चीन

Submitted by Hindi on Thu, 08/11/2011 - 15:06
चीन स्थिति : 15 46 से 53 35 उ.अ. तथा 73 31 से 135 3 पू.दे.। यह पूर्वी एशिया का बृहत्तम देश है, जिसकी सीमाएँ उत्तर और पश्चिम में लगभग 4,000 मील तक सोवियत रूस तथा बाह्य मंगोलिया से, उत्तर-पूर्व में कोरिया तथा कोरिया की खाड़ी के क्षेत्र से पूर्वमें पीतसागर, पूर्वी चीन सागर और दक्षिणी चीन सागर से, दक्षिण में हाइनान की जलसंधि, टांकिन की खाड़ी, हिंदचीन और बर्मा, भारत और पाकिस्तान से तथा दक्षिण-पश्चिम में काराकोरम और हिमालय की श्रेणियों से स्पर्श करती हैं। क्षेत्रफल की दृष्टि से सोवियत रूस और कैनाडा के बाद विश्व में इसका तृतीय स्थान है, किंतु जनसंख्या की दृष्टि से यह संसार का सबसे बड़ा देश है। मंचूरिया, सिक्यांग, तिब्बत एवं छोटे छोटे अनेक द्वीपसमूहों को संमिलित करने पर इसका क्षेत्रुल 38, 76, 956 वर्ग मील है। 1961 में चीन की अनुमानित जनसंख्या 59, 43, 46, 637 थी।, विश्व की जनसंख्या के 0.2 भाग से भी अधिक लोग यहाँ निवास करते हैं। चीन संसार के प्राचीनतम देशों में है। यहाँ की सभ्यता कम से कम 4,000 वर्ष प्राचीन है। मुद्रणकला, कागज, बारूद, रेशम और चीनी मिट्टी जैसे आविष्कारों के लिए चीनी सभ्यता प्रसिद्ध है। चीनीं लोग अपने देश को 'चुँग ह्वा मिन कुओ' कहते हैं, जिसका अर्थ होता है, केंद्रीय पुष्पाच्छादित जनराष्ट्र। इसका संक्षिप्त नाम है 'चुंग कुओ' अर्थात्‌ 'मध्यवर्ती देश'। चीन शब्द इस देश के प्राचीन शासक 'चीन वंश' से लिया गया है। चीन की भूरचना में दो पर्वतश्रृखंलाएँ महत्वपूर्ण हैं। एक तो पूर्व-पश्चिम की दिशा में और दूसरी उत्तर-पूर्व से दक्षिण-पश्चिम दिशा में फैली है। पहली श्रेणी मध्यवर्ती है और दूसरी समुद्रतटीय। ये विशाल पर्वतश्रेणियाँ एक दूसरे को काटती हैं तथा इनके भीतर सच्वान की लाल घाटी, सेंसी घाटी, ह्वांग-हो घाटी, यांगट्ि-सिक्यांग की घाटी और बहुत सी छोटी-छोटी घाटियाँ हैं। संरचनात्मक विभिन्नताओं के कारण भिन्न भिन्न भौमिकीय युगों की चट्टानों का वितरण चीन में अस्तव्यस्त है; केवल घाटियों में चट्टानों का जमाव अपेक्षाकृत सरल है। जलनिर्मित प्रस्तरित चट्टानों की मोटाई बहुत अधिक है। भिन्न भिन्न क्षेत्रों में यह मोटाई अलग-अलग है। विभिन्न युगों में लोहा, बालू पत्थर, चूना पत्थर, शेल, कोयला, जिप्सम, लिगनाइट, ग्रैवेल आदि खनिज पदार्थो का जमाव हुआ है। उत्तर-पश्चिम क्षेत्र में पेट्रोल भी पाय जाता है।

चीन का समुद्री तट लगभग 5,653 मील लंबा है। उत्तर में यालू नदी के मुहाने से दक्षिण में ग्वानटुंग के टुंगसिंग तक फैला है। उत्तर में शानटुंग दो प्रायद्वीप हैं। इन प्रायद्वीपों को छोड़कर किनारा छिछला है और टांगचाऊ की खाड़ी तक दोमट मिट्टी से बना हुआ मालूम होता है। हांग काऊ की खाड़ी से केंन तक का किनारा चट्टानी और पहाड़ी है, किंतु दक्षिण-पश्चिम में निचला हो गया है। यद्यपि दक्षिणी समुद्री तट बहुत कटा फटा नहीं है, तथापि यहाँ बंदरगाह हैं। समुद्रतट पर छोटे बड़े सभी आकार के अनेक द्वीपसमूह, हैनान, तैनान आदि हैं। पीतसागर, पूर्वी चीन सागर और दक्षिणी चीन सागर तीन निकटवर्ती समुद्र हैं। आमटंग, ताल्येन, चिनवांगटों, त्याकू, येनटाई, वैह्वैचो, सिंगताओ, शैंघाई, हांगकाउ, निंगपो, फूकाअ, एमाय, स्वताओ, कैंटन और पारवई प्रसिद्ध बंदरगाह हैं।

भूरचना 


चीन के पश्चिमी भाग में सिक्यांग, तिब्बत और मंगोलिया के ऊँचे पर्वत हैं, इसलिये ढाल पश्चिम से पूर्व की ओर है। मंगोलिया का पठार (समुद्रतल से 5,000 फुट ऊँचा) चारों ओर पर्वतों से घिरा है। इस पठार के केंद्र में गोबी की मरूभूमि है। इसके दक्षिणी और उत्तरी क्षेत्र में स्टेप्स के चरागाह हैं। सिक्‌यांग में पहाड़ी और रेगिस्तानी क्षेत्र हैं। इस क्षेत्र को तानशान पर्वत उत्तरी और दक्षिणी दो भागों में बाँट देता है। उत्तर में सुनगरिया घाटी में ईली (Ili) और ईतिश (Irtish) नदियाँ बहती हैं। दक्षिण में डारिम (Tarim) घाटी में डारिम नदी बहती है जो ऊँचे पर्वतों से निकलकर मरुभूमि में बहती हुई विलीन हो जाती है। डारिम नदी के कारण हामी से शूफू तक बहुत से मरूद्यान हैं। सिक्यांग की जनता या तो इली नदी की घाटी में या इन्हीं मरूद्यानों में निवास करती है। प्राचीन काल मे व्यापारिक मार्ग इसी सिक्यांग से होकर जाते थे। तिब्बत का पठार संसार का सबसे ऊँचा पठार (12,000 से 14,000 फुट तक) है। इसके उत्तर में कतलुन, दक्षिण में हिमालय और पूर्व में भी अत्यंत ऊँचे पर्वत हैं। मंचूरिया के पश्चिम में खिंगन पर्वत और पूर्व में चंमपाई पर्वत हैं। इन पर्वतां के बीच में आमूर, सुनगरी, असुरी तथा यालू नदियों की उपजाऊ घाटियाँ हैं।

मुख्य चीन की भूमि उत्तर में नानशान पर्वत से घिरी है। वास्तव में तिब्बत से लेकर मंचूरिया तक पर्वतश्रेणियाँ भूभागों की सीमा बनाती हैं। इसके उत्तर में पीतनदी या ह्वांगहो की महान्‌ घाटी है, जिसमें मध्यवर्ती एशिया की पीली लोयेस (Loess) मिट्टी आंधियों के द्वारा बिछा दी गई है। इसकी मोटाई 300 फुट या इससे भी अधिक है। इस भाग में गेहूँ, मक्का, कपास तथा घान की खेती होती है। मध्यवर्ती चीन में यांगट्सी (Yangtze) नदी घाटी है जिसमें बाँस और नारंगी के पौधे भी होते हैं। इस घाटी के दक्षिण का भाग पहाड़ी है। इनमें नानलिंग, त्याऊशान और लुईशान श्रेणियाँ प्रमुख हैं। यून्नान (Yunnan) भी पर्वतीय या पठारी क्षेत्र है, जिसमें गहरी घाटियाँ और ऊँचे पर्वत हैं।

उत्तर में ह्वांग हो, मध्य में यांगट्सी और दक्षिण में सिक्यांग नदियाँ पश्चिम से पूर्व की ओर बहती हैं। ह्वांग हो नदी सिंगहाई से निकलकर 2,700 मील लंबे मार्ग में गोलाई से बहती है और अन्य भागों से ताआ, फेन, वे और लो जैसी सहायक नदियाँ आकर इसमें मिलती हैं। मुहाने से 25 मील अंदर तक जहाज आ जाते हैं। यह नदी अपने मार्ग को कई बार बदलती रही है। चीन की सबसे बड़ी नदी यांगट्सी है, जो सिंगहाई से निकलकर 3,400 मील की लंबाई तक बहती है। इस नदी के द्वारा 7,56,500 वर्ग मील भूमि के जल का निकास होता है। लगभग 1,000 मील तक यह नदी जलयातायात के लिये उपयुक्त है। इसकी सहायक नदियों में मिन, क्यालिंग, हान, वु, और तुंगतिंग मुख्य हैं। शैंघाई के समीप यह नदी लगभग 40 मील चौड़ा डेल्टा बनाती है। सिक्यांग दक्षिणी चीन में 1,200 मील बहती है। इसकी एक शाखा चुकयांग है जिसके मुहाने पर कैंटन बंदरगाह है। इस नदी से भी जलयातायात होता है। मंचूरिया में आमूर नदी प्रसिद्ध है, जिसकी यालू, असुरी और सुनगारी सहायक नदियाँ हैं। सिक्यांग में डारिम नदी महत्वपूर्ण है। प्ये, ढाई, चेनटंग और हांगकाऊ नदियाँ भी प्रसिद्ध हैं। इनके अतिरिक्त चीनी पर्वतों से सालविन (वर्मा में) और मिकयांग (हिंदचीन में) नदियाँ निकलकर दूसरे देशों में बहती हैं। ईनान में तुंग तिंग-हू झील, क्यांगसी में पोयंग-हू, क्यांग सू में ताई और हांग ट्सी आदि प्रसिद्ध झीलें हैं।

