भारत या इंडिया

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भारत या इंडिया सीमा : दक्षिणी एशिया के तीन प्रायद्वीपों में से मध्यवर्ती प्रायद्वीप पर स्थित सबसे महत्वपूर्ण देश है। क्षेत्रफल में यह संसार का सातवाँ विशालतम देश है और केवल चीन में यहाँ से अधिक जनसंख्या पाई जाती है। भारत का क्षेत्रफल 12, 62, 275 वर्ग मील है। उत्तर से दक्षिण इसकी लंबाई 2,000 मील और पूर्व से पश्चिम चौड़ाई 1,850 मील है। कर्क रेखा देश के लगभग बीच से गुजरती है। भारत के उत्तर में (नेपाल क्षेत्र छोड़कर) हिमालय की ऊँची पर्वतमाला है और दक्षिण में हिंद महासागर। कश्मीर की उत्तरी सीमा पर कराकोरम पहाड़ तथा पामीर का पठार है। हिमालय के उत्तर में चीन है। पूर्व मे बर्मा तथा पूर्वी पाकिस्तान हैं, किंतु पूर्वी पाकिस्तान के पूर्व में भी असम, नागालैंड और त्रिपुरा के भारतीय क्षेत्र हैं। उत्तर-पश्चिमी सीमा पर पश्चिमी पाकिस्तान तथा अफगानिस्तान हैं। बंगाल की खाड़ी में स्थित अंदमान तथ निकोबार द्वीपसमूह और अरब सागर में स्थित लक्षदीवी मिनिकोय और अमीनदीवी द्वीपसमूह हैं। पूर्वी हिमालय में भूटान है जो वैदेशिक संबंध के मामलों में भारत सरकार के अधीन है पर अन्य बातों में स्वतंत्र है। भूटान के पश्चिम में सिक्किम भारत सरकार के संरक्षण (प्रोटेक्टरेट) में है।

राजनीतिक विभाग- 15 अगस्त, 1947 ई. को भारत अंग्रेजों के शासन से मुक्त हुआ किंतु स्वतंत्र होने के साथ ही देश दो भागों में विभाजित कर दिया गया। जिन भागों में मुसलमानों की संख्या अधिक थी, उन्हें भारत से पृथक्‌ कर पाकिस्तान नामक राज्य की स्थापना की गई और बचे हुए भाग का नाम भारत या इंडिया ही रहा। विभाजन के फलस्वरूप देश का लगभग 22 प्रतिशत क्षेत्र और 17 प्रतिशत जनसंख्या तथा अन्न उत्पादन का 25 प्रतिशत भाग पाकिस्तान के हिस्से पड़ा। इसके कारण भारत में खाद्यान्न की समस्या पहले से अधिक जटिल हो गई। कपास के उत्पादन का 40 प्रतिशत और जूट के उत्पादन का 80 प्रतिशत से भी अधिक भाग पाकिस्तान के हिस्से में पड़ा। जिससे भारत के सूती वस्त्रोद्योग और जूट उद्योग को भारी धक्का पहुँचा।

26 जनवरी, 1950 ई. को भारत ने अपने को ब्रिटिश कामनवेल्थ के अंतर्गत, एक प्रजातंत्रात्मक राज्य घोषित किया। शासनप्रबंध विचार से भारत राज्यों का एक संघ है। ब्रिटिश शासनकाल में भारत में देशी राज्यों की संख्या 562 थी, जिनमें से कुछ बड़े, किंतु अधिकांश अत्यंत छोटे थे। स्वतंत्रता के बाद, एकीकरण की योजना के अनुसार अधिकांश छोटे छोटे देशी राज्यों को उनके निकटवर्ती राज्यों में मिला दिया गया; जैसे उड़ीसा के 26 छोटे छोटे देशी राज्य उड़ीसा राज्य में मिला दिए गए और इसी प्रकार सरॉय केला तथा खरसवाँ बिहार में तथा रामपुर, टेहरी इत्यादि उत्तर प्रदेश में मिला दिए गए। जिन क्षेत्रों मे अनेक देशी राज्य एक दूसरे से मिले हुए थे, उन्हें मिलाकर राज्यसंघों में परिणत कर दिया गया; जैसे, काठियावाड़ और गुजरात के लगभग 216 छोटे बड़े राज्यों को मिलाकर राजस्थान, 35 राज्यों को मिलाकर विंध्यप्रदेश, 20 राज्यों को मिलाकर मध्य भारत, तथा 8 देशी राज्यों को मिलाकर पेप्सू राज्यसंघों का निर्माण हुआ। हैदराबाद, मैसूर, ट्रावनकोर, कोचीन तथा जम्मू कश्मीर देशी राज्य कहलाने लगे। इस प्रकार भारतीय संघ में चार प्रकार के राज्यों का निर्माण हुआ जिन्हें अ, ब, स, द (A, B, C, D) राज्य कहते थे। (1) 'अ' वर्ग के राज्य में पुराने प्रांत शामिल थे और राज्यपाल द्वारा शासित होते थे। इसके अंतर्गत असम, पश्चिमी बंगाल, बिहार, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, पंजाब, बंबई तथा मद्रास आते थे। सन्‌ 1953 में मद्रास से अलग होकर आंध्रप्रदेश 'अ' वर्ग का राज्य हो गया। (2) 'ब' वर्ग में बड़े बड़े देशी राज्य और उनके संघ थे। ये राजप्रमुख द्वारा शासित होते थे। इसके अंतर्गत सौराष्ट्र, हैदराबाद, मैसूर, ट्रावनकोर-कोचीन, राजस्थान, मध्यभारत और पेप्सू (पटियाला तथा पूर्वी पंजाब की रियासतें) आते थे। (3) 'स' वर्ग के राज्य चीफ़ कमिश्नर द्वारा शासित होते थे और इनके शासन का उत्तरदायित्व केंद्रीय सरकार पर था। दिल्ली, अजमेर, मेखाड़वाड़, भोपाल, कुर्ग, विंध्य प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, मनीपुर, त्रिपुरा तथा कच्छ के राज्य इसी वर्ग के अंतर्गत थे। (4) 'द' वर्ग के राज्य के अंतर्गत अंदमान तथा निकोबार द्वीपसमूह थे जो केंद्रीय सरकार द्वारा शासित होते थे। यह स्थिति अक्टूबर, 1956 ई. तक रही। इनके अलावा जम्मू और कश्मीर राज्य का एक विशेष वर्ग रहा जो 'ब' वर्ग से मिलता जुलता था।

शासन की सुव्यवस्था तथा अन्य सुविधाओं के लिए इन राज्यों का मुख्यत: भाषा के आधार पर 1. नवंबर, 1956 ई. को पुनर्गठन किया गया। पुनर्गठन के फलस्वरूप भारत को 14 राज्यों तथा 6 केंद्रीय शासित प्रदेशों मे विभक्त किया गया। 1 मई, 1960 ई. को बंबई राज्य को विभाजित कर महाराष्ट्र एवं गुजरात राज्यों की रचना हुई। अगस्त, 1961 ई. में दादरा और नागर हवेली, जो पुर्तगालियों के अधीन थे, केंद्र द्वारा शासित प्रदेश घोषित किए गए। दिसंबर, सन्‌ 1961 में गोआ, दामण और दीव जो पुर्तगाल के अधीन थे, भारत सरकार के अधिकार में आ गए और मार्च, सन्‌ 1962 केंद्र द्वारा शासित प्रदेश घोषित किए गए। अगस्त, 1962 ई. में फ्रांस के अधीनस्थ क्षेत्र पांडिचेरी, कारिकाल, माहि तथा यानाम भारत को लौटा दिए गए और उन्हें केंद्रशासित प्रदेश बना दिया गया। फरवरी, 1961 ई. में असम के कुछ पूर्वी भागों को, जो मनीपुर के उत्तर और नेफा के दक्षिण में पड़ते थे, एक अलग राज्य बनाने की घोषणा की गई और इसके फलस्वरूप 1 दिसंबर, 1963 ई. को नागालैंड भारत का 16 वाँ राज्य बनाया गया। 1 नवंबर, 1966 को भाषा के आधार पर पंजाब के विभाजन के फलस्वरूप हरियाना राज्य का जन्म हुआ एवं पुराने पंजाब के पहाड़ी जिले हिमाचल प्रदेश में मिला दिए गए। इस प्रकार भारत में अब 17 राज्य और नौ केंद्र शासित क्षेत्र हैं।

राज्य तथा मुख्य भाषा (कोष्ठ में)

क्षेत्रफल (वर्गमील में)

जनसंख्या (1961) लाख में

राजधानी

असम, नेफा सहित (असमी)

78,529

122.09

शिलौंग

बिहार (हिंदी)

67,196

464.56

पटना

पश्चिमी बंगाल (बंगला)

33,829

349.26

कोलकाता

उड़ीसा (उड़िया)

60,171

175.49

भुवनेश्वर

उत्तर प्रदेश (हिंदी)

1,13,654

737.46

लखनऊ

मध्य प्रदेश (हिंदी)

1,71,217

323.72

भोपाल

हरियाणा (हिंदी)

पंजाब (पंजाबी)

नवंबर, 1966 ई. से पूर्व पंजाब के आँकड़े

47,205

203.07

चंडीगढ़

जम्मू कश्मीर (डोगरी तथा कश्मीरी)

86,023

35.61

श्रीनगर

राजस्थान (हिंदी)

1,31,943

201.56

जयपुर

गुजरात (गुजराती)

72,245

206.33

अहमदाबाद

महराष्ट्र (मराठी)

1,18,717

395.54

बंबई

मैसूर (कन्नड़)

74,220

235.87

बेंगलूर

आंध्रप्रदेश (तेलगू)

1,06,286

359.83

हैदराबाद

मद्रास (तमिल)

50,331

336.87

मद्रास

केरल (मलयालम)

15,002

169.04

त्रिवेंद्रम

नागालैंड

6,366

कोहिमा

केंद्रशासित प्रदेश:

दिल्ली (हिंदी)

573

26.58.612

दिल्ली

हिमाचल प्रदेश (नवंबर, 1966 से पूर्व के आँकड़े)

10,885

13,51,144

शिमला

मनीपुर

8,628

7,80,037

इंफाल

त्रिपुरा

4,036

11,42,005

अगरतल्ला

अंडमान और निकोबार द्वीपसमूह

3,215

63,548

पोर्टब्लेयर

लक्षदीवी, मिलिकोय और अमीनदीवी द्वीपसमूह

11

24,108

कवराथी

दादरा और नागर

189

57,963

सिलवासा

हवेली

11

6,26,978

पंजिम

गोआ, दामण और दीव

189

3,69,079

पांडिचेरी



भूगर्भीय सरंचना- भूगर्मीय सरंचना के आधार पर भारत को हम तीन स्पष्ट विभागों में बाँट सकते हैं : 1. दक्षिण का प्रायद्वीपीय पठार, 2. उत्तर की विशाल पर्वतमाला तथा 3. इन दोनों के बीच स्थित विस्तृत समतल मैदान।

1. दक्षिण प्रायद्वीपीय पठार- यह भारत का प्राचीनतम भूखंड है। इसका निर्माण पृथ्वी के अन्य प्राचीनतम भूखंडों की तरह, भूवैज्ञानिक इतिहास के प्रारंभ काल में हुआ था जिसे आद्यमहाकल्प (Archaear Era) कहते हैं। तब से यह बराबर स्थल रहा है और कभी भी समुद्र के नीचे नहीं गया है। इसका प्रमाण इसमें पाई जानेवाली चट्टानों से बना हुआ है जिनमें मुख्य ग्रेनाइट, नाइस और शिस्ट हैं। जहाँ कहीं परतदार चट्टानें मिलती हैं, वे भी अत्यंत पुरानी हैं ओर उनके समुद्र में जमा होने का कोई प्रमाण नहीं मिलता। इससे स्पष्ट है कि यह अपने इतने लंबे जीवनकाल मे कभी समुद्र के नीचे नहीं गया और बराबर स्थल ही के रूप में वर्तमान रहा है। एक दूसरी विशेषता इस स्थलखंड की यह है कि यह अत्यंत प्राचीन काल से पर्वत निर्माणकारी भूसंचलन से भी मुक्त रहा है। इस बीच में संसार में भूगर्भिक हलचल के जितने भी अवसर आए, उनसे यह अप्रभावित और अक्षुण्ण रहा है। विंध्य पर्वत की परतदार चट्टानें इतनी पुरानी होने पर भी क्षैतिज अवस्था में पाई जाती हैं। भूपटल के इस प्रकार के स्थिर खंडों को शील्ड (shield) कहते हैं। इसमें मोड़दार पर्वत नहीं मिलते और जो पर्वत नहीं मिलते हैं वे अवशिष्ट अथवा घर्षित वर्ग के हैं। अरावली पर्वत भी एक अवशिष्ट पर्वत है। इसका विस्तार शायद हिमालय पर्वत माला से कम नहीं था, किंतु इस समय हम उसका एक अवशेष मात्र पाते हैं। पूर्वी घाट तथा पश्चिमी घाट भी अवशिष्ट पहाड़ों के उदाहरण हैं। दक्षिणी प्रायद्वीप में जो भी भुसंचलन के प्रमाण मिलते हैं वे केवल लंबवत्‌ संचलन के हैं जिससे दरारों अथवा भ्रंशों का निर्माण हुआ। इस प्रकार का पहला संचलन मध्यजीवीं महाकल्प (Mesozoic Era) अथवा गोंडवाना काल में हुआ। समांतर भ्रंशों के बीच की भूमि नीचे धँस गई और उन धँसे भागों में अनुप्रस्थ परतदार चट्टानों को गोंडवान क्रम की चट्टानों में मिलता है। इनका विस्तार, दामोदर, महानदी तथा गोदावरी नदियों की घाटियों में लंबे एवं सकीर्ण क्षेत्रों में पाया जाता है। दूसरा लंबवत्‌ संचालन मध्यजीवी महाकल्प के अंतिम काल में हुआ, जबकि लंबी दरारों से लावा निकल कर प्रायद्वीप के उत्तर-पश्चिमी भागों के विस्तृत क्षेत्र में फैल गया। दक्कन का यह लावा क्षेत्र अब भी लगभग दो लाख वर्ग मील में फैला हुआ पाया जाता है। इस क्षेत्र की चट्टान बेसाल्ट है जिसके विखंडन से काली मिट्टी का निर्माण हुआ है।

अत्यंत प्राचीन काल से स्थिर एवं स्थल भाग रहने के कारण दक्षिणी प्रायद्वीप में अनावृत्तिकरण शक्तियां निरंतर काम करती रही हैं जिसके फलस्वरूप इसका अधिकांश घर्षित हो गया है, अंदर की पुरानी चट्टानें धरातल पर आ गई हैं और नदियाँ अपक्षरण के आधार तल तक पहुँच गई हैं।

2. हिमालय पर्वतमाला- इसकी संरचना दक्षिणी प्रायद्वीप से बहुत ही भिन्न है। यद्यपि इसके कुछ भागों में प्राचीन चट्टानें मिलती हैं, तथापि अधिकांशत: यह नवीन परतदार चट्टानों द्वारा निर्मित है, जो लाखों वर्षो तक टेथिस समुद्र में एकत्रित होती रही थीं। इन परतदार चट्टानों की मोटाई बहुत है और वे प्राय: भूवैज्ञानिक इतिहास के प्रथम (primary or palaeozoic) या पुराजीवी महाकल्प के कैंब्रियन काल से आरंभ होकर, द्वितीय (Tertiary) महाकल्प के आरंभ तक समुद्र में जमा होती रहीं। सागर में एकत्रित मलबों ने तृतीय महाकल्प में भूसंचलन के कारण विशाल मोड़दार श्रेणियों का रूप धारण किया। इस प्रकार हिमालय पर्वतमाला मुख्यत: वैसी चट्टानों से निर्मित है, जो समुद्री निक्षेप से बनी हैं और दक्षिणी पठार की तुलना में यह एक स्थल है। इसमें पर्वत निर्माणकारी संचलन के प्रभाव के सभी प्रमाण मिलते हैं। परतदार चट्टानें जो क्षैतिज अवस्था में जमा हुई थीं, भूसंचलन के प्रभाव से अत्यंत मुड़ गई हैं और एक दूसरे पर चढ़ गई हैं। विशाल क्षेत्रों में वलन (folds), भ्रंश (faults), क्षेप-भ्रंश (thrust faults) तथा शयान वलन (recumbent folding) के उदाहरण मिलते हैं। ये वास्तविक अर्थ में पर्वत हैं जिनका निर्माण भूसंचलन पर निर्भर है और उसपर अनावृत्तीकरण शक्तियों ने उतना अधिक परिवर्तन नहीं किया है जितना दक्षिणी प्रायद्वीप में। यहाँ की नदियाँ अपनी युवावस्था में हैं और अभी तक अपनी तली को गहरी काटती जा रही हैं। इसलिए इनमें गहरी, संकीर्ण एवं खड़ी घाटियाँ तथा गार्ज़ (gorge) मिलते हैं। सिंधु, सतलुज तथा ब्रह्मपुत्र नदियों के महान्‌ गॉर्जो के अतिरिक्त अन्य नदियों ने भी इसमें गहरी घाटियाँ काटी हैं।

3. उत्तरी भारत का विस्तृत मैदान- यह भूवैज्ञानिक दृष्टि से सबसे नवीन तथा कम महत्वपूर्ण है। हिमालय पर्वतमाला के निर्माण के समय उत्तर से जो भूसंचलन आया उसके धक्के से प्रायद्वीप का उत्तरी किनारा नीचे धँस गया जिससे विशाल खड्ड बन गया। हिमालय पर्वत से निकलनेवाली नदियों ने अपने निक्षेपों द्वारा इस खड्ड को भरना शुरू किया, और इस प्रकार उन्होंने कालांतर में एक विस्तृत मैदान का निर्माण किया। इस प्रकार यह मैदान मुख्यत: हिमालय के अपक्षरण से उत्पन्न तलछट और नदियों द्वारा जमा किए हुए जलोढक से बना है। इसमें बालू तथा मिट्टी की तहें मिलती हैं, जो अत्यंतनूतन (Pleistocene) और नवीनतम काल की हैं। यह विस्तृत मैदान लगभग समतल है और उससे होकर उत्तर भारत (तथा पाकिस्तान) की नदियाँ गंगा, सिंधु, ब्रह्मपुत्र मंदगति से समुद्र की ओर बहती हैं।

धरातलीय रूप- धरातल के अनुसार भी भारत के तीन मुख्य प्राकृतिक विभाग हैं : उत्तरी पर्वतमाला, उत्तरी भारत का मैदान और दक्षिण का पठार।

उत्तरी पर्वतमाला- भारत के उत्तर में हिमालय की पर्वतमाला नए और मोड़दार पहाड़ों से बनी है। यह पर्वतश्रेणी असम से कश्मीर तक लगभग 1,500 मील तक फैली हुई है। इसकी चौड़ाई 150 से 200 मील तक है। यह संसार की सबसे ऊँची पर्वतमाला है और इसमें अनेक चोटियाँ 24,000 फुट से अधिक ऊँची हैं। हिमालय की सबसे ऊँची चोटी माउंट एवरेस्ट है जिसकी ऊँचाई 29,028 फुट है। यह नेपाल में स्थित है। अन्य मुख्य चोटियाँ कांचनजुंगा (27,815 फुट), धौलागिरि (26,795 फुट), नंगा पर्वत (26,620 फुट), गोसाईथान (26,291 फुट), नंदादेवी (25,645 फुट) इत्यादि हैं। गॉडविन ऑस्टिन (माउंट के 2) जो 28,250 फुट ऊँची है, हिमालय का नहीं, बल्कि कश्मीर के कराकोरम पर्वत का एक शिखर है। हिमालय प्रदेश में 16,000 फुट से अधिक ऊँचाई पर हमेशा बर्फ जमी रहती है। इसलिए इस पर्वतमाला को हिमालय कहना सर्वथा उपयुक्त है।

हिमालय के अधिकतर भाग में तीन समांतर श्रेणियाँ मिलती हैं। इन्हें उत्तर से दक्षिण क्रमश: (क) बृहत्‌ अथवा आभ्यांतरिक हिमालय (The great or inner Himalayas), (ख) लघु अथवा मध्य हिमालय (The lesser or middle Himalayas) और (ग) बाह्य हिमालय (Outer Himalayas) कहते हैं। (क) सबसे उत्तर में पाई जानेवाली श्रेणी सबसे ऊँची है। यह कश्मीर में नंगापर्वत से लेकर असम तक एक दुर्भेद्य दीवार की तरह खड़ी है। इसकी औसत ऊँचाई 20,000 फुट है। (ख) ज्यों ज्यों हम दक्षिण की ओर जाते हैं, पहाड़ों की ऊँचाई कम होती जाती है। लघु अथवा मध्य हिमालय की ऊँचाई प्राय: 12,000 से 15,000 फुट तक से अधिक नहीं है। औसत ऊँचाई लगभग 10,000 फुट है और चौड़ाई 40 से 50 मील। इन श्रेणियों का क्रम जटिल है और इससे यत्र तत्र कई शखाऍ निकलती हैं। बृहत्‌ हिमालय और मध्य हिमालय के बीच अनेक उपजाऊ घाटियाँ हैं जिनमें कश्मीर की घाटी तथा नेपाल में काठमांडू की घाटी विशेष उल्लेखनीय हैं। भारत के प्रसिद्ध शैलावास शिमला, मसूरी, नैनीताल, दार्जिलिंग मध्य हिमालय के निचले भाग में, मुख्यत: 6,000 से 7,500 फुट है (मानचित्र 1)। इसे शिवालिक की श्रेणी भी कहते हैं। यह श्रेणी हिमालय की सभी श्रेणियों से नई है और इसका निर्माण हिमालय निर्माण के अंतिम काल में कंकड़, रेत तथा मिट्टी के दबने और मुड़ने से हुआ है। इसकी चौड़ाई पाँच से 60 मील तक है। मध्य और बाह्य हिमालय के बीच कई घाटियाँ मिलती हैं र्जिन्हें दून (देहरादून) कहते हैं।

