भू-रसायन (Geo-chemistry)

Submitted by Hindi on Sat, 07/23/2011 - 15:14
प्रफुल्ल कुमार पारिख
पूर्णत: पृथ्वी तथा उसके अवयवों के रसायन से संबंधित विज्ञान को कहते हैं। भू रसायन पृथ्वी में रासायनिक तत्वों के आकाश तथा काल में वितरण तथा अभिगमन के कार्य से संबंद्ध है। नवीन खोजों की ओर अग्रसर होते हुए कुछ भू-विज्ञानियों तथा रसायनों ने नूतन विज्ञान भू-रसायन को जन्म दिया। यद्यपि भू-रसायन ने इसी शताब्दी में विशेष प्रगति की है, तथापि भू-रसायन की धारणा बहुत प्राचीन है। शब्द भू-रसायन सर्वप्रथम सन्‌ 1838 में स्विस रसायनज्ञ शनबाइन (Schonbeln) द्वारा प्रकाश में आया।

अमरीका वैज्ञानिक क्लार्क (Clarke) ने अपनी पुस्तक, 'दि डेटा ऑव जिओकेमेस्ट्री' (1924 ई.), में इस विषय की परिमित व्याख्या की है। उसमें कहा गया है कि वर्तमान उद्देश्यों के लिये प्रत्येक चट्टान एक रासायनिक पद्धति मानी जा सकती है। इसमें विभिन्न साधनों द्वारा रासायनिक परिवर्तन भी लाया जा सकता है। ऐसे परिवर्तन नई पद्धति के निर्माण के साथ अंत में संतुलन के विक्षोभ को सूचित करते हैं। नई स्थिति में यह नई पद्धति स्थायी होती है। इन परिवर्तनों का अध्ययन भू-रसायन का क्षेत्र है। यह निश्चय करना कि क्या परिवर्तन संभव हंप कैसे और कब वे होते हैं, उन घटनाओं का निरीक्षण करना जो उक्त परिवर्तनों में होती हैं तथा उनके अंतिम परिणामों को लेखनीबद्ध करना ही भूरसायनज्ञ के कार्य है। सन्‌ 1954 में वी. एम. गोल्डस्मिथ ने जो आधुनिक भू-रसायन के पिता कहे जाते हैं, भू-रसायन के प्राथिमक उद्देश्य जहाँ एक ओर पृथ्वी तथा उसके भागों का मात्रात्मक संघटन ज्ञात करना है, वहीं दूसरी ओर विशेष (individual) तत्वो के वितरण पर नियंत्रण रखनेवाले नियमों का पता लगाना भी है। इन समस्याओं के हल के लिये एक भू-रसायनज्ञ को स्थलीय पदार्थ, जेसे चट्टान, जल, वायुमंडल इत्यादि के विश्लेषणत्मक आँकड़ों के व्यापक संग्रह की आवश्यकता पड़ती है। भू-रसायनज्ञ उल्कापिडों के विश्लेषण, अन्य अंतरिक्ष पिंडों के संघटन पर खगोल भौतिकीय आँकड़ों और भूगर्भ के स्वरूप पर भूभौतिकीय आँकड़ों का भी उपयोग करता है।

उक्त तथ्यों के संदर्भ में भू-रसायन के तीन मुख्य उद्देश्य निश्चित किए जा सकते हैं।

(1) पृथ्वी में तत्वों और पारमाण्वीय जाति (atomic species, समस्थानिक, isotopes) के सापेक्ष तथा निपेक्ष बाहुल्य को ज्ञात करना।

(2) पृथ्वी के विभिन्न भागों, जैसे वायुमंडल, जलमंडल, भूपर्पटी इत्यादि, खनिजों, चट्टानों और विभिन्न प्राकृतिक वस्तु से बने भू-रासायनिक चक्रमंडल में विशेष तत्वों के वितरण तथा अभिगमन का अध्ययन करना।