जलवायु 


चीन शीतोष्ण कटिबंध में है, लेकिन इसकी जलवायु इसी अक्षांश पर स्थित अन्य देशों की अपेक्षा अधिक शीतल है। चीन की जलवायु पर मौसमी हवाओं, चक्रवातीय आँधियों और उष्ण कटिबंधीय तूफानों का प्रभाव पड़ता है। जाड़े में साईबेरिया की ओर से (पश्चिमोत्तर दिशा से) शुष्क और ठंढ़ी हवाएँ आती हैं। ग्रीष्मकाल में प्रशांत महासागर से जलवाष्प से पूर्ण हवाएँ दक्षिण या दक्षिण-पूर्व दिशा से आती हैं। 5,000 फुट की ऊँचाई तक ये हवाएं बहती हैं और उसके ऊपर वर्ष भर व्यापारिक हवाओं का आधिपत्य रहता है। पश्चिम में पूर्व की ओर यूरोप और मध्य एशिया से चक्रवातीय आँधियाँ भी बहती हैं। जाड़े और बसंत में ये मध्यचीन में तथा जुलाई अगस्त में उत्तरी चीन में प्रभाव डालती हैं। प्रशांत महासागर से आनेवाली हवाएँ तथा चक्रवातीय आँधियाँ मिलकर खूब वर्षा करती हैं। प्रशांत महासागर में कैरोलिन द्वीपसमूह से उष्ण कटिबंधीय तूफान चलते हैं, जो चीन की भूमि पर वर्ष भर में कम से कम चार पाँच बार आक्रमण करते हैं। इन तूफानों से वर्षा तो होती है, किंतु हानियाँ भी बहुत होती हैं।

चीन विशाल देश है और इसका मध्य एशियावाला भाग समुद्र से बहुत दूर है। आंतरिक जलाशयों के बिलकुल अभाव के कारण वहाँ की जलवायु अत्यंत विषम है। इस महाद्वीप में भीषण जाड़ा ओर भीषण गर्मी पड़ती है। समुद्रों के पासवाले भागों की जलवायु सम है। उत्तर में मानचौली का जनवरी का औसत ताप 26 सें. है और दक्षिण में स्यामेन का 13 सें. है। पीकिंग से दक्षिण की ओर बढ़ने पर जनवरी और जुलाई दोनों का औसत ताप बढ़ता जाता है। दक्षिण से उत्तर की ओर बढ़ने पर तथा समुद्रतट से भीतर की ओर जाने पर वर्षा धीरे धीरे कम होती जाती है। कैंटन में 65  , हांगकाउ में 58  , शैंघाई में 44  , नानकिंग में 38  , पीकिंग में 25  , हारबिने में 21  , लुंगक्यांग में 18  और मानचौली में केवल 9  वार्षिक वर्षा होती है। ह्वांग हो घाटी में यांगट्सी की अपेक्षा कम वर्षा होती है, और मंगोलिया और सिक्यांग के अधिकांश भाग रेगिस्तान हैं। हिमपात चीन में बहुत कम होता है। गर्मी में जाड़े की अपेक्षा अधिक वर्षा होती है।

वनस्पति 


विशाल देश होने के कारण यहाँ के प्रदेशों की जलवायु और प्राकृतिक दशाएँ भिन्न भिन्न हैं। इसलिये यहाँ पर टैगा के जंगलों से लेकर चौड़ी पत्तीवाले सदाबहार वन, रेगिस्तान और घने जंगल पाए जाते हैं। चीन को मुख्यत: दो वनस्पति खंडों में बाँटा जा सकता है। (1) उत्तर-पश्चिमी भाग के घास के मैदान और रेगिस्तान, तथा (2) दक्षिण-पूर्वी भाग के जंगल। चीन में मुख्य रूप से निम्नलिखित छह प्रकार के जंगल पाए जाते हैं।

1. उत्तर-पूर्वी प्रांतों में कड़ी लकड़ी के जंगल हैं। इसी प्रकार के जंगल उत्तरी प्रांतों की पर्वतीय ऊँचाइयों पर भी मिलते हैं। इनमें मुख्य: जमीरी नीबू की जाति के वृक्ष, लिंडेन, (linden), भोजपत्र (birch), श्वेत चीड़ (white pine), वंजु वृक्ष (Oak), अखरोट (walnut), देवदारु (elm) आदि वृक्ष मिलते हैं।

2. उत्तरी प्रांतों के अधिकांश क्षेत्रों में पतझड़वाले (deciduous) वंर्जु वृक्ष, प्रभूर्ज (ash), श्रृंगद्रु (hornbeam), देवदारु, अखरोट और उपकरपर्ण (hackberry) वृक्ष मिलते हें। पहाड़ी ढालों पर घास, जंगली गुलाब और बकाइन (lilacs) उगते हैं।

3. यांगट्सी घाटी के मिश्रित वन, जिनमें बहुत ही घने जंगल हैं और जिनके वृक्षों से अमूल्य लकड़ियाँ मिलती हैं।

4. दक्षिण और दक्षिणी-पश्चिमी भागों में तथा फारमोसा और हैनान द्वीपों में वंजु वृक्ष के सदाबहार वन हैं। इस क्षेत्र में बाँस भी उगते हैं।

5. मानसूनी जंगल केवल अनान और दक्षिणी क्षेत्र में मिलते हैं।

6. कोरिया की सीमा के पास पर्वतीय ऊँचाइयों पर शंकु वृक्षों के जंगल हैं, जिनमें सरोवर वृक्ष (spruce), चीड़ (pine), गर्जरी वृक्ष (hemlock) और लार्च (larch) आदि मिलते हैं। उत्तरी प्रांत सिंक्यांग के ऊँचे पर्वतों पर भी इस प्रकार के वृक्ष मिलते हैं।

पूर्वोत्तरी प्रांतों के मैदानों के पश्चिम में घास के मैदान प्रांरभ होते हैं और तान शान तक, रेगिस्तानी भूमि को छोड़कर, सभी भागों में फैले हैं। रेगिस्तानों में नागफनी जैसे शुष्कजीवी पौधे ही उगते हैं और मरूद्यानों में फलों के कुंज और चिनार (poplar) तथा देवदारु के वृक्ष उगते हैं। तिब्बत के पठार में वनस्पतियाँ बहुत कम हैं।

जीवजंतु 


अनुकूल परिस्थितियों के कारण यहाँ जीव जंतु पर्याप्त सुरक्षित रहते हैं। यहाँ आज भी बृहद सैलामेंडर (giant salamender) जो विश्व के अन्य भागों से लुप्त हो गए हैं, प्राप्त होते हैं। यहाँ हँसनेवाली तूती (laughing thrushes), विशेष प्रकार के चकोर की कई जातियाँ (pheasants) और तीतर मिलते हैं। यांगट्सी में प्रथ मछली (paddle fish) बहुतायत से प्राप्त होती है। उत्तर-पूर्वी चीन के जंतु सइबेरिया के जंगलों के जंतुओं से, मंगोलिया के जंतु उत्तरी चीन के स्टेप्स के जंतुओं से और दक्षिण-पूर्व चीन के जंतु दक्षिण-पूर्व एशिया के जंतुओं से समता रखते हैं।

कृषि 


चीन कृषिप्रधान देश है; इस दृष्टि से इसके निम्नलिखित विभाग हैं : (1) उत्तरी चीन का कृषिक्षेत्र  इस क्षेत्र की सीमा सिन लिंग सान पर्वतीय गाँठ से बनी है। इस क्षेत्र में उग्र शीत ऋतु और अनिश्चित अल्पकालीन वर्षा के कारण धान की खेती संभव नहीं है। इस लिये यहाँ मक्का, ज्वार, गेहूँ, जौ, आले और सोयाबीन की खेती की जाती है। यद्यपि क्षेत्र की मिट्टी बहुत उपजाऊ है, तथापि शुष्क भाग में पड़ने के कारण तथा सिंचाई के साधनों के अभाव के कारण अधिकांश क्षेत्रों में खेती कठिन हो जाती है और लोग पशुपालन पर आश्रित रहते हैं। उत्तर-पश्चिमी भागों में ऊन, मांस, चमड़ा और दूध के सामानों का उत्पादन होता है।

लोयेस पेटी में, जहाँ ताई, चुवान और तातुंग इत्यादि नदियों की घाटियाँ हैं, खेती भी होती है और सेब, नाशपाती, अखरोट, स्ट्राबेरी जैसे फलों का भी उत्पादन होता है। लोयेस पठार के किनारे पर उत्तरी चीन का मैदान है, जहाँ वर्षा अधिक होती है, लेकिन ह्वांग हो की बाढ़ों के कारण यहाँ की खेती बड़ी अनियमित रहती है। गेहूँ, जौ, मक्का और बाजरा के साथ सेब, मटर तथा सरसों भी उत्पन्न की जाती है। दक्षिणी शानटुंग तथा आरी क्यांग सू में धान पैदा होता है। शानटुंग और होपेय में कपास और पटसन की भी खेती होती है। होपेय में घोड़े, खच्चर और गधे पाले जाते हैं।

