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डॉ. दिनेश कुमार मिश्र की पुस्तक 'दुइ पाटन के बीच में'
राजस्थान में मूल और स्थाई समस्या सूखे या अकाल की है, बाढ़ की नहीं। यह सच है कि 20 वर्ष के अन्तराल पर आई इस बाढ़ से निबटने और बाढ़ संबंधी चेतना विकास के लिए होने वाली गोष्ठियों में लोग आते नहीं थे क्योंकि वहाँ बाढ़ 20 साल या उससे भी अधिक अंतराल पर आती है। हमारी मान्यता है कि बिहार में भी भूकम्प पर पाठ पढ़ने के लिए लोग उतने उत्साहित कभी नहीं होंगे जितना कि वह बाढ़ या सूखे की समस्या के प्रति आग्रही होंगे। प्रस्तावित बराहक्षेत्र बांध की साइट हिमालय के भूकम्प प्रवण क्षेत्र में पड़ती है जहाँ इस तरह की संरचनाओं के निर्माण को अच्छा और सुरक्षित नहीं माना जाता। 1954 में जब बराहक्षेत्र बांध के प्रस्ताव को खारिज कर के तटबन्धों के निर्माण को मंजूरी दी गई थी तब बराहक्षेत्र के भूकम्प प्रवण इलाके में होने की ही दलील दी गई थी (अध्याय 2, खण्ड 2.29)। इधर कुछ वर्षों में जापान और इटली में कई बांधों का निर्माण भूकम्प प्रवण क्षेत्रों में किया गया है जिनकी नजीर राजनीतिज्ञ और इंजीनियर देते हैं और यह कहते हैं कि यह मसला उतना गंभीर नहीं है। फिर भी भूकम्प प्रवण क्षेत्रों में बांध निर्माण के लिए विशेषज्ञों की निर्णायक स्वीकृति अभी तक नहीं मिली है और बहस जारी है।
दिलचस्प मसला यह है कि बिहार सरकार और यू. एन. डी. पी. के बीच 2002 में बाढ़ों का आपदा के तौर पर मुकाबला करने और बाढ़ समस्या का बेहतर प्रबन्धन करने के लिए एक समझौता हुआ। बाढ़ के समय आपदा प्रबन्धन के लिए सुपौल, मधुबनी, सीतामढ़ी, मुजफ्फरपुर और खगड़िया जिलों को चुना गया। आपदा प्रबन्धन के लिए चेतना विकास यू. एन. डी. पी. और बिहार सरकार के इस साझा कार्यक्रम का एक महत्वपूर्ण अंग है। बिहार सरकार के राहत और पुनर्वास विभाग की वार्षिक रिपोर्ट (2003/2004) इस सहयोग पर विस्तृत रूप से चर्चा करती है मगर इसे पढ़ने के बाद ऐसा लगता है कि बिहार में विपत्ति के तौर पर मुख्य समस्या भूकम्प की है, बाढ़ की नहीं। जाहिर है कि 2000 में गुजरात के कच्छ क्षेत्र में आये भूकम्प और वहाँ काम करने वाली बहुत सी सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं के प्रचार-प्रसार ने कार्यक्रम की प्राथमिकताएं तय करने में अपनी छाप छोड़ी है।
इस कार्यक्रम के तहत पूरे प्रान्त में जगह-जगह पर भूकम्प और उससे बचाव को लेकर कार्यशालाएं आयोजित हुई हैं मगर जैसी सूचनाएँ मिलती हैं उनके अनुसार कहीं भी नेपाल में इन प्रस्तावित बांधों पर भूकम्प के पड़ने वाले प्रभाव की चर्चा नहीं हुई। इन गोष्ठियों और कार्यशालाओं में कभी तो नेपाल में प्रस्तावित बांधों के दुष्प्रभाव पर चिन्ता व्यक्त की जानी चाहिये थी मगर ऐसा लगता है कि कोशिश इस बात की हो रही है कि लोग अपने घरों का निर्माण आने वाले भूकम्प को ध्यान में रख कर करें और