तथा (3) तत्वों के बाहुल्य संबंधों, वितरण और अभिगमन को नियंत्रित करनेवाले नियमों को खोजना तथा पृथ्वी के रासायनिक उद्भव के बारे में भी ज्ञान प्राप्त करना।

अपने इतने विशाल क्षेत्र के कारण यह शास्त्र विज्ञान की अन्य मौलिक शाखाओं की कोटि में आ जाता है। समस्थानिक तथा पारमाणविक जातियों के अध्ययन और विश्व में उनकी स्थिरता भी इसी विज्ञान की सीमा में आती है।

यद्यपि यह विज्ञान नित्य नए प्रयोगों द्वारा अपने को स्थापित कर रहा है, तथापि पृथ्वी के रसायन संबंधी स्वायत्त अनुशासन की धारणा अत्यंत प्राचीन है। स्विस रसायनज्ञ शनबाइन द्वारा सन्‌ 1838 में भू-रसायन शब्द प्रकाश में आने के बाद डबेराइनर (Dobereiner) द्वारा प्रथम बार तत्वों के बाहुल्य का अनुमान लगाया गया। मुख्यतया चट्टानों और खनिजों संबंधी महत्वपूर्ण आँकड़ों का पता बरजीतलयस तथा स्वीड्न स्थित उसें विद्यालय द्वारा सन्‌ 1850 में ही लग गया था। इन आँकड़ों के संपादन तथा व्याख्या करने का प्रथम प्रयास जर्मन भूविज्ञानी तथा रसायज्ञ बिशॉफ (Bischof) ने अपनी पुस्तक 'लेयरबुख डेर फिजीकलाइशेन उंड केमीशेन जिओलागी' (Lehrbuch der physikalischen und chemischen Geologie, (प्रथम प्रकाशन 1847-1854 ई.) में किया।

यह पुस्तक काफी समय तक प्रामाणिक बनी रही, परंतु शताब्दी के अंत में इसका स्थान रोथ (Roth) की पुस्तक 'ऐल्गैमाइने उंड केमिशे जिओलागी' (Allgemeine und chemische Geologie, (प्रकाशन 1878-1883 ई.) ने लिया। संपूर्ण 19वीं सदी में प्राप्त आँकड़े पृथ्वीतल पर मानव पहुँच के भीतर की विभिन्न इकाइयों, जैसे खनिज चट्टान, प्राकृतिक जल तथा गैसों के विश्लेषण द्वारा तथा भौमिकीय और खनिज खोजों के उपोत्पादक हैं। बहुत वर्षों तक यह विज्ञान यूरोप तक ही सीमित रहा, परंतु 1884 ई. में अमरीका में वहाँ के भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण की स्थापना के बाद तथा क्लार्क (Clarke) की वहाँ पर मुख्य रासायनज्ञ के रूप में नियुक्ति के पश्चात्‌, अमरीका में भी इस विषय पर अनुसंधान शुरू हुआ। सर्वेक्षण में भू-रासायनिक अनुभाग की अपनी अलग सत्ता मानी जाती है।