यांगट्सी कृषिक्षेत्र चीन का सबसे उत्तम कृषिक्षेत्र है। इसके उत्पादन से चीन की आधी जनसंख्या का पोषण होता है। उपजाऊ मिट्टी, नदियों का जल, अपेक्षाकृत नियमित और यथेष्ट वर्षा, ऋतुओं का अनुकूल आवर्तन आदि मिलकर इस क्षेत्र का महत्व बढ़ा देते हैं। खाद्यान्नों तथा व्यापारिक उत्पादनों दोनों में इस क्षेत्र का नेतृत्व है। सबसे अधिक धान यहीं उत्पन्न होता है। राष्ट्र में संपूर्ण उत्पादन का 68 प्रतिशत रेशम और 50 प्रतिशत कपास इस क्षेत्र से मिलता है। झीलों के क्षेत्र में चाय और पशुवसा (tallow) का भी उत्पादन किया जाता है। इस क्षेत्र में जाड़े और गर्मी दोनों ऋतुओं की फसलें होती हैं। जाड़े में जौ, गेहूँ, सेब, मटर, चना और गर्मी में धान की खेती होती है। इसके अतिरिक्त दूसरे अन्न भी उत्पन्न होते हैं। दक्षिण-पूर्वी चीन का कृषिक्षेत्र पर्वतीय है। फुक्येन की पहाड़ियों पर चाय उत्पन्न होती है किंतु घाटियों और डेल्टावाले भागों में वर्ष भर में धान की तीन फसलें तैयार की जाती हैं। कैंपटन के डेल्टा में गन्ने की खेती होती है। इसी क्षेत्र में अनन्नास जैसे फलों और मसालों की उपज होती है।

दक्षिणी-पश्चिमी क्षेत्र कृषि के दृष्टिकोण से सबसे अधिक अविकसित है। पठारी और पहाड़ी भागों में खेती की सभावनाएँ कम हैं। चरागाहों में पशु पाले जाते हैं और कहीं कहीं पर मोटे अन्नों की खेती होती है। गहरी घाटियों में दुर्गम जंगल हैं। धान, गेहूँ और ज्वार-बाजरा जैसे खाद्यान्नों की खेती चीन की संपूर्ण कृषियोग्य भूमि की 45 प्रतिशत भूमि पर की जाती है। इसी कारण चरागाहों का भी अभाव है। समुद्र और नदियों के मत्स्याखेटों से चीनी जनता का पर्याप्त भोजन मिलता है। चाय और सोयाबीन का स्थान चावल और गेहूँ के बाद आता है। व्यापारिक उत्पादनों में क्रमश: कपास, अफीम, तंबाकू आदि का महत्व है।

चीन में तीन प्रमुख खनिज क्षेत्र हैं : ह्वांगहो और यांगट्सी के बीच के पर्वतीय क्षेत्र, 2. यागंट्सी के दक्षिण का पर्वतीय क्षेत्र तथा 3. दक्षिणी पश्चिमी क्षेत्र। कोयला मुख्य रूप से मध्य मंचूरिया, शैंसी तथा आन्हवै से निकाला जा रहा है। मंचूरिया में लोहे की खानें अधिक हैं किंतु होपे, शांतुगं जैसे चीन के विशाल प्रदेशां में खनिज लोह प्राप्य है। सिंक्यांग, शैघाई, शैंसी और कांसू में तैलक्षेत्रों का पता चला है। क्यांगसी, हूनान, ग्वांगदुंग तथा ग्वांगसी के दक्षिणी प्रांमों में टंगस्टन और ऐंटीमनी के खनिज अधिक मात्रा में हैं। यून्नान में टिन की खानें हैं। इसके अतिरिक्त मैंगनीज, सीसा, जस्ता, पारा, गंधक, चाँदी, सोना और ऐल्यूमिनियम भी चीन में निकाला जाता है। चीनी मिट्टी और मूल्यवान्‌ रत्न भी यहाँ की खानों में पाए जाते हैं।

लोहा, इस्पात, मोटर, खानों की मशीनें, सीमेंट, कोयला, सूती वस्त्र, खाद, कागज और चीनी उत्पादन, बिजली के सामान, चमड़े की वस्तुएँ, दियासलाई निर्माण चीन के प्रमुख उद्योग हैं। यहाँ से कच्चे रेशम का कोया, सूत, अंडे, चाय, खनिज, चमड़ा और खाल, कपास, सोयाबीन का निर्यात तथा चावल, मिट्टी का तेल, पेट्रोल, धातु, गेहूँ, सूती वस्त्र रासायनिक पदार्थ, कागज, चीनी, रंग, मशीन, लकड़ी, ऊन, आटा तथा तंबाकू का आयात होता है।

उत्तर में ह्वांगहो और मध्य में यांगट्सी नदियाँ और उनसे निकलनेवाली नहरें जलमार्ग का काम करती हैं, जिनमें ग्रैंड केनाल प्रमुख है। 1,50,000 किमी. जलमार्ग है जिसमें से 40,000 किमी. में स्टीमर चल सकते हैं। चीन का ममुद्री किनारा 5,653 मील लंबा है, जिसमें कई प्रसिद्ध बंदरगाह हैं। सन्‌ 1957 तक 1,80,000 किमी. लंबी सड़के तथा 1958 तक 21,740 किमी. लंबी रेलवे लाइनें थीं।

यहाँ के निवासी सूती वस्त्रों का उपयोग करते हैं। पुरुषो और स्त्रियों के वस्त्रों में कोई विशेष अंतर नहीं रहता। धनी लोग रेशमी वस्त्रों का उपयोग करते हैं। साम्यवादी सरकार ने एक ही प्रकार के वस्त्रों का पहनना अनिवार्य कर दिया है, इसलिये वस्त्रों में राष्ट्रीय एकरूपता आ गई है। उत्तरी चीन के लोग गेहूँ और मक्का तथा दक्षिणी क्षेत्र के निवासी भोजन में चावल का उपयोग करते हैं। खाद्यान्नों का यहाँ अभाव है, अत: यहाँ के लोग सभी जंतुओं का मांस खाते है। जनसंख्या के अत्यधिक दबाव के कारण लोगों के आवास की कमी है। यहाँ की अधिकांश जनसंख्या को झोपड़ियों तथा कच्चे मकानों में रहना पड़ता है। नावों पर घर बनाकर लोग जल पर भी रहते हैं।

इतिहास 


चीन के इतिहास का अध्ययन चार विभागों में किया जा सकता है: (क) प्रागैतिहासिक युग (ख) प्रारंभिक युग (ग) आधुनिक युग (घ) द्वितीय विश्व युद्ध के बाद का चीन।

(क) प्रागैतिहासिक युग 


चीन की सभ्यता कितनी पुरानी है, इसका ठीक ठीक पता नहीं लगाया जा सता। पेकिंग से दक्षिण-पश्चिम 37 मील की दूरी पर एक पहाड़ी कंदरा में ऐसा कंकाल मिला है, जिसको देखने से पता चलता है कि उस मानव को आग जलाना, पत्थरों के औजार बनाना और जंगली जानवरों को मारना आता था। लाखों वर्ष पूर्व जीनेवाले इस मानव को हमारा पूर्वज माना जाता है। आधुनिक कुछ विद्वानों का मत है कि यह कंकाल विश्वसनीय नहीं है। इससे अधिक विकसित मानवों के कंकाल मंचूरिया, मंगोलिया, उत्तरी और पश्चिती चीन में पाए गए हैं। रूसी लोगों को ऐसे प्रमाण रूसी तुर्किसतान तथा साइबेरिया में प्राप्त हुए हैं। उस समय हस्तकलाओं का विकास हो रहा था। इसे 'पूर्व पाषाण युग' कहा जा सकता है। 25,500 से 20,000 वर्ष पूर्व तक 'उत्तर पाषाण युग' था। ऐसा प्रतीत होता है कि इसके प्रारंभिक काल में पूर्वी एशिया में हिमपात के कारण जीवन कुछ कष्टप्रद हो गया था। संभवत: इसी समय आँधियों के चलने के कारण जीवन कुछ कष्टप्रद हो गया था। संभवत: इसी समय आँधियों के चलने के कारण तारिम और गोबी रेगिस्तान तथा उत्तरी चीन के रेगिस्तान तथा उत्तरी चीन के रेगिस्तानी टीलों का निर्माण हुआ होगा। इस युग का सबसे प्रारंभिक रूप लगभग 3500 ई.पू. का मिलता है, जिसमें पत्थर और हड्डी के अच्छे औजार, मिट्टी के बर्तन, सूअरों की हड्डियाँ और कंदरा के निवासस्थान प्रमुख हैं। लगता है, इस युग में सामाजिक जीवन प्रारंभ हो चुका था। इसी युग में धीरे धीरे उन लोगों ने मक्का, सन, गेहूँ और चावल की कृषि प्रारंभ की, औजारों को अच्छा रूप दिया, कुत्ते और अन्य जानवरों को पालना शुरू किया। पाषाण युग के अंतिम काल में पूर्वी चीन के अनेक क्षेत्रों में चाक से बने एक विशेष प्रकार के बर्तन ह्वांगहो नदी की द्रोणी (बेसिन) से निकाले गए हैं। इस काल के निवासी मुख्यत: खेती पर आश्रित थे। ये गाय, बैल, बकरी और भेड़ आदि पालते थे। कला और निवास के क्षेत्रों में इन्होंने पर्याप्त विकास कर लिया था।

