भौतिकी

Submitted by Hindi on Sat, 08/27/2011 - 12:50
भौतिकी (Physics) की परिभाषा करना कठिन है। कुछ विद्वानों के मतानुसार यह ऊर्जा विषयक विज्ञान है और इसमें ऊर्जा के रूपांतरण तथा उसके द्रव्य संबंधों की विवेचना की जाती है। इसके द्वारा प्राकृत जगत्‌ और उसकी भीतरी क्रियाओं का अध्ययन किया जाता है। आकाश (space), काल, गति, द्रव्य, विद्युत, प्रकाश, ऊष्मा तथा ध्वनि इत्यादि अनेक विषय इसकी परिधि में आते हैं। यह विज्ञान का एक प्रमुख विभाग है। इसके सिद्धांत समूचे विज्ञान में मान्य हैं और विज्ञान के प्रत्येक अंग में लागू होते हैं। इसका क्षेत्र विस्तृत है और इसकी सीमा निर्धारित करना अति दुष्कर है। सभीश् वैज्ञानिक विषय अल्पाधिक मात्रा में इसके अंतर्गत आ जाते हैं। विज्ञान की अन्य शाखाएँ या तो सीधे ही भौतिक पर आधारित हैं, अथवा इनके तथ्यों को इसके मूल सिद्धांतों से संबद्ध करने का प्रयत्न किया जाता है।

भौतिकी का महत्व इसलिये भी अधिक है कि इंजीनियरी तथा शिल्पविज्ञान (Technology) की जन्मदात्री होने के नाते यह इस युग के अखिल सामाजिक एवं आर्थिक विकास की मूल प्रेरक है। बहुत पहले इसको दर्शन शास्त्र का अंग मानकर नैचुरल फिलॉसोफी (Natural Philosophy) कहते थे, किंतु 1870 ई0 के लगभग इसके वर्तमान नाम फिजिक्स द्वारा संबोधित करने लगे। धीरे धीरे यह विज्ञान उन्नति करता गया और इस समय तो इसके विकास की तीव्र गति देखकर, आग्रगण्य भौतिक विज्ञानियों को भी आश्चर्य हो रहा है। धीरे धीरे इससे अनेक महत्वपूर्ण शाखाओं की उत्पत्ति हुई, जैसे रासायनिक भौतिकी (Chemical Physics), तारा भौतिकी (Astrophysics), जीवभौतिकी (Biophysics), भूभौतिकी (Geophysics), नाभिकीय भौतिकी (Nuclear Physics), आकाशीय भौतिकी (Space Physics) इत्यादि।

भौतिकी का मुख्य सिद्धांत 'ऊर्जा संरक्षण' (Conservation of Energy) है। इसके अनुसारश् किसी भी द्रव्यसमुदाय की ऊर्जा की मात्रा स्थिर होती है। समुदाय की आंतरिक क्रियाओं द्वारा इस मात्रा को घटाना या बढ़ाना संभव नहीं। ऊर्जा के अनेक रूप होते हैं और उसका रूपांतरण हो सकता है, किंतु उसकी मात्रा में किसी प्रकार परिवर्तन करना संभव नहीं हो सकता। आइंस्टाइन के आपेक्षिकता सिद्धांत के अनुसार द्रव्यमान (mass) भी उर्जा में बदला जा सकता है। इस प्रकार ऊर्जा संरक्षण और द्रव्यमान संरक्षण दोनों सिद्धांतों का समन्वय हो जाता है और इस सिद्धांत के द्वारा भौतिकी और रसायन एक दूसरे से संबद्ध हो जाते हैं।

चिरसम्मत भौतिकी (Classical Physics) -


भौतिकी को मोटे रूप से दो भागों में बाँटा जा सकता है। 1900 ई0 से पूर्व जो भौतिक ज्ञान अर्जित किया गया था और तत्संबंधी जो नियम तथा सिद्धांत प्रतिपादित किए गए थे, उनका समावेश चिरसम्मत भौतिकी में किया गया। उस समय की विचराधारा के प्रेरणास्त्रोत गैलिलियो (1564-1642 ई0) तथा न्यूटन (1642-1727) थे। चिरसम्मत भौतिकी को मुख्यत: यांत्रिकी (Mechanics), ध्वानिकी (Acoustics), ऊष्मा (Heat), विद्युच्चुंबकत्व औरश्श् प्रकाशिकी (Optics) में विभाजित किया जाता है। ये शाखाएँ इंजीनियरिंग तथा शिल्प विज्ञान की आधारशिलएँ हैं और भौतिकी की प्रारंभिक शिक्षा इनसे ही शुरू की जाती है। 1900 ई0 के पश्चात्‌ अनेक क्रांतिकारी तथ्य ज्ञात हुए, जिनको चिरसम्मति भौतिकी के ढाँचे में बैठाना कठिन है। इन नये तथ्यों के अध्ययन करने और उनकी गुत्थियों को सुलझाने में भौतिकी की जिस शाखा की उत्पत्ति हुई, उसको आधुनिक भौतिकी कहते हैं। आधुनिक भौतिकी का द्रव्यसंरचना से सीधा संबंध है। अणुपरमाणु, केंद्रक (nucleus) तथा मूल कण इनके मुख्य विषय हैं। भौतिकी की इस नवीन शाखा ने वैज्ञानिक विचारधारा को नवीन और क्रांतिकारी मोड़ दिया है तथा इससे समाजविज्ञान और दर्शनशास्त्र भी महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित हुए हैं।

