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कल्पतरु एक्सप्रेस, 20 जून 2014
प्यारे मानूसन, अच्छे मानसून, तुम कब आओगे? अब और अधिक देर न करो जल्द आ जाओ। इस समय हमें तुम्हारी जरूरत है। हमारी हर सुबह इसी उम्मीद के साथ होती है कि तुम आज आओगे और धरती पर बरसकर सूरज चचा के ताप से मुक्ति दिलाओगे।
प्यारे मानसून, मैं जानता हूं तुम बहुत ‘शक्तिशाली’ हो। सूरज, गर्मी, पारा, बत्ती ये सभी तुमसे पनाह मांगते हैं। तुम पर किसी का बस नहीं... तुम नहीं जानते, सूरज चचा ने अपने ताप से धरती पर कैसा ‘कहर’ बरपाया हुआ है। सूरज चचा न दिन में चैन लेने दे रहे हैं, न रात को चैन से सोने दे रहे हैं। आंख खुलते ही सुबह-सुबह छत पर टंगे मिलते हैं। न जाने किस जन्म का बदला चचा सूरज हमसे ले रहे हैं?
प्यारे मानसून, मैं जानता हूं तुम बहुत ‘शक्तिशाली’ हो। सूरज, गर्मी, पारा, बत्ती ये सभी तुमसे पनाह मांगते हैं। तुम्हारे आगे किसी का बस नहीं चलता। एक दफा अगर तुम शुरू हो गए तो फिर किसी के रोके नहीं रुकते। पिछले कई सालों से हम तुम्हारे विकट रूप को देख चुके हैं।
इस समय गर्मी के मारे हमारा जो हाल है, उसे केवल तुम्हीं संवार-संभाल सकते हो। पारा है कि 46-47 से नीचे उतरने का नाम ही नहीं लेता। गर्मी का असर इत्ता है कि मेरी कमीज से लेकर टैंक के पानी तक सब कुछ उबला हुआ लगता है। उबले पानी में हाथ डालने में डर लगता है कि कहीं झुलस न जाएं।
आंख उठाकर आसमान की तरफ देखने की हिम्मत नहीं होती। सूरज चचा तुरंत अपनी किरणों के तीर छोड़ देते हैं। गर्मी, पारे को झेलने के साथ-साथ बत्ती के तीखे नखरों को भी बर्दाश्त कर रहे हैं। क्या करें, बिन बत्ती या तो हाथ-पंखा झलते रहते हैं या फिर बदन पर से कपड़ों को हटा ऐसे ही बैठ जाते हैं।
अव्वल तो हवा चल ही नहीं रही, जो चल रही है, वह गर्म इस कदर है कि सिर भन्ना जाता है। बत्ती न आने की शिकायत जाने कित्ती दफा बत्तीघर वालों से की मगर वे कहते हैं, हमारे हाथ में कुछ नहीं, सब ऊपर वालो के हाथ है। ऊपर वाले हैं कि कुछ सुनने-समझने को तैयार ही नहीं। टका-सा जवाब दे देते हैं, उत्पादन घट गया है, तो हम क्या करें? मार हर जगह, हर तरीके से पड़ रही है। और हम मार खाने को ‘अभिशप्त’ हैं।
प्यारे मानसून, अब तुम ही हमारी ‘अंतिम उम्मीद’ हो। सारी निगाहें बस तुम्हीं पर टिकी हैं। हम धरतीवासी तरस रहे हैं, तुम्हारी फुहार में भीग जाने को। पर खबर में ऐसा सुना है कि इस दफा तुम सामान्य से कम बरसोगे। शायद अभी केरल में कहीं अटके हुए हो। लेकिन वहां भी अभी उस तरह नहीं बरस पाए हो।
यार, ऐसा न करो। कुछ तो हमारा ख्याल करो। गर्मी ने हालत खराब कर रखी है। ज्यादा हालत खराब हो गई तो कहीं ऊपर जाने का टिकट न कटवाना पड़ जाए। इसीलिए माई डियर मानसून, तुम बिना रुके, बिना अटके हमारे यहां आ जाओ। कम से कम अभी इतना तो बरस ही जाओ कि हम पारे के दंश से कुछ तो उभर सकें। दिन में न सही कम से कम रात में तो चैन की नींद ले सकें।
गर्म हवा ठंडी हवा का एहसास देने लगे। तुम बरसोगे तो बत्तीवाले भी हम पर थोड़ा मेहरबान रहेंगे। बेवजह न हम उन पर, न वे हम पर झल्लाएंगे।
तुम्हारी खातिर मैं हर तरह का टोना-टोटका करने को तैयार हूं। अपने सिर के बाल तक मुंडवा सकता हूं। गर्म धरती पर दो-चार किलोमीटर पैदल भी चल सकता हूं। आज तक कभी भगवान के द्वार पर नहीं गया, पर तुम्हारी खातिर वहां भी जा सकता हूं। इत्ती सिफारिश के बाद, उम्मीद है, तुम ‘निराश’ न करोगे और बहुत जल्द हमारे द्वार पर दस्तक दोगे।
ज्यादा इतराओ नहीं प्यारे मानसून, अब आ भी जाओ।
प्यारे मानसून, मैं जानता हूं तुम बहुत ‘शक्तिशाली’ हो। सूरज, गर्मी, पारा, बत्ती ये सभी तुमसे पनाह मांगते हैं। तुम पर किसी का बस नहीं... तुम नहीं जानते, सूरज चचा ने अपने ताप से धरती पर कैसा ‘कहर’ बरपाया हुआ है। सूरज चचा न दिन में चैन लेने दे रहे हैं, न रात को चैन से सोने दे रहे हैं। आंख खुलते ही सुबह-सुबह छत पर टंगे मिलते हैं। न जाने किस जन्म का बदला चचा सूरज हमसे ले रहे हैं?