2000 ई.पू. से 1800 ई.पू. तक ताँबे के औजारों, पहिएवाली गाड़ियों तथा लिपि के प्रयोग के प्रमाण मिले हैं। ह्वांग हो की घाटी में इस युग में राज्य और सरकार का भी प्रारंभिक रूप विकसित हो रहा था। 1523-1027 ई.पू. में शांग वंश की राजधानी की खोज से इस युग के वैभव का पता चल गया है। इस समय के लागों को लिपि, अंक, रथनिर्माण, शस्त्रास्त्र आदि के निर्माण का अच्छा ज्ञान था। इस वंश के राजा युद्ध करते थे और अपने राज्य का विस्तार करते थे राजा 'त्ति' नामक देवता की पूजा करते थे। वे विद्वानों से परामर्श करते थे, जिनके प्रश्न और उत्तर कछुए की पीठ की हड्डियों तथा अन्य जंतुओं की हड्डियों पर खुदे हैं और जो उस युग के इतिहास को स्पष्ट करते हैं। इस युग में कृषि, पशुपालन और हस्तकलाओं के साथ रेशम का धंधा भी पनपने लगा था।

(ख) प्रारंभिक युग 


पूर्व युग शांग वंश के अंतिम शासक 'चाऊ शिन' के अत्याचारों से समाप्त हो गया। पश्चिमी सीमा पर 'चाऊ' प्रांत था, जहाँ के शासकों ने 'चाऊ शिन' को दंडित किया। 'चाऊ' के शासक वेनवांग का नाम प्रसिद्ध है, जो आदर्श शासक था और जिसने 'चाऊ शिन' की क्रूरता का विरोध किया था।

चाऊवंश 


'चाऊवंश' का शासन चीन में लंबे समय तक (1027-256 ई.पू.) तक चलता रहा। 8वीं शताब्दी तक इस वंश के लागों के पास सामंती उपाधियाँ और अधिकार थे। 771 ई.पू. में इस वंश के लोगों में विद्रोह हुआ और राजा को मार डाला गया। इसके बाद भी चाऊ वंश के राजा 500 वर्ष तक राज्य करते रहे, किंतु उनकी सैनिक शक्ति और प्रशसनात्मक क्षमता क्षीण ही होती गई। 'चाऊ वंश' के शासक खंडित हो गए और छोटे छोटे राज्य बड़े राज्यों के द्वारा युद्ध, राजनीति, संधि तथा रक्षादीवार बनाकर मिला लिए गए। तीसरी शताब्दी ई.पू. के मध्य पश्चिमोत्तर सीता पर स्थित प्रांतों के शासक चिन वंशवालों ने अपना प्रभाव बढ़ाया और उन्हीं का शासन स्थापित हो गया।

चीनी लोग 'चाऊ वंश' के शासनकाल को अपना महत्वपूर्ण युग मानते हैं। उस समय साहित्य और कला की बहुत उन्नति हुई। गद्य और पद्य दोनों का प्रारंभ इसी युग में हुआ। अनेक अध्यापक, विचारक, दार्शनिक, इतिहासकार, राज्य परामर्शदाता आदि इस युग में हुए। मुणांग की यात्राएँ प्रसिद्ध हैं। परिवार और राज्य के उत्तरदायित्वों का विकास हुआ। धर्म की अनेक धारणाओं का उदय हुआ। इसी युग के महान्‌ दार्शनिक कन्फ्यूशस (551-479 ई.पू.) का नाम प्रसिद्ध है, जिसने मनुष्य की प्रकृति की शुद्धता और पवित्रता पर जोर दिया तथा क्रूर शासकों के विरुद्ध विद्रोह का समर्थन किया। लाओ च्यांग या ताओवाद द्वारा व्यक्ति को प्रधानता दी गई और वैयक्तिक स्वच्छंदता का समर्थन हुआ। कन्फ्यूशस और लाओ च्यांग के अतिरिक्त एक तीसरे प्रकार के भ्ज्ञी दार्शनिक इस युग में हुए, जिन्हें विधिवादी कहा जा सकता है। कला, दर्शन, साहित्य और विचार के प्रगति के साथ ही साथ इस युग में कृषि और उद्योगों के क्षेत्रों में भी बहुत विकास हुआ। सिंचाई की व्यवस्था, सेना का संगठन, लाख के उपयोग, ताम्रदर्पण और स्वर्ण्‌ आभूषणों के उत्पादन का प्रारंभ इसी समय हुआ।

चिन वंश 

(221-207) चीन में प्रथम साम्राज्य चिन वंश द्वारा स्थापित हुआ। सांमती व्यवस्था को समाप्त करके शिहुआंग ति ने देश को पहले 36 और बाद में 41 प्रशासकीय इकाइयों में बाँट दिया। राजधानी से देश के अन्य भागों को जोड़ने के लिये उसने कई लंबे मार्ग बनवाए। उसके शासन में गाड़ियों के पहिए, बाँट, नापने की अन्य इकाइयाँ और लिखने की विधि में एकरूपता का अनिवार्य कर दिया गया था। सिंचाई तथा उत्तरी बर्बर जातियों के आक्रमणों से चीन रक्षार्थ लंबी दीवार जैसे जनकार्यों को उसने व्यवस्थित किया। केंद्रीय सरकार शासन में करसंग्रह, लोहे, नमक तथा मुद्रा पर एकाधिकार, श्रम के लिय श्रमिकों का चिह्नीकरण और सेना के संगठन पर पूरा अधिकार रखती थी तथा उसी के अंतर्गत ये बातें थीं। पहले के साहित्य को जला दिया गया। सामंतों को राजधानी में आकर रहने की आज्ञा दी गई, जिससे उनके ऊपर सम्राट् की दृष्टि सदा पड़ी रहे। जनसंख्या को एक स्थान से दूसरे स्थान पर बदला गया, जिससे विद्रोह न हो सके तथा राष्ट्र की रक्षाव्यवस्था सुदृढ़ हो। पश्चिमोत्तर में देश के शत्रुओं सिंगनू या हुंस को ह्वागं-हो नदी के क्षेत्र से भागना पड़ा। प्रथम शासक के देहांत के बाद ही चिनवंश का पतन होने लगा।

पूर्वहान वंश


(202 ई.पू.-220ई.)  शिह हुयांग-ति की मृत्यु के बाद कुछ वर्षों तक अराजकता रही, लेकिन इसी बीच गरीब परिवार में एक नेता लिउपैंग (202-195 ई.पू.) पैदा हुआ, जिसमें सैनिक तथा राजनीतिक योग्यता थी। पश्चिमोत्तर क्षेत्र में उसने राजधानी को पुनर्गठित किया और चिन साम्राज्य के दक्षिणी भाग को छोड़कर सभी क्षेत्रों को अपने अधिकार में कर लिया। 196 ई.पू. में उसने योग्य लोगों को शासन में सहायता के लिये आमंत्रित किया। उस काल में कन्फ्यूशस के सिद्धांतों, राजतंत्र, न्याय, शांति और अनुशासन में विश्वास करनेवालों को विद्वान्‌ और योग्य समझा जाता था। इस काल में सीमाओं पर बराबर आक्रमण होते रहे, जिनमें ह्यूंगन का आक्रमण अत्यंत प्रबल था। वास्तव में उत्तर-पश्चिम सीमा पर तुर्की, टुंगसों, तातारों, मुगलों और माचुओं का खतरा चीनी इतिहास में सदा बना रहा। हान सम्राट् बु-टि (140-87 ई.पू.) ने आक्रमणकारियों का सामना करने के लिये मध्य एशिया या पश्चिमी एशिया के लोगों से मित्रता का संबध स्थापित किया। हिंद महासागर के किनारे स्थित देशों से भी इस वंश वालों ने दूत संबंध स्थापित किया। ईसा से एक शताब्दी पूर्वकाल में इस प्रकार वंश ने मध्यएशिया, कोरिया, और हिंदचीन में अपना प्रभाव बढ़ाया था। उस युग में चीन निवासियों के चिह्न इन क्षेत्रों में प्राप्त हुए हैं। सन्‌ 9 में शासकों को कमजोर पाकर एक योग्य मंत्री वैंग मैंग शासक बना किंतु पीत नदी ने दोबारा बाढ़ की प्राकृतिक विपत्ति ला दी जिससे विद्रोह हुआ और उसका शासन समाप्त हो गया। सन्‌ 25 में वैंग मैंग की मृत्यु के बाद पुन: हानवंश का राज्य स्थापित हो गया और राजधानी मध्य चीन लौयांग में लाई गई। शांति स्थापित होने के बाद रोनकिन, अनाम और हैनान पर सन्‌ 42-43 में अधिकार किया गया। 90 ई. में चीनी पामीर के पार गए और कुशन वंश से इनका संपर्क हुआ। जापान से चीन का संबंध सन्‌ 57 में स्थापित हुआ। वैभव, विलास और प्राकृतिक विपत्तियों के कारण किसान विद्रोह हुआ ओर 220 ई. में यह वंश समाप्त हो गया। इस वंश से चीनी लोग इतने गौरव का अनुभव करते हैं कि वे अपने को 'हानवंश की संतान' कहते हैं। इतने बड़े ओर विशाल क्षेत्र के शासन के लिये नया गठन हुआ। शिक्षा की इतनी उन्नति थी कि द्वितीय श्ताब्दी में केवल चिकित्सकों के महाविद्यालय में 30000 विद्यार्थी थे। सु मा च्येन और पॉन क्यू इसी युग के इतिहासकार हैं। ज्ञानविज्ञान, कला, उद्योग, दर्शन ओर साहित्य प्रत्येक दिशा में इस युग में उन्नति हुई।

विभाजन की शताब्दियाँ या शासन (220-583)  चीन तीन भागों 'व्ये, व्यू और श्यू' में विभक्त हो गया। 265 ई. में एक नेता ने चीन की एकता के लिये चेष्टा की किंतु वह विफल रहा। राजनीतिक व्यवस्था के दृष्टिकोण से चीन के इतिहास का यह अंधकार युग है, किंतु साहित्य, दर्शन और संस्कृति की सराहनीय उन्नति हुई। चित्रकला, वास्तुकला, जलयान-निर्माण-कला ओर अनेक कलाओं का विकास हुआ। 100 ई. में कागज का आविष्कार हुआ था, उस कला को और पूर्ण करने का प्रयास हुआ। जीवनदर्शन पर कन्फ्यूशस का प्रभाव कम होने लगा तथा ताओवाद में अराजकता बढ़ने लगी। इसी युग में भारत से बौद्धधर्म आया और लगभग पूरा चीन उसके प्रभाव में हो गया।

