भारतीय चिंतन : पर्यावरणीय-चेतना का स्रोत

Submitted by admin on Sun, 03/23/2014 - 11:58
Source
पर्यावरण विमर्श
जले विष्णुः थले विष्णुः पर्वत मस्तके।
ज्वाला माला कुले विष्णुः सर्वे विष्णुमयं जगत।।


युगों से चला आ रहा भारतीय चिंतन और परंपरा प्रकृति से तादात्म्य और उसकी महिमा को हक दरकिनार नहीं कर इस वैज्ञानिक युग में प्रकृति की ही, जो चर्चा है- ‘पर्यावरण’ शब्द ‘अनावरण’ में ‘परि’ उपसर्ग-संश्लिष्ट से निर्मित है, जिसका शाब्दिक अर्थ चारों ओर से ढंकना, आच्छादन या घेरा है। डॉ. बद्रीनाथ कपूर इसकी वैज्ञानिक परिभाषा ‘आस-पड़ोस’ की परिस्थितियां और उसके प्रभाव से समीकृत करते हैं। ‘परि’ संस्कृत का उपसर्ग है, जिसका अर्थ ‘अच्छी तरह’ और ‘आच्छादन’ भी है। आवरण का शाब्दिक अर्थ ढंकना, छिपना, घेरना, चहारदीवारी है। यद्यपि शाब्दिक अर्थ से इसका पूर्ण अभिप्राय प्रकट नहीं होता, तथापि इसका मूल अर्थ इसमें समाकृत है।

‘पर्यावरण’ नवनिर्मित पारिभाषिक शब्द है, लेकिन इसके पूर्व, इसके व्यवहार हेतु यहां ‘परिधि’ और ‘परिवेश’ का प्रचलन रहा है। अथर्ववेद में ‘परिधि’ अधिक विस्तृत रूप में स्वीकृत है। गो, अश्व एवं पशु आदि सभी प्राणियों के जीवन के लिए एक परिधि अत्यावश्यक है-

सर्वो वे तत्र जीविति गौरवः पुरुषः पशुः।
यत्रेदं ब्रह्म क्रियते परिधि जीवनायकम्।।


मानव-कृत पर्यावरण आधुनिक समस्या है। पहले न तो जनसंख्या की प्रचुरता थी और न उसके प्रदूषित होने का आसन्न संकट था। यही कारण है कि ‘पर्यावरण’ शब्द का प्रचलन नया है। हमारे ऋषि-मुनि जानते थे कि पृथ्वी, जल, पावक, गगन, समीर-रूपी पंचतत्वों से यह शरीर निर्मित है।

प्रकृति तो सब कुछ देती है, लेकिन मनुष्य को धैर्य कहां है? उसे प्रतिदिन सोने का अंडा देने वाली मुर्गी नहीं चाहिए? वह दोहन करके सभी कुछ अभी-का-अभी प्राप्त करना चाहता है। प्रकृति तो स्वतः समय पर रत्नों की खान को मानव को भेंट कर देती है, लेकिन हम तत्काल सब कुछ प्राप्त कर लेना चाहते हैं। भूकंप का प्रकोप हमें झेलना पड़ता है। आज न जल पीने के लायक रह गया है और न वायु सांस लेने के लायक। कब तक हम अपने को संकट और समस्या के मुंह में धकेलते रहेंगे? ‘पर्यावरण’ अंग्रेजी के ‘इन्वायरमेंट’ से समीकृत है, जिसका आशय है, ‘ऐसी क्रिया जो घेरने के भाव को सूचित करे।’ डॉ. रघुवीर ने इसी शब्द के आधार पर प्रथम प्रयोक्ता के रूप में ‘पर्यावरण’ शब्द को गढ़ा। स्पष्ट है कि हमारे चारों ओर जो विराट प्राकृतिक परिवेश विस्तृत है, वही पर्यावरण है। यह हमें प्रभावित करता है। अतः इसका प्रदूषण रहित होना जीवन के लिए अनिवार्य है। वेदकाल में ही ऋषि-मुनियों ने इसमें संतुलन बनाए रखने का हर संभव प्रयास किया है तथा अंतरिक्ष से पृथ्वी –पर्यंत शांति बनाए रखने की भी कामना की थी। ऋषि –मुनियों की यह मंगलकामना पर्यावरण-संतुलन का श्रेष्ठ उदाहरण है। क्योंकि इसके बिना जीवन में सुख-शांति असंभव है। अंत में तीन बार शांति का प्रयोग क्रमशः दैहिक, दैविक व भौतिक संताप के निराकरण के लिए ही निर्दिष्ट है। प्रो. रामआसरे चौरसिया के अनुसार, पर्यावरण एक व्यापक शब्द है। यह उन संपूर्ण शक्तियों-परिस्थितियों का योग है, जो मानव को परावृत करती हैं तथा उसके क्रियाकलापों को अनुशासित करती हैं। थल, जल और वायु में ही जीवनमंडल है, जो जीवन की अनुक्रियाओं को प्रभावित करने वाली समस्त भौतिक और जीवीय परिस्थितियों का योग है। ऋषि-मुनियों ने जिस पर्यावरण संतुलन को बनाए रखा था, वह हमारी दिनचर्या थी। इसी दृष्टि से सौ वर्ष तक सार्थक जीवन व्यतीत करने की आधारशिला रखी गई थी।