यांत्रिकी तथा द्रव्यगुण -


यांत्रिकी में द्रव्यपिंडों की गति का अध्ययन किया जाता है। यह गति समूचे पिंड की भी हो सकती है और आंतरिक भी। भौतिकी की इस शाखा का बहुत महत्व है और इसके सिद्धांत भौतिकी के प्रत्येक विभाग मे, विशेषतया इंजीनियरिंग और शिल्पविज्ञान में, प्रयुक्त होते हैं। इसके मूल में जो सिद्धांत लागू हाते हैं, उनको सर्वप्रथम न्यूटन ने प्रतिपादित किया था। लैग्रेंज, हैमिल्टन आदि वैज्ञानिकों ने इन नियमों को गंभीर गणितीय रूप देकर जटिल समस्याएँ हल करने योग्य बनाया। मूल समीकरणों द्वारा ऊर्जाश् संवेग (momentum), कोणीय संवेग इत्यादि, नवीन राशियों की कल्पना की गई। इस विज्ञान के मुख्य नियम ऊर्जा संरक्षण, संवेग संरक्षण तथा कोणीय संवेग संरक्षण हैं। सिद्धांत रूप से ज्ञात बलों के अधीन किसी भी पिंड की गति का पूरा विश्लेषण किया जा सकता है।

द्रव्य गुण शाखा में द्रव्य की तीनों अवस्थाओं ठोस, द्रव, तथा गैस के गुणों की विवेचना की जाती है। इन गुणों केश् आपसी संबंधों की भी चर्चा की जाती है और इनसे संबंधित आँकड़े ज्ञात किए जाते हैं। कुछ गुण जिनका अध्ययन किया जाता है, ये हैं घनत्व, प्रत्यास्थता गुणांक, श्यानता, पृष्ठतनाव, गुरुत्वाकर्षण गुणांक इत्यादि।

ध्वनिकी –


ध्वनि की उत्पत्ति द्रव्यपिंडों के दोलन द्वारा होती है। इस दोलन से वायु की दाब एवं घनत्व में प्रत्यावर्ती (alternating) परिर्वतन होने लगते हैं, जो अपने स्त्रोत से एक विशेष वेग के साथ आगे बढ़ते हैं। इनको ही ध्वनि की तरंग कहा जाता है। जब ये तरंगें कान के परदे से टकराती हैं, तब ध्वनि-संवेदन होता है इन तरंगों की विशेषता यह है कि इनमें परावर्तन, अपवर्तन (refraction) तथा विवर्तन (diffraction) हो सकता है। प्रति सेकंड दोलन संख्या को आवृति (frequency) कहते हैं। मनुष्य का कान एक सीमित परास की आवृतियों को ही सुन सकता है, किंतु आजकल ऐसी ध्वनि भी उत्पन्न की जा सकती है जिसका कान के परदे पर कोई असर नहीं होता। कान की सीमा से अधिक परास की आवृतियों की ध्वनि को पराश्रव्य ध्वनि कहते हैं। बहुत से जानवर, जैसे चमगादड़, पराश्रव्य ध्वनि सुन सकते हैं। आधुनिक समय में श्रव्य तथा पराश्रव्य दोनों प्रकार की ध्वनियों की आवृतियों को एक बड़ी सीमा के भीतर उत्पन्न किया, पहचाना और मापा जा सकता है।

ऊष्मा -


इस उपशाखा में ऊष्मा ताप और उनके प्रभाव का वर्णन किया जाता है। प्राय: सभी द्रव्यों का आयतन तापवृद्धि से बढ़ जाता है। इसी गुण का उपयोग करते हुए तापमापी बनाए जाते हैं।ऊष्मा मापने का मात्रक कैलोरी है। विज्ञान की जिस उपशाखा में ऊष्मा मापी जाती है, उसको ऊष्मामिति (Clorimetry) कहते हैं। इस मापन का बहुत महत्व है। विशेषतया विशिष्ट ऊष्मा का सैद्धांतिक रूप से बहुत महत्व है और इसके संबंध में कई सिद्धांत प्रचलित हैं।

