चेचक

Submitted by Hindi on Thu, 08/11/2011 - 15:39
चेचक (Small pox, शीतला, बड़ी माता) यह रोग अत्यंत प्राचीन है। आयुर्वेद के ग्रंथों में इसका वर्णन मिलता है। मिस्र में 1,200 वर्ष ईसा पूर्व की एक ममी (mummy) पाई गई थी, जिसकी त्वचा पर चेचक के समान विस्फोट उपस्थित थे। विद्वानों ने उसका चेचेक माना। चीन में भी ईसा के कई शताब्दी पूर्व इस रोग का वर्णन पाया जाता है। छठी शताब्दी में यह रोग यूरोप में पहुँचा और 16वीं शताब्दी में स्पेन निवासियों द्वारा अमरीका में पहुँचाया गया। सन्‌ 1718 में यूरोप में लेडी मेरी वोर्टले मौंटाग्यू ने पहली बार इसकी सुई (inoculation) प्रचलित की और सन्‌ 1796 में जेनर ने इसके टीके का आविष्कार किया।

यह रोग अत्यंत संक्रामक है। जब तब रोग की महामारी फैला करती है। कोई भी जाति और आयु इससे नहीं बची है। टीके के आविष्कार से पूर्व इस रोग से बहुत अधिक मृत्यु होती थी, किंतु टीके को कई देशों ने कड़ाई के साथ अनिवार्य करके अब रोग की रोकथाम बहुत कुछ कर ली है। यूरोप के कुछ देशों में यह मिट-सा गया है और कुछ देश, जैसे इंग्लैंड, अमरीका और रूस में बहुत कम हो गया है। भारत में भी टीके के प्रचार के कारण चेचक से होनेवाली मृत्यु संख्या 116.2 प्रति लाख से घटकर 40 हो गई है।

कारण 


रोग का कारण एक वाइरस होता है, जो रोगी के नासिकास्राव और थूक तथा त्वचा से पृथम्‌ होनेवाले खुंरडों में रहता है और बिंदुसंक्रमण द्वारा फैलता है। खुरंड भी चूर्णित होकर वस्त्रों या अन्य वस्तुओं द्वारा रोग फैलने का कारण होते हैं। यह वाइरस भी दो प्रकार का होता है। एक उग्र (major), जो उग्र रोग उत्पन्न करता है, दूसरा मृदु (minor), जिससे मृदुरूप का रोग होता है। गायों में रोग (Cow-pox) उत्पन्न करनेवाला वाइरस प्राय: मनुष्य को आक्रांत नहीं करता और न वह एक व्यक्ति से दूसरे में पहुँचता है।

लक्षण 


रोग का उद्भवकाल दो सप्ताह का कहा जाता है, किंतु इससे कम का भी हो सकता है। प्रारंभिक लक्षण जी मिचलाना, सिर दर्द, पीठ में तथा विशेषकर त्रिक प्रांत में पीड़ा, शरीर में ऐंठन, ज्वर, गलशोथ, खाँसी, गला बैठ जाना तथा नाक बहना होते हैं, जो दो तीन दिन तक रहते हैं। तदनंतर चर्म पर पित्ती के समान चकत्ते निकल आते हैं। मुँह में, गले में तथा स्वरयंत्र तक छोटी-छोटी स्फोटिकाएँ (vesicles) बन जाती है, जो आगे चलकर ्व्राणों में परिणत हो जाती हैं।

तीसरे या चौथे, और कभी-कभी दूसरे ही दिन चेचक का विशेष झलका (rash) दिखाई देता है। इसकी स्थिति और प्रकट होने का क्रम रोग की विशेषता है। छोटे-छोटे लाल रंग के धब्बे (macules) पहले ललाट और कलाई पर प्रगट होते हैं, फिर क्रमश: बाहु, धड़, पीठ और अंत में टाँगों पर निकलते हैं। इनकी संख्या ललाट और चेहरे पर तथा अग्रबाहु और हाथों पर, तथा इनमें भी प्रसारक पेशियों की त्वचा पर, अधिक होती है। बाहु, छाती का ऊपरी भाग तथा कुहनी के मोड़ के सामने के भाग इनसे बहुत कुछ बच जाते हैं। कक्ष (axilla) में तो निकलते ही नहीं।