वैज्ञानिक युग की समृद्धि ने हमें सुविधाभोगी और भौतिकवादी बना दिया है। परिणामतः एक ओर यदि प्रकृति के प्रभाव व पर्यंक से हम दूर होते गए तो दूसरी ओर कंक्रीट का जंगल उगाते चले गए। स्वार्थ के लिए वनों को काटना, जनसंख्या-विस्फोट का आह्वान करना हमारा जीवन-क्रम हो गया। ठंड में गुनगुने पानी से नहाना, गर्मी में वातानुकूलित कमरे में रहना और हल्की वर्षा में भी रेनकोट पहनकर निकलना हमें प्रकृति से दूर ले जाता है। ऋतु-परिवर्तन के अनुरूप हमारे शरीर पर भी प्रकृति का प्रभाव पड़ना जरूरी है, अन्यथा प्रतिरोधक शक्तियों का क्षरण होता है। इसीलिए हमारा शरीर भीग जाने या हल्की ठंड लग जाने पर झींक, खांसी, बुखार को गले लगाता है। तथा ग्रीष्म में ‘सिरदर्द’ और ‘सनस्ट्रोक’ की शिकायत प्रायः हो जाती है। हमारी काया वर्षा में भीगते, ठंड में ठंडक और गर्मी में ताप महसूस कर प्रतिरोधी शक्ति प्राप्त कर रोग से लड़ने लायक बनाती है। लेकिन हम प्रकृति से निरंतर दूर होकर नानाविध बीमारियों को साथी बनाते हैं। जंगल कटने से वर्षा कम होती है, जिसके कारण क्रमशः गर्मी बढ़ती है, फसल कम होती है। फसल के अधिक उत्पादन के लिए रासायनिक खाद का उपयोग किया जाता है, जो जल और जमीन को बर्बाद कर देती है। फसल में नानाविध विकृतियां आ जाती हैं तथा धीरे-धीरे धरती अनुर्वर होने लगती है।

हमारा देश कृषि-प्रधान है, लेकिन कुटीर उद्योग के सहयोग बतौर इसे आत्मनिर्भर बनाना है। वृहत्काय उद्योगों के आगमन से ध्वनि, वायु और जल-प्रदूषण का संकट गहराया है। अधिक जनसंख्या वाले हमारे देश में उंगलियों की कला वाले लघु उद्योगों की जरूरत है, न कि हाथ काटने वाले वृहद् उद्योगों की। यदि एक ओर अर्थव्यवस्था चरमरा रही है तो दूसरी ओर पर्यावरण का संतुलन भी नष्ट हो रहा है। भोपाल के अमेरिकि कार्बाइड कारखाने की गैस-त्रासदी मानवीय विनाश का प्रत्यक्ष उदाहरण है। इससे वायुमंडल तो दूषित हो ही रहा है, हमें सांस लेने में पेरशानी होती है, परिणामतः क्षय रोग, फेफड़े और हृदय की गंभीर बीमारियों को यह जन्म देता है। जल तो पूरी तरह प्रदूषित है और पतित-पावनी गंगा भी मैली हो गई है। इस तरह जिस स्थल में हम रहते हैं, वह स्वस्थ और संतुलित नहीं है, क्योंकि प्रकृति से हम कट रहे हैं। थल, जल और वायु के प्रदूषण से जीवन संकट से घिर रहा है और उसका कारण हम स्वयं हैं। हमने ही प्रकृति को हटाकर कृत्रिमता को आरोपित किया है, पर्यावरण की उपेक्षा कर प्रदूषण से नाता जोड़ा है।