ऊष्मा का स्थानांतरण तीन विधियों से होता है चालन, संवहन और विकिरण। पहली दो विधियों में द्रव्यात्मक माध्यम की आवश्यकता है, किंतु विकिरण की विधि में विद्युच्चुंबकीय तरंगों द्वारा ऊष्मा का अंतरण होता है।

ऊष्मा की एक उपशाखा अणुगति सिद्धांत (Kinetic Theory) है। इस सिद्धांत के अनुसार द्रव्यमात्र लघु अणुओं के द्वारा निर्मित हैं। गैसों के संबंध में यह बहुत महत्वपूर्णश् विज्ञान है और इसके उपयोग का क्षेत्र बहुत विस्तृत है। विशेष रूप से इंजीनियरिंग तथा शिल्पविज्ञान में इसका बहुत महत्व है।

ऊष्मागतिकी का अधिक भाग दो नियमों पर आधारित है। प्रथम नियम, ऊर्जा संरक्षण नियम का ही दूसरा रूप है। इसके अनुसार ऊष्मा भी ऊर्जा का ही रूप है। अत: इसका रूपांतरण तो हो सकता है, किंतु उसकी मात्रा में परिवर्तन नहीं किया जा सकता। जूल इत्यादि ने प्रयोगों द्वारा यह सिद्ध किया कि इन दो प्रकार की ऊर्जाओं में रूपांतरण में एक कैलोरी ऊष्मा 4.18  107 अर्ग यांत्रिक ऊर्जा के तुल्य होती है इंजीनियरों का मुख्य उद्देश्य ऊष्मा का यांत्रिक ऊर्जा में रूपांतर करके इंजन चलाना होता है। प्रथम नियम यह तो बताता है कि दोनों प्रकार की ऊर्जाएँ वास्तव में अभिन्न हैं, किंतु यह नहींश् बताता कि एक का दूसरे में परिवर्तन किया जा सकता है अथवा नहीं। यदि बिना रोक टोक ऊष्मा का यांत्रिक ऊर्जा में परिवर्तन संभव हो सकता, तो हम समुद्र से ऊष्मा लेकर जहाज चला सकते। कोयले का व्यय न होता तथा बर्फ भी साथ साथ मिलती। अनुभव से यह सिद्ध है कि ऐसा नहीं हो सकता है ऊष्मागतिकी का दूसरा नियम यह कहता है कि ऐसा संभव नहीं और एक ही ताप की वस्तु से यांत्रिक ऊर्जा की प्राप्ति नहीं हो सकती। ऐसा करने के लिये एक निम्न तापीय पिंड (संघनित्र) की भी आवश्यकता होती है। किसी भी इंजन के लिये उच्च तापीय भट्ठी से प्राप ऊष्मा के एक अंश को निम्न तापीय पिंड को देना आवश्यक है। शेष अंश ही यांत्रिक कार्य में काम आ सकता है। समुद्र के पानी स ऊष्मा लेकर उससे जहाज चलाना इसलिये संभव नहीं कि वहाँ पर सर्वत्र समान ताप है और कोई भी निम्न तापीय वस्तु मौजूद नहीं। इस नियम का बहुत महत्व है। इसके द्वारा ताप के परम पैमाने की संकल्पना की गई है।

दूसरा नियम परमाणुओं की गति की अव्यवस्था (disorder) से संबंध रखता है। इस अव्यवस्थितता को मात्रात्मक रूप देने के लिये एंट्रॉपि (entropy) नामक एक नवीन भौतिक राशि की संकल्पना की गई है। उष्मागतिकी के दूसरे नियम का एक पहलू यह भी है। कि प्राकृतिक भौतिक क्रियाओं में एंट्रॉपी की सदा वृद्धि होती है। उसमें ्ह्रास कभी नहीं होता। ऊष्मागतिकी के तीसरे नियम के अनुसार शून्य ताप पर किसी ऊष्मागतिक निकाय की एंट्रॉपी शून्य होती है। इसका अन्य रूप यह है कि किसी भी प्रयोग द्वारा शून्य परम ताप की प्राप्ति संभव नहीं। हाँ हम उसके अति निकट पहुँच सकते हैं, पर उस तक नहीं।

ऊष्मागतिकी के प्रयोग का क्षेत्र बहुत विस्तृत है। विकिरण के ऊष्मागतिक अध्ययन द्वारा एक नवीन और क्रांतिकारी विचारधारा क्वांटम थ्योरी प्रस्फुटित हुई (देखें ऊष्मागतिकी)।

