भागीरथी भारत की एक नदी है जो उत्तरांचल में से बहती है। भागीरथी नदी, पश्चिम बंगाल राज्य, पूर्वोत्तर भारत, गंगा नदी के डेल्टा की पश्चिमी सीमा का निर्माण करती है। गंगा की एक सहायक भागीरथी जंगीपुर के ठीक पूर्वोत्तर में इससे अलग होती है और 190 किमी के प्रवाह के बाद नबद्वीप में जलांगी से मिलकर हुगली नदी बनाती है। पौराणिक गाथाओं के अनुसार भागीरथी गंगा की उस शाखा को कहते हैं जो गढ़वाल (उत्तर प्रदेश) में गंगोत्री से निकलकर देवप्रयाग में अलकनंदा में मिल जाती है व गंगा का नाम प्राप्त करती है।
गंगा का एक नाम जिसका संबंध महाराज भागीरथ से है। महाभारत में भी भागीरथी गंगा का वर्णन पांडवों की तीर्थयात्रा के प्रसंग में हैं और बदरीनाथ का वर्णन भी है।
तत्रापश्यत् धर्मात्मा देव देवर्षिपूजितम्, नरनारायण-स्थानं भागीरथ्योपशोभितम्'
भागीरथी गोमुख स्थान से 25 कि.मी. लम्बे गंगोत्री हिमनद से निकलती है। यह समुद्रतल से 618 मीटर की ऊँचाई पर, ॠषिकेश से 70 किमी दूरी पर स्थित हैं।
16वीं शताब्दी तक भागीरथी में गंगा का मूल प्रवाह के बाद नबद्वीप में जलांगी से मिलकर हुगली नदी बनाती है। 16वीं शताब्दी तक भागीरथी में गंगा का मूल प्रवाह था, लेकिन इसके बाद गंगा का मुख्य बहाव पूर्व की ओर पद्मा में स्थानांतरित हो गया। इसके तट पर कभी बंगाल की राजधानी रहे मुर्शिदाबाद सहित बंगाल के कई महत्वपूर्ण मध्यकालीन नगर बसे। भारत में गंगा पर फ़रक्का बांध बनाया गया, ताकि गंगा-पद्मा नदी का कुछ पानी अपक्षय होती भागीरथी-हुगली नदी की ओर मोड़ा जा सके, जिस पर कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) पोर्ट कमिश्नर के कलकत्ता और हल्दिया बंदरगाह स्थित हैं। भागीरथी पर बहरामपुर में एक पुल बना है।
गंगोत्री से निकली भागीरथी मार्ग में अनेक छोटी-बड़ी नदियों को अपने में समेटती हुई जब देवप्रयाग पहुँचती है तो बहुत तेज गति से बहती है। लहरें उफन-उफन कर एक दूसरे से टकराती हैं। तूफ़ानी शोर के साथ भागीरथी का शुद्ध जल यहाँ बड़ी वेग से बहता हुआ श्वेत झाग सा बनाता है। भागीरथी यहाँ वास्तव में भागती हुई प्रतीत होती है। तेजी से दौड़ती-भागती, कूदती उफनती नदी, बहुत वेग, बहुत तेजी से अठखेलियाँ करती भागीरथी बहुत शानदार भव्य दृश्य प्रस्तुत करती है।
पहाड़ों के एक ओर तेज वेग से भागती दौड़ती भागीरथी चली आ रही है तो दूसरी ओर शांत अलकनंदा चली आ रही है जो कि शांत, शीतल, मंद-मंद गति और निरंतर गतिशील होकर बहती हुई भागीरथी में मिल जाती है।
देवप्रयाग में परस्पर मिलने से ठीक पहले भागीरथी अपनी तेज गति व तूफ़ानी अंदाज में अलकनंदा की ओर लपकती हैं। अलकनंदा भी भागीरथी की ओर मुड़ने से पहले रुक जाती है। आगे चलकर अलकनंदा भागीरथी में मिल जाती है। बड़ी सहजता व सरलता से दोनों नदियाँ आपस में मिल जाती है। ऊपरी तौर पर ऐसा लगता है कि दोनों ओर से आती नदियाँ मिलकर एक नदी बनती प्रतीत होती है। इस संगम से ही भागीरथी अपना नाम यहाँ खो देती है और यहाँ पर यह गंगा नदी बन जाती है।