इन विवर्ण धब्बों में भी निश्चित क्रम में परिवर्तन होते हैं। कुछ घंटों में इन धब्बों से पिटिकाएँ (papules) बन जाती हैं, जो सूक्ष्म अंकुरों के समान होती हैं। दो तीन दिन तक ये पिटिकाएँ निकलती रहती हैं, तब ये स्फोटिका (vesicles) में परिवर्तित होने लगती हैं। जो पिटिका पहिले निकलती है, वह पहले स्फोटिका बनती है। लगभग 24 घंटे में सब स्फोटिकाएँ बन जाती हैं। प्रत्येक स्फोटिका उभरे हुए दाने के समान होती हैं, जिसमें स्वच्छ द्रव भरा होता है। दो-तीन दिन में यह द्रव पूययुक्त हो जाता है और पूयस्फोटिका (pustule) बन जाती है, जिसके चारों ओर त्वचा में शोथ का लाल घेरा बन जाता है। इस समय वह ज्वर, जो कम हो जाता अथवा उतर जाता है, फिर से बढ़ जाता है। अगले आठ या नौ दिनों में पूयस्फीटिकाएँ सूखने लगती हैं और गहरे भूरे अथव काले रंग के खुरंड बन जाते हैं, जो त्वचा से पूर्णतया पृथक होने में 10-12 या इससे भी अधिक दिन ले लेते हैं।

पिटिका और स्फोटिका अवस्था में रोगी की दशा कष्टदायी नहीं होती, किंतु पूयस्फोटिकाओं के बनने पर ज्वर के बढ़ने के साथ ही उसकी दशा भी उग्र और कष्टदायी हो जाती है। चर्म में स्टेफिलो या स्ट्रिप्टो कोकाई के प्रवेश से स्फीटिकाओं में पूय बनने के साथ त्वचा में शोथ हो जाता है और मुँह, गले, स्वरंयंत्र आदि में व्राण बन जाते हैं। निमोनिया भी हो सकता है।

रोग के रूप 


रोग के तीनों रूपों को जानना आवश्यक है। (1) विरल (discrete) रूप में स्फोटिकाएँ थोड़ी तथा दूर-दूर होती हैं। इस कारण त्वचा पर शोथ अधिक नहीं होता। (2) दूसरे रूप में स्फोटिकाएँ बड़े आकार की और पास-पास होती हैं। बढ़ने पर वे आपस में मिल जाती हैं, जिससे चेहरा या त्वचा के अन्य भाग बड़े-बड़े फफोलों से ढँक जाते हैं। बहुत शोथ होता है, सारा चेहरा सूजा हुआ दिखाई पड़ता है और नेत्र तक नहीं खुल पाते। यह सम्मेलक (confluent) रूप होता है। इसमें अधिक मृत्यु होती हैं। (3) तीसरा रक्तस्रावक (Haemorrhagic) रूप है। नेत्र, मुँह, मूत्राशय, आत्र, नासिका आदि से रक्तस्राव होता है, जो मल, मूत्र, थूक, आदि द्वारा बाहर आता है। नेत्र के श्वेत भाग में रक्त एकत्र हो जाता है। यह रूप सदा घात होता है। प्राय: रोगी की मृत्यु हो जाती है।

चिकित्सा 


रोग की कोई औषधि नहीं है। पूयोत्पादन की दशा में पेनिसिलिन का प्रयोग लाभकारी होता है। अन्य प्रतिजीवाणुओं का उपयोग भी पूयोत्पादक तृणाणुवों के विषैले प्रभाव को मिटाने के लिए किया जाता है। उत्तम उपचार रोगी के स्वास्थ्य लाभ के लिए आवश्यक है।

निरोधक उपाय 


रोग टीका रोग को रोकने का विशिष्ट उपाय है। जिस वस्तु का टीका लगया जाता है, वह इस रोग की वैक्सीन होती है, जिसको साधारण बोलचाल में लिंफ कहते हैं। यह बछड़ों में चेचक (cow pox) उत्पन्न करके उनमें हुई स्फोटिकाओं के पीव से तैयार किया जाता है। टीका देते समय शुद्ध की हुई त्वचा पर, स्वच्छ यंत्र से खुरचकर, लिंफ की एक बूँद फैलाकर यंत्र के हैंडिल से मल दी जाती है। इससे रोगक्षमता उत्पन्न होकर रोग से रक्षा होती है। यह टीका वैक्सिनेशन कहलाता है और शिशु को प्रथम मास में लगाया जा सकता है। तीसरे मास तक शिशु को अवश्य लगवा देना चाहिए। स्कूल में बालक को भेजने के समय फिर लगवाना चाहिए। 8 से 10 वर्ष की आयु में एक बार फिर लगवा देने से जीवनपर्यंत रोग के प्रतिरोध की क्षमता बनी रहती है। रोग की महामारी के दिनों में टीका लगवा लेना उत्तम है। (मुकुंद स्वरूप वर्मा)

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संदर्भ
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बाहरी कड़ियाँ
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