चुंबकत्व और विद्युत -


चुंबकत्व और विद्युत्‌ का अध्ययन दो भिन्न विषयों के रूप में प्रारंभ हुआ, पर 1830 ई0 के लगभग यह समझा जाने लगा कि ये दोनों विषय पस्पर संबंधित हैं। वास्तव में ये दोनों विद्युत्‌ ऊर्जा के ही दो भिन्न प्रभाव है। अत: अब इनका अध्ययन एक साथ किया जाता है।

चुबंकत्व में स्थायी चुंबकों और चुंबकीय क्षेत्रों का अध्ययन किया जाता है। पृथ्वी और सूर्य के चुबंकीय क्षेत्र और द्रव्यों के चुबकीय गुण भी इस विज्ञान की परिधि में आते हैं।

विद्युतद्विज्ञान को दो खंडों, (क) स्थिर विद्युत्‌ में हम स्थिर आवेशों के पारस्परिक आकर्षण, विकर्षण तथा उनकी ऊर्जा का विचार करते हैं इस अध्ययन की एक मुख्य संकल्पना विभव (potential) है। विभवांतर के कारण आवेशों (charges) का गमन होता है।

कुछ पदार्थों में आवेश एक स्थान से दूसरे स्थान को प्रवाहित हो सकता है। ऐसे पदार्थ विद्युत के चालक कहलाते हैं। इसके विपरीत अचालकों में विद्युत्‌ प्रवाह नहीं होता। प्रवाहित आवेश का दूसरा नाम विद्युत धारा है। जब किसी चालक के दो भिन्न विंदुओं में विभवांतर होता है, तब उनके बीच धारा प्रवाहित होने लगती है। विभवांतर सेल या जनित्र द्वारा स्थापित किया जा सकता है। सेल में विभवांतर उसमेंश् प्रयुक्त द्रव्यों की रासायनिक क्रिया से और जनित्र में विद्युत चुंबकीय प्रेरण (electromagnetic induction) से उत्पन्न्न होता है। आधुनिक युग में विद्युत्‌ धारा के उपयोग और चमत्कार सर्वविदित हैं।

विद्युत और चुंबकत्व को पूरी तरह एक सूत्र में पिरोने का काम मैक्सबेल ने किया। इन्होंने 1865 ई0 में विद्युत चंबकत्व सिद्धांत का निरूपण किया। इस सिद्धांत से इन्होंने एक मुख्य परिणाम यह प्राप्त किया कि शून्य में विद्युतच्चुंबकीय ऊर्जा का तरंगों के रूप में संचरण संभव है। इस सिद्धांत के अनुसार इन्हीं तरंगों को प्रकाश कहते हैं। मैक्सवेल के उपर्युक्त सिद्धांत की पुष्टि हेर्ट्स (Hertz) ने 20 वर्ष बाद की।

प्रकाशिकी -


प्रकाश का अध्ययन भी दो खंडों में किया जाता है। पहला खंड, 'ज्यामितीय प्रकाशिकी', प्रकाश किरण की संकल्पना पर आधृत है। दर्पणों से प्रकाश का परार्वतन अैर लेंसों तथा प्रिज्मों से प्रकाश का अपवर्तन, ज्यामितीय प्रकाशिकी के विषय है। सूक्ष्मदर्श, दूरदर्शी, फोटोग्राफी कैमरा तथा अन्य उपयोगी प्रकाशिकी यंत्रों की क्रियाविधि ज्यामितीय प्रकाशिकी के नियमों पर ही आधृत है (देखें प्रकाशिकी, ज्यामितीय)।

प्रकाशिकी का दूसरा खंड भौतिक प्रकाशिकी है। इसमें प्रकाश की मूल प्रकृति तथा प्रकाश और द्रव्य की पारस्परिक क्रिया का अध्ययन किया जाता है। प्रकाश सूक्ष्म कणों का संचार है, ऐसा मानकर न्यूटन ने ज्यामितीय प्रकाशिकी के मुख्य परिणामों की व्याख्या की। पर 19वीं शताब्दी में प्रकाश के व्यतिकरण की घटनाओं का आविष्कार हुआ। इन क्रियाओं की व्याख्या कणिका सिद्धांत से संभव नहीं है, अत: बाध्य होकर यह मानना पड़ा कि प्रकाश तरंगसंचार ही है। ऊपर वर्णित मैक्सवेल के विद्युच्चुंबकीय सिद्धांत ने प्रकाश के तरंग सिद्धांत को ठोस आधार दिया।

