चेन्नई आपदा प्रकृति का प्रतिशोध या नसीहत

Submitted by Hindi on Wed, 12/09/2015 - 09:26
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डेली न्यूज ऐक्टिविस्ट, 09 दिसम्बर 2015

.पहले मुंबई, फिर उत्तराखंड, जम्मू-कश्मीर और अब तमिलनाडु की राजधानी चेन्नई में जिस तरह प्रकृति के आगे समूचा तंत्र बेबस नजर आया, उसने प्राकृतिक आपदाओं से निपटने की हमारी तैयारियों पर सवाल खड़ा कर दिया है। साथ ही प्रकृति से छेड़छाड़ कर अंधाधुंध शहरीकरण की सरकारों की विकास नीति पर भी सवाल खड़े कर दिए हैं। भारी बारिश की चेतावनी और तबाही की आशंका पहले ही जता देने के बाद भी मजबूत नेता और अम्मा के रूप में पहचानी जाने वाली जयललिता का यह कहना कि जब भारी बारिश होती है, तब ऐसे हालात पैदा होते ही हैं, यह साबित करता है कि हम भले ही मंगल पर पताका फहरा कर इस मामले में कई बड़े देशों को पछाड़ चुके हों, लेकिन कुदरती आपदा को देखने और समझने का हमारा नजरिया नहीं बदला है।

यानी कुदरती आपदा के लिये अपने को जिम्मेदार मानने के बजाय प्रकृति और मौसम के बदले मिजाज को ही गुनहगार बताना सरकारी तंत्र और जिम्मेदार लोगों के बचने के लिये आसान रास्ता है। जल की निकासी और नदियों के कुदरती बहाव के नियमों को ताख पर रखकर हर जगह ताबड़तोड़ शहरी विकास हो रहा है। इसलिए अब जब भी सामान्य से अधिक बरसात लगातार हो जाती है तो आनेवाली बाढ़ की मारक क्षमता कहीं तेज दिखती है। आँकड़े बताते हैं कि देश में पिछले 62 सालों में मौसम के अतिवाद खासकर बाढ़ ने बड़ी तबाही मचाई है।

हजारों करोड़ की फसलें चौपट हुईं तो लाखों मकान जमींदोज हो गए। अभी देश में विकास का नया दौर शुरू होने जा रहा है, जिसके तहत सौ शहरों को आधुनिक और स्मार्ट किया जाना है। इसलिए जरूरी है कि पिछले छह दशकों के बाढ़ की तबाही के मंजर से सबक लिया जाए और स्मार्ट शहरों की बसाहट में जल निकासी का पुख्ता इंतजाम किया जाए, क्योंकि इन शहरों में ऐसे शहरों की तादाद ज्यादा है, जो बड़ी नदियों के किनारे आबाद हैं। इन नदियों और ऐसे शहरों का बाढ़ का अपना इतिहास भी है।

सरकार को चाहिए कि वह 30-40 साल के आँकड़ों के बजाय बीते सौ साल में नदियों के रुख और जल फैलाव को ध्यान में रखकर योजना बनाएं, क्योंकि नदियों का जीवन मानव सभ्यता जैसा ही हजारों साल पुराना है। पिछली कई बड़ी तबाहियों से सबक न लेने का ही नतीजा है कि तरक्की और आधुनिकता की मिसाल समझे जाने वाले चेन्नई में वहाँ का प्रशासन भौचक्का रह गया और देखते ही देखते तमाम सड़कें, भव्य इमारतें, रेल लाइन, सरकारी दफ्तर, यहाँ तक कि राज्य की शान समझा जानेवाला हवाई अड्डा भी पानी-पानी हो गया। इसलिए यह सवाल बड़ी तेजी से गूँज रहा है कि कहीं पर्यावरण को नजरअंदाज कर लगातार किए जा रहे इस तरह के विकास पर ये अट्टहास तो नहीं है! कहा जाता है कि अंग्रेजों के समय पेरियार नदी पर जब बाँध बनाया गया था तो साथ में 25 किलोमीटर लंबी एक नहर भी तैयार की गई थी। लेकिन मेक इन चेन्नई के लकदक नारे के बीच अब वह नहर महज सात-आठ किलोमीटर ही शेष है।