पूर्व में भारत और बर्मा के बीच के पहाड़ भिन्न भिन्न नामों से ख्यात हैं। उत्तर में यह पटकोई की पहाड़ी कहलाती है। नागा पर्वत से एक शाखा पश्चिम की ओर असम में चली गई हैं जिसमें खासी और गारो की पहाड़ियाँ है। इन पहाड़ों की औसत ऊँचाई 6,000 फुट है और अधिक वर्षा के कारण ये घने जंगलों से आच्छादित हैं।

हिमालय की ऊँची पर्वतमाला को कुछ ही स्थानों पर, जहाँ दर्रे हैं, पार किया जा सकता है। इसलिए इन दर्रो का बड़ा महत्व है। उत्तर-पश्चिम में खैबर और बोलन के दर्रे हैं जो अब पाकिस्तान में हैं। उत्तर में रावलपिंडी से कश्मीर जाने का रास्ता है जो अब पाकिस्तान के अधिकार में है। भारत ने एक नया रास्ता पठानकोट से बनिहाल दर्रा होकर श्रीनगर जाने के लिए बनाया है। श्रीनगर से जोजीला दर्रे द्वारा लेह तक जाने का रास्ता है। हिमालय प्रदेश से तिब्बत जाने के लिए शिपकी दर्रा है जो शिमला के पास है। फिर पूर्व में दार्जिलिंग का दर्रा है, जहाँ से चुंबी घाटी होते हुए तिब्बत की राजधानी लासा तक जाने का रास्ता है। पूर्व की पहाड़ियों में भी कई दर्रे हैं जिनसे होकर बर्मा जाया जा सकता है। इनमें मुख्य मनीपुर तथा हुकौंग घाटी के दर्रे हैं।

(2) उत्तरी भारत का मैदान- हिमालय के दक्षिण में एक विस्तृत समतल मैदान है जो लगभग सारे उत्तर भारत में फैला हुआ है। यह गंगा, ब्रह्मपुत्र तथा सिंधु और उनकी सहायक नदियों द्वारा बना है। यह मैदान गंगा सिंधु के मैदान के नाम से जाना जाता है। इसका अधिकतर भाग गंगा, नदी के क्षेत्र में पड़ता है। सिंधु और उसकी सहायक नदियों के मैदान का आधे से अधिक भाग अब पश्चिमी पाकिस्तान में पड़ता है और भारत में सतलुज, रावी और व्यास का ही मैदान रह गया है। इसी प्रकार पूर्व में, गंगा नदी के डेल्टा का अधिकांश भाग पूर्वी पाकिस्तान में पड़ता है। उत्तर का यह विशाल मैदान पूर्व से पश्चिम, भारत की सीमा के अंदर लगभग 1,500 मील लंबा है। इसकी चौड़ाई 150 से 200 मील तक है। इस मैदान में कहीं कोई पहाड़ नहीं है। भूमि समतल है और समुद्र की सतह से धीरे धीरे पश्चिम की ओर उठती गई। कहीं भी यह 600 फुट से अधिक ऊँचा नहीं है। दिल्ली, जो गंगा और सिंधु के मैदानों के बीच अपेक्षाकृत ऊँची भूमि पर स्थित है, केवल 700 फुट ऊँची भूमि पर स्थित है। अत्यंत चौरस होने के कारण इसकी धरातलीय आकृति में एकरूपता का अनुभव होता है, किंतु वास्तव में कुछ महत्वपूर्ण अंतर पाए जाते हैं। हिमालय (शिवालिक) की तलहटी में जहाँ नदियाँ पर्वतीय क्षेत्र को छोड़कर मैदान में प्रवेश करती हैं, एक संकीर्ण पेटी में कंकड पत्थर मिश्रित निक्षेप पाया जाता है जिसमें नदियाँ अंतर्धान हो जाती हैं। इस ढलुवाँ क्षेत्र को भाभर कहते हैं। भाभर के दक्षिण में तराई प्रदेश है, जहाँ विलुप्त नदियाँ पुन: प्रकट हो जाती हैं। यह क्षेत्र दलदलों और जंगलों से भरा है। इसका निक्षेप भाभर की तुलना में अधिक महीन कणों का है। भाभर की अपेक्षा यह अधिक समतल भी है। कभी कहीं जंगलों को साफ कर इसमें खेती की जाती है। तराई के दक्षिण में जलोढ़ मैदान पाया जाता है। मैदान में जलोढ़क दो किस्म के हैं, पुराना जलोढ़क और नवीन जलोढ़क। पुराने जलोढ़क को बांगर कहते हैं। यह अपेक्षाकृत ऊँची भूमि में पाया जाता है, जहाँ नदियों की बाढ़ का जल नहीं पहुँच पाता। इसमें कहीं कहीं चूने के कंकड मिलते हैं। नवीन जलोढ़क को खादर कहते हैं। यह नदियों की बाढ़ के मैदान तथा डेल्टा प्रदेश में पाया जाता है, जहाँ नदियाँ प्रति वर्ष नई तलछट जमा करती हैं। मैदान के दक्षिणी भाग में कहीं कहीं दक्षिणी पठार से निकली हुई छोटी मोटी पहाड़ियाँ मिलती हैं। इसके उदाहरण बिहार में गया तथा राजगिरि की पहाड़ियाँ हैं।

आर्थिक दृष्टि से उत्तरी भारत का मैदान देश का सबसे अधिक उपजाऊ और विकसित भाग है। प्राचीन काल से यह आर्य सभ्यता का केंद्र रहा है। यहाँ कृषि के अतिरिक्त अनेक उद्योग धंधे हैं, नगरों की बहुलता है और यातायात के साधन उन्नत हैं। यही भारत का सबसे घना आबाद क्षेत्र है और यहीं देश की लगभग दो तिहाई जनसंख्या बसी है।

(3) दक्षिण का पठार- उत्तरी भारत के मैदान के दक्षिण का पूरा भाग एक विस्तृत पठार है जो दुनिया के सबसे पुराने स्थल खंड का अवशेष है और मुख्यत: कड़ी तथा दानेदार कायांतरित चट्टानों से बना है। पठार तीन ओर पहाड़ी श्रेणियों से घिरा है। उत्तर में विंध्याचल तथा सतपुड़ा की पहाड़ियाँ हैं, जिनके बीच नर्मदा नदी पश्चिम की ओर बहती है। नर्मदा घाटी के उत्तर विंध्याचल प्रपाती ढाल बनाता है। सतपुड़ा की पर्वतश्रेणी उत्तर भारत को दक्षिण भारत से अलग करती है, और पूर्व की ओर महादेव पहाड़ी तथा मैकाल पहाड़ी के नाम से जानी जाती है। सतपुड़ा के दक्षिण अजंता की पहाड़ियाँ हैं। प्रायद्वीप के पश्चिमी किनारे पर पश्चिमी घाट और पूर्वी किनारे पर पूर्वी घाट नामक पहाडियाँ हैं। पश्चिमी घाट पूर्वी घाट की अपेक्षा अधिक ऊँचा है और लगातार कई सौ मीलों तक, 3,500 फुट की ऊँचाई तक चला गया है। पूर्वी घाट न केवल नीचा है, बल्कि बंगाल की खाड़ी में गिरनेवाली नदियों ने इसे कई स्थानों में काट डाला है जिनमें उत्तर से दक्षिण महानदी, गोदावरी, कृष्णा तथा कावेरी मुख्य हैं। दक्षिण में पूर्वी और पश्चिमी घाट नीलगिरि की पहाड़ी में मिल जाते है, जहाँ दोदाबेटा की 8,760 फुट ऊँची चोटी है। नीलगिरि के दक्षिण अन्नाईमलाई तथा कार्डेमम (इलायची) की पहाड़ियाँ हैं। अन्नाईमलाई पहाड़ी पर अनेमुडि, पठार की सबसे ऊँची चोटी (8,840 फुट) है। इन पहाड़ियों और नीलगिरि के बीच पालघाट का दर्रा है जिससे होकर पश्चिम की ओर रेल गई है। पश्चिमी घाट में बंबई के पास थालघाट और भोरघाट दो महत्वपूर्ण दर्रे हैं जिनसे होकर रेलें बंबई तक गई हैं।

उत्तर-पश्चिम में विंध्याचल श्रेणी और अरावली श्रेणी के बीच मालवा के पठार हैं जो लावा द्वारा निर्मित हैं। अरावली श्रेणी दक्षिण में गुजरात से लेकर उत्तर में दिल्ली तक कई अवशिष्ट पहाड़ियों के रूप में पाई जाती है। इसके सबसे ऊँचे, दक्षिण-पश्चिम छोर में माउंट आबू (5,650 फुट) स्थित है। उत्तर-पूर्व में छोटानागपुर का पठार है, जहाँ राजमहल पहाड़ी प्रायद्वीपीय पठार की उत्तर-पूर्वी सीमा बनाती है। किंतु असम का शिलौंग पठार भी प्रायद्वीपीय पठार का ही भाग है जो गंगा के मैदान द्वारा अलग हो गया है।

दक्षिण के पठार की औसत ऊँचाई 1,500 से 3,00 फुट तक है। ढाल पश्चिम से पूर्व की ओर है। नर्मदा और ताप्ती को छोड़कर बाकी सभी नदियाँ पूर्व की ओर बंगाल की खाड़ी में गिरती हैं। पठार के पश्चिमी तथा पूर्वी किनारों पर उपजाऊ तटीय मैदान मिलते हैं। पश्चिमी तटीय मैदान संकीर्ण हैं, इसके उत्तरी भाग को कोंकण और दक्षिणी भाग को मालाबार कहते हैं। पूर्वी तटीय मैदान अपेक्षाकृत चौड़ा है और उत्तर में उड़ीसा से दक्षिण में कुमारी अंतरीप तक फैला हुआ है। महानदी, गोदावरी, कृष्णा तथा कावेरी नदियाँ जहाँ डेल्टा बनाती हैं वहाँ यह मैदान और भी अधिक चौड़ा हो गया है। मैदान का दक्षिणी भाग कर्नाटक, और उत्तरी भाग उत्तरी सरकार कहलाता है। इनके तट का नाम क्रमश: कारोमंडल तट तथा गोलकुंडा तट है।

जलवायु- विस्तृत क्षेत्र और प्राकृतिक रूप से विभिन्नता के कारण भारत के भिन्न भागों के जलवायु का भिन्न होना स्वाभाविक है, किंतु मानूसनी प्रभाव के कारण जलवायु की विभिन्नता में एक समानता पैदा हो जाती है और पूरे भारत की जलवायु को मौसमी जलवायु कहा जाता है। हिमालय की ऊँची पर्वतमाला भारत को मध्य एशिया की वायुराशियों के प्रभाव से पृथक्‌ रखती है। भारत पाकिस्तान का सम्मिलित स्थलखंड इतना विस्तृत है कि वह मध्य एशिया से अलग अपनी एक स्वतंत्र मानूसून प्रणाली बना लेता है। भारत के विभिन्न भागों में ताप में काफी विषमता पाई जाती है, किंतु इससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण वर्षा की प्रादेशिक विभिन्नता है। फिर भी सभी जगह ऋतुओं का एक ही क्रम मिलता है और सीमित क्षेत्रों को छोड़कर सभी जगह प्राय: तीन चौथाई से अधिक वर्षा ग्रीष्म ऋतु में होती है। मोटे तौर पर भारत में तीन ऋतुएँ होती हैं : (1) शीतऋतु, नवंबर से फरवरी तक, यह ऋतु करीब करीब वर्षाहीन है, (2) ग्रीष्म ऋतु, मार्च से जून के आरंभ तक, भीषण गरमी पड़ती है किंतु वर्षा नहीं होती, (3) वर्षा ऋतु, जून के आरंभ से अक्टूबर तक; इसमें वर्षा होती है और गरमी कुछ कम हो जाती है।

शीतऋतु- इस समय सूर्य दक्षिणी गोलार्द्ध में रहता है और ताप दक्षिण से उत्तर की ओर कम होता जाता है। इसलिए उत्तर भारत दक्षिण भारत की अपेक्षा ठंडा रहता है। जनवरी में मध्य तथा दक्षिण भारत में ताप 210 से 270 सें. के बीच और गंगा के मैदान में 130 से 180 सें. के बीच रहता है। जनवरी में मद्रास का ताप लगभग 240 सें., कलकत्ता का 190 सें. और दिल्ली का 150 सें. रहता है। सबसे अधिक सर्दी उत्तर-पश्चिमी भागों में पड़ती है, जहाँ एक ऊँचे दबाव का क्षेत्र बन जाता है। हिमालय की ऊँची दीवार के कारण मध्य एशिया से चलनेवाली बर्फीली हवाएँ भारत तक नहीं पहुँच पातीं और यहाँ जाड़े का मौसम मृदु रहता है। हवाएँ स्थल से समुद्र की ओर बहती हैं, इसलिए शुष्क होती हैं और वर्षा होती है : 1. भारत का उत्तर-पश्चिमी तथा 2. दक्षिण-पूर्वी भाग। उत्तर पश्चिम में वर्षा चक्रवातों से होती है जो दिसंबर से मार्च तक भूमध्यसागर से इराक, ईरान और पाकिस्तान होते हुए भारत पहुँचते हैं। यद्यपि इनसे वर्षा प्राय: एक या दो इंच होती है, फिर भी रबी फसलों के लिए यह अत्यंत लाभदायक है। मद्रास एक दूसरा क्षेत्र है जहाँ थोड़ी बहुत वर्षा जनवरी फरवरी में होती है। उत्तर-पूर्वी मानसूनी हवा बंगाल की खाड़ी से वाष्प लेती है और कर्नाटक के पूर्वी किनारे पर वर्षा करती है।

ग्रीष्म ऋतु- ज्यों- ज्यों सूर्य कर्क रेखा की ओर बढ़ता है, गर्मी बढ़ती जाती है और मार्च से गरमी का मौसम शुरू हो जाता है। अप्रैल और मई में सूर्य भारत पर लंब रूप में रहता है तथा गरमी तीव्र हो जाती है। दक्षिण भारत में पठार की ऊँचाई तथा समुद्र की निकटता के कारण गरमी उतनी अधिक नहीं पड़ती, किंतु उत्तरी मैदान में औसत ताप मई में 340 सें. अधिक रहता है। दिन में ताप प्राय: 380 सें. से अधिक और कभी कभी 490 सें. तक चला जाता है। गरमी और सूखेपन के कारण सभी वनस्पतियाँ सूख जाती हैं और हिरयाली प्राय: कहीं देखने को नहीं मिलती। अत: दक्षिण भारत की अपेक्षा, उत्तर भारत जाड़े में अधिक ठंडा और गरमी में अधिक गर्म रहता है। तटीय भागों में समुद्री हवाओं से थोड़ी बहुत वर्षा होती है। इस ऋतु में उत्तर भारत में प्राय: आँधियाँ आती हैं जिन्हें नॉर्थवेस्टर (North wester) कहते हैं। इनसे विशेषकर बंगाल तथा असम में वर्षा होती है। इस वर्षा से असम में चाय की फसल को तथा अन्य भागों में आम की फसल को लाभ होता है।

वर्षा ऋतु- जून के आरंभ तक गरमी बढ़ती ही जाती है, किंतु आधे जून से मौसम अचानक बदल जाता है। हवा तेजी के साथ दक्षिण-पश्चिम से बहने लगती है, आकाश बादलों से आच्छादित हो जाता है और गर्जन तर्जन के साथ जोरों की वर्षा होती है। बंबई तट पर दक्षिण-पश्चिमी मानसून लगभग 5 जून को, शुरू होता है, बंगाल में 15 जून को और पहली जुलाई तक सारा भारत इसके प्रभाव में आ जाता है। हवाओं का लक्ष्य उत्तर-पश्चिमी भारत तथा पश्चिमी पाकिस्तान में स्थित नीचे दबाव का क्षेत्र होता है। दक्षिण-पश्चिमी मानसून वास्तव में दक्षिणी गोलार्द्ध की दक्षिण-पूर्वी वाणिज्य वायु है, जो विषुवत्‌ रेखा पार करने के बाद फैरेल के नियम के अनुसार अपनी दिशा बदल कर दक्षिण-पश्चिमी मानसून वायु के रूप में भारत पहुँचती है। दक्षिणी प्रायद्वीप के कारण इस हवा की दो शाखाएँ हो जाती हैं, अरब सागर शाखा और बंगाल की खाड़ी शाखा। उत्तर भारत में वर्षा बंगाल की खाड़ी शाखा से होती है और दक्षिण भारत में अरब सागर शाखा से। वर्षा के वितरण पर भूमि की आकृति का महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। पश्चिमी घाट के पश्चिमी किनारे पर बहुत ही अधिक वर्षा होती है, किंतु दक्षिणी पठार का अधिक भाग पश्चिमी घाट की वृष्टिछाया में पड़ता है। जून से सितंबर के बीच पश्चिमी किनारे पर स्थित मेंगलूर में 110 इंच वर्षा होती है, पठार के भीतरी भाग में स्थित बेंगलूर में 20 इंच और पूर्वी तट पर स्थित मद्रास में केवल 15 इंच।

उत्तर भारत में हवा की दिशा दक्षिण-पूर्वी होती है। बंगाल की खाड़ी से गंगा के मैदान में पश्चिम की ओर वर्षा कम होती जाती है। जून से सितंबर के बीच कलकत्ता में 47 इंच, पटना में 40 इंच, इलाहाबाद में 36 इंच और दिल्ली में 22 इंच वर्षां होती है। हिमालय से दक्षिण की ओर जाने पर भी वर्षा कम होती जाती है। सबसे अधिक वर्षा असम की पहाड़ियों में होती है और जहाँ आराकन तथा खासी पहाड़ियाँ मिलती हैं वहाँ न केवल भारत में, बल्कि संसार में सबसे अधिक वर्षा होती है। यहाँ पहाड़ी पर स्थित चेरापूँजी में जून से सितंबर के बीच 316 इंच (वार्षिक औसत 425 इंच) वर्षा होती है। पहाड़ियों के दूसरी ओर, शिलौंग में वर्षा इन चार महीनों में केवल 56 इंच होती है (देखें मानचित्र 2)।

उत्तर-पश्चिम का निम्न दबाव का क्षेत्र, जिधर सारी हवाएँ आकर्षित होती हैं, स्वयं वर्षारहित है। यहाँ तक पहुँचते पहुँचते बंगाल की खाड़ी शाखा का सारा वाष्प समाप्त हो जाता है। अरब सागर शाखा से भी यहाँ वर्षा नहीं होती, क्योंकि कच्छ से उत्तर यह नहीं जाती। यही कारण है कि राजस्थान, दक्षिण-पश्चिम पंजाब (तथा पश्चिमी पाकिस्तान) में 10 इंच से भी कम वर्षा होती है।

वर्षा ऋतु में औसत ताप शुष्क ऋतु से कम होता है, किंतु आर्द्रता के कारण हवा में इतनी उमस होती है कि मनुष्य शारीरिक कष्ट का अनुभव करता है। यद्यपि भारत में वर्षा मुख्यत: दक्षिण-पश्चिम मानसून से होती है, तथापि इससे वर्षा इतनी अनिश्चित और अनियमित होती है कि कहा जाता है कि भारतीय कृषि मानसून के साथ जुए, का खेल है। किसी वर्ष वर्षा आवश्यकता से अधिक, तो किसी वर्ष कम होती है। फिर कभी मानसून नियत समय से देर से बरसता है, तो कभी समय से पहले ही समाप्त हो जाता है।

वापसी मानसून का मौसम- अक्टूबर से वायुभार में वृद्धि होने लगती है और मानसून हवाओं का देश के अंदर पहुँचना कठिन हो जाता है। ज्यों ज्यों मानसून हटती जाती है, आकाश स्वच्छ होने लगता है और शीतकाल निकट होने पर भी अक्टूबर में, विशेषकर दिन में, ताप बढ़ जाता है। लौटती मानसून से अक्टूबर से दिसंबर के बीच मद्रास में लगभग 32 इंच वर्षा होती है। मद्रास तट में जाड़े में गरमी की अपेक्षा अधिक वर्षा होती है।