भौतिक प्रकाशिकी का एक महत्वपूर्ण भाग स्पेक्ट्रामिकी (Spectroscopy) है। इसमें प्रकाश तरंगों के स्पेक्ट्रम का अध्ययन किया जाता है। अणु परमाणुओं की रचना को समझने में इस प्रकार के अध्ययन का प्रमुख योगदान रहा है। विज्ञान की यह शाखा तारा भौतिकी की आधारशिला है।

आधुनिक भौतिकी -


19वीं शताब्दी में भौतिकविज्ञानी यह विश्वास करते थे कि नवीन महत्वपूर्ण आविष्कारों का युग प्राय: समाप्त हो चुका है और सैद्धांतिक रूप से उनका ज्ञान पूर्णता की सीमा पर पहुँच गया है किंतु नवीन परमाणवीय घटनाओं की व्याख्या करने के लिये पुराने सिद्धांतों का उपयोग किया गया, तब इस धारणा को बड़ा धक्का लगा और आशा के विपरीत फलों की प्राप्ति हुई। जब मैक्स प्लांक ने तप्त कृष्ण पिंडों के विकिरण की प्रवृति की व्याख्या चिरसम्मत भौतिकी के आधार पर करनी चाही, तब वे सफल नही हुए। इस गुत्थी को सुलझाने के लिये उनको यह कल्पना करनी पड़ी कि द्रव्यकण प्रकाश-ऊर्जा का उत्सर्जन एवं अवशोषण अविभाज्य इकाइयों में करते हैं। यह इकाई क्वांटम कहलाती है। चिरसम्मत भौतिकी की एकश् अन्य विफलता प्रकाश-वैद्युत प्रभाव कीश् व्याख्या करते समय सामने आई। इस प्रभाव में प्रकाश के कारण धातुओं से इलेक्ट्रानों का उत्सर्जन होता है। इसकी व्याख्या करने के लिये आईस्टांइन ने प्लांक की कल्पना का सहारा लिया और यह प्रतिपादित किया कि प्रकाश ऊर्जा कणिकाओं के रूप में संचरित होती है। इन कणिकाओं को फोटॉन कहा जाता है। यदि प्रकाश तरंग की आवृतिश् u हो तो उससे संबद्ध फोटॉन की ऊर्जा Eh, होती है। h को प्लांक स्थिरांक कहते हैं

1905 ई0 में आईस्टाइन ने विशिष्ट आपेक्षिकता नामक एक अति क्रांतिकारी सिद्धांत का प्रतिपादन किया। इसके अनुसार शून्य में प्रकाश का वेग स्थिरांक है और यह किसी भी वेग की चरम सीमा है। द्रव्य हो अथवा ऊर्जा किसी के लिये भी इससे तीव्रतर वेग संभव नहीं। इस सिद्धांत के अनुसार लंबाई तथा समय दोनों आपेक्षिक हैं। इनकी मात्राएँ प्रेक्षक की गति की दिशा में सिकुड़ा हुआ प्रतीत होगा। यहाँ तक कि प्रकाशवेग से गति करने पर दंड की लंबाई शून्य हो जायगी। इसी प्रकार समय का फैलाव होता है एवं प्रकाश की गति से चलने पर यह फैलाव इतना होगा कि प्रत्येक क्षण फैलकर असीमित हो जाएगा, अर्थात समय रूक जायगा। आईस्टांइन के सिद्धांत का एक चमात्कारिक अंग हैं कि उर्जा और द्रव्यमान दोनों का एक दूसरे में परिवर्तन संभव है। इन दोनों का संबंध सूत्र E  mc2श् से दर्शाया जाता है। यहाँ E ऊर्जा है, m द्रव्यमान और C शून्य में प्रकाश का वेग।

आईस्टाइन ने व्यापक आपेक्षिकता सिद्धांत का भी प्रतिपादन किया। यह सिद्धांत वास्तव में गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत है। इसके द्वारा निकाले गए परिणाम न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण सिद्धांत से प्राप्त परिणाम में अपेक्षित सुधार प्रस्तुत करते हैं।

19वीं शताब्दी का मूल सिद्धांत डाल्टन का परमाणुवाद था। परमाणु द्रव्य के अविभाज्य कण समझे जाते थे। इनके द्वारा गैसों द्रवों एवं ठोस पदार्थो की संरचना, रासायनिक अभिक्रियाएँ द्रव्यों के गुण इत्यादि की विशद व्याख्या की जाती थी। सन्‌1867 में जे0 जे0 टॉमसन ने लंबी नली को निर्वात कर उसमें से तीव्र विभवांतर पर विद्युतद्धारा प्रवाहित की। इस तरह उन्होंने परमाणु के एक घटक इलेक्ट्रॉन, का अस्तित्व सिद्ध किया और स्पष्ट किया कि प्रत्येक इलेक्ट्रॉन ऋण विद्युत्‌ से आवेशित रहता है और उसके आवेश और द्रव्यमान स्थिर होते हैं। जेमान ने परमाणुओं के स्पेक्ट्रम को चुंबकीय क्षेत्र द्वारा प्रवाहित होते दिखलाया। इस प्रकार परमाणु की विद्युन्मय रचना की प्रतिष्ठा हुई। परमाणु का अविभाज्यत्व समाप्त हो गया और वैज्ञानिकों की दृष्टि इसके भीतर पहुँची।