भागीरथी नदी के सम्बन्ध में एक कथा विश्वविख्यात है। भागीरथ की तपस्या के फलस्वरुप गंगा के अवतरण की कथा है। कथा के अंत में गंगा के भागीरथी नाम का उल्लेख है-
गंगा त्रिपथगा नाम दिव्या भागीरथीति च त्रीन्पथो भावयन्तीति तस्मान् त्रिपथगा स्मृता
रोहित के कुल में बाहुक का जन्म हुआ। शत्रुओं ने उसका राज्य छीन लिया। वह अपनी पत्नी सहित वन चला गया। वन में बुढ़ापे के कारण उसकी मृत्यु हो गयी। उसके गुरु ओर्व ने उसकी पत्नी को सती नहीं होने दिया क्योंकि वह जानता था कि वह गर्भवती है। उसकी सौतों को ज्ञात हुआ तो उन्होंने उसे विष दे दिया। विष का गर्भ पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। बालक विष (गर) के साथ ही उत्पन्न हुआ, इसलिए 'स+गर= सगर कहलाया। बड़ा होने पर उसका विवाह दो रानियों से हुआ-
• सुमति- सुमति के गर्भ से एक तूंबा निकला जिसके फटने पर साठ हज़ार पुत्रों का जन्म हुआ।
• केशिनी- जिसके असमंजस नामक पुत्र हुआ।
सगर ने अश्वमेध यज्ञ किया। इन्द्र ने उसके यज्ञ का घोड़ा चुरा लिया तथा तपस्वी कपिल के पास ले जाकर खड़ा किया। उधर सगर ने सुमति के पुत्रों को घोड़ा ढूंढ़ने के लिए भेजा। साठ हज़ार राजकुमारों को कहीं घोड़ा नहीं मिला तो उन्होंने सब ओर से पृथ्वी खोद डाली। पूर्व-उत्तर दिशा में कपिल मुनि के पास घोड़ा देखकर उन्होंने शस्त्र उठाये और मुनि को बुरा-भला कहते हुए उधर बढ़े। फलस्वरूप उनके अपने ही शरीरों से आग निकली जिसने उन्हें भस्म कर दिया। केशिनी के पुत्र का नाम असमंजस तथा असमंजस के पुत्र का नाम अंशुमान था। असमंजस पूर्वजन्म में योगभ्रष्ट हो गया था, उसकी स्मृति खोयी नहीं थी, अत: वह सबसे विरक्त रह विचित्र कार्य करता रहा था। एक बार उसने बच्चों को सरयू में डाल दिया। पिता ने रुष्ट होकर उसे त्याग दिया। उसने अपने योगबल से बच्चों को जीवित कर दिया तथा स्वयं वन चला गया। यह देखकर सबको बहुत पश्चात्ताप हुआ। राजा सगर ने अपने पौत्र अंशुमान को घोड़ा खोजने भेजा। वह ढूंढ़ता-ढूंढ़ता कपिल मुनि के पास पहुंचा। उनके चरणों में प्रणाम कर उसने विनयपूर्वक स्तुति की। कपिल से प्रसन्न होकर उसे घोड़ा दे दिया तथा कहा कि भस्म हुए चाचाओं का उद्धार गंगाजल से होगा। अंशुमान ने जीवनपर्यंत तपस्या की किंतु वह गंगा को पृथ्वी पर नहीं ला पाया। तदनंतर उसके पुत्र दिलीप ने भी असफल तपस्या की। दिलीप के पुत्र भगीरथ के तप से प्रसन्न होकर गंगा ने पृथ्वी पर आना स्वीकार किया। गंगा के वेग को शिव ने अपनी जटाओं में संभाला। भगीरथ के पीछे-पीछे चलकर गंगा समुद्र तक पहुंची। भागीरथ के द्वारा गंगा को पृथ्वी पर लाने के कारण यह भागीरथी कहलाई। समुद्र-संगम पर पहुंचकर उसने सगर के पुत्रों का उद्धार किया।