सूइ (590-618) और तांगवंश


(618-906 ई.)  उत्तरी क्षेत्रों के एक वंश ने 590 ई. में अराजकता का अंत किया और अब यांग च्येन का उदय हुआ। इस शासन ने अनेक महत्वपूर्ण सफलताएँ प्राप्त कीं चीन का एकीकरण किया गया, फारमोसा और पेंघू द्वीपों पर आक्रमण किया गया, मंगोलिया के कुछ पूर्वी और कुछ पश्चिमी तुर्क सामंतों को अधीन किया गया, कुछ मंगोलों को तिब्बत भगा दिया गया और पूर्वी द्वीप समूह से संबंध स्थापित किया गया। सन्‌ 618 में लि-युवान और लिशिह-मिन नामक पिता और पुत्र ने मिलकर तांग वंश की स्थापना की। चीन के राजनीतिक विकास में इस वंश का अत्यंत महत्वपूर्ण योग है। देश को प्रांतों मं बॉटना, भूमि का वितरण, सरकारी नौकरियों के लिय परीक्षा, शिक्षा का प्रसार, सिंचाई व्यवस्था, विधिसंहिता, विदेशी प्रभाव, कोरिया और मंचूरिया में संरक्षित राज्यों की स्थापना, नेपाल, तिब्बत, भारत, फारस से संबध आदि अनेक दिशाओं में देश प्रबल और सुव्यवस्थित हो गया। इस काल में महान्‌ कवियों, शिल्पकारों, चित्रकारों, लेखकों और दार्शनिकों का जन्म हुआ। लकड़ी के ब्लाक बनाकर मुद्रण कला का प्रारंभ और विकास किया गया।

पाँच वंशावलियाँ


(907-960)  शक्ति के प्रलोभन से राज्यों की स्थापना के परिणामस्वरूप उत्तर ल्यांग उत्तर तांग, उत्तर-चिन, उत्तर हान और उत्तर चाऊ पाँच वंशों का जन्म हुआ। इस काल में साहित्यिक, धार्मिक और दार्शनिक ग्रंथों का प्रभूत प्रकाशन हुआ जिससे मुद्रण कला और विकसित हुई। इसी समय स्त्रियों का एक संस्कार प्रारंभ हुआ; पैरों को जूतों से बाँधना, जिससे स्त्रियाँ हजारों वर्ष तक कष्ट झेलती रहीं।

शुगंवंश (960ई.-1279ई.) : 960 ई. में उच्च कुल के एक सरदार चाओ कुआंग-दिन ने सत्ता पर अधिकार किया और चीन के मध्यवर्ती राज्यों को एकता के सूत्र में बाँधा। इस वंश के राजाओं ने चीन की शक्ति बढ़ाई। 1126 ई. में जब इनकी राजधानी कैफेंग पर चढ़ाई हुई तो सम्राट् अपने 3000 दरबारियों के साथ प्रवास के लिये चला गया। इसी देश में प्रथम बार समुद्री यात्रा और समुद्री व्यापार प्रारंभ किया गया तथा भारत और हिंद महासागर के अन्य देशों से व्यापारिक संबंध प्रारंभ किया गया। बड़े बड़े नगर स्थापित किए गए सिंचाई की व्यवस्था में नए प्रयोग किए गए। इसी समय बंदूकों और तोपों का प्रभावशाली उपयोग सैनिक कार्यो में किया गया। चीन की भूमि पर इस युग में खितन (मंगोल) तथा तैंगट (तिब्बतों) जैसे विदेशी वंशों का भी प्रभाव बढ़ा, किंतु चीनी संस्कृति की मौलिक आवश्यकताओं में वे विलीन हो गए।

युवान वंश (1260-1368) :


मंगोलिया के लाग इंधर उधर ब्ख्रोि हुए थे, उन्हें ठोस एकता के सूत्र में उनके नेता तैमुजिन (चिंगेज खाँ) ने बाँध दिया (दे. चिंगेज खाँ)। उन लोगों ने धीरे धीरे चीन के सभी राज्यों पर अधिकार कर लिया और अंत में सन्‌ 1279 में शुंग चीन पर भी अधिकार कर लिया, जिससे इतिहास में प्रथम बार पूरा चीन विदेशी शासन में चला गया। गेनजिस का पौत्र 'कुबलाय' इस देश का प्रथम सम्राट् हुआ और पेकिंग को उसने अपनी शीतकालीन राजधानी बनाई। मंगोलों का बहुत विशाल साम्राज्य था, इसीलिये उन लोगों ने चीनी वैज्ञानिकों, कलाकारों और विद्वानों का उपयोग पश्चिमी एशिया में किया। उन्हीं के माध्यम से चीनी संस्कृति की बहुत सी देन यूरोप और एशिया में पहुँच गई; जैसे कागज, बारूद, कुतुबनुमा, घड़ी, मुद्रणालय आदि।

मिंगवंश (1368-1644) :


दक्षिणी प्रांतों में विद्रोह प्रारंभ हो गया था और 1368 ई. में खान बालिक (पेकिंग) पर चीनी सेना ने अधिकार कर लिया था। इसके बार मंगोलों को कोरिया, मंचूरिया और युनान सभी स्थानों से हटना पड़ा, यहाँ तक कि ग्रीष्मकालीन राजधानी कराकरेम को भी छोड़ना पड़ा। 1404-1405 में तैमूरलंग ने मंगोल सेना का नेतृत्व किया और चीन पर पुन: विजय प्राप्त करने की चेष्टा की, किंतु उसका देहांत हो गया। विद्रोही नेता चू-यान च्यांग ने शक्ति संगठित करके 1368 में मिंगवंश की स्थापना की। इस वंश का प्रभाव केवल मुख्य चीन पर ही नहीं रहा, बल्कि समय समय पर मंचूरिया और मंगोलिया भी इसके अधीन रहे। इस वंश के तीसरे सम्राट् चू-तो ने राजधानी को नानकिंग से पेकिंग बदल दिया। अनेक पड़ोसी देशों से दूतसंबंध स्थापित करके उसने चीन की प्रतिष्ठा को बढ़ाया। इस सम्राट् ने सात समुद्री दूतसमूहों को हिंद महासागर के भिन्न भिन्न देशों में भेजा। 1514 ई. में पुर्तगाली, 1543 में स्पेन निवासी, 1622 में डच और 1637 में अंग्रेज चीन की भूमि पर उतरे। जापानी समुद्री डाकुओं से तटीय व्यापार त्रस्त रहता था। 1413 ई. में तिब्बत मंगोलों से स्वतंत्र हुआ। 1449 ई. में चीनी सेना को मंगोलों ने हरा दिया। 1567 तथा 1619 ई. में रूसी सरकार ने चीन से संपर्क स्थापित करने की चेष्टा की। तोयोताभी हिदयोशी नामक नेता के साथ जापानी आक्रमण (1592-1593) कोरिया पर हुआ और छह वर्ष तक भीषण युद्ध करके उन लोगों को भगा दिया गया। देश की राजनीतिक स्थिति तो ठीक नहीं थी, लेकिन अन्य क्षेत्रों में महत्वपूर्ण कार्य किए गए। नगरों के पुनरुत्थान, उत्पादन की वृद्धि, जलमार्मो का विकास तथा रक्षा के साधनों की उन्नति के लिये राज्य ने प्रयास किया। राजकीय सेवाओं के लिये पुन: परीक्षाएँ प्रारंभ हुई। कपास तथा गन्ने की जातिं के लंबे अन्न के पौधों, तंबाकू, मक्का आदि की खेती होने लगी। विश्वकोश भी प्रकाशित किए गए। भूगोल, संगीत, भाषा, चिकित्सा के क्षेत्र में नए नए आविष्कार किए गए। चित्रकला और चीनी मिट्टी की कला का विकास होता गया।

चिंगवंश (1644-1912) :


मंगोलिया और कोरिया में अपनी शक्ति को ठोस बनाकर मांचूवंश के लोगों ने विभक्त चीन पर आक्रमण किया। 1659 ई. में मिंगवंश के अंतिम उत्तराधिकारी को समाप्त कर दिया गया। लगभग 100 वर्ष तक शांति रही, जिससे राष्ट्रीय संस्कृति का विकास होता गया। साम्राज्य और जनसख्या तीव्रता से बढ़ती गई। गणित, इतिहास, और ग्रंथरचना में बहुत प्रगति हुई। माचूवंश के शासकों ने अपने सरकार को मिगवंश के शासन जैसा ही रखा। प्रशासनात्मक प्रबंध निर्बल पड़ता गया और उनके विरुद्ध विद्रोह की आग सुलगती गई। 1899-1900 ई. में विद्रोहियों के एक गुप्त संगठन ने मांचूवंश को समाप्त किया। इस वंश में यूरोप के देशों से व्यापारिक संबंध काफी दृढ़ रहा। 1729 में अफीम बेचने पर रोक लगाई गई और 1796 ई. में उसके आयत पर प्रतिबंध लगा दिया गया। अंग्रेज और अन्य विदेशी व्यापार उसे कैटन तक ले जाने का आग्रह करते रहे, जहाँ से चीन जनता पा जाए। 1840-42 में इसके लिये संघर्ष हुआ और अंग्रेज जीत गए। हांगकांग का बंदरगाह अफीम के व्यापार के लिय स्वंतत्र कर दिया गया। इसके बाद 200 वर्ष के भीतर ही 11 अन्य बंदरगाहों से अफीम व्यापार का बंधन उठा लिया गया। धीरे धीरे यूरोपीय संस्कृति और ईसाई धर्म का प्रचार बढ़ने लगा।