वर्षा का प्रादेशिक विवरण- भारत को वार्षिक वर्षा के आधार पर चार विभागों में बाँटा जा सकता है : (1) अधिक वर्षा के प्रदेश  पश्चिमी घाट तथा पश्चिमी तट, असम, हिमालय की दक्षिणी ढाल तथा बंगाल के कुछ भाग इसमें शामिल हैं1 यहाँ वर्षा 80 इंच से अधिक होती है, प्राकृतिक वनस्पति भूमध्यरेखीय सदाबहार वन है तथा धान मुख्य फसल है। यहाँ सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती। (2) साधारण वर्षा के प्रदेश  यहाँ वर्षा 40 से 80 इंच के बीच होती है। प्राकृतिक वनस्पति पतझड़वाला मानसूनी जंगल हैं, और मुख्य उपज धान है, पर शीतकाल में अन्य फसले उपजती हैं। धान की खेती में सिचाई की आवश्यकता होती है। (3) कम वर्षा के क्षेत्र  यहाँ वर्षा 20 से 40 इंच के बीच होती है, वनस्पति कँटीले जंगल और झाड़ियाँ हैं। खेती के लिए सिचाई की आवश्यकता है। गेहूँ, ज्वार, बाजरा इत्यादि मुख्य अन्न हैं। इसमें दक्षिण भारत के अधिकांश भाग तथा ऊपरी गंगा का मैदान सम्मिलित है। (4) मरुस्थल तथा अर्द्धमरुस्थल  यहाँ वर्षा 20 इंच से कम होती है। यहाँ प्राकृतिक वनस्पति का अभाव है और बिना सिंचाई के खेती असंभव है। इसमें मुख्यत: राजस्थान और पंजाब का दक्षिणी भाग आता है। वर्षा के ये विभाग बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। इनका प्रभाव वनस्पति पर तो पड़ता ही है, इनकी सहायता से सिंचाई तथा भिन्न फसलों के वितरण को भी आसानी से समझा जा सकता है।

प्राकृतिक वनस्पति- वर्षा की मात्रा के साथ साथ वनस्पति भी बदलती जाती है। वनस्पति पर स्थलाकृति का भी प्रभाव पड़ता है। भारत में लगभग छह प्रकार की प्राकृतिक वनस्पति मिलती है जिसमें से चार की विशेषताएँ वर्षा से संबंधित हैं और दो की स्थलाकृति से। (1) सदाबहार वन  ये जंगल 80 इंच से अधिक वर्षावाले क्षेत्रों में पाए जाते हैं। पश्चिमी घाट में बंबई के दक्षिण 1,500 से 4,500 फुट की ऊँचाई के बीच तथा असम और पश्चिमी बंगाल में हिमालय में 3,500 फुट की ऊँचाई तक ये वन मिलते हैं और ऐसे क्षेत्रों में जहाँ वर्षा 120 इंच से अधिक है, ये विशेष सघन हैं। जहाँ वर्षा कम है वहाँ सदाबहारी बन अर्द्धसदाबहारी वनों में बदल जाते हैं। अधिक ऊष्मा और वर्षा के कारण सदाबहारी वनों के वृक्ष ऊँचे (120 से 150 फुट) और घने होते हैं। पश्चिमी घाट में विभिन्न प्रकार की कड़ी लकड़ियों के वृक्ष पाए जाते हैं, किंतु असम एवं बंगाल में वृक्षों के प्रकार उतने अधिक नहीं हैं और विस्तृत क्षेत्रों में बाँस पाए जाते हैं। (2) पतझड़वाले मानसूनी जंगल  ये उन प्रदेशों में मिलते हैं, जहाँ वर्षा 40 से 80 इंच तक होती है। ये मुख्यत: पश्चिमी घाट की पूर्वी ढाल, पूर्वी घाट, छोटा नागपुर, पूर्वी मध्यप्रदेश, उड़ीसा और हिमालय की तराई में पाए जाते हैं। इनकी मुख्य विशेषता यह है कि वृक्ष अपनी पत्तियाँ ग्रीष्म ऋतु के आरंभ में गिरा देतें हैं। आर्थिक दृष्टि से ये भारत के सबसे महत्वपूर्ण जंगल हैं और इनमें अनेक उपयोगी लकड़ी के वृक्ष मिलते हैं, जैसे, सागौन, साखू, चंदन इत्यादि। सागौन मुख्यत: महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में, साखू मुख्यत: छोटा नागपुर, मध्यप्रदेश तथा हिमालय की दक्षिणी ढाल पर मिलता है। सागौन के अच्छे फर्नीचर तथा किवाड़ बनते हैं और साखू का उपयोग रेल की पटरियाँ और मकान बनाने में किया जाता है। चंदन सदाबहारी वृक्ष है। यह मैसूर के पास पतझड़वाले जंगलों में बहुत पाया जाता है। अन्य वृक्ष शीशम (पूर्वी हिमालय की ढाल), महुआ (छोटा नागपुर), बड़, पीपल तथा हर्र, बहेड़ा, आँवला हैं। (3) सूखे जंगल  ये पूर्वी राजस्थान, पश्चिमी मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र तथा मैसूर के कुछ भाग और आंध्र प्रदेश तथा मद्रास के कुछ भागों में, जहाँ वर्षा 20 से 40 इंच है, पाए जाते हैं। इसमें काँटेदार पेड़ पौधे तथा छोटी छोटी झाड़ियाँ मिलती हैं जिनमें बबूल और गोंद उत्पन्न करनेवाले पेड़ प्रधान हैं : (4) अर्द्धमरुस्थलीय जंगल  ये उन भागों में पाए जाते हैं, जहाँ वर्षा 20 इंच से कम है। इसमें वनस्पति नाम मात्र की है। कहीं कहीं बबूल तथा खजूर के वृक्ष अथवा छोटी छोटी झाड़ियाँ मिलती हैं। इस प्रकार की वनस्पति पश्चिमी राजस्थान, पंजाब तथा दक्षिणी पठार के शुष्क भागों में मिलती है। (5) पर्वतीय वन  हिमालय पहाड़ पर ऊँचाई के साथ साथ ज्यों ज्यों गरमी कम होती जाती है, वनस्पति की किस्में भी बदलती जाती हैं। पूर्वी हिमालय में पश्चिमी हिमालय से अधिक वर्षा होती है, इसलिए इन दोनों की वनस्पति में ऊँचाई के साथ परिवर्तन एक तरह का नहीं होता है। पूर्वी और पश्चिमी हिमालय के बीच विभाजक रेखा 860-880 पू. दे. है। पूर्वी हिमालय में 3,000 से 6,000 फुट की ऊँचाई के बीच थोड़ी पत्तीवाले सदाबहार जंगल मिलते हैं जिनमें बांज (oak) और चेस्टनट प्रधान हैं। 8,500 से 11,500 फुट की ऊँचाई तक कोणधारी वृक्ष मिलते हैं किंतु नीचे की ओर कोणधारी ऊँचाई पर (9,500 से 12,000 फुट) फर, जुनिपर, चीड़, भूर्ज, रोडोडेनड्रॉन मिलते हैं। पश्चिमी हिमालय में वर्षा की कमी के कारण, सबसे नीचे पतझड़ वन मिलते हैं जिनमें साखू के वृक्ष प्रधान हैं। 3,000 से 6,000 फुट की ऊँचाई तक चेस्टनट और पॉपलर मिलते हैं और कुछ अधिक ऊँचाई पर बांज के वृक्ष पाए जाते हैं। जिनमें देवदार, चीड़ और ब्लू पाइन मुख्य वृक्ष हैं। देवदार विशेषकर 45-70 इंच वर्षा के क्षेत्रों में अत्याधिक होते हैं 11,000 फुट से ऊपर रोडोडेनड्रॉन, सिल्वर फर, जुनिपर तथा भूर्ज के वृक्ष के वन मिलते हैं जिन्हें ऐल्पाइन वन कहते हैं। आर्थिक दृष्टि से पर्वतीय वन के मुख्य वृक्ष देवदार, ब्लू पाइन, चीड़ सिल्वर फर तथा स्प्रूस (spruce) हैं। (6) तटीय वन  समुद्र के किनारे दलदली क्षेत्रों में पाए जाते हैं। इन्हें मैनग्रोव जंगल भी कहा जाता है। इस प्रकार के जंगल के लिए दलदल और खारा पानी दोनों आवश्यक हैं। इसका सबसे विस्तृत क्षेत्र गंगा नदी के डेल्टा में मिलता है जो सुंदरवन के नाम से प्रसिद्ध है। यहाँ सुंदरी नामक वृक्ष सबसे अधिक पाया जाता है। लकड़ी मुख्यत: जलाने के काम आती है। गोदावरी तथा कृष्ण नदियों के डेल्टा में भी मैनग्रोव जंगल पाए जाते हैं।

भारत में खेती के प्रसार के कारण मैदानों तथा समतल भूमि से जंगलों को साफ कर दिया गया है और अब केवल पहाड़ी भागों में ही वन पाए जाते हैं। इन जंगलों का क्षेत्रफल 2,04,000 वर्ग मील है जो देश की कुल भूमि का 22 प्रतिशत है। इसके अतिरिक्त वनाच्छादित भूमि का वितरण बहुत असमान है। असम एवं मध्य प्रदेश में वनाच्छादित भूमि इन राज्यों के क्षेत्रफल का क्रमश: 42 और 31 प्रतिशत, उड़ीसा में 26 प्रतिशत, जम्मू और कश्मीर में 22 प्रतिशत है, किंतु उत्तर प्रदेश में यह प्रति शत 11, पश्चिमी बंगाल में 9, गुजरात में 5 और राजस्थान में केवल 3 है।

भारतीय वनों का 79 प्रतिशत भाग सरकारी नियंत्रण के अंतर्गत है। इनमें से कुछ सुरक्षित वन हैं जिनमें पशुचारण तथा लकड़ी काटना निषिद्ध है, और कुछ संरक्षित वनों में जहाँ सरकारी देखरेख है, स्थानीयश् निवासियों को पशु चराने तथा लकड़ी काटने की सुविधाएँ प्राप्त हैं। वनों की उचित व्यवस्था के लिए यह आवश्यक है कि वर्तमान वनक्षेत्रों का संरक्षण एवं विस्तार किया जाए एवं यातायात के साधनों का विकास किया जाए और वैज्ञानिक ढंग से वनों का सदुपयोग किया जाए।

मिट्टियाँ- हम भारत की मिट्टियों को चार प्रधान वर्गो में विभाजित कर सकते हैं : 1. जलोढ या कांप मिट्टी  उत्तर के विस्तृत मैदान तथा प्रायद्वीपीय भारत के तटीय मैदानों में मिलती है। यह अत्यंत ऊपजाऊ है और इसपर भारत की लगभग आधी आबादी की जीविका निर्भर है। यह मिट्टी हिमालय से निकली हुई नदियों द्वारा लाकर जमा की गई है। पर्वतपदीय भाभर क्षेत्र में मिट्टी रुखड़ी है, मैदान के पश्चिमी भागों में बालू का अंश अधिक है, किंतु गंगा के डेल्टा की ओर मिट्टी महीन और चिकनी होती जाती है। जलोढ मिट्टियों के दो भाग हैं : बाँगर तथा खादर। बाँगर पुराना जलोढक है जहाँ नदियों के बाढ़ का मैदान और डेल्टा क्षेत्र में पाया जाता है। अधिकांश क्षेत्रों में मिट्टी दोरस है। उर्वरता मुख्यत: जलतल पर निर्भर करती है। इन मिट्टियों में पोटाश, फॉस्फोरिक एसिड तथा चूना पर्याप्त है किंतु नाइट्रोजन और जीवांशों की कमी है। खादर में ये तत्व बाँगर की तुलना में अधिक मात्रा में वर्तमान हैं, इसलिए खादर अधिक उपजाऊ है। बाँगर में कम वर्षा के क्षेत्रों में, कहीं कहीं खारी नवीन जलोढक है जो नदियों के बाढ़ का मैदान और डेल्टा क्षेत्र में पाया जाता है। अधिकांश क्षेत्रों में मिट्टी दोरस है। उर्वरता मुख्यत: जलतल पर निर्भरश् करती है। इन मिट्टियों में पोटाश, फॉस्फोरिक एसिड तथा चूना पर्याप्त है किंतु नाइट्रोजन और जीवांशों की कमी है। खादर में ये तत्व बाँगर की तुलना में अधिक मात्रामें वर्तमान हैं, इसलिए खादर अधिक उपजाऊ है। बाँगर में कम वर्षा के क्षेत्रों में, कहीं कहीं खारी मिट्टी ऊसर अथवा बंजर होती है। (2) काली मिट्टी  लावा के अनावृत्तीकरण से बनी है और महाराष्ट्र तथा गुजरात के अधिकांश भाग और पश्चिमी मध्य प्रदेश में मिलती है। इसका विस्तार लावा क्षेत्र तक सीमित नहीं है, बल्कि नदियों ने इसे ले जाकर अपनी घाटियों में भी जमा किया है। यह बहुत ही उपजाऊ है और कपास की उपज के लिए प्रसिद्ध है इसलिए इसे कपासवाली काली मिट्टी कहते हैं। इस मिट्टी में नमी को रोक रखने की प्रचुर शक्ति है, इसलिए वर्षा कम होने पर भी सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती। इसका काला रंग शायद अत्यंत महीन लौह अंशों की उपस्थिति के कारण है। इस मिट्टी में पोटाश तथा चूना पर्याप्त मात्रा में होता है, किंतु नाइट्रोजन जीवांश तत्व तथा फॉस्फोरिक एसिड की मात्रा कुछ कम है। (3) लाल मिट्टी  इस वर्ग की मिट्टी में अनेक प्रकार की मिट्टियाँ पाई जाती हैं, जो पठार की पुरानी रवेदार चट्टानों के अनावृत्तीकरण से बनी हैं। इनका सामान्य रंग लाल या लाली लिए हुए अवश्य है, पर इस वर्ग में सम्मिलित कुछ मिट्टियों का रंग भूरा, धूसर तथा काला भी है। इनके रंग, बनावट तथा गुण में मूल चट्टानों, जलवायु तथा स्थानीय धरातलीय रूप के साथ बहुत अंतर मिलता है। पठार तथा पहाड़ियों पर इन मिट्टियों की उर्वराशक्ति कम है और ये कंकरीली तथा रूखडी होती हैं, किंतु नीचे स्थानों में अथवा नदियों की घाटियों में ये दोरस हो जाती हैं और अधिक उपजाऊ है और इनमें निक्षालन (leaching) भी अधिक हुआ है। तटीय मैदानों और काली मिट्टी के क्षेत्र को छोड़कर, प्रायद्वीपीय पठार के अधिकांश भाग में लाल मिट्टी पाई जाती है। (4) लैटेराइट मिट्टी  यह लैटेराइट नामक चट्टानों के टूटने फूटने से बनती है। यह देखने में लाल मिट्टी की तरह लगती है, किंतु उससे कम उपजाऊ होती है। ऊँचे स्थलों में यह प्राय: पतली और कंकड़मिश्रित होती है और कृषि के योग्य नहीं रहती, किंतु मैदानी भागों में यह खेती के काम में लाई जाती है। यह दक्षिण भारत के पठार, राजमहल तथा छोटानागपुर के पठार, असम इत्यादि में सीमित क्षेत्रों में पाई जाती है। दक्षिण भारत में मैदानी भागों में इसपर धान की खेती होती है और ऊँचे भागों में चाय, कहवा, रबर तथा सिनकोना उपजाए जाते हैं। इस प्रकार की मिट्टी अधिक ऊष्मा और वर्षा के क्षेत्रों में बनती है। इसलिए इसमें ह्यूमस की कमी होती है और निक्षालन अधिक हुआ करता है।

कृषि- भारत कृषिप्रधान देश है और यहाँ की लगभग 70 प्रतिशत आबादी की जीविका कृषि पर निर्भर है। कृषिगत भूमि के 80 प्रतिशत से अधिक भाग पर खाद्यान्न उत्पन्न किए जाते हैं, फिर भी देश में लगभग 10 प्रतिशत खाद्यान्न की कमी रहती है जिसकी पूर्ति विदेशों से आयात द्वारा की जाती है। ऐसी कोई भी फसल नहीं है, जो पशुओं के चारे के लिये उपजाई जाती हो। जानवरों का चारा मुख्यत: खाद्यान्नों से प्राप्त भूसा है। हम चाहे जिस दृष्टि से देखें प्रति एकड़ उत्पादन, खाद एवं उत्तम बीजों का व्यवहार, सिचाई का प्रबंध, पशुपालन इत्यादि की दृष्टि से भारत की कृषि अन्य देशों की तुलना में बहुत पिछड़ी होने के और प्रति एकड़ कम उत्पादन के चार मुख्य कारण हैं : (1) सिंचाईवाले क्षेत्रों को छोड़कर, भारत के अधिकांश में खेती मूलत: मानसून वर्षा पर निर्भर है। जिस वर्ष वर्षा समय पर अथवा पर्याप्त मात्रा में नहीं होती, विस्तृत क्षेत्रों में या तो फसल बोई नहीं जाती अथवा नष्ट हो जाती है। कभी कभी बाढ से ही काफी क्षति होती है, (2) निरंतर बिना खाद के सदियों तक व्यवहार में लाए जाने के कारण मिट्टी की उत्पादन शक्ति कम हो गई है। मवेशियों की संख्या अधिक होने पर भी गोबर खाद के रूप में इस्तेमाल नहीं होता बल्कि लकड़ी की कमी के कारण, गोबर को मुख्यत: जलावन के काम में लाया जाता है। कृत्रिम उर्वरकों का उपयोग भी अधिक दाम, किसानों की अज्ञानता तथा सिंचाई के उचित प्रबंध के अभाव के कारण बहुत सीमित है। (3) उसके खेत छोटे हैं और कई छोटे छोटे टुकड़ों में बिखरे होते हैं जिसके कारण व्यावहारिक ढंग से खेती नहीं हो पाती। इस स्थिति का मुख्य कारण उत्तराधिकार संबंधी कानून है। छोटे और बिखरे खेतों के कारण काफी जमीन मेंड़ में बर्बाद हो जाती है और उनकी सिंचाई, रखवाली इत्यादि का उचित प्रबंध करना असंभव हो जाता है। फलत: खेती का स्तर नीचा हो जाता है और उपज कम होती है। अधिकांश किसान विभाजित और बिखरे खेतों की बुराइयों से अनभिज्ञ हैं और प्राय: चकबंदी के लिये जल्द तैयार नहीं होते, यद्यपि पंजाब, उत्तर प्रदेश तथा मध्य प्रदेश में सहकारी समितियों द्वारा स्वेच्छापूर्वक चकबंदी को सफलता मिली है। (4) अधिकांश किसान निर्धन और अनपढ़ हैं, उनके पास इतने पैसे नही कि वे अपने खेतों के लिये खाद और उत्तम बीज खरीद सकें या उन्नत औजार व्यवहार में ला सकें।

सिंचाई- देश के बड़े भाग में अपर्याप्त तथा अनिश्चित वर्षा के कारण सिंचाई की बड़ी आवश्यकता है। भारत में संसार के सभी देशों से अधिक सिंचित भूमि पाई जाती है। यहाँ लगभग 600 लाख एकड़ भूमि पर सिंचाई की जाती है, जो भारत की कुल कृषि के अंतर्गत भूमि का सिर्फ छठा भाग है। अर्थात्‌ इतनी अधिक सिंचित भूमि होने पर भी भारतीय कृषि मुख्यत: वर्षा की अनिश्चितता पर निर्भर है। देश में अन्न की कमी है और बढ़ती हुई जनसंख्या के पोषण के लिए खाद्यान्नों की उत्पत्ति बढ़ाना आवश्यक है। इस दृष्टि से भी सिंचाई की सुविधा किसानों को अधिकाधिक प्राप्त होना आवश्यक है। सींचने से न केवल फसलों के नष्ट होने का भय जाता रहता है, बल्कि वर्ष में एक ही खेत से एक से अधिक फसलें उगाई जा सकती हैं और प्रति एकड़ उपज भी बहुत बढ़ जाती है।

भारत में सिंचाई के तीन मुख्य साधन हैं : नहर तालाब और कुआँ। सिंचित भूमि का 42 प्रतिशत नहरों द्वारा, 20 प्रतिशत तालाबों द्वारा और 30 प्रतिशत नहरों द्वारा, 20 प्रतिशत तालाबों द्वारा और 30 प्रतिशत कुओं द्वारा सींचा जाता है। नहरें सिंचाई के प्रमुख साधन हैं। इनसे सम्पूर्ण भारत में 255 लाख एकड़ भूमि की सिंचाई होती है। नहरों का विकास मुख्य रूप से हरियाना, पंजाब, पश्चिमी उत्तर प्रदेश तथा बिहार और गोदावरी, कृष्णा तथा कावेरी नदियों के डेल्टों में हुआ है।