गंगा का एक नाम जिसका संबंध महाराज भागीरथ से है। महाभारत में भी भागीरथी गंगा का वर्णन पांडवों की तीर्थयात्रा के प्रसंग में हैं और बदरीनाथ का वर्णन भी है।
तत्रापश्यत् धर्मात्मा देव देवर्षिपूजितम्, नरनारायण-स्थानं भागीरथ्योपशोभितम्'
स्थिति
भागीरथी गोमुख स्थान से 25 कि.मी. लम्बे गंगोत्री हिमनद से निकलती है। यह समुद्रतल से 618 मीटर की ऊँचाई पर, ॠषिकेश से 70 किमी दूरी पर स्थित हैं।
इतिहास
16वीं शताब्दी तक भागीरथी में गंगा का मूल प्रवाह के बाद नबद्वीप में जलांगी से मिलकर हुगली नदी बनाती है। 16वीं शताब्दी तक भागीरथी में गंगा का मूल प्रवाह था, लेकिन इसके बाद गंगा का मुख्य बहाव पूर्व की ओर पद्मा में स्थानांतरित हो गया। इसके तट पर कभी बंगाल की राजधानी रहे मुर्शिदाबाद सहित बंगाल के कई महत्वपूर्ण मध्यकालीन नगर बसे। भारत में गंगा पर फ़रक्का बांध बनाया गया, ताकि गंगा-पद्मा नदी का कुछ पानी अपक्षय होती भागीरथी-हुगली नदी की ओर मोड़ा जा सके, जिस पर कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) पोर्ट कमिश्नर के कलकत्ता और हल्दिया बंदरगाह स्थित हैं। भागीरथी पर बहरामपुर में एक पुल बना है।
देवप्रयाग में भागीरथी व अलकनंदा का संगम
भागीरथी का देवप्रयाग पहुँचना
गंगोत्री से निकली भागीरथी मार्ग में अनेक छोटी-बड़ी नदियों को अपने में समेटती हुई जब देवप्रयाग पहुँचती है तो बहुत तेज गति से बहती है। लहरें उफन-उफन कर एक दूसरे से टकराती हैं। तूफ़ानी शोर के साथ भागीरथी का शुद्ध जल यहाँ बड़ी वेग से बहता हुआ श्वेत झाग सा बनाता है। भागीरथी यहाँ वास्तव में भागती हुई प्रतीत होती है। तेजी से दौड़ती-भागती, कूदती उफनती नदी, बहुत वेग, बहुत तेजी से अठखेलियाँ करती भागीरथी बहुत शानदार भव्य दृश्य प्रस्तुत करती है।
अलकनंदा
पहाड़ों के एक ओर तेज वेग से भागती दौड़ती भागीरथी चली आ रही है तो दूसरी ओर शांत अलकनंदा चली आ रही है जो कि शांत, शीतल, मंद-मंद गति और निरंतर गतिशील होकर बहती हुई भागीरथी में मिल जाती है।
संगम
देवप्रयाग में परस्पर मिलने से ठीक पहले भागीरथी अपनी तेज गति व तूफ़ानी अंदाज में अलकनंदा की ओर लपकती हैं। अलकनंदा भी भागीरथी की ओर मुड़ने से पहले रुक जाती है। आगे चलकर अलकनंदा भागीरथी में मिल जाती है। बड़ी सहजता व सरलता से दोनों नदियाँ आपस में मिल जाती है। ऊपरी तौर पर ऐसा लगता है कि दोनों ओर से आती नदियाँ मिलकर एक नदी बनती प्रतीत होती है। इस संगम से ही भागीरथी अपना नाम यहाँ खो देती है और यहाँ पर यह गंगा नदी बन जाती है।
कथा
भागीरथी नदी के सम्बन्ध में एक कथा विश्वविख्यात है। भागीरथ की तपस्या के फलस्वरुप गंगा के अवतरण की कथा है। कथा के अंत में गंगा के भागीरथी नाम का उल्लेख है-
गंगा त्रिपथगा नाम दिव्या भागीरथीति च त्रीन्पथो भावयन्तीति तस्मान् त्रिपथगा स्मृता