बांधों पर भूकम्प के प्रभाव और बाढ़ को भूल जायें। हिमालय में बांध निर्माण के कारण भूकम्पों की बढ़ती संभावनाओं पर भी इन गोष्ठियों में कोई बात नहीं होती है। इस पृष्ठभूमि में 1996 में राजस्थान में अलवर तथा भरतपुर में आई बाढ़ का जायजा ले लेना बेहतर होगा। राजस्थान में मूल और स्थाई समस्या सूखे या अकाल की है, बाढ़ की नहीं। यह सच है कि 20 वर्ष के अन्तराल पर आई इस बाढ़ से निबटने और बाढ़ संबंधी चेतना विकास के लिए होने वाली गोष्ठियों में लोग आते नहीं थे क्योंकि वहाँ बाढ़ 20 साल या उससे भी अधिक अंतराल पर आती है। हमारी मान्यता है कि बिहार में भी भूकम्प पर पाठ पढ़ने के लिए लोग उतने उत्साहित कभी नहीं होंगे जितना कि वह बाढ़ या सूखे की समस्या के प्रति आग्रही होंगे। बिहार में आखि़री बड़ा भूकम्प 1988 में आया था और उसके पहले की घटना 1934 की है।
बहुत सी स्वयंसेवी संस्थाएँ इस तरह के कार्यक्रमों को चलाये जाने में एक तरह से जरूर मदद करती हैं क्योंकि उनको सरकार और यू.एन.डी.पी. से कुछ आर्थिक मदद मिल जाती होगी। थोड़ा-बहुत अनुदान मिलने की आशा में उनमें यह साहस भी नहीं है कि वह यू.एन.डी.पी. या बिहार सरकार से कह सकें कि वह अपना ध्यान बाढ़ और सूखे की समस्या पर केन्द्रित करे तो बेहतर होगा। और तो और, अक्टूबर 2003 में जब बाढ़ से नुकसान की चर्चा से अखबार भरे रहते थे तब इन संस्थाओं ने भूकम्प के विषय पर जागरूकता बढ़ाने के लिए पटना में रैलियाँ भी निकाली थीं। यही कार्यक्रम 2004 में भी दुहराया गया। 2005 तथा 2006 का वर्ष बिहार में सूखे का वर्ष था। यह हो सकता है कि इन संस्थाओं को अपने कार्यक्रमों के लक्ष्य पूरे करने हों पर यह महीनें-दो महीनें तक इन्तजार करने की स्थिति में निश्चित रूप से रही होंगी। ऊपरी दबाव की वजह से इन्होंने खुद को बेवजह उपहास का पात्रा बनाया मगर पैसा जो न करवा दे।
बांध और भूकम्प की चर्चा पर एक बार जोर तब जरूर पकड़ेगी जब प्रस्तावित बांधों के निर्माण की बात किसी निर्णायक दौर में पहुँचेगी। बांध निर्माण के पफलस्वरूप आने वाले भूकम्पों के प्रति भारत और नेपाल, दोनों जगहों में, चिन्ता बनी रहेगी।
दिलचस्प मसला यह है कि बिहार सरकार और यू. एन. डी. पी. के बीच 2002 में बाढ़ों का आपदा के तौर पर मुकाबला करने और बाढ़ समस्या का बेहतर प्रबन्धन करने के लिए एक समझौता हुआ। बाढ़ के समय आपदा प्रबन्धन के लिए सुपौल, मधुबनी, सीतामढ़ी, मुजफ्फरपुर और खगड़िया जिलों को चुना गया। आपदा प्रबन्धन के लिए चेतना विकास यू. एन. डी. पी. और बिहार सरकार के इस साझा कार्यक्रम का एक महत्वपूर्ण अंग है। बिहार सरकार के राहत और पुनर्वास विभाग की वार्षिक रिपोर्ट (2003/2004) इस सहयोग पर विस्तृत रूप से चर्चा करती है मगर इसे पढ़ने के बाद ऐसा लगता है कि बिहार में विपत्ति के तौर पर मुख्य समस्या भूकम्प की है, बाढ़ की नहीं। जाहिर है कि 2000 में गुजरात के कच्छ क्षेत्र में आये भूकम्प और वहाँ काम करने वाली बहुत सी सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं के प्रचार-प्रसार ने कार्यक्रम की प्राथमिकताएं तय करने में अपनी छाप छोड़ी है।