पंजाब-हरियाना की नहरें- (1) पूर्वी यमुना नहर-यमुना नदी से ताजेवाला नामक स्थान पर निकाली गई है, जिससे हरियाना तथा राजस्थान के कुछ भागों में सिंचाई होती है। इस नहर को मूलत: 14 वीं शताब्दी में फिरोजशाह तुगलक ने बनवाया था, (2) सरहिंद नहर  सतलुज नदी से रूपड़ के पास निकाली गई है। इससे पंजाब और हरियाना में लगभग 15 लाख एकड़ भूमि की सिंचाई होती है, (3) ऊपरी बारी दोआब नहर  यह माधोपुर के समीप रावी नदी से निकाली गई है। यह पंजाब में व्यास और रावी नदियों के बीच आठ लाख एकड़ भूमि को सींचती है तथा (4) नंगल नहर  1954 ई. में सतलुज से निकाली गई है और भाखड़ा नंगल योजना के अंतर्गत है। इससे पंजाब, हरियाना तथा राजस्थान में कुल 20 लाख एकड़ सिंचाई होती है।

उत्तर प्रदेश की नहरें- (1) पूर्वी यमुना नहर  यमुना नदी के तटपर स्थित फैजाबाद नामक स्थान के पास से निकलती है और दिल्ली से उत्तर, गंगा-यमुना दोआब को सींचती है, (2) आगरा नहर  यमुना नदी के पश्चिमी किनारे से दिल्ली के पास ओखला से निकाली गई है और आगरा तथा मथुरा जिलों को सींचती है, (3) ऊपरी गंगा नहर  गंगा नदी से हरद्वार के पास निकलती है। यह गंगा-यमुना दोआब के उत्तरी भाग को सींचती है और निचली गंगा नहर को भी पानी देती है। यह लगभग 10 लाख एकड़ भूमि सींचती है, (4) बिजली गंगा नहर  गंगा नदी से अलीगढ़ के पास नरोरा से निकाली गई है। यह गंगा यमुना दोआब के मध्य तथा निचले भागों में लगभग 12 लाख एकड़ भूमि को सींचती है तथा (5) शारदा नहर  घाघरा की सहायक नदी शारदा से नेपाल की सीमा पर बनवासा नामक स्थान पर निकाली गई है और लखनऊ के उत्तर-पश्चिमी क्षेत्रों को सींचती है। यह उत्तर प्रदेश की प्रमुख नहर और इससे 54 लाख एकड़ भूमि की सिंचाई होती है। उत्तर प्रदेश में गन्ने की खेती के लिए इस नहर का विशेष महत्व है।

बिहार की नहरें- (1) सोन नहर  सोन नदी से डेहरी में निकाली गई है और पटना, गया तथा शाहाबाद जिलों में आठ लाख एकड़ भूमि को सींचती है। (2) त्रिवेणी नहर  गंडक से त्रिवेणी नामक स्थान से चंपारन में निकाली गई है, (3) ढाका नहर  लाल बकया नदी से चंपारन के पास निकाली गई है। (4) सारन नहर  गंडक से सारन जिले में निकाली गई है।

दक्षिण भारत की नहरें- दक्षिण भारत में नहरों से सिंचाई मुख्यत: डेल्टाओं के समतल तथा उपजाऊ भूमि में होती है। कृष्णा, गोदावरी तथा कावेरी तीनों के डेल्टा में नदियों को बाँध कर नहरें निकाली गई हैं। यद्यपि आंध्रप्रदेश और मद्रास में तालाब सिंचाई के महत्वपूर्ण साधन हैं, किंतु इन दो राज्यों में नहरों से सिंचित भूमि तालाबों द्वारा सिंचित भूमि से कम नहीं है। आंध्र प्रदेश में गोदावरी और कृष्णा के डेल्टा की नहरों (सिंचित भूमि 18 लाख एकड़) के अतिरिक्त तुंगभद्रा योजना तथा नागार्जुन सागर योजना की नहरों से विस्तृत क्षेत्रों में सिंचाई होती है। मद्रास राज्य में दक्षिण-पश्चिम मानसून काल में कम वर्षा होने के कारण सिंचाई का विशेष महत्व है और यहाँ कृषिगत भूमि के लगभग 40 प्रतिशत भाग में सिंचाई होती है। कावेरी डेल्टा की नहरों (ये 11 वीं शताब्दी में बनाई गई थीं) से लगभग 10 लाख एकड़ भूमि में, मुख्यत: धान और केलों की सिंचाई होती है। इनके अतिरिक्त मद्रास में मेटूर बाँध, पेरियर योजना, तथा निचली भवानी योजना की नहरों से बड़े क्षेत्र में धान, मूँगफली, कपास और तंबाकू की सिंचाई होती है।

तालाब- भारत में लगभग 115 लाख एकड़ भूमि की सिंचाई तालाबों द्वारा होती है। तालाबों से सिंचाई मुख्यत: आंध्र प्रदेश, मद्रास, मैसूर तथा छोटा नागपुर में होती है। पथरीले भागों में, छोटी नदियों के मार्ग में जगह जगह पर मिट्टी तथा पत्थर से बाँध बनाकर पानी को रोक दिया जाता है जिससे बाँध के ऊपर वर्षा ऋतु में पानी जमा हो जाता है। इस तरह ये तालाब मामूली अर्थ में समझे जानेवाले तालाबों से भिन्न हैं। तालाबों से पानी नीचे की ओर हलकी ढाल पर गिराया जाता है। इसके लिये प्राय: ढाल को सीढ़ीनुमा काट देते हैं। प्राय: ऐसे खेतों में धान की खेती होती है। तालाबों से सिंचाई मुख्यत: वर्षा ऋतु में होती है और जिस वर्ष वर्षा कम होती है, तालाबों से सिंचाई के लिये पूरा पानी नहीं मिलता। उत्तर प्रदेश तथा उड़ीसा में भी तालाबों एवं प्राकृतिक अथवा कृत्रिम गड्ढ़ों में वर्षा का पानी जमा कर उसे सिंचाई के काम में लाया जाता है। तालाबों से आंध्र प्रदेश (तेलंगाना) तथा मद्रास में क्रमश: 28 लाख और 22 लाख एकड़ भूमि की सिंचाई होती है। मद्रास के मदुरै तथा रामनाड जिलों में तालाबों से सिंचाई का सर्वोत्तम उदाहरण मिलता है।

कुएँ- कुओं द्वारा भारत में लगभग 175 लाख एकड़ भूमि की सिंचाई होती है। कुआँ सिंचाई का पुराना साधन है। कुओं का निर्माण उन क्षेत्रों में सुगम होता है जहाँ मिट्टी मुलायम हो तथा जलतल ऊँचा हो। एक साधारण कुएँ से लगभग पाँच एकड़ भूमि की सिंचाई होती है, यद्यपि पंजाब तथा हरियाना में, जहाँ कूएँ बड़े तथा स्थायी हैं, एक कुआँ से लगभग 12 एकड़ भूमि सींची जाती है। कुओं से सिंचाई अन्य साधनों की तुलना में मँहगी पड़ती है, क्योंकि पानी को कुओं से उठाकर खेतों में डालने में काफी मेहनत लगती है। इसलिये प्राय: कुओं से सिंचाई वैसी फसलों के लिये की जाती है जो अपेक्षाकृत मँहगी हैं। साथ साथ जहाँ कुओं से सिंचाई होती है वहाँ खेती का स्तर ऊँचा होता है और किसान अधिक से अधिक उपज पैदा करने का प्रयत्न करते हैं। कुओं से पानी निकालने के कई तरीके हैं  ढेकली द्वारा, रहट अथवा पुरवट द्वारा तथा तेल या बिजली चालित इंजनों द्वारा। उत्तर भारत के मैदान में, जहाँ मिट्टी मुलायम तथा उपजाऊ है और जलतल ऊँचा है, कुओं का अधिक विकास हुआ है। कुओं से सबसे अधिक सिंचाई उत्तर प्रदेश, पंजाब तथा हरियाना राज्यों में होती है, जहाँ भारत में कुओं द्वारा सिंचित भूमि का आधे से अधिक भाग पाया जाता है। महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान, मद्रास तथा बिहार में भी सिंचाई के लिये कुओं का स्थान महत्वपूर्ण है।

नलकूप- इधर पिछले तीस वर्षो से सिंचाई के लिये नलकूपों का उपयोग किया जा रहा है। लोहे की नली जमीन के अंदर काफी गहराई तक धँसा दी जाती है, और तेल या बिजली चालित इंजिन की सहायता से पानी ऊपर खींचा जाता है। यद्यपि नलकूप के बनाने में काफी लागत लगती है, फिर भी एक नलकूप से करीब 400 एकड़ की सिंचाई हो सकती है। इसलिये नलकूप सिंचाई कुओं की तुलना में सस्ती पड़ती है। इसके अतिरिक्त जब साधारण कुएँ सूख जाते हैं तब भी नलकूपों से जल मिलता रहता है। उत्तर भारत के मैदान में धरातल से काफी नीचे एक विस्तृत स्थायी संपृक्तता की पेटी मिलती है। इसको तराई तथा भामर क्षेत्र में वर्षा तथा नदियों से जल मिलता रहता है। नलकूप इसी पेटी से जल प्राप्त करते हैं। सबसे पहले पश्चिमी उत्तर प्रदेश में नलकूपों का विकास हुआ था और अभी भी सबसे अधिक सिंचाई नलकूपों से यहीं होती है। यहाँ इनसे अधिकतर गन्ने की सिंचाई होती है। कुल मिलाकर भारत में लगभग तीन लाख एकड़ भूमि नलकूपों द्वारा सींची जाती है।

नदी घाटी योजनाएँ- अभी नदियों का सिर्फ नौ प्रतिशत पानी सिंचाई के काम में आता है और बाकी 91 प्रतिशत बहकर नष्ट हो जाता है। इस पानी को सिंचाई तथा जलविद्युत्‌ उत्पादन के काम में लाया जा सकता है। इसी उद्देश्य से भारत सरकार तथा राज्य सरकारों ने कई योजनाएँ तैयार की हैं जिनसे नदियों से सिंचाई की सुविधा के अतिरिक्त उनसे जलविद्युत्‌ उत्पन्न की जा सके, नदियों में बाढ़ के प्रकोप को रोका जा सके तथा जलयातायात की सुविधा प्राप्त हो सके और इस प्रकार नदी घाटी का समुचित एवं संतुलित विकास सम्भव हो सके। इसी कारण इन्हे बहुधंधी योजनाएँ कहते हैं। मुख्य योजनाएँ निम्नलिखित हैं : दामोदर घाट योजना (बंगाल, बिहार), हीराकुंड बाँध योजना (उड़ीसा, महानदी पर), कोसी योजना (बिहार), भाखड़ा नंगल योजना (पंजाब, हरियाना, सतलुज नदी पर), तुंगभद्रा योजना (आंध्रप्रदेश तथा मैसूर), नागार्जुन सागर योजना (आंध्रप्रदेश में कृष्णा नदी पर), चंबल योजना (मध्यप्रदेश और राजस्थान) तथा गंडक योजना (बिहार)।

मुख्य फसलें- भारत में उत्पन्न की गई फसलों के दो भाग किए जाते हैं : खरीफ तथा रबी। खरीफ की फसलें वर्ष के आरंभ में बोई जाती हैं और जाड़े में काट ली जाती हैं। इनमें मुख्य धान, बाजरा, जवार, मकई, कपास, जूट, गन्ना मूँगफली हैं। रबी वर्षा के अंत में बोई जाती है और मार्च तक काटी जाती है। रबी की मुख्य फसलें मटर, गेहूँ, जौ, चना, मसूर, तीसी तथा सरसों हैं। भारत का स्थान संसार में चाय, गन्ना, तिल, मूँगफली, सरसों, राई, इलायची और काली मिर्च के उत्पादन में प्रथम, चावल, जूट तथा रेंड़ी में दूसरा, तीसी, तंबाकू में तीसरा और कपास के उत्पादन में चौथा है, यद्यपि संसार में कपास के अंतर्गत भूमि सबसे अधिक भारत में ही है। 1963-64 में मुख्य फसलों के अंतर्गत भूमि तथा प्रत्येक का कुल उत्पादन नीचे दिया गया है :

फसलें

क्षेत्रफल (हजार हैक्टर में)

उत्पादन (हजार मेट्रिक टन में)

धान

35,474

36,489

ज्वार-बाजरा

28,984

12,963

मकई

4,546

4,527

गेहूँ

13,305

9708

कुल खाद्यान्न

92,081

69,555

कुल खाद्यान्न और दलहन

1,15,849

79,430

मूँगफली

6,804

5,290

सरसों, राई

3,004

909

कुल तिलहन

14,554

7,096

गन्ना

2,214

10,258 (गुड़)

कपास

7,919

5,426 (हजार गांठ)

जूट

862

5,957 (हजार गांठ)



धान- यह भारत की मुख्य फसल है। कुल कृषिगत भूमि के लगभग चौथाई भाग में धान की खेती होती है। संसार में धान के अंतर्गत सबसे अधिक भूमि भारत ही में है, पर प्रति एकड़ उपज कम होने के कारण यहाँ उत्पादन चीन का लगभग आधा है। गंगा और ब्रह्मपुत्र नदियों के समतल तथा उपजाऊ मैदान और दक्षिण भारत के तटीय मैदान इसके लिए विशेष अनुकूल हैं। जिन क्षेत्रों में वर्षा 40 इंच से अधिक है वहाँ इसकी खेती मुख्य रूप से होती है। पहाड़ों पर भी जहाँ वर्षा पर्याप्त है, सीढ़ीनुमा ढालों पर धान की खेती महत्वपूर्ण है। भारत का लगभग दो तिहाई धान देश के उत्तर-पूर्वी भाग के एक अविच्छिन्न क्षेत्र में उत्पन्न होता है, जिसमें पश्चिमी बंगाल, बिहार, उड़ीसा, असम, पूर्वी मध्यप्रदेश और पूर्वी उत्तरप्रदेश सम्मिलित हैं। अन्य उत्पादक राज्य आंध्रप्रदेश, मद्रास तथा केरल हैं। प्रति एकड़ उत्पादन दक्षिण भारत में उत्तर भारत की तुलना में अधिक है। भारत में धान के अंतर्गत भूमि के लगभग 36 प्रतिशत भाग में सिंचाई होती है। इसलिये जब पर्याप्त या उचित समय पर वर्षा नहीं होती है तो फसल बड़े क्षेत्रों में मारी जाती है। भारत को साधारणतया थोड़ा बहुत चावल दूसरे देशों से खरीदने की जरूरत पड़ जाती है।

गेहूँ- धान के बाद गेहूँ भारत का दूसरा मुख्य खाद्यान्न है। भारत की कुल कृषिगत भूमि के दशांश पर गेहूँ उपजाया जाता हैं। गेहूँ के लिए अधिक गरमी और वर्षा दोनों हानिकारक हैं, इसलिए जिन क्षेत्रों में धान की खेती होती है वहाँ प्राय: गेहूँ महत्वपूर्ण नहीं है। यह शुष्कतर भागों में तथा शीत ऋतु में उत्पन्न किया जाता है। भारत का लगभग संपूर्ण गेहूँ क्षेत्र 40 इंच से कम वर्षावाले भाग में पड़ता है और लगभग 90 प्रतिशत उत्पादन उत्तरप्रदेश, पंजाब, हरियाना, मध्यप्रदेश तथा राजस्थान से आता है। इन राज्यों के अतिरिक्त बिहार के उत्तर-पश्चिमी भाग, महाराष्ट्र, तथा गुजरात में भी गेहूँ की थोड़ी बहुत खेती होती है। उत्तरप्रदेश, पंजाब, हरियाना तथा राजस्थान में लगभग 45 प्रतिशत गेहूँ के अंतर्गत भूमि सींची जाती है। देश के विभाजन के फलस्वरूप पश्चिमी पंजाब और सिंध का गेहूँ पैदा करनेवाला बड़ा इलाका पाकिस्तान में चला गया है। भारत बड़ी मात्रा (प्रति वर्ष 25 से 50 लाख टन तक) गेहूँ विदेशों से, मुख्यत: संयुक्त राज्य अमरीका और आस्ट्रेलिया से आयात करता है।

जौ- भारत में जौ का मुख्य क्षेत्र उत्तर प्रदेश तथा पश्चिमी बिहार है। भारत में वार्षिक उत्पादन लगभग 30 लाख टन है।

ज्वार, बाजरा आदि, (मिलेट, Millet)- इसके अंतर्गत कई मोटे अन्न आते हैं जिनमें ज्वार, बाजरा, तथा रागी (मड़ुआ) प्रधान हैं। भारत में मिलेट की कृषि के अंतर्गत भूमि धान से भी अधिक है। ये अन्न शुष्क प्रदेशों में जहाँ वर्षा 20 से 40 इंच के बीच है, बिना सिंचाई के प्राय: कम उपजाऊ मिट्टी मे काफी मात्रा में उपजाए जाते हैं। प्रायद्वीप पठार पर इनकी उपज विशेष महत्वपूर्ण है और वहाँ गरीब लोगों का यह प्रधान भोजन है। वास्तव में धान तथा गेहूँ क्षेत्रों को छोड़कर सारे भारत मे नीचे स्तर के लोगों के लिए मिलेट (कदन्न) महत्वपूर्ण खाद्यान्न हैं। यद्यपि ये चावल और गेहूँ से अधिक पुष्टिकर हैं, फिर भी इनकी गिनती निम्न भोज्यान्नों मं् होती है। ज्वार के मुख्य उत्पादक क्षेत्र महाराष्ट्र गुजरात और मैसूर हैं, किंतु मध्यप्रदेश, आंध्रप्रदेश, राजस्थान तथा पश्चिमी उत्तरप्रदेश में भी काफी ज्वार पैदा किया जाता है। अधिकांश उत्पादन काली मिट्टी पर होता है और महाराष्ट्र अकेले ही भारत के उत्पादन का एक तिहाई ज्वार उत्पन्न करता है। बाजरे का प्रमुख उत्पादक राजस्थान है जो अकेले ही भारत के उत्पादन का एक तिहाई बाजरा उत्पन्न करता है, किंतु गुजरात, महाराष्ट्र, पंजाब, हरियाना, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, मद्रास, आंध्र और मैसूर भी बाजरे के महत्वपूर्ण उत्पादक हैं। बाजरा ज्वार से भी अधिक शुष्क फसल है और जिन क्षेत्रों में यह उत्पन्न होता है वहाँ वर्षा 20 इंच से भी कम है। रागी का उत्पादन मुख्यत: मैसूर, मद्रास, आंध्र और महाराष्ट्र में होता है। यह मुख्यत: दक्षिण भारत की फसल है और मैसूर अकेले ही देश के उत्पादन का 40 प्रति शत से अधिक रागी उत्पन्न करता है।

मकई- यह साधारण वर्षा के क्षेत्रो में उपजाऊ मिट्टी में उत्पन्न की जाती है और चावल तथा गेहूँ के मध्यवर्ती इलाकों में मुख्यत: उगाई जाती है। उत्तर भारत के मैदान तथा दक्षिण की ओर इससे सटे हुए पठारी भाग में यह एक महत्वपूर्ण पूरक खाद्यान्न है, किंतु जहाँ वर्षा 60 इंच से अधिक है वहाँ इसका महत्व समाप्त हो जाता है। देश का लगभग तीन चौथाई उत्पादन बिहार, उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाना तथा राजस्थान में होता है।

दलहन- दलहन के अंतर्गत चना, अरहर, मसूर, मटर, मूँग, उड़द तथा खेसारी आते हैं। भारत की अधिकांश जनता शाकाहारी है और उन्हें अपने भोजन में प्रोटीन मुख्य रूप से दालों से मिलता है। दाल के पौधे वायु से नाइट्रोजन लेकर भूमि की उपज शक्ति को बनाए रखने में मदद करते हैं। जानवरों के भोजन में भी दालों तथा दालों से प्राप्त कराई का बहुत महत्व है। चना मुख्यत: उत्तरप्रदेश, पंजाब, हरियाना, राजस्थान, मध्यप्रदेश तथा बिहार में उपजता है। अरहर मुख्य रूप से उत्तरप्रदेश, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश तथा बिहार में उपजाई जाती है। उड़द थोड़ा बहुत भारत के सभी भागों में उत्पन्न किया जाता है, किंतु मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश तथा महाराष्ट्र देश के उत्पादन का आधा उड़द पैदा करते हैं। मूँग का प्रमुख उत्पादन क्षेत्र पूर्वी महाराष्ट्र तथा उत्तरी आंध्रप्रदेश हैं, यद्यपि मध्यप्रदेश, उड़ीसा, मद्रास, बिहार, राजस्थान, पंजाब, हरियाना और उत्तरप्रदेश में भी इसका उत्पादन होता है। मसूर मुख्यत: उत्तर और मध्य भारत की फसल है।