1911-13 ई0 में रदरफोर्ड ने ऐल्फा कणों के प्रकीर्णन (scattering) द्वारा यह सिद्ध किया कि परमाणु के भीतर सभी धन आवेश केंद्र से 1012 सेंमी0 दूरी के भीतर एकत्रित रहते हैं। इस केंद्रीय भाग को केंद्रक कहते हैं। 1913 ई0 में नील्स बोर ने चिरसम्मत भौतिकी के सिद्धांतों को छोड़कर, क्वांटम सिद्धांत पर आधारित अभिधारणाओं का प्रतिपादन किया और परमाणु की रचना एवं प्रकाश की उत्पत्ति को समझाया। इस कल्पना के अनुसार हाइड्रोजन के केंद्र में एक धनआवेशित कण रहता है, जिसको प्रोट्रॉन कहते हैं। इसके चारों ओर एक इलेक्ट्रॉन चक्कर काटता रहता है।

जैसा ऊपर बताया जा चुका है, आईस्टांइन ने प्रकाश तरंगों के साथ ऊर्जा कण, अर्थात्‌ क्वांटम, को संबद्ध किया था। कुछ प्रयोग प्रकाश के तरंगवत होने की तथा कुछ फोटानवत होने की पुष्टि करते थे। प्रकाश का यह द्वैत व्यवहार बहुत उलझनपूर्ण था। 1924 ई0 में प्रकृति की सममिति को आधार मानकर लुइस द ब्रॉग्ली (Louis de Broglie) ने सोचा कि हो न हो प्रकाश की ही तरह द्रव्यकण भी द्वैत व्यवहार करते हों। उन्होंने प्रत्येक द्रव्यकण से सबद्ध एक तरंग की कल्पना की और यह सिद्ध किया कि इस तरंग का तरंगदैर्ध्य प्लांक स्थिरांक और कण के संवेग के अनुपात के बराबर होता है इस कल्पना की प्रायोगिक पुष्टि डेविसन (Davisson) और गरमर (Germer) इत्यादि ने की। श्रेडिंगर (Schrodinger) ने 1926 ई0 में इस विचार को सुदृढ़ गणितीय आधार प्रदान किया। इसके सिद्धांत को तरंग यांत्रिकी (wave mechanics) कहते हैं। इसके मूल समीकरण में एक राशि प्साई  का प्रयोग होता है मैक्स बॉर्न के अनुसार प्साई से किसी स्थान पर कण उपस्थिति की संभावना निकाली जा सकती है। चिरसम्मत भौतिकी में सैद्धांतिक रूप से किसी पिंड और गति को निश्चयात्मक रूप से व्यक्त किया जा सकता था। उसके अनुसार यदि किसी पिंड की प्रारभिक स्थिति तथा उसका वेग ज्ञात हो, तो उस गति और स्थान का हर समय के लिये पूरा विश्लेषण संभव है। आधुनिक भौतिकी के अनुसार नियम निश्चयात्मक नहीं होते, वह केवल संभावनाएँ व्यक्त करते हैं। इस संबंध में हाइजेनवेर्ख (Heisenberg) ने अनिश्चितता का सिद्धांत प्रतिपादित किया है। इस सिद्धांत के अनुसार संवेग और स्थिति, दोनों एक साथ बिलकुल ठीक ठीक नहीं नापे जा सकते। यदि किसी एक समय में एक को यथार्थ परिशुद्धता से मापा जाय, तो दूसरी राशि एकदम अनिश्चित होगी। दोनों राशियों की अनिश्चितताओं की मात्राओं का गुणनफल कम से कम प्लांक स्थिरांक के बराबर होगा।

इसी से संबद्ध बोर का पूरक नियम है, जिसके अनुसार द्रव्य का कणात्मक और तरंगवत्‌ व्यवहार एक दूसरे का विरोधी नहीं, बल्कि पूरक है। किसी भी प्रयोग द्वारा ये दोनों व्यवहार एक नहीं दर्शाए जा सकते। ये दोनों रूप एक सिक्के के दो पहलू के समान हैं, जो एक साथ नहीं देखे जा सकते।

