्यकता है।

चुनौतियाँ


1. ऐसे में जबकि सरकार के पास कार्रवाई करने की व्यवस्था मौजूद है और क्षमताओं को सुदृढ़ बनाया जा रहा है, देश को आपदा प्रबन्धन के क्षेत्र में विशेषज्ञ वृत्तिजीवियों की आवश्यकता है ताकि आपदाओं को रोका जा सके और उनका शमन किया जा सके। लेकिन इसके लिए सरकार में और उसके बाहर, जिसमें अकादमिक संस्थाएँ भी शामिल हैं, मानव कौशल विकास की उपलब्ध क्षमता सर्वथा अपर्याप्त हैं।

2. संस्थागत संरचना (निश्चय ही इसमें सुधार की आवश्यकता है), नीतियों, कानूनों और दिशा-निर्देशों के रूप में हमारे पास एक सहायक वातावरण मौजूद है। अनेक राज्यों में आपदा प्रबन्धन प्राधिकरण अभी भी काम करने की स्थिति में नहीं हैं। अनेक राज्यों में अभी भी उच्च राज्यस्तरीय कार्य योजना तैयार नहीं हो सकी है।

3. वित्त मन्त्रालय (भारत सरकार) ने स्वीकृति की पूर्व शर्त के रूप में सभी नयी परियोजनाओं को आपदा शमन के नजरिये से छानबीन करने के आदेश जारी तो किए हैं, परन्तु इसको प्रमाणित करने वाले अधिकारियों के पास ऐसा करने की वांछित योग्यता ही नहीं है।

4. जोखिम को कम करने के लिए जिस चीज की सबसे अधिक आवश्यकता होती है, वह है जोखिम की अच्छी समझ। सभी राज्य सरकारें जोखिम के विस्तृत आकलन की पद्धति से परिचित नहीं हैं और इस कार्य को हाथ में लेने की सरकार के पर्याप्त क्षमता भी नहीं है।

5. आपदा के जोखिम को कम करने के प्रयासों को विकास के एक मुद्दे के रूप में देखा जाना चाहिए। पंचवर्षीय योजनाओं (10वीं और 11वीं) में स्पष्ट रूप से ऐसा करने को कहा गया है, परन्तु व्यवहार में ऐसा नहीं हो रहा है।

6. जलवायु से जुड़े जोखिम सम्बन्धी प्रबन्धन को विकास की समस्याओं के रूप में देखे जाने की आवश्यकता है और उसकी क्षमता के विकास की भी आवश्यकता है। कृषि, खाद्य सुरक्षा, जल संसाधन, अधोसंरचना और स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। इन क्षेत्रों से जुड़े सम्बन्धित विभागों को अपने वैकल्पिक प्रयासों में आपदा जोखिम शमन को प्रमुखता से सम्मिलित करना होगा। चल रहे कार्यक्रमों को भी आपदा जोखिम शमन (डीआरआर) से समेकित करने का प्रयास करने की आवश्यकता है।

7. मानव संसाधन विकास को व्यवस्थित रूप देना होगा। क्षमताओं के विकास के लिए महज प्रशिक्षण ही पर्याप्त नहीं होगा। प्रशिक्षकों और प्रशिक्षणार्थियों का चयन व्यवस्थित ढंग से करना होगा और पुनश्चर्या प्रशिक्षण कार्यक्रम का प्रावधान करना होगा, साथ ही प्रशिक्षित व्यक्तियों का समुचित उपयोग करना होगा। इसके अतिरिक्त आपदा जोखिम शमन और उसके लिए विकसित साधनों और पद्धतियों को प्रमुखता देने के लिए अनुकूल वातावरण भी तैयार करना होगा।

8. भीषण आपदाओं से निपटने के अनेक पारम्परिक ज्ञान (तौर-तरीकों) को या तो हम भूल चुके हैं या फिर उनको आजमाया नहीं जाता। इनमें से अनेक को पुनर्जीवित कर कुछ वैज्ञानिक पुट देकर उन्हें और सुदृढ़ बनाया जा सकता है।

9. जोखिम की सम्भावना वाले समुदायों को खतरे में कमी लाने यानी उसका सामना करने के लिए समर्थ और सशक्त बनाना होगा। भूमिकाओं और उत्तरदायित्वों को स्पष्ट रूप से परिभाषित करने के साथ-साथ विभिन्न क्रियाओं, तैयारियों और शमन के उपायों को व्यवस्थित रूप से अंजाम देने वाली सामुदायिक आपदा प्रबन्धन योजनाओं को लागू करना होगा। इन योजनाओं की प्रभाविकता के परीक्षण के लिए बनावटी अभ्यास (मॉक ड्रिल) की भी आवश्यकता है।

आपदा प्रबन्धन को सरकार के केवल एक विभाग के कार्य के रूप में नहीं देखा जा सकता। यह सभी विभागों और विकास सहभागियों का उत्तरदायित्व है। भीषण आपदाओं से हो सकने वाली सम्भावित मुसीबतों और विद्यमान जोखिम को समझना महत्वपूर्ण होगा और उनसे जुड़ी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए तैयारियाँ बढ़ानी होंगी। राज्य और जिला योजनाओं के अलावा हर भवन और परिवार की आपदा प्रबन्धन योजनाएँ तथा उनके लिए तैयारियाँ होनी चाहिए। निवारण की संस्कृति हमारी जीवनशैली में ही शामिल होनी चाहिए। कोई विवशता अथवा कृतज्ञता की आवश्यकता ही नहीं होनी चाहिए।

(लेखक भारत स्थित यूएनडीपी में आपात स्थिति विश्लेषक हैं)
ई-मेल : g.padmanabhan@undp.org