तिलहन- संसार में तिलहन पैदा करनेवाले देशों में भारत का स्थान महत्वपूर्ण है। कुछ तिलहन खाद्य हैं और कुछ अखाद्य। खाद्य तिलहनों में मूँगफली, तिल, बिनौले, राई तथा सरसों और नारियल मुख्य हैं और अखाद्य तिलहनों में तीसी तथा रेंडी प्रधान हैं। लगभग सभी तेलों का उद्योगों में उपयोग होता है। तिलहनों की खली पशुओं के खिलाने के काम आती है और खेतों के लिए उत्तम खाद भी है। पहले तिलहनों का एक चौथाई से आधा भाग तक विदेशों को निर्यात कर दिया जाता था, किंतु पिछले कुछ वर्षो से सरकार की नीति यह है कि तिलहन की जगह तेलों का निर्यात किया जाए। भारत अकेले संसार की 40 प्रतिशत मूँगफली उत्पन्न करता है। लगभग 50 वर्ष पहले भारत में इसका कोई महत्व नहीं था। भारत सरकार के कृषिविभाग के प्रयत्नों के फलस्वरूप तथा यूरोप में इसकी बढ़ती हुई माँग के कारण देश में इसका प्रचार हुआ और अब इसकी कृषि के अंतर्गत भूमि सभी तिलहनों से अधिक है। अधिकांश उत्पादन दक्षिण भारत से आता है और गुजरात, मद्रास तथा महाराष्ट्र देश के उत्पादन का लगभग दो तिहाई भाग उत्पन्न करते हैं। मैसूर तथा आंध्रप्रदेश भी महत्वपूर्ण उत्पादक हैं। संसार में तिल की कृषि के अंतर्गत लगी भूमि का आधा भाग भारत ही में है और संसार का एक तिहाई से अधिक तिल यहीं उत्पन्न होता है। मुख्य उत्पादक क्षेत्र उत्तरप्रदेश, राजस्थान, मध्यप्रदेश, मद्रास, आंध्र, महाराष्ट्र और गुजरात हैं। भारत संसार के उत्पादन 40 प्रतिशत से अधिक राई तथा सरसों उत्पन्न करता है। यहाँ इसका उत्पादन मुख्यत: उत्तरप्रदेश हैं जो भारतीय उत्पादन का लगभग 70 प्रतिशत उत्पन्न करते हैं। अन्य उल्लेखनीय राज्य महाराष्ट्र और बिहार हैं। सरकारी आँकड़ों के अनुसार रेंडी के उत्पादन में भारत का स्थान ब्राज़िल के बाद आता है। तीन प्रमुख उत्पादक आंध्र, गुजरात और मैसूर हैं, यों बिहार, उड़ीसा तथा मद्रास में भी रेंडी की खेती होती है। बिनौला कपास से प्राप्त होता है, अत: इसका भौगोलिक विवरण वही है जो कपास का। अधिकांश उत्पादन पशुओं को खिलाने और जलावन के काम आता है। बिनौले के तेल का उत्पादन थोड़ा है। नारियल उष्ण और आर्द्र जलवायु का वृक्ष है। यह भारत के दोनों तटों तथा मिनिकोय, लक्षदीवी और निकोबार द्वीपसमूह पर पाया जाता है, किंतु केरल में यह विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। इससे उत्पन्न मुख्य व्यापारिक पदार्थ कोपरा अथवा गरी है। कोपरा के उत्पादन में भारत का स्थान संसार में तीसरा है, फिर भी भारत साधारणत: नारियल के तेल का मलाया तथा लंका से आयात करता है।

गन्ना- गन्ना भारत की एक महत्वपूर्ण नक़दी फसल है। यहाँ संसार का सबसे अधिक गन्ना उत्पन्न होता है। उत्तरप्रदेश, पंजाब, हरियाना तथा बिहार लगभग तीन चौथाई गन्ना उत्पन्न करते हैं यहाँ उपजाऊ मिट्टी और सिंचाई की सुविधा है, किंतु दक्षिण भारत की गर्म जलवायु गन्ने के लिये अधिक उपयुक्त है। इसलिये यहाँ का गन्ना मोटा होता है और प्रति एकड़ पैदावार उत्तर भारत की अपेक्षा अधिक है, पर सिंचाई और खाद पर अधिक खर्च के कारण दक्षिण भारत का गन्ना महँगा पड़ता है। फिर भी उच्च प्राकृतिक सुविधाएँ, प्रति एकड़ अधिक उत्पादन एवं बढ़ती हुई मांग के कारण, पिछले कुछ वर्षो में गन्ने की खेती में दक्षिण भारत में वृद्धि हुई है और महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, मद्रास तथा मैसूर महत्वपूर्ण उत्पादक हो गए हैं। कोयंपुत्तूर (मद्रास) में गन्ने की अनुसंधानशाला भी है।

तंबाकू- यद्यपि तंबाकू भारत के सभी राज्यों में थोड़ा बहुत उत्पन्न होता है, तथापि लगभग 30 प्रतिशत उत्पादन आंध्रप्रदेश और गुजरात से आता है। अन्य महत्वपूर्ण उत्पादक मद्रास, मैसूर, महाराष्ट्र, बिहार, पश्चिम बंगाल तथा उत्तरप्रदेश हैं। आंध्र प्रदेश का गुंटुरु क्षेत्र तंबाकू की उपज के लिये प्रसिद्ध है। गुंटुरु सिगरेट की तंबाकू का अनुसंधानकेंद्र है।

चाय- अन्य फसलों की तुलना में यह अपेक्षाकृत कम क्षेत्रों में उगाई जाती है, किंतु फिर भी यह भारत को विदेशी मुद्रा दिलानेवाली सबसे प्रमुख फसल है। भारत ही संसार में चाय का मुख्य उत्पादक एवं निर्यातक है। चाय की खेती ऊँचे ताप और अधिक वर्षा के क्षेत्रों में हलकी ढालवाँ भूमि पर बड़े बड़े बागानों में होती है। इसकी खेती तथा उद्योग में लगभग 10 लाख श्रमिक काम करते हैं। भारत में तीन क्षेत्रों में चाय का उत्पादन होता है : (1) उत्तर  पूर्वी भारत जिसमें असम, त्रिपुरा और दार्जिलिंग (पश्चिमी बंगाल) के क्षेत्र आते हैं, (2) दक्षिण भारत जिसमें मद्रास, मैसूर एवं केरल मे स्थित नीलगिरि, अन्नाईमलाई एवं काडेंमम के पहाड़ी क्षेत्र शामिल हैं, और (3) पश्चिमी हिमालय, जहाँ उत्तर प्रदेश तथा हिमाचल प्रदेश के पहाड़ी भागों में चाय की थोड़ी बहुत खेती होती है। सबसे प्रधान क्षेत्र असम और पश्चिमी बंगाल में स्थित है जो कुल उत्पादन का तीन चौथाई भाग उत्पन्न करते हैं। सबसे उत्तम चाय दार्जिलिंग में उत्पन्न होती है।

कहवा- यद्यपि भारत मे कहवा का उत्पादन दक्षिण भारत में एक छोटे क्षेत्र में सीमित है, फिर भी दक्षिण भारत में कहवे की कृषि के अंतर्गत भूमि चाय से कहीं अधिक है। कहवे की खेती मैसूर के कुर्ग, नीलगिरि पहाड़ी तथा निकटवर्ती केरल और मद्रास राज्यों में होती है। कहवे के बागान मुख्यत: 1,000 फुट से 6,000 फुट की ऊँचाई के बीच पाए जाते हैं।

कपास- यद्यपि पाकिस्तान बन जाने से भारत का सबसे उत्तम कपास पैदा करनेवाला इलाका पश्चिमी पाकिस्तान में चला गया, फिर भी संसार में कपास की कृषि के अंतर्गत भूमि सबसे अधिक भारत ही में है। इसके उत्पादन में भारत का स्थान संयुक्त राज्य अमरीका, रूस और चीन के बाद आता है। सबसे प्रमुख उत्पादक क्षेत्र महाराष्ट्र, गुजरात तथा मैसूर के काली मिट्टी के प्रदेश हैं, जहाँ मुख्यत: छोटे और मध्यम रेशेवाली देशी कपास उत्पन्न होती है। दूसरा क्षेत्र पंजाब, हरियाना तथा पश्चिमी उत्तरप्रदेश का है जहाँ उपजाऊ जलोढ मिट्टी और नहरों द्वारा सिंचाई की सुविधाएँ प्राप्त हैं और मुख्यत: लंबे रेशेवाली अमरीकन कपास की खेती होती है। तीसरा क्षेत्र मद्रास का है जहाँ काली एवं लाल दोनों किस्म की मिट्टियों पर उपजती है। भारत छोटे रेशेवाली कपास का निर्यात करता है किंतु लगभग उतना ही या उससे कुछ अधिक उत्तम कपास, मिस्र, संयुक्तराज्य अमरीका इत्यादि देशों से आयात करता है।

जूट- देश के विभाजन से लगभग तीन चौथाई जूट क्षेत्र पूर्वी पाकिस्तान में चला गया, किंतु सभी जूट की मिलें जो हुगली नदी के किनारे हैं, भारत के हिस्से में पड़ीं। पाकिस्तान और भारत में अच्छा सम्बंध नहीं रहने के कारण, भारत को पाकिस्तान से जूट मिलने में बहुत दिक्कत होती थी। इसलिये पिछले 15-20 वर्षो में भारत ने जूट के उत्पादन को बहुत बढ़ाया है। भारत में जूट का क्षेत्र अब पाकिस्तान से अधिक है किंतु भारत का प्रति एकड़ उत्पादन पाकिस्तान से कम है। इसलिए कुल उत्पादन में भारत का स्थान पाकिस्तान के बाद आता है। इसकी खेती मुख्यत: गंगा नदी के डेल्टा, ब्रह्मपुत्र नदी की घाटी तथा बिहार के उत्तर-पूर्वी भागों में होती है।फल और सब्जियाँ- भारत में नाना प्रकार के फल तथा सब्जियाँ उत्पन्न की जाती हैं। उत्तरप्रदेश, बिहार तथा पश्चिमी बंगाल भारत के उत्पादन का लगभग तीन चौथाई आम उत्पन्न करते हैं। दक्षिण भारत में आम मुख्यत: तटीय क्षेत्रों में होता है जिनमें मद्रास, केरल, महाराष्ट्र एवं मैसूर हैं, पर बंगाल, बिहार, उड़ीसा और असम भी महत्वपूर्ण हैं। संतरे के उत्पादन में महाराष्ट्र में नागपुर का क्षेत्र, पश्चिम बंगाल में दार्जिलिंग, और असम में ब्रह्मपुत्र की घाटी तथा खासी पहाड़ियाँ विशेष उल्लेखनीय हैं। रसदार फलों में नीबू भी महत्वपूर्ण है। इलाहाबाद का अमरूद तथा मुजफ्फरपुर की लीची प्रसिद्ध है। हिमालय की घाटियाँ में समशीतोष्ण जलवायुवाले लगभग सभी फल पैदा होते हैं और कश्मीर तथा कुल्लू इन फलों के लिये विशेष प्रसिद्ध हैं। सब्जियाँ प्राय: स्थानीय उपभोग के लिये बड़े शहरों के आसपास उपजाई जाती हैं जहाँ उन्हें बाजार तथा यातायात की सुविधाएँ प्राप्त हैं। आलू का उत्पादन मुख्य रूप से उत्तरप्रदेश, पश्चिमी बंगाल, बिहार तथा पंजाब में होता है, यद्यपि दक्षिण भारत में महाराष्ट्र तथा मैसूर भी महत्वपूर्ण उत्पादक हैं। बिहार का आलू जो मुख्यत: बिहार शरीफ के पास उपजता है, बीज के लिये पटना आलू के नाम से प्रसिद्ध है।

मसाले- भारत अत्यंत प्राचीन काल से मसालों के व्यापार के लिये प्रसिद्ध रहा है और आज भी इनका भारत के निर्यात में महत्वपूर्ण स्थान है। साथ साथ देश के अंदर भी मसालों की काफी खपत है। मिर्च के प्रधान उत्पादक मद्रास, आंध्र और महाराष्ट्र हैं। उत्तर भारत में महत्वपूर्ण उत्पादक बिहार, हरियाना तथा पंजाब हैं। काली मिर्च लगभग पूर्णत: केरल तथा निकटवर्ती मैसूर और मद्रास राज्यों से आती है। अदरक की खेती सबसे अधिक पश्चिमी घाट की निचली ढालों पर होती है, पर केरल के अतिरिक्त थोड़ा बहुत अदरक बंगाल, मध्य प्रदेश, मैसूर, गुजरात, उड़ीसा तथा हिमाचल प्रदेश में भी होता है। हल्दी मुख्यत: आंध्रप्रदेश, उड़ीसा, मद्रास, महाराष्ट्र, मैसूर तथा मध्य प्रदेश से आती है। धनियाँ का प्रधान उत्पादक आंध्रप्रदेश है, किंतु मद्रास, मैसूर तथा महाराष्ट्र भी महत्वपूर्ण हैं। लौंग का उत्पादन मद्रास तथा केरल में होता है।

पशुपालन- सन्‌ 1961 की गणना के अनुसार भारत में पशुओं की संख्या 33.65 करोड़ है। इनमें सबसे महत्वपूर्ण बैल, गायें ओर भैंसें हैं। भारत में खेती का सबसे बड़ा साधन बैल है। इसके अलावा देश की अधिकांश जनता के भोजन में दूध, दही तथा घी का बड़ा महत्व है। भारत में सभी देशों से अधिक गाय, बैल और भैंसें पाई जाती हैं, पर उनकी नस्ल, भोजन तथा स्वास्थ्य पर विशेष ध्यान नहीं दिया जाता। अधिक भागों में चरागाह की कमी है और पशुओं के लिये चारा भी अलग से नहीं उपजाया जाता। ऐसी स्थिति में यह आश्चर्य की बात नहीं है कि अधिकतर पशु घटिया किस्म के हैं और गाय और भैंस औसतन बहुत कम दूध देती हैं। प्रति व्यक्ति के लिये कम से कम 10 औंस दूध आवश्यक समझा जाता है, किंतु भारत में प्रत्येक व्यक्ति का औसत हिस्सा केवल 5 औंस बैठता है। भारत में अधिक पशुओं की नहीं वरन्‌ अच्छे पशुओं की आवश्यकता है।

अच्छी नस्ल की भारतीय गायों में साहीवाल (पंजाब) तथा गीर (गुजरात) महत्वपूर्ण हैं1 अच्छी नस्ल के बैलों में हेसी (पंजाब), नेल्लुरु (आंध्र), हरियाना (पंजाब), बछौर (उत्तरी बिहार) इत्यादि प्रसिद्ध हैं। कंकरेज और गीर जाति के अच्छे बैल भी होते हैं और अच्छी गायें भी1 अच्छी नस्ल की भैंसों में मुख्य मुर्रा (पंजाब), जफेराबादी (सौराष्ट्र), मेहसाना (गुजरात), सुरती और पंढरपुरी इत्यादि हैं।

ऊँट मुख्यत: 20 इंच से कम वर्षावाले क्षेत्रों में पाए जाते हैं और उनको माल ढोने तथा कुओं से सिंचाई के काम में लाया जाता है। भेड़ें मुख्यत: पंजाब, उत्तरप्रदेश और राजस्थान के शुष्क और पहाड़ी भागों में पाली जाती हैं और इनसे ऊन तथा मांस प्राप्त होता है। बकरियाँ प्राय: सभी जगह, मुख्य रूप से मांस के लिये पाली जाती हैं।

खनिज संपत्ति- क्षेत्रफल तथा जनसंख्या के विचार से भारत खनिजों में बहुत धनी नहीं कहा जा सकता, फिर भी कुछ खनिजों के उत्पादन में भारत का स्थान संसार में महत्वपूर्ण है। स्वतंत्रता के बाद से खनिजों के सर्वेक्षण एवं विकास की ओर काफी ध्यान दिया गया है और जिआलोजिकल सर्वे ऑव इंडिया के अतिरिक्त अन्य कई सरकारी संस्थाएँ स्थापित की गई हैं जिनमें इंडियन ब्यूरो ऑव माइंस, नैशनल मिनरल डेवलपमेंट कारपोरेशन, मिनरल इनफारमेशन ब्यूरो, मिनरल एडवाइजरी बोर्ड के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। भारत कोयला, कच्चा लोहा, मैंगनीज, अभ्रक, बौक्साइट, इल्मेनाइट, टाइटेनियम, थोरियम, कायनाइट तथा चूना पत्थर में धनी है, किंतु टिन, ताँबा, सीसा, जस्ता, निकेल, गंधक एवं पेट्रोलियम जैसे महत्वपूर्ण खनिज भारत में थोड़ी मात्रा में ही पाए जाते हैं। भारत में खान खोदने के काम में सात लाख से कुछ कम आदमी लगे हुए हैं, जिनमें से अधिकांश कोयले की खानों में काम करते हैं।

भारत में अधिकांश खनिज प्रायद्वीपीय पठार में धारवाड़ युग की प्राचीन कायांतरित चट्टानों एवं गोंडवाना युग की परतदार चट्टानों में पाए जाते हैं। सबसे धनी इलाका छोटा नागपुर का पठार और इसके निकटवर्ती भाग हैं जहाँ कोयला, कच्चा लोहा, अभ्रक और बौक्साइट के अतिरिक्त अन्य कई खनिज संचित हैं और जहाँ से अभी भारत के खनिज उत्पादन का अधिक भाग प्राप्त होता है। मूल्य के अनुसार (1962) बिहार भारत का 39 प्रतिशत, पश्चिम बंगाल 22 प्रतिशत, मध्यप्रदेश 11 प्रतिशत, उड़ीसा छह प्रतिशत, आंध्र पाँच प्रतिशत तथा मैसूर पाँच प्रतिशत खनिज उत्पन्न करता है।

लोहा- संसार का लगभग एक चौथाई कच्चा लोहा अनुमानत: भारत ही में संचित है, किंतु भारत संसार के कुल उत्पादन का केवल तीन प्रतिशत कच्चा लोहा उत्पन्न करता है। यहाँ का अधिकांश कच्चा लोहा उच्च कोटि का है जिसमें लौह अंश 60 से 68 प्रतिशत है। सर्वप्रधान क्षेत्र बिहार के सिंहभूम और उड़ीसा के निकटवर्ती केंदुझरगढ़ (क्योंझर), सुंदरगढ़ (बोनाई) तथा मयूरभंज जिलों में स्थित है और इसी क्षेत्र से वार्षिक उत्पादन का लगभग दो तिहाई भाग प्राप्त होता है। जमशेदपुर, बर्नपुर, दुर्गापुर तथा रूरकेला के इस्पात के कारखाने इसी क्षेत्र से कच्चा लोहा लेते हैं और बौकारो के प्रस्तावित कारखाने को भी यहीं से कच्चा लोहा दिया जायगा। दूसरा महत्वपूर्ण क्षेत्र मध्यप्रदेश में दुर्ग और बस्तर का है जहाँ से भिलाई के इस्पात के कारखाने को कच्चा लोहा मिलता है। मैसूर की बाबाबूदन पहाड़ी से प्राप्त कच्चा लोहा भद्रावती के इस्पात कारखाने में व्यवहृत होता है। भारत अपने उत्पादन का एक तिहाई से कुछ कम कच्चा लोहा जापान, चेकोस्लोबाकिया इत्यादि देशों को निर्यात करता है।

मैंगनीज- यह दूसरा खनिजे है जिसमें भारत धनी है। भारत संसार के उत्पादन का 10 प्रतिशत मैंगनीज उत्पन्न करता हैऔर इसका स्थान उत्पादन में रूस के बाद ही आता है, किंतु रूस का मैंगनीज निम्न कोटि का और भारत का मैंगनीज उच्च कोटि का इस कारण विदेशों में इसकी बहुत माँग है। भारत अपने उत्पादन का लगभग तीन चौथाई भाग निर्यात करता है। मैंगनीज के मुख्य क्षेत्र महाराष्ट्र के नागपुर और भंडारा जिले तथा मध्य प्रदेश के निकटवर्ती बालाघाट और छिंदवाड़ा जिलों में स्थित हैं। अन्य क्षेत्र गुजरात में पंचमहल तथा बड़ौदा, उड़ीसा में जामदा कोपरा घाटी, सुंदरगढ़ तथा कोराचुट, बिहार में दक्षिणी सिंहभूम, मैसूर में बल्लारि, उत्तरी कन्नड़ में तुमकुर तथा शिमोगा, आंध्र प्रदेश में श्रीकाकुलम तथा राजस्थान में जयपुर बाँसवाड़ा तथा उदयपुर हैं।

अभ्रक- इसके उत्पादन तथा निर्यात में भारत का लगभग एकाधिकार है। भारत संसार के उत्पादन का तीन चौथाई से अधिक अभ्रक उत्पन्न करता है। मुख्य क्षेत्र बिहार में हजारीबाग जिला और निकटवर्ती गया, मुँगेर और भागलपुर जिलों में स्थित हैं। यहाँ का अभ्रक बहुत उच्च कोटि का मस्कोवाइट अभ्रक है जिसकी संसार के बाजार में बहुत माँग है। अन्य क्षेत्र राजस्थान में जयपुर-उदयपुर क्षेत्र और आंध्र प्रदेश में नेल्लूरु हैं। भारत के उत्पादन का अधिकांश भाग संयुक्तराज्य अमरीका और ब्रिटेन खरीदते हैं।