1896 ई0 में हेनरी बैकरेल ने देखा कि यूरेनियमश् से कुछ अदृश्य किरणें निकलती हैं, जो फोटोग्राफिक प्लेट पर अपना प्रभाव डालती हैं। शीघ्र ही प्रो0 क्यूरी तथा श्रीमती क्यूरी ने कुछ अन्य तत्वों रेडियम, पोलोनियम आदि, की खोज की, जिनसे इस प्रकार की अदृश्य किरणों का तीव्र उत्सर्जन होता है। इस गुण का नाम रेडियोऐक्टिवता दिया गया। प्रयोग करने पर ज्ञात हुअ कि ये किरणें तीन प्रकार की होती हैं, जिन्हें  (ऐल्फा)  (बीटा) और  (गामा) किरण कहा जाता है। रेडियोऐक्टिव तत्व का ताप एवं दाब कम, अधिक करने से उसकी अन्य भौतिक अवस्था में परिवर्तन कर देने से उसका किसी अन्य तत्व के साथ रासायनिक संयोग करने से, या चुंबकीय क्षेत्र आदि लगाने से तत्व की रेडियोऐक्टिवता की तीव्रता पर कोई असर नहीं पड़ता। इससे यह निष्कर्षश् निकलता है कि रेडियोऐक्टिवता न्यूक्लियस का गुण है और इसका इलेक्ट्रॉन विन्यास से कोई संबंध नहीं है।

सन्‌ 1932 में न्यूट्रॉन की खोज की गई जो प्रोट्रॉन से कुछ भारी और एक अनावेशित मूल कण है। अब यह माना जाता है कि न्यूक्लियस के भीतर न्यूट्रॉन तथा प्रोट्रॉन दोनो होते हैं। हल्के तत्वों में न्यूट्रॉन तथा प्रोट्रोनों का अनुपात आधे का होता है और भारी तत्वों के न्यूक्लियस में न्यूट्रॉनोंश् की संख्या प्रोटॉनों की संख्या से ज्यादा होती है। चूँकि परमाणु में उपस्थित इलेक्ट्रॉनों की संख्या के बराबर होती है। परमाणु की गति का अध्ययन कर यह सिद्ध किया कि एक ही तत्व के परमाणुओं के द्रव्यमान भी एक दूसरे से भिन्नता रख सकते हैं। इन विभिन्न द्रव्यमानों के परमाणुओं को समस्थानिकश् (Isotope) कहा जाता हैश् ऐल्फा रेडियोऐक्टिवता में न्यूक्लियस से आयनित हिलियम परमाणु का उतसर्जन होता है। इसमें दो प्रोटॉन और दो न्यूट्रॉन होते हैं और इसके ऐल्फा कण कहते है। न्यूक्लियस में जब एक न्यूट्रॉन प्रोट्रॉन में, या एक प्रोट्रॉन न्यूट्रॉन में, रूपांतरित होता है, तो एक इलेक्ट्रॉन (या पाजीट्रॉन) और एक न्यूट्रिनो की उत्पत्तिश् होती है। यही बीटा रेडियोऐक्टिवता कहलाती है। न्यूट्रिनो एक अनावेशित एवं इलेक्ट्रॉनश् से भी काफी हल्का (लगभग शून्य द्रवमान का) मूल कण है, जो बहुत समय तक वैज्ञानिकों के प्रेक्षण से बचा रहा। इसका पता सर्वप्रथम 1953 ई0 में लगा। न्यूक्लियस की उत्तेजित अवस्था में जब परिवर्तन होता है, तो गामा किरणें निकलती हैं, जो एक्सकिरण के समान पर उनसे अधिक ऊर्जावली, विद्युच्चुंबकीय तरंगें हैं। आवेशित कणों की ऊर्जा बढ़ाने के लिये वैज्ञानिको ने यंत्रों का निर्माण किया, जो त्वरक (accelerator) कहलाते हैं। अधिक ऊर्जा वाले इन कणों की सहायता से न्यूक्लीय अभिक्रियाओं का और मूल कणों कीश् उत्पत्ति एवं उनके गुणधर्मो का अध्ययन किया जाता है। कुछ प्रमुख त्वरक साइक्लोट्रॉन, बीटाट्रॉन तथा सिंकोट्रॉन हैं।