समुद्र तक पानी जाने के लिये कुदरती तौर पर रही कई किलोमीटर लंबी दलदली जमीन को जबरन सुखाकर इमारतें तान दी गईं। बाढ़ के कारणों की पड़ताल करती एक रपट के मुताबिक, फटाफट बेतरतीब विकास के राजनीतिक वादों की पूर्ति के लिये शहर के कई बड़े सरोवरों को भी सूखे होने के नाम पर पाट दिया गया। इससेे दलदली क्षेत्र सिकुड़ कर एक चौथाई भी नहीं बचा। रपट के मुताबिक, बाढ़ की तबाही बता रही है कि जिस चेन्नई को देश में शहरों के विकास और आधुनिकीकरण का आईना माना जाता है, वहाँ सबसे अधिक निर्माण कार्य जलसंचयन स्थलों और उन जगहों पर हुए, जो जल मार्ग के तौर पर जाने जाते थे।

पिछली कई बड़ी तबाहियों से सबक न लेने का ही नतीजा है कि तरक्की और आधुनिकता की मिसाल समझे जाने वाले चेन्नई में वहाँ का प्रशासन भौचक्का रह गया और देखते ही देखते तमाम सड़कें, भव्य इमारतें, रेल लाइन, सरकारी दफ्तर, यहाँ तक कि राज्य की शान समझा जानेवाला हवाई अड्डा भी पानी-पानी हो गया। इसलिए यह सवाल बड़ी तेजी से गूँज रहा है कि कहीं पर्यावरण को नजरअंदाज कर लगातार किए जा रहे इस तरह के विकास पर ये अट्टहास तो नहीं है !...

सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट यानी सीएसई ने भी माना है कि चेन्नई में अगर उसके प्राकृतिक जलाशय तथा जल निकासी नाले सुरक्षित व संरक्षित होते तो इस विकसित शहर में आज हालात कुछ और होते। सीएसई की महानिदेशक सुनीता नारायण का कहना है कि हमने इस तथ्य की ओर बार-बार ध्यान आकृष्ट किया है कि दिल्ली, कोलकाता, मुंबई, चेन्नई, श्रीनगर तथा अन्य हमारे शहरी इलाकों में उनके प्राकृतिक जलाशयों पर समुचित ध्यान नहीं दिया गया है। सीएसई का मानना है कि चेन्न्न्ई की प्रत्येक झील में प्राकृतिक तरीके से बाढ़ का पानी निकालने के चैनल हैं, जो बाढ़ के समय उपयोगी होते हैं, लेकिन तरक्की के नाम पर इन जलाशयों पर निर्माण कर पानी का निर्बाध बहाव ही बाधित कर दिया।

इमारतों के लिये केवल जमीन ही दिखाई देती है, पानी नहीं। दरअसल, हजारों करोड़ के बजट के सामने पुरखों की सहज बुद्धि के आधार पर बने तालाबों की क्या औकात। बताया जाता है कि अंग्रेजों के समय तक मद्रास प्रेसिडेंसी में 53 हजार तालाब थे। उस समय की मद्रास प्रेसिडेंसी में तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, उड़ीसा, केरल और कर्नाटक का कुछ हिस्सा आता था। यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि क्या आज ये तालाब बचे होंगे। क्या यह सही नहीं है कि तबाही ऊपर से नहीं आती, बल्कि हम तबाही का कारण खुद से जुटा कर रखते हैं।

जब भी कहीं मौसम के अतिवादी होने की घटना से तबाही होती है तो सबका सारा ध्यान राहत और बचाव कार्य के किस्सों पर ही टिक जाता है और उसी की वाहवाही के बाद सबकुछ सामान्य हो जाता है। जनता भी पर्यावरण जैसी गंभीर बात पर नहीं लड़ती है। मसलन, हिमालय के ग्लेशियरों की नाजुक हालत और भविष्य में उससे होने वाले खतरों पर पिछले 20-25 सालों में न जाने कितने शोध हो चुके हैं, लेकिन कौन सुनता है इन बातों को? उलटे सवाल खड़ा कर दिया जाता है कि विकास बड़ा या पर्यावरण? हाल के वर्षों में पहाड़ों में होनेवाली प्राकृतिक आपदाओं की संख्या तेजी से और लगातार बढ़ी है।

उत्तराखंड की भयावह त्रासदी के बावजूद पहाड़ों में सबकुछ वैसा ही अंधाधुंध चल रहा है। हरिद्वार से आगे बढ़ने पर मसूरी और उससे ऊपर नैनिताल, गढ़वाल या फिर हिमाचल में कहीं भी देखा जा सकता है कि किसी ने कुछ नहीं सीखा। नेता, बिल्डर और अफसरों का गठजोड़ नदियों के तट, पहाड़ों की घाटी, यहाँ तक कि पहाड़ों को पाटकर या समतल करके विशाल इमारतें खड़ी कर रहा है। सड़कों के किनारे के गाँव रेस्टोरेंट और दुकानों से शहरी बाजार में तब्दील हो गए हैं।