ताँबा- भारत में ताँबा कम मिलता है और लगभग सभी उत्पादन बिहार के घाटशिला क्षेत्र (सिंहभूम) से आता है। घाटशीला के पास भौभंडार में इंडियन कॉपर कारपोरेशन का कारखाना है, जहाँ ताँबा गलाया और साफ किया जाता है।

बौक्साइट- भारत में बौक्साइट का संचित भंडार पर्याप्त है किंतु उत्पादन अभी बहुत कम है। सबसे घनी और मुख्य क्षेत्र बिहार की दक्षिण-पश्चिमी और मध्य प्रदेश की पूर्वी सीमा पर स्थित राँची, पलामू सरगुजा, रायगढ़ तथा बिलासपुर जिलों के पठारी भाग हैं। बिहार में उत्पादन केवल राँची में होता है और राँची में होता है और राँची अकेले भारत के उत्पादन का दो तिहाई से अधिक बौक्साइट उत्पन्न करता है। मध्य प्रदेश में अन्य महत्वपूर्ण क्षेत्र मैकाल (अमरकंटक) पहाड़ी तथा कटनी के क्षेत्र हैं। बौक्साइट उड़ीसा, गुजरात, महाराष्ट्र, मद्रास तथा जम्मू कश्मीर में भी पाया जाता है, किंतु थोड़ा बहुत उत्पादन केवल गुजरात और मद्रास से आता है।

अन्य खनिज ब्रोमाइट उड़ीसा के केंदुझरगढ़ (क्योंझर), मयूरभंज तथा बिहार के सिंहभूम जिलों में मुख्य रूप से पाया जाता है। मैग्नेसाइट के मुख्य क्षेत्र मद्रास में सेलम, मैसूर में दोकन्या पहाड़ियाँ, उत्तर प्रदेश में अलमोड़ा, राजस्थान में ढूँगरपुर तथा बिहार में सिंहभूम हैं। भारत संसार में कायनाइट का मुख्य उत्पादक और निर्यातक है और सिंहभूम में स्थित लुप्साबुरु (खरसावाँ) क्षेत्र संसार में सबसे बड़ा भंडार समझा जाता है। इमारती पत्थरों में मुख्य ग्रेनाइट, चूना पत्थर, संगमरमर, बालू पत्थर तथा स्लेट हैं। चूना पत्थर का उपयोग सीमेंट बनाने में होता है। भारत में चूना पत्थर का अपरिमित भंडार है। सबसे प्रधान क्षेत्र बिहार, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान में हैं, किंतु दक्षिण भारत में भी कई राज्य महत्वपूर्ण हैं। जिप्सम मुख्यत: राजस्थान से आता है, किंतु मद्रास, जम्मू और कश्मीर, गुजरात तथा उत्तर प्रदेश में भी इसके विशाल भंडार हैं। गंधक भारत में केवल कश्मीर की पुगा घाटी में मिलता है किंतु उत्पादन अभी संभव नहीं है। हाल में बिहार के शाहाबाद जिले में आमजोर में एक विस्तृत पायराइट के क्षेत्र का पता चला है, जिससे गंधक निकाला जा सकता है।

भारत में बहुमूल्य धातुओं की कमी है। चाँदी केवल राजस्थान में नाम मात्र को मिलती है। सोना मैसूर के कोलार क्षेत्र से आता है। प्राचीन एवं मध्यकालीन युग तक संसार के कीमती पत्थर और रत्न मुख्यत: भारत से प्राप्त होते थे, किंतु अब इसका महत्व नहीं रहा। हीरा पन्ना के पास मिलता है। कश्मीर में उच्च कोटि का नीलम, जंगस्कार श्रेणी में मिलता है और पन्ना या मरकत राजस्थान में उदयपुर तथा अजमेर मेखाड़ा के क्षेत्रों में मिलता है। इल्मेनाइट (टाइटेनियम) केरल तथा मद्रास के तटों की बालू में मिलता है। केरल में इल्मेनाइट का संसार में सबसा बड़ा संचित भंडार है। इल्मेनाइट के साथ बड़ी मात्रा में थोरियम तथा यूरेनियम मिलते हैं जिनका महत्व परमाणु शक्ति के बनाने में है। अन्य खनिज ऐपाटाइट में सिंहभूम और विशाखापत्तनम, ऐस्बेस्टॉस में आंध्र, बिहार, मैसूर तथा उड़ीसा में फेल्सपार राजस्थान, बिहार, मैसूर में, कैल्साइट राजस्थान एवं गुजरात में मिलता है। नमक हिमाचल प्रदेश की खान से, राजस्थान में नमकीन झीलों से तथा पश्चिमी और पूर्वी तटों पर समुद्र के पानी से प्राप्त होता है।

शक्ति के साधन- तीन मुख्य साधन कोयला, पेट्रोलियम तथा जलविद्युत हैं। इनके अतिरिक्त अणुशक्ति को भी विकसित करने का प्रयत्न किया जा रहा है किंतु अभी इसका महत्व कम है।

कोयला- संसार में कोयला उत्पन्न करनेवाले देशों में भारत का स्थान सातवाँ है और संचित भंडार पर्याप्त है। कोयले के उत्पादन में यहाँ पिछले 10-15 वर्षो में काफी वृद्धि हुई है और भारत अब फ्रांस अथवा जापान से अधिक कोयला उत्पन्न करता है। भारत में कोयला निम्नलिखित क्षेत्रों में पाया जाता है : (1) बिहार तथा पश्चिमी बंगाल में स्थित दामोदर नदी की घाटी, (2) महानदी तथा सोन नदियों की घाटी के बीच पूर्वी मध्य प्रदेश, (3) वर्धा तथा गोदावरी नदियों की घाटियाँ और (4) असम तथा दार्जिलिंग। सबसे महत्वपूर्ण खानें पश्चिमी बंगाल में रानीगंज एवं बिहार में झरिया, कर्णपुरा तथा बोकरो में हैं। दामोदर घाटी क्षेत्र से भारत का लगभग 80 प्रतिशत कोयला प्राप्त होता है। भारत में कोयले के कुल संचित भंडार (लगभग 5,000 करोड़ टन) का 60 प्रतिशत भाग दामोदर घाटी में स्थित है। उच्च कोटि के कोयले का पूरा संचित भंडार इसी क्षेत्र में सीमित है और कोककारी कोयला, जिसका उपयोग लोहा बनाने में होता है, लगभग पूर्णत: दामोदर घाटी में ही सीमित है। रानीगंज और झरिया मिलकर भारत के उत्पादन का दो तिहाई कोयला उत्पन्न करते हैं। झरिया का लगभग सभी कोयला कोकिंग किस्म का है। महानदी बेसिन की खानों में सबसे महत्वूपर्ण कोरबा है जिसका विकास मुख्यत: द्वितीय पंचवर्षीय योजनाकाल में हुआ है। असम का कोयला भी कोकिंग किस्म का है किंतु इसमें गंधक की मात्रा अधिक होने के कारण इसका लोहा उद्योग में व्यवहार नहीं होता। भारत में कोयले का भौगोलिक वितरण असमान होने के कारण देश के पश्चिमी तथा दक्षिणी भागों को पर्याप्त मात्रा में अथवा उचित समय पर कोयला मिलने में दिक्कत होती है। रेलें जितना सामान ढोती हैं उनमें तौल के अनुसार सबसे मुख्य कोयला ही है। दक्षिण आर्काडु (मद्रास) जिले के निवेली क्षेत्र में लिग्नाइट का एक विशाल भंडार है जिसे विकसित कर बिजली उत्पन्न करने बड़ी योजना चल रहा है।

पेट्रोलियम- भारत में पेट्रोलियम कम मिलता है और देश अधिकांशत: दूसरे देशों से आयात पर निर्भर करता है। यह भारत के असम के डिगबोई तथा नहरकटिया के क्षेत्र और गुजरात के अंकलेश्वर क्षेत्र में मिलता है। पिछले 10 वर्षो में भारत के कई क्षेत्रों में तेल की खोज की गई है ओर सबसे आशाजनक परिणाम गुजरात में मिले हैं, जहाँ अंकलेश्वर में उत्पादन 1961 ई. से शुरू हुआ है। असम के शिवसागर क्षेत्र में भी पेट्रोलियम के भंडार का पता चला है।

जलविद्युत शक्ति- भारत में बिजली के कुल उत्पादन का लगभग 60 प्रतिशत भाग कोयले से, 35 प्रतिशत पानी से और 5 प्रतिशत पेट्रोलियम से प्राप्त होता है। भारत में पेट्रोलियम का अभाव है और कोयला क्षेत्रों से दूर है, अत: कोयले पर यातायात के खर्च के कारण कोयले से उत्पन्न बिजली महँगी पड़ती है। ऐसी स्थिति में जलशक्ति को ही यथासम्भव विकसित करने का प्रयत्न उचित प्रतीत होता है। भाग्यवश भारत मे जलशक्ति का विशाल भंडार है। भारत में संभाव्य जलशक्ति 4 करोड़ 10 लाख किलोवाट है। इसमें से अभी केवल पाँच प्रतिशत भाग ही विकसित किया जा सका है।

भारत में जलविद्युत्‌ शक्ति के विकास के दो महत्वपूर्ण क्षेत्र हैं : (1) प्रायद्वीपीय भारत का पश्चिमी तथा दक्षिणी भाग जिसमें महाराष्ट्र, मद्रास, मैसूर तथा केरल के राज्य सम्मिलित हैं और (2) उत्तर-पश्चिमी भारत जिसमें कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, पंजाब तथा उत्तरप्रदेश के राज्य आते हैं। कोयले तथा पेट्रोलियम का अभाव तथा जलशक्ति की प्रचुरता दोनों कारणों से इन क्षेत्रों में जलशक्ति के विकास को प्रोत्साहन मिला है। महाराष्ट्र जलविद्युत्‌ उत्पादन में सभी राज्यों से आगे है। यहाँ टाटा की अधीनस्थ कम्पनियों ने पश्चिमी घाट पर कई कृत्रिम झीलें बनाई हैं जिनमें नदियों तथा वर्षा का पानी इकट्ठा किया जाता है और जल लगभग 1,750 फुट की ऊँचाई से खोपली, भीवपुरी तथा भीरा के पावर हाउस में गिराया जाता है। इन्हें कल्याण तथा ट्रांबे के कोयला चालित पावर हाउसों से सम्बद्ध कर दिया गया है। हाल में कृष्णा की सहायक नदी कोयना पर बाँध बाँधा गया है जिससे बड़ी मात्रा में बिजली उत्पन्न की जाती है। मैसूर में लगभग सभी बिजली जलशक्ति से उत्पन्न की जाती है। मुख्य स्रोत कावेरी पर शिवसमुद्रम प्रपात और शरवती पर जोगा (गरसोप्पा) प्रपात हैं। मद्रास में पाईकारा , मेंटूर, पापनाशम, मोमार, पेरियार और कुंदा योजनाओं से पनबिजली मिलती है। इन्हें एक दूसरे से तथा मद्रास और मदुरै के थर्मल पावर स्टेशनों से सम्बद्ध कर दिया गया है। केरल की मुख्य जलविद्युत्‌ योजनाएँ पाल्लीवासल, संगुलम, पोरिंगल तथा इडिक्की हैं। उत्तर-पश्चिम भारत में हिमालय प्रदेश में जोगिंदरनगर (मंडी) एक महत्वपूर्ण जलविद्युत्‌ उत्पादन-केंद्र है। हाल में भाखड़ा-नंगल-योजना के विकसित होने से पंजाब हरियाना में बिजली उत्पादन में बहुत वृद्धि हुई है। उत्तरप्रदेश में रिहंद योजना, से तथा उड़ीसा में हीराकुंड बाँध योजना से बड़ी मात्रा में पनबिजली उत्पन्न की जाती है।

बिहार तथा पश्चिमी बंगाल में दामोदर घाटी योजना के अंतर्गत थोड़ा बहुत जलविद्युत्‌ का विकास हुआ है, किंतु यहाँ कोयले की खानों की निकटता के कारण अधिकांश बिजली कोयले से उत्पन्न की जाती है। कोयले से प्राप्त बिजली के प्रमुख उतपादन केंद्र पश्चिमी बंगाल में कलकत्ता, दुर्गापुर और बंडेल हैं और बिहार में बोकारो, पतरात, चंद्रपुरा, सिंद्री तथा बरौनी हैं।

भारत में विद्युत्‌ शक्ति का विकास अभी तक बड़े शहरों तथा औद्योगिक केंद्रो में मुख्य रूप से सीमित है। मद्रास, केरल, मैसूर, पंजाब तथा उत्तरप्रदेश में इसका उपयोग सिंचाई तथा घरेलू उद्योगों के लिये विशेष महत्वपूर्ण है। ग्रामीण क्षेत्रों में छोटे तथा घरेलू उद्योगों के विकास तथा सिंचाई या अन्य कृषि कार्यो में तरक्की के लिये आवश्यक है कि यथासम्भव शीघ्रता से देहातों तथा छोटे शहरों को बिजली की सुविधा प्रदान की जाए।

उद्योग धंधे


भारत प्राचीन काल से उद्योग धंधों के लिये प्रसिद्ध रहा है। पहले भारत के सूती तथा रेशमी कपड़े, धातु, लकड़ी तथा हाथीदाँत के सामान संसार के सुदूर देशों में भेजे जाते थे। इन वस्तुओं का उत्पादन प्राय: छोटे पैमाने पर कारीगरों के घरों में होता था। अंग्रेजी राज्य की स्थापना के बाद इन उद्योगों का बड़ी तेजी के साथ ्ह्रास होने लगा। इंग्लैंड से मशीन के बने सस्ते सामान, खासकर सस्ते कपड़े भारत में बड़े पैमाने पर भेजे जाने लगे, अत: यहाँ के कारीगर बेरोजगार हो गए। लगभग सौ वर्ष हुए, भारत में नए ढंग के बड़े पैमाने के उद्योग मुख्यत: बंबई और कलकत्ता बंदरगाहों में खुलने लगे और इनकी उत्तरोत्तर तरक्की होती रही। फिर भी भारत औद्योगिक क्षेत्र में अभी काफी पीछे है और इन उद्योगों में देश की जनसंख्या का बहुत ही छोटा भाग काम करता है। द्वितीय एवं तृतीय पंचवर्षीय योजनाकालों में भारत के औद्योगिक विकास पर बहुत जोर दिया गया है, जिससे हाल में औद्योगिक विकास का वेग काफी तीव्र हो गया है।

देश के औद्योगिक विकास की नई नीति 1956 ई. के प्रस्ताव में निर्धारित की गई है। इस प्रस्ताव के अनुसार 17 ऐसे उद्योग हैं जिनके भावी विकास की पूरी जिम्मेदारी सरकार की होगी। इनमें लोहा तथा इस्पात, कोयला तथा कुछ अन्य महत्वपूर्ण खनिज, पेट्रोलियम, हवाई जहाज, सामुद्रिक जहाज, बिजली इंजीनियरिंग का सामान, परमाणुशक्ति, रेलवे, हवाई यातायात इत्यादि हैं। दूसरे वर्ग में 12 उद्योगों की सूची दी गई है जिनका धीरे धीरे राष्ट्रीयकरण किया जाएगा, किंतु निजी क्षेत्र को सहयोग का मौका रहेगा। इनमें कलपुर्जे, कुछ दवाइयाँ, ऐल्यूमिनियम, कुछ रासायनिक पदार्थ, सड़क तथा सामुद्रिक यातायात शामिल हैं। अन्य उद्योगों का भावी विकास निजी क्षेत्र के लिए छोड़ दिया गया है। इस प्रस्ताव में यह भी बतलाया गया है कि किन उद्योगों को पहले विकसित करना आवश्यक है और क्या औद्योगिक प्राथमिकता होगी। इस प्रस्ताव के अनुसार सबसे पहला स्थान लोहा तथा इस्पात, भारी रासायनिक पदार्थ, नाइट्रोजनीय खादें, भारी इंजीनियरिंग सामान तथा मशीन बनानेवाले उद्योगों के विकास को दिया गया है। दूसरा स्थान ऐल्यूमिनियम, सीमेंट, रसायनक, लुगदी, रंग, फॉस्फेटीय खाद और आवश्यक दवाओं को दिया गया है। तीसरी प्राथमिकता राष्ट्र के वर्तमान महत्वपूर्ण उद्योगों, जैसे जूट, सूती कपड़े तथा चीनी के आधुनिकीकरण को दी गई है। चौथा स्थान उत्पादन शक्ति के पूर्ण सदुपयोग को दिया गया है। अंत में उपभोग्य वस्तुओं के, मुख्यत: छोटे तथा कुटीर उद्योगों में, विकास का स्थान है।

सूती कपड़े का उद्योग- यह भारत का सबसे उन्नत और महत्वपूर्ण उद्योग है। सूती कपड़े के कारखानों में नौ लाख से अधिक मनुष्य काम करते हैं और इसके अतिरिक्त एक करोड़ जुलाहों (बुनकरों) का जीवननिर्वाह इस उद्योग से होता है। संसार में सूत तथा कपड़े के उत्पादन में भारत का स्थान तीसरा है। भारत में इस उद्योग के छह क्षेत्र अधिक महत्वपूर्ण हैं : महाराष्ट्र, गुजरात, मद्रास, पश्चिमी बंगाल, उत्तरप्रदेश, तथा मध्यप्रदेश। महाराष्ट्र एवं गुजरात में भारत के लगभग 40 प्रतिशत कारखाने हैं और देश का लगभग दो तिहाई कपड़ा तैयार होता है। महाराष्ट्र में प्रमुख केंद्र बंबई है और गुजरात में अहमदाबाद। ये दो शहर भारत में सूती कपड़े के दो सबसे बड़े केंद्र हैं। बंबई शहर में लगभग 60 मिलें हैं और अहमदाबाद में 66, किंतु बंबई शहर की मिलें बड़ी हैं और उनका उत्पादन का लगभग डेढ़ गुना है। बंबई भारत में रूई की सबसे बड़ी मंडी है और प्रमुख बंदरगाह होने के कारण अन्य कई आर्थिक तथा व्यापारिक सुविधाएँ प्राप्त हैं। मद्रास एवं मैसूर राज्यों में जल विद्युत्‌ शक्ति के विकास से इस उद्योग का विकास सम्भव हो सका है। मद्रास में कोयंपुत्तूर, मदुरै तथा मद्रास शहर महत्वपूर्ण केंद्र है और मैसूर में बेंगलूर। मद्रास में काफी सूत तैयार किया जाता है जिससे कुटीर उद्योगों में बड़े पैमाने पर लुंगी, साड़ी तथा चादर तैयार किए जाते हैं। उत्तरप्रदेश का प्रमुख केंद्र कानपुर है। इससे उत्तर-पश्चिम दिल्ली भी एक महत्वपूर्ण केंद्र है। पश्चिमी बंगाल में अधिकांश कारखाने हाबड़ा तथा कलकत्ता के आसपास स्थित हैं और कलकत्ता भारत में सूती कपड़ों का सबसे बड़ा बाजार है। मध्यप्रदेश के मुख्य केंद्र इंदौर, उज्जैन, ग्वालियर, भोपाल इत्यादि हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय से भारत इस अवस्था में पहुंच गया है कि वह अन्य देशों को कपड़ा निर्यात कर सके। इस समय संसार के सूती कपड़े निर्यात करनेवाले देशों में जापान सर्वप्रथम है और इसके बाद भारत का स्थान आता है।

जूट उद्योग- भारत के वैदेशिक व्यापार में इस उद्योग का विशेष महत्व है, क्योंकि भारत के निर्यात में प्रथम स्थान जूट की बनी चीजों का है और इन्हीं से भारत को सबसे अधिक विदेशी मुद्रा प्राप्त होती है। जूट की मिलें मुख्यत: पश्चिमी बंगाल में हुगली नदी के दोनों किनारों पर, कलकत्ता के दक्षिण 60 मील लंबे किंतु दो मील चौड़े क्षेत्र से सीमित हैं। छोटे क्षेत्र में केंद्रित होने के कारण यह उद्योग सुसंगठित है और इसका संचालन उत्तम है। अधिकांश कारखाने भारतीय कंपनियों के अधिकार में हैं, किंतु आधे से कुछ कम करघे विदेशी प्रबंधक एजेंसी कंपनियों के हाथ में है जिनमें अधिकांश स्कॉटलैंड की हैं।

ऊनी वस्त्र उद्योग- भारत में गर्म जलवायु होने के कारण इस उद्योग का विकास अपेक्षाकृत कम हुआ है। मुख्य केंद्र पंजाब में धारीवाल, अमृतसर और लुधियाना, उत्तरप्रदेश में कानपुर, कश्मीर में श्रीनगर, महाराष्ट्र में बंबई तथा मैसूर में बेंगलूर हैं।