1860 ई में अंग्रेज और फ्रांसीसियों ने अपने ऊपर प्रतिबंधों के लगने के बावजूद पेकिंग में प्रवेश किया और राजमहलों को लूटा तथा जलाया। चीन की दशा बहुत बिगड़ती गई। जापान, रूस, इंग्लैंड फ्रांस, जर्मनी, सभी चीन को लूटने लगे और ऐसा प्रतीत हुआ कि संसार के साम्राज्यवादी देश चीन को कई टुकड़ों में विभक्त कर देंगे। चीनी किसानों को मजदूरों के रूप में विश्व के उपनिवेशों में भेजा गया। 1899ई. में अमरीकी राजसचिव जान हे ने ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, रूस, इटली और जापान से यह प्रस्ताव किया किया कि चीन को अंतर्राष्ट्रीय व्यापार का 'मुक्तक्षेत्र' बनाया जाय और वहाँ की सरकार को स्वतंत्र बनाकर उसका सुधार किया जाय। इसके पूर्व चीनी नेता कांग-यू-वे, ल्यां चि-चाओ आदि ने मांचू सम्राटों को शिक्षा, राष्ट्रीय सेना, साहित्य, न्याय, कृषि, उद्योग, अनुवाद और अन्य धार्मिक सुधारों के लिये विवश किया। ज्यू-शि नाम की साम्राज्ञी बड़ी जिद्दी और दुष्टा थी, उसने सभी सुधारों को बंद कर दिया और सुधारकों को बंदीगृह में डाल दिया। बॉक्सर गुप्त दल ने जनता की भावना को विदेशियों के विरुद्ध भड़काया। फलत: गिरजाघरों तथा राजनयिक विदेशी निवासों पर आक्रमण हुआ और बहुत से निर्दोष लोगों की भी हत्या कर डाली गई। जून, 1900 में यह भीषण हत्यापूर्ण विद्रोह हुआ, फिर कोरिया चीन के हाथ से निकल गया। सुधारों के लिये आंदोलन प्रबल पड़ने लगा। जापान, फ्रांस आदि से शिक्षित युवक आए और चीनियों ने चीन में प्रजातंत्र की स्थापना कीं स्वप्न देखा और उसी दिशा में पूरी राष्ट्रीय शक्ति लग गई।

(ग) आधुनिक युग (1912-1944) 


सितंबर, 1911 में रेल की सड़कें बनाने की योजना का जब जनता से विरोध किया और चेंगतू के प्रशासक ने उन्हें गोली से मरवा दिया तो पूरे प्रांत में विद्रोह की ज्वाला भड़क उठी। इसके बाद यह ज्वाला पूरे देश में फैल गई। पेकिंग में देश के स्वतंत्र शासन के लिये 'राष्ट्रीय परिषद्' की स्थापना हुई, जिसने राजकुमार चुन्‌ से त्यागपत्र देने के लिये कहा। 7 नवंबर को युवान शिह-काई राष्ट्रीय परिषद् के प्रधान पंत्री निर्वाचित हुए। वे सेना के अधिकारी थे। 1 दिसंबर को बाह्य मंगोलिया को स्वतंत्र घोषित कर दिया गया। क्रांति के सर्वोच्च नेता सुनयात सेन विदेशों से 1 जनवरी, 1912 मो लौटे तो उन्हें दक्षिणी प्रांतों का नानूकिंग में अध्यक्ष घोषित कर दिया गया। 12 फरवरी, 1912 ई को मांचूवंश का पतन हो गया। इसके बाद सुनयात सेन ने त्यागपत्र दिया और 10 मार्च को युवान को चीन का अध्यक्ष बना दिया गया। सरकार की राजधानी पेकिंग में बदली गई और 11 मार्च को विधान की घोषणा की गई, जिससे चीन को वास्तविक स्वतंत्रता प्राप्त हो गई।

प्रथम विश्वयुद्ध


(1914-1918) के प्रारंभ होते ही जापान ने जर्मनी को बलपूर्वक शानटुंग प्रायद्वीप के क्षेत्र को छोड़ने के लिये चुनौती दी; चीन ने तटस्थता की रक्षा के लिये इसका विरोध किया तो चीन से जापान ने कई अवैधानिक माँगें प्रस्तुत की। चीन ने इसके उत्तर में अपनी माँगें रखी किंतु चीन इतना निर्बल था कि उन माँगों को कार्यान्वित नहीं करा सका। योरोप युद्ध में फँसा था और संयुक्त राज्य अमरीका इस संघर्ष में सैनिक सहायता नहीं देना चाहता था इसीलिये जापान ने रूस, फ्रांस, इटली और ब्रिटेन से गुप्त संधियाँ की और चीन के क्षेत्रों को हड़पना चाहा। चीन की गृहदशा बिगड़ रही थी; युवान निरंकुश सम्राट् बनने का स्वप्न देखने लगा था। जुलाई, 1913 में विरोधी दलों के द्वारा सुनयात सेन के नेतृत्व में संगठित विद्रोह को युवान ने दबा दिया। कोमिनटांग या राष्ट्रीय दल को नंवबर, 1913 से मई, 1914 तक उसने अवैधानिक घोषित किया, उसके सदस्यों को राष्ट्रीय परिषद् से निकाल दिया, बाद में प्रांतीय विधान सभाओं और राष्ट्रीय परिषद् को भंग कर दिया तथा एक नई 'परामर्शदात्री प्रशासनात्मक परिषद्' का निर्माण किया, जिसने नया विधान तैयार करके उसके कार्यकाल तथा अधिकारों को बढ़ा दिया। 1915-16 में दक्षिणी प्रांतों में विरोध हुआ और युवान को प्रजातंत्र के सिद्धांतां में विश्वास के लिय विवश होना पड़ा। 6 जून, 1916 को वह मर गया।

युवान के बाद लि युवान टंग अध्यक्ष हुए। यद्यपि इन लोगों ने विधान को सुधारने की चेष्ट की किंतु युवान ने व्यक्तिगत शक्तिलोलुपता, अत्याचार तथा बलप्रयोग की जो परंपरा कायम की थी, वह 10-11 वर्ष तक चलती रही। चीन छोटे छोटे युद्धाधिकारियों के शासन में खंडित रहा और ये लोग निजी स्वार्थ के लिये जनता को कुचलते रहे तथा अफीम का उत्पादन और व्यापार चलाते रहे। दमन और शोषण के इस वातावरण में साम्यवादी आंदोलन भी पनपता रहा। इसी बीच च्यांग काई शेक के नेतृत्व में राष्ट्रीय दल के अनुदार मोर्चे ने केंद्रीय शक्ति पर अधिकार कर लिया। नानकिंग में राजधानी बनाई गई। काफी समय तक सभी युद्धलोलुप नेता जापान के विरुद्ध एक नेतृत्व में बँधे रहे। 1917 ई. में संयुक्त राज्य अमरीका के प्रस्ताव से चीन सहमत हो गया और जर्मनी के विरुद्ध युद्ध में आ गया। जर्मनी को मिलनेवाली सभी सुविधाएँ चीनने रोक दीं और उसके लगभग, 2,00,000 सैनिक फ्रांसीसी, अंग्रेज और अमरीकी सेवाओं में भर्ती हो गए। पेरिस में जापान ने शानटंग पर अपना अधिकार घोषित किया, जिसका चीन के प्रतिनिधियों ने विरोध किया। परिणाम यह हुआ कि जापान ने 'वार्साई की सधि' पर हस्ताक्षर नहीं किया और लीग ऑव्‌ नेशंस का सदस्य बन गया। 1921-22 में वाशिंगटन संमेलन में चीन और जापान दोनों संमिलित हुए और 'शानटंग समस्या' का सुलझाने पर सहमत हो गए। धीरे धीरे चीन ने समुद्री व्यापार, विदेशी शासन में बँधे क्षेत्रों, हानकाऊ, तेनसिन तथा किउकयांग आदि पर अधिकार बढ़ाया। 1926 में शंधाई के लिये बनाई गई 'अंतर्राष्ट्रीय समिति' में चीन के भी तीन सदस्य लिए गए। 1928 में दीवानी और फौजदारी कानूनों के लिये नई संहिताएँ घोषित की गई। धीरे धीरे चीन ने अपनी सत्ता को सबल बनाया।

चीन जापान युद्ध :


1931 ई. में अचानक जापान ने चीन पर आक्रमण कर दिया। मंचूरिया पर आक्रमण कर शंघाई को ध्वस्त कर दिय गया। 'लीग ऑव नेशंस' ने जापानी हमले को रोकने का विफल प्रयत्न किया। 1933 की सैनिक संधि के फलस्वरूप जापान जेहोल सहित्त मंचूरिया का स्वामी बन गया। होपेय का पूर्वी भाग भी उसके अधिकार में आ गया। चीनी बाजार में जापानी सामानों को भरकर, मंगोलों को आक्रमण में सहायता देकर और चीनी अधिकारियों के साथ अपमानजनक व्यवहार करके जापान ने चीन को खूब सताया। 1937 तक चीन का प्रजातंत्र च्यांग काई शेक के नेतृत्व में अत्यधिक बलशाली हो गया। साम्राज्यवादी फ्यूकिन और कवांगसी से उत्तर की ओर खदेड़ दिए गए और जापान के विरुद्ध लड़ने के लिये वे तैयार हो गए। राष्ट्रीय सेना में साम्यवादियों को भी भर्ती किया गा। सड़कें बन गईं तथा सेना को आधुनिक शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित कर दिया गया। पेकिंग के पश्चिम में, चीन-जापान-संघर्ष प्रारंभ हुआ और तीव्र विरोध के बाद भी दिसंबर, 1937 में नानकिंग का पतन हो गया। 1938 में हानकाई के पतन के बाद चुंगकिंग में राजधानी बनाई गई। रूस और अमरीका से मदद की गति धीमी थी। इसलिये चीन हारता ही गया। जापान ने दिसंबर, 1941 में हांगकांग पर अधिकार कर लिया। फिर द्वितीय विश्वयुद्ध 1939-45 के नए रूप का प्रारंभ हुआ।