क्लार्क की 'दि डेटा ऑव जिओकेमेस्ट्री' (1925 ई.) का अंतिम संस्करण पूरे युग का अंत करता है। गत 100 वर्ष में भू-रसायन अनुसंधान के नाम पर पृथ्वी के केवल कुछ हिस्सों की, जो रसायन अनुसंधान के नाम पर पृथ्वी के केवल कुछ हिस्सों की, जो दृष्टि की पहुंच के भीतर हैं, रासायनिक जाँच की गई। इस प्रकार के अनुसंधान से वस्तुओं के बारे में कुछ और जान लिया गया है, परंतु इसकी दर्शन मीमांसा प्रस्तुत करने के लिये इसे मौलिक विज्ञान, जैसे भौतिकी या रसायन, की प्रगति पर आश्रित होना पड़ा। उदाहरण सरूप सिलिकेट खनिजों की भूरासायनिक मीमांसा तब तक भली भाँति नहीं हो सकी, जब तक एक्सकिरण विवर्तन (X-ray diffraction) के आविष्कार ने ठोसों की पारमाणविक बनावट ज्ञात करने के साधन नहीं बता दिए। कारनेगी इंस्टिट्यूशन (Carnegie Institution), वाशिंगटन, की भूभौतिकीय प्रयोगशाला की स्थापना से भूरसायन को नई दिशा में प्रगति करने मंन काफी सहायता मिली। जे. एच. एल. फोग्ट (J.H.L. Vogt) तथा डबल्यू. सी. ब्रौगेर (W.C. Brogger) की देखरेख में भूरसायन का एक नया केंद्र नार्वे में प्रगति कर रहा था। सन्‌ 1912 भू-रसायन के इतिहास में गौरवमय वर्ष रहा है। इसी वर्ष प्रसिद्ध भूरासायनिक फान लाए (Von Lave) ने दिखलाया कि क्रिस्टल में से जब एक्स किरण गुजारी जाती है,तो क्रिस्टल के अंदर के परमाणुओं का क्रमिक विन्यास विवर्तन ग्रेटिंग (diffraction grating) के रूप में कार्य करता है और इस तरह उन्होंने ठोस पदार्थों की पारमाणविक संरचना संबंधित खोज की।

सन्‌ 1917 से सोवियत रूस में भू-रसायन की जो प्रगति हुई है, उसका श्रेय रूसी वैज्ञानिक वी. आई. वरनैड्स्की (V.I. Vernadsky) तथा उनके यूवा सहयोगी ए.ई. फर्समैन (A.E. Fersman) मिलना चाहिए। इस विषय को दृढ़ आधार देने के वैज्ञनिकों के बहुमूलल्य प्रयत्नों के पश्चात्‌ भी, यह कार्य उस महान्‌ वैज्ञानिक के कंधें पर आ पड़ा जिसका नाम भू-रसायन के इतिहास से अलग नहीं किया जा सकता है और वे हैं आधुनिक भू-रसायन के पिता एवं प्रवर्तक बी. एम. गोल्डश्मिट (V.M. Goldsmidt)। उनके अथक और मार्गदर्शी अनुसंधान ने, जो उन्होंने ऑस्लो और गटिंगेन में किया, इस उगते हुए अंकुर को सींचा है।

भारत में इस विषय पर कार्य सर्वप्रथम काशी हिंदू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर कृष्णकुमार माथुर तथा सर शांतिस्वरूप भटनागर द्वारा किया गया। इन लोगों ने मिलर जर्मन भाषा में, 1922 ई. में प्रथम बार, अपने परिणामों को एक लेख 'स्टुडियन युबैर बेंडस्ट्रक्ट्रेन सिंथेसेस गैबैंडेर्स्टाइने' के रूप में प्रकाशित करवाया। सन्‌ 1922 से 1926 ई. तक में प्रो. माथुर ने गिरनार पहाड़ी की चट्टानों की भू-रासायनिक समीक्षा की। सन्‌ 1926 में जब वे 'इंडियन सायंस काँग्रेस' के भौतिकी विभाग के अध्यक्ष हुए, तब उन्होंने भू-रसायन का भौतिकी की अन्य शाखाओं से संबंध बतलाते हुए इसके महत्व पर जोर दिया। उनके आकस्मिक निधन के बाद इस शाखा पर सर भटनागर तथा डाक्टर झिंगरन द्वारा कार्य किया गया। संप्रति पटना विश्वविद्यालय के भौमिकी विभाग के प्राध्यापक तथा अध्यक्ष, डा. रामचंद्र सिन्हा, भारत के प्रामाणिक भू-रसायनज्ञ माने जाते हैं।

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संदर्भ
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