रेशम उद्योग- देश के विभिन्न भागों में रेशम के कीड़े पाले जाते हैं और उनसे तरह तरह के रेशम तैयार किए जाते हैं। इनमें मुख्य मलबेरी, टसर, अंडी तथा मूँगा हैं। मलबेरी रेशम के कीड़े शहतूत की कोमल पत्तियाँ खिलाकर पाले जाते हैं, और इनसे रेशम का उत्पादन मैसूर, पश्चिमी बंगाल तथा कश्मीर में होता है। टसर जंगली कीड़ों से प्राप्त किया जाता है और इसके दो प्रधान क्षेत्र मध्य प्रदेश तथा बिहार हैं। अंडी और मूँगा लगभग पूर्णत: असम से आता है। केवल मैसूर तथा कश्मीर में आधुनिक बिजली चालित सूत्रण (Filatures) है, अन्यथा अधिकांश सूत चर्खे पर लपेटकर तैयार किया जाता है। रेशमी कपड़े बनाना मुख्यत: उद्योग है। श्रीनगर तथा बेंगलूर में रेशम के बड़े कारखाने हैं।

लोहा तथा इस्पात उद्योग- भारत में उत्तम कच्चे लोहे की प्रचुरता इस उद्योग के लिये सबसे बड़ी प्राकृतिक सुविधा है, किंतु कोकिंग कोयला जो कच्चे लोहे को गलाकर लोहा बनाने के लिए आवश्यक है, अपेक्षाकृत कम मात्रा में पाया जाता है। चूना पत्थर तथा मैंगनीज और ऊष्मासह पदार्थ सभी कच्चा लोहा अथवा कोयले के क्षेत्रों के निकट सुलभ हैं। इस उद्योग के विकास के लिये सबसे उपयुक्त क्षेत्र प्रायद्वीपीय भारत का उत्तर-पूर्वी भाग है जिसमें छोटा नागपुर और उससे सटे हुए पश्चिमी बंगाल और उड़ीसा के भाग तथा पूर्वी मध्यप्रदेश सम्मिलित हैं। इसी प्रदेश में लगभग सभी कच्चे माल के प्रधान क्षेत्र पाए जाते हैं और इस्पात के प्रमुख कारखाने केंद्रित हैं। इसलिए इसे कोयला-इस्पात-क्षेत्र (coal steel belt) की संज्ञा दी गई है। भारत में लोहा तथा इस्पात उद्योग के छह केंद्र हैं : तीन पुराने केंद्र कुल्टी, बर्नपुर (पश्चिमी बंगाल), जमशेदपुर (बिहार) और भद्रावती (मैसूर) हैं, तथा भिलाई (मध्यप्रदेश) हैं। इनमें सबसे अधिक महत्वपूर्ण जमशेदपुर है और सबसे कम उत्पादन भद्रावती का है। रूरकेला, दुर्गापुर तथा भिलाई के कारखाने भारत सरकार द्वारा द्वितीय पंचवर्षीय योजनाकाल में स्थापित किए गए हैं। यद्यपि लोहा तथा इस्पात के उत्पादन में इधर काफी वृद्धि हुई, फिर भी माँग उत्पादन से कहीं अधिक है। इसलिए सभी उत्पादन केंद्रों पर उत्पादन बढ़ाने की योजना है। साथ साथ बिहार में बोकारो नामक स्थान पर एक नया विशाल कारखाना खोला जा रहा है। इस उद्योग के शीघ्र विकास में दो बड़ी कठिनाइयाँ पूँजी तथा प्रशिक्षित टेक्निशियनों की कमी है।

ऐल्यूमिनियम उद्योग- ऐल्यूमीनियम बौक्साइट से बनाया जाता है। यह उद्योग केरल में अलवई, पश्चिमी बंगाल में बेलूर (कलकत्ता) और आसनसोल, बिहार में मूरी, उड़ीसा में हीराकुंड, तथा उत्तर-प्रदेश में पिपरी (रिहंद) में केंद्रित हैं। इसके लिये सस्ती और प्रचुर बिजली का मिलना परमावश्यक है। इसके विकास की बहुत सम्भावनाएँ हैं, क्योंकि यहाँ बौक्साइट का विशाल भंडार है, जल विद्युत्‌ उत्पन्न करने की कई योजनाएँ हैं और साथ साथ देश में ऐल्यूमिनियम की बहुत माँग हैं।

इंजीनीयरिंग उद्योग- इसके अंतर्गत कई उद्योग सम्मिलित हैं जो मुख्य रूप से लोहा तथा इस्पात से विभिन्न प्रकार के सामान बनाते हैं। इंजीनियरिंग उद्योग मुख्यत: कलकत्ता, जमशेदपुर, राँची तथा झरिया एवं रानीगंज के कोयला क्षेत्र में केंद्रित हैं। बेंगलूरु, बंबई, मद्रास और कानपुर में भी इनका विकास हुआ है।

चीनी उद्योग- भारत दुनिया में सभी देशों से अधिक गन्ना उत्पन्न करता है और सबसे अधिक चीनी (गुड़ सहित) यहीं तैयार की जाती है। यदि केवल सफेद चीनी को लिया जाए तो भारत का स्थान संसार में क्यूबा और ब्राज़िल के बाद आता है। भारत में चीनी के कारखानों में लगभग दो लाख मनुष्य काम करते हैं और गन्ने की खेती पर लगभग दो करोड़ किसानों और उनके परिवारों की जीविका निर्भर है। अधिकतर कारखाने उत्तरप्रदेश तथा बिहार में हैं और कई महाराष्ट्र, आंध्र, मैसूर तथा मद्रास में हैं। भारत की चीनी का लगभग 60 प्रतिशत भाग उत्तर-प्रदेश और बिहार उत्पन्न करते हैं। यद्यपि दक्षिण भारत में इस उद्योग का उत्तर भारत की तुलना में विकास कम हुआ है, किंतु दक्षिण में अनेक प्राकृतिक कारणों एवं आर्थिक सुविधाओं के कारण इसका सापेक्षिक महत्व उत्तरोत्तर बढ़ता जा रहा है। भारत में प्रति एकड़ उत्पादन तथा गन्ने मं मिठास की मात्रा कम है। फिर भी भारत इतनी चीनी पैदा करता है कि उसे विदेश से मँगाने की आवश्यकता नहीं पड़ती। 1964-65 में चीनी का उत्पादन 34 लाख टन था।

सीमेंट उद्योग- सीमेंट बनाने में मुख्यत: चूनापत्थर, चिकनी मिट्टी, जिप्सम तथा कोयले की आवश्यकता होती है। इनमें सबसे अधिक महत्वपूर्ण चूनापत्थर है और अधिकतर कारखाने चूनापत्थर की खानों के पास ही स्थापित किए गए हैं। कुछ कारखाने चूनापत्थर की जगह अन्य चूनेदार पदार्थो का इस्तेमाल करते हैं। सिंद्री का कारखाना खाद के कारखाने से फेंके गए कैल्सियम कार्बोनेट स्लज काम में लाता है। चायबसा (बिहार) तथा भद्रावती (मैसूर) के कारखाने लोहा तथा इस्पात के कारखानों द्वारा फेंके गए ब्लास्ट फरनेस स्लैग पर आधारित हैं। मुख्य उत्पादक बिहार, मद्रास, राजस्थान, गुजरात, मध्यप्रदेश तथा आंध्रप्रदेश हैं। बिहार में इस उद्योग के सबसे अधिक विकसित होने का कारण चूनापत्थर एवं कोयले की प्रचुरता तथा निकटता और कलकत्ते का विस्तृत बाजार है। यहाँ यह उद्योग डालमिया नगर, जपला, बंजारी, सिंद्री, खेलारी तथा चायबसा में स्थित है। मध्यप्रदेश (कैमूर, सतना) तथा उड़ीसा (राजगंगपुर) को भी स्थानीय चूनापत्थर तथा दामोदर घाटी से कोयले की सुविधाएँ प्राप्त हैं। राजस्थान में मुख्य केंद्र सवाई माधोपुर और लखेरी हैं, तथा गुजरात में पोरबंदर, द्वारका सिक्का इत्यादि। इमारतों, सड़कों तथा नदीघाटी योजनाओं के लिए सीमेंट की बहुत आवश्यकता है। इसलिये सीमेंट के उत्पादन को तेजी से बढ़ाया जा रहा है, फिर भी देश में सीमेंट की बराबर कमी रही है।

कागज उद्योग- कागज भारत में मुख्यत: सबाई घास और बाँस से तैयार किया जाता है। मुख्य क्षेत्र पश्चिमी बंगाल है, यहाँ टीटागढ़, काकीनाड़ा, नईहाटी तथा रानीगंज के कारखाने हैं। इन्हें बंगाल, बिहार और उड़ीसा से बाँस मिल जाता है। बिहार में कागज का कारखाना डालमियानगर में है तथा उड़ीसा में ब्रजराजनगर में। ये तीनों राज्य मिलकर भारत के उत्पादन का 60 प्रतिशत कागज उत्पन्न करते हैं। अन्य उल्लेखनीय केंद्र सहारनपुर (उत्तर प्रदेश) , जगाधरी (पंजाब), सीरपूर (आंध्र) तथा नेपानगर (मध्यप्रदेश) हैं। नेपानगर अखबारी कागज बनाता है। कागज के उद्योग में अचानक वृद्धि के कारण तथा बाँस की खेती वैज्ञानिक ढंग से संचालित न होने के कारण कच्चे मालों की कमी हो गई है। कागज और लुगदी बनाने में गन्ने की खोई का उपयोग किया जा सकता है और दक्षिण भारत में कुछ कारखाने खोई का उपयोग करते ही हैं।

काँच का उद्योग- काँच एक विशेष प्रकार के बालू से तैयार किया जाता है जो मुख्य रूप से इलाहाबाद के दक्षिण शंकरगढ़ के पास पाई जाती है। काँच बनाने की फैक्ट्रियाँ अधिकतर उत्तर प्रदेश में हैं जहाँ मुख्य केंद्र फिरोजाबाद, शिकोहाबाद, नैनी (इलाहाबाद), हाथरस तथा बहजोई हैं। फिरोजाबाद भारत में चूड़ियों का सबसे प्रमुख केंद्र है। आसनसोल और जमशेदपुर के पास कांदरा, तथा भरकुंडा (हजारीबाग) में चादर कांचश् के बड़े कारखाने हैं। कलकत्ता और बंबई के पास कई कारखाने हैं, जहाँ लैंप, ट्यूब, गिलास, फ्लास्क इत्यादि चीजें बनाई जाती हैं।

चमड़ा उद्योग- भारत में जानवरों से इतना अधिक चमड़ा और खाल मिल जाती है कि न केवल देश में चमड़ा कमानेवाले उद्योग की जरूरतों की पूर्ति होती है, बल्कि कच्चा चमड़ा, खाल तथा कमाया हुआ चमड़ा निर्यात भी किया जाता है। अधिकांश बड़े कारखाने उत्तरप्रदेश, बिहार तथा पश्चिमी बंगाल में स्थित हैं। उत्तर भारत में सबसे प्रमुख केंद्र कानपुर है, किंतु बाटानगर (कलकत्ता), मोकामाघाट तथा दीघा (पटना के पास, बाटा) भी प्रसिद्ध हैं। दक्षिण भारत में मद्रास चमड़ा उद्योग का महत्वपूर्ण केंद्र है।

यातायात के साधन- भारत में सड़कों की कुल लंबाई लगभग 4,41,000 मील है जिसमें केवल 1,47,000 मील पक्की सड़कें हैं, जो यहाँ की जनसंख्या और क्षेत्रफल को देखते हुए कम है। प्रति हजार मनुष्य के लिये भारत में केवल एक मील सड़क है। महाराष्ट्र, गुजरात, मद्रास तथा मैसूर में पक्की सड़कों की लंबाई कच्ची सड़कों से अधिक है। इसके विपरीत असम और बिहार में कच्ची सड़कों की लंबाई पक्की सड़कों से नौ गुनी, पश्चिमी बंगाल में छह गुनी और राजस्थान, पंजाब तथा उत्तर प्रदेश में लगभग ढाई गुनी है। भारत की सड़कों के चार वर्ग हैं : राष्ट्रीय मुख्य मार्ग, राजकीय मुख्य मार्ग, जिलों की सड़कें और गाँव की सड़कें। राष्ट्रीय मुख्य मार्ग देश की प्रमुख सड़कें हैं जो देश के विभिन्न भागों को जोड़ती हैं और जिनका आर्थिक एवं सैनिक दृष्टि से राष्ट्र के लिये बड़ा महत्व है। इनके द्वारा राज्य की राजधानियाँ, बड़े बड़े औद्योगिक एवं व्यापारिक केंद्र तथा बंदरगाह एक दूसरे से मिला दिए गए हैं1 इनकी लंबाई लगभग 15,000 मील है। राज्य मुख्य मार्ग राज्यों की प्रमुख सड़कें हैं जिनके निर्माण और मरम्मत की जिम्मेदारी राज्य सरकार की है। इनकी लंबाई लगभग 35,000 मील है। जिलों की सड़कों की जिम्मेदारी जिलापरिषदों की है और इनका काम उत्पादन क्षेत्रों को मंडियों और बाजारों से जोड़ना है। इनमें से अधिकांश कच्ची हैं। इनकी लंबाई लगभग 1,74,000 मील है। गाँव की सड़कें पूर्णत: कच्ची हैं और वर्षा के दिनों में इन्हें काम में लाना प्राय: असंभव हो जाता है। इनकी लंबाई 1,87,000 मील है। सड़कों के विकास के लिये एक बीस वर्षीय योजना (1961-81) बनाई गई है जिसका ध्येय सड़कों की कुल लंबाई 1981 ई. तक 6.57 लाख मील करना है। देहातों की आर्थिक उन्नति एवं विकास के लिये यह परमावश्यक है कि सड़कों का जल्द से जल्द विस्तार किया जाए और उन्हें यातायात की सुविधा प्रदान की जाए।

भारत की रेल व्यवस्था केंद्रीय सरकार के हाथ में है और इसमें लगभग 12 लाख आदमी काम करते हैं। भारत में रेलवे लाइनों की कुल लंबाई लगभग 36 हजार मील (57 हजार किमी.) है। प्रति दिन लगभग 43 लाख मनुष्य यात्रा करते हैं और कोई साढ़े चार लाख टन सामान ढोया जाता है। रेलें जितना सामान ढोती हैं उनमें तौल के अनुसार सबसे मुख्य कोयला है और उसके बाद खाद्यान्न, यद्यपि रेलवे को सबसे पहली रेलवे 1853 ई. में बंबई और थाना (21 मील) के बीच बनी। सन्‌ 1857 तक कुछ और लाइनें खोली गईं जिनमें बंबई से कल्याण (33 मील) कलकत्ता से रानी गंज (120 मील) ओर मद्रास से आरकोनम (39 मील) की लाइनें थीं। सन्‌ 1880 तक रेल लाइनों की लंबाई लगभग 8,500 मील हो गई और 1900 ई. तक प्राय: सभी प्रमुख लाइनें बन गई थीं। शुरू में रेल मार्गो पर विभिन्न कंपनियों का अधिकार था, लेकिन बाद में सरकार ने उन्हें अपने अधिकार में ले लिया। देश के भिन्न भागों में रेल की पटरियों की चौड़ाई भिन्न है। बड़ी लाइन में रेल की पटरियों के बीच पाँच फुट छह इंच का अंतर होता है, मीटर गेज अथवा छोटी लाइन में तीन फुट 3 इंच का, और सकरी लाइन (नैरोगेज) में दो फुट छह इंच या कभी कभी केवल दो फुट का। बड़ी लाइन (ब्राड गेज) की कुल लंबाई 16,875 मील, मीटर गेज की 16,625 मील हजार और नैरोगेज की 3,125 मील है।

भारत में जलमार्ग का महत्व अपेक्षाकृत कम है। गंगा, ब्रह्मपुत्र और उनकी सहायक नदियाँ एवं दक्षिण भारत में गोदावरी तथा कृष्णा नदियाँ और कुछ नहरें महत्वपूर्ण हैं जिनपर काफी माल ढोया जाता है। नदी यातायात का विशेष महत्व उत्तर पूर्वी भारत में हैं। असम और कलकत्ता के बीच जो लगभग 25 लाख टन माल प्रति वर्ष ढोया जाता है, उसका आधा भाग नदियों द्वारा आता है। इसमें एक बड़ी असुविधा यह है कि ब्रह्मपुत्र नदी का निचला भाग पूर्वी पाकिस्तान में पड़ता है।

हवाई मार्ग का उपयोग अधिकतर डाक तथा यात्रियों के लिये होता है। भारत के लगभग सभी मुख्य नगर हवाई मार्गो के द्वारा संबंधित हैं। सभी हवाई मार्ग भारत सरकार के अधिकार में हैं। भारत में कुल 90 हवाई अड्डे हैं जिनमें तीन अंततरराष्ट्रीय हवाई अड्डे हैं जहाँ भारतीय वायुयानों के अलावा विदेशी वायुयान भी नियमित रूप से आते हैं बंबई (शांताक्रूज), कलकत्ता (दमदम) और दिल्ली (पालम)। इंडियन एयर लाइंस देश के अंदर तथा कुछ निकटवर्ती देशों जैसे नेपाल, पाकिस्तान, लंका के साथ वायु यातायात की व्यवस्था करता है। विदेशी वायु यातायात का प्रबंध एअर इंडिया इंटरनेशनल कंपनी के हाथ में है।

जनसंख्या- सन्‌ 1961 की जनगणना के अनुसार भारत की जनसंख्या 43.9 करोड़ है और प्रति वर्ग मील घनत्व 384 है। सन्‌ 1951-1961 के बीच आबादी 21.5 प्रतिशत बढ़ी है। भारत में जनसंख्या का वितरण असमान है (देखें, मानचित्र 8.)। उत्तर भारत के मैदान में आबादी का घनत्व प्रति वर्ग मील 500 से अधिक है, हिमालय क्षेत्र और राजस्थान में आबादी प्राय: प्रति वर्ग मील 200 से कम है और दक्षिण के प्रायद्वीपीय पठार में तटीय मैदानों को छोड़कर अधिकांश में प्रति वर्ग मील घनत्व 200 से 500 के बीच है। उत्तर भारत के विस्तृत मैदान तथा दक्षिण भारत के तटीय मैदान में भारत की लगभग एक तिहाई भूमि पर यहाँ की दो तिहाई आबादी पाई जाती है, क्योंकि इन क्षेत्रों में खेती और भोजन-प्राप्ति की सुविधा है। गंगा, सिंधु के मैदान में ज्यों ज्यों हम पूर्व से पश्चिम जाते हें, जनसंख्या का घनत्व कम होता जाता है। पश्चिमी बंगाल में आबादी का प्रति वर्ग मील घनत्व 1,032, बिहार में 691, उत्तर प्रदेश में 649 और पंजाब में 430 है। इसी दिशा में वर्षा की मात्रा भ्ी कम होती जाती है और साथ साथ चावल का महत्व भी कम होता जाता है। सबसे घनी आबादी उन प्रदेशों में पाई जाती है जहाँ धान की खेती होती है, क्योंकि सभी अन्नों से धान की प्रति एकड़ उपज अधिक होती है। इसी कारण पश्चिमी बंगाल के अधिकांश जिलों, उत्तरी बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में आबादी का घनत्व एक हजार प्रति वर्ग मील से अधिक है। इन्हीं कारणों से दक्षिण भारत में केरल में आबादी का घनत्व प्रति वर्ग मील 1,127 है। मद्रास में प्रति वर्ग मील घनत्व 669 है, किंतु धान उत्पन्न करनेवाले तटीय मैदानों में घनत्व अधिक है। असम (252 प्रति वर्ग मील), मध्य प्रदेश (189), राजस्थान (153), हिमाचल प्रदेश (124), नागालैंड (58), अंदमान निकोबार (20) में आबादी कम है।

ग्रामीण और नगरीय जनसंख्या- लगभग 82 प्रतिशत भारतवासी देहातों में रहते हैं और केवल 18 प्रतिशत शहरों में लगभग 36 करोड़ मनुष्य ग्रामीण हैं और 8 करोड़ शहरी। भारत में कुल 5,64,718 गाँव हैं तथा 2,690 नगर। कुल शहरी आबादी का लगभग आधा भाग ऐसे 107 शहरों में है जिनकी आबादी एक लाख या अधिक है। इन में 13 ऐसे नगर हैं जिनमें से प्रत्येक की आबादी पाँच लाख से अधिक है। ये कलकत्ता (हाबड़ा सहित 34.4 लाख), बृहत्तर बंबई (41.5 लाख), दिल्ली (23.4 लाख), मद्रास (17.3 लाख), हैदराबाद (12.5 लाख), अहमदाबाद (12.1 लाख), बेंगलूर (9.7 लाख), पूना (7.2 लाख), लखनऊ (6.6 लाख), नागपुर (6.4 लाख) वाराणसी (5.7 लाख) तथा आगरा (5.9 लाख) हैं।