रोहित के कुल में बाहुक का जन्म हुआ। शत्रुओं ने उसका राज्य छीन लिया। वह अपनी पत्नी सहित वन चला गया। वन में बुढ़ापे के कारण उसकी मृत्यु हो गयी। उसके गुरु ओर्व ने उसकी पत्नी को सती नहीं होने दिया क्योंकि वह जानता था कि वह गर्भवती है। उसकी सौतों को ज्ञात हुआ तो उन्होंने उसे विष दे दिया। विष का गर्भ पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। बालक विष (गर) के साथ ही उत्पन्न हुआ, इसलिए 'स+गर= सगर कहलाया। बड़ा होने पर उसका विवाह दो रानियों से हुआ-
• सुमति- सुमति के गर्भ से एक तूंबा निकला जिसके फटने पर साठ हज़ार पुत्रों का जन्म हुआ।
• केशिनी- जिसके असमंजस नामक पुत्र हुआ।
सगर ने अश्वमेध यज्ञ किया। इन्द्र ने उसके यज्ञ का घोड़ा चुरा लिया तथा तपस्वी कपिल के पास ले जाकर खड़ा किया। उधर सगर ने सुमति के पुत्रों को घोड़ा ढूंढ़ने के लिए भेजा। साठ हज़ार राजकुमारों को कहीं घोड़ा नहीं मिला तो उन्होंने सब ओर से पृथ्वी खोद डाली। पूर्व-उत्तर दिशा में कपिल मुनि के पास घोड़ा देखकर उन्होंने शस्त्र उठाये और मुनि को बुरा-भला कहते हुए उधर बढ़े। फलस्वरूप उनके अपने ही शरीरों से आग निकली जिसने उन्हें भस्म कर दिया। केशिनी के पुत्र का नाम असमंजस तथा असमंजस के पुत्र का नाम अंशुमान था। असमंजस पूर्वजन्म में योगभ्रष्ट हो गया था, उसकी स्मृति खोयी नहीं थी, अत: वह सबसे विरक्त रह विचित्र कार्य करता रहा था। एक बार उसने बच्चों को सरयू में डाल दिया। पिता ने रुष्ट होकर उसे त्याग दिया। उसने अपने योगबल से बच्चों को जीवित कर दिया तथा स्वयं वन चला गया। यह देखकर सबको बहुत पश्चात्ताप हुआ। राजा सगर ने अपने पौत्र अंशुमान को घोड़ा खोजने भेजा। वह ढूंढ़ता-ढूंढ़ता कपिल मुनि के पास पहुंचा। उनके चरणों में प्रणाम कर उसने विनयपूर्वक स्तुति की। कपिल से प्रसन्न होकर उसे घोड़ा दे दिया तथा कहा कि भस्म हुए चाचाओं का उद्धार गंगाजल से होगा। अंशुमान ने जीवनपर्यंत तपस्या की किंतु वह गंगा को पृथ्वी पर नहीं ला पाया। तदनंतर उसके पुत्र दिलीप ने भी असफल तपस्या की। दिलीप के पुत्र भगीरथ के तप से प्रसन्न होकर गंगा ने पृथ्वी पर आना स्वीकार किया। गंगा के वेग को शिव ने अपनी जटाओं में संभाला। भगीरथ के पीछे-पीछे चलकर गंगा समुद्र तक पहुंची। भागीरथ के द्वारा गंगा को पृथ्वी पर लाने के कारण यह भागीरथी कहलाई। समुद्र-संगम पर पहुंचकर उसने सगर के पुत्रों का उद्धार किया।
Hindi Title
भागीरथी नदी
विकिपीडिया से (Meaning from Wikipedia)
भागीरथी नदी
भागीरथी (बांग्ला - ভাগীরথী) भारत की एक नदी है। यह उत्तरांचल में से बहती है और देवप्रयाग में अलकनंदा से मिलकर गंगा नदी का निर्माण करती है। भागीरथी गोमुख स्थान से २५ कि.मी. लम्बे गंगोत्री हिमनद से निकलती है। भागीरथी व अलकनन्दा देव प्रयाग संगम करती है जिसके पश्चात वह गंगा के रुप में पहचानी जाती है।
अन्य स्रोतों से
जानिए, भागीरथी नदी गंगा कैसे बनती है?