द्वितीय विश्वयुद्ध के पहले वैज्ञानिकों ने पता चलाया कि कुछ भारी न्यूक्लियसो (यूरेनियम आदि) पर न्यूट्रॉनों की बौछार करने से, न्युक्लियस दो हलकेश् न्यूक्लियसों में टूट जाता है और अत्यधिक मात्रा में ऊर्जा उत्पन्न होती हैं। यूरेनियम के विखंडन (fission) की अनियंत्रित श्रृंखलाबद्ध अभिक्रिया (uncontrolled chain reaction)का उपयोग परमाणु बम बनाने में किया गया 1950 ई0 के बाद ताप न्यूक्लीय अभिक्रिया (thermo-nuclear reaction) का पता लगा, जिसमें और भी अधिक मात्रा में ऊर्जा उत्पन्न होती है। इस अभिक्रिया में हलके न्यूक्लियसों का एक भारीश् न्यूक्लियस में संलयन (fusion) किया जाता है। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि सूर्य एवं अन्य तारों की ऊर्जा का स्त्रोत यह अभिक्रिया है।

परमाणु ऊर्जा के विकासक्रम को रचनात्मक दिशाओं की ओर मोड़ने के प्रयत्न में रिऐक्टर का निर्माण हुआ, जिसमें विखंडन की श्रृखंलाबद्ध अभिक्रिया को नियंत्रित कर ऊर्जा उत्पन्न की जाती है। रिऐक्टर की मदद से समस्थानिक उत्पादित किए जाते हैं, जिनका रोगचिकित्सा, कृषि, वनस्पति विज्ञान और पुरात्तत्व अनुसंधान में तथा अनुरेखक (tracer) के रूप में बहुत अधिक प्रयोग किया जाता है।

न्यूक्लीय भौतिकी के अध्ययन के साथ कॉस्मिक किरणों का अध्ययन भी जुड़ा हुआ है। प्राथमिक कॉस्मिक किरणों का अधिकतर भाग बहुत अधिक ऊर्जावाल्े प्रोट्रॉन होते हैं। इसके अतिरिक्त कुछ ऐल्फा कण भी विद्यमान रहते हैं। अंतरिक्ष से आकर ये प्रोटॉन पृथ्वी के वायुमंडल में विभिन्न गैसों के न्यूक्लियसों से टकराते हैं और फलस्वरूप अन्य आवेशित कण तथा अत्यधिक ऊर्जावालीश् गामाश् किरणें उत्पन्न होती है,श् जिन्हें द्वितीयक कॉस्मिक किरणें कहा जाता हैं कॉस्मिक किरणों के उद्गम के बारे में वैज्ञानिकों में मतभेद हैं, पर इनके अध्ययन से कई मूल कणों का पता चला है, जिनका प्रकृति के रहस्यों के उद्घाटन में काफी योगदान रहा है। मूल कणों में कुछ कण हैं पॉजीट्रॉन (जो धन आवेशित इलेक्ट्रॉन है) तथा म्यूऑन जो ऋण अथवा धन आवेशित होते हैं और इलेक्ट्रॉन से 207 गुणा भारी होते हैं। पाई मेसान, जो इलेक्ट्रॉन से 273 गुणा भारी होते हैं, ऋण आवेशित, धनावेशित एवं अनावेशित तीन प्रकार के होते हैं। म्यूऑन तथा पाइमेसान अस्थायी मूल कण हैं।

यह उल्लेखनीय है कि प्रकृति ने पूरी सृष्टि की रचना कुल तीन मूल कणों प्रौट्रॉन न्यूट्रॉन और इलेक्ट्रॉन को लेकर की है। अन्य मूल कणों का स्थायी द्रव्य की रचना में क्या योगदान है, यह अभी ज्ञात नहीं। वैज्ञानिकों का मत है कि द्रव्यों की सभी ज्ञात पारस्परिक क्रियाओं, अर्थात पिंडों में लगनेवाले सभी प्रकारके बलों, की व्याख्या मूल रूप से केवल चार अन्योन्य क्रियाओं (interactions) द्वारा की जा सकती है इनके भाग हैं 1. गुरुत्वीय अन्योन्य क्रिया, 2 विद्युच्चुंबकीय अन्योन्य क्रिया, 3. प्रबल अन्योन्य क्रिया, तथा 4. दुर्बल अन्योन्य क्रिया।

सं0 ग्रं0- मैक्स बॉर्न:


ऐटॉमिक फिजिक्स ब्लैकी ऐंड संस; आर0 एस0 शैंकलैंड: ऐटॉमिक ऐंड न्यूक्लियर फिजिक्स, मैकमिलन ऐंड कं; मैक्स बॉर्न: आईस्टांइन्स थ्योरी ऑव रिलेटिविटी, डोवर न्यूयार्क (1962); डिविड बम: क्वांटम थ्योरी, एशिया पब्लिशिंग हाउस (1962); जी0 कैलेन: एलिमेंटरी पार्टिकल फिजिक्स, एडिसन बेजली कंपनी।(विश्वेश्वर दयाल)

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अन्य स्रोतों से




संदर्भ
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बाहरी कड़ियाँ
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