लिंग अनुपात- भारत में स्त्रियों की संख्या पुरुषों की तुलना में कम है। देश में लगभग 22.66 करोड़ पुरुष और 21.29 करोड़ स्त्रियाँ हैं। इस प्रकार प्रति 1,000 पुरुषों पर 941 स्त्रियाँ हैं। ग्रामीण आबादी में लिंग अनुपात 963 और शहरी आबादी में 845 है। यह लिंग अनुपात पश्चिमी यूरोप तथा उत्तरी अमरीका के विपरीत है जहाँ स्त्रियों की संख्या पुरुषों से अधिक है। भारत में जो शहर जितने बड़े हैं वहाँ स्त्रियों की संख्या उतनी ही कम है। वृहत्तर बंबई में लिंग अनुपात 663, कलकत्ता मे 612, दिल्ली में 777, कानपुर मे 739, अहमदाबाद में 804, मद्रास में 901 और हैदराबाद में 929 है। दक्षिण भारत के शहरों में स्त्रियों और पुरुषों की संख्या में उतनी विषमता नहीं है जितनी उत्तर अथवा पश्चिमी भारत में। भारत में कुछ ऐसे प्रदेश हैं जहाँ स्त्रियों की संख्या पुरुषों से अधिक है जैसे, पूर्वी उत्तरप्रदेश तथा उत्तरी बिहार, उत्तरप्रदेश के हिमालय क्षेत्र, उड़ीसा तथा पूर्वी मध्यप्रदेश, आंध्र तट, तामिलनाड तथा मलाबार तट, कोंकण तट तथा कच्छ और पूर्वी असम तथा असम के पहाड़ी क्षेत्र। इन सभी क्षेत्रों से पुरुष काम की खोज में अन्य क्षेत्रों में जाते हैं।

जनसंख्या का व्यावसायिक विन्यास- भारत में कुल 18.84 करोड़ श्रमिक हैं जिनमें 12.90 करोड़ पुरुष और 5.94 करोड़ स्त्रियाँ हैं। इनमें से 9.95 करोड़ अर्थात्‌ आधे से अधिक किसान हैं और 3.15 करोड़ (17) कृषि मजदूर हैं। खानों, वनों, बगानों, फल उद्यानों इत्यादि में काम करनेवालों तथा मछली पकड़ने वालों की संख्या 52 लाख है। कुटीर उद्योगों में काम करनेवालों की संख्या एक करोड़ 20 लाख और अन्य उद्योग धंधों में 80 लाख है। व्यापार वाणिज्य में 76 लाख, परिवहन, संग्रह तथा यातायात में 30 लाख, निर्माण कार्य में 21 लाख तथा दूसरी नौकरियों में 1 करोड़ 65 लाख व्यक्ति लगे हुए हैं। 80 प्रतिशत काम करनेवाली स्त्रियाँ कृषिकार्य में लगी हुई हैं। अन्य व्यवसायों में स्त्रियों की संख्या बहुत कम है। पुरुष श्रमिकों में 95 प्रतिशत कृषिश्रमिक हैं।

जनसंख्या समस्या- भारत की विशाल जनसंख्या अपनी जीविका के लिये मूलत: कृषि पर निर्भर है, किंतु प्रत्येक व्यक्ति पर कृषिभूमि एक एकड़ से भी कम है। जनसंख्या बराबर बढ़ती जा रही है, जबकि कृषिभूमि के क्षेत्रफल में कोई खास वृद्धि नहीं हुई है। दो फसली जमीन तथा सिंचित क्षेत्रों के क्षेत्रफल में भी जनसंख्या के अनुपात में वृद्धि नहीं हुई है। उत्पादन में अथवा आय में जो भी वृद्धि होती है वह जनसंख्या की वार्षिक वृद्धि के कारण समाप्त हो जाती है। अत: देश मे गरीबी और बेकारी का जनसंख्या की वृद्धि से घनिष्ट संबंध है। इन समस्याओं के हल के लिये इतना ही आवश्यक नहीं है कि कृषि और उद्योग धंधों का तीव्रता से विकास किया जाए, बल्कि साथ साथ जनसंख्या की वृद्धि को भी नियंत्रित करना आवश्यक है।

धर्म- 1961 की जनगणना के अनुसार भारवासियों में 83.5 प्रति शत हिंदू, 10.7 प्रति शत मुसलमान, 2.5 प्रतिशत ईसाई, 1.8 प्रतिशत सिख तथा 0.5 प्रतिशत जैन हैं।

साक्षरता- पढ़े लिखे लोगों की संख्या 24 प्रति शत है। सबसे अधिक साक्षर लोग केरल (46.8 प्रति शत), दिल्ली (52.7 प्रतिशत), पांडिचेरी (34.7 प्रतिशत) और अंदमान निकोबार द्वीपसमूह में (33.6 प्रतिशत) मिलते हैं। मद्रास, गुजरात, महाराष्ट्र तथा पश्चिमी बंगाल में भी प्रतिशत 29 से अधिक है। बिहार में साक्षर लोगों की संख्या 18.4 प्रति शत और उत्तर प्रदेश में 17.6 प्रति शत है। सन्‌ 1951-61 के बीच साक्षरता का प्रतिशत 14.6 से बढ़कर 24 हो गया है। पुरुषों में यह प्रतिशतश् 34.4 है और स्त्रियों में 12.9।

भाषाएँ- भारत में 14 प्रधान भाषाएँ हैं। भारत की राष्ट्रभाषा हिंदी है। लगभग 10 प्रतिशत लोग हिंदी (उर्दू सहित), 7.5 प्रति शत बँगला, चार प्रतिशत गुजराती तथा तीन प्रतिशत से कुछ अधिक लोग कन्नड़, मलयालम और उड़िया भाषा-भाषी हैं :

वैदेशिक व्यापार तथा बंदरगाह- भारत का अधिकांश वैदेशिक व्यापार समुद्र द्वारा छह बंदरगाहों से होता हैबंबई, कलकत्ता, मद्रास, विशाखापत्तनम, कोचीन कांडला। भारत का 46 प्रतिशत वैदेशिक व्यापार बंबई द्वारा होता है। यहाँ से निर्यात की तुलना में आयात अधिक होता है। यह भारत का प्रमुख यात्री बंदरगाह भी है। कलकत्ता बंदरगाह हुगली नदी पर बंगाल की खाड़ी से 80 मील दूर स्थित है। तट से दूर होने के कारण बड़े जहाज ज्वार भाटे के समय आते हैं। इसकी पृष्ठभूमि बहुत विस्तृत और उपजाऊ है। यहाँ से मैंगनीज और कच्चा लोहा निर्यात किया जाता है। कोचीन से मसाले निर्यात किए जाते हैं। स्वतंत्रता के बाद कांडला (कच्छ की खाड़ी पर स्थित) बंदरगाह का विकास हुआ है। यहाँ आयात निर्यात से कहीं अधिक है।

कई ऐसी वस्तुएँ हैं जिनके निर्यात में भारत का स्थान सर्वप्रथम है, जैसे जूट के बने सामान, चाय, अभ्रक, मैंगनीज, लोहा इत्यादि। फिर भी देश के आकार तथा जनसंख्या की दृष्टि से वैदेशिक व्यापार कम है। भारत सरकार की नीति, जहाँ तक संभव हो सके, आयात को कम करने और निर्यात को बढ़ाने की है, किंतु फिर भी आयात प्राय: निर्यात से अधिक अनुपात में बढ़ता रहा है। आयात और निर्यात दोनों में तैयार माल सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। भारत का मुख्य आयात मशीनरी तथा सवारी के सामान हैं, जो मुख्यत: ब्रिटेन, संयुक्त राज्य अमरीका, जर्मनी तथा जापान से आते हैं। दूसरा महत्वपूर्ण आयात भोज्य पदार्थ हैं जिसमें गेहूँ और चावल (विशेषकर गेहूँ) प्रधान हैं। अन्य आयात रासायनिक पदार्थ, पेट्रोलियम, लोहा तथा इस्पात, बिजली के सामान, कपास, कागज, ऊन, रबर इत्यादि हैं। भारत के निर्यात में प्रथम स्थान जूट की बनी चीजों का है, दूसरा स्थान चाय का और तीसरा सूती कपड़ों का। अन्य महत्वपूर्ण निर्यात वनस्पति तेल (मुख्यत: रेंड़ी का तेल), चमड़ा तथा चमड़े के सामान, कच्चा लोहा, मैंगनीज, अभ्रक, काजू, तंबाकू, रूई, मसाले, काफी, ऊन तथा लोह हैं। जूट की बनी चीजें मुख्यत: संयुक्त राज्य अमरीका, आस्ट्रेलिया, ब्रिटेन तथा अर्जेटीना खरीदते हैं। चाय प्रधानत: ब्रिटेन, संयुक्त राज्य अमरीका, आस्ट्रेलिया और रूस जाती हैं। सूती कपड़े पश्चिमी एशिया, दक्षिणी तथा पूर्वी अफ्रीका के देशों तथा इंग्लैंड को जाते हैं। रूई मुख्यत: ब्रिटेन तथा जापान खरीदते हैं। भारत के मैंगनीज तथा अभ्रक का मुख्य खरीददार संयुक्त राज्य अमरीका है, और कच्चे लोहे का जापान।

पहले भारत सबसे अधिक ब्रिटेन से व्यापार करता था और अब भी भारत के निर्यात के प्रधान खरीददार ब्रिटेन, संयुक्त राज्य अमरीका, रूस, जापान, कैनाडा, आस्ट्रेलिया, पश्चिमी जर्मनी, लंका, मिस्र तथा मध्य और दक्षिण यूरोप के देश हैं।

इतिहास- अत्यंत प्राचीन काल से हिमालय और हिंद महासागर के बीच स्थित भूखंड का नाम भारत रहा है। भारत के लंबे इतिहास में, उत्तर-पश्चिम से समय समय पर अनेक विदेशी जातियाँ आती रही हैं। सबसे प्रथम महत्वपूर्ण विशाल जनसमुदाय का आगमन आर्यों का हुआ जिनकी भाषा संस्कृत थी। उस समय भी यहाँ सभ्यता ऊँचे स्तर पर थी और कई नगर बसे हुए थे। तब से सदियों तक यहाँ हिंदुत्व का प्रभुत्व रहा। ईसा के पूर्व छठी शताब्दी के अंत में दो महान्‌ व्यक्तियों ने देश के धार्मिक और सांस्कृतिक वातावरण को बदल दिया। वे थे गौतम बुद्ध (544-483 ई. पू.) और महावीर (540-468 ई. पू.) जिन्होंने क्रमश: बौद्ध तथा जैन धर्मो को जन्म दिया। उस समय सबसे प्रमुख साम्राज्य मगध था जिसकी राजधानी पाटलिपुत्र (पटना) थी। सिकंदर के आक्रमण के समय (327-325 ई. पू.) गंगा के मैदान का अधिकांश भाग नंदवंश के अधिकार में था। किंतु तुरंत ही चंद्रगुप्त मौर्य के नेतृत्व में मौर्यवंश का उत्थान हुआ। इस वंश ने भारत के महान्‌ सम्राट अशोक (264-237 ई. पू.) को जन्म दिया और अशोक के साम्राज्य में केवल तमिलनाड छोड़कर सारा भारत सम्मिलित था। मौर्य साम्राज्य के ्ह्रास के तुरंत बाद ही यूनानियों का आक्रमण हुआ और उसके बाद शकों का जिन्होंने शक संवत्‌ चलाया। इसके बाद कुषाणों का आक्रमण हुआ। कुषाण वंश का प्रमुख राजा कनिष्क था जिसके राज्य के अंतर्गत बनारस तक पूरा उत्तर भारत तथा मध्य एशिया के विस्तृत क्षेत्र सम्मिलित थे। तीसरी शताब्दी से गुप्त वंश की वृद्धि हुई। इस वंश का सबसे विख्यात राजा चंद्रगुप्त विक्रमादित्य हुआ। जिसके समय में संस्कृत साहित्य ऊँचे शिखर पर था। यही महाकवि कालिदास का युग था। सातवीं शताब्दी में हर्षवर्धन (606-647 ई.) उत्तर भारत का सम्राट बना, किंतु दक्षिण के चालुक्यों ने उसकी प्रभुता को कभी स्वीकार नहीं किया। हर्षवर्धन साहित्य का बड़ा प्रेमी तथा स्वयं संस्कृत नाटकों का लेखक था। उसके दरबार में संस्कृत के प्रसिद्ध लेखक बाण रहते थे। हर्ष के ही समय में चीनी यात्री ह्वेन सांग भारत आया था और उसने उस समय के इतिहास तथा सभ्यता का महत्वपूर्ण वर्णन लिखा है। 650 से 1200 ई. तक भारत कई राज्यों में बँट गया। देश जब विभाजित था, वैसी स्थिति मे 999 ई. में महमूद गजनवी ने आक्रमण किया और इसके बाद लगभग 500 वर्षों तक अफगानी मुसलमानों का राज्य रहा। तत्पश्चात्‌ मध्य एशिया के मंगोलों अर्थात्‌ मुगलों के आक्रमण हुए; 1398 ई. मे तैमूरलंग ने दिल्ली तथा उत्तर भारत को लूटा और सन्‌ 1526 में बाबर ने दिल्ली के सुलतानों का तख्त उलट दिया। मुगलों का राज्य लगभग दो सौ वर्षो तक रहा। मुगलों के अवसान काल में देश कई रजवाड़ों में विभाजित हो गया और दक्षिण मे शिवाजी के नेतृत्व में तथा पंजाब में रणजीतसिंह के नेतृत्व में हिंदुत्व का पुनरुत्थान हुआ। देश के विभाजित होने के कारण यूरोपीय प्रभाव के प्रसार को प्रोत्साहन मिला। सबसे पहले पुर्तगालियों का आगमन हुआ। वास्कोडिगामा 1498 ई. में कालीकट पहुँचा। 1600 ई. में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी की स्थापना हुई। 18 वीं शताब्दी के अर्ध भाग तक पुर्तगाली, अंग्रेज तथा फ्रांसीसी प्रभुत्व के लिये झगड़ते रहे, अंत में अंग्रेजों की विजय हुई। 1757 ई. से 1857 ई. तक भारत का अधिकांश ईस्ट इंडिया कम्पनी के अधिकार में रहा। सन्‌ 1857 में क्रांति हुई और सन्‌ 1858 में भारत में बिट्रिश साम्राज्य की स्थापना हुई यद्यपि गवर्नर जनरल की नियुक्ति सन्‌ 1774 से ही शुरू हो गई थी। 15 अगस्त, 1947 ई. को भारत अंग्रेजों के शासन से मुक्त होकर एक स्वतंत्र देश हो गया।

संविधान- भारतीय संविधान के अनुसार सभी नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक न्याय, विचार अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म तथा उपासना की स्वतंत्रता, समान सामाजिक स्थिति तथा अवसर प्राप्त होंगे। भारत एक प्रभुसत्तासंपन्न लोकतंत्रात्मक गणराज्य है जिसमें शासन की संसदीय पद्धति अपनाई गई है। ऐसे प्रत्येक व्यक्ति को मताधिकार प्राप्त है जो भारत का नागरिक हो तथा उस निर्धारित तिथि को, जो उपयुक्त विधानमंडल द्वारा नियत की जायगी, 21 वर्ष से कम वय का न हो और जिसको संविधान अथवा किसी कानून द्वारा अन्यत्र वास, पागलपन, अपराध, भ्रष्टाचार अथवा गैरकानूनी कार्य के आधार पर अयोग्य न ठहराया गया हो।

केंद्रीय कार्यपालिका के अंतर्गत राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति तथा प्रधान मंत्री के नेतृत्व में एक मंत्रिपरिषद होती है। राष्ट्रपति का चुनाव सानुपातिक प्रतिनिधित्व की प्रणाली के आधार पर एकल संक्रमणीय मत द्वारा एक निर्वाचक मंडल करता है जिसमें संसद के दोनों सदनों के तथा राज्यों की विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्य होते हैं। राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार अनिवार्य रूप से भारत का नागरिक, कम से कम 35 वर्ष की उम्र का तथा लोकसभा का सदस्य बनने का पात्र होना चाहिए। राष्ट्रपति का कार्यकाल पाँच वर्ष का होता है और वह राष्ट्रपति पद के लिए दूसरी बार भी चुना जा सकता है। उपराष्ट्रपति का चुनाव उपर्युक्त विधि द्वारा संसद के दोनों सदनों के सदस्य करते हैं। उपराष्ट्रपति का भी कार्यकाल पाँच वर्ष का होता है तथा वह राज्यसभा का पदेन सभापति होता है। राष्ट्रपति को कार्यसंचालन में सहायता तथा परामर्श देने के लिये प्रधान मंत्री के नेतृत्व में एक मंत्रिपरिषद् की व्यवस्था है। प्रधान मंत्री की नियुक्ति राष्ट्रपति करता है। अन्य मंत्रियों की नियुक्ति के सम्बंध में प्रधानमंत्री राष्ट्रपति को परामर्श देता है। यद्यपि मंत्रिपरिषद् का कार्यकाल राष्ट्रपति की इच्छा पर निर्भर करता है, तथापि परिषद् लोकसभा के प्रति सामूहिक रूप से उत्तरदायी होती है।

संविधान के अनुसार भारतीय संघ की राजभाषा हिंदी होगी जो देवनागरी लिपि में लिखी जाएगी तथा सरकारी कार्यों के लिए भारतीय अंकों के अंतरराष्ट्रीय रूपों का उपयोग होगा किंतु हिंदी के अतिरिक्त अंग्रेजी का भी उपयोग सरकारी कार्यो के लिये जारी रखने की व्यवस्था, संसद ने अपने अधिकार के अनुसार की है।

राष्ट्र के प्रतीक- भारत का राष्ट्रीय चिह्न सारनाथ स्थित अशोक के उस सिंहस्तंभ की अनुकृति है जो सारनाथ के संग्रहालय में सुरक्षित है। भारत सरकार ने यह चिह्न 26 जनवरी, 1950 को अपनाया। उसमें केवल तीन सिंह दिखाई पड़ते हैं, चौथा सिंह दृष्टिगोचर नहीं है। राष्ट्रीय चिह्न के नीचे देवनागरी लिपि में 'सत्यमेव जयते' अंकित है।

भारत के राष्ट्रीय झंडे में तीन समांतर आयताकार पट्टियाँ हैं। ऊपर की पट्टी केसरिया रंग की, मध्य की पट्टी सफेद रंग की तथा नीचे की पट्टी गहरे हरे रंग की है। झंडे की लंबाई चौड़ाई का अनुपात तीन और आठ का है। सफेद पट्टी पर चर्खे की जगह सारनाथ के सिंह स्तंभ वाले धर्मचक्र की अनुकृति है जिसका रंग गहरा नीला है। चक्र का व्यास लगभग सफेद पट्टी के चौड़ाई जितना है और उसमें 24 अरे हैं।

कवि रवींद्रनाथ ठाकुर द्वारा लिखित 'जन-गण-मन' के प्रथम अंश को भारत के राष्ट्रीय गान के रूप में 24 जनवरी, 1950 ई. को अपनाया गया। साथ साथ यह भी निर्णय किया गया कि बंकिमचंद्र चटर्जी द्वारा लिखित 'वंदेमातरम्‌' को भी 'जन-गण-मन' के समान ही दर्जा दिया जाएगा, क्योंकि स्वतंत्रता संग्राम में 'वंदेमातरम्‌' गान जनता का प्रेरणास्रोत था।

भारत सरकार ने देश भर के लिए राष्ट्रीय पंचांग के रूप में शक संवत्‌ को अपनाया है। इसका प्रथम मास चैत है और वर्ष सामान्यत: 365 दिन का है। इस पंचांग के दिन स्थायी रूप से अंग्रेजी पंचांग के मास दिनों के अनुरूप बैठते हैं। सरकारी कार्यो के लिए अंग्रेजी कैलेंडर के साथ साथ राष्ट्रीय पंचांग का भी प्रयोग किया जाता है।

शिक्षा- भारत में शिक्षा का उत्तरदायित्व मूलत: राज्य सरकारों पर है। केंद्रीय सरकार शिक्षा की सुविधाओं में तालमेल स्थापित करती है, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के माध्यम से उच्च शिक्षा का स्तर निश्चित करती है और अनुसंधान तथा वैज्ञानिक एवं प्राविधिकि शिक्षा की व्यवस्था करती है। शिक्षा की विकास योजनाओं का काम केंद्र तथा राज्य सरकारें मिलकर करती हैं। पिछले 15 वर्षो में शिक्षा के क्षेत्र में बहुत प्रगति हुई थी। सन्‌ 1950-51 में प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में बहुत प्रगति हुई थी। सन्‌ 1950-1951 में प्राथमिक शिक्षा के मान्यता-प्राप्त विद्यालयों की संख्या 2.1 लाख थी, जो 1962-63 में बढ़कर 3.67 लाख हो गई और इसी अवधि में विद्यार्थियों की संख्या लगभग 183 लाख से बढ़कर 313 लाख हो गई। माध्यमिक शिक्षा की प्रगति का अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि जहाँ सन्‌ 1950-51 में कुल 20,844 माध्यमिक विद्यालय, लगभग 52.3 लाख विद्यार्थी और 2.। लाख अध्यापक थे, वहाँ सन्‌ 1962-63 में विद्यालयों की संख्या 82,846, विद्यार्थियों की संख्या 226.70 लाख तथा अध्यापकों की संख्या 7.89, लाख हो गई। सन्‌ 1964 में भारत में 62 विश्वविद्यालय थे, जिनमें लगभग 12 लाख विद्यार्थी थे। (परमेश्वर दयाल)

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संदर्भ
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बाहरी कड़ियाँ
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