कई पौराणिक गाथाओं से जुड़ा देवप्रयाग वह मनोरम तीर्थस्थल है जहां भगीरथी नदी अलकनंदा से मिलकर गंगा का नाम पहली बार प्राप्त करती है। समुद्रतल से 618 मीटर की ऊंचाई पर, ऋषिकेष से 70 किमी दूरी पर स्थित देवप्रयाग से ही गंगा नदी अपना यह विश्वविख्यात नाम प्राप्त करती है।
ऋषिकेश से देवप्रयाग तक की सड़क गंगा नदी के साथ-साथ चलने के कारण रमणीक है। पर प्रस्तावित बांध निर्माण कार्यों के कारण आने वाले दिनों में इस सुंदर प्राकृतिक अंचल में भी बहुत उथल-पुथल हो सकती है, जैसा कि कुछ हद तक आज भी पत्थर तोड़ने के कारण हो रही है। इस क्षेत्र की सुंदरता व नदी के पहाड़ी बहाव को ध्यान में रखते हुए शिवपुरी व कोडियाल जैसे स्थानों को रफ्टिंग या नौका-विहार केंद्र के रूप में चुना गया है। नदी किनारे कुछ कैंप भी लगाए गए हैं।
पर इस क्षेत्र में पर्यटकों व तीर्थयात्रियों के लिए सबसे सुंदर स्थल तो भगीरथी व अलकनंदा का संगम स्थल ही है जो देवप्रयाग का एक छोटा पहाड़ी नगर है जहां जगह-जगह से ये नदियां दिखाई देती हैं।गंगोत्री से निकली भगीरथी मार्ग में अनेक छोटी-बड़ी नदियों को अपने में समेटती हुई जब देवप्रयाग पहुंचती है तो बहुत तेज गति से बहती है। लहरें उफन-उफन कर एक दूसरे से टकराती हैं। तूफानी शोर के साथ भगीरथी का शुध्द शीतल जल यहां बड़ी वेग से बहता हुआ श्वेत झाग सा बनाता है। भगीरथी यहां वास्तव में भागती हुई प्रतीतहोती है। तेजी से दौड़ती-भागती, कूदती उफनती नदी, मानो उसे बहुत जल्दी है। बहुत वेग, बहुत तेज है उसमें। अठखेलियां करती भगीरथी बहुत शानदार भव्य दृश्य प्रस्तुत करती है।
पहाड़ों के एक ओर यों तेज वेग से भागती दौड़ती भगीरथी चली आ रही है तो दूसरी ओर बिल्कुल अलग ही दृश्य है। दूसरी ओर शांत अलकनंदा चली आ रही है। शांत, शीतल, अपेक्षाकृत मंद गति। गति में एक किस्म की स्थिरता, संतुलन। गहराई में बैठा संतोष का- सा अहसास। मंद-मंद बहना, पर निरंतर गतिशील। मन को शांति, संतोष देने वाली छवि।देवप्रयाग में परस्पर मिलने से ठीक पहले भगीरथी अपनी तेज गति और तूफानी अंदाज से जुटी विशाल जलराशि को विस्तृत बिखेर देती है और उसकी लहरें अलकनंदा की ओर लपकती हैं। अलकनंदा ने भी भगीरथी की ओर मुड़ने से पहले मानो ठिठक कर भगीरथी के तेज वेग, जोश को देखा है। इससे उसमें भी उत्साह पैदा हुआ है। अपने भीतर से उसने हिम्मत जुटाई है। नई स्फूर्ति का संचार हुआ है उसमें। उसे भी तो आगे बढ़ने के लिए प्रयास करना होगा। अपनी मूल प्रकृति, संतुलन, गहराई में छिपी स्थिरता न खोते हुए भी उसने मुड़कर अपनी गति को बढ़ाया है। उमंग से आगे बढ़ी है अलकनंदा भगीरथी की ओर।