प्रकृति तो सब कुछ देती है, लेकिन मनुष्य को धैर्य कहां है? उसे प्रतिदिन सोने का अंडा देने वाली मुर्गी नहीं चाहिए? वह दोहन करके सभी कुछ अभी-का-अभी प्राप्त करना चाहता है। प्रकृति तो स्वतः समय पर रत्नों की खान को मानव को भेंट कर देती है, लेकिन हम तत्काल सब कुछ प्राप्त कर लेना चाहते हैं। भूकंप का प्रकोप हमें झेलना पड़ता है। आज न जल पीने के लायक रह गया है और न वायु सांस लेने के लायक। कब तक हम अपने को संकट और समस्या के मुंह में धकेलते रहेंगे? प्रकृति के संतुलन को बनाए रखना प्रकृति के पर्यंक में बने रहना और ऋतु-चक्र के नियमों मे उंगली न कर उसके अस्तित्व को बचाए रखकर ही मद-सुगंध-समीकरण तो प्राप्त होगा ही, स्वच्छ भूमि व जल भी उपलब्ध होगा। इसके लिए रासायनिक खाद के उपयोग को रोकना, ध्वनि, वायु और जल को दूषित करने वाले संयंत्रों और उद्योगों को रोकना होगा। यह विडंबना ही है कि हमारे देश में ऐसे विदेशी संयंत्र लगाए जाने की परंपरा है, जिसका उपयोग वैज्ञानिक अपने देश में नहीं करते। आज प्रदूषण रहित यंत्रों की प्रजनन की ओर वैज्ञानिकों का ध्यान गया है। इस दिशा में जन-जागृति आवश्यक है। इसके साथ ही फसल में हम उत्पादकता की जगह गुणवत्ता देखें और जनसंख्या-शिक्षा का प्रसार कर प्रकारांतर में पर्यावरण-संरक्षण की दिशा में पहल करें। इससे ही हमारा और जीवन का विकास संभव होगा। हमारे चिंतन के साथ पर्यावरण संरक्षण तमाम स्तरों पर आवश्यक है। साहित्य में समाज से ही सब कुछ आता है, ऐसी स्थिति में साहित्यकार को जागरूक प्रहरी की भांति पर्यावरण-रक्षा हेतु उद्यत होकर कार्य करना होगा, ताकि समाज का संपूर्ण विकास और भविष्य मंगलकारी बन सके।

संदर्भ


1. वैज्ञानिक परिभाषा कोष, डॉ. बद्रीनाथ कपूर पृ. 325
2. संस्कृत शब्दार्थ कीस्तुय, तारिणीश झा, पृ. 648
3. द्रष्टव्य-वृहद् हिंदी कोष, कालिका प्रसाद, पृ. 136
4. अथर्ववेद, 8/2/55
5. शब्द कल्पद्रुम, तृतीय भाग, पृ. 64
6. द्रष्टव्य-वैज्ञानिक परिभाषा कोष, पृ. 123
7. वृहद हिंदी कोष, कालिका प्रसाद, पृ. 1025
8. द शार्टर ऑक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी, पृ. 619
9. द्रष्टव्य-पर्यावरण तथा प्रदूषण, अरुण चित्रलेखा रघुवंश, पृ. 1

निदेशक प्रयास प्रकाशन,
सी-62, अज्ञेय नगर,
बिलासपुर (छ.ग.)