1945 ई. में जर्मनी पर विजय प्राप्त करने के बाद रूस ने मंचूरिया में प्रवेश किया। संयुक्त राज्य की हवाई और जलसेना ने उसी समय जापान पर आक्रमण किया। जापान ने आत्मसमर्पण कर दिय। इससे वार्ता करके मंचूरिया पर अधिकार करने की चेष्टाकी गई। नानकिंग पुन: चीन की राजधानी बनाई गई। 1945-1946 में संयुक्त राज्य अमरीका ने चीन में शांति के लिय अथक प्रयास किया, किंतु सफलता नहीं मिली। आर्थिक संकट, युद्ध में हार, सामानों का अभाव, कुशासन तथा भ्रष्टाचार के कारण चीनी जनता के हृदय में राष्ट्रवादी सरकार के विरुद्ध असंतोष की ज्वाला भड़क गई। 1948 के बाद सम्यवादी सेनाएँ विजय प्राप्त करने लगीं और 1 अक्टूबर, 1949 को चीन में साम्यवादी चीन के जनतंत्र (पीपुल्स रिपब्लिक) की स्थापना हुई।

(घ) द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद का चीन 


साम्यवादी क्रांति की सफलता के बाद 'चीनी जनतंत्र' की घोषणा की गई। माओ त्से तुंग इस जनतंत्र के अध्यक्ष और चाऊ एन लाई इसके प्रधान मंत्री घोषित हुए। 1949 में रूस ने सर्वप्रथम 'चीनी जनतंत्र' को मान्यता दी; बाद में पौलेंड, हंगरी, रूमानिया, बलगेरिया, चेकोस्लोवाकिया और अलबानिया ने मान्यता दी। इसके बाद भारत, लंका, बर्मा, हिंद एशिया, मिस्त्र और युगोस्लाविया आदि देशों से चीन को मान्यता प्राप्त हुई। 1950 में ग्रेट ब्रिटेन की 'लेबर सरकार' ने चीन से संबंध स्थापित किया। नार्वे, अफगानिस्तान, नीदरलैंड और पाकिस्तान ने भी चीन से संबंध किया, किंतु संयुक्त राज्य अमरीका तथा संयुक्त राष्ट्रसंघ में चीन को अभी तक मान्यता नहीं प्राप्त हो सकी। च्यांग काई शेक ने फारमोसा में राष्ट्रवादी सरकार स्थापित की और उन्होंने वहाँ से चीन के लिय 'मुक्ति आंदोलन' चलाया। 27 जून, 1950 को अमरीका के राष्ट्रपति ट्रमन ने कोरिया युद्ध कै समय फारमोसा की रक्षा के लिये अपनी जलसेना के 7वें बेड़े को प्रशांत सागर में रखने की घोषणा की। अक्टूबर, 1950 में चीन ने तिब्बत पर हमला किया और मई, 1951 में पंचेन लामा को मिलाकर उसपर अधिकार कर लिया। दलाई लामा हजारों अनुयायियों के साथ भारत में आ गए। 26 नवंबर, 1950 को चीनी सेना कोरिया की ओर आगे बढ़ी और संयुक्त राष्ट्र संघ तथा दक्षिणी कोरिया की सेना को पीछे हटने के लिय विवश किया। 27 जुलाई, 1953 को एक संधि हुई और 'युद्धविराम रेखा' निर्धारित की गई। इस संधि की एक बड़ी विशेषता यह थी कि मुक्त होने के बाद 74 प्र.श. चीनी सैनिकों ने साम्यवादी सरकार की निरंकुशता और बर्बरता के करण चीन लौटकर जाना अस्वीकार कर दिया।

भारत की नीति प्रारंभ से ही चीन से मित्रता रखने और उसे सहायता पहुँचाने की रही। सन्‌ 1949 में चीन में कम्यूनिस्ट शासन की स्थापना की घोषणा हो जाने पर भारत ने उसे अविलंब मान्यता दी और संयुक्त राष्ट्र संगठन में भी कुओर्मिटांग शासन के बदले इसी 'पीपुल्स रिपब्लिक' को स्थान दिलाने के लिये भारत ने प्रयत्न किए। इस नेकी के बदले चीन ने भारत के प्रति छल कपट की नीति अपनाई। चीन, भारत से यही कहता रहा कि दोनों देशों के बीच पंरपरागत चली आई सीमा उसे मान्य है, परंतु सन्‌ 1955 से चार वर्ष तक वह भारत की सीमा का सैनिक उल्लंघन समय समय पर करता रहा। इस छेड़खानी के प्रति भारत के विरोध और प्रतिवाद पर चीन ने तनिक भी ध्यान नहीं दिया और कुछ समय बाद लद्दाख के अक्सई चिन क्षेत्र में अपनी सेना के लिये सड़क भी बना डाली। सितंबर, 1959 में चीन ने भारत चीन की परंपरागत सीमा को अस्वीकार किया और भारत के 50000 वर्गमील क्षेत्र को अपना बताने का दावा किया।

भारत चीन सीमा के संबंध में सबसे मुख्य प्रश्न तिब्बत की स्थिति का था जिसकी सुलझाने के लिये भारत ने समझौते की बातचीत का सुझाव दिय। इसे पहले तो चीन ने स्वीकार किया परंतु दो महीने बाद ही 7 अक्टूबर, 1950 को उसने तिब्बत में अपनी फौजें भेजकर उसपर अधिकार जमा लिया। इस सैनिक कार्रवाई को भारत ने अनुचित तो माना परंतु चीन के साथ समझौते की बातचीत के परिणामस्वरूप भारत ने 1954 में तिब्बत को चीन का अंग मान लिया। ब्रिटिश शासनकाल में भारत को जो सुविधाएँ तथा अधिकार तिब्बत में प्राप्त थे, उन्हें छोड़ने की उदारता दिखाई। दोनों देशों ने पंचशील के सिद्धांत अपनाने की प्रतिज्ञा की, जिसके अनुसार भविष्य में भारत और चीन के बीच यदि कभी कोई झमेला उठे तो वह सद्भावपूर्ण बातचीत के आधार पर सुलझाया जाता। परंतु ये समझौता ही जैसे चीनी छल कपट के अध्याय की भूमिका थी। चीन ने भारतीय सीमा के अंतर्गत उत्तरप्रदेश के बाराहोती स्थान को अपना बतलाया और वहाँ से भारतीय सेना हटाए जाने की माँग की। चीन की यह माँग सर्वथा अनुचित और आश्चर्यजनक थी। चीनी सेना बाराहोती में घुस आई और भारत के विरोध पर उसने चीन सीमाक्षेत्र के ऐसे नक्शे पेश किए जिनमें भारत चीन सीमा के विभिन्न अंचलों की लगभग 50,000 वर्ग मील भारतीय भूमि चीन की सीमा के भीतर मानी गई थी। बाराहोती के अतिरिक्त उत्तर प्रदेश के दमजन स्थान में भी चीनी सैनिक घुस आए जो भारत की सीमा के 10 मील भीतर है। भारत द्वारा बारंबार आपत्ति करने पर भी चीन ने भारत के लोहित क्षेत्र के बालोंग स्थान में (1957) और लद्दाख के खरनाक किले पर (1958) अपना अधिकार जमा लिया। भारत ने आपत्ति की और विवाद को संयुक्त राष्ट्रसंघ में ले जाने का प्रस्ताव किया, किंतु उसपर ध्यान नहीं दिया गया। चीनियों ने कुछ भारतीय गश्ती सिपाहियों को पकड़ लिया और उनके साथ कठोर व्यवहार किया। उन्होंनेबाराहोती में ईटं गारा जमाकर अपनी स्थिति दृढ़ करना शुरू कर दिया। इसके सिवा मोटर की सड़क बनाना, लपथल में हवाई अड्डा बनाना और भारत के सीमांत क्षेत्रों पर हवाई जहाज उड़ाना शुरू किया। फलत: 10 दिसंबर, 1958 को भारत ने बाराहोती, लपथल और संगचमल्ला से हट जाने के लिये लिखा और चीन के भौगोलिक मानचित्र की भ्रमात्मकता पर चाऊ-एन-लाई का ध्यान आकर्षित किया। भारत भूमि की नभसीमा पर चीनी हवाई जहाजों की उड़ान पर आपत्ति की। इस प्रकार की लिखा पढ़ी पर 23 जून को चाऊ-एन-लाई ने उत्तर भेजा कि 'मेकमोहन' द्वारा निर्धारित सीमांत रेखा को चीन ने कभी स्वीकार नहीं किया और चीनियों की सीमांत रेखाएँ ही, पूर्वप्रकाशित मानचित्रों के अनुकूल होने से, विश्वसनीय हैं। ये सब बातें सन्‌ 1954 के समझौते के प्रतिकूल ठहरती थीं।