इतनी तैयारी के बाद, दो अलग-अलग स्वभावों के परस्पर मेल के लिए व्यापक होने के प्रयासों के बाद यह संगम बिना किसी तामझाम के बहुत ही सहज रूप में हो जाता है। संगम की यह सहजता-सरलता ही इसे विशेष बनाती हैं। बड़े प्रेम से, बड़ी सहजता से दोनों नदियां, उनकी लहरें एक-दूसरे से मिलती हैं। एक-दूसरे का स्वागत करती हैं, गले मिलती हैं। सहज रूप से परस्पर घुल-मिल जाती हैं। यह मिलना इतना सहज है कि ध्यान से देखने पर ही नजर में आता है। ऊपरी तौर पर देखें तो दोनों ओर से आती नदियां मिलकर एक बनती ही प्रतीत होती हैं। इस संगम से ही भगीरथी अपना नाम यहां खो देती है और बन जाती है गंगा। अलकनंदा की जलराशि अपनी शांति, अपना धैर्य बड़े गरिमामय ढंग से फैलाती है। फिर पहाड़ी चट्टानें उनके लिए संकरा मार्ग तैयार कर उन्हें और अधिक घुलने-मिलने का मौका देती हैं। जल्द ही दोनों भली-भांति घुल-मिलकर एक हो जाती हैं। गंगा बन जाती हैं।
भागीरथी का गंगा बनना, यंगउत्तराखंड.कॉम से
कई पौराणिक गाथाओं से जुड़ा देवप्रयाग वह मनोरम तीर्थस्थल है जहां भगीरथी नदी अलकनंदा से मिलकर गंगा का नाम पहली बार प्राप्त करती है। समुद्रतल से 618 मीटर की ऊंचाई पर, ऋषिकेष से 70 किमी दूरी पर स्थित देवप्रयाग से ही गंगा नदी अपना यह विश्वविख्यात नाम प्राप्त करती है।
ऋषिकेश से देवप्रयाग तक की सड़क गंगा नदी के साथ-साथ चलने के कारण रमणीक है। पर प्रस्तावित बांध निर्माण कार्यों के कारण आने वाले दिनों में इस सुंदर प्राकृतिक अंचल में भी बहुत उथल-पुथल हो सकती है, जैसा कि कुछ हद तक आज भी पत्थर तोड़ने के कारण हो रही है। इस क्षेत्र की सुंदरता व नदी के पहाड़ी बहाव को ध्यान में रखते हुए शिवपुरी व कोडियाल जैसे स्थानों को रफ्टिंग या नौका-विहार केंद्र के रूप में चुना गया है। नदी किनारे कुछ कैंप भी लगाए गए हैं।