प्यारे मानसून, मैं जानता हूं तुम बहुत ‘शक्तिशाली’ हो। सूरज, गर्मी, पारा, बत्ती ये सभी तुमसे पनाह मांगते हैं। तुम्हारे आगे किसी का बस नहीं चलता। एक दफा अगर तुम शुरू हो गए तो फिर किसी के रोके नहीं रुकते। पिछले कई सालों से हम तुम्हारे विकट रूप को देख चुके हैं।
इस समय गर्मी के मारे हमारा जो हाल है, उसे केवल तुम्हीं संवार-संभाल सकते हो। पारा है कि 46-47 से नीचे उतरने का नाम ही नहीं लेता। गर्मी का असर इत्ता है कि मेरी कमीज से लेकर टैंक के पानी तक सब कुछ उबला हुआ लगता है। उबले पानी में हाथ डालने में डर लगता है कि कहीं झुलस न जाएं।
आंख उठाकर आसमान की तरफ देखने की हिम्मत नहीं होती। सूरज चचा तुरंत अपनी किरणों के तीर छोड़ देते हैं। गर्मी, पारे को झेलने के साथ-साथ बत्ती के तीखे नखरों को भी बर्दाश्त कर रहे हैं। क्या करें, बिन बत्ती या तो हाथ-पंखा झलते रहते हैं या फिर बदन पर से कपड़ों को हटा ऐसे ही बैठ जाते हैं।
अव्वल तो हवा चल ही नहीं रही, जो चल रही है, वह गर्म इस कदर है कि सिर भन्ना जाता है। बत्ती न आने की शिकायत जाने कित्ती दफा बत्तीघर वालों से की मगर वे कहते हैं, हमारे हाथ में कुछ नहीं, सब ऊपर वालो के हाथ है। ऊपर वाले हैं कि कुछ सुनने-समझने को तैयार ही नहीं। टका-सा जवाब दे देते हैं, उत्पादन घट गया है, तो हम क्या करें? मार हर जगह, हर तरीके से पड़ रही है। और हम मार खाने को ‘अभिशप्त’ हैं।
प्यारे मानसून, अब तुम ही हमारी ‘अंतिम उम्मीद’ हो। सारी निगाहें बस तुम्हीं पर टिकी हैं। हम धरतीवासी तरस रहे हैं, तुम्हारी फुहार में भीग जाने को। पर खबर में ऐसा सुना है कि इस दफा तुम सामान्य से कम बरसोगे। शायद अभी केरल में कहीं अटके हुए हो। लेकिन वहां भी अभी उस तरह नहीं बरस पाए हो।
यार, ऐसा न करो। कुछ तो हमारा ख्याल करो। गर्मी ने हालत खराब कर रखी है। ज्यादा हालत खराब हो गई तो कहीं ऊपर जाने का टिकट न कटवाना पड़ जाए। इसीलिए माई डियर मानसून, तुम बिना रुके, बिना अटके हमारे यहां आ जाओ। कम से कम अभी इतना तो बरस ही जाओ कि हम पारे के दंश से कुछ तो उभर सकें। दिन में न सही कम से कम रात में तो चैन की नींद ले सकें।
गर्म हवा ठंडी हवा का एहसास देने लगे। तुम बरसोगे तो बत्तीवाले भी हम पर थोड़ा मेहरबान रहेंगे। बेवजह न हम उन पर, न वे हम पर झल्लाएंगे।
तुम्हारी खातिर मैं हर तरह का टोना-टोटका करने को तैयार हूं। अपने सिर के बाल तक मुंडवा सकता हूं। गर्म धरती पर दो-चार किलोमीटर पैदल भी चल सकता हूं। आज तक कभी भगवान के द्वार पर नहीं गया, पर तुम्हारी खातिर वहां भी जा सकता हूं। इत्ती सिफारिश के बाद, उम्मीद है, तुम ‘निराश’ न करोगे और बहुत जल्द हमारे द्वार पर दस्तक दोगे।
ज्यादा इतराओ नहीं प्यारे मानसून, अब आ भी जाओ।