मार्च, 1957 में दलाई लामा तिब्बत से भाग कर भारत में आए। उनको इस शर्त पर शरण दी गई कि वह भारत में रहते हुए राजनीतिक मामलों से विरत रहें। किंतु चीनियों ने आपत्ति की और मई में यह आरोप लगाया कि भारत पंचशील का उल्लंघन कर रहा है। भारत सरकार ने इस धारणा को अनुचित एवं भ्रमात्मक बतलाया, साथ ही चीन सरकार द्वारा तिब्बत में भारतीय व्यापारियों और तीर्थयात्रियों आदि के प्रति उत्पन्न की गई असुविधाओं की ओर उसका ध्यान आकर्षित करते हुए, उन्हें दूर करने का प्रस्ताव भेजा। वे फिर भी अतिक्रमण और धर पकड़ करते रहे और नए अड्डे बनाते रहे। वास्तव में, उन्होंने उत्तरी-पूर्वी सीमाप्रांत के लाँग्जू नामक भारतीय अड्डे पर गोलाबारी के साथ आक्रमण किया। लद्दाख सीमा का उल्लंघन कर चालीस मील भीतर घुस आए और कुछ भारतीय सैनिकों को मारकर कुछ को पकड़ ले गए। इतने पर भी भारत ने सन्‌ 60 में प्रस्ताव किया कि वह अपने सैनिकों को सीमा रेखा से हटा लेगा किंतु चीनी सैनिक भी उन स्थानों से हट जायँ जो भरतीय सीमारेखा के अंतर्गत हैं। चीन ने उसपर ध्यान नहीं दिया, उलटे चीनी सैनिक भारतीय सीमारेखा के अंदर अन्य स्थानों में भी घुसने लगे। भारत के प्रधान मंत्री श्री नेहरू जी ने चाऊ-एन-लाई को आमंत्रित किया कि वह मौखिक वार्तालाप करके मामला साफ कर लें। चाऊ-एन-लाई आए किंतु समस्या हल न हुई और स्थिति पूर्ववत्‌ बनी रह गई। 3 जून, 1960 को चीनी सेना की एक टुकड़ी टैक्संग गोंप्य में घुस आई और इधर उधर सीमा का उल्लंघन करने लगी। भारत ने मार्च से अगस्त, 1960 तक के 52 उदाहरण भारत की सीमा के भीतर चीनी हवाई जहाजों की उड़ान के दिए किंतु, उसपर कुछ ध्यान देना तो दर रहा, वे इतस्तत: भारतीय सीमा के भीतर घुसते ही रहे और अड्डे जमाते रहे (1961)। यही सिलसिला सन्‌ 1962 में भी चलता रहा। 3मई, 1962 को भारत द्वारा आपत्ति करने पर भी पाकिस्तान ने कराकोरम की घाटी के पश्चिमी भाग की अनधिकृत भारतीय भूमि प्रदान कर, चीनियों से समझौता कर लिया। फिर भी चीनी भारत में अनाधिकार पदक्षेप करते ही रहे। वे विचार विनिमय के प्रस्ताव की भी अवहेलना करते रहे और अगस्त तक 18 नए अड्डे भारत भूमि पर बनाते चले गए। सितंबर में भी उत्तरी पश्चिमी प्रांत में अड्डों का निर्माण करते रहे।

20 अक्टूबर, 1962 को चीनियों ने पूर्वोत्तर तथा पश्चिमोत्तर सीमाक्षेत्र में बड़े पैमाने पर सैनिक कार्रवाई की और सुनियोजित आक्रमण कर वे भारत की सीमा में बहुत दूर तक बढ़ आए। भारत पर इस व्यापक चीनी आक्रमण की संसार के प्राय: सभी देशों ने निंदा ने निंदा की और इसके प्रतिरोध के लिये अमरीका, इंग्लैंड, रूस आदि ने सैनिक सामग्री की सहायता भी दी। चीन ने जिस आकस्मिक रूप में आक्रमण प्रारंभ किया था उसी प्रकार कुछ दिनों बाद अपना आक्रमण बंद कर दिया और प्रस्ताव किया कि चीन और भारत पारस्परिक बातचीत के आधार पर समझौता कर लें। भारत के जिन स्थानों पर चीनी सैनिकों का अधिकार हो गया था उनसे वह थोड़ा पीछे तो हट गए किंतु साथ ही यह धमकी भी दी कि जिन स्थानों से वे अपनी फौजें हटा रहे हैं उनपर पुन: अधिकार करने की चेष्टा यदि भारत ने की तो चीन फिर आक्रमण प्रारंभ कर देगा। भारत ने उत्तर में कहा कि 8 सितंबर, 1962 की सीमा संबंधी स्थिति जब तक चीन नहीं मान लेता तब तक समझौते की पारस्परिक बातचीत संभव नहीं है।

लंका, अरब गणराज्य आदि एशिया और अफ्रीका के छह तटस्थ देशों के नेतागण चीन-भारत-संघर्ष की समाप्ति के लिये प्रयत्नशील हुए। उन्होंने कुछ प्रस्ताव दोनों देशों की स्वीकृति के लिये स्थिर किए। इसमें कहा गया था कि चीन-भारत-सीमा पर 20 किलोमीटर का असैनिक क्षेत्र स्थिर किया जाय जिसके भीतर दोनों देश सैनिक कार्रवाई करने से विरत रहें। इस असैनिक क्षेत्र में भारत और चीन दोनों ही अपनी असैनिक चौकियाँ रखें। इन प्रस्तावों को लेकर लंका की प्रधान मंत्री श्रीमती भंडारनायक स्वयं चीनी प्रधान मंत्री चाऊ-एन-लाई और भारत के प्रधान मंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू से मिलीं। भारत ने तो इन प्रस्तावों को पूर्णरूपेण स्वीकार कर लिया परंतु चीन ने ऐसा करने से इन्कार किया। लार्ड रसेल ने प्रस्ताव किया था कि लद्दाख के असैनिक क्षेत्र में सैनिक चौकी बनाने से चीन और भारत दोनों विरत रहें और इस आधार पर इन दोनों देशों के बीच समझौते की सीधी बातचीत प्रारंभ हो। परंतु चीन ने इसे भी अस्वीकार कर दिया। अत: समझौते की बातचीत के सभी आधार चीन के दुराग्रह के कारण समाप्त हो चुके हैं। अक्साई चिन और लद्दाख के जिन भारतीय क्षेत्रों पर चीन नेसैनिक कार्रवाई द्वारा अनुचित अधिकार कर लिया है वहाँ इस बीच वह पत्थर गाड़कर अपनी सीमा रेखा निर्धारित कर रहा है। इसका भारत की ओर से प्रतिवाद किया गया है।

प्रशासनात्क स्वरूप :


राष्ट्रवादी सरकार ने 1947 में चीन को 35 प्रांतों में बॉट दिया था। प्रत्येक प्रांत कई शिट (जिलों) और स्येन (परगनों) में बँटे थे। इसके अतिरिक्त तिब्बत का विशेष क्षेत्र और 12 विशेष कोटि की म्यूनिसिपलटियाँ स्थापित हुईं। 1949 में साम्यवादी सरकार ने राजनीतिक स्वत्वहीनता के बावजूद फारमोसा को भी संमिलित करके 32 प्रांतों तथा 12 विशिष्ट म्यूनिसिपलटियों में बाँट दिया, जिन्हें छह बड़े प्रशासनात्मक क्षेत्रों के अंतर्गत रखा। 1956 तक 22 प्रांतों में चीन का पुनर्गठन किया गया और इसके अतिरिक्त तीन स्वायत्त शासन क्षेत्र बनाए गए, जिनके नाम तिब्बत, सिनक्यांग और आभ्यंतर मंगोलिया हैं। पेकिंग, शंघाई और तेनसिन तीन विशेष म्यूनिसपलटियाँ हैं। मुख्य चीन में 18 प्रांत हैं यह क्षेत्र देश के दक्षिणी-पूर्वी भाग में स्थित है। यद्यपि क्षेत्र फल की दृष्टि से यह देश का 36.7 प्र.श. है किंतु इस क्षेत्र में देश की 89 प्र.श. जनता रहती है। उत्तरी सीमा इस क्षेत्र की 1250 मील लंबी चीनी दीवार से बंद है। मंचूरिया में तीन प्रांत संमिलित हैं, जो उत्तर में अमूर नदी से लेकर दक्षिण में लायोनिंग तक फैला है। मंचूरिया का क्षेत्रफल 4,13,306 वर्ग मील और जनसंख्या 4,68,93,351 है। गोबी के रेगिस्तान के समीप मंगोलिया का पठार है, जिसमें बाह्य मंगोलिया तथा तूर्विनियन क्षेत्र रूसी प्रभाव में हैं और भीतरी मंगोलिया चीनी अधिकार में। 1956 में इस क्षेत्र की जनसंख्या 61,00,104 तथा क्षेत्रफल, 2,36,707 वर्ग मील था। सिक्यांग में भी पर्वतीय और रेगिस्तानी भाग हैं। इसकी सीमाएँ रूसी क्षेत्र का स्पर्श करती हैं। इसकी जनसंख्या 48,73,608 और क्षेत्रफल 60,976 वर्ग मील है। यहाँ की अधिकांश जनसंख्या तारिम नदी की घाटी में रहती है। तिब्बत के पठार को 'दुनियाँ की छत' कहते हैं। इसका क्षेत्रफल 4,69,413 वर्ग मील और जनसंख्या 12,73,969 है। तीन स्वतंत्र नगरों के नाम पेकिंग (क्षेत्रफल 6 वर्गमील, जनसंख्या 27,68,149), शंघाई (क्षेत्रफल 7 वर्ग मील और जनसंख्या 62,04,417) तथा तेनसिन (क्षेत्रफल 6 वर्गमील और जनसंख्या 26,93,831) है। (कृष्ण मोहन गुप्त)

Hindi Title

चीन


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अन्य स्रोतों से




संदर्भ
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बाहरी कड़ियाँ
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