पर इस क्षेत्र में पर्यटकों व तीर्थयात्रियों के लिए सबसे सुंदर स्थल तो भगीरथी व अलकनंदा का संगम स्थल ही है जो देवप्रयाग का एक छोटा पहाड़ी नगर है जहां जगह-जगह से ये नदियां दिखाई देती हैं।गंगोत्री से निकली भगीरथी मार्ग में अनेक छोटी-बड़ी नदियों को अपने में समेटती हुई जब देवप्रयाग पहुंचती है तो बहुत तेज गति से बहती है। लहरें उफन-उफन कर एक दूसरे से टकराती हैं। तूफानी शोर के साथ भगीरथी का शुध्द शीतल जल यहां बड़ी वेग से बहता हुआ श्वेत झाग सा बनाता है। भगीरथी यहां वास्तव में भागती हुई प्रतीतहोती है। तेजी से दौड़ती-भागती, कूदती उफनती नदी, मानो उसे बहुत जल्दी है। बहुत वेग, बहुत तेज है उसमें। अठखेलियां करती भगीरथी बहुत शानदार भव्य दृश्य प्रस्तुत करती है।
पहाड़ों के एक ओर यों तेज वेग से भागती दौड़ती भगीरथी चली आ रही है तो दूसरी ओर बिल्कुल अलग ही दृश्य है। दूसरी ओर शांत अलकनंदा चली आ रही है। शांत, शीतल, अपेक्षाकृत मंद गति। गति में एक किस्म की स्थिरता, संतुलन। गहराई में बैठा संतोष का- सा अहसास। मंद-मंद बहना, पर निरंतर गतिशील। मन को शांति, संतोष देने वाली छवि।देवप्रयाग में परस्पर मिलने से ठीक पहले भगीरथी अपनी तेज गति और तूफानी अंदाज से जुटी विशाल जलराशि को विस्तृत बिखेर देती है और उसकी लहरें अलकनंदा की ओर लपकती हैं। अलकनंदा ने भी भगीरथी की ओर मुड़ने से पहले मानो ठिठक कर भगीरथी के तेज वेग, जोश को देखा है। इससे उसमें भी उत्साह पैदा हुआ है। अपने भीतर से उसने हिम्मत जुटाई है। नई स्फूर्ति का संचार हुआ है उसमें। उसे भी तो आगे बढ़ने के लिए प्रयास करना होगा। अपनी मूल प्रकृति, संतुलन, गहराई में छिपी स्थिरता न खोते हुए भी उसने मुड़कर अपनी गति को बढ़ाया है। उमंग से आगे बढ़ी है अलकनंदा भगीरथी की ओर।
इतनी तैयारी के बाद, दो अलग-अलग स्वभावों के परस्पर मेल के लिए व्यापक होने के प्रयासों के बाद यह संगम बिना किसी तामझाम के बहुत ही सहज रूप में हो जाता है। संगम की यह सहजता-सरलता ही इसे विशेष बनाती हैं। बड़े प्रेम से, बड़ी सहजता से दोनों नदियां, उनकी लहरें एक-दूसरे से मिलती हैं। एक-दूसरे का स्वागत करती हैं, गले मिलती हैं। सहज रूप से परस्पर घुल-मिल जाती हैं। यह मिलना इतना सहज है कि ध्यान से देखने पर ही नजर में आता है। ऊपरी तौर पर देखें तो दोनों ओर से आती नदियां मिलकर एक बनती ही प्रतीत होती हैं। इस संगम से ही भगीरथी अपना नाम यहां खो देती है और बन जाती है गंगा। अलकनंदा की जलराशि अपनी शांति, अपना धैर्य बड़े गरिमामय ढंग से फैलाती है। फिर पहाड़ी चट्टानें उनके लिए संकरा मार्ग तैयार कर उन्हें और अधिक घुलने-मिलने का मौका देती हैं। जल्द ही दोनों भली-भांति घुल-मिलकर एक हो जाती हैं। गंगा बन जाती हैं।