हालात ये हैं कि जलधारा के बीच में भी खाने-पीने की दुकानें लगाने की अनुमति भी वैध तरीके से दे दी गई है। मौसम और आपदा पर नजर रखने वाली सीएसई ने अपनी रिपोर्ट में खुलासा किया है कि सन 1900 के दशक में जहाँ मौसम की अति की केवल दो-तीन घटनाएं हर साल होती थीं, वहीं अब साल में दर्जनों ऐसी घटनाएं हो जाती हैं। पिछले दस सालों में देश में पाँच से अधिक तबाही फैलाने वाले हादसे हो चुके हैं। 2005 में मुंबई, 2010 में लेह, 2013 में उत्तराखंड, फिर जम्मू-कश्मीर और अब चेन्नई।

बिहार, बंगाल, उत्तर प्रदेश और पूर्वोत्तर के राज्यों में भी बाढ़ की समस्या हर साल पैदा होती है, पर अब तक बाढ़ को नियंत्रित करने की कोई कारगर योजना नहीं बन पाई है। इसलिए जब वर्षा कम होती है तो सूखा पड़ जाता है और जब अधिक होती है तो बाढ़ आ जाती है। उत्तरी-पश्चिमी क्षेत्र और हरियाणा के कुछ भागों में जल निकासी बाधित होने के कारण बाढ़ आ जाती है। महानदी में ज्वार-भाटा की लहरों और भागीरथी, दामोदर में तट के कटाव के कारण बड़े-बड़े क्षेत्र जलमग्न हो जाते हैं।

सतलुज, व्यास, चेनाब और झेलम में जल की अत्यधिक मात्रा से मानसून के समय तलछट बह निकलता है। ये नदियाँ अक्सर अपना रास्ता बदल देती हैं, जो नए क्षेत्रों में बाढ़ और तबाही का कारण बनती हैं। अब रेगिस्तानी प्रदेश राजस्थान और गुजरात में भी बाढ़ आने लगी है। यह नई विकास नीतियों और बड़े-बड़े बाँधों का नतीजा है। बाढ़ के प्राकृतिक कारण तो हमेशा से रहे हैं, लेकिन विकास की विसंगतियों से यह समस्या गहराई है। देश की लगभग चार करोड़ हेक्टेयर जमीन बाढ़ प्रभावित है।

हाल में जारी एक सरकारी रिपोर्ट के मुताबिक, देश में पिछले 62 वर्षों के दौरान बाढ़ के कारण प्रति वर्ष औसतन 2130 लोग मारे गए और 1.2 लाख पशुओं का नुकसान हुआ। जबकि औसतन 82.08 लाख हेक्टेयर इलाका प्रभावित हुआ और 1499 करोड़ रुपए मूल्य की फसलें बर्बाद हुईं तो वहीं 739 करोड़ रुपए के मकानों को नुकसान पहुँचा और सार्वजनिक सेवाओं को 2586 करोड़ रुपए के नुकसान का सामना करना पड़ा। दरअसल, बाढ़ और सूखे की समस्याएं एक-दूसरे से जुड़ी हैं। इसलिए इनका समाधान जल प्रबंधन की कारगर और बेहतर योजनाएं बना कर किया जा सकता है।

आंकड़ों के मुताबिक, राष्ट्रीय बाढ़ नियंत्रण कार्यक्रम के अंतर्गत डेढ़ सौ लाख हेक्टेयर क्षेत्र को एक सीमा तक बाढ़ से सुरक्षित बनाने की व्यवस्था की जा चुकी है। इसके लिए 12,905 किमी लंबे तटबंध 25,331 किमी लंबी नालियाँ और 4,694 गाँवों को ऊँचा उठाने का कार्य किया गया है। इस पर 1,442 करोड़ रुपए खर्च किए गए हैं। पिछले पचास वर्षों में कुल मिलाकर बाढ़ पर 70 हजार करोड़ रुपए खर्च किए जा चुके हैं। पर हमारे देश में जिस बड़े पैमाने पर बाढ़ आती है, उस हिसाब से अभी बहुत काम बाकी है।