इस कार्यक्रम के तहत पूरे प्रान्त में जगह-जगह पर भूकम्प और उससे बचाव को लेकर कार्यशालाएं आयोजित हुई हैं मगर जैसी सूचनाएँ मिलती हैं उनके अनुसार कहीं भी नेपाल में इन प्रस्तावित बांधों पर भूकम्प के पड़ने वाले प्रभाव की चर्चा नहीं हुई। इन गोष्ठियों और कार्यशालाओं में कभी तो नेपाल में प्रस्तावित बांधों के दुष्प्रभाव पर चिन्ता व्यक्त की जानी चाहिये थी मगर ऐसा लगता है कि कोशिश इस बात की हो रही है कि लोग अपने घरों का निर्माण आने वाले भूकम्प को ध्यान में रख कर करें और बांधों पर भूकम्प के प्रभाव और बाढ़ को भूल जायें। हिमालय में बांध निर्माण के कारण भूकम्पों की बढ़ती संभावनाओं पर भी इन गोष्ठियों में कोई बात नहीं होती है। इस पृष्ठभूमि में 1996 में राजस्थान में अलवर तथा भरतपुर में आई बाढ़ का जायजा ले लेना बेहतर होगा। राजस्थान में मूल और स्थाई समस्या सूखे या अकाल की है, बाढ़ की नहीं। यह सच है कि 20 वर्ष के अन्तराल पर आई इस बाढ़ से निबटने और बाढ़ संबंधी चेतना विकास के लिए होने वाली गोष्ठियों में लोग आते नहीं थे क्योंकि वहाँ बाढ़ 20 साल या उससे भी अधिक अंतराल पर आती है। हमारी मान्यता है कि बिहार में भी भूकम्प पर पाठ पढ़ने के लिए लोग उतने उत्साहित कभी नहीं होंगे जितना कि वह बाढ़ या सूखे की समस्या के प्रति आग्रही होंगे। बिहार में आखि़री बड़ा भूकम्प 1988 में आया था और उसके पहले की घटना 1934 की है।
बहुत सी स्वयंसेवी संस्थाएँ इस तरह के कार्यक्रमों को चलाये जाने में एक तरह से जरूर मदद करती हैं क्योंकि उनको सरकार और यू.एन.डी.पी. से कुछ आर्थिक मदद मिल जाती होगी। थोड़ा-बहुत अनुदान मिलने की आशा में उनमें यह साहस भी नहीं है कि वह यू.एन.डी.पी. या बिहार सरकार से कह सकें कि वह अपना ध्यान बाढ़ और सूखे की समस्या पर केन्द्रित करे तो बेहतर होगा। और तो और, अक्टूबर 2003 में जब बाढ़ से नुकसान की चर्चा से अखबार भरे रहते थे तब इन संस्थाओं ने भूकम्प के विषय पर जागरूकता बढ़ाने के लिए पटना में रैलियाँ भी निकाली थीं। यही कार्यक्रम 2004 में भी दुहराया गया। 2005 तथा 2006 का वर्ष बिहार में सूखे का वर्ष था। यह हो सकता है कि इन संस्थाओं को अपने कार्यक्रमों के लक्ष्य पूरे करने हों पर यह महीनें-दो महीनें तक इन्तजार करने की स्थिति में निश्चित रूप से रही होंगी। ऊपरी दबाव की वजह से इन्होंने खुद को बेवजह उपहास का पात्रा बनाया मगर पैसा जो न करवा दे।
बांध और भूकम्प की चर्चा पर एक बार जोर तब जरूर पकड़ेगी जब प्रस्तावित बांधों के निर्माण की बात किसी निर्णायक दौर में पहुँचेगी। बांध निर्माण के पफलस्वरूप आने वाले भूकम्पों के प्रति भारत और नेपाल, दोनों जगहों में, चिन्ता बनी रहेगी।